29 June 2013



क्या रावण जगद्जननी मां जानकी का हरण कर सकता था???
बहुत दिन से इस विषयपर लिखने का सोच रहा था, जिसकी कई वजहें थी कुछ मूर्खों और अधर्मियों द्वारा माता सीता के बारे में निंदनीय बात कहना तथा मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम के बारे में निराधार बातें कहना...
ये उन मूर्खों के लिए प्रत्युत्तर है.. जिन्होंने रामायण या रामचरित मानस का पठन तो क्या ढंग से रामायण सीरियल भी नहीं देखा और बातें ब्रहम की करते हैं... साथ ही अश्लील बातें करने वाले तथाकथित शांति के धर्म वालों के लिए भी सादर जानकारी है... जिनके लिए सो कॉल्ड खुदा की पुस्तक ही अंतिम सत्य है, बाकी सब मिथ्या॥ तथा ये जानकारी अपने हिंदु भाइयों के ज्ञानवर्धन के लिए भी सादर प्रस्तुत है....



अब बात करते हैं सिया-हरण की। सीता हरण तो बहुत दूर की बात है, उन जैसी पतिव्रता नारी को छूना तक असम्भव था। उनके सतीत्व में इतना बल था कि अगर कोई भी उनको स्पर्श तक करता तो तत्काल भस्म हो जाता। रावण ने जिनका हरण किया वो वास्तविक माता सीता ना होकर उनकी प्रतिकृति छाया मात्र थी। इसके पीछे एक गूढ रहस्य है, जिसका महर्षि बाल्मीकि कृत रामायण व गोस्वामी तुलसी कृत रामचरित मानस में स्पष्ट वर्णन है...

पंचवटी पर निवास के समय जब श्री लक्ष्मण वन में लकडी लेने गये थे तो प्रभु श्री राम ने माता जानकी से कहा-

"तब तक करो अग्नि में वासा।
जब तक करुं निशाचर नाशा॥"

प्रभु जानते थे कि रावण अब आने वाला है, इसलिए उन्होंने कहा- हे सीते अब वक्त आ गया है, तुम एक वर्ष तक अग्नि में निवास करो, तब तक मैं इस राक्षसों का संहार करता हूँ..

यह रहस्य स्वयं लक्ष्मण भी नहीं जानते थे..

"लक्ष्मनहु ये मरम न जाना।
जो कछु चरित रचा भगवाना॥"

इसीलिए रावण वध के पश्चात जब श्री राम ने लक्ष्मन से अग्नि प्रज्वलित करने के लिए कहा कि सीता अग्नि पार करके ही मेरे पास आयेंगी.. तो सुमित्रानंदन क्रोधित हो गये कि भइया आप मेरी माता समान भाभी पर संदेह कर र्हे हैं.. मैं ऐसा नहीं होने दुंगा.. तब राम ने लक्ष्मण को सारा रहस्य बताया और कहा हे लक्ष्मण सीता और राम तो एक ही हैं.. सीता पर संदेह का अर्थ है मैं स्वयं पर संदेह कर रहा हूँ... और छायारुपी सीता की बात बताई और कहा कि रावण वास्तविक सीता को अगर छू भी लेता तो तत्काल भस्म हो जाता...
इसके बाद स्वयं माता जानकी ने लक्ष्मण से कहा...

"लक्ष्मन हो तुम धर्म के नेगी।
पावक प्रगट करो तुम वेगी॥"

हे लक्ष्मण अगर तुमने धर्म का पालन किया है तो शीघ्रता से अग्नि उत्पन्न करो... उसके बाद छायारुप मां जानकी अग्नि में प्रविष्ट हो गई और वास्तविक सीता मां श्री राम के पास आ गई..॥

वैसे तो उपरोक्त वृतांत रामचरितमानस की चौपाइयों को आधार बनाकर मैंने वर्णन किया है, फिर भी बहुत से ज्ञानी या कहूं मतिमूढ, नकली(छायारुप) सीता वाली बात पर विश्वास नहीं करेंगे... उनके लिए कुछ तथ्य व प्रमाण नीचे सादर प्रस्तुत हैं...


आधुनिक विज्ञान ने ज़ेरोक्स (Xerox) मशीने बनायीं। एक पेपर मशीन में डालो और उसकी जितनी चाहो ज़ेरोक्स कापियाँ (प्रतिलिपियाँ) निकाल लो। आधुनिक विज्ञान ने बॉयलर, कंदैंसर और रेफ्रिज़रेटर जैसी सुविधाजनक तकनीकों को भी आयाम दिया। बॉयलर में ठोस बर्फ डालो और उसे चुटकियों में भाप में बदल दो। इसी तरह भाप को कंदैंसर और रेफ्रिज़रेटर की मदद से वापिस बर्फ में भी बदला जा सकता है।

परन्तु क्या विज्ञानी कोई ऐसी तकनीक बना पाए हैं, जिससे पलक झपकते ही अपनी देह, एक मानव शरीर की ज़ेरोक्स कापियाँ (प्रतिलिपियाँ) बनायी जा सकें? क्या आज की उन्नत लैबोरेटि्यों (प्रयोगशालाओं) में कोई ऐसी तकनीक विकसित हुई है, जिससे अपनी साकार देह को भाप और फिर उसी भाप को ठोस आकार देकर साकार बनाया जा सके? निःसंदेह, वर्तमान वैज्ञानिकों के लिए ये अभी एक परी-कथा ही है। बहुत संभव है कि आपको भी ये बातें कल्पना-जगत की बेलगाम दौड़ लगे।

परन्तु वास्तविकता बिल्कुल अनूठी और विराट है! वास्तव में, एक क्षेत्र ऐसा है जिसके शीश पर इन परमोन्नत तकनीकों के आविष्कारों का सेहरा बंधा है। यह क्षेत्र है- अध्यात्म ज्ञान अथवा वैदिक विज्ञान का! अध्यात्म- पोषित हमारे संत-सत्गुरु और प्राचीन कालीन ऋषिगण इन विलक्षण तकनीकों के कुशल आविष्कारक एवं अनुभवी रहे हैं। वे अपनी देह को इच्छानुसार अदृश्य और प्रकट- वह भी मनचाही गिनती में कई स्थानों पर एक साथ करते रहे हैं।

त्रेताकाल के एक बहु-चर्चित देवी सीता की अग्नि-परीक्षा का प्रसंग इसका उदाहरण है, वर्णानानुसार देवी-सीता के लंका से लौटने पर श्री राम ने उन्हें ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया। रूखे वचन कहकर उन्हें अपनी चारित्रिक विशुधता प्रमाणित करने को कहा। देवी सीता ने तुरंत इस चुनौती को स्वीकार किया और प्रचण्ड अग्नि से गुज़रकर ‘अग्नि परीक्षा’ दी। यह ऐतिहासिक दृष्टांत विद्वानों, समाजवादियों, खासकर तथा-कथित नारी-संरक्षकों के लिए सदा से विवाद का विषय रहा है। वे इसे नारी की अस्मिता के प्रति घोर अन्याय मानते आए हैं।

परन्तु ऐसा केवल इसलिए है, क्यूँकि वे इस परीक्षा के तल में छिपे वैज्ञानिक सत्य को नहीं जानते। दरअसल यह लीला एक अनुपम विज्ञान था। इसकी भूमि सीता हरण से पहले ही रची जा चुकी थी।

अध्यात्म रामायाण (अरण्य काण्ड, सप्तम सर्ग) में स्पष्ट रूप से वर्णित है- अथ रामः अपि ---- शुभे
अर्थात रावण के षड़यंत्र को समझ, प्रभु श्री राम देवी सीता से एकांत में कहते हैं- ‘है शुभे! मैं जो कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। रावण तुम्हारे पास भिक्षु रूप में आएगा। अतः तुम अपने समान आकृति वाली प्रतिबिम्ब देह कुटी में छोड़कर अग्नि में विलीन हो जाओ। एक वर्ष तक वहीं अदृश्य रूप में सुरक्षित वास करो। रावण वध के पश्चात्त तुम मुझे अपने पूर्ववत स्वरुप में पा लोगी।’ आगे (अरण्य काण्ड २३/२) में लिखा है कि प्रभु का यह सुझाव पाकर श्री सीता जी अग्नि में अदृश्य हो गयी व अपनी छायामुर्ति कुटी में पीछे छोड़ गयीं-
जबही राम ---------- सुबिनीता
माँ सीता के इस वास्तविक स्वरुप को पुनः प्राप्त करने के लिए ही अग्नि-परीक्षा हुई थी। सो, यही अग्नि-परीक्षा के पीछे की सच्ची वास्तविकता है।


परन्तु आज का बौधिक व युवा वर्ग इसे एक अलंकारिक अतिशयोक्ति या जादुई चमत्कार मान बैठता है। किन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं है। दार्शनिक स्पिनोजा कहतें हैं'Nothing happens in nature which is in contradiction with its Universal laws'. डॉ. हर्नाक कहते है'जिन्हें हम चमत्कार समझते हैं, वे घटनाएँ भी इस सृष्टि और काल के व्यापक नियमों के आधीन हैं। हाँ, यह बात अलग है कि हम उन उच्च कोटि के नियमों को नहीं जानते हों।'


ऋषि पातंजलि इस प्रतिबिम्ब शरीर को निर्माण देह, बोध शास्त्र निर्माण काया कहते हैं। ‘ एकोअहं बहुस्याम’ की ताल पर श्री कृष्ण का रासलीला के अंतर्गत अनेक स्वरूपों में प्रकट होना; कौशल्यानंदन का शयनकक्ष व रसोईघर में एक समय में ही विद्यमान होना- ये सभी योगविज्ञान के साधारण से प्रयोग हैं। विपत्ति काल में सत्गुरु अपने दीक्षित शिष्यों की पुकार पर वे एक ही समय में विश्व के अनेकों भागों में समान रूप, रंग, गुण, कौशल व अभेद देह में प्रकट होते रहे हैं और अपना विरद निभाने के लिए आगे भी यूँ ही प्रकट होते रहेंगे।


किस प्रकार यह प्रकटिकरण होता है? दरअसल, इस सृष्टि में जीव, वस्तु या किसी भी प्रकार की सत्ता के निर्माण में दो अनादी तत्त्वों का मेल चाहिए होता है।


उपादान तत्त्व- यह प्रकृति का सूक्ष्म जड़ तत्त्व है। इसके स्थूल रूप को विज्ञान ‘मैटर’ कहता है। यह तत्त्व त्रिगुण (सत्त्व, रजस, तमस) से युक्त होता है। यह एक तरह से सृष्टि की प्रत्येक सत्ता का raw material माना जाता है।

निमित्त तत्त्व- यह एक चैतन्य शक्ति है, जो चेतना के रूप में सम्पूर्ण सृष्टि व उसके कण-कण में समाई हुई है। इसे वैज्ञानिक शब्दावली में'cosmic precociousness' -भी कहा गया है।

इन दोनों तत्वों के परस्पर संयोग से ही ‘निर्माण’ सधता है। किस प्रकार? आईये, इसके लिए हम एक सरसरी दृष्टि'Creation of Universe'पर डालें, जहाँ ये दोनों तत्त्व अपने शुद्धतम रूप में प्रकट थे और ‘सृष्टि निर्माण’ में विशुद्ध भूमिका निभा रहे थे।
उपादान( Matter ) + निमित्त ( Conciousness ) = सृष्टि (Universe)

दरअसल इस देह रचना में भी ठीक ‘सृष्टि रचना’ का ही विज्ञान काम करता है। वही दो अनादी तत्वों का प्रयोग होता है-ब्रह्मचेतना तथा प्रकृति के उपादान तत्त्व। यूँ तो चेतना प्रत्येक मनुष्य में क्रियाशील रहती है। परन्तु यह प्रगाढ़ वासनाओं, करम- संस्कारों, अविद्या, अज्ञानता से ढ़की और दबी रहती है। अध्यात्म-ज्ञान या ब्रह्मज्ञान की साधना से ये समस्त आवरण दूर होते हैं व चेतना शुद्धतम प्रखर रूप में प्रकट होती है।


पूर्ण आध्यात्मिक विभूतियों ने चेतना के इसी ब्रह्ममय स्वरुप को पाया हुआ होता है। जब भी आवश्यक होता है, ये पूर्ण चैतन्य विभूतियाँ अपनी ब्रह्ममयी चेतना को प्रकृति के उपादान-तत्त्वों -पर आरूढ़ करती हैं। उनकी यह चेतना प्रकृति के परमाणुओं पर लगाम कसती है ओर उनमें विक्षोभ पैदा कर देती है। फिर अपनी इच्छानुसार परमाणुओं में आकर्षण- विकर्षन कर स्वयं अपनी आकृति की देह निर्मित्त कर लेती हैं। वह भी मनचाही संख्या में!! अंततः इस ‘निर्माण देह’ में ‘निर्माण चित्त’ को भी प्रवेश कराके उसे पूर्ण रूप से सजीव कर देती हैं।


देवी सीता के विषय में भी ठीक यही अनादी विज्ञान प्रयोग में लाया गया था। सीता स्वयं में साक्षात चेतना-स्वरूपिणी -माँ भगवती थीं। उनके लिए प्रकृति के जड़- तत्त्वों से छेड़छाड़ करके एक प्रतिबिम्ब देह निर्मित कर्म दर्पण देखने के समान सहज था।


परन्तु उनके सन्दर्भ को पूरी तरह प्रकाशित करने के लिए हमें एक तथ्य और जानना होगा। वह यह की वेदों में आदिकालीन ब्रह्म-चेतना को ‘वैश्वानर अग्नि’ भी कहा गया है। ब्रह्मसूत्र में इस अग्नि के विषय में यह बताया गया की यह अग्नि न तो कोई दैविक अग्नि है, न ही भौतिक है। यह निःसंदेह आदिकाल की ब्रह्म-अग्नि ही है।

ऋगवेद में कहा गया है (१-५८-१)-
जब यह अग्नि प्रकट होती है, तो अंतरिक्ष में फैल जाती है। यह प्रकृति के परमाणुओं को सही मार्गों पर ले चलती है और उनका निर्माण कार्य में प्रयोग करती है।

यहीं नहीं ऋग्वेद में एक अन्य ऋषि का कहना है –
केवल प्रकृति के कण-कण में ही नहीं, यह अग्नि मनुष्य के अंग-अंग में भी विद्यमान होती है। परन्तु ध्यान दें, यह अग्नि विद्यमान तो सब में होती है। लेकिन विशुद्ध रूप से प्रकट केवल विकसित आत्माओं में ही होती है-
(ऋग्वेद १-१-२)
यह अग्नि पूर्व (कल्प) के ऋषियों को ज्ञात थी। इस युग के ऋषियों को भी ज्ञात है। यह सभी दैव-स्वरुप आत्माओं को ज्ञात होती है।
अब इन समस्त जानकारियों को साथ लेकर हम सीता-अग्नि-परीक -्षा के प्रसंग का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं।

देवी सीता की अग्नि-परीक्षा का वैज्ञानिक विश्लेषण :

ऋग्वेद (१-५८-२ ) में वैश्वानर अग्नि की त्रि-स्तरीय भूमिका दर्शायी गई है।

वैश्वानर अग्नि शाश्वत चेतना है । यह प्रकृति के परमाणुओं को -
1. Integrate - संयुक्त करती है।
2. Disintegrate- पृथक भी करती है ।
3. Preserve- सुरक्षित भी रखती है।
यह तीनों वही भूमिकाएँ हैं, जो सृष्टि-निर्माण- -कार्य में ब्रह्म-चेतना की थीं। और यही वे वैज्ञानिक क्रियाएँ हैं, जो सीता-अग्नि-परीक -्षा में भी प्रयोग की गईं। सीता-हरण से पूर्व जब श्री राम ने देवी सीता को अपना प्रतिबिम्ब पीछे छोड़कर अग्नि में निवास करने को कहा , तो वास्तव में क्या हुआ? क्या वैज्ञानिक-लीला घटी ? सीता ने तत्क्षण अग्नि प्रकट की। कदाचित यह कोई लौकिक अग्नि नहीं, वैश्वानर अग्नि ही थी। अर्थात सीता ने अपनी ब्रह्म चेतना को सक्रिय किया। फिर उसके द्वारा प्रकृति के परमाणुओं में हस्तक्षेप किया। उन्हें प्रयोजनानुसार जोड़कर एक अन्य निज-देह प्रकट कर ली। यह पहली वैज्ञानिक क्रिया थी।

इसके पश्चात माँ सीता ने ब्रह्म-चेतना या वैश्वानर अग्नि के द्वारा अपनी वास्तविक देह के परमाणुओं को अलग-अलग कर दिया। प्रसंग के अनुसार माँ सीता कि वास्तविक देह अग्नि में विलीन हो गयी थी। अग्नि में यह विलीनता वैज्ञानिक स्तर पर वैश्वानर अग्नि द्वारा देह का उपादान तत्व में बिखर जाना अर्थात'disintegration -of body'ही था। यह दूसरी वैज्ञानिक क्रिया थी।

फिर ये पृथक तत्त्व या परमाणु एक वर्ष तक उनकी वैश्वानर अग्नि के संरक्षण में रहे। उसी वैश्वानर अग्नि अथवा ब्रह्म-चेतना के, जो सकल सृष्टि के परमाणुओं की रक्षा करती है व जिसका आह्वान कर ऋषियों ने कहा- (ऋग्वेद १-१-१) - हे अग्नि स्वरूप ब्रह्म-चेतना! पिता स्वरुप में , अपनी संतान की तरह हमारी रक्षा करो। कहने का आशर्य यह है कि सीता सशरीर नहीं, परमाणुओं के रूप में ब्रह्माण्ड की वैश्वानर अग्नि में समाहित रहीं। यह तीसरी वैज्ञानिक प्रक्रिया थी ।

एक वर्ष बाद ... विजय बिगुल बजे और पुनर्मिलन की बेला आई। तब पुनः यहीं विज्ञान दोहराया गया। रामायण (युद्धकाण्ड सर्ग १२/७५ ) के प्रसंगानुसार -

राघव ने एक विशेष कार्य के लिए निर्मित मायावत सीता को देखा और अग्नि-परीक्षा देने को कहा। श्री राम का यह कथन, वास्तव में देवी सीता को पुनः उसी वैज्ञानिक प्रक्रिया का संधान करने की प्रेरणा ही थी। उस समय प्रतीकात्मक रूप में भौतिक अग्नि जलाई गयी। परन्तु सीता जी का आह्वान तो वैश्वानर अग्नि के प्रति ही था।
(युद्धकाण्ड सर्ग -१३ )- हे सर्वव्यापक! अति पावन! लोक साक्षी अग्नि !...स्पष्ट है, ये संबोधन लौकिक अग्नि के लिए नहीं हो सकते थे। अतः लौकिक अग्नि की आड़ मेंवैश्वानर-अग् -नि (ब्रह्मचेतना) पुनः सक्रिय हुई। उसने सीता जी की प्रतिबिम्ब देह के परमाणुओं को बिखेर कर पुनः प्रकृति में मिला दिया। फिर वास्तविक देह के परमाणुओं को एकत्र कर पूर्ववत जोड़ दिया। देवी सीता को सुरक्षित रूप में श्री राम के समक्ष प्रकट किया। यहीं वैज्ञानिक विलास प्रतीकात्मक शैली में इस प्रकार रखा गया- लोक साक्षी भगवन वास्तविक जानकी को पिता के समान गोद में बिठाए हुए प्रकट हुए और रघुनाथ जी से बोले- मेरे पितास्वरूप संरक्षण में सौंपी हुई जानकी को पुनः ग्रहण कीजिये।
वह प्रतिबिंबरुपिणी -सीता जिस कार्य के लिए रची गयी थी, उसे पूरा करके पुनः अदृश्य हो गयी है।

यह वचन सुनकर श्री राम ने अत्यंत प्रसन्नता से जानकी जी को स्वीकार कर लिया। उसी क्षण इस विज्ञान के ज्ञाताओं - ब्रह्मा, महेश आदि देवताओं ने आकाश से फूल बरसाए। परन्तु अवैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वालों ने उस काल से आज तक कभी सीता पर कलंक, तो कभी राम पार आक्षेप लगाए।



!!! हनुमान जी के विवाह का रहस्य !!!

Photo: संकट मोचन हनुमान जी के ब्रह्मचारी रूप से
तो सभी परिचित हैं.. उन्हें बाल
ब्रम्हचारी भी कहा जाता है
लेकिन क्या अपने कभी सुना है की हनुमान
जी का विवाह भी हुआ था ??
और उनका उनकी पत्नी के साथ एक मंदिर भी है ?? जिसके दर्शन के लिए दूर दूर से लोग आते हैं..

कहा जाता है कि हनुमान जी के उनकी पत्नी के साथ
दर्शन करने के बाद घर मे चल रहे पति पत्नी के बीच के
सारे तनाव खत्म हो जाते हैं. आन्ध्र प्रदेश के खम्मम जिले में बना हनुमान जी का यह
मंदिर काफी मायनों में ख़ास है.. ख़ास इसलिए
की यहाँ हनुमान जी अपने ब्रम्हचारी रूप में
नहीं बल्कि गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी सुवर्चला के साथ
विराजमान है.

हनुमान जी के सभी भक्त यही मानते आये हैं की वे बाल
ब्रह्मचारी थे. और बाल्मीकि, कम्भ, सहित
किसी भी रामायण और रामचरित मानस में
बालाजी के इसी रूप का वर्णन मिलता है..

लेकिन पराशर संहिता में हनुमान जी के विवाह
का उल्लेख है. इसका सबूत है आंध्र प्रदेश के खम्मम ज़िले में
बना एक खास मंदिर जो प्रमाण है हनुमान
जी की शादी का। ये मंदिर याद दिलाता है रामदूत
के उस चरित्र का जब उन्हें विवाह के बंधन में
बंधना पड़ा था। लेकिन इसका ये अर्थ नहीं कि भगवान हनुमान बाल
ब्रह्मचारी नहीं थे। पवनपुत्र का विवाह भी हुआ
था और वो बाल ब्रह्मचारी भी थे। कुछ विशेष
परिस्थियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के
साथ विवाह बंधन मे बंधना पड़ा।

हनुमान जी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था।
हनुमान, सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे... सूर्य
कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमान
जी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ साथ
उड़ना पड़ता और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह
की विद्याओं का ज्ञान देते। लेकिन हनुमान को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक
दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया। कुल ९ तरह की विद्या में
से हनुमान जी को उनके गुरु ने पांच तरह
की विद्या तो सिखा दी लेकिन बची चार तरह
की विद्या और ज्ञान ऐसे थे जो केवल
किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे.

हनुमान पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम
पर वो मानने को राजी नहीं थे। इधर भगवान सूर्य के
सामने संकट था कि वो धर्म के अनुशासन के कारण
किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं
नहीं सिखला सकते थे। ऐसी स्थिति में सूर्य देव ने
हनुमान को विवाह की सलाह दी.. और अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमान भी विवाह
सूत्र में बंधकर शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए।
लेकिन हनुमान के लिए दुल्हन कौन हो और कहा से वह
मिलेगी इसे लेकर सभी चिंतित थे..

ऐसे में सूर्यदेव ने अपने शिष्य हनुमान को राह दिखलाई।
भगवान सूर्य ने अपनी परम तपस्वी और
तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमान के साथ शादी के
लिए तैयार कर लिया। इसके बाद हनुमान ने
अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए
अपनी तपस्या में रत हो गई। इस तरह हनुमान भले ही शादी के बंधन में बांध गए
हो लेकिन शाररिक रूप से वे आज भी एक
ब्रह्मचारी ही हैं.

पराशर संहिता में तो लिखा गया है की खुद सूर्यदेव ने
इस शादी पर यह कहा की यह शादी ब्रह्मांड के
कल्याण के लिए ही हुई है और इससे हनुमान का ब्रह्मचर्य
भी प्रभावित नहीं हुआ ..
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|| जय श्री राम ||


संकट मोचन हनुमान जी के ब्रह्मचारी रूप से तो सभी परिचित हैं.. उन्हें बाल ब्रम्हचारी भी कहा जाता है लेकिन क्या अपने कभी सुना है की हनुमान जी का विवाह भी हुआ था ?? और उनका उनकी पत्नी के साथ एक मंदिर भी है ?? जिसके दर्शन के लिए दूर दूर से लोग आते हैं..

कहा जाता है कि हनुमान जी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद घर मे चल रहे पति पत्नी के बीच के सारे तनाव खत्म हो जाते हैं. आन्ध्र प्रदेश के खम्मम जिले में बना हनुमान जी का यह मंदिर काफी मायनों में ख़ास है.. ख़ास इसलिए की यहाँ हनुमान जी अपने ब्रम्हचारी रूप में
नहीं बल्कि गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी सुवर्चला के साथ विराजमान है.

हनुमान जी के सभी भक्त यही मानते आये हैं की वे बाल ब्रह्मचारी थे. और बाल्मीकि, कम्भ, सहित किसी भी रामायण और रामचरित मानस में
बालाजी के इसी रूप का वर्णन मिलता है..

लेकिन पराशर संहिता में हनुमान जी के विवाह का उल्लेख है. इसका सबूत है आंध्र प्रदेश के खम्मम ज़िले में बना एक खास मंदिर जो प्रमाण है हनुमान जी की शादी का। ये मंदिर याद दिलाता है रामदूत के उस चरित्र का जब उन्हें विवाह के बंधन में बंधना पड़ा था। लेकिन इसका ये अर्थ नहीं कि भगवान हनुमान बाल ब्रह्मचारी नहीं थे। पवनपुत्र का विवाह भी हुआ
था और वो बाल ब्रह्मचारी भी थे। कुछ विशेष परिस्थियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन मे बंधना पड़ा।

हनुमान जी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था। हनुमान, सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे... सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमान जी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ साथ उड़ना पड़ता और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते। लेकिन हनुमान को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया। कुल ९ तरह की विद्या में से हनुमान जी को उनके गुरु ने पांच तरह
की विद्या तो सिखा दी लेकिन बची चार तरह की विद्या और ज्ञान ऐसे थे जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे.

हनुमान पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वो मानने को राजी नहीं थे। इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वो धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखला सकते थे। ऐसी स्थिति में सूर्य देव ने हनुमान को विवाह की सलाह दी.. और अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमान भी विवाह
सूत्र में बंधकर शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए। लेकिन हनुमान के लिए दुल्हन कौन हो और कहा से वह मिलेगी इसे लेकर सभी चिंतित थे..

ऐसे में सूर्यदेव ने अपने शिष्य हनुमान को राह दिखलाई। भगवान सूर्य ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमान के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया। इसके बाद हनुमान ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई। इस तरह हनुमान भले ही शादी के बंधन में बांध गए हो लेकिन शाररिक रूप से वे आज भी एक
ब्रह्मचारी ही हैं.

पराशर संहिता में तो लिखा गया है की खुद सूर्यदेव ने इस शादी पर यह कहा की यह शादी ब्रह्मांड के कल्याण के लिए ही हुई है और इससे हनुमान का ब्रह्मचर्य भी प्रभावित नहीं हुआ ..


|| जय श्री राम ||


!!! विवाह निश्चित करते समय ध्यान रखने योग्य बातें !!!


विवाह दो आत्माओं के मिलन के साथ-साथ दो परिवारों का भी मिलन होता है १ विवाह प्राचीन कल से एक पवित्र संस्कार माना गया है १ विवाह के बाद घर में सुख समृधि आये, परिवार में वृद्धि हो, भावी दम्पति का वैवाहिक जीवन दीर्घकालीन हो, इसके लिए विवाह निश्चित करते समय कुछ खास बातों का ध्यान रखना चाहिए :-

  • वधु के गोत्र, वर के गोत्र और वर की माता के गोत्र की तीन पीढ़ियों में से न हो १
  • दो सगे भाइयों का विवाह, दो सगी बहनों से ना करें १ 
  • विवाह के बाद छ: महीने तक कोई मंगल कार्य ना करें १ अगर माघ महीने में मंगल कार्य हो तो चैत्र महीने में दूसरा मगल कार्य कर सकते हैं १ 
  • ज्येष्ठ पुत्र का विवाह जयेष्ठ पुत्री के साथ ज्येष्ठ मास में कदापि नहीं करना चाहिये १ 
  • पुत्र-वधु के घर में प्रवेश के बाद छ: महीने से पहले कन्या की विदाई नहीं करनी चाहिए १ 
  • गुर, शुक्र अस्त चल रहें हों, मल मास चल रहा हो तो विवाह करना वर्जित है १ 
  • जब सूर्य अपनी नीच राशी में चल रहा हो तो भी विवाह टालना चाहिए १ 
  • जन्म पत्री मिलान शास्त्रीय विधि से करना चाहिए १ 
  • वर-वधु की महादशा की संधियों में किया गया विवाह जीवन में गंभीर परेशानियाँ लेकर आता है अत: इसका ध्यान रखना चाहिए १ 
  • नक्षत्र के आरम्भ और अंत में विवाह न करें १ 
  • गुरु सिंह राशी में गोचर कर रहा हो तो भी विवाह न करें १ 
  • लड़का-लड़की दोनों विवाह योग्य हों तो लड़की का विवाह पहले करें १ 
  • दो सगे बहन भाई के विवाह में कम से कम छ: महीने का अन्तराल हो १

!!! किसी भी पूजा में ध्यान रखने योग्य बातें !!!



भगवान में आस्था रखने वाला इंसान दु:ख में किसी खास इच्छा को पूरा करने, देव पूजा से जुड़े नित्य कर्म या फिर, किसी उत्सव के मौके पर धार्मिक कर्मों के जरिए भगवान को याद जरूर करता है। किंतु अक्सर व्यक्ति भगवान की पूजा, उपासना या भक्ति के दौरान कुछ जरूरी बातों पर गौर नहीं करता, जिससे अनेक लोग परेशानियां पूरी तरह से दूर न होने या इच्छाएं अधूरी होने से निराश होकर नियमित भगवान के ध्यान से दूरी बना लेते हैं। ऐसी हालात में वे यह नहीं सोच पाते कि भगवान की कृपा से ही संभव हो कि उसकी दिक्कतें नहीं बढ़ीं और कुछ हद तक कामनाएं भी पूरी हुईं।

आखिर कौन-सी हैं वे अहम बातें, जिन पर ध्यान न देने से भक्ति के बाद भी व्यक्ति बेचैन और परेशान रहता है? धर्म के नजरिए से जानिए भगवान की पूजा या स्मरण करते वक्त इच्छाओं व भावनाओं से जुड़ी याद रखने योग्य 3 अहम बातें -

  • - पहली बात जब भी भगवान या अपने इष्ट का ध्यान करें या मंत्र जप करें, वह नाम और जप उजागर न करें। क्योंकि धार्मिक महत्व की दृष्टि से भगवान के नाम का ध्यान जितना गुप्त रखा जाता है, वह उतना ही असरदार और फलदायी होता है। 
  • - दूसरी बात आप जिस भी देवता या इष्ट का नाम लें, उस नाम का मतलब और देव स्वरूप का ध्यान कर जप करें। इससे मन शांत और एकाग्र रहता है। 
  • - तीसरी और अंतिम बात, जो व्यावहारिक रूप से मुश्किल लगती है, किंतु धार्मिक नजरिए से अहम है, वह है भगवान की पूजा, ध्यान या उनका नाम जप किसी इच्छा, कामना के मकसद से न कर, बिना स्वार्थ या हितपूर्ति की कामना से श्रद्धा और विश्वास के साथ करें। धार्मिक दृष्टि से ऐसी निस्वार्थ भक्ति से भक्त को भगवान की प्रसन्नता और अदृश्य कृपा मिलती है। साथ ही वह शांत और सहज हो जाता है। 

अपने इष्टदेव या देवी-देवताओं की पूजा करने का विशेष महत्व बताया गया है। पूजा में शुद्धता व पवित्रता का ध्यान रखा जाता है, फिर भी ऎसी सूक्ष्म बातें हैं जिनका ज्ञान साधक को ज्ञान नहीं होता। ऎसी सूक्ष्म और गूढ़ बातों का ध्यान रखकर देवताओं की पूजा-अर्चना करने से पूजा में पूर्णता आ जाती है। वांछित फलों की प्राप्ति होती है। पूजा में यदि साधक इन बातों का ध्यान रख सके तो लाभकारी रहेगा-
  • -घर या व्यवसायिक स्थल में पूजा का स्थान हमेशा ईशान कोण [उत्तर-पूर्व दिशा] में ही हो।
  • - पूजा हमेशा आसन पर बैठकर पूर्व दिशा में मुख करके ही करें।
  • - घर में शिवलिंग की स्थापना नहीं की जाती है। घर में केवल नर्बदेश्वर की पूजा या नर्बदेश्वर के साथ शालिग्रामजी की पूजा साथ-साथ की जा सकती है। इसलिए इस पूजा को हरिहरात्मक पूजा कहा जाता है 
  • - यूं तो शिवजी की पूजा कभी भी कर सकते हैं, किन्तु ‘प्रदोष काल’ (सूर्यास्त से एक घंटा पहले और बाद का समय) श्रेष्ठ माना गया है।
  • - सावन में हर दिन शिव पूजा के लिए प्रशस्त है, पर सोमवार, त्रयोदशी व शिव चौदस मुख्य हैं।
  • - शिव को भस्म, लाल चन्दन, रुद्राक्ष, आक के फूल, धतूरे का फल, भांग व बेलपत्र प्रिय हैं।
  • - भगवान शिव की पूजा वैदिक, पौराणिक या नाम मंत्रों से की जाती है।सामान्य व्यक्ति ‘ऊँ नम: शिवाय’ या ‘ऊँ नमो भगवते रुद्राय’ मंत्र से उनकापूजन व अभिषेक कर सकता है।
  • - पूजा के बाद शिव महिमा स्तोत्र, शिव तांडव स्नोत्र या रुद्रायक का पाठ करना फलदायी है।
  • - भगवान शिव पर कदम्ब, मौलसिरी, कुन्द एवं जूही का फूल नहीं चढ़ाना चाहिए।
  • - अंत में शिवलिंग की आधी परिक्रमा करें। शिवजी पर चढ़ाये हुए फल, फूल एवं प्रसाद न लें।

!!! माता दूर्गा की पूजा में ध्यान देने योग्य बातें !!!


विधि-विधान से पूजा करने का उद्धेश्य यही है कि पूजा में कोई गलती न हों, और जिस कार्यसिद्धि के लिये पूजा की जा रही है, वह पूर्ण हों. और शुभ कार्य में कोई विध्न न आयें. कई बार ऎसा होता है कि हम विधि -विधान से पूजा करते है. लेकिन विचारा गया कार्य पूरा नहीं होता है. पूजा करने वाले व्यक्ति को इच्छानुसार फल की प्राप्ति नहीं हो पाती है. मां दुर्गा की आराधना करते समय कई सावधानियां रखी जानी चाहिए. ध्यान रखने योग्य बातें निम्न है.

1. माता दुर्गा की पूजा में दूर्वा, तुलसी और आंवले का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए. इसके अतिरिक्त आक के फूल भी पूजा में प्रयोग नहीं किये जाते है. लाल रंग के फूल माता दूर्गा को बेहद प्रिय है. अगर हो सके तो पूजा में लाल रंग के फूलों का प्रयोग करें. 

2. पूजा में प्रयोग किये जा रहे फूल शुद्ध होने चाहिए. कटे -फटे और खराब स्थिति के फूलों का प्रयोग माता की पूजा के लिये नहीं करना चाहिए. क्योकिं माता को लाल रंग के फूल पसन्द है. इसलिये प्रत्येक दिन की पूजा में ताजे लाल रंग के फूल लेने चाहिए. पुराने और बासी फूलों को पूजा में कभी भी प्रयोग नहीं करना चाहिए. इससे की गई पूजा की शुभता में कमी होती है. लाल फूलों के अलावा चमेली, बेला, केवडा, पलाश, चंपा आदि के फूल भी पूजा के लिये लिये जा सकते है.

3. घर में अगर मां दुर्गा की एक से अधिक तस्वीरें या मूर्तियां है, तो उनकी साफ- सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए. एक घर में दो से अधिक तस्वीरें या मूर्तियां रखना परिवार के लिये कष्टकारी होता है.

4. देवी की पूजा करते समय सूखे वस्त्र पहनकर ही पूजा करनी चाहिए. पूजा के समय बाल बंधे होने चाहिए.

5. हवन, पूजन और जप करते समय गले में कोई वस्त्र नहीं लपेटना चाहिए. तथा पूजन के समय ध्यान में एकाग्रता होनी चाहिए.




ॐ शं शनैश्चरायनमःनिलान्जन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम। 

छायामार्तंड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम जिनकी कुण्डली में शनि कमज़ोर हैं या शनि पीड़ित है उन्हें काली गाय का दान करना चाहिए. काला वस्त्र, उड़द दाल, काला तिल, चमड़े का जूता, नमक, सरसों तेल, लोहा, खेती योग्य भूमि, बर्तन व अनाज का दान करना चाहिए. शनि से सम्बन्धित रत्न का दान भी उत्तम होता है. शनि ग्रह की शांति के लिए दान देते समय ध्यान रखें कि संध्या काल हो और शनिवार का दिन हो तथा दान प्राप्त करने वाला व्यक्ति ग़रीब और वृद्ध हो.शनि के कोप से बचने हेतु व्यक्ति को शनिवार के दिन एवं शुक्रवार के दिन व्रत रखना चाहिए. लोहे के बर्तन में दही चावल और नमक मिलाकर भिखारियों और कौओं को देना चाहिए. रोटी पर नमक और सरसों तेल लगाकर कौआ को देना चाहिए. तिल और चावल पकाकर ब्राह्मण को खिलाना चाहिए. 

अपने भोजन में से कौए के लिए एक हिस्सा निकालकर उसे दें. शनि ग्रह से पीड़ित व्यक्ति के लिए हनुमान चालीसा का पाठ, महामृत्युंजय मंत्र का जाप एवं  शनिस्तोत्रम का पाठ भी बहुत लाभदायक होता है. 

शनि ग्रह के दुष्प्रभाव से बचाव हेतु गरीब, वृद्ध एवं कर्मचारियो के प्रति अच्छा व्यवहार रखें. मोर पंख धारण करने से भी शनि के दुष्प्रभाव में कमी आती है. शनिवार के दिन पीपल वृक्ष की जड़ पर तिल्ली के तेल का दीपक जलाएँ। शनिवार के दिन लोहे, चमड़े, लकड़ी की वस्तुएँ एवं किसी भी प्रकार का तेल नहीं खरीदना चाहिए।


  • शनिवार के दिन बाल एवं दाढ़ी-मूँछ नही कटवाने चाहिए।
  • भड्डरी को कड़वे तेल का दान करना चाहिए।
  • भिखारी को उड़द की दाल की कचोरी खिलानी चाहिए।
  • किसी दुःखी व्यक्ति के आँसू अपने हाथों से पोंछने चाहिए।
  • घर में काला पत्थर लगवाना चाहिए।

शनि के दुष्प्रभाव निवारण के लिए किए जा रहे टोटकों हेतु शनिवार का 
दिन, शनि के नक्षत्र (पुष्य, अनुराधा, उत्तरा-भाद्रपद) तथा शनि की होरा में अधिक शुभ फल देता है।
क्या न करें?
जो व्यक्ति शनि ग्रह से पीड़ित हैं उन्हें गरीबों, वृद्धों एवं नौकरों के प्रति अपमान जनक व्यवहार नहीं करना चाहिए. नमक और नमकीन पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए, सरसों तेल से बनें पदार्थ, तिल और मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए. शनिवार के दिन सेविंग नहीं करना चाहिए और जमीन पर नहीं सोना चाहिए.शनि से पीड़ित व्यक्ति के लिए काले घोड़े की नाल और नाव की कांटी से बनी अंगूठी भी काफी लाभप्रद होती है परंतु इसे किसी अच्छे पंडित से सलाह और पूजा के पश्चात ही धारण करना चाहिए. साढ़े साती से पीड़ित व्यक्तियों के लिए भी शनि का यह उपाय लाभप्रद है. शनि का यह उपाय शनि की सभी दशा में कारगर और लाभप्रद है.,,