09 July 2013

!!! बीमारियो पर विजय पाने के लिए मंत्र !!!


असीम विद्या प्राप्ति के लिए और जल्दी याद करने के लिए मंत्र 

            ॐ ह्रीं भवाय विद्यां देहि एं ॐ 

शुगर की बीमारी  दूर भागने का मंत्र  

               ॐ हूं क्रां क्रां रं स्वाहा 

ब्लाद्प्रेसर दूर भागने का मंत्र 


ॐ बं ह्रीं बज्रहस्तायै नमः 

लकवा से निदान का मंत्र 

ॐ कलौं क्लौधिताम स्वाहा 

आकर्षण पाने का मंत्र 

ॐ ह्रीं सर्वाकर्षणाय फट 


सर्वत्र क्यों फेला हे दुख ???



स्थान कोई भी हो कारण एक ही है सच्चे देहधारी गुरू से दीक्षित न होना

दिव्य हिमालय श्री विष्णु का अंश है, पार्वती जगदम्बा का पिता है, संहारक श्री शंकर का ससुर है, ऋषि मुनियों की तपस्थली है। विष्णु के अवतार श्री कृष्ण ने , पुत्र प्राप्ति के लिए द्वारिका से आकर हिमालय में ब्राह्मण बालक उपमन्यु से "ऊॅ नम: शिवाय"मंत्र की दीक्षा लेकर, सद्गुरू उपमन्यु के समीप स्थित होकर सोलह महिनें तक उग्र तप किया तब प्रसन्न होकर प्रभू शिव तथा पार्वती ने ८-८ वरदान कृष्ण को दिये, जिस में मुख्य वरदान - पुत्र प्राप्ति और ब्राह्मणों का पूजन थे।(श्री शिवमहापुराण उमासंहिता अध्याय १ से ३ ) ऐसे दिव्य हिमालय के निवासी भी कई प्रकार से दु:खी है।

इस कलियुग में दिव्य नदी नर्मदा सर्वोत्तम तीर्थ है। जहॉं श्री विष्णु के अवतार राम, शेषावतार लक्ष्मण तथा रूद्रावतार हनुमान जी ने दैत्यों के वध के पश्चात् प्रायश्चित किया था।ऐसी दिव्य नदी नर्मदा के तट पर जन्मे व्यक्ति कई प्रकार से दु:खी है। । कई पीढि.यों से रह रहे है, नर्मदा तट पर ही जन्मे, पले, सात्विक, शाकाहारी, सन्तों महात्माओं की सेवा करने वाले, परिक्रमा-वासियों को भोजन कराने वाले, कन्या भोजन कराने वाले मनोहर लाल नामदेव कई प्रकार से दु:खी थे।

काशी-हिमालय-नर्मदा तट एवं उज्जैन इन सब दिव्य तीर्थों पर शिवलिंग ही शिवलिंग है और अधिकांश जनता इन्हीं शिवलिंगों का पूजन करती है फिर भी इन महानगरों के व्यक्ति कई प्रकार से दु:खी है।
कोलकत्ता महानगर में शिवमंदिर बनवाने वाले एक गुजराती ब्राह्मण जिनके काशी महानगरी में चार कपड़े के शो रूम बिक गये हैं और उनके परिवार वाले मजदूरी कर रहे हैं लाल ईमली धारीवाल के मालिक (अग्रवाल समाज के) जिनकी गणना दस मुख्य व्यक्तियों में थी आज वे धन की कमी और अन्य कई प्रकार से दु:खी हैं ।
लगातार ३० वर्षो तक हर वर्ष हिमालय स्थित श्री अमरनाथ का दर्शन- पूजन करने वाले की प्रकृति में तनिक भी सुधार नहीं हुआ। उनके सन्तान नहीं हुई और आर्थिक दृष्टि से भी कमजोर रहे।

अयोध्या धाम में जन्मे, पले, अयोध्या धाम का सेवन करने वाले, ब्रज चौरासी कोस की यात्रा करने वाले कई प्रकार से दु:खी क्यों है? तिरूपति बालाजी का नियम से कई वर्षो तक दर्शन करने वाले, वहॉं दान करने वाले कई प्रकार से दु:खी है। श्रीनाथजी का कई वर्षो से दर्शन करने वाले ,वहॉं दान करने वाले कई प्रकार से दु:खी है। श्री जगन्नाथपुरी के निवासी, रथयात्रा में भाग लेने वाले सभी प्रकार से सुखी क्यों नहीं है?

गुजरात में सूरत एक महानगर है। गुजराती समाज अधिकांश सात्विक है, शाकाहारी है, श्रीनाथजी के भक्त है। उस महानगर में सभी देवी-देवता विराजमान है, कई गुरू है। उस महानगर में प्लेग, भूकम्प, बाढ़ से अरबों रूपयों की हानि हुई। वहॉ के लोग कई प्रकार से दु:खी क्यों है?
पंजाब प्रान्त में अयोध्या की गद्दी वाले श्रीलाल जी का बहुत प्रभाव है। इस गद्दी के व्यक्ति कई प्रकार से दु:खी है।
हावड़ा-कोलकत्ता महानगर में श्री तारकेश्वर महादेव विराजमान है। श्री दुर्गा का काली मंदिर है। ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस देव का दक्षिणेश्वर मठ है, विवेकानन्द के अनुयायी है फिर भी कई प्रकार से दु:खी क्यों ?
सिक्ख धर्म को मानने वाले, नियमित गुरूद्वारे जाने वाले ,गुरूग्रन्थ साहिब का पाठ करने वाले, लंगर बनाने वाले तथा लंगर में दान देने वाले क्या सभी प्रकार से सुखी है? इस समाज का एक व्यक्ति................ जिसने सौ भण्डारे बनाने में नि:शुल्क सेवा की उसने इस आश्रम को बताया कि वह कई प्रकार से दु:खी है।
विश्नोई समाज के सभी सिद्धान्त सही है, मानव का कल्याण करने वाले है। इन सब सिद्धान्तों को मानने वाले भी कई प्रकार से दु:खी क्यों हैं?
आर्य समाज के सिद्धान्त सही है फिर भी इस धर्म को मानने वाले क्या हर प्रकार से सुखी है?
दिव्य नर्मदा तट पर एक महात्मा ने हर वर्ष यज्ञ करवाया। १२वर्ष तक लगातार यज्ञ करवाने पर भी उन महात्मा की प्रकृति में किञ््चित मात्र भी सात्विकता नहीं आई। ऐसे अनैकों उदाहरण है जहॉं पर सात्विक, धार्मिक, शाकाहारी, ईमानदार, मेहनती मनुष्य भी आर्थिक अभाव आदि के कारण कई प्रकार से दु:खी है।

हर हिन्दू के घर में दीपावली पर बहुत ही श्रद्धा भक्ति से लक्ष्मी पूजन होता है, पञ््ंचाग में अथवा समाचार पत्रों में लक्ष्मीपूजन का मूहुर्त भी प्रकाशित होता है, ऐसे कर्मकाण्डी ब्राह्मणों द्वारा जो कि कई पीढ़ियों से लक्ष्मी-पूजन करवाते आ रहे हैं उनके द्वारा लक्ष्मी-पूजन करवाया जाता है- ऐसे कर्मकाण्डी ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र, दक्षिणादि से सन्तुष्ट किया जाता है, अखंड दीपक जलाते है, रात्रिभर जागरण करते है, द्वार भी खुला रखते है(ताकि लक्ष्मीजी को आने में सुगमता हो) फिर भी धन की वृद्धि क्यों नहीं होती ?

श्री कृष्ण, श्री विष्णु के अवतार है, पाण्डवों के संबंधी है फिर भी पाण्डव लोग जुऍं में हारे और तेरह वर्ष (राजकुमार होते हुए भी) वनवास में भीख मॉंगकर रहे। श्री कृष्ण ने पाण्डवों की सहायता के लिए दुर्योधन का हाथ स्तम्भित क्यों नहीं किया?
हिन्दू समाज में यज्ञ की बड़ी महिमा है। शास्त्र में भी इसके महत्व का वर्णन है। सनातन धर्मी, आर्य समाजी, नामधारी सिक्ख आज भी यज्ञ करते है। हम सब के प्रथम पिता ( ब्रह्मा के पुत्र, सती जगदम्बा के पिता, संहारक शंकर के ससुर) दक्ष प्रजापति ने सत्युग में, समस्त विश्व का कल्याण हो ऐसी शुभकामना से यज्ञ जैसा शुभ कर्म प्रारंभ किया था। इस यज्ञ में श्री विष्णु अध्यक्ष थे जो कि सृष्टि के पालन करने वाले है। सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा भी उपस्थित थें। सती जगदम्बा भी आ गई थी, अग्नि देवता हजार मुख बनाकर स्वयं आहुतियांॅ स्वीकार करने के लिए उपस्थित थे। ८८००० हजार वेदों के जानकार ऋषि एक साथ आहुतियॉं डालते थे। इन्द्र-अग्निऱ्यम-नैऋति-वरूण- वायु -कुबेर-ईशान-लोकपाल आयुध लेकर उस यज्ञ की रक्षा कर रहे थे।पृथ्वी के सभी देवता(पत्नियों सहित )अष्टलोकपाल, सभी राजा, ऋषि-मुनि उपस्थित थे केवल एक संहारक शंकर जी ही नहीं थे।(जबकि संहारक की यज्ञ में कोई आवश्यकता भी नहीं है) सारा प्रयत्न करने पर भी यज्ञ विध्वंस हो गया, दक्ष प्रजापति मारे गए।
शुभ कर्म आज भी शुभ फल क्यों नहीं दे रहा है ? गरीब को रोटी-कपडा,बीमार को औषधि, दूध-फल देना, अस्पताल निर्माण, विद्यालय निर्माण , छात्रावास निर्माण ,गरीब छात्रों को भोजन वस्त्र, पाठ्य पुस्तकें आदि देना, तलाब, कुऑं प्याऊ आदि निर्माण, मंदिर निर्माण, धर्मशाला निर्माण, श्मशान निर्माण, दाहकर्म हेतु लकड़ियों का दान, यज्ञ में भाग लेना, कोढ़ियों की सहायता, अन्धों की सेवा, गऊसेवा, चारों धाम-सातों पुरियों की यात्रा, वहॉं पूजा-पाठ और दान करना, भण्डारें करना, छायादार पेड़ लगाना, पूजा के पुष्पों के बाग लगाना, कन्यादान इत्यादि शुभ कर्म करने वाले व्यक्ति कई प्रकार से दु:खी क्यों है?

!!! शिवलिंग पूजा का महत्व !!!


श्री शिवमहापुराण के सृष्टिखंड अध्याय १२श्लोक ८२से८६ में ब्रह्मा जी के पुत्र सनत्कुमार जी वेदव्यास जी को उपदेश देते हुए कहते है कि हर गृहस्थ को देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर पंचदेवों (श्री गणेश,सूर्य,विष्णु,दुर्गा,शंकर) की प्रतिमाओं में नित्य पूजन करना चाहिए क्योंकि शिव ही सबके मूल है, मूल (शिव)को सींचने से सभी देवता तृत्प हो जाते है परन्तु सभी देवताओं को तृप्त करने पर भी प्रभू शिव की तृप्ति नहीं होती। यह रहस्य देहधारी सद्गुरू से दीक्षित व्यक्ति ही जानते है।

सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु ने एक बार ,सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के साथ निर्गुण-निराकार- अजन्मा ब्रह्म(शिव)से प्रार्थना की, "प्रभों! आप कैसे प्रसन्न होते है।"


प्रभु शिव बोले,"मुझे प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग का पूजन करो। जब जब किसी प्रकार का संकट या दु:ख हो तो शिवलिंग का पूजन करने से समस्त दु:खों का नाश हो जाता है।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय श्लोक से पृष्ठ )


(२) जब देवर्षि नारद ने श्री विष्णु को शाप दिया और बाद में पश्चाताप किया तब श्री विष्णु ने नारदजी को पश्चाताप के लिए शिवलिंग का पूजन, शिवभक्तों का सत्कार, नित्य शिवशत नाम का जाप आदि क्रियाएं बतलाई।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय श्लोक से पृष्ठ )


(३) एक बार सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी देवताओं को लेकर क्षीर सागर में श्री विष्णु के पास परम तत्व जानने के लिए पहुॅचे । श्री विष्णु ने सभी को शिवलिंग की पूजा करने की आज्ञा दी और विश्वकर्मा को बुलाकर देवताओं के अनुसार अलग-अलग द्रव्य के शिवलिंग बनाकर देने की आज्ञा दी और पूजा विधि भी समझाई।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय १२ )


(४) रूद्रावतार हनुमान जी ने राजाओं से कहा कि श्री शिवजी की पूजा से बढ़कर और कोई तत्व नहीं है। हनुमान जी ने एक श्रीकर नामक गोप बालक को शिव-पूजा की दीक्षा दी। (प्रमाण श्री शिवमहापुराण कोटीरूद्र संहिता अध्याय १७ ) अत: हनुमान जी के भक्तों को भी भगवान शिव की प्रथम पूजा करनी चाहिए।


(५) ब्रह्मा जी अपने पुत्र देवर्षि नारद को शिवलिंग की पूजा की महिमा का उपदेश देते है। देवर्षि नारद के प्रश्न और ब्रह्मा जी के उत्तर पर ही श्री शिव महापुराण की रचना हुई है। पार्वती जगदम्बा के अत्यन्त आग्रह से, जनकल्याण के लिए, निर्गुण निराकार अजन्मा ब्रह्म (शिव) ने सौ करोड़ श्लोकों में श्री शिवमहापुराण की रचना की। चारों वेद और अन्य सभी पुराण, श्री शिवमहापुराण की तुलना में नहीं आ सकते। प्रभू शिव की आज्ञा से विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने श्री शिवमहापुराण को २४६७२ श्लोकों में संक्षिप्त किया है। ग्रन्थ विक्रेताओं के पास कई प्रकार के शिवपुराण उपलब्ध है परन्तु वे मान्य नहीं है केवल २४६७२ श्लोकों वाला श्री शिवमहापुराण ही मान्य है। यह ग्रन्थ मूलत: देववाणी संस्कृत में है और कुछ प्राचीन मुद्रणालयों ने इसे हिन्दी, गुजराती भाषा में अनुदित किया है। श्लोक संख्या देखकर और हर वाक्य के पश्चात् श्लोक क्रमांक जॉंचकर ही इसे क्रय करें। जो व्यक्ति देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर , एक बार गुरूमुख से श्री शिवमहापुराण श्रवण कर फिर नित्य संकल्प करके (संकल्प में अपना गोत्र,नाम, समस्याएं और कामनायें बोलकर)नित्य श्वेत ऊनी आसन पर उत्तर की ओर मुखकर के श्री शिवमहापुराण का पूजन करके दण्डवत प्रणाम करता है और मर्यादा-पूर्वक पाठ करता है, उसे इस प्रकार सम्पूर्ण २४६७२ श्लोकों वाले श्री शिवमहापुराण का बोलते हुए सात बार पाढ करने से भगवान शंकर का दर्शन हो जाता है। पाठ करते समय स्थिर आसन हो, एकाग्र मन हो, प्रसन्न मुद्रा हो, अध्याय पढते समय किसी से वार्ता नहीं करें, किसी को प्रणाम नहीं करे और अध्याय का पूरा पाठ किए बिना बीच में उठे नहीं। श्री शिवमहापुराण पढते समय जो ज्ञान प्राप्त हुआ उसे व्यवहार में लावें।श्री शिव महापुराण एक गोपनीय ग्रन्थ है। जिसका पठन (परीक्षा लेकर) सात्विक, निष्कपटी, प्रभू शिव में श्रद्धा रखने वालों को ही सुनाना चाहिए।


(६) जब पाण्ड़व लोग वनवास में थे , तब भी कपटी, दुर्योधन , पाण्ड़वों को कष्ट देता था।(दुर्वासा ऋषि को भेजकर तथा मूक नामक राक्षस को भेजकर) तब पाण्ड़वों ने श्री कृष्ण से दुर्योधन के दुर्व्यवहार के लिए कहा और उससे राहत पाने का उपाय पूछा। तब श्री कृष्ण ने उन सभी को प्रभू शिव की पूजा के लिए सलाह दी और कहा "मैंने सभी मनोरथों को प्राप्त करने के लिए प्रभू शिव की पूजा की है और आज भी कर रहा हॅूॅ।तुम लोग भी करो।" वेदव्यासजी ने भी पाण्ड़वों को भगवान् शिव की पूजा का उपदेश दिया। हिमालय में, काशी में,उज्जैन में, नर्मदा-तट पर या विश्व में कहीं भी चले जायें, प्रत्येक स्थान पर सबसे सनातन शिवलिंग की पूजा ही है। मक्का मदीना में एवं रोम के कैथोलिक चर्च में भी शिवलिंग स्थापित है परन्तु सही देहधारी सद्गुरू से दीक्षा न लेकर ,सही पूजा न करने से ही हमें सांसारिक सभी सुख प्राप्त नहीं हो रहे है।


श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय ११ श्लोक १२से १५ में श्री शिव-पूजा से प्राप्त होने वाले सुखों का वर्णन निम्न प्रकार से है:- दरिद्रता, रोग सम्बन्धी कष्ट, शत्रु द्वारा होने वाली पीड़ा एवं चारों प्रकार का पाप तभी तक कष्ट देता है, जब तक प्रभू शिव की पूजा नहीं की जाती। महादेव का पूजन कर लेने पर सभी प्रकार का दु:ख नष्ट हो जाता है, सभी प्रकार के सुख प्राप्त हो जाते है और अन्त में मुक्ति लाभ होता है। जो मनुष्य जीवन पाकर उसके मुख्य सुख संतान को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें सब सुखों को देने वाले महादेव की पूजा करनी चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र विद्यिवत शिवजी का पूजन करें। इससे सभी मनोकामनाएं सिद्द्ध हो जाती है।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड अध्याय ११श्लोक१२ से १५)

!!! शिव ही सत्य है !!!


प्रयाग राज में ज्ञानी ऋषि मुनि यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे तब वहा सूतजी पधारे। ऋषि-मुनियों ने जन कल्याण के लिए कलियुग के भ्रष्ट ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, स्त्रियों तथा संतान के पापों का नाश जिससे शीघ्र हो जाये, ऐसा छोटा सा उपाय पूछा।सूतजी ने श्री शिव महापुराण के श्रवण, कीर्तन और मनन को सर्वोत्तम बताया।सर्वप्रथम सद्गुरू के मुख से श्री शिव-महापुराण का श्रवण करना चाहिए। श्री शिव ने यह सर्वोत्तम उपाय नन्दी जी को बताया, नन्दी जी ने यह ज्ञान ब्रह्मा के प्रथम पुत्र सनत्कुमार को दिया, सनत्कुमार से वेदव्यास को दिया, वेदव्यास ने दीक्षा पद्धति से सूतजी को दिया, सूतजी ने शौनक आदि ऋषियों को दिया और गुरू परम्परा से यह ज्ञान हमको प्राप्त हुआ।जो सही सद्गुरू से दीक्षा लेकर श्री शिव महापुराण का श्रवण करने में अभागे है, उनको श्री शिवलिंग की स्थापना करके नित्य विधिवत पूजा करनी चाहिए( श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता अ०१ से ५ पृष्ठ २५ से ३४)अन्य देवताओं की मूल की पूजा केवल सुख भोगों को ही देती है परन्तु शिवलिंग की पूजा सुख-भोग तथा मोक्ष भी प्रदान करती है। (श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता ५ पृष्ठ ३४) जब ब्रह्मा और विष्णु आपस में शस्त्रों के साथ युद्ध कर रहे थे तब निर्गुण निराकार अजन्मा ब्रह्म (शिव) ने उन दोनों के बीच आदि अंत रहित ज्योति स्तम्भ प्रकट किया। उस ज्योति स्तम्भ के प्रकट होते ही ब्रह्मा-विष्णु के आयुध उसी में विलीन हो गये। तब प्रभु शिव ही एक ऋषि के रूप में प्रकट होकर, यह ज्योति स्तम्भ ही निर्गुण ब्रह्म है, ऐसा परिचय दिया। तब प्रभु शिव बोले -"मुझ गुरू के वचन तुम्हारे लिये बार-बार प्रमाण है। इस गुप्त ब्रह्म तत्व को तुम लोगों के प्रति प्रेम होने के कारण मैं कह रहा हॅू। मैं ही परब्रह्म हॅू, मैरा ही स्वरूप सगुण और निर्गुण है। ब्रह्म होने के कारण में ईश्वर हॅू और मेरा कार्य समस्त चराचर सृष्टि के प्रति अनुग्रह करना आदि है। मैं अज्ञात रूप से रहता हॅू, तुम दोनों को दर्शन देने के लिए मैने अपना सगुण ईश्वर रूप तत्काल धारण किया। यह आदि अंत रहित ज्योति स्तम्भ मैं जनकल्याण के लिए छोटा कर देता हॅू। यह शिवलिंग रूप से प्रसिद्ध होगा। किसी भी दु:ख में इस शिवलिंग का पूजन करने से दु:खों का नाश होगा।"( प्रमाण श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता अ०६ से १० पृष्ठ ३४ से ४२ एवं सृष्टि खंड अध्याय ६ से १० पृष्ठ १०५-११६)

यह सारा संसार परमात्मा उमा-महेश्वर की ही मूर्तियॉं है।(उपमन्यु का श्री कृष्ण को उपदेश श्री शिव महापुराण वायवीय संहिता उत्तर भाग अध्याय २-७ पृष्ठ ८८२-८९२) भगवान शिव का देवताओं को, प्रभु शिव का सूर्य में दर्शन-पूजन विधि समझाना( श्री शिव महापुराण वायवीय संहिता उत्तर भाग अध्याय ८ पृष्ठ ८९२-८९४)

पार्वती जगदम्बा ने प्रभु शिव से पूछा, जो मनुष्य कर्म के अयोग्य तथा सब प्रकार से पतित हो तो वह कैसे मुक्त हो सकता है ? प्रभु शिव बोले, "देहधारी गुरू से ज्ञान प्राप्त कर ही, मेरी(शिव की)शिवलिंग में पूजा तथा मेरे पंचाक्षर मंत्र(नम: शिवाय)का जप करे।( श्री शिव महापुराण वायवीय संहिता उत्तर भाग अध्याय १३-१४ पृष्ठ ९०१-९०५)
सद्गुरू उपमन्यु काश्री कृष्ण को पंचाक्षर मंत्र(नम: शिवाय) की दीक्षा का विधान तथा शिष्य का गुरू के प्रतिधन का अभाव हो, संतान न हो रही हो, पति परदेश चला गया हो, मंद भाग्य हो, भूत-प्रेतादि की बाधा हो, खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त करना हो देहधारी गुरू से दीक्षा लेकर, श्री गणेश की नित्य प्रथम विधिवत पूजा करके श्री शिव का पूजन करना अनिवार्य है।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण कुमारखंड अध्याय १३-२० )(प्रमाण श्री शिवमहापुराण वायुसंहिता उत्तरभाग अध्याय ३१ )

कर्तव्य क्या होना चाहिए ? सद्गुरू को शिष्य की एक से तीन वर्ष तक परीक्षा करनी चाहिए तथा प्रभु शिव का पंचावरण पूजन।( श्री शिव महापुराण वायवीय संहिता उत्तर भाग अध्याय १५-३० पृष्ठ ९०६-९३५)

आापके पास जो सम्पत्ति है(धन-पुत्र आदि)वह सब प्रभु की ही है और प्रभु की कृपा से ही आपके पास है।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता राजा अम्बरीष के पितामह, इक्ष्वाकु कुल के राजा नभग का चरित्र अध्याय २९ ) आप यदि अपनी सारी सम्पत्ति, प्रभु की ही समझते हैं तो आपका यह जीवन भी सुधरेगा और अगला जन्म भी सुधरेगा। सती जगदम्बा ने अपने पति (प्रभु शिव) से जन कल्याण के लिए सबसे सरल उपाय पूछा था कि विषयी अर्थात सांसारिक भोगों में लिप्त व्यक्ति बिना प्रयास के सद्गति प्राप्त कर ले , ऐसा सरल उपाय बतलाइये।

परम दयालु, अकारण करूणा वरूणालय प्रभु शिव ने सती जगदम्बा की प्रार्थना से रहस्य बताया कि उनकी (शिव की) नवधा भक्ति से विषयी जीव भी सरलता से संसार - सागर से पार हो सकता है। इस नवधा भक्ति से स्वत: ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, जिससे मनुष्य मुक्त हो जाता है। इस नवधा भक्ति का अन्तिम चरण है आत्म समर्पण। आत्म समर्पण का अर्थ है मैं और मेरा (मेरा शरीर, मेरी सम्पत्ति, मेरी पत्नी पुत्रादि)सभी प्रभु शिव की सेवा में अर्पित कर देना और आने वाले अगले दिन की भी चिन्ता न करना (प्रमाण श्री शिवमहापुराण सतीखंड अध्याय २३)

स्कन्द पुराण के माहेश्वर खंड के कुमारिका उपखंड में ऋषि कात्यायन और सारस्वत मुनि का संवाद प्रसिद्ध है।ऋषि कात्यायन ने पूछा " धर्म का सार क्या है?" सारस्वत मुनि बोले, "धर्म का सार है भगवान शंकर की विधिवत (देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर) भगवान शंकर की पूजा और भगवान शंकर के लिए दान। प्रभु शिव के लिए दान प्रथम स्थान पर आता है और प्रभु शिव की पूजा दूसरे स्थान पर आती है।

इस सूत्र के आधार पर ही दिव्य नदी नर्मदा, नाभि क्षेत्र के दक्षिण तट पर श्री विमलेश्वर आश्रम स्थापित है जहॉं पर ऐसे गुरू परम्परा से दीक्षित नित्य व्रत रखने वाले कर्मकाण्डी ब्राह्मणों द्वारा श्री शिव का दान प्रयोग करवाने पर आपको उपर्युक्त सभी सांसारिक सुख और परलोक मुक्ति का लाभ प्राप्त हो सकता है। श्री शिवमहापुराण की विद्येश्वर संहिता के अध्याय १३ श्लोक नं० ७२ से ७७ में प्रभु का अंश की मात्रा वर्णित है। श्लोक क्रंमाक ७७ में स्पष्ट है कि अपनी सम्पन्नता के लिए ब्राह्मणों को बुलाकर दान देना चाहिए। श्री शिवमहापुराण के शतरूद्र संहिता केे अध्याय सं० ६-७ का नित्य पाठ करने से प्रभु शिव की कृपा प्राप्त होती है। इनकी पूजा विधि जानने के लिए आश्रम से सम्पर्क करे।

खेती का १० प्रतिशत,नौकरी का १७ प्रतिशत, व्यापार के शुद्ध लाभ का १७ प्रतिशत पण्डिताई कर्म का २५ प्रतिशत, एकायक प्राप्त धन जैसे लॉटरी-वसीयत-मुआवजा आदि का ५० प्रतिशत यह शिवजी का अंश दिव्य नदी नर्मदा के तट पर शिव कर्मकाण्ड़ी ब्राह्मणों की परीक्षा लेकर ही दान करना चाहिये। आप अपने शेष धन का प्रयोग अपनी इच्छानुसार परोपकार-दान में लगा सकते हैं।