08 October 2012

अदरक के स्वास्थ्य लाभ.....



अदरक रसोई घर या हर्बल दवाओं में भी पाया जाता है। विशिष्ट गुणों से भरपूर अदरक का इस्तेमाल कई बड़ी-छोटी बीमारियों में भी किया जाता है। यह कफ, खांसी, जुकाम, सिरदर्द, कमर दर्द, पसली और छाती की पीड़ा दूर करती है और पसीना लाकर रोम छिद्रों को खोलती है। 

औषधि के रूप में इसका प्रयोग गठिया, र्‌यूमेटिक आर्थराइटिस (आमवात, जोड़ों की बीमारियों) साइटिका और गर्दन व रीढ़ की हड्डियों की बीमारी (सर्वाइकल स्पोंडिलाइटिस) होने पर, भूख न लगना, मरोड़, अमीबिक पेचिश, खाँसी, जुकाम, दमा और शरीर में दर्द के साथ बुखार, कब्ज होना, कान में दर्द, उल्टियाँ होना, मोच आना, उदर शूल और मासिक धर्म में अनियमितता होना, एंटी-फंगल। इन सब रोगों में भी अदरक (सोंठ) को दवाई के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। अदरक एक दर्द निवारक के रूप में भी पाया गया है। 

इस का प्रयोग दर्दनाक माहवारी, माइग्रेन, अपच और संक्रमण के लिए और अस्थमा के रूप में राहत प्रदान और जीवन शक्ति और दीर्घायु को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है। विभिन्न प्रकार के रूमेटिक रोगों में जहाँ कर्टिकोस्टेराईड तथा नान स्टेराइड दर्द नाशक दवाएं दी जाती हैं वहाँ अदरक का रस बहुत ही लाभ दायक है। अदरक कुष्ठ, पीलिया, रक्त पित्त, ज्वर दाह रोग आदि में उपयोगी औषधि है। अदरक का रस पेट के लिए तो लाभकारी है ही साथ में शरीर की सूजन, पीलिया, मूत्र विकार, दमा, जलोदर आदि रोगों में भी लाभकारी है। इसके सेवन से वायु विकार नष्ट हो जाते हैं। बालों के लिए भी उपयोगी है। अदरक का रस रूसी को भी नियंत्रित करता है। अदरक खाने से मुंह के हानिकारक बैक्टीरिया भी मर जाते हैं।

1- चोट लगने पर - 

अदरक पीसकर गर्म कर ले। इसकी दर्द वाले स्थान पर लगभग आधा इंच (मोटाई) लेप करके पट्टी बाधे लगभग 2 घन्टे पश्चात लेप को हटाये व सरसों का तेल लगाकर सेक लें। इस प्रक्रिया को लाभ हाने पर प्रतिदिन करे।

2- अपच- 

भोजन के उपरान्त अदरक व नीबू के रस में सेधानमक मिलाकर प्रातःसाय पीते रहने से अपच दूर हो जाती है। और भूख खूब लगती है।

3- कान का दर्द- 

अदरक का रस किचित गर्म करके कान में डालने से कान का दर्द तुरन्त समाप्त हो जाता है।

4- दन्तशूल- 

दातो में दर्द होते समय अदरक के टुकड़े दातो के बीच में दबाकर रखने से दातो का दर्द समाप्त हो जाता है।

5- सन्निपातिक ज्वर- 

अदरक का रस में त्रिकुटा व सेधानमक मिलाकर देने से गले में घिरा हुआ कफ निकल जाता है। जिससें रोगी को आराम मिल जाता है।

6- न्यूमोनिया- 

अदरक के रस में 2-1 वर्ष पुराना घृत व कपुर मिलाकर गर्म करके लेप करना तत्काल लाभ करता है।


वाराहमिहिर/Varahmihir


वाराहमिहिर गणितज्ञ, खगोलशास्त्री और ज्योतिष शास्त्री थे। इनका जन्म छठी शताब्दी ईसवी में उज्जैन में हुआ। उस समय भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग, गुप्तकाल, चल रहा था। देश वाह्य आक्रमणों से सुरक्षित था और प्रजा सुखी थी। शांति और समृद्धि के समय में विज्ञान, साहित्य और कला के क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई। वाराहमिहिर चन्द्रगुप्त के नवरत्नों में से एक थे।

वाराहमिहिर के नाम के बारे में एक कथा प्रचलित है। वाराहमिहिर ने ज्योतिष-शास्त्र में विशेष योग्यता प्राप्त थी। उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उन्हें नव-रत्न की उपाधि दी। राजा विक्रमादित्य के पुत्र-जन्म के समय मिहिर ने भविष्यवाणी की कि अमुक वर्ष के अमुक दिन एक सुअर (वाराह) इस बालक को मार डालेगा। 

राजा ने अपने पुत्र की सुरक्षा के लिए बहुत इंतजाम किये लेकिन अंत में मिहिर की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। तब से मिहिर वाराहमिहिर कहलाये। वाराहमिहिर सूर्य के उपासक थे। यह माना जाता है कि सूर्य के आशीर्वाद से ही उनको ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त हुआ।

वाराहमिहिर ने तीन महत्वपूर्ण ग्रन्थ, वृहज्जातक, वृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका की रचना की।

वृहत्संहिता में प्रकृति की भाषा को समझने और उससे भविष्य का पता लगाने का प्रयास किया गया है। अगर हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि प्रकृति हर पल किसी न किसी रूप में हमें कुछ बताने की कोशिश करती रहती है। प्राचीन समय से ही हिन्दुओं ने प्रकृति की आवाज को सुनने और समझने का प्रयत्न किया है। 


आज वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि पशु-पक्षी मौसम में होने वाले बदलाव को पहले से भांपकर अपने आचरण में परिवर्तन करते हैं। वृहत्संहिता में पशु-पक्षी इत्यादि के आचरण में होने वाले परिवर्तन का अवलोकन करके भविष्यवाणी करने के तरीके बताये गए हैं। इसमें कृषि विज्ञान की जानकारी भी है। कृषि के लिए जमीन की तैयारी, एक पेड़ की कलम को दूसरे में लगाने, सही मौसम में वृक्षों की सिंचाई करने, वृक्षों के आरोपण की दूरी, वृक्षों में उत्पन्न बीमारियों की चिकित्सा, जमीन में गड्ढ़ा कर बोने के तरीके आदि का भी उल्लेख किया है। वाराहमिहिर ने ज्योतिष के आधार पर नक्षत्रों के अनुसार वर्षा के विषय में विस्तृत विवरण दिया है। 


उस समय भी वर्षा को मापने के लिए एक विशेष मानक पैमाने का प्रचलन था। बृहत्संहिता में ग्रहण का वास्तविक कारण भी बताया गया है। वाराहमिहिर ने लिखा है - चन्द्रग्रहण में चन्द्र पृथ्वी की छाया में आ जाता है तथा सूर्यग्रहण में चन्द्र सूर्य में प्रविष्ट हो जाता है (अर्थात सूर्य एवं पृथ्वी के बीच में चन्द्र आ जाता है)। ‘वृहत्‌ संहिता‘ में अस्त्र-शस्त्रों को बनाने के लिए अत्यंत उच्च कोटि के इस्पात के निर्माण की विधि का वर्णन किया है। भारतीय इस्पात की गुणवत्ता इतनी अधिक थी कि उनसे बनी तलवारों के फारस आदि देशों तक निर्यात किये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण मिले हैं। बृहत्संहिता में वास्तुविद्या, भवन-निर्माण-कला, वायुमंडल की प्रकृति, वृक्षायुर्वेद आदि विषय सम्मिलित हैं।

वृहज्जातक में वाराहमिहिर ने ज्योतिष विज्ञान विशेषतः यात्रा मुहूर्त, विवाह मुहूर्त, जन्म-कुंडली आदि का वर्णन किया है।

पंचसिद्धान्तिका में खगोल शास्त्र का वर्णन किया गया है। इसमें वाराहमिहिर के समय प्रचलित पाँच खगोलीय सिद्धांतों का वर्णन है। इस ग्रन्थ में ग्रह और नक्षत्रों का गहन अध्ययन किया गया है। इन सिद्धांतों द्वारा ग्रहों और नक्षत्रों के समय और स्थिति की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं, जो वाराहमिहिर के त्रिकोणमिति ज्ञान के परिचायक हैं।

कुछ लोगों का मानना है कि वाराहमिहिर कुछ समय महरौली (मिहिरावली), दिल्ली में भी रहे। इतिहासकारों के अनुसार चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा वहां पर 27 मंदिरों का निर्माण कराया गया था। यह कार्य वाराहमिहिर के मार्गदर्शन में किया गया। इन मंदिरों को मुस्लिम शासकों द्वारा नष्ट कर दिया गया। इस स्थान को मिहिरावली यानी वाराहमिहिर (मिहिर) की देखरेख में बने मंदिरों की पंक्ति (अवली) के नाम से जाना गया। जगप्रसिद्ध कुतुबमीनार एक समय में वाराहमिहिर की वेधशाला थी।

ॐ है एक मात्र मंत्र, यही है आत्मा का संगीत



ॐ को ओम लिखने की मजबूरी है अन्यथा तो यह ॐ ही है। अब आप ही सोचे इसे कैसे उच्चारित करें? ओम का यह चिन्ह 'ॐ' अद्भुत है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक है। बहुत-सी आकाश गंगाएँ इसी तरह फैली हुई है। ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार, फैलाव और फैलना। ओंकार ध्वनि के 100 से भी अधिक अर्थ दिए गए हैं। यह अनादि और अनंत तथा निर्वाण की अवस्था का प्रतीक है।

आइंसटाइन भी यही कह कर गए हैं कि ब्राह्मांड फैल रहा है। आइंसटाइन से पूर्व भगवान महावीर ने कहा था । महावीर से पूर्व वेदों में इसका उल्लेख मिलता है। महावीर ने वेदों को पढ़कर नहीं कहा, उन्होंने तो ध्यान की अतल गहराइयों में उतर कर देखा तब कहा।

ॐ को ओम कहा जाता है। उसमें भी बोलते वक्त 'ओ' पर ज्यादा जोर होता है। इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं। यही है
मंत्र बाकी सभी × है। इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं। यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।

तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना की कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ओम।

साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है। जो भी उस ध्वनि को सुनने लगता है वह परमात्मा से सीधा जुड़ने लगता है। परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है ॐ का उच्चारण करते रहना।


*त्रिदेव और त्रेलोक्य का प्रतीक :

ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है।

*बीमारी दूर भगाएँ : 

तंत्र योग में एकाक्षर मंत्रों का भी विशेष महत्व है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक शब्द में अनुस्वार लगाकर उन्हें मंत्र का स्वरूप दिया गया है। उदाहरण के तौर पर कं, खं, गं, घं आदि। इसी तरह श्रीं, क्लीं, ह्रीं, हूं, फट् आदि भी एकाक्षरी मंत्रों में गिने जाते हैं।

सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है। इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है। इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।


*उच्चारण की विधि : 

प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं।

*इसके लाभ : 

इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलेगी। दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होगा। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। काम करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं। इसके उच्चारण में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है।

*शरीर में आवेगों का उतार-चढ़ाव :

प्रिय या अप्रिय शब्दों की ध्वनि से श्रोता और वक्ता दोनों हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, भय तथा कामेच्छा के आवेगों को महसूस करते हैं। अप्रिय शब्दों से निकलने वाली ध्वनि से मस्तिष्क में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, भय लोभ आदि की भावना से दिल की धड़कन तेज हो जाती है जिससे रक्त में 'टॉक्सिक' पदार्थ पैदा होने लगते हैं। इसी तरह प्रिय और मंगलमय शब्दों की ध्वनि मस्तिष्क, हृदय और रक्त पर अमृत की तरह आल्हादकारी रसायन की वर्षा करती है।


गौ माता कि महिमा अपरम्पार है .........




माना जाता है कि गायों का समूह जहां बैठकर आराम से सांस लेता है, उस स्थान की न केवल शोभा बढ़ती है, बल्कि वहां का सारा पाप नष्ट हो जाता है।

तीर्थों में स्नान-दान करने से, ब्राह्मणों को भोजन कराने से, व्रत-उपवास और जप-तप और हवन-यज्ञ करने से जो पुण्य मिलता है, वही पुण्य गौ को चारा या हरी घास खिलाने से प्राप्त हो जाता है।

गौ-सेवा से दुख-दुर्भाग्य दूर होता है और घर में सुख-समृद्धि आती है।

जो मनुष्य गौर की श्रद्धापूर्वक पूजा-सेवा करते हैं, देवता उस पर सदैव प्रसन्न रहते हैं।

जिस घर में भोजन करने से पूर्व गौ-ग्रास निकाला जाता है, 

उस परिवार में अन्न-धन की कभी कमी नहीं होती है।

हमारी महान भारतीय संस्कृती ने 'गाय' को माता का दर्जा दिया हैँ।

सनातन धर्म में शंख का महत्व



सनातन धर्म में शंख को अत्यधिक पवित्र एवं शुभ माना जाता है । इसका पावन नाद वातावरण को शुद्ध, पवित्र एवं निर्मल करता है। शंख का उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है । शंख का प्रयोग प्रत्येक शुभ कार्य में किया जाता है । शंख की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेको कथाये प्रचलित है 


एक कथा के अनुसार शंख की उत्पत्ति शिवभक्त चंद्रचूड़ की अस्थियो से हुई , जब भगवान शिव ने क्रोधवश होकर भक्त चंद्रचूड़ का त्रिशूल से वध कर दिया, तत्पश्चात उसकी अस्थियाँ समुद्र में प्रवाहित कर दी गयी। विष्णु पुराण के अनुसार शंख लक्ष्मी जी का सहोदर भ्राता है। यह समुद्र मंथन के समय प्राप्त चौदह रत्नों में से एक है। शंख समुद्र मंथन के समय आठवे स्थान पर प्राप्त हुआ था । शंख के अग्र भाग में गंगा एवं सरस्वती का , मध्य भाग में वरुण देवता का एवं पृष्ठ भाग में ब्रम्हा जी का वास होता है। शंख में समस्त तीर्थो का वास होता है। वेदों के अनुसार शंख घोष को विजय का प्रतीक माना जाता है। महाभारत युद्ध में श्री कृष्ण भगवान् एवं पांडवो ने विभिन्न नामो के शंखो का घोष किया था। श्री कृष्ण भगवान् ने पांचजन्य, युधिष्ठुर ने अनन्तविजय, भीम ने पौण्ड्र, अर्जुन ने देवदत्त, नकुल ने सुघोष एवं सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंखो का प्रचंड नाद करके कौरव सेना में भय का संचार कर दिया था।


शंख तीन प्रकार के होते है :

वामावर्ती - खुला हुआ भाग बायीं ओर होता है ।

दक्षिणावर्ती - खुला हुआ भाग दायीं ओर होता है ।

मध्यावर्ती - मध्य में खुला हुआ भाग होता है ।

दक्षिणावर्ती शंख शुभ एवं मंगलदायी होता है अतः इसका उपयोग पूजा-पाठ, अनुष्ठानों एवं शुभ कार्यो किया जाता है ।

शंख के उपयोग

दक्षिणावर्ती शंख में प्रतिदिन प्रातः थोड़ा सा गंगा जल भरकर सारे घर में छिड़काव करे। भूत प्रेत बाधा को दूर करने का यह एक अचूक उपाय है ।
शंख में जल भरकर रखा जाता है और पूजा करते समय छिड़का जाता है । 

शंख में जल, दुग्ध भरकर भगवान का अभिषेक भी किया जाता है ।
पुराणों के अनुसार, घर में दक्षिणावर्ती शंख रखने से श्री लक्ष्मी जी का स्थायी निवास होता है ।

शयन कक्ष में शंख रखने से पति पत्नी के मध्य सदैव प्रेमभाव बना रहता है ।

शंख बजाने से ह्रदय की मांसपेशिया मजबूत होती है, मेधा शक्ति प्रखर होती है तथा फेफड़ो का व्यायाम होता है । अतः श्वास सम्बन्धी रोगों से मुक्ति मिलती है तथा स्मरण शक्ति भी बढ़ती है ।

शंख की ध्वनि में रोगाणुओं को नष्ट करने की अद्भुत शक्ति होती है। जहां जहां तक शंख ध्वनि पहुचती है, वहाँ तक के रोगाणुओं का नाश हो जाता है।

वर्तमान युग में रक्तचाप, मधुमेह, ह्रदय सम्बन्धी रोग, कब्ज़ , मन्दाग्नि आदि रोग आम हो गए है । नियमित रूप से शंख बजाइये और इन रोगों से मुक्ति पाइये ।

अगर आपके घर में कोई वास्तु दोष है, तो आप प्रातः और सायंकाल शंख अवश्य बजाये। शंख बजाने से घर का वास्तुदोष दूर हो जाता है ।

अगर हमारे शरीर में स्थापित चक्रों में संतुलन न हो तो हमें रोग घेर लेते है, शंख चक्र संतुलित करने में समर्थ है।

घर में शंख बजने से सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है , इससे घर में निवास करने वालो के तन मन पर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ता है । सकारात्मक विचारों का उदभव होता है ।

अध्यन कक्ष में शंख रखने से ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
वैज्ञानको के अनुसार, शंख घोष का प्रभाव समस्त ब्रम्हाण्ड पर होता है।

जीवित्पुत्रिका व्रत जीवित्पुत्रिका व्रत कथा


भारतीय संस्कृति अपने पर्व त्यौहारों की वजह से ही इतनी फली-फूली लगती है. यहां हर पर्व और त्यौहार का कोई ना कोई महत्व होता ही है. कई ऐसे भी पर्व हैं जो हमारी सामाजिक और पारिवारिक संरचना को मजबूती देते हैं जैसे जीवित्पुत्रिका व्रत, करवा चौथ आदि. इसमें से ही एक है जीवित्पुत्रिका व्रत यानि जीवित पुत्र के लिए रखा जाने वाला व्रत. यह व्रत वह सभी सौभाग्यवती स्त्रियां रखती हैं जिनको पुत्र होते हैं. और साथ ही जिनके पुत्र नहीं होते वह भी पुत्र कामना और बेटी की लंबी आयु के लिए यह व्रत रखती हैं.

आश्विन मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनी अष्टमी के दिन माताएं अपने पुत्रों की दीर्घायु, स्वास्थ्य और सम्पन्नता हेतु यह व्रत करती हैं. इसे ग्रामीण इलाकों में “जीउतिया” के नाम से जाना जाता है. मिथिलांचल तथा उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल में इस व्रत की बडी मान्यता है. माताएं इस व्रत को बडी श्रद्धा के साथ करती हैं.


जीवित्पुत्रिका व्रत जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

जीवित्पुत्रिका-व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुड़ी है. संक्षेप में वह इस प्रकार है – गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था. वे बडे उदार और परोपकारी थे. जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था. वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए. वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया. एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी. इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया – मैं नागवंशकी स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है. पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है. आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है. जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा – डरो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा. आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा. इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपडा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए. नियत समय पर गरुड बडे वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर पर जाकर बैठ गए. अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुडजी बडे आश्चर्य में पड गए. उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा. जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया. गरुड जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए. प्रसन्न होकर गरुड जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया. इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई.


आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं. कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है. व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है. यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है.


जीवित्पुत्रिका व्रत विधि

जीवित्पुत्रिका व्रत पुत्र की दीर्घायु के लिए निर्जला उपवास और पूजा अर्चना के साथ संपन्न होता है. इस बार जीवित्पुत्रिका व्रत 8 अक्टूबर, 2012 सोमवार के दिन मनाया जाएगा और 9 अक्टूबर, मगलवार को व्रत का पारण संपन्न होगा.

सुश्रुत / Sushrut


शल्य चिकित्सा (surgery) के पितामह और 'सुश्रुतसंहिता' के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व में काशी में हुआ था। सुश्रुत का जन्म विश्वामित्र के वंश में हुआ था। इन्होंने धन्वन्तरि से शिक्षा प्राप्त की।

'सुश्रुतसंहिता' को भारतीय चिकित्सा पद्यति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसमें शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे। ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे। इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियाँ आदि हैं। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। आठवीं शताब्दी में 'सुश्रुतसंहिता' का अरबी अनुवाद 'किताब-इ-सुश्रुत' के रूप में हुआ। 


सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी। एक बार आधी रात के समय सुश्रुत को दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। उन्होंने दीपक हाथ में लिया और दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही उनकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी। उस व्यक्ति की आँखों से अश्रु-धारा बह रही थी और नाक कटी हुई थी। उसकी नाक से तीव्र गति से रक्त-श्राव हो रहा था। 


व्यक्ति ने सुश्रुत से सहायता के लिए विनती की। सुश्रुत ने उसे अन्दर आने के लिए कहा। उन्होंने उसे शांत रहने को कहा और दिलासा दिया कि सब ठीक हो जायेगा। वे अजनबी व्यक्ति को एक साफ और स्वच्छ कमरे में ले गए। कमरे की दीवार पर शल्य क्रिया के लिए आवश्यक उपकरण टंगे थे। उन्होंने अजनबी के चेहरे को औषधीय रस से धोया और उसे एक आसन पर बैठाया। उसको एक ग्लास में मद्य भरकर सेवन करने को कहा और स्वयं शल्य क्रिया की तैयारी में लग गए। उन्होंने एक पत्ते द्वारा 

जख्मी व्यक्ति की नाक का नाप लिया और दीवार से एक चाकू व चिमटी उतारी। चाकू और चिमटी की मदद से व्यक्ति के गाल से एक मांस का टुकड़ा काटकर उसे उसकी नाक पर प्रत्यारोपित कर दिया। इस क्रिया में व्यक्ति को हुए दर्द को मद्यपान ने महसूस नहीं होने दिया। इसके बाद उन्होंने नाक पर टाँके लगाकर औषधियों का लेप कर दिया। व्यक्ति को नियमित रूप से औषधियां लेने का निर्देश देकर सुश्रुत ने उसे घर जाने के लिए कहा। 

सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे। 'सुश्रुतसंहिता' में मोतियाबिंद के ओपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया गया है। उन्हें शल्य क्रिया (cesarean) द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डियों का पता लगाने और उनको जोड़ने में विशेषज्ञता प्राप्त थी। शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियां देते थे। मद्य संज्ञाहरण (anesthesia) का कार्य करता था। इसलिए सुश्रुत को संज्ञाहरण का पितामह भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सुश्रुत को मधुमेह व मोटापे के रोग की भी विशेष जानकारी थी।

सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे। उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया। प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। मानव शारीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे।

सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया। इन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर सरंचना, काय चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी।


सेहत के लिए लाभदायक टिप्स



* प्रातः काल के भोजन के बाद थोड़ी देर तक बाईं करवट लेटना और शाम के भोजन के बाद थोड़ी देर टहलना हितकारी होता है। दिन के भोजन के बाद छाछ और रात के भोजन के दो घण्टे बाद यानी सोते समय एक गिलास मीठा दूध पीना हितकारी होता है। रात में दही नहीं खाना चाहिए और भोजन के अन्त में तुरन्त बाद जल नहीं पीना चाहिए।


* कब्ज के रोगी का आहार सीमित नियमित और सुपाच्य होना चाहिए। उसे सप्ताह में एक बार उपवास रखकर सिर्फ दूध और फल का आहार ही लेना चाहिए। भोजन में कच्चे सलाद एवं हरी शाक सब्जी का सेवन ज्यादा मात्रा में और रोटी आधी मात्रा में लेना चाहिए। प्रतिदिन भोजन के बाद, एक छोटी हरड़ के टुकड़े करके, घण्टे भर तक चूसकर खा जाना चाहिए।


* अम्लपित्त के रोगी को दूध ठण्डा करके पीना चाहिए। केले, चावल की खीर, छिलके वाली मूँग की दाल, भोजनोपरान्त 1-2 केले या आगरे का पेठा अवश्य खाना चाहिए। रात को सोते समय एक गिलास दूध में 1 चम्मच शुद्ध घी डालकर घूंट-घूंटकर पीना चाहिए। अरहर की दाल का सेवन सिर्फ चावल के साथ ही करना चाहिए। तेज मिर्च-मसालेदार, खट्टे और तले हुए पदार्थों का सेवन कतई नहीं करना चाहिए।


* अजीर्ण के रोगी को पाचक चूर्ण का सेवन अवश्य करना चाहिए। 1-2 दिन का उपवास कर सिर्फ दूध और फलाहार लेकर 2-3 दिन तक खिचड़ी या दलिया ही खाना चाहिए। भोजन के बाद एक गिलास छाछ पीना चाहिए। दिनभर में घण्टे-घण्टे भर 1-1 गिलास पानी पीते रहना चाहिए। बासी और गरिष्ठ आहार नहीं लेना चाहिए और शाम के भोजन में हलके एवं सुपाच्य पदार्थ ही खाना चाहिए।


* सूखी खाँसी के रोगी को 1 चम्मच मुलहठी चूर्ण, 2 कप पानी में उबालकर, जब आधा कप शेष बचे तब छानकर, थोड़ी पिसी मिश्री मिलाकर सुबह व शाम दो बार 3-4 दिन तक पीना चाहिए। छोटी इलायची के दाने और मिश्री समान मात्रा में मिलाकर पीस लें और 5-5 ग्राम मात्रा में दिन में 3-4 बार चूसते हुए सेवन करना चाहिए। ये दोनों उपाय खाँसी में आराम वाले हैं।

सात्विक भोजन क्यों जरुरी है ?



कहते है जैसा अन्न वैसा मन,अर्थात हम जो कुछ भी खाते है वैसा ही हमारा मन बन जाता है.जैसा हमारा मन होगा.अन्न चरित्र निर्माण करता है.इसलिए हम क्या खा रहे है इस बात को सदा ध्यान रखना चाहिये.

अक्सर देखा जाता है कि लोग भोजन के समय टीवी देखते रहते हैं या अखबार पढ़ते रहते हैं या कुछ और करते रहते हैं लेकीन ऐसा करना उचित नहीं,क्योंकि मन में दो चीजे एक साथ नहीं बसती , मन एक समय में एक विषय को पकड़ता है और हम सम्पूर्ण संसार को एक साथ भरना चाहते हैं जो संभव नहीं और यहीं हम भूल कर जाते हैं.छोटी-छोटी बातें हैं जो गंभीर असर हम सब के जीवन पर डालती हैं.

प्रकृति से हम जो कुछ भी ग्रहण करते हैं जैसे भोज्य पदार्थ, पेय पदार्थ, वायु , पांच ज्ञानेन्द्रियों से जो कुछ भी हमारा मन प्राप्त करता है, कर्म इन्द्रियों से हम जो कुछ भी प्राप्त करते हैं,और मन में संगृहीत सूचनाओं के मनन से जैसा भाव मन में उठता है. इन सब से हमारे अंदर का गुण समीकरण बदलता है और गुण समीकरण में आया परिवर्तन ही हमारे वर्तमान को चलाता है.

जैसा गुण समीकरण अन्दर होगा ,वैसे विचार मन-बुद्धि में उठेंगे, जैसे बिचार उठते हैं वैसे हम कर्म करते हैं,जैसे हम कर्म करते हैं, वैसा फल हमें मिलता है , और कर्म के आधार पर हमारा अगला जन्म भी आधारित होता है, भोजन बनाना, भोजन सामग्री, भोजन बनानें वाले और करनें वाले की मन की स्थितियां ऎसी कुछ बातें हैं जिनको हमें ध्यान रखना चाहिए.


भोजन के स्वाद



भोजन के छै: स्वाद होते है.

१. - मधुर स्वाद २. - खट्‌टा स्वाद ३. -नमकीन स्वाद ४. - तीखा स्वाद ५. - कड़वा स्वाद ६. - कसैला स्वाद

१.- मधुर स्वाद - मधुर स्वाद वाले खाद पदार्थ सर्वाधिक पुष्टिकर माने जाते हैं ।वे शरीर से उन महत्वपूर्ण विटामिनों एवं खनिज-लवणों को ग्रहण करते हैं जिसका प्रयोग शर्करा को पचाने के लिये किया जाता है । इस श्रेणी में आने वाले खाद पदार्थों में समूचे अनाज के कण, रोटी, पास्ता, चावल, बीज एवं बादाम हैं.

२. - खट्‌टा स्वाद - छाछ, खट्‌टी मलाई, दही एवं पनीर है अधिकांश अधपके फल भी खट्‌टे होते हैं । खट्‌टे खाद्पदार्थ का सेवन करने से हमारी भूख बढ़ती है यह आपके लार एवं पाचक रसों का प्रवाह तेज करती है । खट्‌टे भोजन का अति सेवन करने से हमारे शरीर में दर्द तथा ऐंठन की अधिक सम्भावना रहती है.

३. - नमकीन स्वाद - नमक आदि

४. - तीखा स्वाद - प्याज, अदरक, सरसों, लाल मिर्च.

५. - कड़वा स्वाद - हरी सब्जियों, चाय,काफी आदि.

६. - कसैला स्वाद- अजवाइन, खीरा, बैंगन,सेव, रूचिरा, झड़बेरी, अंगूर एवं नाशपाती भी कसैले होते हैं.


भोजन के प्रकार



भोजन तीन प्रकार के हो सकते हैं - "सात्विक", "राजसिक" एवं "तामसिक".

१. सात्विक - सात्विक भोजन सदा ही ताज़ा पका हुआ, सादा, रसीला, शीघ्र पचने वाला, पोषक, चिकना, मीठा एवं स्वादिष्ट होता है. यह मस्तिष्क की उर्जा में वृद्धि करता है और मन को प्रफुल्लित एवं शांत रखता है, सोचने-समझने की शक्ति को और भी स्पष्ट बनाता है. सात्विक भोजन शरीर और मन को पूर्ण रूप से स्वस्थ रखने में बहुत अधिक सहायक है.जो अपने अच्छे-बुरे स्वास्थ्य के लिए अच्छे और मध्यम भोजन को चुनना चाहते हैं अर्थात जो आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक तीनो प्रकार से अच्छा स्वास्थ्य पाना चाहते हैं उन्हे सात्विक भोजन करना चाहिए।

बादाम, शहद ताजे फल, दूध, गाय का दूध, घी, पके हुए ताजे फल, बादाम, खजूर, सभी अंकुरित अन्न व दालें, टमाटर, परवल, तोरई, करेला जैसी सब्जियां, पत्तेदार साग सात्विक मानी गयीं हैं. घर में सामान्यतः प्रयोग किये जाने वाले मसाले जैसे हल्दी, अदरक, इलाइची, धनिया, सौंफ और दालचीनी सात्विक होते हैं.

२. राजसिक - जो लोग चाहते हैं कि वो सिर्फ मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ बने उन्हे राजसिक भोजन करना चाहिए।कड़वा, खट्टा, नमकीन, तेज़, चरपरा और सूखा होता है. पूरी, पापड़, बिजौड़ी जैसे तले हुए पदार्थ , तेज़ स्वाद वाले मसाले, मिठाइयाँ, दही, बैंगन, गाजर-मूली, उड़द, नीबू, मसूर, चाय-कॉफी, पान राजसिक भोजन के अर्न्तगत आते हैं.
३. तामसिक - जो लोग चाहते हैं कि भोजन करने से सिर्फ उनका शरीर ताकतवर और मजबूत बने उन लोगों को तामसिक भोजन करना चाहिए। बासी, जूठा, ठंडा, अधपका, गंधयुक्त आहार लेगा पुराने, पुन: पकाये हुए, कृत्रिम, अति तले हुए, चर्बीदार या भारी भोजन जैसे - मांस, मछली और अन्य सी-फ़ूड, वाइन, लहसुन, प्याज और तम्बाकू, पेस्ट्री, पिज्जा, बर्गर, ब्रेड, चॉकलेट, सॉफ्ट ड्रिंक, तंदूरी रोटी, रुमाली रोटी, नान, बेकरी उत्पाद, तम्बाकू, शराब, डिब्बाबंद व फ्रोज़न फ़ूड, ज़रूरत से ज्यादा चाय-कॉफी, केक, अंडे, जैम, कैचप, नूडल्स, चिप्स समेत सभी तले हुए पदार्थ होते हैं। ये शरीर में गरमी पैदा करते हैं. इसलिए इन्हें तामसिक भोजन की श्रेणी में रखा गया है। 

कई धर्मो में वैष्णवजन प्याज लहसुन का उपयोग नहीं करते. प्याज शरीर को लाभ पहुंचाने के हिसाब से चाहे कितना ही लाभकारी और गुणकारी क्यों न हो लेकिन मानसिक और आध्यात्मिक नज़रिये से यह एक तेज और निचले दर्जे का तामसिक भोजन का पदार्थ है।दोनों ही अपना असर गरमी के रूप में दिखाते हैं, शरीर को गरमी देते हैं जिससे व्यक्ति की काम वासना में बढ़ोतरी होते है। ऐसे में उसका मन अध्यात्म से भटक जाता है।इनकी तासीर या गुणों के कारण ही इनका त्याग किया गया है.इसी तरह से मांस खाने से शरीर में मांस भले ही बढ़ जाए लेकिन उससे मानसिक ओर आध्यात्मिक स्वास्थ्य की आशा कभी नही करनी चाहिए।

राजसी एवं तामसी खादपदार्थ दोनों में एक संतुलित, एक समान मन-शरीर अनुभव को अवलंबित करने की क्षमता नहीं है.|भोजन जितना बासी और ठंडा होगा उतना ही पचने में देर लगेगी. तामसिक भोजन अतिक्रियाशीलता, आलस्य एवं अति निद्रा उत्पन्न करता है. इसलिए इन्द्रियों को सुस्त करते हैं एवं आवेग को तीव्र तथा प्रभावशून्य रखते हैं.

हमेशा गर्म और ताजा भोजन करने पर जोर दिया जाता है क्योकि अगर भोजन गरम हो तो भोजन की गर्मी और पेट की गर्मी मिलकर उसे जल्दी पचा देती है. इसलिए पेट की अग्नि को हम ‘जठराग्नि’ कहते है और इसीलिए कहा जाता है कि गर्म भोजन करो.क्योंकि भोजन अगर ठंडा हो तो पेट की अकेली गर्मी के आधार पर ही उसका पाचन होता है, तो जो भोजन छः घंटे में पचना होता है वह बारह घंटे में पचेगा और पचने में जितनी देर लगती है उतनी ही ज्यादा देर तक नींद आएगी क्योंकि जब तक भोजन न पच जाये तब तक मस्तिष्क को उर्जा नहीं मिलती क्योंकि मस्तिष्क जो है वह लक्जरी है. अतः सारी उर्जा, सारी शक्ति पहले भोजन को पचाने में लगती है और यही कारण है कि भोजन के बाद नींद मालूम पड़ती है क्योंकि मस्तिष्क को जितनी शक्ति मिलनी चाहिए वह नहीं मिलती.

तामसी भोजन आलस्य बढ़ाता है, राजसी भोजन क्रोध बढ़ाता है और सात्विक भोजन प्रेम बढ़ाता है . शरीर भोजन से ही बना है, इसलिए बहुत कुछ भोजन पर ही निर्भर है. तामसी प्रेम नहीं कर सकता, वह प्रेम की मांग करता है. उसकी शिकायत है कि उससे कोई प्रेम नहीं करता.सत्व प्रेम देता है.



!!! इन आदतो का नित्य संकल्प ले !!!



जीवन में कुछ अच्छी आदते होना जरुरी है. व्यायाम से हम शरीर को उर्जावान बनाते है, इसी तरह जप आदि से ह्रदय को और स्वाध्याय से बुद्धि को अलग-अलग स्तर पर, अलग-अलग आदते होना जरुरी है.क्योकि यदि हम केवल शारीरिक स्तर पर व्यायाम आदि तो कर लेते है पर मन और ह्रदय के लिए कोई नियम न ले तो वे दोनों बीमार हो जायेगे, इसलिए शरीर के साथ-साथ भाव और बौद्धिक स्तर पर संकल्प करना जरुरी है.

दो आदते शरीर के स्तर पर, दो भाव के स्तर पर, दो बौद्धिक स्तर पर, बिना चूके करना चाहिये. कम से कम पाँच–छः आदते नित्य संकल्प के रूप में ले ही लेनी चाहिये.

१. शरीर के स्तर पर - जैसे व्यायाम, स्नान आदि.

२. दो भाव के स्तर पर - जैसे जप, स्तोत्र पाठ आदि. 

३. दो बौद्धिक स्तर पर - जैसे स्वाध्याय, लेखन, श्रवण आदि.


एक दिन भी खण्ड किये बिना करना है. फिर देखो मन कैसे उदात्त गगन में विचरण करने लगता है. आपको ही आश्चर्य होगा कि कितना पवित्र, हलका और उर्जावान अनुभव कर रहे हैं.

शाम के समय क्यों नहीं सोना चाहिये ?



नींद हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है ,दिनभर की थकान और तनाव को झेलने के बाद रात की नींद शरीर को आराम प्रदान करती है। प्रतिदिन पर्याप्त नींद ही हमें स्वस्थ और लंबी उम्र प्रदान करती है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है कि आप सही समय पर सोएं और सही समय पर उठ जाएं।

शास्त्रों और विज्ञान के अनुसार सोने के लिए रात का समय निर्धारित किया गया है। यही समय सर्वश्रेष्ठ भी है अच्छी नींद के लिए। जो लोग रात के समय पर्याप्त नींद लेते हैं वे तो हमेशा स्वस्थ और निरोगी रहते हैं। उन लोगों पर जल्द ही किसी मौसमी बीमारी का प्रभाव भी नहीं होता। जबकि जो लोग किसी भी कारण से रात के समय पर्याप्त नींद नहीं ले पाते वे निश्चित ही स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जुझते हैं।

यदि कोई व्यक्ति रात के समय ठीक से नींद नहीं ले पाता है तो वह दिन के समय नींद पूरी करता है। आजकल के दौर में दिन या शाम को सोना भी काफी लोगों की आदत बन गया है, जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है और शास्त्रों के अनुसार भी यह निषेध माना गया है।

दिन में सोने के नुकसान 

दिन या शाम के समय सोने से स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां जैसे मोटापा होना, आलस्य बना रहना, चेहरे निस्तेज होना आदि आम बीमारियां हो जाती हैं। इसके अलावा प्रतिदिन ऐसा करने पर व्यक्ति की आयु भी घट सकती है यानि ऐसे लोगों का जीवन कम हो जाता है। इसके अलावा इन लोगों को अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि की भी समस्याएं बनी रहती है।

शाम का समय- शास्त्रों के अनुसार शाम का समय केवल पवित्र कार्य के लिए श्रेष्ठ माना गया है। ऐसा माना जाता है शाम के समय देवी-देवता पृथ्वी के भ्रमण पर निकलते हैं। ऐसे में शाम के समय सोने वाला व्यक्ति देवताओं के कोप का भागी बन जाता है। देवी-देवता उन लोगों को अप्रसन्न हो जाते हैं और उनका क्रोध झेलना पड़ता है। देवी-देवताओं की कृपा के बिना घर में बरकत नहीं रह सकती।

किसी भी आर्थिक कार्य में आसानी से लाभ प्राप्त नहीं हो पाता, अक्सर धन हानि की संभावनाएं बनी रहती है। जिस घर में शाम के समय लोग सोते हैं वहां से धन की देवी महालक्ष्मी प्रस्थान कर जाती हैं और गरीबी यानि दरिद्रता उस घर में पैर पसार लेती है। इसी वजह से शाम के समय सोने से मन किया जाता है।

व्यक्ति अपने कर्मों से अपनी आयु बढ़ा भी सकता है और उसे कम भी कर सकता है। शास्त्रों में सोने के तरीके से भी आयु कम होने और बढ़ने का वर्णन मिलता है।



इस प्रकार सोने से कम होती है आयु

ऐसे कथा भी आती है कि शनि के देखने से गणेश जी का सिर कट जाने के बाद माता पार्वती प्रलय मचाने लगीं तब भगवान विष्णु ने अपने चक्र से हाथी का सिर काटकर गणेश जी के सिर पर लगा दिया। भगवान विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता हैं वह किसी ऐसे जीव के प्राण नहीं ले सकते थे जिसकी आयु शेष बची हो इसलिए उन्हें ऐसे जीव की तलाश थी जिसकी आयु पूरी हो चुकी हो। विष्णु भगवान ने देखा कि एक हाथी पैर पर पैर रखकर सोया हुआ है। उन्हें समझते देर नहीं हुई कि हाथी की आयु पूरी हो चुकी है और उन्होंने हाथी का सिर काट लिया। शास्त्रों के अनुसार पैर पर पैर रखकर सोने से आयु क्षीण होती है और मृत्यु नजदीक आती है। इसलिए पैर पर पैर रखकर नहीं सोना चाहिए।

ऐसे सोने से बढ़ती है आयु

अच्छी सेहत और लम्बी आयु के लिए शवासन की मुद्रा में सोएं। शवासन की मुद्रा में सीधा लेट जाएं और सिर को ऊपर की ओर रखें तथा दोनों हाथ शरीर के पास-पास रखें। इससे शरीर को आराम मिलता है तथा पाचन क्रिया अच्छी तरह से होती है। मन को सुकून और शांति मिलती है। पेट के बल कभी न सोएं इससे पेट सम्बन्धी रोग होता है।करवट लेकर सोना भी अच्छा होता है स्त्रियों को हमेशा बायाँ करवट लेकर, और पुरुषों को हमेशा दाया करवट लेकर ही सोना चाहिये, सोते समय आपका सिर दक्षिण दिशा में होना चाहिये और पैर उत्तर दिशा में होना चाहिये.

!!! लंबी उम्र चाहते है तो इन बातो को कभी न भूले !!!




लंबी उम्र तो सभी चाहते हैं, लेकिन लंबी उम्र कैसे पाएं ये बात बहुत कम लोग जानते हैं. हमारे बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं पहला सुख निरोगी काया यानी संपूर्ण सुखी जीवन की कामना बिना अच्छे स्वास्थ्य के नहीं की जा सकती. किसी के पास कितना ही धन हो लेकिन अगर स्वस्थ शरीर न हो तो सारे ही सुख व्यर्थ है.

हर इंसान स्वस्थ शरीर और लंबी उम्र पाना चाहता है ताकि वह पूर्णता के साथ और सारे सुख उठाते हुए आनंदमयी तरीके से जीवन जी सके
.अगर आप भी लंबी उम्र पाना चाहते हैं तो याद रखें ये दस सूत्र.

१. - भोजन के तुरंत बाद सोना या परिश्रम करना, भोजन करते हुए बातें करना और भोजन के अंत जल-पीना अपच और कब्ज करने वाले काम हैं.इनसे बचें।

२. - भूख लगे तब भोजन न करना, खूब चबाएं बिना निगल जाना, भोजन करने के बाद तीन घंटे के अंदर ही दोबारा खाना और अधिक मात्रा में खाना सुखद नहीं होता.

३. - जिसे शौच से निवृत होने में एक मिनट से ज्यादा समय न लगता हो एक वह सबसे स्वस्थ होता है.मल विसर्जन में जरा भी विलंब न होना अच्छी पाचनशक्ति का सूचक है तो वह व्यक्ति शरीर से स्वस्थ और बलवान होगा ही.इसलिए ध्यान रखें कि कब्ज न रहे।

४. - जल्दबाजी करना अच्छा नहीं, बिना विचारे बोलना या कोई काम करना अच्छा नहीं.विचार कर बोलना श्रेष्ठता और बोलने के बाद सोचना मूर्खता है.ऐसा व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ है.

५. - पांच काम हमेशा ठीक समय पर करना चाहिए.प्रात: उठना, शौच कार्य, स्नान भोजन और सोना.

६.- देखे बिना जल न पीए, जाने बिना मित्रता न करें, हाथ धोए बिना भोजन न करें, पूछे बिना राय न दें.

७. - दिनभर में कम से कम दस से बारह ग्लास पानी पीएं.

८. - अति व्यायाम, अति बोलना, अति परिश्रम, अति जागरण और अति मैथुन इन कर्मों से आयु कम हो जाती है .

९. - खाने की चीजों व औषधि की अति से भी बचना चाहिए.खाने-पीने में किसी भी चीज की अति विष का काम करती है.

१०. - अधिक तनाव भी उम्र कम होने का एक बड़ा कारण है.इसलिए तनाव से बचें.

अच्छी आदते - परिचय


कहते है एक अच्छी आदत हमारी जिंदगी बदल देती है, और एक बुरी आदत भी हमें कामयाबी से कोसो दूर कर देती है,किसी भी अच्छे काम के लिए अच्छा मन होना जरुरी है, हम चाहे कोई भी काम करे,यदि मन अच्छा नहीं है तो हम वह कार्य सही तरीके से कर ही नहीं सकते,और अच्छे मन तभी बनेगा जब उसे सही दिशा देगे, सही नियमों में रखेगे, और मन भी तभी अच्छा होगा जब तन अच्छा होगा.

जब हम पैदा हुए थे तब हम कितने स्वस्थ और सुन्दर थे,पर अपनी आदतों की वजह से, हम स्वयं को ही बीमार बना लेते है, असमय सोना, असमय जगाना, असमय भोजन करना, बैठना गलत तरीके से, खाना गलत तरीके से, गलत चीजे खाना, हमने जैसे आदत सी बना ली है.

पर क्या आप जानते है कि हमारे शास्त्र , बड़े बुजुर्ग, जो भी हमें बताते और समझते है वो वास्तव में सही होता है उसका आज वैज्ञानिक प्रमाण भी है.यदि हम अपनी आदतों में थोडा सा बदलाब लाए तो हम स्वयं स्वस्थ रह सकते है,और जब हम स्वस्थ होगे तभी हम भक्ति कर सकेगे, हमारी छोटी सी कोशिश है,शायद जिसे अपनाकर आपका जीवन बदल जाये.

बनाना है हड्डियों को मजूबत - करे पाइनापल का उपयोग



अनन्नास यानी पाइनेपल बहुत टेस्टी फल है इसमें पर्याप्त मात्रा में विटामिन और पोषक तत्व होते हैं. इसमें कैल्शियम, फाइबर, 
मैग्नीशियम, पोटेशियम और विटामिन सी होता है. साथ ही कम कोलेस्ट्रॉल व वसा होती है. प्रतिदिन 100 ग्राम अनन्नास खाने पर दिन में एक चौथाई विटामिन सी की पूर्ति होती है.

यह जलन की समस्या दूर करने में मदद करता है. ताजे फल में ब्रोमेलेन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो गले की खराश, सूजन और आर्थराइटिस को कम करता है. साथ ही यह रक्त को पतला रखता है. डाइटीशियन खोसला के मुताबिक इसकी खासियत यह है कि इस फल को भोजन के बीच में भी खाया जा सकता है.


हड्डियों की मजबूती के लिए

इसमें मैग्नीशियम प्रचुर मात्रा में होता है जो हडिड्यों को मजबूत बनाने में मदद करता है. एक दिन में मैग्नीशियम की जितनी जरूरत होती है, उसका 73 प्रतिशत एक कप पाइनेपल ज्यूस लेने से पूरा होता है. अगर आप घुटने कर बैठती हैं और आपको चटकने की आवाज सुनाई देती है, इसका मतलब है कि आपके शरीर में आयरन की कमी है. इस कमी को भी अनन्नास दूर करता है.

पथरी में

अनन्नास के रस में जीरा, पीपल, काला नमक तथा जायफल का समभाग चूर्ण मिलाकर सुबह शाम पीने से पेशाब के अधिक आने की शिकायत दूर होती है. नित्य अनन्नास का रस पीने से गर्मी के कारण बेचैनी दूर होती है तथा पथरी की शिकायत दूर होती है.पेशाब में जलन होना, पेशाब कम होना, दुर्गन्ध आना, पेशाब में दर्द तथा मूत्रकृच्छ (रूक-रूककर पेशाब आना) में 1 गिलास अनानास का रस, एक चम्मच मिश्री डालकर भोजन से पूर्व लेने से पेशाब खुलकर आता है और पेशाबसंबंधी अन्य समस्याएँ दूर होती हैं

अच्छा एंटी आक्सीडेंट 

अनन्नास के गूदे को महीन पीसकर मस्सों पर बांधने से बवासीर में लाभ होता है. अनन्नास के गूदे को महीन पीसकर आंखों पर बांधने से सूजन दूर होती है. अनन्नास मे लगभग सभी प्रकार के विटामिन्स और मिनरल्स पाए जातें हैं. अनन्नास मे ब्रोमिन नाम का एक एंजाइम पाया जाता है जो प्रोटीन को पचाने मे मदद करता है.


अनन्नास विटामिन का एक अच्छा स्त्रोत है जो कि अत्यधिक प्रभावी एंटी आक्सीडेंट है ये बेक्टेरिया और इन्फेक्शन को शरीर से दूर भगाता है और शरीर मे आयरन को अवशोषित करनें मे मदद करता है.


ब्लड शुगर में

अनन्नास विटामिन बी 1 का भी अच्छा स्त्रोत है जो कि शरीर मे ब्लड शूगर को उर्जा मे बदलने मे महत्वपुर्ण भूमिका अदा करता है. अनन्नास पाचन प्रणाली मे आई गड़बड़ी को ठीक कर देता है और कब्ज को भी दूर भगा देता है. अनन्नास किडनी की शक्ति को बढाता है और आंतो के विकारों मे भी लाभ पहुंचाता है.

अनन्नास के जूस का उपयोग आंतो के कीड़ो को दूर भगाने के लिए भी किया जाता है. अनन्नास खून के थक्को को भी बनने से रोकता है.अनन्नास का जूस गले के इन्फेक्शन और शरीर के बाकि अंगो मे इन्फेक्शन को रोकता है.अनन्नास का जूस हाई ब्लड प्रेशर और जोड़ो के दर्द मे भी लाभ पहुंचाता है.

बहुत सी बीमारियों का डॉक्टर है नारियल पानी







नारियल का फल ना केवल धार्मिक कार्यों में करते है बल्कि इसका उपयोग बहुत सी बीमारियों में भी करते है.नारियल का पानी नारियल का दूध ,नारियल का गिरी भाग सभी बहुत उपयोगी है, इसमें कोलेस्ट्राल और वसा नहीं पाया जाता. नारियल का पानी शरीर को ठंडा करता है और शरीर का तापमान ठीक बनाये रखता है.नारियल पानी ऊर्जा का अच्छा स्त्रौत है
नारियल एवं इसका पानी दोनों ही काफी गुणकारी हैं नारियल का पानी, दूध की तरह ही एक पूर्ण आहार है. विटामिन के रूप में इसमें ए, बी, सी विटामिन साथ में प्रोटीन, कैल्शियम.पोटेशियम, मैग्नीशियम, सोडियमएवं लौह तत्व विटामिन ए, बी और सी से भरपूर होता है. ये सभी तत्व शरीर के विकास हेतु अत्यंत लाभदायक माने जाते हैं. नारियल का पानी न केवल शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करता है बल्कि शरीर में मौजूद बहुत से वायरसों से भी लड़ाई करता है. 


तो आईये जाने नारियल के औषधीय गुणों के बारे में. -

त्वचा सम्बन्धी बीमारियों में - नारियल पानी शरीर को शीतलता प्रदान करता है. यह घमोरियों और त्वचा संबंधी बीमारियों में भी काफी फायदेमंद है. नारियल के पानी में खीरे का रस मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरे के दाग मिट जाते हैं. चेहरा सुंदर एवं चमकदार हो जाता है. नारियल के तेल में नींबू का रस अथवा ग्लिसरीन मिलाकर चेहरे पर लेप करने से भी मुहाँसे मिटते हैं.
डीहाईड्रेशन में - 

शरीर में पानी की कमी होने पर नारियल पानी में नींबू निचोड़कर पीने से शरीर में पानी की कमी की समस्या दूर हो जाती है.पाचन क्रिया को बेहतर बनाता हैलगातार उल्टी आने पर नारियल पानी का सेवन लाभकारी होता है.

डायबिटीज में - 

रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को संतुलित बनाए रखता है.यह डायबिटीज का खतरा भी घटाता है. ब्लड शुगर लेवल को कंट्रोल करने के लिए इसका नियमित सेवन करना बेहद फायदेमंद होता है. 

कोलेस्ट्रॉल कम करने में - 

नारियल के पानी में दूध से ज्यादा पोषक तत्व होते हैं क्योंकि इसमें कोलेस्ट्रोल और वसा की मात्रा नहीं है. नारियल पानी में बेहद गुण पाए जाते हैं. इसमें बहुत ज्यादा मात्रा में इलेक्ट्रोलाइट और पोटेशियम पाया जाता है, जो ब्लड प्रेशर और दिल की गतिविधियों को दुरुस्त करने में सहयोगी होता है. इसके इस्तेमाल से रक्त स्राव तेज गति से काम करता है और पाचन क्रिया भी दुरुस्त रहती है. गर पाचन सही नहीं है, तो नारियल पानी पीना बेहद फायदेमंद होता है. इसमें एंटी वायरल और एंटी बैक्टीरियल प्रॉपर्टीज होती हैं. कोकोनट वॉटर पीने से कॉलेस्ट्रॉल लेवल कम हो जाता है.

मोटापे में - 

मोटापे से बचाता है.कहा जाता है कि यह बॉडी में मेटाबोलिज्म रेट को ठीक बनाए रखता है. जो की वजन को कम करने में सहायक होता है.नारियल का पानी हमारे ब्लड प्रेशर को ठीक रखता है. 

गर्भावस्था में : 

सुबह नियमित रूप से 15 ग्राम नारियल की गिरी को मिश्री में मिलाकर प्रतिदिन खाने से गर्भवती महिला को स्वास्थ्य में तो लाभ होता ही है. साथ ही गर्भस्थ बालक भी गौरवर्ण का एवं हृष्ट-पुष्ट होता है.

किडनी रोग में - 

यह किडनी के स्टोन को गलाने में मदद करता है. नारियल का पानी किडनी और मूत्राशय से सम्बन्धित बीमारियों में बहुत लाभ पहुंचाता है.

आस्टियोपोरोसिस में - 

शरीर को तुरंत ऊर्जा प्रदान करता है. यह हड्डियों और दांतों को भी मजबूत बनाता है.आस्टियोपोरोसिस के खतरे से बचाता है.

टमाटर एक फायदे अनेक



यदि आप टमाटर जैसा लाल लाल दिखना चाहते है तो अपने भोजन में टमाटर का सेवन शुरू कर दीजिये. आप टमाटर को कच्चा ,पकाकर ,और सूप के रूप में सेवन कर सकते है .खट्टा-मीठा टमाटर पकाने के बाद खाने के जायके को जितना बढ़ाता है। उतना ही अधिक लाभ सलाद के रूप में लेने पर भी करता है। 


टमाटर में प्रोटीन, विटामिन, वसा आदि तत्व विद्यमान होते हैं। कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम होती है इसके अलावा भी टमाटर खाने से कई लाभ होते हैं। टमाटर सिर्फ एक सब्जी नहीं बल्कि ये अपने आप में एक संपूर्ण औषधी है आइए जाने कैसे?


१. - पके टमाटर भोजन के साथ लेने से भूख बढ़ती है, पाचन शक्ति मज़बूत होती है और ख़ून एवं पित्त से संबन्धित अनेक रोग दूर होते हैं।टमाटर के नियमित सेवन से पेट साफ रहता है। इसके सेवन से रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है।,।ये शरीर से कई तरह की बीमारियों से मुक्ति दिलवाते हैं।


२. - कैन्सर रोग में टमाटर - टमाटर खाने वालों को कैन्सर रोग नहीं होता।कैंसर प्रतिरोधक क्षमता छुपाये हुए है. अगर किसी को कैंसर हो गया हो तो उसके भोजन में ६० % हिस्सा टमाटर का कर दीजिये.जितनी कोशिकाएं नष्ट हो चुकी हैं उनकी संख्या में और बढ़ोत्तरी नहीं होगी और कैंसर नियंत्रित रहेगा लाइकोपीन की वजह से यह कैसर कैंसर रोकने में फायदेमंद है।


३. - पेट में कीड़े- पेट में कीड़े होने पर सुबह खाली पेट टमाटर में पिसी हुई कालीमिर्च लगाकर खाने से लाभ होता है।या उसमे हींग का छौंका लगा दीजिये ,अब उसे पी जाइए ,सारे कीड़े मर जायेंगे.


४. डायबिटीज में टमाटर - एल करेला एक ककड़ी(खीरा),एक टमाटर के नियमित सेवन से डायबिटीज, आंखों व पेशाब संबंधी रोगों, पुरानी कब्ज व चमड़ी के रोगों का उपचार होता है।


५. टमाटर लीवर और किडनी में - टमाटर लीवर और किडनी को उत्तेजित करता है जिससे शरीर में उनके कार्य उचित गति से होते रहते हैं .दिन में तीन बार एक-एक गिलास टमाटर का सूप पीजिये .२५० ग्राम टमाटर को एक लीटर पानी में उबालने के पश्चात मसल देने से सूप तैयार हो जाता है ,आप इसमें स्वाद के अनुसार चीनी या नमक और थोड़ी सी काली मिर्च और भुना जीरा मिला सकते हैं.


६. गठिया रोग - यदि गठिया रोग हो, तो एक गिलास टमाटर के रस की सोंठ तैयार करें व इसमें एक चम्मच अजवायन का चूर्ण सुबह-शाम पीने से लाभ होता है।

५. - टमाटर के गूदे में कच्चा दूध व नींबू का रस मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरे पर चमक आती है।


कैसे खाए - प्रात: बिना कुल्ला किए पका टमाटर खाना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होता है। इसमें कैलोरिज कम होती है इसलिए सलाद के रूप में खाया जाता है।भोजन करने से पहले दो या तीन पके टमाटरों को काटकर उसमें पिसी हुई कालीमिर्च, सेंधा नमक एवं हरा धनिया मिलाकर खाएं। इससे चेहरे पर लाली आती है व पौरूष शक्ति बढ़ती है।




ये अदरक है बड़े कमाल का



आयुर्वेद में अदरक का प्रचलन बतौर औषधि प्राचीन काल से होता आ रहा है. अदरक को आयुर्वेद में महाऔषधि कहा जाता है. यह आद्र अवस्था में अदरक तथा सूखी अवस्था में सोंठ कहलाता है.


ताजी अदरक में 81% जल, 2.5% प्रोटीन, 1% वसा, 2.5% रेसे और 13% कार्बोहायड्रेट होता है. इसके अतिरिक्त इसमें आयरन, कैल्सियम लौह फास्फेट आयोडीन क्लोरिन खनिज लवण तथा विटामिन भी पर्याप्त मात्र में होता है.


अदरक का प्रयोग किन-किन बीमारियों में 

अदरक जोड़ो के दर्द में , हड्डियों के रोगों के कारण सूजन, दर्द, हाथ पैर चलाने में कठिनाई, पेट के कीड़े और खांसी , जुकाम, दमा और शरीर में दर्द के साथ बुखार, कब्ज होना, कान में दर्द, उल्टियाँ होना, मोच आना, उदर शूल, गठिया, र्‌यूमेटिक आर्थराइटिस, साइटिका और गर्दन व रीढ़ की हड्डियों की बीमारी (सर्वाइकल स्पोंडिलाइटिस) आदि समस्या में अदरक सेवन करने से सूजन एवं अन्य लक्ष्ण उत्पन्न करने वाले रसायन हारमोन जैसे प्रोसटाग्लेनडीन, ल्यूकोट्रिन का उत्पादन कम हो जाता है.

१. मांसपेशियों के दर्द में - अदरक का सेवन शरीर के द्रव्य का बहाव सुचारू रूप से बनाए रखने के लिए भी किया जाता है. अदरक पूरे शरीर में रक्त प्रवाह बढ़ा देता है. इसके सेवन से ह्रदय की मांसपेशियां ज्यादा शक्ति से संकुचित होती है रक्त वाहिनियाँ फ़ैल जाती है, जिससे ऊतकों और कोशिकाओं का रक्त प्रवाह बढ़ जाता है और मांसपेशियों का अकड़न, दर्द, तनाव आदि से आराम मिलता है. ताजे अदरक को पीसकर दर्द वाले जोड़ों व पेशियों पर इसका लेप करके ऊपर से पट्टी बाँध दें.इससे उस जोड़ की सूजन व दर्द तथा माँसपेशियों का दर्द भी कम हो जाता है.


२. ह्रदय रोग में - ह्रदय पर जोर कम पड़ता है. अदरक के प्रभाव से रक्त प्लेटलेट कोशिकाओं का चिपचिपापन कम हो जाता है जिससे रक्त में थक्का बनने की सम्भावना कम हो जाती है फलस्वरूप अनेक रोगों जैसे ह्रदय आघात, स्ट्रोक (पक्ष घात), इत्यादि से बचाव हो जाता है . कोलेस्ट्रोल युक्त भोजन के बाद भी अदरक के सेवन सेकोलेस्ट्रोल स्तर कम बढ़ता है.

३. गैस होने पर - अदरक एक शक्तिशाली जीवाणुनाशक भी है . शोधों से यह ज्ञात हुआ है की अदरक बड़ी आँत में पाए जाने वाली बैक्टीरिया का बढ़ना रोक देता है जिसके कारण गैस से राहत मिलती है . इसमें विद्यमान गुण के कारण कैंसर से भी बचा जा सकता है . इसमें एंटी-ओक्सिडेंट गुण भी होते है , इसके सेवन से कैंसर बचाव में सहायक एंजायम सक्रीय हो जाते है . अदरक में 400 से भी ज्यादा ऐसे कम्पाउंड ( यौगिक ) है जो अलग-अलग ढंग से अपना अच्छा प्रभाव शरीर पर डालता है .


अदरक का सेवन 

१. - शोधों से ज्ञात हुआ है की करीब एक ग्राम अदरक सेवन करने से यात्रा के दौरान सम्बेदनशील व्यक्तियों में होने वाली मितली और उलटी से आराम मिलता है. इसी प्रकार 250 मिली ग्राम सोंठ दिन में चार बार सेवन से महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान होने वाली मितली व उलटी से आराम मिलता है और इसके सेवन से कोई दुष्प्रभाव भी नहीं होता है.


२. - 0.5 से 1 ग्राम अदरक प्रतिदिन 3 माह तक सेवन करने से आस्टियो आर्थराईटिस, रुमेटाइड आर्थराईटिस तथा मांसपेशियों के दर्द के मरीजों को आराम मिलता है.


३.- अगर किसी व्यक्ति को खाँसी के साथ कफ भी हो गया हो तो उसे रात को सोते समय दूध में अदरक डालकर उबालकर पिलाएँ.यह प्रक्रिया करीबन 15 दिनों तक अपनाएँ.इससे सीने में जमा कफ आसानी से बाहर निकल आएगा.इससे रोगी को खाँसी और कफ दोनों आराम भी महसूस होगा.रोगी को अदरक वाला दूध पिलाने के बाद पानी न पीने दें.

४. त्वचा को निखारे-अदरक त्वचा को आकर्षक व चमकदार बनाने में मदद करता है.सुबह खाली पेट एक गिलास गुनगुने पानी के साथ अदरक का एक टुकड़ा खाएं. इससे न केवल आपकी त्वचा में निखार आएगा बल्कि आप लंबे समय तक जवां दिखेंगे.

अदरक की तासीर गर्म होती है इसलिए गर्मी के दिनों में कम उपयोग करना चाहिये. भारतीय व्यंजन में अदरक का उपयोग बहुतायत से होता है. इसका सेवन सब्जी, चटनी, अचार, सॉस, टॉफी, पेय पदार्थों, बिस्कुट, ब्रेड इत्यादि में स्वाद व सुगंध के लिए किया जाता है. इसका प्रयोग से भोजन स्वादिष्ट और सुपाच्य हो जाता है साथ ही स्वास्थ्यवर्धक भी.

दादी माँ के नुस्खे -परिचय



आज की इस दौडती भागती दुनिया में लोगो के पास समय ही नहीं है, जिससे पूछो, लोग कहते है समय नहीं है,हमारा खान पान, रहन-सहन की आदतों में तेजी से बदलाव आ गया है,ऐसे में हमारी प्रतिरोधक क्षमता भी कम होती जा रही है,और जब हम बीमार होते है तो खाते है बहुत सारी दवाईया, जो उस समय तो हमें ठीक कर देती है, परन्तु छोड जाती है दुष्प्रभाव, जिसे हम साईडिफेक्ट कहते है.

क्या आप जानते है कि हमारे ही आस पास इतनी चीजे हमें प्रकृति ने दी है,जिसका सही मात्रा में सेवन करने पर हमें महगी दवाओ को खाने कि भी जरुरत नहीं है,बचपन में जब हमें सर्दी जुकाम होता था तो दादी हमें तुलसी के पत्ते चाय में डालकर देती थी सर्दी मिनटों में गायब. खासी होती थी तो दादा जी अनार का छलका चूसने दे देते थे,जरा सी कोई फुन्सी चेहरे पर होती, तो दादी माँ हल्दी चन्दन का लेप लगा देती, और कुछ ही दिनों में फुन्सी गायब , बचपन में तो जैसे कभी हमने दवा खायी ना हो. और अब जरा सी सर्दी, खासी,सिर दर्द और हम ढेरो दवाए खा लेते है. लेकिन जब भी हम दादी माँ के उन नुस्खो को याद करते है तो बड़ा अच्छा लगता है,तो आईये हम दादी माँ के उन नुस्खो को जाने और उनका उपयोग अपने जीवन में करे. 

!!! सौफ है सेहतमंद !!!



सौंफ में ऐसे अनेक औषिधीय गुण मौजूद होते हैं जो सभी के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है. बड़ा हो या छोटा बच्चा यह हर किसी के स्वास्थ्य के लिए बड़ी लाभकारी है. सौफ में कैल्शियम, सोडियम फास्फोरस, आयरन, पोटेशियम जैसी खास तत्व पाए जाते है, यूनानी दवाओ में सौफ की काफी सिफारिश की जा सकती है.

सौंफ के पौधों पर दिसम्बर महीने में फूल आते हैं. मार्च-अप्रैल में फूल, फल में बदल जाते हैं. सौफ का फल-बीज रूप में होता है. सौंफ को सीधे बीज रूप में तथा इसका अर्क निकालकर प्रयोग में लाते हैं. जानिए उपचारों में सौंफ की उपयोगिता.

सौफ के औषधीय गुण - 

१. - पेशाब जलन के साथ आता हो तो सौंफ का चूर्ण ठंडे पानी से, दिन में दो बार लेना से लाभ होता है.यदि अर्क का प्रयोग करें तो भी पेशाब की गर्मी जाती रहेगी. योनिशूल तथा बवासीर में भी रोगी को सौंफ देने से लाभ होता हैं.पेचिश में सौंफ का अर्क या पिसी सौफ को ताजा पानी से देनेपर लाभ होता है.
२. कफ और अस्थमा - दो कप पानी में उबली हुई एक चम्मच सौफ को दो या तीन बार लेने से अपच और कफ की बीमारी खत्म हो सकती है, अस्थमा और खासी में सौफ सहायक है, कफ और खांसी के इलाज के लिए सौफ खाना फायदेमंद है.
३. आँखों के लिए - दिमाग से सम्बन्धी रोगों के लिए सौंफ बड़ी लाभकारी होती है. इसके निरन्तर उपयोग से आखें कमजोर नहीं होती है और मोतियाबिन्द की शिकायत नहीं होती. 

४ . अजीर्ण में - अजीर्ण रोग, उल्टी, जी मिचलाना, आंव रोग में भी पिसी सौंफ को ठंडे पानी से लेने पर फायदा होता है जलन उदरशूल पित्तविकार मरोड़ आदि में सौफ का सेवन बहुत लाभकारी होता है.

५ . त्वचा के लिए - रोजना सुबह और शाम दस-दस ग्राम सौंफ बिना मीठा मिलाए चबाने से रक्त साफ होता है और त्वचा का रंग भी साफ होने लगता है. खून के बढ़ते दबाव में भी सौंफ से उपचार करें.

६. हाथ पांव में जलन की शिकायत होने पर सौंफ के बराबर मात्रा में धनिया और कूटकर मिश्री मिला लें. खाना खाने के बाद पानी से करीब एक चम्मच रोज लेने से यह शिकायत कुछ ही दिनों में दूर हो जाती है.

७. अगर आपके बच्चे को अक्सर अफरे की शिकायत रहती है या अपच, मरोड़, और दूध पलटने की शिकायत रहती है तो दो चम्मच सौंफ के पावडर को करीब दो सौ ग्राम पानी में अच्छी तरह से उबाल लें और ठण्डा कर शीशी में भर लें. इस पानी को एक-एक चम्मच दिन में दो तीन बार पिलाने से ये सारी शिकायतें दूर हो जाती हैं.
८. आँखों की रोशनी के लिए - सौफ हमेशा याददाश्त आर आँखों की रौशनी तेज करने लिए खाई जाती है, इससे कोलेस्ट्रोल भी काबू पाया जा सकता है, भोजन के बाद रोजाना आधे घंटे बाद ले सकते है, इससे लीवर में कोई परेशानी नही आती है.

पीपल के वृक्ष की पूजा क्यों करते हैं?



पीपल का वृक्ष सब वृक्षों में पवित्र माना गया है. पीपल को संस्कृत में अश्वत्थ कहते है. हिन्दुओ की धार्मिक आस्था के अनुसार विष्णु का पीपल के वृक्ष में निवास है. 

श्रीमदभगवत गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है-"अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां" अर्थात वृक्षों में, मै पीपल हूँ. स्कंध पुराण में बताया गया है.


मूलतः ब्रह्म रूपाय मध्यतो विष्णु रुपिणः। 
अग्रतः शिव रुपाय अश्वत्त्थाय नमो नमः।


अर्थात पीपल के वृक्ष में ब्रह्म, विष्णु, महेश तीनो देवताओ का वास होता है, पीपल की जड़ में 'विष्णुजी',तने में 'केशव' (कृष्णजी), शाखाओ में 'नारायण',पत्तों में भगवान 'हरि' और फलो में समस्त देवताओं का निवास है. पीपल को प्रणाम करने और उसकी परिक्रमा करने से आयु वृद्धि होती है। पीपल को जल से संचित करने वाला व्यक्ति के सारे पापों से मुक्त हो जाता है.
अश्वत्थ: पूजितोयत्र पूजिता:सर्व देवता:। 

अर्थात शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं. पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती. पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं.

पीपल में पितरों का वास भी माना गया है. पीपल में सभी तीर्थों का निवास माना गया है शनि की साढे साती में पीपल के पूजन और परिक्रमा का विधान बताया गया है. रात में पीपल की पूजा को निषिद्ध माना गया है.क्योंकि ऎसा माना जाता है कि रात्री में पीपल पर दरिद्रता बसती है और सूर्योदय के बाद पीपल पर लक्ष्मी का वास माना गया है.

वैज्ञानिक द्रष्टिकोण-

पीपल का वृक्ष २४ घंटे ऑक्सीजन छोड़ता है जो प्राणधारियो के लिए प्राण वायु कही जाती है. इस गुण के अतिरिक्त इसकी छाया सर्दियो में गर्मी देती है और गर्मियो में सर्दी, पीपल के पत्तों का स्पर्श होने पर वायु में मिले संक्रामक वायरस नष्ट हो जाते हैं. अतः वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से भी यह वृक्ष पूजनीय है.

पीपल की पूजा साक्षात देव शक्तियों के आवाहन और प्रभाव से पितृदोष, ग्रह दोष, सर्पदोष दूर कर लंबी उम्र, धन-संपत्ति, संतान, सौभाग्य व शांति देने वाली मानी गई है.

ऐसे करे दंडवत प्रणाम





प्रणाम करने का एक तरीका होता है. आईये जाने हमें कैसे प्रणाम करना चाहिये. दंडवतप्रणाम श्रीभगवान को दण्डवत अर्थात जैसे कोई डंडा पृथ्वी पर गिर जाता है,उसी प्रकार पृथ्वी पर गिरकर प्रणाम करना भक्ति का २५वां अंग है.इस प्रणाम में सर्वतो भावेन आत्मसमर्पण की भावना है. इसमें भक्त अपने को नितांत असहाय जानकार अपने शरीर इन्द्रिय मन को भगवान् के अर्पण कर देता है. यह आवश्यक है कि दण्डवत प्रणाम के समय चादर कुरता कमीज बनियान आदि को उतार देना चाहिए.

१.- मंदिर में ठाकुर को अपने बाये रखकर प्रणाम करना चाहिए.

२.- कपड़ों सहित हमेशा पंचांग प्रणाम करना चाहिए.

३.- पूरा लेट कर प्रणाम करना हो, केवल परिधान के वस्त्र(कमर के नीचे के पहरावा)को छोड़कर सब वस्त्र उतार देने चाहिए क्योंकि जहाँ दण्डवत प्रणाम करने की विधि का उल्लेख है,वहां लिखा है-जो व्यक्ति जामा कमीज कुरता चदरादि पहने हुए श्रीभगवान को दण्डवत प्रणाम करता है,उसका प्रणाम प्रभु स्वीकार नहीं करते है.इसलिए दण्डवत प्रणाम करते समय इस बात को सदा रखना चाहिए.महिलाओं द्वारा लेटकर प्रणाम नहीं करना चाहिए.

४.- पुरे वस्त्र पहन कर जो पूरा लेटकर प्रणाम करता है उसे सात जन्म तक कुष्ठ रोगी होना पड़ता है,वराह पूरण में ऐसा लिखा है-


"वस्त्र आवृत देहास्तु यो नरः प्रनमेत मम

श्वित्री सा जयते मूर्ख सप्त जन्मनी भामिनी"

६.- गुरुदेव को सामने से , नदी को, एवं सवारी को, उधर से प्रणाम करना चाहिए, जिधर से वह आ रही हो.

७.- मंदिर के पीछे से, भोजन करते समय, शयन के समय ठाकुर, गुरु, संत, वरिष्ठ या किसी को भी प्रणाम नहीं करना चाहिए.


श्रीभगवान् के सामने, अथवा उनकी सवारी आने पर,श्रीगुरुदेव के सामने और किसी भी वैष्णव महत पुरुष के सामने आने पर खड़े हो जाना चाहिए,उनके आने पर बैठे नहीं रहना चाहिए,जब तक स्वयं न बैठ जाएँ और बैठने की आज्ञा न दें. इसमें श्रीभगवान एवं श्रीगुरुजनों के प्रति सम्मान एवं आदर की भावना निहित है,जो उनकी कृपा प्राप्ति का एक साधन है. इस आचरण से श्रीहरि गुरु वैष्णवजन अतिशीघ्र प्रसन्न होते हैं एवं भक्ति की प्राप्ति होती है.

धार्मिक कार्यों में मौलि क्यों बांधते हैं?






हिंदू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानि पूजा-पाठ, यज्ञ, हवन आदि के पूर्व ब्राह्मण द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली(एक विशेष धार्मिक धागा) बांधी जाती है. मौली को रक्षा सूत्र, कलावा आदि भी कहते हैं.जिसका अपना धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व है.

शास्त्रों का ऐसा मत है कि मौलि बांधने से त्रिदेव - ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है. ब्रह्मा की कृपा से "कीर्ति", विष्णु की अनुकंपा से "रक्षा बल" मिलता है तथा शिव "दुर्गुणों" का विनाश करते हैं. इसी प्रकार लक्ष्मी से "धन", दुर्गा से "शक्ति" एवं सरस्वती की कृपा से "बुद्धि" प्राप्त होती है.


शरीर विज्ञान की द्रष्टि से मौली का महत्व

शरीर विज्ञान की दृष्टि से अगर देखा जाए तो मौलि बांधना उत्तम स्वास्थ्य भी प्रदान करती है. चूंकि मौलि बांधने से त्रिदोष- वात, पित्त तथा कफ का शरीर में सामंजस्य बना रहता है. शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है, अतः यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है.

ऐसी भी मान्यता है कि इसे बांधने से बीमारी अधिक नहीं बढती है. ब्लड प्रेशर, हार्ट एटेक, डायबीटिज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिये मौली बांधना हितकर बताया गया है. मौली शत प्रतिशत कच्चे धागे (सूत) की ही होनी चाहिये.

मौलि बांधने की प्रथा तब से चली आ रही है जब दानवीर राजा बलि के लिए वामन भगवान ने उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था.


शास्त्रों में भी इसका इस श्लोक के माध्यम से मिलता है -" येन बद्धो बलीराजा दानवेन्द्रो महाबल:
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल"..

इस मंत्र का सामान्यत: यह अर्थ लिया जाता है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं. हे रक्षे!(रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो.

धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं, यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं.


इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना. इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है.

कभी कभी मानव के लिए अशुभ ग्रहों के कुप्रभाव जीवन में कष्ट ले आते हैं. इससे पराजित होकर मनुष्य यत्र-तत्र भटकता रहता है. बड़े-बड़े सेठ, साहूकार एवं सम्राटों के सुनहरे स्वप्न छिन्न भिन्न हो जाते हैं. जीवन आकाश में दुखों के बादल छाए रहते हैं. इन्हीं उलझनों से बचने के लिए रक्षासूत्र सच्चे गुरु के द्वारा मंदिर में प्रभु के आशीर्वाद से धारण करना चाहिए.

मौली कब और कैसे धारण करे 

पुरुषों तथा अविवाहित कन्याओं के दाएं हाथ में तथा विवाहित महिलाओं के बाएं हाथ में मौली बांधा जाता है. जिस हाथ में कलावा या मौली बांधें उसकी मुट्ठी बंधी हो एवं दूसरा हाथ सिर पर हो. इस पुण्य कार्य के लिए व्रतशील बनकर उत्तरदायित्व स्वीकार करने का भाव रखा जाए.

पूजा करते समय नवीन वस्त्रों के न धारण किए होने पर मोली हाथ में धारण अवश्य करना चाहिए. धर्म के प्रति आस्था रखें. मंगलवार या शनिवार को पुरानी मौली उतारकर नई मोली धारण करें. संकटों के समय भी रक्षासूत्र हमारी रक्षा करते हैं.

व्यापार और घर में मौली का प्रयोग
वाहन, कलम, बही खाते, फैक्ट्री के मेन गेट, चाबी के छल्ले, तिजोरी पर पवित्र मौली बांधने से लाभ होता है, महिलाये मटकी, कलश, कंडा, अलमारी, चाबी के छल्ले, पूजा घर में मौली बांधें या रखें. मोली से बनी सजावट की वस्तुएं घर में रखेंगी तो नई खुशियां आती है.नौकरी पेशा लोग कार्य करने की टेबल एवं दराज में पवित्र मौली रखें या हाथ में मौली बांधेंगे तो लाभ प्राप्ति की संभावना बढ़ती है.

सूर्य-चन्द्र ग्रहण के समय भोजन क्यों वर्जित है ?





ग्रहण काल में भोजन - 

सूर्य और चंद्रग्रहण के समय भोजन निषिद्ध है. प्राचीन ऋषियों के अनुसार, ग्रहण के दौरान खाद्य पदार्थो तथा जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उन्हें दूषित कर देते है जिससे विभिन्न रोग होने की संभावना रहती है सूर्य-चंद्र ग्रहण के समय मनुष्य के पेट की पाचन-शक्ति कमजोर हो जाती है, जिसके कारण इस समय किया गया भोजन अपच, अजीर्ण आदि शिकायतें पैदा कर शारीरिक या मानसिक हानि पहुँचा सकता है.

सूतक काल –

भारतीय धर्म विज्ञानवेत्ताओं का मानना है कि सूर्य-चंद्र ग्रहण लगने से १२ घंटे पूर्व से ही इसका कुप्रभाव शुरू हो जाता है.अंतरिक्षीय प्रदूषण के समय को सूतक काल कहा गया है। इसलिए “सूतक काल” और ग्रहण के समय में भोजन तथा पेय पदार्थों के सेवन की मनाही की गई है. बूढ़े, बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व खा सकते हैं.

स्कंद पुराण' के अनुसार ग्रहण के अवसर पर दूसरे का अन्न खाने से बारह वर्षो का एकत्र किया हुआ सब पुण्य नष्ट हो जाता है. देवी भागवत में आता हैः सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्षों तक अरुतुन्द नामक नरक में वास करता है.



ग्रहण काल

ग्रहण से हमारी जीवन शक्ति का हास होता है और तुलसी दल (पत्र) में विद्युत शक्ति व प्राण शक्ति सबसे अधिक होती है, इसलिए सौर मंडलीय ग्रहण काल में ग्रहण प्रदूषण को समाप्त करने के लिए भोजन तथा पेय सामग्री में तुलसी के कुछ पत्ते डाल दिए जाते हैं। जिसके प्रभाव से न केवल भोज्य पदार्थ बल्कि अन्न, आटा आदि भी प्रदूषण से मुक्त बने रह सकते हैं.

पुराणों की मान्यता के अनुसार राहु चंद्रमा को तथा केतु सूर्य को ग्रसता है. चन्द्र ग्रहण में मन की शक्ति क्षीण होती है, जबकि सूर्य ग्रहण के समय जठराग्नि, नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमजोर पड़ती है.




गर्भवती स्त्री के लिए

गर्भवती स्त्री को सूर्य-चंद्र ग्रहण नहीं देखने चाहिए, क्योंकि उसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन सकता है, गर्भपात की संभावना बढ़ जाती है. इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहु-केतु उसका स्पर्श न करें.

ग्रहण काल में वर्जित चीजे


1. - सूर्यग्रहण मे ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्र ग्रहण मे तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये । बूढे बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चंद्र, जिसका ग्रहण हो,

2. - ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए. बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिये व दंत धावन नहीं करना चाहिये.

3. - ग्रहण के समय तेल लगाना,मालिश या उबटन किया तो व्यक्ति कुष्‍ठ रोगी होता है ,ग्रहण के समय सोने से रोग पकड़ता है, लघुशंका करने से घर में दरिद्रता आती है, मल त्यागने से पेट में कृमि रोग पकड़ता है, मैथुन करना और भोजन करना जल पीना, - ये सब कार्य वर्जित हैं.

4. - ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमंदों को वस्त्र दान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है.

5. - भागवत' में आता है कि भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिये.


ग्रहण के पूर्व

1. - ग्रहण लगने के पूर्व नदी या घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान्‌ का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए. भजन-कीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें.

2. - भगवान वेदव्यास जी ने परम हितकारी वचन कहे हैं- चन्द्रग्रहण में किया गया पुण्यकर्म (जप, ध्यान, दान आदि) एक लाख गुना और सूर्य ग्रहण में दस लाख गुना फलदायी होता है. यदि गंगा जल पास में हो तो चन्द्रग्रहण में एक करोड़ गुना और सूर्यग्रहण में दस करोड़ गुना फलदायी होता है।

3. - ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें। ग्रहण के समय में मंत्रों का जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है.




ग्रहण समाप्ति पर

1. - ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राह्‌मण को दान देने का विधान है. 

2. - पुराना पानी, अन्न नष्ट कर नया भोजन पकाया जाता है और ताजा भरकर पिया जाता है.



क्यों लगाते है मंदिरो में घंटा ?




अक्सर जब हम मंदिर जाते है तो सबसे पहले घंटी जरुर बजाते है,और घर में भी पूजा करने पर घंटी बजाते है. क्या कभी सोचा है मंदिर में घंटी क्यों लगी होती है ?

मंदिरों से हमेशा घंटी की आवाज आती रहती है. सामान्यत: सभी श्रद्धालु मंदिरों में लगी घंटी अवश्य बजाते हैं. घंटी की आवाज हमें ईश्वर की अनुभूति तो कराती है साथ ही हमारे स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद है. घंटी आवाज से जो कंपन होता है उससे हमारे शरीर पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. घंटी की आवाज से हमारा दिमाग बुरे विचारों से हट जाता है और विचार शुद्ध बनते हैं. इसके पीछे ऋषियों का नाद विज्ञान हैं.

पुरातन काल से ही मंदिरों में घंटियां से लगाई जाती हैं. सुबह-शाम मंदिरों में जब पूजा-आरती की जाती है तो छोटी घंटियों, घंटों के अलाव घडिय़ाल भी बजाए जाते हैं. इन्हें विशेष ताल और गति से बजाया जाता है. इन लय युक्त तरंगौं का प्रभाव व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पडता है ऐसा माना जाता है कि घंटी बजाने से मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति के देवता भी चैतन्य हो जाते हैं, जिससे उनकी पूजा प्रभावशाली तथा शीघ्र फल देने वाली होती है.

पुराणों के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से हमारे कई पाप नष्ट हो जाते हैं. जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद (आवाज) था, वहीं स्वर घंटी की आवाज से निकलती है. यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जाग्रत होता है. घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है. धर्म शास्त्रियों के अनुसार जब प्रलय काल आएगा तब भी इसी प्रकार का नाद प्रकट होगा.स्कंद पुराण के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से मानव के सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं.

मंदिरों में घंटी बजाने का वैज्ञानिक कारण भी है. अधिक भीड़ के समय भक्तों को संक्रामक बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है,जब घंटी बजाई जाती है तो उससे वातावरण में कंपन उत्पन्न होता है जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है. इस कंपन की सीमा में आने वाले जीवाणु, विषाणु आदि सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं तथा मंदिर का तथा उसके आस-पास का वातावरण शुद्ध बना रहता है.

सिर पर शिखा का क्या महत्व है ?





हम देखते है कि बहुत से लोग सिर पर शिखा(चोटी) रखते है. पर सिर पर शिखा रखने का क्या तात्पर्य है,हम ये समझ नहीं पाते. सिर पर शिखा ब्राह्मणों,संतो, वैष्णवों की पहचान मानी जाती है। लेकिन यह केवल कोई पहचान मात्र नहीं है।

१. - जिस जगह शिखा (चोटी) रखी जाती है, यह शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान भी है। शिखा एक धार्मिक प्रतीक तो है ही साथ ही मस्तिष्क के संतुलन का भी बहुत बड़ा कारक है। आधुनिक युवा इसे रुढ़ीवाद मानते हैं लेकिन असल में यह पूर्णत: वैज्ञानिक है। दरअसल, शिखा के कई रूप हैं।


२. - आधुनकि दौर में अब लोग सिर पर प्रतीकात्मक रूप से छोटी सी चोटी रख लेते हैं लेकिन इसका वास्तविक रूप यह नहीं है। वास्तव में शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे सिर में बीचोंबीच सहस्राह चक्र होता है। 

शरीर में पांच चक्र होते हैं, मूलाधार चक्र जो रीढ़ के नीचले हिस्से में होता है और आखिरी है सहस्राह चक्र जो सिर पर होता है। इसका आकार गाय के खुर के बराबर ही माना गया है। शिखा रखने से इस सहस्राह चक्र का जागृत करने और शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है।शिखा का हल्का दबाव होने से रक्त प्रवाह भी तेज रहता है और मस्तिष्क को इसका लाभ मिलता है।

३.- ऐसा भी कहा जाता है कि मृत्यु के समय आत्मा शरीर के द्वारों से बाहर निकलती है (मानव शरीर में नौ द्वार बताये गए है दो आँखे, दो कान, दो नासिका छिद्र, दो नीचे के द्वार, एक मुह )और दसवा द्वार यही शिखा या सहस्राह चक्र जो सिर में होता है , कहते है यदि प्राण इस चक्र से निकलते है तो साधक की मुक्ति निश्चत है.और सिर पर शिखा होने के कारण प्राण बड़ी आसानी से निकल जाते है. 


और मृत्यु हो जाने के बाद भी शरीर में कुछ अवयव ऐसे होते है जो आसानी से नहीं निकलते, इसलिए जब व्यक्ति को मरने पर जलाया जाता है तो सिर अपने आप फटता है और वह अवयव बाहर निकलता है यदि सिर पर शिखा होती है तो उस अवयव को निकलने की जगह मिल जाती है.

सिर पर चोंटी रखने की परंपरा को इतना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है कि , इस कार्य को हिन्दुत्व की पहचान तक माना लिया गया। योग और अध्यात्म को सुप्रीम सांइस मानकर जब आधुनिक प्रयोगशालाओं में रिसर्च किया गया तो, चोंटी के विषय में बड़े ही महत्वपूर्ण ओर रौचक वैज्ञानिक तथ्य सामने आए।


शिखा रखने से मनुष्य लौकिक तथा पारलौकिक समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त करता है. शिखा रखने से मनुष्य प्राणायाम, अष्टांगयोग आदि यौगिक क्रियाओं को ठीक-ठीक कर सकता है। शिखा रखने से सभी देवता मनुष्य की रक्षा करते हैं। शिखा रखने से मनुष्य की नेत्रज्योति सुरक्षित रहती है। शिखा रखने से मनुष्य स्वस्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी और दीर्घायु होता है।

एकादशी के दिन चावल क्यों नहीं खाते ?



एकादशी का व्रत क्यों करते है

शास्त्रों में कहा गया है-

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु. 
बुद्धिं तु सारथि विद्धि येन श्रेयोअहमाप्नुयाम. 

अर्थात आत्मा को रथी जानो, शरीर को रथ और बुद्धि को सारथी मानो. इनके संतुलित व्यवहार (आचरण) से ही श्रेय अर्थात श्रेष्ठत्व की प्राप्त होती है. इसमें इंद्रिय रूपी घोड़े तथा मन रूपी की लगाम होना भी जरुरी है. इस प्रकार दस इन्द्रियों के बाद मन को भी ग्यारहवीं इन्द्रिय शास्त्र ने माना है. अतएव इंद्रियों की कुल संख्या एकादश होती है.

एकादशी तिथि को मन:शक्ति का केन्द्र चन्द्रमा क्षितिज की एकादशवीं कक्षा पर अवस्थित होता है. यदि इस अनुकूल समय में मनोनिग्रह की साधना की जाए तो वह फलवती सिद्ध हो सकती है. इसी वैज्ञानिक आशय से ही एकादशेन्द्रियभूत मन को एकादशी तिथि के दिन धर्मानुष्ठान एवं व्रतोपवास द्वारा निग्रहीत करने का विधान किया गया है. यदि सार रूप में कहा जाए तो एकादशी व्रत करने का अर्थ है- अपनी इंद्रियों पर निग्रह करना.


एकादशी में चावल वर्जित क्यों

एकादशी के दिन चावल न खाने के संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि चावल और अन्य अन्नों की खेती में क्या अंतर है. यह सर्वविदित है कि चावल की खेती के लिए सर्वाधिक जल की आवश्यकता होती है. एकादशी का व्रत इंद्रियों सहित मन के निग्रह के लिए किया जाता है. ऎसे में यह आवश्यक है कि उस वस्तु का कम से कम या बिल्कुल नहीं उपयोग किया जाए जिसमें जलीय तत्व की मात्रा अधिक होती है.

कारण- चंद्र का संबंध जल से है. वह जल को अपनी ओर आकषित करता है. यदि व्रती चावल का भोजन करे तो चंद्रकिरणें उसके शरीर के संपूर्ण जलीय अंश को तरंगित करेंगी. परिणामत: मन में विक्षेप और संशय का जागरण होगा. इस कारण व्रती अपने व्रत से गिर जाएगा या जिस एकाग्रता से उसे व्रत के अन्य कर्म-स्तुति पाठ, जप, श्रवण एवं मननादि करने थे, उन्हें सही प्रकार से नहीं कर पाएगा. ज्ञातव्य हो कि औषधि के साथ पथ्य का भी ध्यान रखना आवश्यक होता है.

!!! पूजा में नैवेध और प्रसाद का महत्व !!!




प्रत्येक देवता का नैवेध निर्धारित होता है लेकिन इसका मतलब ये नहीं होता कि आप इन्ही वस्तुओ का भोग लगाये ईश्वर श्रद्धा को ज्यादा महत्व देते है.भाव के बिना कुछ भी नहीं है.भाव भक्ति होनी जरुरी है.कहते है कि भगवान तो भाव के भूखे है.


लेकिन जैसे आप अपना मन पसंद पदार्थ देखकर खुश होते है इसी प्रकार देवता भी मन पसंद नैवेध देख कर प्रसन्न हो कर आशीर्वाद देते है, प्रिय पदार्थ देवता को आकृष्ट करते है और वह नैवेध अर्थात प्रसाद जब हम ग्रहण करते है तो उसमे विघमान शक्ति हमें प्राप्त होती है.



कौन से देवता को कौन सा नैवेध


१. - विष्णु जी को खीर या सूजी हलवा का नैवेध बहुत पसंद है.
२. - गणेश जी को मोदक या लड्डू का नैवेध बहुत पसंद है.
३. - श्री कृष्ण को माखन-मिश्री का नैवेध बहुत पसंद है.
४. - शिव को भांग का नैवेध बहुत पसंद है.
५. - अन्नपूर्णा माता को अन्न के बने पदार्थ,देवी को पायस या खीर बहुत 

       पसंद है. 
६. - लक्ष्मी जी को सफ़ेद रंग से मिष्ठान बहुत पसंद होते है.
       नैवेध कैसे चढ़ाये



नैवेध की थाली और भोजन की थाली परोसने कि पद्धति में सिर्फ एक अंतर होता है भोजन की थाली परोसते समय सबसे पहले नमक परोसा जाता है और नैवेध की थाली में मिष्ठान सबसे महत्वपूर्ण होते है इसके अलावा पकवान रखने चाहिये प्रत्येक खाघान्न पर तुलसी दल रखकर थाली के चारो ओर जल की धार गोल घुमाते हुए घंटी बजानी चाहिये.

नैवेध की थाली तुरंत भगवान के आगे से नहीं हटाना चाहिये. कुछ देर बाद सभी लोगो को इस थाली से प्रसाद बांटना चाहिये. गणेश जी और शिव जी के नैवेध में तुलसी पत्र नहीं रखते गणेश जी के नैवेध में दूर्वा दल और शिव जी के नैवेध में बेल पत्र रखते है.


प्रसाद का महत्व

जब हम भगवान को खाघ पदार्थ अर्पण करते है तो वह "भोग या नैवेध" कहलाता है और भगवान के ग्रहण करने के बाद वह "प्रसाद" बन जाता है.प्रसाद चाहे सूखा हो, बासी हो, अथवा दूर देश से लाया हुआ हो, उसे पाते ही खा लेना चाहिये. उसमे काल के विचार करने की आवश्यकता नहीं है, महा प्रसाद में काल या देश का नियम नहीं है. जिस समय भी महा प्रसाद मिल जाये, उसे वही उसी समय पाते ही जल्दी से खा ले,ऐसा भगवान ने साक्षात् अपने श्री मुख से कहा है.कभी भी प्रसाद का निरादर नहीं करना चाहिये, और ना ही लेने से मना करना चाहिये.

स्वयं भगवान ने कहा है - 


"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति 
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:"



जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेम से पत्र (पत्ती), पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ, वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूँ.. जब श्रद्धा रूपी पत्र हो ,सुमन अर्थात फूल, हमारा अच्छा मन ही सुमन है,फल अर्थात अपने कर्म फल और जल अर्थात भाव में नैनो से बहें हुए, दो बूंद आँसू हो, इसे ही भगवान ग्रहण करते है.

तो आईये हम भी अपने अपने इष्ट को उनका मन पसंद नैवेध अर्पण करे और उनका आशीर्वाद प्राप्त करे.

पूजन में आरती का क्या विधान है ?




हिंदू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म-कांड के बाद भगवान की आरती उतारने का विधान है। देखने में आता है कि प्रत्येक व्यक्ति जानकारी के अभाव में अपनी इच्छानुसार भगवान की आरती उतारता है। जबकि भगवान की आरती उतारने के भी कुछ विशेष नियम होते हैं।

आरती के दो भाव है जो क्रमश: 'आरात्रिक अथवा ‘नीराजन’ और ‘आरती’ शब्द से व्यक्त हुए हैं। नीराजन (नि:शेषेण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है- विशेष रूप से, नि:शेष रूप से प्रकाशित हो उठे चमक उठे, अंग-प्रत्यंग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाय जिसमें दर्शक या उपासक भलीभाँति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके।

दूसरा ‘आरती’ शब्द (जो संस्कृत के आर्तिका प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है- अरिष्ट) विशेषत: माधुर्य- उपासना से संबंधित है। ‘आरती वारना’ का अर्थ है- आर्ति-निवारण, अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना।


आरती कैसे करे

आरती में पहले मूलमन्त्र (जिस देवता का जिस मन्त्र से पूजन किया गया हो, उस मन्त्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगारे, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों के तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुभ पात्र में धृत से या कपूर से विषम संख्या की (1,5,7,11,21,101) अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिये-विषम संख्याओ में तीन की संख्या वर्जित है.

तत्श्च मूलमन्त्रेण दत्वा पुष्पांजलित्रयम्।
महानीराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनै:।।
प्रज्वलयेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्तिकम्।।


साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कपूर से भी आरती होती है। पद्मपुराण में आया है-


कुंकुमागुरुकर्पूरघृतचन्दननिर्मिता:
वर्तिका: सप्त वा पंच कृत्वा वा दीपवर्त्तिकाम्।।
कुर्यात् सप्तप्रदीपेन शंखघण्टादिवाद्यकै:।


‘कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चन्दन की सात या पाँच बत्तियाँ बनाकर अथवा दिये की (रुई और घी की) बत्तियाँ बनाकर सात बत्तियों से शंख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिये।’

‘आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान् की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाये, दो बार नाभि देश में, एक बार मुख मण्डल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमाये’इया तरह चौदह बार आरती घुमानी चाहिये.



आदौ चतु: पादतले च विष्णो-
र्द्वौ नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्।
सर्वेषु चांग्ङेषु च सप्तवारा-
नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात्।।


आरती के अंग


आरती के पाँच अंग होते हैंअर्थात केवल आरती करना अकेला नहीं आता बल्कि उसके साथ साथ कुछ और क्रियाए भी होती है जिसे आरती के अंग कहा जाता है -


पंच नीराजनं कुर्यात् प्रथमं दीपमालया।।

द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा।।

चूताश्चत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम्।

पंचमं प्रणिपातेन साष्टांकेन यथाविधि।।


अर्थात - ‘प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल आदि के पत्तों से और पाँचवें साष्टांग दण्डवत् से आरती करे।’


१. दीपमाला के द्वारा - साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है।

२. सोदकाब्ज – जल युक्त शंख चौदह बार प्रज्वलित ज्योतियो द्वारा आरती करने से इष्ट देव के श्री अंगों को जो ताप पहुँचता है उसके निवारण शीतलीकरण के लिए शंख में जल भरकर बार बार घुमाया जाता है,और बीच बीच में थोडा थोडा जल भूमि पर छोड़ा जाता है शंख के अभाव में शुद्ध पात्र द्वारा भी निर्मच्छन किया जाता है .

३.धौतवास - अर्थात धुला हुआ वस्त्र, दाये हाथ में शुद्ध स्वच्छ मुलायम और सुखा वस्त्र लेकर उसी प्रकार घुमाया जाता है इसका भाव यह है कि जल से शीतलीकरण करते हुए जो भावमय जल बिंदु इष्ट के श्री अंगों पर पड़ गए हो उन्हें पोछना .

४. चमर – मयूरपिच्छ का पंखा लेकर श्री विग्रह से ऊपर हवा में लहराते हुए धीरे धीरे घुमाना इस प्रकार शीतल मंद पवन से इष्ट को आराम पहुँचाना चमर को जोर से तीव्र गति से पंखे कि भांति नहीं चलाना चाहिये .

५. दंडवत – साष्टांग प्रणाम इसका भाव स्वतः स्पष्ट है आत्म निवेदन–समर्पण और क्षमा प्रार्थना करना.


आरती लेने का अर्थ –

ऐसे कहा जाता है कि प्रज्वलित दीपक अपने इष्ट देव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्र-बाधा टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है- उनकी ‘आर्ति’ (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बलि जाना, वारी जाना, न्योछावर होना आदि सभी प्रयोग इसी भाव के द्योतक हैं यह ‘आरती’ मूलरूप में कुछ मन्त्रोंच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के भाव से उतारी जाती रही होगी। आरती के साथ सुन्दर-सुन्दर भावपूर्ण पद्य-रचनाएँ गाये जाते हैं।
आरती देखने का महत्व –


आरती करने का ही नही, आरती देखने का भी बड़ा पुण्य लिखा है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है-

नीराजनं च य: पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।

सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम्।।१

धूपं चारात्रिकं पश्येत् कराभ्यां च प्रवन्दते।
कुलकोटि समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।२



१. अर्थात - ‘जो देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णुभगवान् की आरती (सदा) देखता है, वह सात जन्मों तक ब्राह्मण होकर अन्त में परमपद को प्राप्त होता है।’

२. अर्थात - ‘जो धूप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है और भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।’


ध्यान रखने योग्य बाते – १. - पंच नीराजन में जलते हुए दीप युक्त दीप पात्र को आरती से पूर्व और आरती से बाद खाली भूमि पर नहीं रखना चाहिये ,लकड़ी या पत्थर कि चौकी या किसी पात्र में आरती पात्र को रखना चाहिये. 


“भूमौ प्रदीप यो र्पयति सोन्ध सप्तजन्मसु “
२. – निर्मच्छन हेतु शंख में जल भरने के लिए शंख को जल में डुबोकर कभी नहीं भरना चाहिये.ऊपर से जल डालकर शंख में भरना चाहिये .बजाने वाले (छिद्रयुक्त)शंख में जल भरकर निर्मच्छन नहीं करना चाहिये .शंख चाहे रिक्त हो या जल से भरा कभी खाली भूमि पर नहीं रखना चाहिये.


३. – निर्मच्छन में उपयुक्त वस्त्र स्वच्छ शुद्ध कोमल हो,उसे अन्य कार्य में ना लिया जावे यहाँ तक कि श्री विग्रह के स्नानोपरांत अंग पोछने के कार्य में भी ना लिया जावे .


४. – आरती में बजाई जाने वाली घंटी को भी भूमि पर नहीं रखनी चाहिये .



आरती के महत्व को विज्ञानसम्मत भी माना जाता है। आरती के द्वारा व्यक्ति की भावनाएँ तो पवित्र होती ही हैं, साथ ही आरती के दीये में जलने वाला गाय का घी तथा आरती के समय बजने वाला शंख वातावरण के हानिकारक कीटाणुओं को निर्मूल करता है। इसे आज का विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है।