15 November 2012

श्री बालाजी महाराज




राजस्थान के सवाई माधोपुर और जयपुर की सीमा रेखा पर स्थित मेंहदीपुर कस्बे में बालाजी का एक अतिप्रसिद्ध तथा प्रख्यात मन्दिर है जिसे श्री मेंहदीपुर बालाजी मन्दिर के नाम से जाना जाता है । भूत प्रेतादि ऊपरी बाधाओं के निवारणार्थ यहां आने वालों का तांता लगा रहता है। तंत्र मंत्रादि ऊपरी शक्तियों से ग्रसित व्यक्ति भी यहां पर बनी दवा और तंत्र मंत्र के स्वस्थ होकर लौटते हैं ।

सम्पूर्ण भारत से आने वाले लगभग एक हजार रोगी और उनके स्वजन यहां नित्य ही डेरा डाले रहते हैं ।

बालाजी का मन्दिर मेंहदीपुर नामक स्थान पर दो पहाड़ियों के बीच स्थित है , इसलिए इन्हें घाटे वाले बाबा जी भी कहा जाता है । इस मन्दिर में स्थित बजरंग बली की बालरूप मूर्ति किसी कलाकार ने नहीं बनाई, बल्कि यह स्वयंभू है । यह मूर्ति पहाड़ के अखण्ड भाग के रूप में मन्दिर की पिछली दीवार का कार्य भी करती है । इस मूर्ति को प्रधान मानते हुए बाकी मन्दिर का निर्माण कराया गया है । इस मूर्ति के सीने के बाईं तरफ़ एक अत्यन्त सूक्ष्म छिद्र है, जिससे पवित्र जल की धारा निरंतर बह रही है । यह जल बालाजी के चरणों तले स्थित एक कुण्ड में एकत्रित होता रहता है, जिसे भक्त्जन चरणामृत के रूप में अपने साथ ले जाते हैं । यह मूर्ति लगभग 1000 वर्ष प्राचीन है किन्तु मन्दिर का निर्माण इसी सदी में कराया गया है । मुस्लिम शासनकाल में कुछ बादशाहों ने इस मूर्ति को नष्ट करने की कुचेष्टा की, लेकिन वे असफ़ल रहे । वे इसे जितना खुदवाते गए मूर्ति की जड़ उतनी ही गहरी होती चली गई । थक हार कर उन्हें अपना यह कुप्रयास छोड़ना पड़ा । ब्रिटिश शासन के दौरान सन 1910 में बालाजी ने अपना सैकड़ों वर्ष पुराना चोला स्वतः ही त्याग दिया । भक्तजन इस चोले को लेकर समीपवर्ती मंडावर रेलवेस्टेशन पहुंचे, जहां से उन्हें चोले को गंगा में प्रवाहित करने जाना था । ब्रिटिश स्टेशन मास्टर ने चोले को निःशुल्क ले जाने से रोका और उसका लगेज करने लगा, लेकिन चमत्कारी चोला कभी मन भर ज्यादा हो जाता और कभी दो मन कम हो जाता । असमंजस में पड़े स्टेशन मास्टर को अंततः चोले को बिना लगेज ही जाने देना पड़ा और उसने भी बालाजी के चमत्कार को नमस्कार किया । इसके बाद बालाजी को नया चोला चढाया गया । यज्ञ हवन और ब्राह्मण भोज एवं धर्म ग्रन्थों का पाठ किया गया । एक बार फ़िर से नए चोले से एक नई ज्योति दीप्यमान हुई । यह ज्योति सारे विश्व का अंधकार दूर करने में सक्षम है । बालाजी महाराज के अलावा यहां श्री प्रेतराज सरकार और श्री कोतवाल कप्तान ( भैरव ) की मूर्तियां भी हैं । प्रेतराज सरकार जहां द्ण्डाधिकारी के पद पर आसीन हैं वहीं भैरव जी कोतवाल के पद पर । यहां आने पर ही सामान्यजन को ज्ञात होता है कि भूत प्रेतादि किस प्रकार मनुष्य को कष्ट पहुंचाते हैं और किस तरह सहज ही उन्हें कष्ट बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है । दुखी कष्टग्रस्त व्यक्ति को मंदिर पहुंचकर तीनों देवगणों को प्रसाद चढाना पड़ता है । बालाजी को लड्डू प्रेतराज सरकार को चावल और कोतवाल कप्तान (भैरव) को उड़द का प्रसाद चढाया जाता है । इस प्रसाद में से दो लड्डू रोगी को खिलाए जाते हैं और शेष प्रसाद पशु पक्षियों को डाल दिया जाता है । ऐसा कहा जाता है कि पशु पक्षियों के रूप में देवताओं के दूत ही प्रसाद ग्रहण कर रहे होते हैं । प्रसाद हमेशा थाली या दोने में रखकर दिया जाता है । लड्डू खाते ही रोगी व्यक्ति झूमने लगता है और भूत प्रेतादि स्वयं ही उसके शरीर में आकर बड़बड़ाने लगते है । स्वतः ही वह हथकडी और बेड़ियों में जकड़ जाता है । कभी वह अपना सिर धुनता है कभी जमीन पर लोट पोट कर हाहाकार करता है । कभी बालाजी के इशारे पर पेड़ पर उल्टा लटक जाता है । कभी आग जलाकर उसमें कूद जाता है । कभी फ़ांसी या सूली पर लटक जाता है । मार से तंग आकर भूत प्रेतादि स्वतः ही बालाजी के चरणों में आत्मसमर्पण कर देते हैं अन्यथा समाप्त कर दिये जाते हैं । बालाजी उन्हें अपना दूत बना लेते हैं । संकट टल जाने पर बालाजी की ओर से एक दूत मिलता है जोकि रोग मुक्त व्यक्ति को भावी घटनाओं के प्रति सचेत करता रहता है । बालाजी महाराज के मन्दिर में प्रातः और सायं लगभग चार चार घंटे पूजा होती है । पूजा में भजन आरतियों और चालीसों का गायन होता है । इस समय भक्तगण जहां पंक्तिबद्ध हो देवताओं को प्रसाद अर्पित करते हैं वहीं भूत प्रेत से ग्रस्त रोगी चीखते चिल्लाते उलट पलट होते अपना दण्ड भुगतते हैं ।

हजारों वर्षों से जीवित है सात महामानव


श्लोक : 'अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥'

अर्थात् : अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम ये सभी चिरंजीवी हैं।

यह दुनिया का एक आश्चर्य है। विज्ञान इसे नहीं मानेगा, योग और आयुर्वेद कुछ हद तक इससे सहमत हो सकता है, लेकिन जहाँ हजारों वर्षों की बात हो तो फिर योगाचार्यों के लिए भी शोध का विषय होगा। इसका दावा नहीं किया जा सकता और इसके किसी भी प्रकार के सबूत नहीं है। यह आलौकिक है। किसी भी प्रकार के चमत्कार से इन्कार ‍नहीं किया जा सकता। सिर्फ शरीर बदल-बदलकर ही हजारों वर्षों तक जीवित रहा जा सकता है। यह संसार के सात आश्चर्यों की तरह है।

हिंदू इतिहास और पुराण अनुसार ऐसे सात व्यक्ति हैं, जो चिरंजीवी हैं। यह सब किसी न किसी वचन, नियम या शाप से बंधे हुए हैं और यह सभी दिव्य शक्तियों से संपन्न है। योग में जिन अष्ट सिद्धियों की बात कही गई है वे सारी शक्तियाँ इनमें विद्यमान है। यह परामनोविज्ञान जैसा है, जो परामनोविज्ञान और टेलीपैथी विद्या जैसी आज के आधुनिक साइंस की विद्या को जानते हैं वही इस पर विश्वास कर सकते हैं। आओ जानते हैं कि हिंदू धर्म अनुसार कौन से हैं यह सात जीवित महामानव।

1. बलि : राजा बलि के दान के चर्चे दूर-दूर तक थे। देवताओं पर चढ़ाई करने राजा बलि ने इंद्रलोक पर अधिकार कर लिया था। बलि सतयुग में भगवान वामन अवतार के समय हुए थे। राजा बलि के घमंड को चूर करने के लिए भगवान ने ब्राह्मण का भेष धारण कर राजा बलि से तीन पग धरती दान में माँगी थी। राजा बलि ने कहा कि जहाँ आपकी इच्छा हो तीन पैर रख दो। तब भगवान ने अपना विराट रूप धारण कर दो पगों में तीनों लोक नाप दिए और तीसरा पग बलि के सर पर रखकर उसे पाताल लोक भेज दिया।

2. परशुराम : परशुराम राम के काल के पूर्व महान ऋषि रहे हैं। उनके पिता का नाम जमदग्नि और माता का नाम रेणुका है। पति परायणा माता रेणुका ने पाँच पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम क्रमशः वसुमान, वसुषेण, वसु, विश्वावसु तथा राम रखे गए। राम की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें फरसा दिया था इसीलिए उनका नाम परशुराम हो गया।
भगवान पराशुराम राम के पूर्व हुए थे, लेकिन वे चिरंजीवी होने के कारण राम के काल में भी थे। भगवान परशुराम विष्णु के छठवें अवतार हैं। इनका प्रादुर्भाव वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ, इसलिए उक्त तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इनका जन्म समय सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है।

3. हनुमान : अंजनी पुत्र हनुमान को भी अजर अमर रहने का वरदान मिला हुआ है। यह राम के काल में राम भगवान के परम भक्त रहे हैं। हजारों वर्षों बाद वे महाभारत काल में भी नजर आते हैं। महाभारत में प्रसंग हैं कि भीम उनकी पूँछ को मार्ग से हटाने के लिए कहते हैं तो हनुमानजी कहते हैं कि तुम ही हटा लो, लेकिन भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर भी उनकी पूँछ नहीं हटा पाता है।

4. विभिषण : रावण के छोटे भाई विभिषण। जिन्होंने राम की नाम की महिमा जपकर अपने भाई के विरु‍द्ध लड़ाई में उनका साथ दिया और जीवन भर राम नाम जपते रहें।

5. ऋषि व्यास : महाभारतकार व्यास ऋषि पराशर एवं सत्यवती के पुत्र थे, ये साँवले रंग के थे तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप में उत्पन्न हुए थे। अतएव ये साँवले रंग के कारण 'कृष्ण' तथा जन्मस्थान के कारण 'द्वैपायन' कहलाए। इनकी माता ने बाद में शान्तनु से विवाह किया, जिनसे उनके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़ा चित्रांगद युद्ध में मारा गया और छोटा विचित्रवीर्य संतानहीन मर गया।

कृष्ण द्वैपायन ने धार्मिक तथा वैराग्य का जीवन पसंद किया, किन्तु माता के आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किए जो धृतराष्ट्र तथा पाण्डु कहलाए, इनमें तीसरे विदुर भी थे। व्यासस्मृति के नाम से इनके द्वारा प्रणीत एक स्मृतिग्रन्थ भी है। भारतीय वांड्मय एवं हिन्दू-संस्कृति व्यासजी की ऋणी है।

6. अश्वत्थामा : अश्वथामा गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र हैं। अश्वस्थामा के माथे पर अमरमणि है और इसीलिए वह अमर हैं, लेकिन अर्जुन ने वह अमरमणि निकाल ली थी। ब्रह्मास्त्र चलाने के कारण कृष्ण ने उन्हें शाप दिया था कि कल्पांत तक तुम इस धरती पर जीवित रहोगे, इसीलिए अश्वत्थामा सात चिरन्जीवियों में गिने जाते हैं। माना जाता है कि वे आज भी जीवित हैं तथा अपने कर्म के कारण भटक रहे हैं। हरियाणा के कुरुक्षेत्र एवं अन्य तीर्थों में यदा-कदा उनके दिखाई देने के दावे किए जाते रहे हैं। मध्यप्रदेश के बुरहानपुर के किले में उनके दिखाई दिए जाने की घटना भी प्रचलित है।

7. कृपाचार्य : शरद्वान् गौतम के एक प्रसिद्ध पुत्र हुए हैं कृपाचार्य। कृपाचार्य अश्वथामा के मामा और कौरवों के कुलगुरु थे। शिकार खेलते हुए शांतनु को दो शिशु प्राप्त हुए। उन दोनों का नाम कृपी और कृप रखकर शांतनु ने उनका लालन-पालन किया। महाभारत युद्ध में कृपाचार्य कौरवों की ओर से सक्रिय थे।


परमात्मा का स्वरुप


संसार में जितने ईश्वर में विश्वास करने वाले लोंग हैं परमात्मा के भिन्न भिन्न स्वरूपों को मानते हैं | कुछ अपने ही ईश्वर को लेकर झगडा भी करते हैं कुछ सब सही हैं यह कहे कर ईश्वर अर्थात परमात्मा के स्वरुप पर चिंतन व चर्चा नहीं करते | पर सत्य तो एक ही होता हैं, परमात्मा भी एक स्वरुप हैं और उस सत्य स्वरुप का पता चल जाए तो दुनिया के झगडे ही खत्म हो जाए | एक स्वरुप इस लिए हैं क्यों की सृष्टि भी एक हैं यदि ईश्वर भिन्न होता तो सृष्टि भी बट जाती | पर अब प्रश्न ये उठता हैं के उस ईश्वर को जाने कैसे ? पर वेद की भी क्यों माने यदि बुद्धि से स्वीकार ईश्वर का स्वरुप हमें समझ नहीं आता | तो परमात्मा को जानने के लिए हम एक स्तरीय परिभाषा को लेकर चलते हैं फिर उस परिभाषा को ज्ञान से मापते हैं तर्क कर के देखते हैं के दोष तो नहीं हैं | परिभाषा ऐसी हो जो सबको स्वीकार हो यानी वह परमात्मा के गुण, स्वाभाव इत्यादि के बारे में हमें बताती हो | यदि हर संभावित तर्क से अपनी ही मान्य परिभाषा में की समीक्षा करते हैं | सारे रहस्य खुल जाएंगे यदि हम परमात्मा के वास्तविक स्वरुप को समझ सके |

अब ईश्वर विषय में ऐसे विद्वान की बात लेकर चले जो अद्वतीय आस्तिक हो | हम महर्षि दयानंद को लेकर चलते हैं | उन्होंने आर्यो को निर्देशित नियमो में दूसरे नियम में ही ईश्वर के स्वरुप के बारे में बताया हैं | जो इस प्रकार हैं “ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है।“

अब शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसे आपत्ति हो परमात्मा के इन गुणों पर | पर फिर भी हम एक एक करके ऋषि द्वारा बताये इन सारे गुणों पर चर्चा करेंगे | यह सारे गुण उसके स्वरुप से जुड़े हुए हैं और आपस में भी सम्बंधित हैं | यह सारे गुण उस परमात्मा के पूर्ण होने की भी बात हमें बताते हैं | आइये हम उसके स्वरुप को पूर्ण करने वाले गुणों पर चर्चा प्रारंभ करे |

सच्चिदानंदस्वरूप : यह शब्द सत् + चित् + आनंद से बना हैं | सत् कहते हैं जो हमेशा रहे समय के बंधन में ना बंधने वाला | चित् कहते हैं चिताने वाला यानी प्रकृति और जीवो का मिलन कराने वाला वही हैं यह ये भी बताता हैं के वह सत्य जानता हैं लोगो के किये हुए कर्मो को जानता हैं और न्याय रखते हुए उपयुक्त कर्माशय युक्त जीवात्मा को उपयुक्त शरीर दिलाता हैं | वह आनंद स्वरुप भी हैं यानी वह परमात्मा राग द्वेष इर्ष्या भाव इत्यादि से मुक्त हैं | जो उसकी उपासना नहीं कर्ता उस से भी वह आनंद स्वरुप परमात्मा प्रेम कर्ता हैं उसकी अमृतवर्षा सबके लिए समान हैं | हमारा मन जितना शुद्ध होगा, जितना ही हम उस चेतना के आनंद स्वरुप को पाने का प्रयास करेंगे उतना ही हम लाभ उठा सकेंगे | अब कोई मनुष्य शरीर में रहते काल से परे नहीं हो सकताए अतः सत् गुण मनुष्य पर लागू नहीं होता, जीवात्मा जरुर अनादी हैं काल के अंत के बाद भी रहेगी पर वह कुछ कर नहीं सकती प्रकृति के बिना इसलिए परमात्मा जैसा सामर्थ्य उसमे नहीं | जीव विज्ञान(क्लोनिंग) या गर्भाधान संस्कार के माध्यम से रासायनिक प्रक्रियाये जरुर कर सकता हैं मनुष्य, पर उसके बाद उसे परमात्मा से उत्तम जीवात्मा के लिए प्रार्थना करनी ही पड़ेगी सो चित् गुण भी परमात्मा जैसा नहीं प्राप्त कर सकता | हां आनंद स्वरुप तो मनुष्य समाधी अवस्था में हो सकता हैं और उसके बाद जब मोक्ष को प्राप्त होता हैं तो निश्चित समय के लिए उसी आनंद में रहता हैं |

निराकार : जिसका कोई आकार ना हो उसे निराकार कहते हैं | अब यह गुण समझने के लिए हम विपरीत बात मान कर समझते हैं | हम परमात्मा का आकार मान लेते हैं और देखते हैं ऐसा मानने से क्या दोष आते हैं | एक निश्चित आकार की चेतना का प्रभाव भी निश्चित सीमा में रहेगा | उसका ज्ञान भी सिमित रहेगा या जितना भी रहेगा वहा सिर्फ अपनी सत्ता में लगा सकता हैं जहा तक वह हैं | उसकी न्याय सत्ता भी प्रभावित होगी, उसके निकट अधिक न्याय होगा और जैसे-२ दुरी बढती जाएगी उसका न्याय कम होगा क्यों की वह वहा पर हैं ही नहीं | सम्पूर्ण सृष्टि के निर्माण का सामर्थ्य भी उसमे नहीं होगा वह सिर्फ सिमित आकार के साथ सिमित निर्माण ही कर सकेगा | यानी सारे गुण विपरीत सिद्ध होते हैं यदि हम परमात्मा को निराकार नहीं मानते | वह अन्यायकारी, सिमित सामर्थ्य वाला सिमित ज्ञान वाला इत्यादि सिद्ध होता हैं | इसलिए परमात्मा निराकार ही हैं तभी वह पूर्ण हैं | अब निराकार कैसा होता हैं यह समझना जरुरी हैं | वह ब्रह्म हैं अर्थात सबसे बड़ा हैं सूर्य चंद्र ही नहीं सारा या सारे ब्रह्माण्ड उसमे आते हैं | हम सब उस असीम चेतना के भीतर हैं और वह हमारे भीतर हैं यानी जिसे हम शुन्य कहते हैं वह भी परमात्मा की चेतना से भरा हुआ हैं यही उसका निराकार स्वरुप हैं |

सर्वशक्तिमान : यानी सबसे ताकतवर, उसकी शक्ति के समान किसी का सामर्थ्य नहीं | कोई मनुष्यधारी उसकी सर्वशक्तिमत्ता के पास पहुच सकता | जो वह सबसे अधिक शक्ति सामर्थ्यावाला ना हो तो वह सूर्य आदि ग्रहों का चंद्र आदि पिंडो का निर्माण भी ना कर सके | वह ग्रहों से लेकर समस्त परमाणुओ तक को अपनी शक्ति से संतुलित रखता हैं | कोई मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता |

न्यायकारी : जो जिस योग्य हैं उसे वह कल्याण हेतु प्रदान करने वाला, न्याय करने वाला परमात्मा ही हैं | सभी मनुष्यों को चाहिए के परमात्मा के न्याय के गुण को धारण करे और समस्त जगत में न्याय के साथ, न्याय के लिए ही जीवन व्यतीत करे | ना अन्याय करे ना होने दे यही धर्म को धारण कराता हैं | आप को संशय ये हो सकता हैं के दुनिया में जो गलत कार्य होते हैं क्या वह परमात्मा की इच्छा से होते हैं ? नहीं कदापि नहीं, वह सदैव लोगो को अपने गुणों का आनंद देता रहता हैं हमारा अन्तःकरण मलिन होने से हम उसके आदेशो का पालन नहीं कर पाते | और जीव कर्म करने को पूर्णतः स्वतंत्र हैं पर कर्मफल पाने को परतंत्र हैं | जो अन्याय होता दीखता हैं उसका कारण पशुतुल्य मनुष्य हैं और न्यायव्यवस्था में उन्हें दंड देने वाला परमात्मा हैं |

दयालु : देखिये न्यायकारी के बाद दयालु कहा गया हैं | वह अभयदान कर्ता हैं, दोषी को दंड देने वाला और न्याय करने वाले पर दया करने वाला हैं | उसका यह गुण सभी मनुष्यों को अपने अंदर लेना चाहिए

अजन्मा : प्रकृति से युक्त होने को जन्म कहते हैं | जो जन्म लेता हैं उसकी मृत्यु भी निश्चित हैं और जो मृत्यु को प्राप्त हो जाए वह परमात्मा नहीं हो सकता | वह परमात्मा तो सदैव से प्रकृति का त्याग करे हुए हैं और क्यों की वहा त्याग करे हुए हैं इसीलिए उसने जीवात्माओ के जन्ममरण व्यवस्था हेतु सृष्टि का निर्माण किया | अतः वह परमात्मा अजन्मा हैं |

अनंत : जो अजन्मा हैं उसका कोई अंत भी नहीं इसलिए वह अनंत हैं | उसका कोई परिमाण करना संभव नहीं इसलिए भी वहा अनंत हैं यानी हर दिशा में बस फैला हुआ हैं बिना किसी अंत के |

निर्विकार : उसमे कोई विकार नहीं | जो भी मनुष्य शरीर धारण कर्ता हैं वह विकारों से नहीं बच सकता | रोग से शोक तक भिन्न विकार उसमे रहते ही हैं | जब योगी समाधी में जाता हैं तब जीवात्मा उस निर्विकार परमात्मा के आनंद का अनुभव करती हैं | जो वह निर्विकार ना हो तो आनंद में ना रह सके | आनंद सुख और दुःख से भिन्न हैं | आनंद युक्त प्रेम मनुष्य के काम (इच्छा) युक्त प्रेम से भिन्न होता हैं |

अनादि : वह सदैव से था सदैव रहेगा इसलिए वह परमात्मा अनादी हैं | परमात्मा के अतिरिक्त जीवात्मा और प्रकृति भी अनादी हैं | पर जब जीवात्मा शरीर धारण करती हैं तो उसके शरीर की मृत्यु निश्चित होती हैं और प्रकृति का जब परमात्मा स्वरुप बदलता हैं तो प्रकृति का वापस अपने मूल स्वरुप में आना भी निश्चित हैं |

अनुपम : उसके सामान कोई नहीं हो सकता | यह गुण बताता हैं की वह एक ही हैं और उसके जैसा दूसरा कोई नहीं |

सर्वाधार : सबको धारण करने वाला सर्वाधार परमात्मा हैं | उसका धारण किया हुआ शरीर यही हैं के प्रकृति और जगत सब उसके अंदर हैं और वहा ब्रह्म स्वरुप सबसे बड़ा हैं | यह उसके निराकार गुण की भी पुष्टि करता हैं जो वहा निराकार ना होता तो सर्वाधार ना होता |

सर्वेश्वर : अर्थात सबका ईश्वर परमात्मा हैं यानी के ईश्वर एक हैं | जो वह सर्वेश्वर ना हो तो पुरे जगत में अव्यवस्था फ़ैल जाए | सृष्टि कभी क्रम में आ ही ना पाए क्यों के २ सृष्टिकर्ता माने तो जगत में भिन्न-२ नियमों को पावेंगे पर विज्ञान अर्थात प्रकृति से निर्मित सरचनाओ के नियम समस्त ब्रह्माण्ड में एक ही हैं इसलिए सबका ईश्वर एक परमात्मा हैं |

सर्वव्यापक : इसका पर्याय संस्कृत में विष्णु होता हैं | जो वह हर जगह ना हो तो हर जगह निर्माण या प्रलय भी ना करा सके | वह सातवे आसमान पर नहीं अपितु सारे आसमान उसके अंदर समाहित हैं | उसका सर्वव्यापक होने का गुण भी उसे सर्वज्ञानी होना सार्थक कर्ता हैं |

सर्वांतर्यामी : यानी सब कुछ जानने वाला | सर्वज्ञानी सिर्फ परमात्मा हैं | वह इतना सूक्ष्म हैं के अंदर भी हैं और बाहर भी तो आप कुछ सोचते हैं उसे तुरंत ही ज्ञात हो जाता हैं उसकी उपस्तिथि के कारण | अतः हमें सदैव सर्व कल्याणकारी चिंतन (यानी यज्ञ का) चिंतन करना चाहिए | और जो वह सर्वान्तर्यामी ना होता तो सृष्टि का निरमंड भी ना कर पाता | इसीलिए वह सबका गुरु कहा गया हैं उसे सभी पदार्थो की विद्या आती हैं इसीलिए आर्यो के प्रथम नियम में सत्य विद्या का मूल परमेश्वर बताया गया हैं | जो चेतना होती हैं वह सदैव ज्ञान से युक्त होती हैं और वो चेतना जो हर जगह हैं वह सर्वज्ञानी ही हैं |

अजर : वह आयु को प्राप्त नहीं होता | उसे बुढ़ापा नहीं आता वह सदा एक सा रहता हैं यह उसके सर्वव्यापक गुण की पुष्टि कर्ता हैं | उसको काल से भिन्न कर्ता हैं उसका अजरता का गुण और परमात्मा अपना गुण कभी नहीं छोड़ता |

अमर : जो वह अजर हैं सो वह अमर हैं | कभी मर नहीं सकता, सदा से हैं सदा रहेगा |

अभय : जो वहा अजर हैं और अमर हैं तो वहा अभय भी हैं क्यों की उसके पास भय का कोई कारण नहीं | और जो वहा अभय ना होता तो निर्विकार भी ना होता |

नित्य : वह निश्छल अविनाशी हैं इसलिए नित्य कहा गया हैं | कोई उसका विनाश नहीं कर सकता विनाश और निर्माण का कारण वहा परमात्मा हैं |

पवित्र : उस से अधिक पवित्र कोई नहीं | उसका स्वाभाव साधू हैं, वह दयालु हैं, वहा न्यायकारी हैं पवित्रता को पूर्ण करने के सारे गुण उसमे हैं और इस प्रकार जैसे वह परमात्मा हैं कोई पवित्र नहीं |

सृष्टिकर्ता : उपरोक्त गुण उसे सृष्टिकर्ता सिद्ध करते हैं जो उसमे इतना सामर्थ्य हैं और जो वह पवित्र हैं तो वह आलसियो की तरह अपने सामर्थ्य का प्रयोग ना करने का अधर्म नहीं कर सकता और इसीलिए उसने अपने सामर्थ्य और जीवात्मा के सामर्थ्य को प्रकृति की उपस्तिथि की उपयोगिता को सार्थक करते हुए सृष्टि का निर्माण किया |

समस्त वेदादि शास्त्र इन्ही गुणों से युक्त परमात्मा की बात करते हैं | ये जो परमात्मा जो तर्क से भी सिद्ध हैं और वेद के प्रमाण से भी सिद्ध हैं उसी की उपासना से मनुष्य का कल्याण हैं | सो तो उसके असंख्य गुण हमें वेद बाटते हैं पर इतने ही गुण में हम उसके स्वरुप को समझ सकेंगे | आप को यदि अभी भी कोई संशय रह गया हो तो आप परमात्मा के यह गुण उसमे लगा के देखिये जिसे आप साक्षात परमात्मा मान रहे हैं | यदि वह इन गुणों को पूर्ण करे तो वह परमात्मा हैं परन्तु कोई मनुष्य इन सभी गुणों को पूर्ण नहीं कर सकता | जो शरीर धारी हैं वह जीवात्मा हैं और जीवात्मा ही माता के गर्भ में नौ मास उल्टा लटकती हैं ताकि उस परमात्मा के योग के माध्यम से साक्षात्कार कर सके और मोक्ष को प्राप्त कर सके | जितने भी आप्त हुए हैं उन सभी ने उसकी उपासना उसके श्रेष्ठ नाम “ओ३म्” से की हैं | सभी महर्षि अग्नि, वायु, अंगिरा आदित्य, ब्रह्मा, कणाद, मनु, जैमिनी, दयानंद इत्यादि एवं सभी धर्मं संस्थापक राजाओ ने राम, कृष्ण, शंकर इत्यादि एवं सभी आचार्यो ने एवं आचार्य चाणक्य, आचार्य शंकर इत्यादि ने “ओ३म्” नाम की एक मात्र निराकार ईश्वर की उपासना की हैं | हम सभी को उसी की उपासना करते हुए अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना चाहिए |

जब अचानक आने लगें चक्कर तो क्या करें और क्या न करें....


थोड़ी देर तक बैठे रहने के बाद आप जैसे ही उठते हैं, आपके आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है, आपको चक्कर आने लगते हैं। ऐसा लगता होगा कि आपके चारो ओर की चीजें तेजी से घूम रही हैं। आज हम चक्कर आने की बीमारी के निदान के बारे में आपको बताएंगे। चक्कर आना या सिर घूमना एक सामान्य समस्या है। यह स्वयं में एक बीमारी भी है और अनेक बीमारियों का एक लक्षण भी।

कारण

चक्कर आने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन दिमाग से जुड़ी या कान से जुड़ी समस्याएं अधिकांश इसका मुख्य कारण होती है। इसके अलावा ब्लडप्रेशर में परिवर्तन, स्पॉन्डिलोसिस, शरीर में खून की कमी, खून में ग्लूकोज की मात्रा बहुत बढऩे या कम होने और अत्यधिक शारीरिक व मानसिक तनाव से भी मरीज को चक्कर का अनुभव हो सकता है।


चक्कर आने पर तुरंत करें ये घरेलू उपाय

-नारियल का पानी रोज पीने से भी चक्कर आने बंद हो जाते है।

- 20 ग्राम मुनक्का घी में सेंककर सेंधा नमक डालकर खाने से चक्कर आने बंद हो जाते है।

- सिर चकराने पर आधा गिलास पानी में दो लौंग डालकर उसे उबाल लें और फिर उस पानी को पी लें। इस पानी को पीने से लाभ मिलता है।

-10 ग्राम आंवला, 3 ग्राम काली मिर्च और 10 ग्राम बताशे को पीस लें। 15 दिनों तक रोजाना इसका सेवन करें चक्कर आना बंद हो जाएगा।

- रोजाना जूस पीने से चक्कर आने बंद हो जाएंगे। लेकिन ध्यान रखें कि जूस में किसी प्रकार का मीठा या मसाला नहीं डालें। जूस की जगह चाहें तो ताजे फल भी खा सकते हैं।


चक्कर आते हैं तो क्या खाएं.....

- हरी सब्जियों का अधिक मात्रा में सेवन करें।

- अंगूर, अनार, आम, सेब, संतरा, मौसमी आदि फलों का सेवन करें या रस पिएं।

- आंवले, फालसे, शहतूत का शरबत पीने से उष्णता नष्ट होने से चक्कर आने की विकृति नष्ट होती है।

-रात को 4-5 बादाम जल में डालकर रखें। प्रात: उनके छिलके उतार करके, बादाम पीसकर, दूध में मिलाकर सेवन करें।

-प्रतिदिन सुबह-शाम दूध का सेवन करें। दूध में घी डालकर पिएं।

- सेब या गाजर का मुरब्बा प्रतिदिन खाएं और दूध पिएं।

- दूध में बादाम का तेल डालकर पिएं।

- जिन लोगों को चक्कर आते हैं उन्हें दोपहर के भोजन के 2 घंटे पहले और शाम के नाश्ते में फलों का जूस पीना चाहिए।

क्या न खाएं

- जंक फूड, चाय व कॉफी से परहेज करें।

- अधिक मसालेदार न खाएं।

- नॉनवेज और ज्यादा ऑइली खाने से भी बचें।



इस रविवार ऐसे लगाएं एक दीपक, नहीं सताएगा अकाल मृत्यु का डर


स्कंद पुराण के अनुसार कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी यानी धनरतेरस (इस बार 11 नवंबर, रविवार) के प्रदोषकाल में यमराज के निमित्त दीप और नैवेद्य समर्पित करने पर अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता। यमदीप दान प्रदोषकाल यानी शाम के समय करना चाहिए। इसकी विधि इस प्रकार है-

विधि

मिट्टी का एक बड़ा दीपक लें और उसे स्वच्छ जल से धो लें। इसके बाद साफ रुई लेकर दो लंबी बत्तियां बना लें। उन्हें दीपक में एक-दूसरे पर आड़ी इस प्रकार रखें कि दीपक के बाहर बत्तियों के चार मुहं दिखाई दें। अब उसे तिल के तेल से भर दें और साथ ही उसमें कुछ काले तिल भी डाल दें।

इस प्रकार तैयार किए गए दीपक का रोली, चावल एवं फूल से पूजन करें। उसके बाद घर के मुख्य दरवाजे के बाहर थोड़ी सी खील अथवा गेहूं की एक ढेरी बनाएं और नीचे लिखे मंत्र को बोलते हुए दक्षिण दिशा की ओर मुख करके यह दीपक उस पर रख दें-


मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन च मया सह।
त्रयोदश्यां दीपदनात् सूर्यज: प्रीयतामिति।।

इसके बाद हाथ में फूल लेकर नीचे लिखा मंत्र बोलते हुए यमदेव को दक्षिण दिशा में नमस्कार करें-
ऊँ यमदेवाय नम:। नमस्कारं समर्पयामि।।

अब यह फूल दीपक के समीप छोड़ दें और हाथ में एक बताशा लें तथा नीचे लिखा मंत्र बोलते हुए उसे भी दीपक के पास रख दें-

ऊँ यमदेवाय नम:। नैवेद्यं निवेदयामि।।

अब हाथ में थोड़ा सा जल लेकर आचमन के निमित्त नीचे लिखा मंत्र बोलते हुए दीपक के समीप छोड़ दें-
ऊँ यमदेवाय नम:। आचमनार्थे जलं समर्पयामि।

अब पुन: यमदेव को ऊँ यमदेवाय नम: कहते हुए दक्षिण दिशा में नमस्कार करें।
इस तरह दीपदान करने से यमराज प्रसन्न होते हैं और अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता।