01 November 2012

:: अश्वगंधा ::



अश्वगंधा एक झाड़ीदार रोमयुक्त पौधा है। अश्वगंधा कहने को एक पौधा है, लेकिन यह बहुवर्षीय पौधा पौष्टिक जड़ों से युक्त है। अश्वगंधा के बीज, फल एवं छाल का विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयोग किया जाता है। इसे असंगध एवं बाराहरकर्णी भी कहते हैं । कच्ची जड़ से अश्व जैसी गंध आती है इसीलिए भी इसे अश्वगंधा या वाजिगंधा कहा जाता है तथा इसका सेवन करते रहने से भी अश्व जैसा उत्साह उत्पन्न होता है अतः नाम सार्थक है । सूख जाने पर यह गंध कम हो जाती है । आइए जानें अंश्वगंधा पौधें के अनेक फायदों के बारे में।

• अश्वगंधा पौधे की पत्तियां त्वचा रोग, शरीर की सूजन एवं शरीर पर पड़े घाव और जख्म भरने जैसी समस्या से लेकर बहुत सी बीमारियों में भी बहुत उपयोगी है।


• अश्वगंसधा के पौधे को पीसकर लेप बनाकर लगाने से शरीर की सूजन, शरीर की किसी विकृत ग्रंथि और किसी भी तरह के फुंसी-फोड़े को हटाने में काम आती है।

• अश्वगंसधा पोधे की पत्तियों को घी, शहद पीपल इत्यादि के साथ 
मिलाकर सेवन करने से शरीर निरोग रहता है।

• यदि किसी को चर्म रोग है तो उसके लिए भी अश्वगंधा जड़ीबूटी बहुत लाभकरी है। इसका चूर्ण बनाकर तेल से साथ लगाने से चर्म रोग से निजात पाई जा सकती है।

• उच्चरक्तचाप की समस्या से पीडि़त लोग यदि अश्वगंधा के चूर्ण का दूध के साथ नियमित सेवन करेंगे तो निश्चित तौर पर उनका रक्तचाप सामान्य‍ हो जाएगा।

• शरीर में कमजोरी या दुर्बलता को भी अश्वगंाधा तेल से मालिश कर दूर किया जा सकता है, इतना ही नहीं गैस संबंधी समस्या में भी ये पौधा अत्यंत लाभदायक होता है।

• सांस संबंधी रोगों से निजात पाने के लिए अश्वगंधा के क्षार को शहद को घी के साथ मिलाकर सेवन करने से बहुत लाभ मिलता है।

• वृद्धावस्था में होने वाली बीमारियों को दूर करने, तरोताजा रहने और ऊर्जावान बने रहने के लिए अश्वगंघा चूर्ण को प्रतिदिन दूध के साथ लेना चाहिए। इससे मस्तिष्क भी तेज होता है।

• इसके अलावा अश्वगंधा पौधे के और भी लाभ हैं। यह खाँसी, क्षयरोग तथा गठिया में भी यह लाभदायक है।

• अश्वगंधा पौधे की जड़ पौष्टिक होने के साथ ही पाचक अम्ल और प्लेग जैसी महामारियों से निजात दिलाता है।

वानस्पतिक परिचय-

यह सारे भारत में पश्चिमोत्तर भाग, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब तथा हिमांचल में 5000 फीट की ऊँचाई तक पाई जाती है । मध्य प्रदेश के पश्चिमोत्तर जिले मंदसौर की मनासा तहसील में इसकी बड़े पैमाने पर खेती की जाती है तथा सारे भारत की व्यावसायिक पूर्ति वहीं से होती है । पहले यह नागोर (राजस्थान) में बहुत होता था और वहीं से सर्वत्र भेजा जाता था । अतः इसे नागौरी असंगध भी कहा जाता था । यह नाम अभी भी प्रसिद्ध है ।

इसका क्षुप झाड़ीदार एक से चार फुट ऊँचा बहुशाखा युक्त होता है । शाखाएँ गोलाकार चारों ओर फैली रहती है । कहीं-कहीं बड़े-बड़े वृक्षों के नीचे जलाशयों के समीप यह बारहों माह हरी भरी स्थिति में पाया जाता है । आकार में यह छोटी कंटेरा जैसा परन्तु कण्टक रहित होता है । पत्र जोड़े में अखण्डित अण्डाकार 5-10 सेण्टीमीटर लंबे तथा 3 से 5 सेण्टीमीटर चौड़े होते हैं । ये आकार में लंबे, बीज छोटे लटवाकार से लेकर कहीं-कहीं पलाश के पत्ते सदृश बड़े होते हैं । डण्ठल बहुत ही छोटा होता है ।

पुष्प छोटे-छोटे कुछ लंबे, कुछ पीला व हरापन लिए चिलम के आकार के होते हैं । शाखाओं के अग्र भाग पर खिलते हैं । इन पर भी डण्ठल के समान सफेद छोटे-छोटे रोम होते हैं । फल छोटे-छोटे गोल मटर या मकोय के फल के समान पहले हरे-फिर कार्तिक मास में पकने पर लाल रंग के हो जाते हैं । ये रसभरी के फलों के समान दिखते हैं । फल के अन्दर लोआव तथा कटेरी के बीजों के समान श्वेत असंख्यों बीज होते हैं । इन्हें यदि दूध में डाल दिया जाए तो वे उसे जमा भी देते हैं ।

मूल 4 से 8 इंच लंबी ऊपर से मटमैली अन्दर से सफेद शंकु के आकार की होती है । यह नीचे से मोटी ऊपर से पतली, गोल व चिकनी होती है । गीली ताजी जड़ से घ्ज्ञोड़े के मूत्र के समान तीव्र गंध आती है, जिसका स्वाद तीखा होता है । शरद ऋतु में फूल आते हैं तथा कार्तिक मार्गशीर्ष में पकते हैं । बरसात में इसके बीज बोये जाते हैं तथा जाड़े में फसल निकाली जाती है ।

शुद्धाशुद्ध परीक्षा-

बाजारों में मिलने वाली शुष्क जड़ 10 से 20 सेण्टीमीटर लंबी छोटे बड़े टुकड़ों के रूप में होती है । यह प्रायः खेती किए हुए पौधे की जड़ होती है । जंगली पौधों की अपेक्षा उसमें स्टार्च आदि अधिक होता है । आन्तरिक प्रयोग के लिए खेती वाले पौधे की जड़ तथा लेप आदि प्रयोग के लिए जंगली पौधे की जड़ ठीक बैठती है । असगंध दो प्रकार की होती है-छोटी तथा बड़ी । छोटी असगंध का क्षुप छोटा, परन्तु मूल बड़ा होता है । पूर्व में नागौरी असगंध को देशी भी कहते हैं । इसका क्षुप बड़ा तथा जड़ें छोटी व पतली होती है । बाजारों में असगंध की जाति के ही एक भेद फाकनज की जड़ें भी मिला दी जाती हैं । कुछ व्यक्ति कन्वाव्ध्ययन असगंधा को अश्वगंधा मान बैठते हैं, जबकि वह आन्तरिक प्रयोग के लिए नहीं है, विषैली है ।

रोपण-

यह उन स्थानों पर भी उग आता है, जहाँ अन्य वनौषधियाँ नहीं लग पातीं । 5 किलो ग्राम बीज लगभग एक हैक्टेयर भूमि के लिए पर्याप्त है । पहले नर्सरी में उगाकर उन्हें आधा-आधा मीटर की दूरी पर खेत में फैला देते हैं । सिंचाई की आवश्यकता अधिक नहीं पड़ती । देखरेख एवं खाद आदि इतनी जरूरत नहीं । अधिक वर्षा तो हानिकारक है । दिसम्बर में फूल-फल आने के बाद मार्च में समूल फसल काट ली जाती है । जड़ों को कूट कर मिट्टी हटा देते हैं और पतली अलग कर मोटी जड़ों को औषधि प्रयोजन हेतु चुन लेते हैं ।


• औषधि के रूप में इसका उपयोग करके कई रोगों को दूर किया जाता है। वाकई अश्वगंधा पौधे के फायदे अनेक है।


संग्रह-संरक्षण-कालावधि-


उत्तम जड़ों को चुनकर सुखाकर एयरटाइड सूखे शीतल स्थानों पर रखते हैं । इन्हें एक वर्ष तक प्रयुक्त किया जा सकता है ।

आचार्य चरक ने असगंध को उत्कृष्ट वल्य माना है एवं सभी प्रकार के जीर्ण रोगियों, क्षयशोथ आदि के लिए इसे उपयुक्त माना है । सुश्रुत के अनुसार यह औषधि किसी भी प्रकार की दुर्बलता-कृषता में गुणकारी है । 

चक्रदत्त के अनुसार-


पादकल्केऽश्वगंधायाः क्षीरे दशगुण पचेत् । घृतं पेयं कुमाराणां पुष्टिकृद्वलवर्धनम्॥


पुष्टि बलवर्धन हेतु इससे श्रेष्ठ औषधि आयुर्वेद के विद्वान कोई और नहीं मानते । चक्रदत्त ही के अनुसार यदि अश्वगंधा का चूर्ण 15 दिन दूध, घृत अथवा तेल या जल से लेने पर बालक का शरीर उसी प्रकार पुष्ट होता है जैसे जल वर्षा होने पर फसलों की पुष्टि होती है । यही नहीं, शिशिर ऋतु में यदि कोई वृद्ध इसका एक माह भी सेवन करता है तो वह युवा बन जाता है । श्री भाव मिश्र लिखते हैं-अश्वगंधा निलशेष्मश्वित्र शोथक्षयापहा । वल्या रसप्यनी तिक्ता कषायोष्णातिशुबला॥ अर्थात्-क्षय आदि रोगों में तो लाभकारी है ही बलवर्धक रसायन एवं अतिशुक्रल है ।


आयुर्वेद के अन्य विद्वान् बताते हैं कि असगंध धातुओं की वृद्धि विशिष्ट रूप से करता है । मांस मज्जा की वृद्धि उनका शोधन तथा जीवनावध्धि बढ़ना भी इसके वृहण गुण के कारण संभव हो पाता है ।

डॉ. आर.एन. खोरी के अनुसार असगंध एक शक्तिवर्धक रसायन और अवसादक है । इसकी मूल का चूर्ण दूध या घी के साथ यह निद्रा लाता है तथा शुक्राणुओं की वृद्धि कर एक प्रकार के एफ्रोडिजियक (कोमोत्तेजक) की भूमिका निभाता है, परन्तु इसका कोई अवांछनीय प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता ।


श्री नादकर्णी के अनुसार अश्वगंधा प्रधानतः एक टॉनिक है । यह शरीर के बिगड़े हुए क्रिया-कलापों को सुव्यवस्थित करती है । वातशामक होने के कारण थकान का निवारण कर शक्ति प्रदान करती है । यह अंग-अवयवों की, जीवकोषों की आयु बढ़ाती है । इस प्रकार असमय बुढ़ापा नहीं आने देती । वेल्थ ऑफ इण्डिया के अनुसार यह बच्चों के सूखा रोग में लाभकारी है । इसके तने की सब्जी भी खिलाई जाती है व सूखा रोग हेतु यह एक ग्रामीण चिर प्रचलित औषधि है ।


होम्योपैथी में इसका वर्णन कहीं प्रयोग के रूप में नहीं मिलता । कहीं छुटपुट प्रयोग हुए हों तो प्रकाशित न होने के कारण उनकी जानकारी उपलब्ध नहीं है ।


यूनानी में अश्वगंधा को वहमनेवरी के नाम से जाना जाता है । हब्ब असगंधा इसका एक प्रसिद्ध योग है । हकीम दलजीतसिंह के अनुसार यह तीसरे दर्जे में उष्ण रुक्ष है । इसका गुण, बाजीकरण बलवर्धक, शुक्रल, वीर्य पुष्टिकर है । महिलाओं को प्रसवोपरांत देने से यह बल प्रदान करता है ।

रासायनिक संरचना-

अश्वगंधा की जड़ में कई एल्केलाइड्स पाए गए हैं । इनकी कुल मात्रा 0.13 से 0.31 प्रतिशत तक होती है । 'वेल्थ ऑफ इण्डिया' के मतानुसार तेरह एल्केलाइड क्रोमेटोग्राफी की विधि से अलग किए गए हैं । इनमें प्रमुख हैं-कुस्कोहाइग्रीन, एनाहाइग्रीन, ट्रोपीन, स्युडोट्रोपीन, ऐनाफेरीन, आईसोपेलीन, टोरीन और तीन प्रकार के ट्रोपिलीटग्लोएट । जर्मन व रूसी वैज्ञानिकों ने असगंध की जड़ में अन्य एल्केलाइड होने का भी दावा किया है, जिसमें प्रमुख हैं-विदासोमिन एवं विसामिन एल्केलाइडों के अलावा इस क्षुप की जड़ में स्टार्च शर्करा, ग्लाइकोमाइड्स-हेण्टि्रयाकाल्टेन तथा अलसिटॉल, विदनाल पाए गए हैं । इसमें बहुत से अमीनो अम्ल मुक्तावस्था में होते हैं यथा एस्पार्टिक अम्ल, ग्लाइसिन आयरोसिन, एलेनिन, प्रोलीन, टि्रप्योफैन, ग्लूटेमिक अम्ल एवं सिस्टीन ।

अश्वगंधा की पत्तियों में विदानोलाइड परिवार के पदार्थ पाए जाते हैं जो बदलते रहते हैं । पत्तियों का स्वरूप एक-सा रहने पर भी रासायनिक दृष्टि से अंतर पाया गया है । बारह प्रकार के विदानोलाइड अलग-अलग पौधों से प्राप्त किए गए हैं जो एक ही क्यारी में एक साथ रोपे गए थे । इसके अलावा पत्तियों में एल्केलाइड्स ग्लाकोसाइड्स, ग्लूकोस एवं मुक्त अमीनो अम्ल भी पाए गए हैं ।

असगंध के तने में प्रोटीन बहुतायत से पाए गए हैं । इनमें रेशा बहुत कम तथा कैल्शियम व फॉस्फोरस प्रचुर मात्रा में होते हैं । कई अमीनो अम्ल भी मुक्तावस्था में पाए गए हैं । जड़, तने तथा फल में टैनिन एवं फ्लेविनाइड भी होते हैं । इसके फलों में प्रोटीनों को पचाने वाला एक एन्जाइम कैमेस भी पाया गया है ।


आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोगों के निष्कर्ष-

अश्वगंधा पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य मद्रास में डॉ. कुप्पु राजन आदि द्वारा किया गय है । जनरल ऑफ रिसर्च इन आयुर्वेद एण्ड सिद्धा के अनुसार (जून 1980) 50 से 51 वर्ष के 101 नर, वृद्धों पर इस औषधि का चूर्ण रूप में प्रयोग करने पर अश्वगंधा को आयु बढ़ाने वाला पाया गया । प्रत्येक व्यक्ति को एक वर्ष तक प्रतिदिन एक-एक ग्राम असंगध मूल चूर्ण दिन में तीन बार दूध के साथ दिया गया । कण्ट्रोल वग्र की तुलना में अश्वगंधा ग्रहण करने वाले व्यक्तियों में हिमोग्लोबिन, लाल रक्त कणों की संख्या व बालों की कालापन बढ़ा । जिनकी कमर झुकती थी उनके खड़े होने का तरीका सुधरा व संधियों में लचीलापन आया ।

इनका सीरम कोलेस्टेरॉल (रक्त में घुलनशील वसा) घटा तथा रक्त कणों को बैठने की गति (इरिथ्रोसाइट सेडीमेण्टेशन रेट ई. एस. आर.) भी कम हुई । अध्ययन के निष्कर्ष बताते हुए वैज्ञानिकों ने कहा कि यह औषधि वृहणीय (मांस भेद बढ़ाने वाला) तथा रसायन सप्त धातु पोषक है ।

अश्वगंधा एक प्रकार का हिमेटिनिक (रक्त लौह बढ़ाने वाला) भी है । इसमें प्रति 100 ग्राम 709.4 मिलीग्राम लोहा भी पाया गया है । यह अन्य पौधों की जड़ों में पाए जाने वाले लोहे से कहीं अधिक है । लोहे के अतिरिक्त अश्वगंधा जड़ में प्रचुर मात्रा में वेलीन, टायरोसीन, प्रेलीन, एलेनिन तथा ग्लाइसिन आदि अमीनो अम्ल मुक्तावस्था में पाए गए हैं । लोहे के साथ मुक्त अमीनो अम्लों का पाया जाना इसका अच्छा 'हिमेटिनिक टॉनिक' बनाता है ।

प्रयोज्य अंग-

जड़ मुख्यतः प्रयुक्त होती है । पत्तियों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया जाता है । इसके बज जहरीले होते हैं ।

मात्रा-

(अ) मूल चूर्ण- 1 से 3 ग्राम एक बार में । (ब) क्षार- 1 से 3 ग्राम एक बार में । (स) घृत- (जड़ का क्वाथ+समान भाग मक्खन+ दस गुना गौदुग्ध को उबालकर) 2 चम्मच प्रातः नित्य । (द) पाक-एक किलो असगंध जौर कुट+20 किलो जल को उबाल कर दो किलो शेष रहने पर छान लें । इसमें दो किलो शक्कर मिलाकर पकाने पर पाक चाशरी की तरह तैयार हो जाता है । बच्चों को एक चम्मच प्रातः सायं बड़ों को दुगुनी मात्रा में देनेसे बलवर्धन करता है ।


निर्धारणानुसार प्रयोग-

चक्रदत्त संहिता में विद्वान चिकित्सक लिखते हैं-पीताश्वगंधा पयसार्धमासं घृतेन तैलेन सुखाम्बुना वा । कृशस्य पुस्टि वपुषो विधत्ते बालस्य सस्यस्य यथाम्बुवृष्टिः॥

मूलतः अश्वगंधा कृशकाय रोगियों, सूखा रोग से ग्रस्त बच्चों व व्याधि उपरांत कमजोरी में, शारीरिक, मानसिक थकान में पुष्टि कारक बलवर्धक के नाते प्रयुक्त होती रही है ।

यकृत में वसा कोशिकाओं के अनाधिकार विस्तार (फैटीइन्फिल्ट्रेशन) से होने वाले कुपोषण, बुढ़ापे की कमजोरी, मांसपेशियों की कमजोरी व थकान, रोगों के बाद की कृशता आदि में असगंध मूल चूर्ण आतिशा घृत या पाक निर्धारित मात्रा में सेवन कराते हैं । मूल चूर्ण को दूध के अनुपात के साथ देते हैं ।

क्षय रोग में अन्य जीवाणुनाशी औषधियों के साथ बल्य रूप में मूलचूर्ण को गोघृत या मिश्री के साथ देते हैं । गर्भवती महिलाओं में तीन माह बल संवर्धन हेतु मूल क्वाथ में चौगुनी घृत मिलाकर पाक बनाकर सेवन कराते हैं ।

लगातार एक वर्ष सेवन से शरीर से सारे विकार बाहर निकल जाते हैं-समग्रशोधन होकर दुर्बलता दूर हो जाती है व जीवनीशक्ति बढ़ती है । यह औषधि काया कल्प योग की एक प्रमुख औषधि मानी जाती है । इसका कल्प भी करते हैं व ऐसा माना जाता है कि इसका निरंतर उपयोग अमृता की तरह जरा को कभी समीप नहीं आने देता । अगहन पूष माह में इसका सेवन विशेष लाभकारी है

अन्य उपयोग-

कफ वात शामक तथा वेदना संशामक होने के कारण यह वात नाड़ी संस्थान के रोगों में भी प्रयुक्त होता है । मूल से सिद्ध तैल वात व्याधि में जोड़ों पर तथा थायराइड या ग्रंथियों की वृद्धि में पत्तों को लेप करने से भी लाभ होता है । यह नींद लाने वाला एक श्रेष्ठ हिप्नोटिक है । रक्तचाप व शोथ को कम करता है । श्वांस रोग में भी असगंध क्षार अथवा चूर्ण को मधु एवं घृत के साथ देने का प्रावधान है । शुक्र दौर्बल्य प्रदर, योनि शूल में उपयोगी है । वाल शोष, क्षय रोग, जीर्ण व्याधि यथा कैंसर से सामान्य दुर्बलता निवारण तथा वेदना दूर करने के लिए इसे देते हैं । जीव कोशों पर अपने प्रभाव के कारण यह वर्ण विकारों तथा कुष्ठ रोगों पर भी कुछ प्रभाव रखता है, ऐसा मत है ।

मूलतः यह औषधि रसायन-बल्य है । इसका प्रयोग कर निश्चित ही दीर्घाष्यु को प्राप्त कर सकना संभव है । एजींग (वार्धक्य) पर इस औषधि की शोध अगले दिनों जब की जाएगी तो शास्रों के वे सभी अभिमत सफल सिद्ध होंगे, जिनमें इसे जरा निवारक बताया गया है । स्जींग संबंधी रोग यथा क्रानिक ऑब्सट्रक्टिव लंग डीसिज (सी.ओ.एल.डी.) डि जेनरेटिव बीमारियाँ, कैंसर प्रिकार्सीनोमट परिस्थितियाँ (गैस्ट्राइटिस, प्लमर विल्सन सिन्ड्रोम) आदि में संभवतः अगले दिनों इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका सिद्ध होगी । यदि ऐसा हो सका तो यह एक अति फलदायी शोध होगी ।



!!! जौ !!!


हमारे ऋषियों-मुनियों का प्रमुख आहार जौ ही था। वेदों द्वारा यज्ञ की आहुति के रूप में जौ को स्वीकारा गया है। जौ को भूनकर, पीसकर, उस आटे में थोड़ा-सा नमक और पानी मिलाने पर सत्तू बनता है। कुछ लोग सत्तू में नमक के स्थान पर गुड़ डालते हैं व सत्तू में घी और शक्कर मिलाकर भी खाया जाता है। गेंहू , जौ और चने को बराबर मात्रा में पीसकर आटा बनाने से मोटापा कम होता है और ये बहुत पौष्टिक भी होता है 

.राजस्थानमें भीषण गर्मी से निजात पाने के लिए सुबह सुबह जौ की राबड़ी का सेवन किया जाता है .

अगर आपको ब्लड प्रेशर की शिकायत है और आपका पारा तुरंत चढ़ता है तो फिर जौ को दवा की तरह खाएँ। हाल ही में हुए एक अध्ययन में दावा किया गया है कि जौ से ब्लड प्रेशर कंट्रोल होता है।कच्चा या पकाया हुआ जौ नहीं बल्कि पके हुए जौ का छिलका ब्लड प्रेशर से बहुत ही कारगर तरीके से लड़ता है।

यह नाइट्रिक ऑक्साइड और हाइड्रोजन सल्फाइड जैसे रसायनिक पदार्थे के निर्माण को बढ़ा देता है और उनसे खून की नसें तनाव मुक्त हो जाती हैं।

उत्तर प्रदेश के फैजाबाद स्थित नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ने इस नयी किस्म नरेंद्र जौ अथवा उपासना को विकसित किया है और हाल ही में उत्तर भारत के किसानों के लिए जारी किया गया है। नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉक्टर सियाराम विश्वकर्मा ने बताया कि इसकी सबसे बड़ी खासियत है कि यह छिलका रहित है। उपासना में बीटाग्लूकोन ग्लूटेन की कम मात्रा सुपाच्य रेशो एसिटिल कोलाइन (कार्बोहाइड्रेट पदार्थ) पाया जाता है।

इसमें फोलिक विटामिन भी पाया जाता है। यही कारण है कि इसके सेवन से रक्तचाप मधुमेह पेट एवं मूष संबंधी बीमारी गुर्दे की पथरी याद्दाश्त की समस्या आदि से निजात दिलाता है।

इसमें एंटी कोलेस्ट्रॉल तत्व भी पाया जाता है।

यह उत्तर भारत के मैदानी इलाकों उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और गुजरात की एक महत्वपूर्ण रबी फसल है।

इसका उपयोग औषधि के रूप मे किया जा सकता है । जौ के निम्न औषधीय गुण है :

- कंठ माला- जौ के आटे में धनिये की हरी पत्तियों का रस मिलाकर रोगी स्थान पर लगाने से कंठ माला ठीक हो जाती है।

- मधुमेह (डायबटीज)- छिलका रहित जौ को भून पीसकर शहद व जल के साथ सत्तू बनाकर खायें अथवा दूध व घी के साथ दलिया का सेवन पथ्यपूर्वक कुछ दिनों तक लगातार करते करते रहने से मधूमेह की व्याधि से छूटकारा पाया जा सकता है।

- जलन- गर्मी के कारण शरीर में जलन हो रही हो, आग सी निकलती हो तो जौ का सत्तू खाने चाहिये। यह गर्मी को शान्त करके ठंडक पहूचाता है और शरीर को शक्ति प्रदान करता है।

- मूत्रावरोध- जौ का दलिया दूध के साथ सेवन करने से मूत्राशय सम्बन्धि अनेक विकार समाप्त हो जाते है।

- गले की सूजन- थोड़ा सा जौ कूट कर पानी में भिगो दें। कुछ समय के बाद पानी निथर जाने पर उसे गरम करके उसके कूल्ले करे। इससे शीघ्र ही गले की सूजन दूर हो जायेगी।

- ज्वर- अधपके या कच्चे जौ (खेत में पूर्णतः न पके ) को कूटकर दूध में पकाकर उसमें जौ का सत्तू मिश्री, घी शहद तथा थोड़ा सा दूघ और मिलाकर पीने से ज्वर की गर्मी शांत हो जाती है।

- मस्तिष्क का प्रहार- जौ का आटा पानी में घोलकर मस्तक पर लेप करने से मस्तिष्क की पित्त के कारण हूई पीड़ा शांत हो जाती है।

- अतिसार- जौ तथा मूग का सूप लेते रहने से आंतों की गर्मी शांत हो जाती है। यह सूप लघू, पाचक एंव संग्राही होने से उरःक्षत में होने वाले अतिसार (पतले दस्त) या राजयक्ष्मा (टी. बी.) में हितकर होता है।

- मोटापा बढ़ाने के लिये- जौ को पानी भीगोकर, कूटकर, छिलका रहित करके उसे दूध में खीर की भांति पकाकर सेवन करने से शरीर पर्यात हूष्ट पुष्ट और मोटा हो जाता है।

- धातु-पुष्टिकर योग- छिलके रहित जौ, गेहू और उड़द समान मात्रा में लेकर महीन पीस लें। इस चूर्ण में चार गुना गाय का दूध लेकर उसमे इस लुगदी को डालकर धीमी अग्नि पर पकायें। गाढ़ा हो जाने पर देशी घी डालकर भून लें। तत्पश्चात् चीनी मिलाकर लड्डू या चीनी की चाशनी मिलाकर पाक जमा लें। मात्रा 10 से 50 ग्राम। यह पाक चीनी व पीतल-चूर्ण मिलाकर गरम गाय के दूध के साथ प्रातःकाल कुछ दिनों तक नियमित लेने से धातु सम्बन्धी अनेक दोष समाप्त हो जाते हैं ।

- पथरी- जौ का पानी पीने से पथरी निकल जायेगी। पथरी के रोगी जौ से बने पदार्थ लें।

- गर्भपात- जौ का छना आटा, तिल तथा चीनी-तीनों सममात्रा में लेकर महीन पीस लें। उसमें शहद मिलाकर चाटें।

- कर्ण शोध व पित्त- पित्त की सूजन अथवा कान की सूजन होने पर जौ के आटे में ईसबगोल की भूसी व सिरका मिलाकर लेप करना लाभप्रद रहता है।

- आग से जलना- तिल के तेल में जौ के दानों को भूनकर जला लें। तत्पश्चात् पीसकर जलने से उत्पन्न हुए घाव या छालों पर इसे लगायें, आराम हो जायेगा। अथवा जौ के दाने अग्नि में जलाकर पीस लें। वह भस्म तिल के तेल में मिलाकर रोगी स्थान पर लगानी चाहियें।

- जौ की राख को शहद के साथ चाताने से खांसी ठीक हो जाती है |

- जौ की राख को पानी में खूब उबालने से यवक्षार बनता है जो किडनी को ठीक कर देता है |


ऋषि वसिष्ठ और विश्वामित्र की कथा




महर्षि वसिष्ठ और विश्वामित्र दोनों ही महान तपस्वी तथा ज्ञान के भंडार थे। एक बार इन दोनों महात्माओं में इस बात पर वाद-विवाद छिड़ गया कि सत्संग और तपस्या दोनों में से कौन श्रेष्ठ है। 

वसिष्ठ जी सत्संग के पक्ष  मे थे और विश्वमित्र जी को अपनी तपस्या का अभिमान था। वे उसे ही श्रेष्ठ समझते थे। जब वाद-विवाद का कोई निर्णय नहीं हो सका तो दोनों ने यह निश्चय किया कि किसी तीसरे व्यक्ति से इसका निर्णय कराया जाए। दोनों शेष नाग भगवान के पास चल दिए। दोनों ने अपनी-अपनी बात उनके सामने रखी। कहते हैं कि शेषनाग ही हमारी इस पृथ्वी को अपने सिर पर धारण किए हुए हैं। वे कहने लगे, 'देखो मेरे सिर पर इस इतनी भारी पृथ्वी का बोझ रखा है, पहले इससे तो मैं हल्का हो जाऊं तभी कुछ निर्णय कर सकूंगा। तुम दोनों में से कोई इस भार को थोड़ी देर के लिए उठा लो तो मैं सोचूं।' महर्षि विश्वामित्र तुंरत तैयार हो गए और उन्होंने अपनी दस हज़ार वर्ष तपस्या के फल को भेंट करते हुए पृथ्वी को अपने सिर पर उठाने की चेष्टा की लेकिन उनके हाथ लगाते ही पृथ्वी डांवाडोल होने लगी, तभी शेष नाग ने उसे फिर उसे संभाल लिया।

अब महर्षि वसिष्ठ ने अपने सत्संग के आधे क्षण के फल को समर्पित करते हुए पृथ्वी को उठाने की चेष्टा की और पृथ्वी आसानी से उनके सिर पर ठहर गई। जब कुछ देर बीत गई तो ऋषियों ने कहा, 'भगवान आपने हमारे विवाद के विषय में अभी तक कोई निर्णय नहीं दिया।' शेषनाग मुस्कराए और बोले 'निर्णय तो अपने आप हो गया, अब मैं क्या करूं।' अर्थात जिसने पृथ्वी के भार को सहन कर लिया उसी का विस्तार सत्य है। तो सत्संग की यही महिमा है अर्थात अच्छे व्यक्तियों के संग बैठना-उठना, अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करना, जीवन के प्रत्येक क्षे़त्र में सफलता प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है।

आयुर्वेद के मुताबिक किस-किस चीज को साथ नहीं खाना चाहिए और क्यों, जानते हैं ???




दूध के साथ दही लें या नहीं? दूध और दही दोनों की तासीर अलग होती है। दही एक खमीर वाली चीज है। दोनों को मिक्स करने से बिना खमीर वाला खाना (
दूध) खराब हो जाता है। साथ ही, एसिडिटी बढ़ती है और गैस, अपच व उलटी हो सकती है। इसी तरह दूध के साथ अगर संतरे का जूस लेंगे तो भी पेट में खमीर बनेगा। अगर दोनों को खाना ही है तो दोनों के बीच घंटे-डेढ़ घंटे का फर्क होना चाहिए क्योंकि खाना पचने में कम-से-कम इतनी देर तो लगती ही है।दूध के साथ तला-भुना और नमकीन खाएं या नहीं? दूध में मिनरल और विटामिंस के अलावा लैक्टोस शुगर और प्रोटीन होते हैं। दूध एक एनिमल प्रोटीन है और उसके साथ ज्यादा मिक्सिंग करेंगे तो रिएक्शन हो सकते हैं। फिर नमक मिलने से मिल्क प्रोटींस जम जाते हैं और पोषण कम हो जाता है। अगर लंबे समय तक ऐसा किया जाए तो स्किन की बीमारियां हो सकती हैं। आयुर्वेद के मुताबिक उलटे गुणों और मिजाज के खाने लंबे वक्त तक ज्यादा मात्रा में साथ खाए जाएं तो नुकसान पहुंचा सकते हैं। लेकिन मॉडर्न मेडिकल साइंस ऐसा नहीं मानती।


सोने से पहले दूध पीना चाहिए या नहीं? आयुर्वेद के मुताबिक नींद शरीर के कफ दोष से प्रभावित होती है। दूध अपने भारीपन, मिठास और ठंडे मिजाज के कारण कफ प्रवृत्ति को बढ़ाकर नींद लाने में सहायक होता है। मॉडर्न साइंस में भी माना जाता है कि दूध नींद लाने में मददगार होता है। इससे सेरोटोनिन हॉर्मोन भी निकलता है, जो दिमाग को शांत करने में मदद करता है। वैसे, दूध अपने आप में पूरा आहार है, जिसमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और कैल्शियम होते हैं। इसे अकेले पीना ही बेहतर है। साथ में बिस्किट, रस्क, बादाम या ब्रेड ले सकते हैं, लेकिन भारी खाना खाने से दूध के गुण शरीर में समा नहीं पाते।

दूध में पत्ती या अदरक आदि मिलाने से सिर्फ स्वाद बढ़ता है, उसका मिजाज नहीं बदलता। वैसे, टोंड दूध को उबालकर पीना, खीर बनाकर या दलिया में मिलाकर लेना और भी फायदेमंद है। बहुत ठंडे या गर्म दूध की बजाय गुनगुना या कमरे के तापमान के बराबर दूध पीना बेहतर है।

नोट : अक्सर लोग मानते हैं कि सर्जरी या टांके आदि के बाद दूध नहीं लेना चाहिए क्योंकि इससे पस पड़ सकती है, यह गलतफहमी है। दूध में मौजूद प्रोटीन शरीर की टूट-फूट को जल्दी भरने में मदद करते हैं। दूध दिन भर में कभी भी ले सकते हैं। सोने से कम-से-कम एक घंटे पहले लें। दूध और डिनर में भी एक घंटे का अंतर रखें।

खाने के साथ छाछ लें या नहीं? छाछ बेहतरीन ड्रिंक या अडिशनल डाइट है। खाने के साथ इसे लेने से खाने का पाचन भी अच्छा होता है और शरीर को पोषण भी ज्यादा मिलता है। यह खुद भी आसानी से पच जाती है। इसमें अगर एक चुटकी काली मिर्च, जीरा और सेंधा नमक मिला लिया जाए तो और अच्छा है। इसमें अच्छे बैक्टीरिया भी होते हैं, जो शरीर के लिए फायदेमंद होते हैं। मीठी लस्सी पीने से फालतू कैलरी मिलती हैं, इसलिए उससे बचना चाहिए। छाछ खाने के साथ लेना या बाद में लेना बेहतर है। पहले लेने से जूस डाइल्यूट हो जाएंगे।

दही और फल एक साथ लें या नहीं? फलों में अलग एंजाइम होते हैं और दही में अलग। इस कारण वे पच नहीं पाते, इसलिए दोनों को साथ लेने की सलाह नहीं दी जाती। फ्रूट रायता कभी-कभार ले सकते हैं, लेकिन बार-बार इसे खाने से बचना चाहिए।

आयुर्वेद के मुताबिक परांठे या पूरी आदि तली-भुनी चीजों के साथ दही नहीं खाना चाहिए क्योंकि दही फैट के पाचन में रुकावट पैदा करता है। इससे फैट्स से मिलनेवाली एनर्जी शरीर को नहीं मिल पाती।

दूध के साथ फल खाने चाहिए या नहीं? दूध के साथ फल लेते हैं तो दूध के अंदर का कैल्शियम फलों के कई एंजाइम्स को एड्जॉर्ब (खुद में समेट लेता है और उनका पोषण शरीर को नहीं मिल पाता) कर लेता है। संतरा और अनन्नास जैसे खट्टे फल तो दूध के साथ बिल्कुल नहीं लेने चाहिए। व्रत वगैरह में बहुत से लोग केला और दूध साथ लेते हैं, जोकि सही नहीं है। केला कफ बढ़ाता है और दूध भी कफ बढ़ाता है। दोनों को साथ खाने से कफ बढ़ता है और पाचन पर भी असर पड़ता है। इसी तरह चाय, कॉफी या कोल्ड ड्रिंक के रूप में खाने के साथ अगर बहुत सारा कैफीन लिया जाए तो भी शरीर को पूरे पोषक तत्व नहीं मिल पाते।

मछली के साथ दूध पिएं या नहीं? दही की तासीर ठंडी है। उसे किसी भी गर्म चीज के साथ नहीं लेना चाहिए। मछली की तासीर काफी गर्म होती है, इसलिए उसे दही के साथ नहीं खाना चाहिए। इससे गैस, एलर्जी और स्किन की बीमारी हो सकती है। दही के अलावा शहद को भी गर्म चीजों के साथ नहीं खाना चाहिए।

फल खाने के फौरन बाद पानी पी सकते हैं, खासकर तरबूज खाने के बाद? फल खाने के फौरन बाद पानी पी सकते हैं, हालांकि दूसरे तरल पदार्थों से बचना चाहिए। असल में फलों में काफी फाइबर होता है और कैलरी काफी कम होती है। अगर ज्यादा फाइबर के साथ अच्छा मॉइश्चर यानी पानी भी मिल जाए तो शरीर में सफाई अच्छी तरह हो जाती है। लेकिन तरबूज या खरबूज के मामले में यह थ्योरी सही नहीं बैठती क्योंकि ये काफी फाइबर वाले फल हैं। तरबूज को अकेले और खाली पेट खाना ही बेहतर है। इसमें पानी काफी ज्यादा होता है, जो पाचन रसों को डाइल्यूट कर देता है। अगर कोई और चीज इसके साथ या फौरन बाद/पहले खाई जाए तो उसे पचाना मुश्किल होता है। इसी तरह, तरबूज के साथ पानी पीने से लूज-मोशन हो सकते हैं। वैसे तरबूज अपने आप में काफी अच्छा फल है। यह वजन घटाने के इच्छुक लोगों के अलावा शुगर और दिल के मरीजों के लिए भी अच्छा है।

खाने के साथ फल नहीं खाने चाहिए। कार्बोहाइड्रेट और प्रोटींस के पाचन का मिकैनिज्म अलग होता है। कार्बोहाइड्रेट को पचानेवाला स्लाइवा एंजाइम एल्कलाइन मीडियम में काम करता है, जबकि नीबू, संतरा, अनन्नास आदि खट्टे फल एसिडिक होते हैं। दोनों को साथ खाया जाए तो कार्बोहाइड्रेट या स्टार्च की पाचन प्रक्रिया धीमी हो जाती है। इससे कब्ज, डायरिया या अपच हो सकती है। वैसे भी फलों के पाचन में सिर्फ दो घंटे लगते हैं, जबकि खाने को पचने में चार-पांच घंटे लगते हैं। मॉडर्न मेडिकल साइंस की राय कुछ और है। उसके मुताबिक, फ्रूट बाहर एसिडिक होते हैं लेकिन पेट में जाते ही एल्कलाइन हो जाते हैं। वैसे भी शरीर में जाकर सभी चीजें कार्बोहाइड्रेट, फैट, प्रोटीन आदि में बदल जाती हैं, इसलिए मॉडर्न मेडिकल साइंस तरह-तरह के फलों को मिलाकर खाने की सलाह देता है।

मीठे फल और खट्टे फल एक साथ न खाएं आयुर्वेद के मुताबिक, संतरा और केला एक साथ नहीं खाना चाहिए क्योंकि खट्टे फल मीठे फलों से निकलनेवाली शुगर में रुकावट पैदा करते हैं, जिससे पाचन में दिक्कत हो सकती है। साथ ही, फलों की पौष्टिकता भी कम हो सकती है। मॉडर्न मेडिकल साइंस इससे इत्तफाक नहीं रखती।

खाने के साथ पानी पिएं या नहीं? पानी बेहतरीन पेय है, लेकिन खाने के साथ पानी पीने से बचना चाहिए। खाना लंबे समय तक पेट में रहेगा तो शरीर को पोषण ज्यादा मिलेगा। अगर पानी ज्यादा लेंगे तो खाना फौरन नीचे चला जाएगा। अगर पीना ही है तो थोड़ा पिएं और गुनगुना या नॉर्मल पानी पिएं। बहुत ठंडा पानी पीने से बचना चाहिए। पानी में अजवाइन या जीरा डालकर उबाल लें। यह खाना पचाने में मदद करता है। खाने से आधा घंटा पहले या एक घंटा बाद गिलास भर पानी पीना अच्छा है।

लहसुन या प्याज खाने चाहिए या नहीं? लहसुन और प्याज को रोजाना के खाने में शामिल किया जाना चाहिए। लहसुन फैट कम करता है और बैड कॉलेस्ट्रॉल (एलडीएल) घटाकर गुड कॉलेस्ट्रॉल (एचडीएल) बढ़ाता है। इसमें एंटी-बॉडीज और एंटी-ऑक्सिडेंट गुण होते हैं। प्याज से भूख बढ़ती है और यह खून की नलियों के आसपास फैट जमा होने से रोकता है। लंबे समय तक इसके इस्तेमाल से सर्दी-जुकाम और सांस संबंधी एलर्जी का मुकाबला अच्छे से किया जा सकता है। लहसुन और प्याज कच्चा या भूनकर, दोनों तरह से खा सकते हैं। लेकिन लहसुन कच्चा खाना बेहतर है। कच्चे लहसुन को निगलें नहीं, चबाकर खाएं क्योंकि कच्चा लहसुन कई बार पच नहीं पाता। साथ ही, उसमें कई ऐसे तेल होते हैं, जो चबाने पर ही निकलते हैं और उनका फायदा शरीर को मिलता है।

परांठे के साथ दही खाएं या नहीं? आयुर्वेद के मुताबिक परांठे या पूरी आदि तली-भुनी चीजों के साथ दही नहीं खाना चाहिए क्योंकि दही फैट के पाचन में रुकावट पैदा करता है। इससे फैट्स से मिलनेवाली एनजीर् शरीर को नहीं मिल पाती। दही खाना ही है तो उसमें काली मिर्च, सेंधा नमक या आंवला पाउडर मिला लें। हालांकि रोटी के साथ दही खाने में कोई परहेज नहीं है। मॉडर्न साइंस कहता है कि दही में गुड बैक्टीरिया होते हैं, जोकि खाना पचाने में मदद करते हैं इसलिए दही जरूर खाना चाहिए।

फैट और प्रोटीन एक साथ खाएं या नहीं? घी, मक्खन, तेल आदि फैट्स को पनीर, अंडा, मीट जैसे भारी प्रोटींस के साथ ज्यादा नहीं खाना चाहिए क्योंकि दो तरह के खाने अगर एक साथ खाए जाएं, तो वे एक-दूसरे की पाचन प्रक्रिया में दखल देते हैं। इससे पेट में दर्द या पाचन में गड़बड़ी हो सकती है।

दूध, ब्रेड और बटर एक साथ लें या नहीं? दूध को अकेले लेना ही बेहतर है। तब शरीर को इसका फायदा ज्यादा होता है। आयुर्वेद के मुताबिक प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और फैट की ज्यादा मात्रा एक साथ नहीं लेनी चाहिए क्योंकि तीनों एक-दूसरे के पचने में रुकावट पैदा कर सकते हैं और पेट में भारीपन हो सकता है। मॉडर्न साइंस इसे सही नहीं मानता। उसके मुताबिक यह सबसे अच्छे नाश्तों में से है क्योंकि यह अपनेआप में पूरा है।

तरह-तरह की डिश एक साथ खाएं या नहीं? एक बार के खाने में बहुत ज्यादा वैरायटी नहीं होनी चाहिए। एक ही थाली में सब्जी, नॉन-वेज, मीठा, चावल, अचार आदि सभी कुछ खा लेने से पेट में खलबली मचती है। रोज के लिए फुल वैरायटी की थाली वाला कॉन्सेप्ट अच्छा नहीं है। कभी-कभार ऐसा चल जाता है।

खाने के बाद मीठा खाएं या नहीं? मीठा अगर खाने से पहले खाया जाए तो बेहतर है क्योंकि तब न सिर्फ यह आसानी से पचता है, बल्कि शरीर को फायदा भी ज्यादा होता है। खाने के बाद में मीठा खाने से प्रोटीन और फैट का पाचन मंदा होता है। शरीर में शुगर सबसे पहले पचता है, प्रोटीन उसके बाद और फैट सबसे बाद में।

खाने के बाद चाय पिएं या नहीं? खाने के बाद चाय पीने से कई फायदा नहीं है। यह गलत धारणा है कि खाने के बाद चाय पीने से पाचन बढ़ता है। हालांकि ग्रीन टी, डाइजेस्टिव टी, कहवा या सौंफ, दालचीनी, अदरक आदि की बिना दूध की चाय पी सकते हैं।

छोले-भठूरे या पिज्जा/बर्गर के साथ कोल्ड ड्रिंक्स लें या नहीं? कोल्ड ड्रिंक में मौजूद एसिड की मात्रा और ज्यादा शुगर फास्ट फूड (पिज्जा, बर्गर, फ्रेंच फ्राइस आदि) में मौजूद फैट के साथ अच्छा नहीं माना जाता। तला-भुना खाना एसिडिक होता है और शुगर भी एसिडिक होती है। ऐसे में दोनों को एक साथ लेना सही नहीं है। साथ ही बहुत गर्म और ठंडा एक साथ नहीं खाना चाहिए। गर्मागर्म भठूरे या बर्गर के साथ ठंडा कोल्ड ड्रिंक पीना शरीर के तापमान को खराब करता है। स्नैक्स में मौजूद फैटी एसिड्स शुगर का पाचन भी खराब करते हैं। फास्ट फूड या तली-भुनी चीजों के साथ कोल्ड ड्रिंक के बजाय जूस, नीबू-पानी या छाछ ले सकते हैं। जूस में मौजूद विटामिन-सी खाने को पचाने में मदद करता है।

भारी काबोर्हाइड्रेट्स के साथ भारी प्रोटीन खाएं या नहीं? मीट, अंडे, पनीर, नट्स जैसे प्रोटीन ब्रेड, दाल, आलू जैसे भारी कार्बोहाइड्रेट्स के साथ न खाएं। दरअसल, हाई प्रोटीन को पचाने के लिए जो एंजाइम चाहिए, अगर वे एक्टिवेट होते हैं तो वे हाई कार्बो को पचाने वाले एंजाइम को रोक देते हैं। ऐसे में दोनों का पाचन एक साथ नहीं हो पाता। अगर लगातार इन्हें साथ खाएं तो कब्ज की शिकायत हो सकती है।

विशेष : हम फास्ट फ़ूड और मांसाहार के विरोधी है क्योकि यह हमारे धर्म और संस्कृति के विरुद्ध है|




!!! चाणक्य के 15 सूक्ति वाक्य !!!



1) "दूसरो की गलतियों से सीखो अपने ही ऊपर प्रयोग करके सीखने को तुम्हारी आयु कम पड़ेगी."
2)"किसी भी व्यक्ति को बहुत ईमानदार नहीं होना चाहिए ---सीधे बृक्ष और व्यक्ति पहले काटे जाते हैं."

3)"अगर कोई सर्प जहरीला नहीं है तब भी उसे जहरीला दिखना चाहिए वैसे दंश भले ही न दो पर दंश दे सकने की क्षमता का दूसरों को अहसास करवाते रहना चाहिए. "

4)"हर मित्रता के पीछे कोई स्वार्थ जरूर होता है --यह कडुआ सच है."

5)"कोई भी काम शुरू करने के पहले तीन सवाल अपने आपसे पूछो ---मैं ऐसा क्यों करने जा रहा हूँ ? इसका क्या परिणाम होगा ? क्या मैं सफल रहूँगा ?"

6)"भय को नजदीक न आने दो अगर यह नजदीक आये इस पर हमला करदो यानी भय से भागो मत इसका सामना करो ."

7)"दुनिया की सबसे बड़ी ताकत पुरुष का विवेक और महिला की सुन्दरता है."

8)"काम का निष्पादन करो , परिणाम से मत डरो."

9)"सुगंध का प्रसार हवा के रुख का मोहताज़ होता है पर अच्छाई सभी दिशाओं में फैलती है."

10)"ईस्वर चित्र में नहीं चरित्र में बसता है अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ."

11) "व्यक्ति अपने आचरण से महान होता है जन्म से नहीं."

12) "ऐसे व्यक्ति जो आपके स्तर से ऊपर या नीचे के हैं उन्हें दोस्त न बनाओ,वह तुम्हारे कष्ट का कारण बनेगे. सामान स्तर के मित्र ही सुखदाई होते हैं ."

13) "अपने बच्चों को पहले पांच साल तक खूब प्यार करो. छः साल से पंद्रह साल तक कठोर अनुशासन और संस्कार दो .सोलह साल से उनके साथ मित्रवत व्यवहार करो.आपकी संतति ही आपकी सबसे अच्छी मित्र है."

14) "अज्ञानी के लिए किताबें और अंधे के लिए दर्पण एक सामान उपयोगी है ."


15) "शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है. शिक्षित व्यक्ति सदैव सम्मान पाता है. शिक्षा की शक्ति के आगे युवा शक्ति और सौंदर्य दोनों ही कमजोर हैं ."


डेंगू का उपचार





आजकल डेंगू एक बड़ी समस्या के तौर पर उभरा है, जिससे कई लोगों की जान जा रही है 

यह एक ऐसा वायरल रोग है जिसका मेडिकल चिकित्सा पद्धति में कोई इलाज नहीं है परन्तु आयुर्वेद में इसका इलाज है और वो इतना सरल और सस्ता है की उसे कोई भी कर सकता है तीव्र ज्वर, सर में तेज़ दर्द, आँखों के पीछे दर्द होना, उल्टियाँ लगना, त्वचा का सुखना तथा खून के प्लेटलेट की मात्रा का तेज़ी से कम होना डेंगू के कुछ लक्षण हैं जिनका यदि समय रहते इलाज न किया जाए तो रोगी की मृत्यु भी सकती है l

यदि आपके किसी भी जानकार को यह रोग हुआ हो और खून में प्लेटलेट की संख्या कम होती जा रही हो तो चित्र में दिखाई गयी चार चीज़ें रोगी को दें :


१) अनार जूस
२) गेहूं घास रस
३) पपीते के पत्तों का रस
४) गिलोय/अमृता/अमरबेल सत्व

- अनार जूस तथा गेहूं घास रस नया खून बनाने तथा रोगी की रोग से लड़ने की शक्ति प्रदान करने के लिए है, अनार जूस आसानी से उपलब्ध है यदि गेहूं घास रस ना मिले तो रोगी को सेब का रस भी दिया जा सकता है l

- पपीते के पत्तों का रस सबसे महत्वपूर्ण है, पपीते का पेड़ आसानी से मिल जाता है उसकी ताज़ी पत्तियों का रस निकाल कर मरीज़ को दिन में २ से ३ बार दें , एक दिन की खुराक के बाद ही प्लेटलेट की संक्या बढ़ने लगेगी

- गिलोय की बेल का सत्व मरीज़ को दिन में २-३ बार दें, इससे खून में प्लेटलेट की संख्या बढती है, रोग से लड़ने की शक्ति बढती है तथा कई रोगों का नाश होता है l यदि गिलोय की बेल आपको ना मिले तो किसी भी नजदीकी पतंजली चिकित्सालय में जाकर "गिलोय घनवटी" ले आयें जिसकी एक एक गोली रोगी को दिन में 3 बार दें l

यदि बुखार १ दिन से ज्यादा रहे तो खून की जांच अवश्य करवा लें l
यदि रोगी बार बार उलटी करे तो सेब के रस में थोडा नीम्बू मिला कर रोगी को दें, उल्टियाँ बंद हो जाएंगी

यदि रोगी को अंग्रेजी दवाइयां दी जा रही है तब भी यह चीज़ें रोगी की बिना किसी डर के दी जा सकती हैं 

डेंगू जितना जल्दी पकड़ में आये उतना जल्दी उपचार आसान हो जाता है और रोग जल्दी ख़त्म होता है 

रोगी के खान पान का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि बिना खान पान कोई दवाई असर नहीं करती