15 July 2013

!!! शिवस्तुति: !!!



श्रीगणेशाय नम: ॥ 

स्फुटं स्फटिकसप्रभंस्फुटितहारकश्रीजटं शशांकदलशेखरं कपिलफुल्लनेत्रत्रयम् । तरक्षुवरकृत्तिमद्‍भुजगभूषणं भूमिमत्कदा नु शितिकंठ ते वपुरवेक्षते वीक्षणम् ॥१॥ 

त्रिलोचन विलोचने लसति ते ललामायितेस्मरोनियमघस्मरोनियमिनामभूद्भस्मसात् 

स्वभक्तिलतया वशीकृतवती सतीयं सती स्वभक्तवशतो भवानपि वशी प्रसीद प्रभो ॥ २ ॥ 

महेश महितोऽसि तत्पुरुष पूरुषाग्र्योभवानघोर रिपुघोर तेऽनवम 

वामदेवाञ्जलि: । नम:सपदि जातवे त्वमिति पंचरूपोचितप्रपञ्चचयपचवृन्मम मनस्तमस्ताडय ॥ ३ ॥ 

रसाघनरसानलानिलावियद्विवस्वदिधुप्रयष्ट्टषु निविष्ट मित्यज भजामि मूर्त्यष्टकम् । प्रशांतमुत भीषणं भुवनमोहनं चेत्यहो वपूंषि गुणपूंषि तेऽहमहमात्मनोऽहं भिदे ॥ ४ ॥ 

विमुक्ति परमाध्वनां तव षडध्वनामास्पदं पदं निगमवेदिनो जगति वामदेवादय: । कथञ्चिदुपशिक्षिता भगवतैव संविद्रते वयं तु विरलान्तरा: कथमुमेश तन्मन्महे ॥ ५ ॥ 

कठोरितकुठारया ललितशूलया वाहया रणड्डमरुणा स्फुरद्धरिणयासखट्वाङ्गया । चलाभिरचलाभिरप्यगणि ताभिरुन्नृत्यतिश्‍चतुर्दश जगंति ते जयजयेत्ययुर्विस्मयम् ॥ ६ ॥ 

पुरा त्रिपुररंधनं विविधदैत्यविध्वंसनं पराक्रमपरंपराअपि परा नते विस्मय: । अमर्षिबलहर्षितक्षुइतवृत्तनेत्रोज्ज्वलज्ज्वलज्ज्वलनहेलया शलभितं हि लोकत्रयम् ॥ ७ ॥ 

सह्स्रनयनो गुह: सहसहस्ररश्मिर्विधुर्बुहस्पतिरुतप्पति: ससुरसिद्धविद्याधरा: । भवत्पदपरायणा: श्रियामिमां ययु: प्रार्थितां भवान् सुरतरुर्भृशं शिव शिवां शिवावल्लभ ॥ ८ ॥ 

तव प्रियतमादितिप्रियतमं सदैवांतरं पयस्युपहितं भृतं स्वयमिव श्रियोवल्लभम् । 

विबुध्य लघुबुद्धय: स्वपरपक्षलक्ष्यायितं पठंति हिलुठंति ते शठह्रद:शुचा शुंठिता ॥ ९ ॥ 

निवासनिलयोचित्ता तव शिरस्ततिर्मालिका कपालमपि ते करे त्वमशिवोऽस्यनन्तर्धियाम् । तथापि भवत: पदं शिवशिवेत्यदो जल्पतामकिञ्चन न किञ्चन वृजिनमस्ति 

भस्मीभवेत् ॥ १० ॥ 

त्वमेव किल कामधुक्‍ सकल काममापूरयन् सदात्रिनयनो भवान् वहति चार्चिनेत्रोद्भवम् । विषं विषधरान् दधत् पिबसि तेन चानन्दवान्विरुद्धचरितोचिता जगदधीश ते 

भिक्षुता ॥ ११ ॥ 

नम: शिव शिवाशिवशिवशिवार्थकृत्ताशिवं नमो हरहराहराहरहरान्तरीं मे दृशम् । नमोभवभवाभवप्रभवभूतये मे भवान्नमो मृड नमो नमो नम उमेश 

तुभ्यं नम: ॥ १२ ॥ 

सतां श्रवपद्धतिं सरतु सन्नतोक्‍तेत्यसौ शिवस्य करुणांकुरात्प्रतिकृतात्सदा सोचिता । इति प्रथितमानसो व्यधित नाम नारायण: शिवस्तुतिमिमां शिवांलिकुचिसूरिसूनु: सुधी: ॥ १३ ॥ 

इति श्रीमल्लिकुचिसूरिसूनुनारायणपंडिताचार्यविरचिता शिवस्तुति:संपूर्णा ।


!!! शिव की स्तुति में रुद्राष्टक की रचना !!!


जब शिव भक्ति के घमण्ड में चूर काकभुशुण्डि गुरु का उपहास करने पर भगवान शंकर के शाप से अजगर बने। तब गुरु ने ही अपने शिष्य को शाप से मुक्त कराने के लिए शिव की स्तुति में रुद्राष्टक की रचना की। गुरु के तप व शिव भक्ति के प्रभाव से यह शिव स्तुति बड़ी ही शुभ व मंगलकारी शक्तियों से सराबोर मानी जाती है। साथ ही मन से सारी परेशानियों की वजह अहंकार को दूर कर विनम्र बनाती है।


शिव की इस स्तुति से भी भक्त का मन भक्ति के भाव और आनंद में इस तरह उतर जाता है कि हर रोज व्यावहारिक जीवन में मिली नकारात्मक ऊर्जा, तनाव, द्वेष, ईर्ष्या और अहं को दूर कर देता है।

सरल शब्दों में यह पाठ इसलिए किसी भी दिन रुद्राष्टक का पाठ धर्म और व्यवहार के नजरिए से शुभ फल ही देता है।

यह स्तुति सरल, सरस और भक्तिमय होने से शिव व शिव भक्तों को बहुत प्रिय भी है। धार्मिक नजरिए से शिव पूजन के बाद इस स्तुति के पाठ से शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं।


नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम्‌ ।
अजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम्‌ ॥

निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्‌ ।
करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम्‌ ॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्‌ ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥

चलत्कुण्डलं भ्रूसु नेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालुम्‌ ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम्‌ ।
त्रय:शूल निर्मूलनं शूलपाणिं, भजे अहं भवानीपतिं भाव गम्यम्॥

कलातीत-कल्याण-कल्पांतकारी, सदा सज्जनानन्द दातापुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद-प्रसीद प्रभो मन्माथारी॥

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजंतीह लोके परे वा नाराणम्।
न तावत्सुखं शांति संताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभुताधिवासम् ॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम्‌ सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम्‌ ।
जरा जन्म दु:खौद्य तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥
रूद्राष्टक इदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये,
ये पठंति नरा भक्त्या तेषां शम्भु प्रसीदति ॥

शिव स्वरूप व महिमा का ध्यान मंत्र

वन्दे देव उमापतिं सुरगुरुं वन्दे जगत्मकारणम्।
वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं वन्दे पशूनां पतिम्।
वन्दे सूर्यशंशाकवह्निनयनं वन्दे मुकंदप्रियम्।
वन्दे भक्तजनायं च वरदं शिवं शंकरम्।।