21 September 2012

जीवन की सच्चाई:


जब व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उसको जलाने के बाद वो मात्र '20 ग्राम मिट्टी' में बदल जाता है और उस मिट्टी में 8 रुपये का कैल्सियम, 2-2.5 रुपये का फास्फोरस और 10-11 रुपये के अन्य माइक्रो न्यूटरिएण्ट्स होते हैं, मतलब मरने के बाद आदमी की 'कीमत 20 रुपये' से ज्यादा नहीं है। 


इसलिए विलासिता को छोडकर अपना राष्ट्रधर्म निभाएँ जिससे जिस मिट्टी में पैदा हुए हैं, शायद उसका थोड़ा सा भी कर्ज़ चुका सकें।

॥ वन्दे मातरम् ॥

मंत्र का शाब्दिक मतलब होता है मनन करना।


मंत्र का शाब्दिक मतलब होता है मनन करना। मगर फल की दृष्टि से मंत्र का मतलब होता है मन की पीड़ा का त्राण यानी अंत करने वाला। मंत्र शक्ति से जब दु:खों से छुटकारे के धार्मिक उपाय पर विचार किया जाता है, तब एक ही मंत्र सर्वश्रेष्ठ माना गया है। वह
है - महामृत्युंजय मंत्र।


धर्म परंपराओं में यह शिव के महामृत्युंजय रूप की आराधना से रोग, काल भय और दु:खों के शमन का मंत्र है। किंतु शास्त्रों में इस मंत्र से कामनापूर्ति का भी महत्व बताया गया है। साथ ही यह शिव ही नहीं बल्कि अनेक देवताओं की उपासना का भी अद्भुत मंत्र है।

शास्त्रों के मुताबिक यह मंत्र 32 अक्षरों से बना है। किंतु ऊँ के जुडऩे पर मंत्र 33 अक्षरों का हो जाता है। इसलिए इसे तैंतीस अक्षरी मंत्र भी कहा जाता है। चूंकि मंत्रों में आने वाले अक्षर, शब्द, स्वर, व्यंजन, ध्वनि और बिंदु देवीय शक्तियों के ही रूप और बल के संकेत होते हैं। इसी तरह महामृत्युंजय मंत्र के 33 अक्षरों में 33 देवीय शक्तियां मानी गई है,जिससे यह मंत्र बहुत प्रभावशाली और शक्तिशाली माना जाता है।

ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।
त्र - ध्रुव वसु। यम - अध्वर वसु। ब - सोम वसु। कम् - वरुण। य- वायु। ज - अग्नि। म - शक्ति। हे - प्रभास। सु - वीरभद्र। ग - शम्भु। न्धिम - गिरीश। पु - अजैक। ष्टि - अहिर्बुध्न्य। व - पिनाक। र्ध - भवानी पति। नम् - कापाली। उ - दिकपति। र्वा - स्थाणु। रु -भर्ग। क - धाता। मि - अर्यमा। व- मित्रादित्य। ब - वरुणादित्य। न्ध - अंशु। नात - भगादित्य। मृ - विवस्वान। त्यो - इंद्रादित्य। मु - पूषादिव्य। क्षी - पर्जन्यादिव्य। य - त्वष्टा। मा - विष्णुऽदिव्य। मृ - प्रजापति। तात -वषट। इस तरह मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1-1 प्रजापति और वषट यानी त्रिदेव की शक्तियां समाई है, इससे इसे स्मरण करने वाला काल, संकट, रोग व तमाम दःखों से सुरक्षित रहता है।

सनातन संस्कृति की सप्त-पुरियाँ...


शास्त्रों में मुक्ति के पांच प्रकार बताये गये हैं...

१) ब्रह्म-ज्ञान
२) भक्ति द्वारा भगवत-कृपा प्राप्ति...
३) पुत्र-पौत्रादि, गोत्रज, कुटुम्बियो आदि द्वारा गया आदि तीर्थो में संपादित श्राद्ध कर्म...
४) धर्म-युद्ध और गौ-रक्षा आदि में मृत्यु...
५) कुरुक्षेत्र, पुष्कर आदि प्रधान तीर्थो में और सप्त प्रधान मोक्ष-दायिनी पुरियो में निवास-पूर्वक शरीर- त्याग सभी तीर्थ फल देने वाले और पुण्य प्रदान करने वाले होते हैं... अपनी अद्भुत विशेषताओं के कारण यह सप्त-पुरिया अत्यंत प्रसिद्द हैं...

" अयोध्या मथुरा माया कशी कांची अवंतिका | पुरि द्वारावती श्रेया: सप्तैता मोक्षयका: ||"

१) अयोध्या... यह सात मोक्षदायिनी पुरियो में प्रथम है... यह भगवा श्री हरि के सुदर्शन चक्र पर बसी है... भगवान् राम की जन्म-भूमि होने के कारण इसका महत्व बहुत है... इसका आकार मछली के समान है...स्कन्द-पुराण के वैष्णव खंड के अयोध्या महातम्य के अनुसार... अयोध्या का मान सहस्त्र-धारा तीर्थ से एक योजन पूर्व तक, ब्रह्म-कुण्ड से एक योजन पश्चिमतक... दक्षिण में तमसा नदी तक... और उत्तर में सरयू नदी तक है...
अयोध्या में ब्रह्मा जी द्वारा निर्मित ब्रह्म-कुण्ड है... और सीता जी द्वारा निर्मित सीता-कुण्ड भी है, जिसे भगवान् राम ने समस्त मनोकामनाओ को पूर्ण करने वाला बना दिया है... यहाँ सहस्त्र-धारा से पूर्व स्वर्ग-द्वार है... इस स्थान पर हवन , यज्ञ, दान पुण्य आदि अक्षय हो जाता है...

२) मथुरा-वृन्दावन. .. यह यमुना जी के दोनों तरफ बसा है... यमुना जी के दक्षिण भाग में इसका विस्तार ज्यादा है... यमुना जी का भी महत्व है... क्यूंकि यमुना जी सूर्य-पुत्री हैं और यमराज की बहन हैं... श्रीकृष्ण की प्रेमिका हैं... और भगवान् श्रीकृष्ण की जन्म-भूमि होने से इसका महत्व बहुत ज्यादा है...

३) हरिद्वार [ मायापुरी ]... यह तीसरी पवित्र पुरी है... यह एक शक्तिपीठ भी है... कनखल से ऋषिकेश तक का क्षेत्र मायापुरी कहलाता है... गंगा माता पर्वतो से उतरकर सर्वप्रथम यहीं समतल भूमि पर प्रवेश करती हैं... और मनुष्यों के पापो की निवृत्ति करती हैं...

४) काशी जी [ वाराणसी ]... यह नगरी भगवान् शिव के त्रिशूल पर बसी है... इस नगरी के लिए कहा जाता है की यह प्रलय काल में भी नष्ट नहीं होगी... 'वरुण' और 'असी' के मध्य होने से इसे वाराणसी कहा गया है... यहाँ पर सैंकड़ो घाट हैं... और विश्वेश्वर लिंग स्वरुप विश्वनाथ मंदिर... अन्नपूर्णा मंदिर... संकट-मोचन मंदिर... गीता मंदिर... और सहस्त्रों अन्य मंदिर और पवित्रतीर्थ स्थान हैं... जो काशी जी की शोभा और महातम्य को बढाते हैं...

५) कांची... पेलार नदी के तट पर स्थित शिव-कांची और विष्णु-कांची नामो से विभक्त हरी-हरात्मक पुरी है... शिव-कांची विष्णु-कांची से बड़ी है... यह मद्रास से ७५ किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित है... यहाँ वामन मंदिर... कामाख्या मंदिर... सुब्रह्मण्यम मंदिर आदितीर्थ स्थल हैं...और सर्वतीर्थ सरोवर भी है...

६) उजैन... उज्जैन को पृथ्वी की नाभि कहा जाता है... यहाँ महाकाल ज्योतिर्लिंग और हरसिद्धि देवी शक्तिपीठ प्रसिद्द है... सम्राट विक्रमादित्य के समय में यह सम्पूर्ण भारत की राजधानी रही है... यह मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से ११५ किलोमीटर पश्चिम में है... यहाँ क्षिप्रा नदी शहर के बीचों-बीच से बहती है... यहाँ असंख्यो मंदिर हैं... प्रातन काल में ऐसा कहा जाता था की यदि १०० बैल-गाडी अनाज की भर कर यहाँ लायी जाए और एक-एक मुट्ठी अनाज यहाँ के हर मंदिर में दिया जाए... तो अनाज कम पड़ जायगा परन्तु मंदिरों की गिनती पूर्ण नहीं होगी...

७) द्वारका... द्वारका पुरी सप्त-पुरीयों के साथ ही चार धामों में भी परिगणित है... यह सातवी पुरी है जो गुजरात प्रदेश के काठियावाड़ जिले के पश्चिम समुद्र तट पर स्थित है... भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने जीवन का अधिकांश समय यहीं व्यतीत किया था... यहाँ अनेको मंदिर और तीर्थ-स्थल हैं...

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय...

अपने आप को भारतीय कहलाने वाले गर्व करो |



अपने आप को भारतीय कहलाने वाले गर्व करो |
पाश्चात्य संस्कृति पर मरने वालो शर्म करो |

भारत के प्राचीन ग्रन्थों में आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों तथा उन के युद्धों का विस्तरित वर्णन है। सैनिक क्षमताओं वाले विमानों के प्रयोग, विमानों की भिडन्त, तथा ऐक दूसरे विमान का अदृष्य होना और पीछा करना किसी आधुनिक वैज्ञिानिक उपन्यास का आभास देते हैं लेकिन वह कोरी कलपना नहीं यथार्थ है।

प्राचीन वामानों के प्रकार

प्राचीन विमानों की दो श्रेणिया इस प्रकार थीः-

मानव निर्मित विमान, जो आधुनिक विमानों की तरह पंखों के सहायता से उडान भरते थे।

आश्चर्य जनक विमान, जो मानव निर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडन तशतरियों’ के अनुरूप है।


विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ

भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया। प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्हों ने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उन में से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-
1. ऋगवेद- इस आदि ग्रन्थ में कम से कम 200 बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हे अश्विनों (वैज्ञिानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणत्या तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण, रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई सन्देह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी। याता-यात के लिये ऋग वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-

जल-यान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 6.58.3)

कारा – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 9.14.1)

त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋग वेद 3.14.1)

त्रिचक्र रथ – यह तिपहिया विमान आकाश में उड सकता था। (ऋग वेद 4.36.1)

वायु रथ – रथ की शकल का यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 5.41.6)

विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 3.14.1).

2. यजुर्वेद में भी ऐक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिस का निर्माण जुडवा अशविन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्हो मे राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।

3. विमानिका शास्त्र –1875 ईसवी में भारत के ऐक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की ऐक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से 400 वर्ष पूर्व का बताया जाता है तथा ऋषि भारदूाज रचित माना जाता है। इस का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के 97 अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा 20 ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तरित जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियाँ अब लुप्त हो चुकी हैं। इन ग्रन्थों के विषय इस प्रकार थेः-

विमान के संचलन के बारे में जानकारी, उडान के समय सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी, तुफान तथा बिजली के आघात से विमान की सुरक्षा के उपाय, आवश्यक्ता पडने पर साधारण ईंधन के बदले सौर ऊर्जा पर विमान को चलाना आदि। इस से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि इस विमान में ‘एन्टी ग्रेविटी’ क्षेत्र की यात्रा की क्षमता भी थी।

विमानिका शास्त्र में सौर ऊर्जा के माध्यम से विमान को उडाने के अतिरिक्त ऊर्जा को संचित रखने का विधान भी बताया गया है। ऐक विशेष प्रकार के शीशे की आठ नलियों में सौर ऊर्जा को एकत्रित किया जाता था जिस के विधान की पूरी जानकारी लिखित है किन्तु इस में से कई भाग अभी ठीक तरह से समझे नहीं गये हैं।

इस ग्रन्थ के आठ भाग हैं जिन में विस्तरित मानचित्रों से विमानों की बनावट के अतिरिक्त विमानों को अग्नि तथा टूटने से बचाव के तरीके भी लिखित हैं।

ग्रन्थ में 31 उपकरणों का वर्तान्त है तथा 16 धातुओं का उल्लेख है जो विमान निर्माण में प्रयोग की जाती हैं जो विमानों के निर्माण के लिये उपयुक्त मानी गयीं हैं क्यों कि वह सभी धातुयें गर्मी सहन करने की क्षमता रखती हैं और भार में हल्की हैं।

4. यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रन्थ भी ऋषि भारदूाजरचित है। इस के 40 भाग हैं जिन में से एक भाग ‘विमानिका प्रकरण’के आठ अध्याय, लगभग 100 विषय और 500 सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारदूाजने विमानों को तीन श्रेऩियों में विभाजित किया हैः-

अन्तरदेशीय – जो ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।

अन्तरराष्ट्रीय – जो ऐक देश से दूसरे देश को जाते

अन्तीर्क्षय – जो ऐक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते

इन में सें अति-उल्लेखलीय सैनिक विमान थे जिन की विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं। उदाहरणार्थ सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-

पूर्णत्या अटूट, अग्नि से पूर्णत्या सुरक्षित, तथा आवश्यक्ता पडने पर पलक झपकने मात्र समय के अन्दर ही ऐक दम से स्थिर हो जाने में सक्ष्म।

शत्रु से अदृष्य हो जाने की क्षमता।

शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्ष्म। शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृष्यों को रिकार्ड कर लेने की क्षमता।

शत्रु के विमान की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना।

शत्रु के विमान के चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता।

निजि रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता।

आवश्यक्ता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता।

चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता।

स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता।

हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बडा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णत्या नियन्त्रित कर सकने में सक्ष्म।

विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ फाईटर और उडन तशतरी का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारदूाजकोई आधुनिक ‘फिक्शन राईटर’ नहीं थे परन्तुऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित कर सकता है कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञिानक माडल का विचार कैसे किया। उन्हों ने अंतरीक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती बाडी का ज्ञान भी पूर्णत्या हासिल नहीं कर पाये थे।

5. समरांगनः सुत्रधारा – य़ह ग्रन्थ विमानों तथा उन से सम्बन्धित सभी विषयों के बारे में जानकारी देता है।इस के 230 पद्य विमानों के निर्माण, उडान, गति, सामान्य तथा आकस्माक उतरान एवम पक्षियों की दुर्घटनाओं के बारे में भी उल्लेख करते हैं।

लगभग सभी वैदिक ग्रन्थों में विमानों की बनावट त्रिभुज आकार की दिखायी गयी है। किन्तु इन ग्रन्थों में दिया गया आकार प्रकार पूर्णत्या स्पष्ट और सूक्ष्म है। कठिनाई केवल धातुओं को पहचानने में आती है।

समरांगनः सुत्रधारा के आनुसार सर्व प्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था। पश्चात अतिरिक्त विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

रुकमा – रुकमानौकीले आकार के और स्वर्ण रंग के थे।

सुन्दरः –सुन्दर राकेट की शक्ल तथा रजत युक्त थे।

त्रिपुरः –त्रिपुर तीन तल वाले थे।

शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था।


दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का परिशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुरज़े, उपकरण, चालकों एवम यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये।

ग्रन्थ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबु अथवा सेब या कोई अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।

सात प्रकार के ईजनों का वर्णन किया गया है तथा उन का किस विशिष्ट उद्देष्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊचाई पर उस का प्रयोग सफल और उत्तम होगा। सारांश यह कि प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्द्ध है। विमान आधुनिक हेलीकोपटरों की तरह सीधे ऊची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे पीछ तथा तिरछा चलने में भी सक्ष्म बताये गये हैं

6. कथा सरित-सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वालो विमानों को बना सकते थे। यह रथ-विमान मन की गति के समान चलते थे।

कोटिल्लय के अर्थ शास्त्र में अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सोविकाओं का उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उडाते थे । कोटिल्लय ने उन के लिये विशिष्ट शब्द आकाश युद्धिनाह का प्रयोग किया है जिस का अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलेट) आकाश रथ, चाहे वह किसी भी आकार के हों का उल्लेख सम्राट अशोक के आलेखों में भी किया गया है जो उस के काल 256-237 ईसा पूर्व में लगाये गये थे।

उपरोक्त तथ्यों को केवल कोरी कल्पना कह कर नकारा नहीं जा सकता क्यों कल्पना को भी आधार के लिये किसी ठोस धरातल की जरूरत होती है। क्या विश्व में अन्य किसी देश के साहित्य में इस विषयों पर प्राचीन ग्रंथ हैं ? आज तकनीक ने भारत की उन्हीं प्राचीन ‘कल्पनाओं’ को हमारे सामने पुनः साकार कर के दिखाया है, मगर विदेशों में या तो परियों और ‘ऐंजिलों’ को बाहों पर उगे पंखों के सहारे से उडते दिखाया जाता रहा है या किसी सिंदबाद को कोई बाज उठा कर ले जाता है, तो कोई ‘गुलफाम’ उडने वाले घोडे पर सवार हो कर किसी ‘सब्ज परी’ को किसी जिन्न के उडते हुये कालीन से नीचे उतार कर बचा लेता है और फिर ऊँट पर बैठा कर रेगिस्तान में बने महल में वापिस छोड देता है। इन्हें कल्पना नहीं, ‘फैंटेसी’ कहते हैं।

अपने आप को भारतीय कहलाने वाले गर्व करो |
पाश्चात्य संस्कृति पर मरने वालो शर्म करो |

शिवलिंग मुद्रा



बाएं हाथ को पेट के पास लाकर सीधा रखें। दाएं हाथ की मुठ्ठी बना कर बाईं हथेली पर रखें और दाएं हाथ का अंगूठा सीधा ऊपर की ओर रखें। नीचे वाले बाएं हाथ की अंगुलियाँ और अंगूठा मिला कर रखें। दोनों बाजुओं की कोहनियाँ सीधी रखें। इस मुद्रा को शिवलिंग मुद्रा कहते हैं।
शिवलिंग मुद्रा दिन में दो बार पाँच मिनट के लिए लगाएं।
लाभ :

@ शिवलिंग मुद्रा लगाने से सुस्ती, थकावट दूर हो नयी शक्ति का विकास होता है।

@ शिवलिंग मुद्रा लगाते हुए लम्बे व गहरे सांस लेने चाहिये।

@ शिवलिंग मुद्रा लगाने से मानसिक थकान व चिंता दूर होती है।