04 July 2013

!!! दुर्गा सप्तशती – सप्तशती पाठ विधि !!!


दुर्गा सप्तशती पाठ विधि:-

नवरात्र घट स्थापना (
ऐच्छिक)

नवरात्र का श्रीगणेश शुक्ल पतिपदा को प्रात:काल के शुभमहूर्त में घट स्थापना से होता है। घट स्थापना हेतु मिट्टी अथवा साधना के अनुकूल धातु का कलश लेकर उसमे पूर्ण रूप से जल एवं गंगाजल भर कर कलश के उपर (मुँह पर) नारियल(छिलका युक्त) को लाल वस्त्र/चुनरी से लपेट कर अशोक वृक्ष या आम के पाँच पत्तो सहित रखना चाहिए। पवित्र मिट्टी में जौ के दाने तथा जल मिलाकर वेदिका का निर्माण के पश्चात उसके उपर कलश स्थापित करें। स्थापित घट पर वरूण देव का आह्वान कर पूजन सम्पन्न करना चाहिए। फिर रोली से स्वास्तिक बनाकर अक्षत एवं पुष्प अर्पण करना चाहिए।

कुल्हड़ में जौ बोना (ऐच्छिक):-

नवरात्र के अवसर पर नवरात्रि करने वाले व्यक्ति विशेष शुद्ध मिट्टी मे, मिट्टी के किसी पात्र में जौ बो देते है। दो दिनो के बाद उसमे अंकुर फुट जाते है। यह काफी शुभ मानी जाती है।

मूर्ति या तसवीर स्थापना(ऐच्छिक):-

माँ दुर्गा, श्री राम, श्री कृष्ण अथवा हनुमान जी की मूर्ती या तसवीर को लकड़ी की चौकी पर लाल अथवा पीले वस्त्र(अपनी सुविधानुसार) के उपर स्थापित करना चाहिए। जल से स्नान के बाद, मौली चढ़ाते हुए, रोली अक्षत(बिना टूटा हुआ चावल), धूप दीप एवं नैवेध से पूजा अर्चना करना चाहिए।

अखण्ड ज्योति(ऐच्छिक):-

नवरात्र के दौरान लगातार नौ दिनो तक अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित की जाती है। किंतु यह आपकी इच्छा एवं सुविधा पर है। आप केवल पूजा के दौरान ही सिर्फ दीपक जला सकते है।

आसन:-

लाल अथवा सफेद आसन पूरब की ओर बैठकर नवरात्रि करने वाले विशेष को पूजा, मंत्र जप, हवन एवं अनुष्ठान करना चाहिए।
नवरात्र पाठ:-

माँ दुर्गा की साधना के लिए श्री दुर्गा सप्तशती का पूर्ण पाठ अर्गला, कवच, कीलक सहित करना चाहिए। श्री राम के उपासक को ‘राम रक्षा स्त्रोत’, श्री कृष्ण के उपासक को ‘भगवद गीता’ एवं हनुमान उपासक को‘सुन्दरकाण्ड’ आदि का पाठ करना चाहिए।

भोगप्रसाद:- प्रतिदिन देवी एवं देवताओं को श्रद्धा अनुसार विशेष अन्य खाद्द्य पदार्थो के अलावा हलुए का भोग जरूर चढ़ाना चाहिए।

कुलदेवी का पूजन:- हर परिवार मे मान्यता अनुसार जो भी कुलदेवी है उनका श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजा अर्चना करना चाहिए।

विसर्जन:- विजयादशमी के दिन समस्त पूजा हवन इत्यादि सामग्री को किसी नदी या जलाशय में विसर्जन करना चाहिए।

पूजा सामग्री:- कुंकुम, सिन्दुर, सुपारी, चावल, पुष्प, इलायची, लौग, पान, दुध, घी, शहद, बिल्वपत्र, यज्ञोपवीत, चन्दन, इत्र, चौकी, फल, दीप, नैवैध(मिठाई), नारियल आदि।

मंत्र सहित पूजा विधि:- स्वयं को शुद्ध करने के लिए बायें हाथ मे जल लेकर, उसे दाहिने हाथ से ढ़क लें। मंत्रोच्चारण के साथ जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें।

“ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
य: स्मरेत पुंडरीकाक्षं स: बाह्य अभ्यंतर: शुचि॥
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्ष: पुनातु पुण्डरीकाक्ष पुनातु॥“

आचमन:- तीन बार वाणी, मन व अंत:करण की शुद्धि के लिए चम्मच से जल का आचमन करें। हर एक मंत्र के साथ एक आचमन किया जाना चाहिए।

ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।
ॐ अमृताविधानमसि स्वाहा।
ॐ सत्यं यश: श्रीमंयी श्री: श्रयतां स्वाहा।

प्राणायाम:- श्वास को धीमी गति से भीतर गहरी खींचकर थोड़ा रोकना एवं पुन: धीरे-धीरे निकालना प्राणायाम कहलाता है। श्वास खीचते समय यह भावना करे किं प्राण शक्ति एवं श्रेष्ठता सॉस के द्वारा आ रही है एवं छोड़ते समय यह भावना करे की समस्त दुर्गण-दुष्प्रवृतियां, बुरे विचार, श्वास के साथ बाहर निकल रहे है। प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के उपरान्त करें:

ॐ भू: ॐ भुव: ॐ स्व: ॐ मह:।
ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम।
ॐ तत्सवितुर्ररेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो न: प्रचोदयात।
ॐ आपोज्योतिरसोअमृतं बह्मभुर्भुव स्व: ॐ।

गणपति पूजन:- लकड़ी के पट्टे या चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर एक थाली रखें। इस थाली में कुंकुम से स्वस्तिक का चिन्ह बनाकर उस पर पुष्प आसन लगाकर गण अपति की प्रतिमा या फोटो(तस्वीर) स्थापित कर दें या सुपारी पर लाल मौली बांधकर गणेश के रूप में स्थापित करना चाहिए। अब अक्षत, लाल पुष्प(गुलाब), दूर्वा(दुवी) एवं नेवैध गणेश जी पर चढ़ाना चाहिए। जल छोड़ने के पश्चात निम्न मंत्र का 21 बार जप करना चाहिए:-
“ॐ गं गणपतये नम:”

मंत्रोच्चारण के पश्चात अपनी मनोकामना पूर्ती हेतु निम्न मंत्र से प्रार्थना करें:-

विध्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय।
लम्बोदराय सकलाय जगद्विताय॥
नागाननाय श्रुति यज्ञ विभूषिताय।
गौरी सुताय गण नाथ नमो नमस्ते॥
भक्तार्त्तिनाशन पराय गणेश्वराय।
सर्वेश्वराय शुभदाय सुरेश्वराय॥
विद्याधराय विकटाय च वामनाय।
भक्त प्रसन्न वरदाय नमो नमस्ते॥
संकल्प:- दाहिने हाथ मे जल, कुंकुम, पुष्प, चावल साथ मे ले

“ॐ विष्णु र्विष्णु: श्रीमद्भगवतो विष्णोराज्ञाया प्रवर्तमानस्य, अद्य, श्रीबह्मणो द्वितीय प्ररार्द्धे श्वेत वाराहकल्पे जम्बूदीपे भरत खण्डे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते, मासानां मासोत्तमेमासे (अमुक) मासे (अमुक) पक्षे (अमुक) तिथौ (अमुक) वासरे (अपने गोत्र का उच्चारण करें) गोत्रोत्पन्न: (अपने नाम का उच्चारण करें) नामा: अहं (सपरिवार/सपत्नीक) सत्प्रवृतिसंवर्धानाय, लोककल्याणाय, आत्मकल्याण्य, ………..(अपनी कामना का उच्चारण करें) कामना सिद्दयर्थे दुर्गा पूजन विद्यानाम तथा साधनाम करिष्ये।“

जल को भूमि पर छोड़ दे। अगर कलश स्थापित करना चाहते है तो अब इसी चौकी पर स्वास्तिक बनाकर बाये हाथ की ओर कोने में कलश(जलयुक्त) स्थापित करें। स्वास्तिक पर कुकंम, अक्षत, पुष्प आदि अर्पित करते हुए कलश स्थापित करें। इस कलश में एक सुपारी कुछ सिक्के, दूब, हल्दी की एक गांठ डालकर, एक नारियल पर स्वस्तिक बनाकर उसके उपर लाल वस्त्र लपेटकर मौली बॉधने के बाद कलश पर स्थापित कर दें। जल का छींटा देकर, कुंकम, अक्षत, पुष्प आदि से नारियल की पूजा करे। वरूण देव को स्मरण कर प्रणाम करे। फिर पुरब, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण में(कलश मे) बिन्दी लगाए।
दुर्गा सप्तशती मंत्र :

शारदीय नवरात्र आदिशक्ति की पूजा-उपासना का महापर्व होता है, नवरात्र में पूजा के अवसर पर दुर्गासप्तशती का पाठ श्रवण करने से देवी अत्यन्त प्रसन्न होती हैं. सप्तशती का पाठ करने पर उसका सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है. श्रीदुर्गासप्तशती, भगवती दुर्गा का ही स्वरूप है. इस पुस्तक का पाठ करने से पूर्व इस मंत्र द्वारा पंचोपचारपूजन करें-

नमोदेव्यैमहादेव्यैशिवायैसततंनम:। नम: प्रकृत्यैभद्रायैनियता:प्रणता:स्मताम्॥

यदि दुर्गासप्तशती का पाठ करने में असमर्थ हों तो सप्तश्लोकी दुर्गा को पढें. इन सात श्लोकों में सप्तशती का संपूर्ण सार समाहित होता है.
अथ सप्तश्लोकी दुर्गा
शिव उवाच :

देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी ।

कलौ कार्यसिद्ध्यर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः ॥
देव्युवाच :

श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्ट्साधनम् ।

मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते ॥
विनियोग :

ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ॠषिः, अनुष्टुप

छन्दः, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वत्यो देवताः, श्री दुर्गाप्रीत्यथं

सप्तश्लोकी दुर्गापाठे विनियोगः ।

1 – ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ १ ॥

2 – दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः

स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।

दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या

सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥ २ ॥

3 – सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।

शरण्ये त्र्यंम्बके गौरि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ३ ॥

4 – शरणागतदीनार्तपरित्राणे ।

सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ४ ॥

5 – सर्वस्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।

भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोस्तु ते ॥ ५ ॥

6 – रोगानशेषानपहंसि तुष्टा

रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।

त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां

7 – त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्र्यन्ति ॥ ६ ॥

सर्वबाधाप्रश्मनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि ।

एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ ७ ॥
॥ इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्ण ॥

नवरात्रके प्रथम दिन कलश (घट) की स्थापना के समय देवी का आवाहन इस प्रकार करें. भक्त प्राय: पूरे नवरात्र उपवास रखते हैं. सम्पूर्ण नवरात्रव्रत के पालन में असमर्थ लोगों के लिए सप्तरात्र,पंचरात्र,युग्मरात्रऔर एकरात्रव्रत का विधान भी है. प्रतिपदा से सप्तमी तक उपवास रखने से सप्तरात्र-व्रत का अनुष्ठान होता है. अष्टमी के दिन माता को हलुवा और चने का भोग लगाकर कुंवारी कन्याओं को खिलाते हैं तथा अन्त में स्वयं प्रसाद ग्रहण करके व्रत का पारण (पूर्ण) करते हैं.

नवरात्रके नौ दिन साधना करने वाले साधक प्रतिपदा तिथि के दिन शैलपुत्री की, द्वितीया में ब्रह्मचारिणी, तृतीया में चंद्रघण्टा, चतुर्थी में कूष्माण्डा, पंचमी में स्कन्दमाता, षष्ठी में कात्यायनी, सप्तमी में कालरात्रि, अष्टमी में महागौरी तथा नवमी में सिद्धिदात्री की पूजा करते हैं. तथा दुर्गा जी के 108 नामों को मंत्र रूप में उसका अधिकाधिक जप करें.

अब एक दूसरी स्वच्छ थाली में स्वस्तिक बनाकर उस पर पुष्प का आसन लगाकर दुर्गा प्रतिमा या तस्वीर या यंत्र को स्थापित करें। अब निम्न प्रकार दुर्गा पूजन करे:-

स्नानार्थ जलं समर्पयामि (जल से स्नान कराए)
स्नानान्ते पुनराचमनीयं जल समर्पयामि (जल चढ़ाए)
दुग्ध स्नानं समर्पयामि (दुध से स्नान कराए)
दधि स्नानं समर्पयामि (दही से स्नान कराए)
घृतस्नानं समर्पयामि (घी से स्नान कराए)
मधुस्नानं समर्पयामि (शहद से स्नान कराए)
शर्करा स्नानं समर्पयामि (शक्कर से स्नान कराए)
पंचामृत स्नानं समर्पयामि (पंचामृत से स्नान कराए)
गन्धोदक स्नानं समर्पयामि (चन्दन एवं इत्र से सुवासित जल से स्नान करावे)
शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि (जल से पुन: स्नान कराए)
यज्ञोपवीतं समर्पयामि (यज्ञोपवीत चढ़ाए)
चन्दनं समर्पयामि (चंदन चढ़ाए)
कुकंम समर्पयामि (कुकंम चढ़ाए)
सुन्दूरं समर्पयामि (सिन्दुर चढ़ाए)
बिल्वपत्रै समर्पयामि (विल्व पत्र चढ़ाए)
पुष्पमाला समर्पयामि (पुष्पमाला चढ़ाए)
धूपमाघ्रापयामि (धूप दिखाए)
दीपं दर्शयामि (दीपक दिखाए व हाथ धो लें)
नैवेध निवेद्यामि (नेवैध चढ़ाए(निवेदित) करे)
ऋतु फलानि समर्पयामि (फल जो इस ऋतु में उपलब्ध हो चढ़ाए)
ताम्बूलं समर्पयामि (लौंग, इलायची एवं सुपारी युक्त पान चढ़ाए)
दक्षिणा समर्पयामि (दक्षिणा चढ़ाए)

इसके बाद कर्पूर अथवा रूई की बाती जलाकर आरती करे।

आरती के नियम:- प्रत्येक व्यक्ति जानकारी के अभाव में अपनी मन मर्जी आरती उतारता रहता है। विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि देवताओं के सम्मुख चौदह बार आरती उतारना चाहिए। चार बार चरणो पर से, दो बार नाभि पर से, एकबार मुख पर से तथा सात बार पूरे शरीर पर से। आरती की बत्तियाँ 1, 5, 7 अर्थात विषम संख्या में ही बत्तियाँ बनाकर आरती की जानी चाहिए।
दुर्गा जी की आरती:-

प्रदक्षिणा:-

“यानि कानि च पापानी जन्मान्तर कृतानि च।
तानी सर्वानि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे॥
प्रदक्षिणा समर्पयामि।“

प्रदक्षिणा करें (अगर स्थान न हो तो आसन पर खड़े-खड़े ही स्थान पर घूमे)

क्षमा प्रार्थना:- पुष्प सर्मपित कर देवी को निम्न मंत्र से प्रणाम करे।

“नमो दैव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृतयै भद्रायै नियता: प्रणता: स्मताम॥
या देवी सर्व भूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

ततपश्चात देवी से क्षमा प्रार्थना करे कि जाने अनजाने में कोई गलती या न्यूनता-अधिकता यदि पूजा में हो गई हो तो वे क्षमा करें। इस पूजन के पश्चात अपने संकल्प मे कहे हुए मनोकामना सिद्धि हेतु निम्न मंत्र का यथाशक्ति श्रद्धा अनुसार 9 दिन तक जप करें:-

”ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥“

इस मंत्र के बाद दुर्गा सप्तशती के सभी अध्यायो का पाठ 9 दिन मे पूर्ण करें।

नवरात्री की समाप्ति पर यदि कलश स्थापना की हो तो इसके जल को सारे घर मे छिड़क दें। इस प्रकार पूजा सम्पन्न होती है। यदि कोई व्यक्ति विशेष उपरांकित विधि का पालन करने मे असमर्थ है तो नवरात्रि के दौरान दुर्गा चालीसा का पाठ करें।

दुर्गा सप्तशती की महिमा

मार्कण्डेय पुराण में ब्रह्माजी ने मनुष्यों की रक्षा के लिए परमगोपनीय, कल्याणकारी देवी कवच के पाठ आर देवी के नौ रूपों की आराधना का विधान बताया है, जिन्हें नव दुर्गा कहा जाता है। आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी तक देवी के इन रूपों की साधना उपासना से वांछित फल की प्राप्ति होती है।

श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ मनोरथ सिद्धि के लिए किया जाता है, क्योंकि यह कर्म, भक्ति एवं ज्ञान की त्रिवेणी है। यह श्री मार्कण्डेय पुराण का अंश है। यह देवी माहात्म्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने में सक्षम है। सप्तशती में कुछ ऐसे भी स्तोत्र एवं मंत्र हैं, जिनके विधिवत्‌ पाठ से वांछित फल की प्राप्ति होती है।

सर्वकल्याण के लिए -

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्येत्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥

बाधा मुक्ति एवं धन-पुत्रादि प्राप्ति के लिए

सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धन-धान्य सुतान्वितः।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय॥

आरोग्य एवं सौभाग्य प्राप्ति के लिए

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्‌।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषोजहि॥



|| श्री दुर्गा कवच ||


अथ देव्याः कवचम्

ॐ अस्य श्री चण्डी कवचस्य । ब्रह्मा ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । चामुण्डादेवता अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम् । दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम् ।। श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशती पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।।

ॐ नमश्चण्डिकायै
मार्कण्डेय उवाच ।
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।। यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ।। १।।

ब्रह्मोवाच
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् ।। देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ।। २।।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।। ३।।

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।। ४।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।। 
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।। ५।।

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे ।। विषमे दुर्गमे चैव भयात्तार्म शरणं गताः ।। ६।।

न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे ।। नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ।। ७।।

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते ।। ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः ।। ८।।

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना ।। ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ।। ९।।

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ।। लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरि प्रिया ।। १०।।

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना ।। ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ।। ११।।

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोग समन्विताः ।। नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नो पशोभिताः ।। १२।।

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः ।। शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ।। १३।।

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ।। कुन्तायुधं त्रिशूलं च शाङ्गर्मायुधमुत्तमम् ।। १४।।

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ।। धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ।। १५।।

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।। महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ।। १६।।

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवद्धिर्नि ।। प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ।। १७।।

दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋर्त्यां खड्गधारिणी ।। प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी ।। १८।।

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी ।। ऊध्वर्म ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा ।। १९।।

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना ।। जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ।। २०।।

अजिता वाम पाश्वेर् तु दक्षिणे चापराजिता ।। शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूध्निर् व्यवस्थिता ।। २१।।

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी ।। त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके ।। २२।।

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोद्वार्रवासिनी ।। कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शाङ्करी ।। २३।।

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका ।। अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ।। २४।।

दन्तान् रक्षतु कौमरी कण्ठदेशे तु चण्डिका ।। घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ।। २५।।

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला ।। ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ।। २६।।

नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी ।। स्कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ।। २७।।

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च ।। नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौरक्षेत्कुलेश्वरी ।। २८।।

स्तनौरक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी ।। हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ।। २९।।

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।। पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ।। ३०।।

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी ।। जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ।। ३१।।

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी ।। पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ।। ३२।।

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोध्वर्केशिनी ।। रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा ।। ३३।।

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।। अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी ।। ३४।।

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा ।। ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु ।। ३५।।

शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा ।। अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ।। ३६।।

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।। वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना ।। ३७।।

रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।। सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा ।। ३८।।

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी ।। यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी ।। ३९।।

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके ।। पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ।। ४०।।

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा ।। राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ।। ४१।।

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु ।। तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी ।। ४२।।

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः ।। कवचेना वृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ।। ४३।।

तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः ।। यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ।।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ।। ४४।।

निर्भयो जायते मत्यर्म:: संग्रामेष्वपराजितः ।।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ।। ४५।।

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ।। यः 
पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ।। ४६।।

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः ।। जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ।। ४७।।

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः ।। स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम् ।। ४८।।

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले ।। भूचराः खेचराश्चैवजलजाश्चोपदेशिकाः ।। ४९।।

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा ।। अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ।। ५०।।

ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।। ब्रह्मराक्षसवेतालाः कुष्माण्डा भैरवादयः ।। ५१।।

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते ।। मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् ।। ५२।।

यशसा वद्धर्ते सोऽपि कीर्ति मण्डितभूतले ।। जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ।। ५३।।

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।। तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्र पौत्रिकी ।। ५४।।

देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम् ।। प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामाया प्रसादतः ।। ५५।।

लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ।। ॐ ।। ५६।।


!!! २ प्रकार के श्री शिव चालीसा !!!


अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार। 
बंदौं शिव-पद-युग-कमल अमल अतीव उदार॥ 

आर्तिहरण सुखकरण शुभ भक्ति -मुक्ति -दातार। 
करौ अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार॥ 

पर्यो पतित भवकूप महँ सहज नरक आगार। 
सहज सुहृद पावन-पतित, सहजहि लेहु उबार॥ 

पलक-पलक आशा भर्यो, रह्यो सुबाट निहार। 
ढरौ तुरन्त स्वभाववश, नेक न करौ अबार॥ 

जय शिव शङ्कर औढरदानी। 
जय गिरितनया मातु भवानी॥ 

सर्वोत्तम योगी योगेश्वर। सर्वलोक-ईश्वर-परमेश्वर॥ 
सब उर प्रेरक सर्वनियन्ता। उपद्रष्टा भर्ता अनुमन्ता॥ 
पराशक्ति -पति अखिल विश्वपति। परब्रह्म परधाम परमगति॥ 

सर्वातीत अनन्य सर्वगत। निजस्वरूप महिमामें स्थितरत॥ 
अंगभूति-भूषित श्मशानचर। भुजंगभूषण चन्द्रमुकुटधर॥ 

वृषवाहन नंदीगणनायक। अखिल विश्व के भाग्य-विधायक॥ 
व्याघ्रचर्म परिधान मनोहर। रीछचर्म ओढे गिरिजावर॥ 
कर त्रिशूल डमरूवर राजत। अभय वरद मुद्रा शुभ साजत॥ 

तनु कर्पूर-गोर उज्ज्वलतम। पिंगल जटाजूट सिर उत्तम॥ 

भाल त्रिपुण्ड्र मुण्डमालाधर। गल रुद्राक्ष-माल शोभाकर॥ 

विधि-हरि-रुद्र त्रिविध वपुधारी। बने सृजन-पालन-लयकारी॥ 

तुम हो नित्य दया के सागर। आशुतोष आनन्द-उजागर॥ 

अति दयालु भोले भण्डारी। अग-जग सबके मंगलकारी॥ 

सती-पार्वती के प्राणेश्वर। स्कन्द-गणेश-जनक शिव सुखकर॥ 

हरि-हर एक रूप गुणशीला। करत स्वामि-सेवक की लीला॥ 

रहते दोउ पूजत पुजवावत। पूजा-पद्धति सबन्हि सिखावत॥ 

मारुति बन हरि-सेवा कीन्ही। रामेश्वर बन सेवा लीन्ही॥ 

जग-जित घोर हलाहल पीकर। बने सदाशिव नीलकंठ वर॥ 

असुरासुर शुचि वरद शुभंकर। असुरनिहन्ता प्रभु प्रलयंकर॥ 

नम: शिवाय मन्त्र जपत मिटत सब क्लेश भयंकर॥ 

जो नर-नारि रटत शिव-शिव नित। तिनको शिव अति करत परमहित॥ 

श्रीकृष्ण तप कीन्हों भारी। ह्वै प्रसन्न वर दियो पुरारी॥ 

अर्जुन संग लडे किरात बन। दियो पाशुपत-अस्त्र मुदित मन॥ 

भक्तन के सब कष्ट निवारे। दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे॥ 

शङ्खचूड जालन्धर मारे। दैत्य असंख्य प्राण हर तारे॥ 

अन्धकको गणपति पद दीन्हों। शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों॥ 

तेहि सजीवनि विद्या दीन्हीं। बाणासुर गणपति-गति कीन्हीं॥ 

अष्टमूर्ति पंचानन चिन्मय। द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग ज्योतिर्मय॥ 

भुवन चतुर्दश व्यापक रूपा। अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा॥ 

काशी मरत जंतु अवलोकी। देत मुक्ति -पद करत अशोकी॥ 

भक्त भगीरथ की रुचि राखी। जटा बसी गंगा सुर साखी॥ 

रुरु अगस्त्य उपमन्यू ज्ञानी। ऋषि दधीचि आदिक विज्ञानी॥ 

शिवरहस्य शिवज्ञान प्रचारक। शिवहिं परम प्रिय लोकोद्धारक॥ 

इनके शुभ सुमिरनतें शंकर। देत मुदित ह्वै अति दुर्लभ वर॥ 

अति उदार करुणावरुणालय। हरण दैन्य-दारिद्रय-दु:ख-भय॥ 

तुम्हरो भजन परम हितकारी। विप्र शूद्र सब ही अधिकारी॥ 

बालक वृद्ध नारि-नर ध्यावहिं। ते अलभ्य शिवपद को पावहिं॥ 

भेदशून्य तुम सबके स्वामी। सहज सुहृद सेवक अनुगामी॥ 

जो जन शरण तुम्हारी आवत। सकल दुरित तत्काल नशावत॥ 

|| दोहा ||

बहन करौ तुम शीलवश, निज जनकौ सब भार। 

गनौ न अघ, अघ-जाति कछु, सब विधि करो सँभार॥ 

तुम्हरो शील स्वभाव लखि, जो न शरण तव होय। 

तेहि सम कुटिल कुबुद्धि जन, नहिं कुभाग्य जन कोय॥ 

दीन-हीन अति मलिन मति, मैं अघ-ओघ अपार। 

कृपा-अनल प्रगटौ तुरत, करो पाप सब छार॥ 

कृपा सुधा बरसाय पुनि, शीतल करो पवित्र। 

राखो पदकमलनि सदा, हे कुपात्र के मित्र॥ 



श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥
जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥
अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥
देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥
किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥
तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥
किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥
जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥
मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी॥
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥
शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं॥
नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥
जो यह पाठ करे मन लाई। ता पार होत है शम्भु सहाई॥
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे ॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा। तन नहीं ताके रहे कलेशा॥
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥
जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे॥
कहे अयोध्या आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥

॥दोहा॥
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥
मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान।
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण॥


!!! गणेशज़ी के १०८ नाम !!!




ॐ गणपतये नमः॥ ॐ गणेश्वराय नमः॥ 
ॐ गणक्रीडाय नमः॥


ॐ गणनाथाय नमः॥ ॐ गणाधिपाय नमः॥ 
ॐ एकदंष्ट्राय नमः॥
ॐ वक्रतुण्डाय नमः॥ ॐ गजवक्त्राय नमः॥ 
ॐ मदोदराय नमः॥
ॐ लम्बोदराय नमः॥ ॐ धूम्रवर्णाय नमः॥ ॐ विकटाय नमः॥
ॐ विघ्ननायकाय नमः॥ ॐ सुमुखाय नमः॥ ॐ दुर्मुखाय नमः॥
ॐ बुद्धाय नमः॥ ॐ विघ्नराजाय नमः॥ ॐ गजाननाय नमः॥
ॐ भीमाय नमः॥ ॐ प्रमोदाय नमः ॥ ॐ आनन्दाय नमः॥
ॐ सुरानन्दाय नमः॥ ॐ मदोत्कटाय नमः॥ ॐ हेरम्बाय नमः॥
ॐ शम्बराय नमः॥ ॐ शम्भवे नमः ॥ॐ लम्बकर्णाय नमः ॥ॐ महाबलाय नमः ॥ ॐ नन्दनाय नमः ॥ॐ अलम्पटाय नमः ॥ॐ भीमाय नमः ॥ॐ मेघनादाय नमः ॥ ॐ गणञ्जयाय नमः ॥ॐ विनायकाय नमः ॥ॐ विरूपाक्षाय नमः ॥ॐ धीराय नमः ॥
ॐ शूराय नमः ॥ॐ वरप्रदाय नमः ॥ॐ महागणपतये नमः ॥ॐ बुद्धिप्रियाय नमः ॥ ॐ क्षिप्रप्रसादनाय नमः ॥ॐ रुद्रप्रियाय नमः ॥ॐ गणाध्यक्षाय नमः ॥ॐ उमापुत्राय नमः ॥ ॐ अघनाशनाय नमः ॥ॐ कुमारगुरवे नमः ॥ॐ ईशानपुत्राय नमः ॥ॐ मूषकवाहनाय नः ॥
ॐ सिद्धिप्रदाय नमः ॥ॐ सिद्धिपतये नमः ॥ॐ सिद्ध्यै नमः ॥ॐ सिद्धिविनायकाय नमः ॥ ॐ विघ्नाय नमः ॥ॐ तुङ्गभुजाय नमः ॥ॐ सिंहवाहनाय नमः ॥ॐ मोहिनीप्रियाय नमः ॥ ॐ कटिंकटाय नमः ॥ॐ राजपुत्राय नमः ॥ॐ शकलाय नमः ॥ॐ सम्मिताय नमः ॥
ॐ अमिताय नमः ॥ॐ कूश्माण्डगणसम्भूताय नमः ॥ॐ दुर्जयाय नमः ॥ॐ धूर्जयाय नमः ॥ ॐ अजयाय नमः ॥ॐ भूपतये नमः ॥ॐ भुवनेशाय नमः ॥ॐ भूतानां पतये नमः ॥ ॐ अव्ययाय नमः ॥ॐ विश्वकर्त्रे नमः ॥ॐ विश्वमुखाय नमः ॥ॐ विश्वरूपाय नमः ॥
ॐ निधये नमः ॥ॐ घृणये नमः ॥ॐ कवये नमः ॥ॐ कवीनामृषभाय नमः ॥ ॐ ब्रह्मण्याय नमः ॥ ॐ ब्रह्मणस्पतये नमः ॥ॐ ज्येष्ठराजाय नमः ॥ॐ निधिपतये नमः ॥ ॐ निधिप्रियपतिप्रियाय नमः ॥ॐ हिरण्मयपुरान्तस्थाय नमः ॥ॐ सूर्यमण्डलमध्यगाय नमः ॥ ॐ कराहतिध्वस्तसिन्धुसलिलाय नमः ॥ॐ पूषदन्तभृते नमः ॥ॐ उमाङ्गकेळिकुतुकिने नमः ॥ ॐ मुक्तिदाय नमः ॥ॐ कुलपालकाय नमः ॥ॐ किरीटिने नमः ॥ॐ कुण्डलिने नमः ॥ ॐ हारिणे नमः ॥ॐ वनमालिने नमः ॥ॐ मनोमयाय नमः ॥ॐ वैमुख्यहतदृश्यश्रियै नमः ॥ ॐ पादाहत्याजितक्षितये नमः ॥ॐ सद्योजाताय नमः ॥ॐ स्वर्णभुजाय नमः ॥ ॐ मेखलिन नमः ॥ॐ दुर्निमित्तहृते नमः ॥ॐ दुस्स्वप्नहृते नमः ॥ॐ प्रहसनाय नमः ॥
ॐ गुणिने नमः ॥ॐ नादप्रतिष्ठिताय नमः ॥ॐ सुरूपाय नमः ॥ॐ सर्वनेत्राधिवासाय नमः ॥ ॐ वीरासनाश्रयाय नमः ॥ॐ पीताम्बराय नमः ॥ॐ खड्गधराय नमः ॥ ॐ खण्डेन्दुकृतशेखराय नमः ॥ॐ चित्राङ्कश्यामदशनाय नमः ॥ॐ फालचन्द्राय नमः ॥ ॐ चतुर्भुजाय नमः ॥ॐ योगाधिपाय नमः ॥ॐ तारकस्थाय नमः ॥ॐ पुरुषाय नमः ॥
ॐ गजकर्णकाय नमः ॥ॐ गणाधिराजाय नमः ॥ॐ विजयस्थिराय नमः ॥
ॐ गणपतये नमः ॥ॐ ध्वजिने नमः ॥ॐ देवदेवाय नमः ॥ॐ स्मरप्राणदीपकाय नमः ॥
ॐ वायुकीलकाय नमः ॥ॐ विपश्चिद्वरदाय नमः ॥ॐ नादाय नमः ॥
ॐ नादभिन्नवलाहकाय नमः ॥ॐ वराहवदनाय नमः ॥ॐ मृत्युञ्जयाय नमः ॥
ॐ व्याघ्राजिनाम्बराय नमः ॥ॐ इच्छाशक्तिधराय नमः ॥ॐ देवत्रात्रे नमः ॥
ॐ दैत्यविमर्दनाय नमः ॥ॐ शम्भुवक्त्रोद्भवाय नमः ॥ॐ शम्भुकोपघ्ने नमः ॥
ॐ शम्भुहास्यभुवे नमः ॥ॐ शम्भुतेजसे नमः ॥ॐ शिवाशोकहारिणे नमः ॥
ॐ गौरीसुखावहाय नमः ॥ॐ उमाङ्गमलजाय नमः ॥ॐ गौरीतेजोभुवे नमः ॥
ॐ स्वर्धुनीभवाय नमः ॥ॐ यज्ञकायाय नमः ॥ॐ महानादाय नमः ॥ॐ गिरिवर्ष्मणे नमः ॥
ॐ शुभाननाय नमः ॥ॐ सर्वात्मने नमः ॥ॐ सर्वदेवात्मने नमः ॥ॐ ब्रह्ममूर्ध्ने नमः ॥
ॐ ककुप्छ्रुतये नमः ॥ॐ ब्रह्माण्डकुम्भाय नमः ॥ॐ चिद्व्योमफालाय नमः ॥
ॐ सत्यशिरोरुहाय नमः ॥ॐ जगज्जन्मलयोन्मेषनिमेषाय नमः ॥ॐ अग्न्यर्कसोमदृशे नमः ॥
ॐ गिरीन्द्रैकरदाय नमः ॥ॐ धर्माय नमः ॥ॐ धर्मिष्ठाय नमः ॥ॐ सामबृंहिताय नमः ॥
ॐ ग्रहर्क्षदशनाय नमः ॥ॐ वाणीजिह्वाय नमः ॥ॐ वासवनासिकाय नमः ॥
ॐ कुलाचलांसाय नमः ॥ॐ सोमार्कघण्टाय नमः ॥ॐ रुद्रशिरोधराय नमः ॥
ॐ नदीनदभुजाय नमः ॥ॐ सर्पाङ्गुळिकाय नमः ॥ॐ तारकानखाय नमः ॥
ॐ भ्रूमध्यसंस्थतकराय नमः ॥ॐ ब्रह्मविद्यामदोत्कटाय नमः ॥ ॐ व्योमनाभाय नमः ॥
ॐ श्रीहृदयाय नमः ॥ॐ मेरुपृष्ठाय नमः ॥ॐ अर्णवोदराय नमः ॥
ॐ कुक्षिस्थयक्षगन्धर्वरक्षः किन्नरमानुषाय नमः ॥

!!! सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर कथा !!!



संम्पूर्ण भारत में 12 ज्योतिर्लिंग है. पहला ज्योतिर्लिंग सोमनाथ ज्योतिर्लिंग है. यह ज्योतिर्लिंग सौराष्टृ में कठवाडा नामक स्थान में है. मल्लिकार्जुन श्री शैल ज्योतिर्लिंग, महाकाल ज्योतिर्लिंग, ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग, केदारनाथ ज्योतिर्लिंग, भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग, विश्वनाथ विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग, त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग, वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग, नागेश्वर ज्योतिर्लिंग, रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग, घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग.

इस प्रकार कुल 12 ज्योतिर्लिंग है.किवदंतियों के अनुसार इस स्थान पर ही भगवान श्री कृ्ष्ण ने अपनी देह का त्याग किया था. इस वजह से यहां आज भी भगवान शिव के साथ साथ भगवान श्री कृ्ष्ण का भी सुन्दर मंदिर है.

सोमनाथ मंदिर

सोमनाथ मंदिर में प्राचीन समय में अन्य अनेक देवों के मंदिर भी थे़ इसमें शिवजी के 137 मंदिर थे. भगवान श्री विष्णु के 7, देवी के 27, सूर्यदेव के 16, श्री गणेश के 5 मंदिर थे़ समय के साथ इन मंदिरों की संख्या कुछ कम हो गई है. सोमनाथ मंदिर से 200 किलोमीटर दूर श्रीकृ्ष्ण की द्वारिका नगरी मानी जाती है. यहां भी भारत के ही नहीं वरण देश विदेश से अनेक भक्त दर्शनों के लिए आते है.

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर कथा |

ज्योतिर्लिंग के प्राद्रुभाव की एक पौराणिक कथा प्रचलित है. कथा के अनुसार राजा दक्ष ने अपनी सताईस कन्याओं का विवाह चन्द देव से किया था. सत्ताईस कन्याओं का पति बन कर देव बेहद खुश थे. सभी कन्याएं भी इस विवाह से प्रसन्न थी. इन सभी कन्याओं में चन्द्र देव सबसे अधिक रोहिंणी नामक कन्या पर मोहित थे़. जब यह बात दक्ष को मालूम हुई तो उन्होनें चन्द्र देव को समझाया. लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ. उनके समझाने का प्रभाव यह हुआ कि उनकी आसक्ति रोहिणी के प्रति और अधिक हो गई.

यह जानने के बाद राजा दक्ष ने देव चन्द्र को शाप दे दिया कि, जाओं आज से तुम क्षयरोग के मरीज हो जाओ. श्रापवश देव चन्द्र् क्षय रोग से पीडित हो गए. उनके सम्मान और प्रभाव में भी कमी हो गई. इस शाप से मुक्त होने के लिए वे भगवान ब्रह्मा की शरण में गए.

इस शाप से मुक्ति का ब्रह्मा देव ने यह उपाय बताया कि जिस जगह पर आप सोमनाथ मंदिर है, उस स्थान पर आकर चन्द देव को भगवान शिव का तप करने के लिए कहा. भगवान ब्रह्मा जी के कहे अनुसार भगवान शिव की उपासना करने के बाद चन्द्र देव श्राप से मुक्त हो गए.

उसी समय से यह मान्यता है, कि भगवान चन्द इस स्थान पर शिव तपस्या करने के लिए आये थे. तपस्या पूरी होने के बाद भगवान शिव ने चन्द्र देव से वर मांगने के लिए कहा. इस पर चन्द्र देव ने वर मांगा कि हे भगवान आप मुझे इस श्राप से मुक्त कर दीजिए. और मेरे सारे अपराध क्षमा कर दीजिए.

इस श्राप को पूरी से समाप्त करना भगवान शिव के लिए भी सम्भव नहीं था. मध्य का मार्ग निकाला गया, कि एक माह में जो पक्ष होते है. एक शुक्ल पक्ष और कृ्ष्ण पक्ष एक पक्ष में उनका यह श्राप नहीं रहेगा. परन्तु इस पक्ष में इस श्राप से ग्रस्त रहेगें. शुक्ल पक्ष और कृ्ष्ण पक्ष में वे एक पक्ष में बढते है, और दूसरे में वो घटते जाते है. चन्द्र देव ने भगवान शिव की यह कृ्पा प्राप्त करने के लिए उन्हें धन्यवाद किया. ओर उनकी स्तुति की.

उसी समय से इस स्थान पर भगवान शिव की इस स्थान पर उपासना करना का प्रचलन प्रारम्भ हुआ. तथा भगवान शिव सोमनाथ मंदिर में आकर पूरे विश्व में विख्यात हो गए. देवता भी इस स्थान को नमन करते है. इस स्थान पर चन्द्र देव भी भगवान शिव के साथ स्थित है.


सोमनाथ कुण्ड स्थापाना |

यहां से संबन्धित एक अन्य कथा के अनुसार यहां पर स्थित सोमनाथ नामक कुंड की स्थापना देवों के द्वारा की गई है. यह माना जाता है, कि इस स्थन पर भगवान शिव और ब्रहा देव आज भी निवास करते है. वर्तमान में जो भी श्रद्वालु इस कुंड में स्नान करता है. वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है. यहां तक की असाध्य से असाध्य रोग भी इस स्थान पर आकर ठिक हो जाते है. अगर कोई व्यक्ति क्षय रोग से युक्त है, तो उसे पूरे छ: माह तक इस कुंड् में स्नान करना चाहिए. इससे वह व्यक्ति रोगमुक्त हो जाता है.

सोमनाथ मंदिर महिमा |

इसके अतिरिक्त किसी कारण वश अगर कोई व्यक्ति यहां दर्शनों के लिए नहीं आ सकता है. तो उसे केवल यहां की उत्पत्ति की कथा सुन लेनी चाहिए. यह कथा सुनने मात्र से व्यक्ति पुन्य का भागी बनता है. सोमनाथ मंदिर स्थल पर दर्शन करने मात्र से व्यक्ति की सभी इच्छाएं पूरी होती है. 12 ज्योतिर्लिंगों में इस स्थान को सबसे ऊपर स्थान दिया गया है.

यहां पर कोई भक्त अगर दो सोमवार भी यहां की पूजा में शामिल जो जाता है, तो उसके सभी मनोकामनाएं पूरी होती है. सावन मास में भगवान शिव के पूजन का विशेष महत्व है. उस समय में यहां दर्शन करने से विशेष पुन्य की प्राप्ति होती है. यहां आकर शिव भक्ति का अपना ही एक अलग महत्व है. यह श्विव महिमा है, कि शिवरात्रि की रात्रि में यहां एक माला शिव के महामृ्त्युंजय मंत्र का जाप चमत्कारिक फल देता है.


!!! सच्ची शिव भक्ति, उपासना, साधना !!!


शास्त्रो में भगवान शिव को वेद या ज्ञान स्वरूप माना गया है। इसलिए शिव भक्ति मन की चंचलता को रोक व्यक्ति को दुःख व दुर्गति से बचाने वाली मानी जाती है। भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए ही धर्म व लोक परंपराओं में अभिषेक, पूजा व मंत्र जप आदि किए जाते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि तन, मन और वचन के स्तर पर सच्ची शिव भक्ति, उपासना, साधना और सेवा के सही तरीके या विधान क्या हैं? इसका जवाब शिवपुराण में मिलता है, जिसमें शिव सेवा को 'शिव धर्म' भी बताया गया है। जानिए, शिव भक्ति और सेवा के ये खास तरीके -


शिवपुराण के मुताबिक भक्ति के तीन रूप हैं। यह है मानसिक या मन से, वाचिक या बोल से और शारीरिक यानी शरीर से। सरल शब्दों में कहें तो तन, मन और वचन से देव भक्ति।

इनमें भगवान शिव के स्वरूप का चिन्तन मन से, मंत्र और जप वचन से और पूजा परंपरा शरीर से सेवा मानी गई है। इन तीनों तरीकों से की जाने वाली सेवा ही शिव धर्म कहलाती है। इस शिव धर्म या शिव की सेवा के भी पांच रूप हैं, जो शिव भक्ति के 5 सबसे अच्छे उपाय भी माने जाते हैं।
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  • ध्यान - शिव के रूप में लीन होना या चिन्तन करना ध्यान कहलाता है।
  • कर्म - लिंगपूजा सहित अन्य शिव पूजन परंपरा कर्म कहलाते हैं।
  • तप - चान्द्रायण व्रत सहित अन्य शिव व्रत विधान तप कहलाते हैं।
  • जप - शब्द, मन आदि द्वारा शिव मंत्र का अभ्यास या दोहराव जप कहलाता है।
  • ज्ञान - भगवान शिव की स्तुति, महिमा और शक्ति बताने वाले शास्त्रों की शिक्षा ज्ञान कही जाती है।
  • इस तरह शिव धर्म का पालन या शिव की सेवा हर शिव भक्त को बुरे कर्मों, विचारों व इच्छाओं से दूर कर शांति और सुख की ओर ले जाती है।