24 July 2013

!!! कीमती रत्नों का काम करती है पेड़-पौधों की जड़ें !!!

कई लोग ज्योतिष से इसलिए भी घबराते हैं क्योंकि कई ज्योतिषी व्यक्ति को ऊंची कीमतों वाले रत्न पहनने का सुझाव देते हैं। ज्योतिष में ग्रहों के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए केवल महंगे रत्न पहनना आवश्यक नहीं है। कई अन्य तरीके भी हैं जिससे बिना ज्यादा खर्च किए, बिना महंगे रत्न पहने भी ग्रहों के दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है। ऐसा ही एक तरीका
यदि आपकी कुंडली में कोई ग्रह खराब फल दे रहा हो या अशुभ है तो, ज्योतिषी उस ग्रह के अनुसार रत्न पहनने की सलाह देते है लेकिन यदि किसी कारण से आप रत्न नहीं पहन सकते या पहनना नहीं चाहते हैं तो, आप उस ग्रह से संबंधित पेड़-पौधों की जड़ को पहन कर संबंधित ग्रह को अपने अनुकूल कर सकते है। किस ग्रह के लिए कौन सी जड़? - यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में सूर्य अशुभ प्रभाव दे रहा हो और सूर्य के लिए माणिक रत्न एफोर्ड नहीं कर सकते हैं तो, विकल्प के रूप में सूर्य को बल देने के लिए बेलपत्र की जड़ लाल या गुलाबी धागे में रविवार को धारण करें।


- चंद्र के शुभ प्रभाव के लिए सोमवार को सफेद वस्त्र में खिरनी की जड़ सफेद धागे के साथ धारण करें। - मंगल को बलवान बनाने के लिए अनंत मूल या खेर की जड़ को लाल वस्त्र के साथ लाल धागे में मंगलवार को धारण करें। - बुधवार के दिन हरे वस्त्र के साथ विधारा (आंधीझाड़ा) की जड़ को हरे धागे में पहनने से बुध देव प्रसन्न होते है। - गुरु को बल देने के लिए केले की जड़ गुरुवार को पीले धागे में धारण करें। - गुलर की जड़ को सफेद वस्त्र में लपेट कर शुक्रवार को सफेद धागे के साथ गले में धारण करने से शुक्र देव प्रसन्न होते हैं।-शनि देव को प्रसन्न करने के लिए शमी पेड़ की जड़ को शनिवार के दिन नीले वस्त्र में धारण करना चाहिए।-राहु को बल देने के लिए सफेद चंदन का टुकड़ा नीले धागे में बुधवार के दिन धारण करें।- केतु के शुभ प्रभाव के लिए अश्वगंधा की जड़ नीले धागे में गुरुवार के दिन धारण करें।


!!! शमी का पुष्प चढ़ाएं !!!

— "शमी" वृक्ष ही यज्ञ की समिधाओं के लिए उपयुक्त वृक्ष है. यह बबूल और कीकर जाति का ही वृक्ष है. शमी वृक्ष की फलियों को खाकर कई दिनों तक ऋषि-मुनि भूखे रह सकते थे. इसे खाने से उपवास क्षमता बढ़ती है. शरीर पर कोई अधिक प्रभाव भी नहीं पड़ता. चर्बी घट जाति है.यह राजस्थान का राज्य वृक्ष है; स्थानीय भाषा में इसे खेजडी कहते है तथा इसका वानष्पतिक नामप्रोसोपिस सिनरेरिया है. 


शमी शनि ग्रह का पेड़ है. राजस्थान में सबसे अधिक होता है . छोटे तथा मोटे काँटों वाला भारी पेड़ होता है. कृष्ण जन्मअष्टमी को इसकी पूजा की जाती है . बिस्नोई समाज ने इस पेड़ के काटे जाने पर कई लोगों ने अपनी जान दे दी थी. यह पेड़ बरसात में अपने आप पैदा होता है . इस पेड़ के फल को सांगर और साँगरी भी कहते है. 


कहा जाता है कि इसके लकड़ी के भीतर विशेष आग होती है जो रगड़ने पर निकलती है ... इसे शिंबा; सफेद कीकर भी कहते हैं. 


शमी अर्थात छोंकर या खेजड़ के वृक्ष का बल्लभ संप्रदाय में अधिक महत्व माना गया है। इस वृक्ष का महत्व केवल इस बात में नहीं है कि इसकी जड़, तना, छड़े पत्तियां आदि सभी काम आते हैं, इस वृक्ष का महत्व केवल इस बात में भी नहीं है कि राजस्थानी किसान की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण आधार यह वृक्ष है। खेजड़ के पेड़ का नाम ही शमी वृक्ष है जिस पर महाभारत के युद्ध के समय बभ्रुवाहन का सर टांगा था. 
खेजड़ी या शमी एक वृक्ष है जो थार के मरुस्थल एवं अन्य स्थानों में पाया जाता है। यह वहां के लोगों के लिए बहुत उपयोगी है।

इसके अन्य नामों में घफ़ (संयुक्त अरब अमीरात), खेजड़ी, जांट/जांटी, सांगरी (राजस्थान), जंड(पंजाबी), कांडी (सिंध), वण्णि (तमिल), शमी, सुमरी (गुजराती) आते हैं।

इसका व्यापारिक नाम कांडी है। यह वृक्ष विभिन्न देशों में पाया जाता है जहाँ इसके अलग अलग नाम हैं। अंग्रेजी में यह प्रोसोपिस सिनेरेरिया नाम से जाना जाता है।
खेजड़ी का वृक्ष जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है।
जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है। इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है।
इसकी लकडी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है।

इसकी जड़ से हल बनता है।

अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है।

सन १८९९ में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे।
इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।
साहित्यिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व
खेजड़ी का वृक्ष राजस्थानी भाषा में कन्हैयालाल सेठिया की कविता 'मींझर' बहुत प्रसिद्द है है। यह थार के रेगिस्तान में पाए जाने वाले वृक्ष खेजड़ी के सम्बन्ध में है। इस कविता में खेजड़ी की उपयोगिता और महत्व का सुन्दर चित्रण किया गया है।

[१] दशहरे के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने की परंपरा भी है
[२] रावण दहन के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते लूट कर लाने की प्रथा है जो स्वर्ण का प्रतीक मानी जाती है। इसके अनेक औषधीय गुण भी है।
[३] पांडवों द्वारा अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं।
[४] इसी प्रकार लंका विजय से पूर्व भगवान राम द्वारा शमी के वृक्ष की पूजा का उल्लेख मिलता है।
[5] शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है।
[६] वसन्त ऋतु में समिधा के लिए शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है।
[७] इसी प्रकार वारों में शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है।






आज हम आपको बताते हैं कि शिवलिंग पर कौन सा पुष्प चढ़ाना चाहिए और वह कितना पुण्य देने वाला है| शास्त्रों ने कुछ फूलों के चढाने से मिलने वाले फल का महत्व बतलाया है | वैसे भी पूजा में कुदरती सामग्रियों के चढ़ावे का महत्व है। जिनमें अनेक तरह-तरह के पेड़-पौधों के पत्ते, फूल और फल शामिल होते हैं। शास्त्रों में भगवान शिव पर फूल चढाने का बहुत अधिक महत्व बताया गया है| 

एक फूल शिव पर चढ़ाना से सोने के दान के बराबर फल देता है वो है आक के फूल को चढाने से मिल जाता है , हज़ार आक के फूलों कि अपेक्षा एक कनेर का फूल, हज़ार कनेर के फूलों के चढाने कि अपेक्षा एक बिल्व-पत्र से मिल जाता है जिस तरह पापो के नाश के लिए शिव पर बिल्व पत्र से शिव खुश होते है|

हजार बिल्वपत्रों के बराबर एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी। हजार गूमा के बराबर एक चिचिड़ा, हजार चिचिड़ा के बराबर एक कुश का फूल, हजार कुश फूलों के बराबर एक शमी का पत्ता, हजार शमी के पत्तो के बराकर एक नीलकमल, हजार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा और हजार धतूरों से भी ज्यादा एक शमी का फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है।

इसलिए भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए एक शमी का पुष्प चढ़ाएं क्योंकि यह फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है|







साहित्यिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व

राजस्थानी भाषा में कन्हैयालाल सेठिया की कविता 'मींझर' बहुत प्रसिद्द है है। यह थार के रेगिस्तान में पाए जाने वाले वृक्ष खेजड़ी के सम्बन्ध में है। इस कविता में खेजड़ी की उपयोगिता और महत्व का सुन्दर चित्रण किया गया है। [1] दशहरे के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने की परंपरा भी है|[2] रावण दहन के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते लूट कर लाने की प्रथा है जो स्वर्ण का प्रतीक मानी जाती है। इसके अनेक औषधीय गुण भी है। पांडवों द्वारा अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं। इसी प्रकार लंका विजय से पूर्व भगवान राम द्वारा शमी के वृक्ष की पूजा का उल्लेख मिलता है।[3] शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। वसन्त ऋतु में समिधा के लिए शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार वारों में शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है।



विजयादशमी या दशहरे के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने की प्रथा है। मान्यता है कि यह भगवान श्री राम का प्रिय वृक्ष था और लंका पर आक्रमण से पहले उन्होंने शमी वृक्ष की पूजा कर के उससे विजयी होने का आशीर्वाद प्राप्त किया था। 

आज भी कई स्थानों पर 'रावण दहन' के बाद घर लौटते समय शमी के पत्तेस्वर्ण के प्रतीक के रूप में एक दूसरे को बाँटने की प्रथा हैं, इसके साथ ही कार्यों में सफलता मिलने कि कामना की जाती है।

महाभारत में महत्त्व

शमी वृक्ष का वर्णन महाभारत काल में भी मिलता है। अपने 12 वर्ष के वनवास के बाद एक साल के अज्ञातवास में पांडवों ने अपने सारे अस्त्र शस्त्र इसी पेड़ पर छुपाये थे जिसमें अर्जुन का गांडीव धनुष भी था। कुरुक्षेत्र में कौरवों के साथ युद्ध के लिये जाने से पहले भी पांडवों ने शमी के वृक्ष की पूजा की थी और उससे शक्ति और विजय प्राप्ति की कामना की थी। तभी से यह माना जाने लगा है कि जो भी इस वृक्ष कि पूजा करता है उसे शक्ति और विजय प्राप्त होती है -


शमी शमयते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी ।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी ॥
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया ।
तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता ॥


अनुवाद :

हे शमी, आप पापों का क्षय करने वाले और दुश्मनों को पराजित करने वाले हैं। आप अर्जुन काधनुष धारण करने वाले हैं और श्री राम को प्रिय हैं। जिस तरह श्री राम ने आपकी पूजा की मैं भी करता हूँ। मेरी विजय के रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं से दूर कर के उसे सुखमय बना दीजिये।


अन्य कथा

अन्य कथा के अनुसार कवि कालिदास ने शमी के वृक्ष के नीचे बैठ कर तपस्या कर के ही ज्ञान की प्राप्ति की थी।


मान्यताएँ

शमी वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है। शनि देव को शान्त रखने के लिये भी शमी की पूजा करी जाती है। शमी को गणेश जीका भी प्रिय वृक्ष माना जाता है और इसकी पत्तियाँ गणेश जी की पूजा में भी चढ़ाई जाती हैं।


विभिन्न प्रांतों में बिहार, झारखण्ड और आसपास के कई राज्यों में भी इस वृक्ष को पूजा जाता है। यह लगभग हर घर के दरवाज़े के दाहिनी ओर लगा देखा जा सकता है। किसी भी काम पर जाने से पहले इसके दर्शन को शुभ मना जाता है।

राजस्थान के विशनोई समुदाय के लोग शमी वृक्ष को अमूल्य मानते हैं।


ऋग्वेद के अनुसार:

शमी के पेड़ में आग पैदा करने कि क्षमता होती है और ऋग्वेद की ही एक कथा के अनुसार आदिम काल में सबसे पहली बार पुरुओं (चंद्रवंशियों के पूर्वज) ने शमी और पीपल की टहनियों को रगड़ कर ही आग पैदा की थी।

कवियों और लेखकों के लिये शमी बड़ा महत्व रखता है। हिन्दू धर्म में भगवान चित्रगुप्त को शब्दों और लेखनी का देवता माना जाता है और शब्द-साधक यम-द्वितीया को यथा-संभव शमी के पेड़ के नीचे उसकी पत्तियों से उनकी पूजा करते हैं।















!!! भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंग है !!!




सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥

भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंग है। सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशङ्कर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर। हिंदुओं में मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और संध्या के समय इन बारह ज्योतिर्लिङ्गों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों का किया हुआ पाप इन लिंगों के स्मरण मात्र से मिट जाता है।


ज्योतिर्लिंग स्थल, भारत के मानचित्र पर


1. श्री सोमनाथ काठियावाड़ (गुजरात) के अंतर्गत प्रभास क्षेत्र में विराजमान है।


सर्वप्रथम एक मंदिर ईसा के पूर्व में अस्तित्व में था जिस जगह पर द्वितीय बार मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया । आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी । प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया । इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी । अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन १०२४ में सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया ।

१०२४ के डिसम्बर महिनेमें मुहमद गजनवी ने कुछ ५,००० साथीयों के साथ लूट चलाकर स्वम इस मंदिर के लिंग के नाश करने में महत्व का भाग लिया। ५०,००० लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे ओर किसीने सामना नहीं किया। प्रायः सभी की कत्ल कर दी गई। लूट के माल के साथ लिंग के पत्थरों के टुकडे ग़ज़नी ले गया ओर मस्जिद में सीढ़ियों में लगवा दिये गये। [१][२]

इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया । सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया । मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया । इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया ।

2. श्रीशैल पर्वत आन्ध्र प्रदेश प्रांत के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तटपर है, इसे दक्षिण का कैलाश कहते हैं। यहां श्रीमल्लिकार्जुन विराजमान हैं।


श्रीशैलम (श्री सैलम नाम से भी जाना जाता है) नामक ज्योतिर्लिंग आंध्र प्रदेश के पश्चिमी भाग में कुर्नूल जिले के नल्लामल्ला जंगलों के मध्य श्री सैलम पहाडी पर स्थित है। यहाँ शिव की आराधना मल्लिकार्जुन नाम से की जाती है। मंदिर का गर्भगृह बहुत छोटा है और एक समय में अधिक लोग नही जा सकते। इस कारण यहाँ दर्शन के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी होती है। स्कंद पुराण में श्री शैल काण्ड नाम का अध्याय है। इसमें उपरोक्त मंदिर का वर्णन है। इससे इस मंदिर की प्राचीनता का पता चलता है। तमिल संतों ने भी प्राचीन काल से ही इसकी स्तुति गायी है। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने जब इस मंदिर की यात्रा की, तब उन्होंने शिवनंद लहरी की रचना की थी। श्री शैलम का सन्दर्भ प्राचीन हिन्दू पुराणों और ग्रंथ महाभारत में भी आता है।

3. श्री महाकालेश्वर मालवा क्षेत्र (मध्यप्रदेश) में क्षिप्रा नदी के तटपर उज्जैन नगर में विराजमान है, उज्जैन को अवंतिकापुरी भी कहते हैं।


भारत के मध्यप्रदेश प्रान्त में स्थित उज्जैन नगर के दर्शनीय स्थलों में महाकालेश्वर का मंदिर प्रमुख है। यह देश के १२ ज्योतिर्लिगों में से एक है। पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यंत पुण्यदायी महत्ता है। इसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसी मान्यता है। महाकवि कालिदास ने मेघदूत में उज्जयिनी की चर्चा करते हुए इस मंदिर की प्रशंसा की है। १२३५ ई. में अलतमस के द्वारा इस प्राचीन मंदिर का विध्वंश करने के बाद से यहां जो भी शासक रहे, उन्होंने इस मंदिर का जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण की ओर विशेष ध्यान दिया है इसीलिए मंदिर अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर सका है। प्रतिवर्ष और सिंहस्थ के पूर्व इस मंदिर को सुसज्जित किया जाता है।

इतिहास से पता चलता है कि उज्जैन में सन् ११०७ से १७२८ ई. तक यवनों का शासन था। इनके शासनकाल में अवंति की लगभग ४५०० वर्षों में स्थापित हिन्दुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराएं प्राय: नष्ट हो चुकी थी। लेकिन १६९० ई. में मराठों ने मालवा क्षेत्र में आक्रमण कर दिया और २९ नवंबर १७२८ को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौटा और सन १७३१ से १८०९ तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी रही। मराठों के शासनकाल में यहां दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटी- पहला, महाकालेश्वर मंदिर का पुनिर्नर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना, जो एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया।

मंदिर एक परकोटे के भीतर स्थित है। गर्भगृह तक पहुंचने के लिए एक सीढ़ीदार रास्ता है। इसके ठीक उपर एक दूसरा कक्ष है जिसमें ओंकारेश्वर िशवलिंग स्थापित है। मंदिर का क्षेत्रफल १०.७७ x १०.७७ वर्गमीटर और ऊंचाई २८.७१ मीटर है। महाशिवरात्रि एवं श्रावण मास में हर सोमवार को इस मंदिर में अपार भीड़ होती है। मंदिर से लगा एक छोटा सा जलस्रोत है जिसे ``कोटितीर्थ`` कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि अलतमस ने जब मंदिर को तुड़वाया तो शिवलिंग को इसी कोटितीर्थ में फिकवा दिया था। बाद में इसकी पुनर्प्रतिष्ठा करायी गयी। सन १९६८ के सिंहस्थ महापर्व के पूर्व मुख्य द्वार का विस्तार कर सुसज्जित कर लिया गया है। इसके अलावा निकासी के लिए एक अन्य द्वार का निर्माण भी कराया गया है। लेकिन दर्शनार्थियों की अपार भीड़ को दृष्टिगत रखते हुए बिड़ला उद्योग समूह के द्वारा १९८० के सिंहस्थ के पूर्व एक विशाल सभा मंडप का निर्माण कराया गया है। महाकालेश्वर मंदिर की व्यवस्था के लिए एक प्रशासनिक समिति का गठन किया गया है जिसके निर्देशन में यहाँ की व्यवस्था सुचारू रूप से चल रही है।


टीका टिप्पणी

वक्र: पंथा यदपि भवन प्रस्थिताचोत्तराशाम
सौधोत्संग प्रणयोविमखोमास्म भरूज्जयिन्या:।
विद्युद्दामेस्फरित चकितैस्त्र पौराड़गनानाम
लीलापांगैर्यदि न रमते लोचननैर्विंचितोसि।। - कालिदास

4. मालवा क्षेत्र में ही ॐकारेश्वर स्थान नर्मदा नदी के तट पर है। उज्जैन से खण्डवा जाने वाली रेलवे लाइन पर मोरटक्का नामक स्टेशन है, वहां से यह स्थान 10 मील दूर है। यहां ॐकारेश्वर और अमलेश्वर के दो पृथक-पृथक लिङ्ग हैं, परन्तु ये एक ही लिङ्ग के दो स्वरूप हैं।


ॐकारेश्वर एक हिन्दू मंदिर है। यह मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में स्थित है। यह नर्मदा नदी के बीच मन्धाता या शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगओं में से एक है। यह यहां के मोरटक्का गांव से लगभग 12 मील (20 कि.मी.) दूर बसा है। यह द्वीप हिन्दू पवित्र चिन्ह ॐ के आकार में बना है। यहां दो मंदिर स्थित हैं।

* ॐकारेश्वर
* अमरेश्वर

ॐकारेश्वर का निर्माण नर्मदा नदी से स्वतः ही हुआ है। यह नदी भारत की पवित्रतम नदियों में से एक है, और अब इस पर विश्व का सर्वाधिक बड़ा बांध परियोजना का निर्माण हो रहा है।

जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है।

इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 करोड़ देवता परिवार सहित निवास करते हैं तथा 2 ज्योतिस्वरूप लिंगों सहित 108 प्रभावशाली शिवलिंग हैं। मध्यप्रदेश में देश के प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में से 2 ज्योतिर्लिंग विराजमान हैं। एक उज्जैन में महाकाल के रूप में और दूसरा ओंकारेश्वर में ममलेश्वर (अमलेश्वर) के रूप में विराजमान हैं।

देवी अहिल्याबाई होलकर की ओर से यहाँ नित्य मृत्तिका के 18 सहस्र शिवलिंग तैयार कर उनका पूजन करने के पश्चात उन्हें नर्मदा में विसर्जित कर दिया जाता है। ओंकारेश्वर नगरी का मूल नाम 'मान्धाता' है।

राजा मान्धाता ने यहाँ नर्मदा किनारे इस पर्वत पर घोर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और शिवजी के प्रकट होने पर उनसे यहीं निवास करने का वरदान माँग लिया। तभी से उक्त प्रसिद्ध तीर्थ नगरी ओंकार-मान्धाता के रूप में पुकारी जाने लगी। जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है। इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 करोड़ देवता परिवार सहित निवास करते हैं।

नर्मदा क्षेत्र में ओंकारेश्वर सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है। शास्त्र मान्यता है कि कोई भी तीर्थयात्री देश के भले ही सारे तीर्थ कर ले किन्तु जब तक वह ओंकारेश्वर आकर किए गए तीर्थों का जल लाकर यहाँ नहीं चढ़ाता उसके सारे तीर्थ अधूरे माने जाते हैं। ओंकारेश्वर तीर्थ के साथ नर्मदाजी का भी विशेष महत्व है। शास्त्र मान्यता के अनुसार जमुनाजी में 15 दिन का स्नान तथा गंगाजी में 7 दिन का स्नान जो फल प्रदान करता है, उतना पुण्यफल नर्मदाजी के दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है।

ओंकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार, माता घाट (सेलानी), सीता वाटिका, धावड़ी कुंड, मार्कण्डेय शिला, मार्कण्डेय संन्यास आश्रम, अन्नपूर्णाश्रम, विज्ञान शाला, बड़े हनुमान, खेड़ापति हनुमान, ओंकार मठ, माता आनंदमयी आश्रम, ऋणमुक्तेश्वर महादेव, गायत्री माता मंदिर, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, आड़े हनुमान, माता वैष्णोदेवी मंदिर, चाँद-सूरज दरवाजे, वीरखला, विष्णु मंदिर, ब्रह्मेश्वर मंदिर, सेगाँव के गजानन महाराज का मंदिर, काशी विश्वनाथ, नरसिंह टेकरी, कुबेरेश्वर महादेव, चन्द्रमोलेश्वर महादेव के मंदिर भी दर्शनीय हैं।

नर्मदा ही एक ऐसी नदी है जिसकी लाखों भक्तों द्वारा 1 हजार 780 मील की लंबी परिक्रमा की जाती है। नियम से उक्त परिक्रमा 108 दिनों में संपन्न की जाती है।

5. महाराष्ट्र के पासे परभनी नामक जंक्शन है, वहां से परली तक एक ब्रांच लाइन गयी है, इस परली स्टेशन से थोड़ी दूर पर परली ग्राम के निकट श्रीवैद्यनाथ नामक ज्योतिर्लिङ्ग है। परंतु शिवपुराण में वैद्यनाथं चिताभूमौ ऐसा पाठ है, इसके अनुसार संथाल परगना (झारखंड) में जसीडीह स्टेशन के पासवाला वैद्यनाथ नामक ज्योतिर्लिङ्ग सिद्ध होता है, क्योंकि यही चिताभूमि है। परंपरा और पौराणिक कथाओं से भी देवघर में ही श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग का प्रमाण मिलता है।


यह ज्*योतिर्लिंग झारखंड के देवघर नाम स्*थान पर है। कुछ लोग इसे वैद्यनाथ भी कहते हैं। देवघर अर्थात देवताओं का घर। बैद्यनाथ ज्*योतिर्लिंग स्थित होने के कारण इस स्*थान को देवघर नाम मिला है। यह ज्*योतिर्लिंग एक सिद्धपीठ है। कहा जाता है कि यहाँ पर आने वालों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। इस लिंग को 'कामना लिंग' भी कहा जाता हैं।

इस लिंग स्थापना का इतिहास यह है कि एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवाँ सिर भी काटने को ही ािा शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों-के-ज्यों कर दिये और फिर वरदान मांगने को कहा। रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिये उसे ले जाने की आज्ञा मांगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ कि यदि मार्ग में इस पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगां अंतोगत्वा वहीं हुआ। रावण शिवलिंग लेकर चला, पर मार्ग में यहा चिताभूमि में आने पर उसे लघुशंका निवृत्तिा की आवश्यकता हुई और वह उस लिंग को एक अहीर को थमा लघुशंका-निवृत्ता के लिये चला गया। इधर उस अहीर से उसे बहुत अधिक भारी अनुभवकर भूमिकर रख दिया। बस, फिर क्या था, लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे न उखाड़ सका और निराश होकर मूर्ति पर अपना अंगूठा गड़ाकर लंका को चला गयां इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की और शिवजी का दर्शन करके उनकी वहीं प्रतिष्ठा की और स्तुति करते हुए स्वर्ग चले गये। यह वैद्यनाथ-ज्योतिर्लिग महान् फलों का देनेवाला है।

बैद्यनाथ का मुख्य मंदिर सबसे पुराना है जिसके आसपास अनेक अन्य मंदिर भी हैं। शिवजी का मंदिर पार्वती जी के मंदिर से जुड़ा हुआ है।

बैद्यनाथ की यात्रा श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) शुरु होती है। सबसे पहले तीर्थयात्री सुल्तानगढ़ में एकत्र होते हैं जहां वे अपने-अपने पात्रों में पवित्र जल भरते हैं। इसके बाद वे बैद्यनाथ और बासुकीनाथ की ओर बढ़ते हैं। पवित्र जल लेकर जाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वह पात्र जिसमें जल है, वह कहीं भी भूमि से न सटे।

बासुकीनाथ अपने शिव मंदिर के लिए जाना जाता है। बैद्यनाथ मंदिर की यात्रा तब तक अधूरी मानी जाती है जब तक बासुकीनाथ में दर्शन नहीं किए जाते। यह मंदिर देवघर से 42 किमी. दूर जरमुंडी गांव के पास स्थित है। यहां पर स्थानीय कला के विभिन्न रूपों को देखा जा सकता है। इसके इतिहास का संबंध नोनीहाट के घाटवाल से जोड़ा जाता है। बासुकीनाथ मंदिर परिसर में कई अन्य छोटे-छोटे मंदिर भी हैं।

बाबा बैद्यनाथ मंदिर परिसर के पश्चिम में देवघर के मुख्य बाजार में तीन और मंदिर भी हैं। इन्हें बैजू मंदिर के नाम से जाना जाता है। इन मंदिरों का निर्माण बाबा बैद्यनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी के वंशजों ने करवाया था। प्रत्येक मंदिर में भगवान शिव का लिंग स्थापित है।