13 June 2013

!!! सुन्दरकाण्ड !!!




॥ अथ तुलसीदास कृत रामचरितमानस सुन्दरकाण्ड ॥श्रीगणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभोविजयते
श्रीरामचरितमानस
पञ्चम सोपान-सुन्दरकाण्ड
श्लोक
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ॥ १ ॥
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ३ ॥
चौ॰-जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥ १ ॥
जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥
यह कह नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ॥ २ ॥
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥
बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥ ३ ॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥ ४ ॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तैं मैनाक होहि श्रमहारी ॥ ५ ॥
दोहा
हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम ॥ १ ॥
चौ॰-जात पवनसुत देवन्ह देखा । जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता । पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ॥ १ ॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा । सुनत बचन कह पवनकुमारा ॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं । सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥ २ ॥
तब तव बदन पैठिहउँ आई । सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना । ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥ ३ ॥
जोजन भरि तिहिं बदनु पसारा । कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ । तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ ॥ ४ ॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा । तासु दून कपि रूप देखावा ॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा । अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥ ५ ॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा । मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा । बुधि बल मरमु तोर मैं पावा ॥ ६ ॥
दोहा
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥ २ ॥
चौ॰-निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई ॥ करि माया नभु के खग गहई ॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं । जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥ १ ॥
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई । एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा । तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥ २ ॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा । गुंजत चंचरीक मधु लोभा ॥ ३ ॥
नाना तरु फल फूल सुहाए । खग मृग बृंद देखि मन भाए ॥
सैल बिसाल देखि एक आगें । ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें ॥ ४ ॥
उमा न कछु कपि कै अधिकाई ॥ प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥
गिरि पर चढ़ि लंका तेहि देखी । कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ॥ ५ ॥
अति उतंग जलनिधि चहु पासा । कनक कोटि कर परम प्रकासा ॥ ६ ॥
छंद
कनक कोटि बिचित्र मणि कृत सुंदरायतना घना ।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहुबिधि बना ॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै ।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ॥ १ ॥
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।
नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं ।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं ॥ २ ॥
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं ।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही ।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ॥ ३ ॥
दोहा
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ॥ ३ ॥
चौ॰-मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥ १ ॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥
मुठिका एक महा कपि हनी । रुधिर बमत धरनीं डनमनी ॥ २ ॥
पुनि संभारि उठी सो लंका । जोरि पानि कर बिनय ससंका ॥
जब रावनहि ब्रह्म कर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥ ३॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे । तब जानेसु निसिचर संघारे ॥
तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ॥ ४ ॥
दोहा
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥ ४ ॥
चौ॰-प्रबिसि नगर कीजे सब काजा । हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥ १ ॥
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही । राम कृपा करि चितवा जाही ॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना । पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥ २ ॥
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा । देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥
गयउ दसानान मंदिर माहीं । अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥ ३ ॥
सयन किएँ देखा कपि तेही । मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा । हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ॥ ४ ॥
दोहा
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ ॥ ५ ॥
चौ॰-लंका निसिचर निकर निवासा । इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा । तेहीं समय बिभीषनु जागा ॥ १ ॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा । हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी । साधु ते होइ न कारज हानी ॥ २ ॥
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए । सुनत बिभीषन उठि तहँ आए ॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई । बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ॥ ३ ॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई । मोरें हृदय प्रीति अति होई ॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी । आयहु मोहि करन बड़भागी ॥ ४ ॥
दोहा
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम ।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥ ६ ॥
चौ॰-सुनहु पवनसुत रहनि हमारी । जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा । करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥ १ ॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं । प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥ २ ॥
जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा । तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती । करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥ ३ ॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिले अहारा ॥ ४ ॥
दोहा
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥ ७ ॥
चौ॰-जानतहूँ अस स्वामि बिसारी । फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा । पावा अनिर्बाच्य विश्रामा ॥ १ ॥
पुनि सब कथा बिभीषन कही । जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता । देखी चलेउँ जानकी माता ॥ २ ॥
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई । चलेउ पवनसुत बिदा कराई ॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ । बन असोक सीता रह जहवाँ ॥ ३ ॥
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा । बैठेहिं बीति जात निसि जामा ॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी । जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ॥ ४ ॥
दोहा
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन ।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥ ८ ॥
चौ॰-तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई । करइ बिचार करौं का भाई ॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा । संग नारि बहु किएँ बनावा ॥ १ ॥
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा । साम दान भय भेद देखावा ॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी । मंदोदरी आदि सब रानी ॥ २ ॥
तव अनुचरीं करेउँ पन मोरा । एक बार बिलोकु मम ओरा ॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही । सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥ ३ ॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ॥
अस मन समुझु कहति जानकी । खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥ ४ ॥
सठ सूनें हरि आनेहि मोही । अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥ ५ ॥
दोहा
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान ।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥ ९ ॥
चौ॰-सीता तैं मम कृत अपमाना । कटिहउँ तब सिर कठिन कृपाना ॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि होति न त जीवन हानी ॥ १ ॥
स्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभु भुज करि कर सम दसकंदर ॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा । सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ॥ २ ॥
चंद्रहास हरु मम परितापं । रघुपति बिरह अनल संजातं ॥
सीतल निसित बहसि बर धारा । कह सीता हरु मम दुख भारा ॥ ३ ॥
सुनत बचन पुनि मारन धावा । मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ॥ ४ ॥
मास दिवस महुँ कहा न माना । तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ॥ ५ ॥
दोहा
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद ।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥ १० ॥
चौ॰-त्रिजटा नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥ १ ॥
सपनें बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥ २ ॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि पठाई ॥ ३ ॥
यह सपना मैं कहउँ पुकारी । होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं । जनकसुता के चरनन्हि परीं ॥ ४ ॥
दोहा
जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच ।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥ ११ ॥
चौ॰-त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी । मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ॥
तजौं देह करु बेगि उपाई । दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥ १ ॥
आनि काठ रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहु लगाई ॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी । सुनै को श्रवन सूल सम बानी ॥ २ ॥
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी ॥ ३ ॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला । मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत एकउ तारा ॥ ४ ॥
पावकमय ससि स्रवत न आगी । मानहुँ मोहि जानि हतभागी ॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥ ५ ॥
नूतन किसलय अनल समाना । देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता । सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥ ६ ॥
दोहा
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब ।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥ १२ ॥
चौ॰-तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम नाम अंकित अति सुंदर ॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी । हरष विषाद हृदयँ अकुलानी ॥ १ ॥
जीति को सकइ अजय रघुराई । माया तें असि रचि नहिं जाई ॥
सीता मन बिचार कर नाना । मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ॥ २ ॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा । सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई । आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥ ३ ॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई । कही सो प्रगट होति किन भाई ॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ । फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥ ४ ॥
राम दूत मैं मातु जानकी । सत्य सपथ करुनानिधान की ॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥ ५ ॥
नर बानरहि संग कहु कैसें । कही कथा भई संगति जैसें ॥ ६ ॥
दोहा
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥ १३ ॥
चौ॰-हरिजन हानि प्रीति अति गाढ़ी । सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयहु तात मो कहुँ जलजाना ॥ १ ॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी । अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥
कोमलचित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥ २ ॥
सहज बानि सेवक सुख दायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता । होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता ॥ ३ ॥
बचनु न आव नयन भरे बारी । अहह नाथ हौं निपट बिसारी ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥ ४ ॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता । तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना । तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ॥ ५ ॥
दोहा
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर ।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥ १४ ॥
चौ॰-कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू ॥ १ ॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥ २ ॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि कहौं यह जान न कोई ॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥ ३ ॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥ ४ ॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता । सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥ ५ ॥
दोहा
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु ।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥ १५ ॥
चौ॰-जौं रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥
राम बान रबि उएँ जानकी । तम बरूथ कहँ जातुधान की ॥ १ ॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई । प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा । कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥ २ ॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं । तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना । जातुधान अति भट बलवाना ॥ ३ ॥
मोरें हृदय परम संदेहा । सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ॥
कनक भूधराकार सरीरा । समर भयंकर अतिबल बीरा ॥ ४ ॥
सीता मन भरोस तब भयऊ । पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ॥ ५ ॥
दोहा
सुनु मात साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल ।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥ १६ ॥
चौ॰-मन संतोष सुनत कपि बानी । भगति प्रताप तेज बल सानी ॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना । होहु तात बल सील निधाना ॥ १ ॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू । करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना । निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥ २ ॥
बार बार नाएसि पद सीसा । बोला बचन जोरि कर कीसा ॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता । आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥ ३ ॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा । लागि देखि सुंदर फल रूखा ॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी । परम सुभट रजनीचर भारी ॥ ४ ॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं । जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥ ५ ॥
दोहा
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु ।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥ १७ ॥
चौ॰-चलेउ नाइ सिर पैठेउ बागा । फल खाएसि तरु तौरैं लागा ॥
रहे तहां बहु भट रखवारे । कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ॥ १ ॥
नाथ एक आवा कपि भारी । तेहिं असोक बाटिका उजारी ॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे । रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥ २ ॥
सुनि रावन पठए भट नाना । तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥
सब रजनीचर कपि संघारे । गए पुकारत कछु अधमारे ॥ ३ ॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा । चला संग लै सुभट अपारा ॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा । ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥ ४ ॥
दोहा
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि ।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥ १८ ॥
चौ॰-सुनि सुत बध लंकेस रिसाना । पठएसि मेघनाद बलवाना ॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही । देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥ १ ॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा । बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥
कपि देखा दारुन भट आवा । कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥ २ ॥
अति बिसाल तरु एक उपारा । बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥
रहे महाभट ताके संगा । गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥ ३ ॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा । भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई । ताहि एक छन मुरुछा आई ॥ ४ ॥
उठि बहोरि कीन्हसि बहु माया । जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥ ५ ॥
दोहा
ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार ।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥ १९ ॥
चौ॰-ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा । परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयउ । नागपास बांधेसि लै गयउ ॥ १ ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा । प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥ २ ॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए । कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥ ३ ॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥
देखि प्रताप न कपि मन संका । जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥ ४ ॥
दोहा
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद ।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥ २० ॥
चौ॰-कह लंकेस कवन तैं कीसा । केहि कें बल घालेहि बन खीसा ॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ॥ १ ॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया । पाइ जासु बल बिरचित माया ॥ २ ॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा । पालत सृजत हरत दससीसा ॥
जा बल सीस धरत सहसानन । अंडकोस समेत गिरि कानन ॥ ३ ॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा । तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥ ४ ॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली । बधे सकल अतुलित बलसाली ॥ ५ ॥
दोहा
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि ।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥ २१ ॥
चौ॰-जानेउ मैं तुम्हारि प्रभुताई । सहसबाहु सन परी लराई ॥
समर बालि सन करि जसु पावा । सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥ १ ॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा । कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी । मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥ २ ॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे । तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा । कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥ ३ ॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन । सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी । भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥ ४ ॥
जाकें डर अति काल डेराई । जो सुर असुर चराचर खाई ॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै । मोरे कहें जानकी दीजै ॥ ५ ॥
दोहा
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि ।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥ २२ ॥
चौ॰-राम चरन पंकज उर धरहू । लंकाँ अचल राज तुम्ह करहू ॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका । तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥ १ ॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी । सब भूषन भूषित बर नारी ॥ २ ॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई । जाइ रही पाई बिनु पाई ॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं । बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ॥ ३ ॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी । बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥ ४ ॥
दोहा
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान ।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥ २३ ॥
चौ॰-जदपि कही कपि अति हित बानी । भगति बिबेक बिरति नय सानी ॥
बोला बिहसि महा अभिमानी । मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ॥ १ ॥
मृत्यु निकट आई खल तोही । लागेसि अधम सिखावन मोही ॥
उलटा होइहि कह हनुमाना । मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ॥ २ ॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना । बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ॥
सुनत निसाचर मारन धाए । सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ॥ ३ ॥
नाइ सीस करि बिनय बहूता । नीति बिरोधा न मारिअ दूता ॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई । सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥ ४ ॥
सुनत बिहसि बोला दसकंधर । अंग भंग करि पठइअ बंदर ॥ ५ ॥
दोहा
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥ २४ ॥
चौ॰-पूँछ हीन बानर तहँ जाइहि । तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई । देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई ॥ १ ॥
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना । भइ सहाय सारद मैं जाना ॥
जातुधान सुनि रावन बचना । लागे रचें मूढ़ सोइ रचना ॥ २ ॥
रहा न नगर बसन घृत तेला । बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी । मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥ ३ ॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी । नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ॥
पावक जरत देखि हनुमंता । भयउ परम लघुरूप तुरंता ॥ ४ ॥
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं । भइँ सभीत निसाचर नारीं ॥ ५ ॥
दोहा
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास ।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥ २५ ॥
चौ॰-देह बिसाल परम हरुआई । मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला । झपट लपट बहु कोटि कराला ॥ १ ॥
तात मातु हा सुनिअ पुकारा । एहिं अवसर को हमहि उबारा ॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई । बानर रूप धरें सुर कोई ॥ २ ॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा । जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥
जारा नगर निमिष एक माहीं । एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥ ३ ॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा । जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥
उलटि पलटि लंका सब जारी । कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥ ४ ॥
दोहा
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि ।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥ २६ ॥
चौ॰-मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा । जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ । हरष समेत पवनसुत लयऊ ॥ १ ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा । सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ॥
दीन दयाल बिरिदु सँभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ॥ २ ॥
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु । बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ॥
मास दिवस महुँ नाथ न आवा । तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ॥ ३ ॥
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना । तुम्हहू तात कहत अब जाना ॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती । पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ॥ ४ ॥
दोहा
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह ।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥ २७ ॥
चौ॰-चलत महाधुनि गर्जेसि भारी । गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा । सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा ॥ १ ॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना । नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा । कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा ॥ २ ॥
मिले सकल अति भए सुखारी । तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥
चले हरषि रघुनायक पासा । पूँछत कहत नवल इतिहासा ॥ ३ ॥
तब मधुबन भीतर सब आए । अंगद संमत मधु फल खाए ॥
रखवारे जब बरजन लागे मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥ ४ ॥
दोहा
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज ।
सुन सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥ २८ ॥
चौ॰-जौं न होति सीता सुधि पाई । मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा । आइ गए कपि सहित समाजा ॥ १ ॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा । मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी । राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ॥ २ ॥
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना । राखे सकल कपिन्ह के प्राना ॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ । कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ॥ ३ ॥
राम कपिन्ह जब आवत देखा । किएँ काजु मन हरष बिसेषा ॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई । परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥ ४ ॥
दोहा
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज ।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥ २९॥
चौ॰-जामवंत कह सुनु रघुराया । जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर । सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥ १ ॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर । तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सब काजू । जन्म हमार सुफल भा आजू ॥ २ ॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी । सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥
पवनतनय के चरित सुहाए । जामवंत रघुपतिहि सुनाए ॥ ३ ॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए । पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी । रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥ ४ ॥
दोहा
चौ॰-नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥ ३० ॥
चौ॰-चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही । रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी । बचन कहे कछु जनककुमारी ॥ १ ॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना । दीन बंधु प्रनतारति हरना ॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी । केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी ॥ २॥
अवगुन एक मोर मैं माना । बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा । निसरत प्रान करहिं हठि बाधा ॥ ३ ॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा । स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी । जरैं न पाव देह बिरहागी ॥ ४ ॥
सीता कै अति बिपति बिसाला । बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ॥ ५ ॥
दोहा
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति ।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥ ३१ ॥
चौ॰-सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आए जल राजिव नयना ॥
बचन कायँ मन मम गति जाही । सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥ १ ॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की । रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥ २ ॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥
प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥ ३ ॥
सुनु सत तोहि उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥ ४ ॥
दोहा
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥ ३२ ॥
चौ॰-बार बार प्रभु चहइ उठावा । प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा । सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥ १ ॥
सावधान मन करि पुनि संकर । लागे कहन कथा अति सुंदर ॥
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा । कर गहि परम निकट बैठावा ॥ २ ॥
कहु कपि रावन पालित लंका । केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत हनुमाना ॥ ३ ॥
साखामृग कै बड़ि मनुसाई । साखा तें साखा पर जाई ॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा ॥ ४ ॥
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥ ५ ॥
दोहा
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल ।
तव प्रभावँ वड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥ ३३ ॥
चौ॰-नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी । एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥ १ ॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥
यह संबाद जासु उर आवा । रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥ २ ॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा । जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥
तब रघुपति कपिपतिहिं बोलावा । कहा चलैं कर करहु बनावा ॥ ३ ॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे । तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी । नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥ ४ ॥
दोहा
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥ ३४ ॥
चौ॰-प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा । गर्जहिं भालु महाबल कीसा ॥
देखी राम सकल कपि सेना । चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥ १ ॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा । भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना । सगुन भए सुंदर सुभ नाना ॥ २ ॥
जासु सकल मंगलमय कीती । तासु पयान सगुन यह नीती ॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं । फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥ ३ ॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई । असगुन भयउ रावनहि सोई ॥
चला कटकु को बरनैं पारा । गर्जहिं बानर भालु अपारा ॥ ४ ॥
नख आयुध गिरि पादपधारी । चले गगन महि इच्छाचारी ॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं । डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥ ५ ॥
छंद
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे ।
मन हरष सब गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे ॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥ १ ॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई ।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी ।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥ २ ॥
दोहा
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर ।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥ ३५ ॥
चौ॰-उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब तें जारि गयउ कपि लंका ॥
निज निज गृह सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ॥ १ ॥
जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी । मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥ २ ॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ॥
कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहू ॥ ३ ॥
समुझत जासु दूत कइ करनी । स्रवहिं गर्भ रजनीचर धरनी ॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई । पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥ ४ ॥
तव कुल कमल बिपिन दुखदायई । सीता सीत निसा सम आई ॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें । हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥ ५ ॥
दोहा
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक ।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥ ३६ ॥
चौ॰-श्रवन सुनि सठ ता करि बानी । बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा । मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥ १ ॥
जों आवइ मर्कट कटकाई । जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा । तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥ २ ॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई । चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता । भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ॥ ३ ॥
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई । सिंधु पार सेना सब आई ॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहेहू । ते सब हँसे मष्ट करि रहेहू ॥ ४ ॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं । नर बानर केहि लेखे माहीं ॥ ५ ॥
दोहा
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥ ३७ ॥
चौ॰-सोइ रावन कहुँ बनी सहाई । अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा । भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥ १ ॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन । बोला बचन पाइ अनुसासन ॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता । मति अनुरूप कहउँ हित ताता ॥ २ ॥
जो आपन चाहै कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥
सो परनारि लिलार गोसाई । तजउ चउथि के चंद कि नाई ॥ ३ ॥
चौदह भुवन एक पति होई । भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥
गुन सागर नागर नर जोऊ । अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥ ४ ॥
दोहा
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥ ३८ ॥
चौ॰-तात राम नहिं नर भूपाला । भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता । ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥ १ ॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी । कृपा सिंधु मानुष तनुधारी ॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता । बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥ २ ॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा । प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही । भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥ ३ ॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा । बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन । सोई प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥ ४ ॥
दोहा
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस ।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥ ३९ क ॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात ।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥ ३९ ख ॥
चौ॰-माल्यवंत अति सचिव सयाना । तासु बचन सुनि अति सुख माना ॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन । सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ॥ १ ॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ । दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी । कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥ २ ॥
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥ ३ ॥
तव उर कुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥
कालराति निसिचर कुल केरी । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥ ४ ॥
दोहा
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार ।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥ ४० ॥
चौ॰-बुध पुरान श्रुति संमत बानी । कही बिभीषन नीति बखानी ॥
सुनत दसानन उठा रिसाई । खल तोहि निकट मृत्य अब आई ॥ १ ॥
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा । रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ॥
कहसि न खल अस को जग माहीं । भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं ॥ २ ॥
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहिं बारा ॥ ३ ॥
उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा । रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥ ४ ॥
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ । सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥ ५ ॥
दोहा
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि ।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥ ४१ ॥
चौ॰-अस कहि चला बिभीषनु जबहीं । आयूहीन भए सब तबहीं ॥
साधु अवग्या तुरत भवानी । कर कल्यान अखिल कै हानी ॥ १ ॥
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा । भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं । करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥ २ ॥
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता । अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ॥
जे पद पसरि तरी रिषिनारी । दंड़क कानन पावनकारी ॥ ३ ॥
जे पद जनकसुताँ उर लाए । कपट कुरंग संग धर धाए ॥
हर उर सर सरोज पद जेई । अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई ॥ ४ ॥
दोहा
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥ ४२ ॥
चौ॰-एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा । आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा । जान कोउ रिपु दूत बिसेषा ॥ १ ॥
ताहि राखि कपीस पहिं आए । समाचार सब ताहि सुनाए ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई । आवा मिलन दसानन भाई ॥ २ ॥
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा । कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ॥
जानि न जाइ निसाचर माया । कामरूप केहि कारन आया ॥ ३ ॥
भेद हमार लेन सठ आवा । राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी । मम पन सरनागत भयहारी ॥ ४ ॥
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना । सरनागत बच्छल भगवाना ॥ ५ ॥
दोहा
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि ।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥ ४३ ॥
चौ॰-कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥ १ ॥
पापवंत कर सहज सुभाऊ । भजहु मोर तेहि भाव न काऊ ॥
जौं पै दुष्टहृदय सोइ होई । मोरें सनमुख आव कि सोई ॥ २ ॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥
भेद लेन पठवा दससीसा । तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ॥ ३ ॥
जग महुँ सखा निसाचर जेते । लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ॥
जो सभीत आवा सरनाईं । राखिहउँ ताहि प्रान की नाईं ॥ ४ ॥
दोहा
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत ।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥ ४४ ॥
चौ॰-सादर तेहि आगें करि बानर । चले जहाँ रघुपति करुनाकर ॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता । नयनानंद दान के दाता ॥ १ ॥
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी । रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन । स्यामल गात प्रनत भय मोचन ॥ २ ॥
सिंघ कंध आयत उर सोहा । आनन अमित मदन मन मोहा ॥
नयन नीर पुलकित अति गाता । मन धरि धीर कही मृदु बाता ॥ ३ ॥
नाथ दसानन कर मैं भ्राता । निसिचर बंस जनम सुरत्राता ॥
सहज पापप्रिय तामस देहा । जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥ ४ ॥
दोहा
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥ ४५ ॥
चौ॰-अस कहि करत दंडवत देखा । तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा । भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ॥ १ ॥
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी । बोले बचन भगत भय हारी ॥
कहु लंकेस सहित परिवारा । कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ॥ २ ॥
खल मंडलीं बसहु दिन राती । सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती । अति नय निपुन न भाव अनीती ॥ ३ ॥
बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥
अब पद देखि कुसल रघुराया । जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया ॥ ४ ॥
दोहा
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम ।
जब लगि भजन न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥ ४६ ॥
चौ॰-तब लगि हृदयँ बसत खल नाना । लोभ मोह मच्छर मद माना ॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा । धरें चाप सायक कटि भाथा ॥ १ ॥
ममता तरुन तमी अँधिआरी । राग द्वेष उलूक सुखकारी ॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं । जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ॥ २ ॥
अब मैं कुसल मिटे भय भारे । देखि राम पद कमल तुम्हारे ॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला । ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ॥ ३ ॥
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ । सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा । तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ॥ ४ ॥
दोहा
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज ।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥ ४७ ॥
चौ॰-सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ । जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही । आवौ सभय सरन तकि मोही ॥ १ ॥
तजि मद मोह कपट छल नाना । करउँ सद्य तेहि साधु समाना ॥
जननी जनक बंधु सुत दारा । तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ॥ २ ॥
सब कै ममता ताग बटोरी । मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं । हरष सोक भय नहिं मन माहीं ॥ ३ ॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें । लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें । धरउँ देह नहिं आन निहोरें ॥ ४ ॥
दोहा
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम ।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥ ४८ ॥
चौ॰-सुन लंकेस सकल गुन तोरें । तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ॥
राम बचन सुनि बानर जूथा । सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ॥ १ ॥
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी । नहिं अघात श्रवनामृत जानी ॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा । हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ॥ २ ॥
सुनहु देव सचराचर स्वामी । प्रनतपाल उर अंतरजामी ॥
उर कछु प्रथम बासना रही । प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ॥ ३ ॥
अब कृपाल निज भगति पावनी । देहु सदा सिव मन भावनी ॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा । मागा तुरत सिंधु कर नीरा ॥ ४ ॥
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं । मोर दरसु अमोघ जग माहीं ॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा । सुमन वृष्टि नभ भई अपारा ॥ ५ ॥
दोहा
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड ।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥ ४९ क ॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्ह दिएँ दस माथ ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ ॥ ४९ ख ॥
चौ॰-अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना । ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ॥
निज जन जानि ताहि अपनावा । प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ॥ १ ॥
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी । सर्बरूप सब रहित उदासी ॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक । कारन मनुज दनुज कुल घालक ॥ २ ॥
सुनु कपीस लंकापति बीरा । केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ॥
संकुल मकर उरग झष जाती । अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥ ३ ॥
कह लंकेस सुनहु रघुनायक । कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई । बिनय करिअ सागर सन जाई ॥ ४ ॥
दोहा
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि ।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥ ५० ॥
चौ॰-सखा कही तुम्ह नीकि उपाई । करिअ दैव जौं होइ सहाई ॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा । राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥ १ ॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा । सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥
कादर मन कहुँ एक अधारा । दैव दैव आलसी पुकारा ॥ २ ॥
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा । ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई । सिंधि समीप गए रघुराई ॥ ३ ॥
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई । बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए । पाछें रावन दूत पठाए ॥ ४ ॥
दोहा
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह ।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥ ५१ ॥
चौ॰-प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ । अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने । सकल बाँधि कपीस पहिं आने ॥ १ ॥
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर । अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए । बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥ २ ॥
बहु प्रकार मारन कपि लागे । दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥
जो हमार हर नासा काना । तेहि कोसलाधीस कै आना ॥ ३ ॥
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए । दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ॥
रावन कर दीजहु यह पाती । लछिमन बचन बाचु कुलघाती ॥ ४ ॥
दोहा
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार ।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥ ५२ ॥
चौ॰-तुरत नाइ लछिमन पद माथा । चले दूत बरनत गुन गाता ॥
कहत राम जसु लंकाँ आए । रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥ १ ॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता । कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी । जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥ २ ॥
करत राज लंका सठ त्यागी । होइहि जव कर कीट अभागी ॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई । कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥ ३ ॥
जिन्ह के जीवन कर रखवारा । भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी । जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥ ४ ॥
दोहा
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर ।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥ ५३ ॥
चौ॰-नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें । मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा । जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥ १ ॥
रावन दूत हमहि सुनि काना । कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ॥
श्रवन नासिका काटैं लागे । राम सपथ दीन्हें हम त्यागे ॥ २ ॥
पूँछिहु नाथ राम कटकाई । बदन कोटि सत बरनि न जाई ॥
नाना बरन भालु कपि धारी । बिकटानन बिसाल भयकारी ॥ ३ ॥
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा । सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ॥
अमित नाम भट कठिन कराला । अमित नाग बल बिपुल बिसाला ॥ ४ ॥
दोहा
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि ।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥ ५४ ॥
चौ॰-ए कपि सब सुग्रीव समाना । इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं । तृन समान त्रैलोकहि गनहीं ॥ १ ॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर । पदुम अठारह जूथप बंदर ॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं । जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥ २ ॥
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा । आयसु पै न देहिं रघुनाथा ॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला । पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला ॥ ३ ॥
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा । ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका । मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका ॥ ४ ॥
दोहा
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम ।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम ॥ ५५ ॥
चौ॰-राम तेज बल बुधि बिपुलाई । सेष सहस सत सकहिं न गाई ॥
सक सर एक सोषि सत सागर । तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ॥ १ ॥
तासु बचन सुनि सागर पाहीं । मागत पंथ कृपा मन माहीं ॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा । जौं असि मति सहाय कृत कीसा ॥ २ ॥
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई । सागर सन ठानी मचलाई ॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई । रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ॥ ३ ॥
सचिव सभीत बिभीषन जाकें । बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी । समय बिचार पत्रिका काढ़ी ॥ ४ ॥
रामानुज दीन्ही यह पाती । नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ॥
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन । सचिव बोलि सठ लाग बचावन ॥ ५ ॥
दोहा
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस ।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥ ५६ क ॥
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग ।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥ ५६ ख ॥
चौ॰-सुनत सभय मन मुख मुसुकाई । कहत दसानन सबहि सुनाई ॥
भूमि परा कर गहत अकासा । लघु तापस कर बाग बिलासा ॥ १ ॥
कह सुक नाथ सत्य सब बानी । समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा । नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥ २ ॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ । जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही । उर अपराध न एकउ धरही ॥ ३ ॥
जनकसुता रघुनाथहि दीजे । एतना कहा मोर प्रभु कीजे ॥
जब तेहि कहा देन बैदेही । चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥ ४ ॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ । कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई । राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥ ५ ॥
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी । राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ॥
बंदि राम पद बारहिं बारा । मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ॥ ६ ॥
दोहा
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति ।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥ ५७ ॥
चौ॰-लछिमन बान सरासन आनू । सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती । सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥ १ ॥
ममता रत सन ग्यान कहानी । अति लोभी सन बिरति बखानी ॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा । ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥ २ ॥
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा । यह मत लछिमन के मन भावा ॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला । उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥ ३ ॥
मकर उरग झष गन अकुलाने । जरत जंतु जलनिधि जब जाने ॥
कनक थार भरि मनि गन नाना । बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥ ४ ॥
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच ।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥ ५८ ॥
चौ॰-सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे । छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥
गगन समीर अनल जल धरनी । इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ॥ १ ॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए । सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई । सो तेहि भाँति रहें सुख लहई ॥ २ ॥
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही । मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ॥
ढोल गँवार सूद्र पसु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ॥ ३ ॥
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई । उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई । करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई ॥ ४ ॥
दोहा
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ ।
जेहि बिधि उतरैं कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥ ५९ ॥
चौ॰-नाथ नील नल कपि द्वौ भाई । लरिकाईं रिषि आसिष पाई ।
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे । तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥ १ ॥
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई । करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ । जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ॥ २ ॥
एहिं सर मम उत्तर तट बासी । हतहु नाथ खल नर अघ रासी ॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा । तुरतहिं हरी राम रन धीरा ॥ ३ ॥
देखि राम बल पौरुष भारी । हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा । चरन बंदि पाथोधि सिधावा ॥ ४ ॥
छंद
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ ।
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गाउअऊ ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना ।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥
दोहा
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान ।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥ ६० ॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।

॥ सियावर रामचन्द्र की जै ॥<