30 September 2012

Cosmic Energy - विश्व शक्ति




The Cosmic Energy exists everywhere in the Cosmos.
It is the Bond between the galaxies, the planets, humans and molecules.

It is the 'space' between each and everything.
It is the bond, which keeps the whole cosmos in order.

Cosmic Energy is the 'Life Force'.

This Cosmic Energy is essential to maintain the order of our life and to expand our
Consciousness.

Cosmic Energy is the base for all our actions and functions. We receive some amount of Cosmic Energy in deep Sleep and in total Silence. We are using this energy for our day-to-day activities of our Mind like seeing, speaking, hearing, thinking and all actions of our Body.

This limited energy gained through sleep is not sufficient for these activities. That is why we feel exhausted, tired and tensed. This leads to mental and physical stress and all kinds of illnesses. The only way to overcome this is to get more and more Cosmic Energy.

Cosmic Energy is essential to:

Maintain the order of our life.

To lead a healthy and happy life.

To totally involve in all situations

We are in To obtain Knowledge

And finally For expansion of our Consciousness.
Abundant Cosmic Energy is obtained, only through Meditation.

Meditation

Meditation is the journey of our consciousness towards the Self. Sleep is unconscious Meditation
Meditation is conscious sleep. We receive some amount of Cosmic Energy in sleep and in deep silence.
We receive abundant Cosmic Energy in Meditation.
Meditation is the journey of our consciousness from:
Body to Mind, Mind to Intellect, Intellect to Self And beyond. To do Meditation, the first thing is Posture. We may sit in any posture. Posture must be comfortable and stable. We may sit either on the floor or on a chair. Cross your legs clasp the fingers Close your eyes gently Relax relax Then, Observe your normal Breath Do not chant any Mantra do not think of any God Just witness the Breath If any thoughts come, Do not go behind the thoughts do not negate the thoughts Just come back observe the Breath Witness the Breath Be the Breath Just Be. This is the WAY. This is the Meditation Technique. Then one reaches No Thought and No Breath state. This is the Meditative State. By more and more Meditation, we receive abundant Cosmic Energy. With this Meditation Technique, Our Energy body gets cleansed Third Eye get activated, and further perfected Astral Travel happens We understand Life After Life And many more Cosmic Energy Cosmic Energy is the universal life energy existing throughout the Cosmos, essential for sustenance of all lives. Yogis and sages in ancient India discovered that this cosmic energy could be invoked and used for various purposes for overall good and prosperity. They found that the cosmic energy could be tapped and directed out of the body after invocation and used to achieve a desired result physically or psychically according to the thought pattern of the person invoking it.

Cosmic energy, invoked in cosmic healing is a totality of three types of energies used in various proportions according to the need of the person and situation.
The three types are:

• KUNDALINI energy from core of the EARTH acting through BASE chakra.

• PRANA from the SUN, which enters the body through SEX or SACRAL chakra
below the umbilicus.

• Energy from the COSMOS entering the body through CROWN chakra.

In Cosmic Healing, these three types of energies are invoked and used in different percentages programmed automatically, to heal the aura of a person based on the problem to be healed. 
This is made possible by the UNIQUE INITIATION

It is the Integral sum energy of all moving particles in space. The energy of these particle is the summation of all the Energy exhausted from all the Galaxies and Stars systems, and Our sun included, in the Universe.

It is What thermodynamics calls entropy?

It is the result of Nuclear fusion reactions of the celestial furnaces (stars & suns), and follows the 2nd law of thermodynamics.

Every particle in this universe emits some energy. The energy from extra-terrestrial bodies (which lie outside of earth's field) is known as cosmic energy. Solar energy (energy that comes from Sun) is also a form of 

cosmic energy.

It is the primary energy, essential, multiform completely impersonal and scattered. Universally diffuse it is found in all objects of the universe.

It has many names and among of them we find: aor (hebrews); arqueo (Paracelso);
unified field (Albert Einstein); cause formative (Aristotle); chi; cosmic energy; holly spirit (Christians); facultas formatrix (Galen); Astral light (Blavatisk), and so on...

It was identified long ago in the past of the humanity by the ancient civilizations and hidden traditions in its esoteric way.

It is the most pure energy that exists once it does not have any information and is characterized by its unmistakable standard of serenity.

When it passes through the objects of the universe, it loses the standard acquiring the information of the object.

The cosmic energy with its own highly serene and organized standard passes through the object, in the picture a human body, acquiring all the information of that being. 

It is transformed and emitted with another standard.
As it is a very subtle energy must be absorbed every time you feel the lost of strength
caused by the daily stress.

अयोध्या की बात आते ही.....


अयोध्या की बात आते ही..... मुस्लिमों और उनके सरपरस्त सेकुलरों द्वारा .... हमेशा ही हम हिन्दुओं से अयोध्या में ""राम जन्म भूमि होने का प्रमाण"" माँगा जाता है..!

लेकिन... ऐसा प्रमाण मांगते समय वे यह भूल जाते हैं कि........ उनके अल्लाह और और उसके पोपट मुहम्मद के अस्तित्व से सम्बंधित प्रमाण मुस्लिमों के पास "" कुरान"" के अलावा और क्या है...????

हमलोग तो.... समय समय पर अपनी प्रमाणिकता सिद्ध करते ही र

हते हैं..... परन्तु.... मुस्लिमों के पास ... कुल मिला कर एक ही रटा रटाया जबाब होता है कि..... हमारे कुरान में लिखा है.... इसीलिए ..... वो मुहम्मद हमारा पिगम्बर है.... और, दुनिया में अल्लाह का अस्तित्व है...!

और... जब हम उनसे कुरान के बारे में पूछते हैं तो....... उनका बोलना होता है कि..... यह अल्लाह की किताब है...!

मतलब कि..... पहले अल्लाह पैदा हुआ और.... उसने कुरान लिखा ..... अथवा... पहले मुहम्मद ने कुरान पैदा कर.... अल्लाह को अस्तित्व में लाया .... समझ से बाहर की बात है...!

खैर...... जब बात अयोध्या की करते हैं तो..... मुस्लिमों कहना है कि..... यहाँ पहले बाबरी मस्जिद थी...... मतलब कि... वहां मंदिर से पहले ""बाबर द्वारा बनाया गया मस्जिद"" था...!

शायद मुस्लिमों का कहना है कि.... सन 1526 ईस्वी में भारत पर आक्रमण करते समय ..... वो बाबर नामक मंगोल लुटेरा (जो लंगड़े तैमुरलंग का परपोता ... और चंगेज खान नामक लुटेरे का नाती था)..... अपने कंधे पर अयोध्या को ढो कर लाया था....... और, भारत आकर उसने यहाँ स्थापित कर दिया था...!

शायद मुस्लिमों और मनहूस सेकुलरों को यह जानकारी नहीं है.... कि.... अयोध्या में राम मंदिर 9वीं-11वीं सदी से ही विराजमान है..... जिस समय बाबर की तो छोडो.... उनके दादा-परदादों का भी जन्म नहीं हुआ था....!

@@@ उस तथाकथित रूप से विवादित स्थल की छान-बीन से पता चला है कि... वहां पर ९-११ वीं सदी का एक भव्य मंदिर था... जिसके 14 स्तम्भ थे.. और वे... कसौटी पत्थर (जिसके सोने को परखा जाता है) ... के बने हुए थे.....!
ये कसौटी पत्थर सिर्फ हिमालय की तराई में पाए जाते हैं.... और.. ११ वीं सदी के आस-पास सारे मंदिरों में यही पत्थर प्रयोग किये जाते थे...!

@@@ मंदिर के दक्षिण की ओर बाड़ लगाने से पहले रामजन्मभूमि मंदिर के पास जमीन के स्तर से लगभग 12 फीट की गहराई में, खूबसूरती से खुदी शौकीन बलुआ पत्थर के टुकड़े का एक बड़ा ढेर एक बड़े गड्ढे में स्थित था. आठ प्रख्यात इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के एक समूह द्वारा एक सावधान अध्ययन से पता चलता है कि ये सभी वस्तुएं 11 वीं सदी के एक हिंदू मंदिर परिसर के वास्तु साक्ष्य हैं..!

@@@ इसके अलावा सबसे उल्लेखनीय पत्थर के sculptured टुकड़े ... उच्च stylized कमल की पंखुड़ियों संकीर्ण समानांतर राजधानी के आसपास कम जगह में खुदी हुई स्ट्रिप्स के रूप में व्यवस्था के रूप में सुंदर moldings के साथ एक Piller में बीचोबीच आयताकार रूप में बनी थी ...!

@@@ निरंतर पत्ती मोल्डिंग की एक फ्रीज़ भी पाई गयी .....जो मंदिर के चबूतरे के शीर्ष लाइनों को सजाता है.

@@@ वहाँ के दरवाजे चौखट तथा मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार इस बात का प्रमाण है.. कि यहाँ एक भव्य मंदिर था.. जहाँ meandering पुष्प डिजाइन, 'स्टैंसिल' शैली में खुदी थी..!

@@@ उपरोक्त के प्रमाणों के अलावा भी वहाँ कई अन्य छवियाँ हैं.... जिसमे से एक शिव - पार्वती की है..!
यह उमा महेश्वर कि मूर्ति है .. जो कि ""उथले नाला नामक टीला"" पर पाई गयी हैं...!
कला और वास्तु टुकड़े के ये ढेर ..... साइट से कुछ 200 मीटर की दूरी पर स्थित से मिला था.
हालांकि भगवान शिव का सिर मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा तोड़ दिया गया है , उनके हाथ में त्रिशूल अभी तक बरक़रार है...!
उसी तरह, हालांकि माँ पार्वती का चेहरा वर्तमान नहीं है.. परन्तु फिर भी भगवान शिव की गर्दन के पीछे से उसके हाथ एक को गले लगाते स्थिति में मौजूद है..!
और..... Stylistically..... यह भी साबित हो चुका है कि... यह भी 11 वीं सदी के datable है.


#### सिर्फ इतना ही नहीं .... ऐसे अनगिनत सबूत मौजूद हैं .....जो अयोध्या को भगवान् राम की जन्मभूमि साबित करने के लिए पर्याप्त हैं..!

और... ऐसा भी नहीं है कि.... बाबर और उसका सेनापति मीर बाकी..... अपनी सेना लेकर आया और..... हमारे ""अयोध्या को हलवे की तरह हजम कर गया""..!

इतिहास गवाह है कि... हम हिन्दुओं ने अपने अराध्य श्री राम की जन्म भूमि को बचाने के काफी लड़ाइयाँ लड़ी है.... और लाखों कुर्बानियां दी है...!

उन लड़ाइयाँ में से कुछ प्रमुख लड़ाइयाँ इस प्रकार हैं.....

1. बाबर के शासनकाल (1528-1530) में अयोध्या में हिंदुओं पर 4 हमले किए गए.... जिसमें 100,000 लोग मारे गए थे..!

2. हुमायूं के शासनकाल (1530-1556) - हिंदुओं ने अलग होने के लिए 10 बार लड़ाइयाँ लड़ी

3. अकबर के शासनकाल (1556-1605)में हम हिन्दुओं ने 20 लड़ाइयाँ लड़ी.

4. औरंगजेब के शासनकाल (1658-1707) में हिंदुओं ने 30 लड़ाइयाँ लड़ी...... जिसमे से एक ऐसी लड़ाई का नेतृत्व गुरु गोबिंद सिंह ने किया था ... और मुगलों को परास्त किया था..!

5. चार साल बाद..... औरंगजेब है ने ... फिर अयोध्या पर हमला किया और 10000 हिंदुओं की हत्या के बाद ही वो हमारे मंदिर को नियंत्रण में ले पाया ..!

6. सहदात अली (1798-1814).. के समय हम हिंदुओं ने 5 लड़ाइयाँ लड़ी.

7. नासिरउद्दीन (1814-1837) हैदर .... के समय में हम हिंदुओं ने 3 लड़ाइयां लड़ी.

8. वाजिद अली शाह (1847-1857) के समय हिंदुओं ने 2 लड़ाइयाँ लड़ी.

9. ब्रिटिश (1912-1934) नियम के खिलाफ भी हम हिंदुओं ने 2 सशस्त्र संघर्ष लड़ी...!

अगर.... इतने सारे साक्ष्यों के प्रस्तुत करने के बाद भी.... मुस्लिम बाबरी मस्जिद नामक अतिक्रमण के टूटने का शोक मनाते हैं... तो इसका मतलब ये क्यों समझा जाये कि.. उन्हें भारतीय सभ्यता संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है.... तथा, वे बाबर जैसे दुर्दांत लुटेरे (जो कि उस लंगड़े तैमुरलंग का परपोता और उस जीवित प्रेत चंगेज खान का नाती था)... पर गर्व करते हैं और उन्हें ही अपना आइडल मानते हैं..!

अगर ऐसा ही है तो.... इसका मतलब साफ है कि.... मुल्लों को बात की नहीं बल्कि लात की भाषा समझ आती है....!

जय महाकाल...!!!

Disclaimer : ये लेख माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावित करने अथवा अवमानना करने के उद्देश्य से नहीं ... बल्कि.... उपलब्ध साक्ष्यों की जानकारी के उद्देश्य से लिखी गई है..!

References :

1. Ram Janmabhoomi Vs Babri Masjid -by K. Elst, Voice of India Publ, 1990, 173pp

2. Ayodhya & After -by K. Elst, Voice of India Publ, 1991, 419 pp

3. VHP's evidence on Ram Janmabhoomi, 6 th January 1991

4. Vivek, Special Ayodhya issue 1993

5. Ram Janma Bhoomi - New Archeological Evidence, by Y.D. Sharma et al published by Historians' Forum, New Delhi, 1992

6. Ayodhya - Dec.6, 1992, Destruction of Babri structure - Who? What? Why? A Video (report) by Jain Studios, New Delhi.

7. Legal Aspects of RJB/ BM issue - by Justice Deoki Nandan.

ज्यादा मत कुरेदो राख को, अंगार पलते हैं


ज्यादा मत कुरेदो राख को, अंगार पलते हैं.
इसी की पर्त में दबकर कहीं, शोले दहकते हैं
देखकर करनी वतन के रहनुमाओं की
वतन के वक्ष में गहरे कहीं,शीशे उतरते हैं

.............................................................................

इतिहास की परछाइयाँ तिरती हवाओं में
वही फिर दर्द की चीखें ,उभरती हैं फिजाओं में.
नालंदा -तक्षशिला में तुम ,जरा सा झाँक तो आओ
लगी है आग फिर घिरने, अरे वैदिक ऋचाओं में
अब देखना है जिस्म में, कब तक शिवाओं के
है ठन्डे पड़े ज्वालामुखी ,फिर से पिघलते हैं .
देखकर करनी............................


हम देखते हैं ,जब कभी बारूद फटते हैं
नर- नारियों के चीथड़े ,बच्चे उधड़ते हैं
भद्दे ,घिनोने और कुत्सित ,उस समय आकर
कितने नकाबों में ढके चेहरे उभरते हैं
तुम क्या समझोगे ,तब सियासती शतरंज को लखकर
वतन के आशिकों के ,किस तरह ह्रदय दरकते हैं
देखकर करनी............................

जिन किश्तियों के ख्वाब में,आकंठ डूबे हो
सागर उतरने में तुम्हारे काम आएँगी
वे बीच में तुमको समुन्दर में डुबोकर के
खुद के बचाकर सागरों के पार जाएँगी
तुम्हारी बेबसी,लचर सी यह मूढ़ता लखकर
तन से वतन के श्वास में विषधर निकलते हैं
देखकर करनी.................................................


दुश्मनों के जाल से अनजान हो या तुम
खुद जानकर के बैरियों के पाँव पड़ते हो
जिनके शरीरों में तुम्हे है आग थी भरनी
उन्ही के सामने जाकर के तुम एड़ी रगड़ते हो
तुम्हारी कायराना ,बुजदिली की ,दास्ताँ सुनकर
वतन की आँख से अब रक्त के बादल बरसते है
देखकर करनी............................................

पहचानो समय को अन्यथा बरबादियाँ होंगी
तुम्हारे नष्ट ये सारे महल और खेतियाँ होंगी
यूँ बैरियों की खिदमतें जारी रहीं तो फिर
दरिंदों की गुफाओं में वतन की बेटियाँ होंगी
वतन पे मरने वाले हम तुम्हे लो वक्त देते हैं
नहीं फिर देखना ,ज्वालामुखी कैसे दहकते है...
देखकर करनी................................

ॐ जय गौ माता , मईया जय गौ माता



ॐ जय गौ माता , मईया जय गौ माता

निसिदिन तुमको ध्याता , हरी शिवजी धाता

ॐ जय गौ माता , मईया जय गौ माता


मंथन समुद्र को कीन्हो , तब प्रकटे मईया

त्रिषि मंडल को लीन्हो , कामधेनु गैया

ॐ जय गौ माता , मईया जय गौ माता

कोटि तेतीश देवता , रोम रोम बसे

पन्च गव्य जो लेता , जन्मो के पाप कटे

ॐ जय गौ माता , मईया जय गौ माता

सर्वोषधि भंडारी , तू ही हे मेया

घर भी कहे उसी को , जिस आगन मईया

ॐ जय गौ माता , मईया जय गौ माता

संकट उनके हरती , पार बेत्ररी करे

तेरी पूछ करे जो , भव से सागर तारे

ॐ जय गौ माता , मईया जय गौ माता

तेरे खुर की धूलि माथे पे जो लगे

तीर्थ स्थान को फल हो , पद - पद विजय मिले

ॐ जय गौ माता , मईया जय गौ माता

कृष्ण बसे माँ तुझमे , तुमको जो धियावे

मन इख्छा हो पूरी , मानव तन पावे

ॐ जय गौ माता , मईया जय गौ माता

गौ माता की आरती , प्रीत से जो गावे

कह गोपाल में सर्रण हू , महिमा नित पावे

ॐ जय गौ माता , मईया जय गौ माता

SOCHO SOCHO AUR SOCHO


रोज तो तुम नए जन्मते बच्चो को देखते हो | रोज तो तुम बूढों कि अर्थिया उठते देखते हो | कब तुम्हे समझ में आएगा कि जो जन्मा है वो मरेगा जो बना है वो मिटेगा ये बात दो घडी कि है | ये ताश के पत्तो का घर है | अभी आया हवा का झोखा और अभी बिखर जायेगा |  

आज मैं देश के करोड़ो हिन्दुओ से एक सवाल करना चाहता हूँ |


भारत एक धर्मनिपेक्ष देश बना दिया गया 
(कागजी तौर पर) और जमीनी हकीक़त पर एक मुस्लिम राष्ट्र बन ने की राह पर है | मुस्लिम राष्ट्र बने या ना बने वो फिलहाल बहस का मुद्दा है लेकिन भारत में हिन्दू को क्या मिला??
आज़ादी के २० साल पहले से हिन्दू की एक मांग रही है की गो हत्या बंद होनी चाहिए, उस समय गाँधी ने आश्वासन दिया था की गो हत्या बंद करवाई जाएगी, देश आजाद हो गया गाँधी ने गो हत्या बंद करने पर चुप्पी साध ली और जब लोगो ने सवाल पुछा तोह कहा की गो हत्या बंद नहीं हो सकती , नेहरु तोह था ही ऐयाश आदमी उससे उम्मीद लगाना बेकार था , 

उसके बाद इंदिरा ने हिन्दू को मुर्ख बनाया की अगर वो सत्ता में आती है तोह गो हत्या बंद करवा देगी .. लेकिन सत्ता में आते ही गो हत्या बंद नहीं हुई उल्टा गो हत्या बंद की मांग उठाने वाले लोगो पर ही गोलियां चलवा दी गयी |


सवाल छोटा सा , हिन्दू के देश में हिन्दू की माँ (गो माता) को बचने के लिए एक कानून तक पारित नहीं हुआ पिछले ८५ सालो में? हिन्दू का इस देश पर कोई अधिकार रह भी गया है या नहीं ?

सेकुलर लोगो तुम लोगो से एक सवाल : Cow हिन्दू धर्म के अनुसार माता है .. ना ही इस्लाम में लिखा है की गो हत्या करो , और ना ही इसायो की Bible में .. तोह को गो हत्या पर पाबन्दी क्यूँ नहीं होनी चाहिए? गो हत्या हिन्दू का धार्मिक मामला है , हिन्दू की आस्था का क्या होगा? ..

श्री कृष्ण द्वारा परीक्षित को जीवनदान


उत्तरा के गर्भ में जब वह बालक ब्रह्मास्त्र के तेज से दग्ध होने लगा तब भगवान श्री कृष्णचन्द्र ने सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रवेश किया। उनका वह ज्योतिर्मय सूक्षम शरीर अँगूठे के आकार का था। अत्तयंत सन्दर श्याम शरीर तेजोमय, पीताम्बर धारण किये हुये, सवर्णमुकुट से प्रकाशमान हो रहा था। वे चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुये थे। कानों में कुण्ड्ल तथा आँखें रक्तवर्ण थीं। हाथ में जलती हुई गदा लेकर उस गर्भ स्थित बालक के चारों ओर घुमाते थे। 

जिस प्रकार सूर्यदेव अन्धकार को हटा देते हैं उसी प्रकार वह गदा अश्वत्थामा के छोड़े हुये ब्रह्मास्त्र की अग्नि को शांत करती थी। गर्भ स्थित वह बालक उस ज्योतिर्मय शक्ति को अपने चारों ओर घूमते हुये देखता था। वह सोचने लगता कि यह कौन है और कहाँ से आया है? उस समय पाण्डव लोग एक महान यज्ञ की दीक्षा के निमित्त राजा मरुत का धन लेने के लिये उत्तर दिशा में गये हुये थे। उसी बीच उनकी अनुपस्थिति में तथा भगवान श्री कृष्णचन्द्र की उपस्थिति में दस मास पश्चात उस बालक का जन्म हुआ। परन्तु बालक गर्भ से बाहर निकलते ही मृतवत् हो गया। बालक को मरा हुआ देख कर रनिवास में रुदन आरन्भ हो गया। शोक का समुद्र उमड़ पड़ा। कुरुवंश को पिण्डदान करने वाला केवल एक मात्र यही बालक उत्तपन्न हुआ था सो वह भी न रहा। कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि सभी महान शोक सागर में डूब कर आँसू बहाने लगीं। 

उत्तरा के गर्भ से मृत बालक के जन्म का समाचार सुन कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र तुरन्त सात्यकि को साथ लेकर अन्तःपुर पहुँचे। वहाँ रनिवास में करुण क्रन्दन को सुन कर उनका हृदय भर आया। इतना करुण क्रन्दन युद्ध में मरे हुये पुत्रो के लिये कभी सुभद्रा और द्रौपदी ने नहीं किया था जितना उस नवजात शिशु की मृत्यु पर कर रही थीं। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को देखते ही वे उनके चरणो पर गिर पड़ीं और विलाप करते हुये बोलीं -'हे जनार्दन! तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि यह बालक इस ब्रह्मास्त्र से मृत्यु को प्राप्त न होगा तथा साठ वर्ष तक जीवित रह कर धर्म का राज्य करेगा। किन्तु यह बालक तो मृतावस्था में पड़ा हुआ है। यह तुम्हारे पौत्र अभिमन्यु का बालक है। हे अरिसूदन! इस बालक को अपनी अमृत भरी दृष्टि से जीवन दान दो।'
श्रीकृष्ण द्वारा जीवनदान भगवान श्रीकृष्णचन्द्र सबको सान्त्वना देकर तत्काल प्रसूतिगृह में गये और वहाँ के प्रबन्ध का अवलोकन किया। चारों ओर जल के घट रखे थे, अग्नि भी जल रही थी, घी की आहुति दी जा रही थी, श्वेत पुष्प एवं सरसों बिखरे थे और चमकते हुये अस्त्र भी रखे हुये थे। इस विधि से यज्ञ, राक्षस एवं अन्य व्याधियों से प्रसूतिगृह को सुरक्षित रखा गया था। उत्तरा पुत्रशोक के कारण मूर्छित हो गई थी। उसी समय द्रौपदी आदि रानियाँ वहाँ आकर कहने लगीं -'हे कल्याणी!तुम्हारे सामने जगत के जीवन दाता साक्षात् भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, तुम्हारे श्वसुर खड़े हैं। 

चेतन हो जाओ।' भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा - 'बेटी! शोक न करो। तुम्हारा यह पुत्र अभी जीवित होता है। मैंने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला है। सबके सामने मेँने प्रतिज्ञा की है वह अवश्य पूर्ण होगी। मैंने तुम्हारे इस बालक की रक्षा गर्भ में की है तो भला अब कैसे मरने दूँगा।' इतना कहकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उस बालक पर अपनी अमृतमयी दृष्टि डालि और बोले - 'यदि मैंने कभी झूठ नहीं बोला है, सदा ब्रह्मचर्य व्रत का नियम से पालन किया है, युद्ध में कभी पीठ नहीं दिखाई है, मैंने कभी भूल से भी अधर्म नहीं किया है तो अभिमन्यु का यह मृत बालक जीवित हो जाये।' उनके इतना कहते ही वह बालक हाथ पैर हिलाते हुये रुदन करने लगा। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने सत्य और धर्म के बल से ब्रह्मास्त्र को पीछे लौटा कर ब्रह्मलोक में भेज दिया। उनके इस अद्भुत कर्म बालक को जीवित देख कर अन्तःपुर की सारी स्त्रियाँ आश्चर्यचकित रह गईं और उनकी वन्दना करने लगीं। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उस बालक का नाम परीक्षित रखा क्योंकि वह कुरुकुल के परिक्षीण (नाश) होने पर उत्पन्न हुआ था।

युधिष्ठिर द्वारा दानपुण्य जब धर्मराज युधिष्ठिर लौट कर आये और पुत्र जन्म का समाचार सुना तो वे अति प्रसन्न हुये और उन्होंने असंख्य गौ, गाँव, हाथी, घोड़े, अन्न आदि ब्राह्मणों को दान दिये। उत्तम ज्योतिषियों को बुला कर बालक के भविष्य के विषय में प्रश्न पूछे। ज्योतिषियों ने बताया कि वह बालक अति प्रतापी, यशस्वी तथा इक्ष्वाकु समान प्रजापालक, दानी, धर्मी, पराक्रमी और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का भक्त होगा। एक ऋषि के शाप से तक्षक द्वारा मृत्यु से पहले संसार के माया मोह को त्याग कर गंगा के तट पर श्री शुकदेव जी से आत्मज्ञान प्राप्त करेगा।

जरूर पढ़ें और विचार करें ***

भारत की जनसंख्या 122 करोड़ है तो ब्रिटेन की जनसंख्या 6.22 करोड़, भारत का जमीनी क्षेत्रफल 33 लाख वर्ग किलोमीटर है जबकी ब्रिटेन का 2.45 लाख वर्ग किमी. यानि भारत ब्रिटेन से 14 गुना बड़ा देश है और 20 गुनी आबादी है। भारत विश्व की चौथी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति है फिर भी हम उनके सामने झुकते है क्यों....... क्योकि हमारे नेता चरित्रहीन और राष्ट्रद्रोही हैं।

अंगेजो ने 250 सालों में भारत से 350 लाख करोड़ की लूट सहित विश्व के अन्य 70 देशो से 1500 लाख करोड़ से अधिक सम्पति लुटी और भारत के 20वें हिस्से की आबादी वाले छोटे से देश में खर्चा किया और आज 2012 में ब्रिटेन पर 456 लाख करोड़ का कर्जा भी हो चला है।

जबकी भारत को पिछले 1000 सालों से मुगलों, जर्मनों, फ्रांसीसी, डच, पुर्तगालियों और अंग्रेजो के साथ हमारे हरामखोर नेताओं और उनके चमचों ने लूटा जो की कम से कम 1000 लाख करोड़ से कम नहीं होता है, इसके बावजूद 65 साल के लुटेरी कांग्रेस के राज में सिर्फ हमारे ऊपर 34 लाख करोड़ का ही कर्जा है यानी हर परिवार के पीछे 1,47,826/- रुँपये का कर्ज है, जिसे हम बड़ी आसानी से बाहर विदेश में जमा कालाधन को वापस लाकर एक दिन में अदा कर सकते हैं। यह काम प्रणव मुखर्जी और सोनिया के चलते नहीं हो पाया, लेकिन कोई राष्ट्रवादी सरकार इसे मात्र 100 दिन में कर सकती है लेकिन विदेशी इशारों पर चलने वाली कांग्रेस के लुटेरे इस देश को दक्षिण कोरिया की तरह अमेरिकियों को बेच देंगे।

कोरिया की सारी की सारी सरकारी कंपनियों पर अमेरिका का कब्ज़ा हो गया है जिसमें अब अमेरिका के ही लोग काम कर रहे है क्योकि सुधार के नाम पर कोरिया के ऊपर इतना कर्जा हो गया था की उसे चुकाने के बजाय सरकार ने उन्हें अमेरिकी कंपनियों को बेच डाला। आज हमारी बिकाऊ मिडिया कोरिया के सुधारों की बात कभी नहीं करती। 34 लाख करोड़ बहुत बड़ी रकम नही है इसे तो भूसंपदा बेचकर भी हम चुका सकते हैं लेकिन ऐसा न हो को यहाँ कर्जा एक दिन इतना हो जाये की भारत सरकार की सभी सम्पतियो पर अमेरिकी हावी हो कर हमें गुलाम न बना ले।

ब्रिटेन और अमेरिका विश्व की लुटी हुई संपत्ति पर निर्मित किये गए है, अमेरिकियों ने 10 करोड़ रेड इंडियंस की हत्या करके अमेरिका पर कब्ज़ा करके नए अमेरिका का निर्माण किया। भारत को ब्रिटेन जैसा बनाने के लिए पूरे विश्वा को 3 बार लुटना होगा......ब्रिटेन प्रति व्यक्ति 241,15,75,562/- रूपये विदेशी लूट के पैसे से विश्व शक्ति बना था, 122 करोड़ की आबादी वाले भारत को ब्रिटेन जैसा बनाने के लिए 30,000 लाख करोड़ की पूँजी चाहिए और यह पूंजी आज के दिन भी भारत में है भू संपदा के रूप में।

अभी भी मौका है हम इस महान देश को बचा सकते है कांग्रेस को खत्म करके
॥ हमें खुदरा बाजार में एफ़डीआई का पुरजोर विरोध करना चाहिए ॥

विमान के आविष्कारक- पण्डित शिवकर बापूजी तलपदे......



राइट्स बंधु को हवाई जहाज के आविष्कार के लिए श्रेय दिया जाता है क्योंकि उन्होंने 17 दिसम्बर 1903 हवाई जहाज उड़ाने का प्रदर्शन किया था। किन्तु बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी है कि उससे
लगभग 8 वर्ष पहले सन् 1895 में संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित शिवकर बापूजी तलपदे ने “मारुतसखा” या “मारुतशक्ति” नामक विमान का सफलतापूर्वक निर्माण कर लिया था 

जो कि पूर्णतः वैदिक तकनीकी पर आधारित था। पुणे केसरी नामक समाचारपत्र के अनुसार श्री तलपदे ने सन् 1895 में एक दिन (दुर्भाग्य से से सही दिनांक की जानकारी नहीं है) बंबई वर्तमान (मुंबई) के चौपाटी समुद्रतट में उपस्थित कई जिज्ञासु व्यक्तियों , जिनमें भारतीय अनेक न्यायविद्/ राष्ट्रवादी सर्वसाधारण जन के साथ ही महादेव गोविंद रानाडे और बड़ौदा के महाराज सायाजी राव गायकवाड़ जैसे विशिष्टजन सम्मिलित थे, के समक्ष अपने द्वारा निर्मित “चालकविहीन” विमान “मारुतशक्ति” के उड़ान का प्रदर्शन किया था। 

वहाँ उपस्थित समस्त जन यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि टेक ऑफ करने के बाद “मारुतशक्ति” आकाश में लगभग 1500 फुट की ऊँचाई पर चक्कर लगाने लगा था। कुछ देर आकाश में चक्कर लगाने के के पश्चात् वह विमान धरती पर गिर पड़ा था।


यहाँ पर यह बताना अनुचित नहीं होगा कि राइट बंधु ने जब पहली बार अपने हवाई जहाज को उड़ाया था तो वह आकाश में मात्र 120 फुट ऊँचाई तक ही जा पाया था जबकि श्री तलपदे का विमान 1500 फुट की ऊँचाई तक पहुँचा था। दुःख की बात तो यह है कि इस घटना के विषय में विश्व की समस्त प्रमुख वैज्ञानिको और वैज्ञानिक संस्थाओं/संगठनों पूरी पूरी जानकारी होने के बावजूद भी आधुनिक हवाई जहाज के प्रथम निर्माण का श्रेय राईट बंधुओं को दिया जाना बदस्तूर जारी है और हमारे देश की सरकार ने कभी भी इस विषय में आवश्यक संशोधन करने/ करवाने के लिए कहीं आवाज नहीं उठाई (हम सदा सन्तोषी और आत्ममुग्ध लोग जो है!)।


कहा तो यह भी जाता है कि संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित एवं वैज्ञानिक तलपदे जी की यह सफलता भारत के तत्कालीन ब्रिटिश शासकों को फूटी आँख भी नहीं सुहाई थी और उन्होंने बड़ोदा के महाराज श्री गायकवाड़, जो कि श्री तलपदे के प्रयोगों के लिए आर्थिक सहायता किया करते थे, पर दबाव डालकर श्री तलपदे के प्रयोगों को अवरोधित कर दिया था। 

महाराज गायकवाड़ की सहायता बन्द हो जाने पर अपने प्रयोगों को जारी रखने के लिए श्री तलपदे एक प्रकार से कर्ज में डूब गए। इसी बीच दुर्भाग्य से उनकी विदुषी पत्नी, जो कि उनके प्रयोगों में उनकी सहायक होने के साथ ही साथ उनकी प्रेरणा भी थीं, का देहावसान हो गया और अन्ततः सन् 1916 या 1917 में श्री तलपदे का भी स्वर्गवास हो गया। बताया जाता है कि श्री तलपदे के स्वर्गवास हो जाने के बाद उनके उत्तराधिकारियों ने कर्ज से मुक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से “मारुतशक्ति” के अवशेष को उसकी तकनीक सहित किसी विदेशी संस्थान को बेच दिया था।


श्री तलपदे का जन्म सन् 1864 में हुआ था। बाल्यकाल से ही उन्हें संस्कृत ग्रंथों, विशेषतः महर्षि भरद्वाज रचित “वैमानिक शास्त्र” (Aeronauti cal Science) में अत्यन्त रुचि रही थी। वे संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। पश्चिम के एक प्रख्यात भारतविद् स्टीफन नैप (Stephen-K napp) श्री तलपदे के प्रयोगों को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते हैं। एक अन्य विद्वान श्री रत्नाकर महाजन ने श्री तलपदे के प्रयोगों पर आधारित एक पुस्तिका भी लिखी हैं।श्री तलपदे का संस्कृत अध्ययन अत्यन्त ही विस्तृत था और उनके विमान सम्बन्धित प्रयोगों के आधार निम्न ग्रंथ थेः
महर्षि भरद्वाज रचित् वृहत् वैमानिक शास्त्र
आचार्य नारायण मुन रचित विमानचन्द् रिका
महर्षि शौनिक रचित विमान यन्त्र
महर्षि गर्ग मुनि रचित यन्त्र कल्प
आचार्य वाचस्पति रचित विमान बिन्दु
महर्षि ढुण्डिराज रचित विमान ज्ञानार्क प्रकाशिका
हमारे प्राचीन ग्रंथ ज्ञान के अथाह सागर हैं किन्तु वे ग्रंथ अब लुप्तप्राय -से हो गए हैं। यदि कुछ ग रंथ कहीं उपलब्ध भी हैं तो उनका किसी प्रकार का उपयोग ही नहीं रह गया है क्योंकि हमारी दूषित शिक्षानीति हमें अपने स्वयं की भाषा एवं संस्कृति को हेय तथा पाश्चात्य भाषा एवं संस्कृति को श्रेष्ठ समझना ही सिखाती है।

वन्दे मातरम... जय हिंद... जय भारत...

29 September 2012

10000 times stronger killer of CANCER than Chemo

File:Annona muricata 1.jpg


"10000 times stronger killer of CANCER than Chemo".. do share it.. can save many lives, fill up hopes and build confidence in the patients...

The Sour Sop or the fruit from the graviola 
(Soursop ) tree is a miraculous natural cancer cell killer 10,000 times stronger than Chemo.Why are we not aware of this? Its because some big corporation want to make back their money spent on years of research by trying to make a synthetic version of it for sale.

So, since you know it now you can help a friend in need by letting him know or just drink some sour sop juice yourself as prevention from time to time. The taste is not bad after all. It’s completely natural and definitely has no side effects. If you have the space, plant one in your garden.
The other parts of the tree are also useful.

The next time you have a fruit juice, ask for a sour sop.

How many people died in vain while this billion-dollar drug maker concealed the secret of the miraculous Graviola tree?

This tree is low and is called graviola ! in Brazi l, guanabana in Spanish and has the uninspiring name “soursop” in English. The fruit is very large and the subacid sweet white pulp is eaten out of hand or, more commonly, used to make fruit drinks, sherbets and such.

The principal interest in this plant is because of its strong anti-cancer effects. Although it is effective for a number of medical conditions, it is its anti tumor effect that is of most interest. This plant is a proven cancer remedy for cancers of all types.

Besides being a cancer remedy, graviola is a broad spectrum antimicrobial agent for both bacterial and fungal infections, is effective against internal parasites and worms, lowers high blood pressure and is used for depression, stress and nervous disorders.

If there ever was a single example that makes it dramatically clear why the existence of Health Sciences Institute is so vital to Americans like you, it’s the incredible story behind the Graviola tree..

The truth is stunningly simple: Deep within the Amazon Rainforest grows a tree that could literally revolutionize what you, your doctor, and the rest of the world thinks about cancer treatment and chances of survival. The future has never looked more promising.

Research shows that with extracts from this miraculous tree it now may be possible to:
* Attack cancer safely and effectively with an all-natural therapy that does not cause extreme nausea, weight loss and hair loss
* Protect your immune system and avoid deadly infections
* Feel stronger and healthier throughout the course of the treatment
* Boost your energy and improve your outlook on life

The source of this information is just as stunning: It comes from one of America ‘s largest drug manufacturers, th! e fruit of over 20 laboratory tests conducted since the 1970's! What those tests revealed was nothing short of mind numbing… Extracts from the tree were shown to:

* Effectively target and kill malignant cells in 12 types of cancer, including colon, breast, prostate, lung and pancreatic cancer..
* The tree compounds proved to be up to 10,000 times stronger in slowing the growth of cancer cells than Adriamycin, a commonly used chemotherapeutic drug!
* What’s more, unlike chemotherapy, the compound extracted from the Graviola tree selectivelyhunts
down and kills only cancer cells.. It does not harm healthy cells!

The amazing anti-cancer properties of the Graviola tree have been extensively researched–so why haven’t you heard anything about it? If Graviola extract is

One of America ‘s biggest billion-dollar drug makers began a search for a cancer cure and their research centered on Graviola, a legendary healing tree from the Amazon Rainforest.

Various parts of the Graviola tree–including the bark, leaves, roots, fruit and fruit-seeds–have been used for centuries by medicine men and native Indi! ans in S outh America to treat heart disease, asthma, liver problems and arthritis. Going on very little documented scientific evidence, the company poured money and resources into testing the tree’s anti-cancerous properties–and were shocked by the results. Graviola proved itself to be a cancer-killing dynamo.
But that’s where the Graviola story nearly ended.

The company had one huge problem with the Graviola tree–it’s completely natural, and so, under federal law, not patentable. There’s no way to make serious profits from it.

It turns out the drug company invested nearly seven years trying to synthesize two of the Graviola tree’s most powerful anti-cancer ingredients. If they could isolate and produce man-made clones of what makes the Graviola so potent, they’d be able to patent it and make their money back. Alas, they hit a brick wall. The original simply could not be replicated. There was no way the company could protect its profits–or even make back the millions it poured into research.

As the dream of huge profits evaporated, their testing on Graviola came to a screeching halt. Even worse, the company shelved the entire project and chose not to publish the findings of its research!

Luckily, however, there was one scientist from the Graviola research team whose conscience wouldn’t let him see such atrocity committed. Risking his career, he contacted a company that’s dedicated to harvesting medical plants from the Amazon Rainforest and blew the whistle.

Miracle unleashed
When researchers at the Health Sciences Institute were alerted to the news of Graviola,! they be gan tracking the research done on the cancer-killing tree. Evidence of the astounding effectiveness of Graviola–and its shocking cover-up–came in fast and furious….

….The National Cancer Institute performed the first scientific research in 1976. The results showed that Graviola’s “leaves and stems were found effective in attacking and destroying malignant cells.” Inexplicably, the results were published in an internal report and never released to the public…

….Since 1976, Graviola has proven to be an immensely potent cancer killer in 20 independent laboratory tests, yet no double-blind clinical trials–the typical benchmark mainstream doctors and journals use to judge a treatment’s value–were ever initiated….

….A study published in the Journal of Natural Products, following a recent study conducted at Catholic University of South Korea stated that one chemical in Graviola was found to selectively kill colon cancer cells at “10,000 times the potency of (the commonly used chemotherapy drug) Adriamycin…”

….The most significant part of the Catholic University of South Korea report is that Graviola was shown to selectively target the cancer cells, leaving healthy cells untouched. Unlike chemotherapy, which indiscriminately targets all actively reproducing cells (such as stomach and hair cells), causing the often devastating side effects of nausea and hair loss in cancer patients.

…A study at Purdue University recently found that leaves from the Graviola tree killed cancer cells among six human cell lines and were especially effective against prostate, pancreatic and lung cancers Seven years of silence broken–it’s finally here!

श्राद्ध: दस सवाल जो आज के युवा पूछना चाहते हैं


1. श्राद्ध क्या है?
श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई। और इसके मूल में उपरोक्त श्लोक की भावना है। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मंत्रों के साथ जो (दान-दक्षिणा आदि) दिया जाए, वही श्राद्ध कहलाता है।

2. श्राद्ध के मुख्य देवता कौन हैं?
वसु, रुद्र तथा आदित्य, ये श्राद्ध के देवता हैं।

3. श्राद्ध किसका किया जाता है? और क्यों?
हर मनुष्य के तीन पूर्वज : पिता, दादा और परदादा क्रमश: वसु, रुद्र और
आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक्त वे ही सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि समङो जाते हैं। समझ जाता है, कि वे श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश करते हैं। और ठीक ढंग से किए श्राद्ध से तृप्त होकर वे अपने वंशधर के सपरिवार सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य का वरदान देते हैं। श्राद्ध के बाद उस दौरान उच्चरित मंत्रों तथा आहुतियों को वे सभी पितरों तक ले जाते हैं।

4. श्राद्ध कितनी तरह के होते हैं?
नित्य, नैमित्तिक और काम्य। नित्य श्राद्ध, श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की तिथि पर, नैमित्तिक किसी विशेष पारिवारिक मौके (जैसे पुत्र जन्म) पर और काम्य विशेष मनौती के लिए कृत्तिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।

5. श्राद्ध कौन-कौन कर सकता है?
आमतौर पर पुत्र ही अपने पूर्वजों का श्राद्ध करते पाए जाते हैं। लेकिन शास्त्रनुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की संपत्ति विरासत में पाई है, उसका स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है। यहाँ तक कि विद्या की विरासत से लाभान्वित होने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र श्राद्ध करते हैं। निस्संतान पत्नी को पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड नहीं दिया जा सकता। किन्तु कम उम्र का ऐसा बच्च, जिसका उपनयन न हुआ हो, पिता को जल देकर नवश्राद्ध कर सकता है। शेष कार्य (पिण्डदान, अग्निहोम) उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।

6. श्राद्ध के लिए उचित और वजिर्त पदार्थ क्या हैं?
श्राद्ध के लिए उचित द्रव्य हैं : तिल, माष, चावल, जाै, जल, मूल (जड़युक्त सब्जी) और फल। तीन चीजें शुद्धि कारक हैं : पुत्री का पुत्र, तिल और नेपाली कम्बल! श्राद्ध करने में तीन बातें प्रशंसनीय हैं : सफाई, क्रोधहीनता और चैन (त्वरा (शीघ्रता) का न होना)। श्राद्ध में अत्यन्त महत्वपूर्ण बातें हैं : अपरान्ह का समय, कुशा, श्राद्धस्थली की स्वच्छता, उदारता से भोजनादि की व्यवस्था और अच्छे ब्राह्मणों की उपस्थिति।
कुछ अन्न और खाद्य पदार्थ जो श्राद्ध में नहीं लगते, इस प्रकार हैं : मसूर, राजमा, कोदों, चना, कपित्थ, अलसी (तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्र जल से बना नमक। भैंस, हरिणी, ऊँटनी, भेड़ और एक खुर वाले पशुओं का दूध भी वजिर्त है। पर भैंस का घी वजिर्त नहीं। श्राद्ध में दूध, दही और घी पितरों के लिए विशेष तुष्टिकारक माने गए हैं।

7. श्राद्ध में कुश तथा तिल का क्या महत्व है?
दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना गया है। माना यह भी जाता है कि कुश और तिल दोनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा-विष्णु-महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। माना गया है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाए, तो दुष्टात्माएँ हवि उठा ले जाती हैं।

8. दरिद्र व्यक्ति श्राद्ध कम खर्चे में कैसे करे?
विष्णु पुराण के अनुसार दरिद्र लोग केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा, वह भी न हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को दे दें। या किसी गाय को दिनभर घास खिला दें। अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और सूर्य से याचना करें कि मैंने हाथ वायु में फैला दिए हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों।

9. पिण्ड क्या हैं? उनका अर्थ क्या है?
श्राद्ध के दौरान पके हुए चावल दूध और तिल मिश्रित जो पिण्ड बनाते हैं, उसे सपिण्डीकरण कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है, कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित गुणसूत्र मौजूद होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा और परदादा तथा पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलाकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन-जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। इस पिण्ड को गाय-कौओं को देने से पहले पिण्डदान करने वाला सूँघता भी है। अपने यहां सूँघना यानी आधा भोजन करना माना गया है। इस तरह श्राद्ध करने वाला पिण्डदान के पहले अपने पितरों की उपस्थिति को खुद अपने भीतर भी ग्रहण करता है।

10. इस पूरे अनुष्ठान का अर्थ क्या है?
अपने दिवंगत बुजुर्गो को हम दो तरह से याद करते हैं : स्थूल शरीर के रूप में और भावनात्मक रूप से! स्थूल शरीर तो मरने के बाद अग्नि या जलप्रवाह को भेंट कर देते हैं, इसलिए श्राद्ध करते समय हम पितरों की स्मृति उनके ‘भावना शरीर’ की पूजा करते हैं ताकि वे तृप्त हों, और हमें सपरिवार अपना स्नेहपूर्ण आशीर्वाद दें।

श्राद्ध में शंका करने का परिणाम व श्रद्धा करने से लाभ


बृहस्पति कहते हैं- "श्राद्धविषयक चर्चा एवं उसकी विधियों को सुनकर जो मनुष्य दोषदृष्टि से देखकर उनमें अश्रद्धा करता है वह नास्तिक चारों ओर अंधकार से घिरकर घोर नरक में गिरता है। योग से जो दवेष करने वाले हैं वे समुद्र में ढोला बनकर तब तक निवास करते हैं जब तक इस पृथ्वी की अवस्थिति रहती है। भूल से भी योगियों की निन्दा तो करनी ही नहीं चाहिए क्योंकि योगियों की निन्दा करने से वहीं कृमि होकर जन्म धारण करना पड़ता है। योगपरायण योगेश्वरों की निन्दा करने से मनुष्य चारों ओर अंधकार से आच्छन्न, निश्चय ही अतयंत घोर दिखाई पड़ने वाले नरक में जाता है। आत्मा को वश में रखने वाले योगेश्वरों की निन्दा जो मनुष्य सुनता है वह चिरकालपर्यंत कुम्भीपाक नरक में निवास करता है इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। योगियों के प्रति द्वेष की भावना मनसा, वाचा, कर्मणा सर्वथा वर्जित है।

जिस प्रकार चारागाह में सैंकड़ों गौओं में छिपी हुई अपनी माँ को बछड़ा ढूँढ लेता है उसी प्रकार श्राद्धकर्म में दिए गये पदार्थ को मंत्र वहाँ पर पहुँचा देता है जहाँ लक्षित जीव अवस्थित रहता है। पितरों के नाम, गोत्र और मंत्र श्राद्ध में दिये गये अन्न को उसके पास ले जाते हैं, चाहे वे सैंकड़ों योनियों में क्यों न गये हों। श्राद्ध के अन्नादि से उनकी तृप्ति होती है। परमेष्ठी ब्रह्मा ने इसी प्रकार के श्राद्ध की मर्यादा स्थिर की है।"

जो मनुष्य इस श्राद्ध के माहात्म्य को नित्य श्रद्धाभाव से, क्रोध को वश में रख, लोभ आदि से रहित होकर श्रवण करता है वह अनंत कालपर्यंत स्वर्ग भोगता है। समस्त तीर्थों एवं दानों को फलों को वह प्राप्त करता है। स्वर्गप्राप्ति के लिए इससे बढ़कर श्रेष्ठ उपाय कोई दूसरा नहीं है। आलस्यरहित होकर पर्वसंधियों में जो मनुष्य इस श्राद्ध-विधि का पाठ सावधानीपूर्वक करता है वह मनुष्य परम तेजस्वी संततिवान होता और देवताओं के समान उसे पवित्रलोक की प्राप्ति होती है। जिन अजन्मा भगवान स्वयंभू (ब्रह्मा) ने श्राद्ध की पुनीत विधि बतलाई है उन्हे हम नमस्कार करते हैं ! महान् योगेश्वरों के चरणों में हम सर्वदा प्रणाम करते हैं !

जीवात्मा का अगला जीवन पिछले संस्कारों से बनता है। अतः श्राद्ध करके यह भावना भी की जाती है कि उनका अगला जीवन अच्छा हो। वे भी हमारे वर्त्तमान जीवन की अड़चनों को दूर करने की प्रेरणा देते हैं और हमारी भलाई करते हैं।

आप जिससे भी बात करते हैं उससे यदि आप प्रेम से नम्रता से और उसके हित की बात करते हैं तो वह भी आपके साथ प्रेम से और आपके हित की बात करेगा। यदि आप सामने वाले से काम करवाकर फिर उसकी ओर देखते तक नहीं तो वह भी आपकी ओर नहीं देखेगा या आप से रुष्ट हो जायेगा। Every action creates reaction.

किसी के घर में ऐरे गैरे या लूले लँगड़े या माँ-बाप को दुःख देने वाले बेटे पैदा होते हैं तो उसका कारण भी यही बताया जाता है कि जिन्होंने पितरों को तृप्त नहीं किया है, पितरों का पूजन नहीं किया, अपने माँ-बाप को तृप्त नहीं किया उनके बच्चे भी उनको तृप्त करने वाले नहीं होते।

श्री अरविन्दघोष जब जेल में थे तब उन्होंने लिखा थाः "मुझे स्वामी विवेकानन्द की आत्मा द्वारा प्रेरणा मिलती है और मैं 15 दिन तक महसूस करता रहा हूँ कि स्वामी विवेकानन्द की आत्मा मुझे सूक्ष्म जगत की साधना का मार्गदर्शन देती रही है।" (अनुक्रम)

जब उन्होंने परलोकगमन वालों की साधना की तब उन्होंने महसूस किया कि रामकृष्ण परमहंस का अंतवाहक शरीर (उनकी आत्मा) भी उन्हें सहयोग देता था।

अब यहाँ एक संदेह हो सकता है कि श्री रामकृष्ण परमहंस को तो परमात्म-तत्त्व का साक्षात्कार हो गया था, वे तो मुक्त हो गये थे। वे अभी पितर लोक में तो नहीं होंगे। फिर उनके द्वारा प्रेऱणा कैसे मिली?

'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में श्री वशिष्ठजी कहते हैं-

"ज्ञानी जब शरीर में होते हैं तब जीवन्मुक्त होते हैं और जब उनका शरीर छूटता है तब वे विदेहमुक्त होते हैं। फिर वे ज्ञानी व्यापक ब्रह्म हो जाते हैं। वे सूर्य होकर तपते हैं, चंद्रमा होकर चमकते हैं, ब्रह्माजी होकर सृष्टि उत्पन्न करते हैं, विष्णु होकर सृष्टि का पालन करते हैं और शिव होकर संहार करते हैं।

जब सूर्य एवं चंद्रमा में ज्ञानी व्याप जाते हैं तब अपने रास्ते जाने वाले को वे प्रेरणा दे दें यह उनके लिए असंभव नहीं है।

मेरे गुरुदेव तो व्यापक ब्रह्म हो गये लेकिन मैं अपने गुरुदेव से जब भी बात करना चाहता हूँ तो देर नहीं लगती। अथवा तो ऐसा कह सकते हैं कि अपना शुद्ध संवित ही गुरुरूप में पितृरूप में प्रेरणा दे देता है।

कुछ भी हो श्रद्धा से किए हुए पिण्डदान आदि कर्त्ता को मदद करते हैं। श्राद्ध का एक विशेष लाभ यह है कि 'मरने का बाद भी जीव का अस्तित्व रहता है....' इस बात की स्मृति बनी रहती है। दूसरा लाभ यह है कि इसमें अपनी संपत्ति का सामाजिकरण होता है। गरीब-गुरबे, कुटुम्बियों आदि को भोजन मिलता है। अन्य भोज-समारोहों में रजो-तमोगुण होता है जबकि श्राद्ध हेतु दिया गया भोजन धार्मिक भावना को बढ़ाता है और परलोक संबंधी ज्ञान एवं भक्तिभाव को विकसित करता है।

हिन्दुओं में जब पत्नी संसार से जाती है तब पति को हाथ जोड़कर कहती हैः "मेरे से कुछ अपराध हो गया हो तो क्षमा करना और मेरी सदगति के लिए आप प्रार्थना करना.... प्रयत्न करना।" अगर पति जाता है तो हाथ जोड़ते हुए कहता हैः "जाने अनजाने में तेरे साथ मैंने कभी कठोर व्यवहार किया हो तो तू मुझे क्षमा कर देना और मेरी सदगति के लिए प्रार्थना करना.... प्रयत्न करना।"

हम एक-दूसरे की सदगति के लिए जीते-जी भी सोचते हैं और मरणकाल का भी सोचते हैं, मृत्यु के बाद का भी सोचते हैं।

श्राद्ध करने का अधिकारी कौन?


वर्णसंकर के हाथ का दिया हुआ पिण्डदान और श्राद्ध पितर स्वीकार नहीं करते और वर्णसंकर संतान से पितर तृप्त नहीं होते वरन् दुःखी और अशांत होते हैं। अतः उसके कुल में भी दुःख, अशांति और तनाव बना रहता है।

श्रीमदभगवदगी

ता के प्रथम अध्याय के 42वें श्लोक में आया हैः

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।

वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने वाला ही होता है। श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इन (कुलघातियों) के पितर भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।

वर्णसंकरः एक जाति के पिता एवं दूसरी जाति की माता से उत्पन्न संतान को वर्णसंकर कहते हैं।

महाभारत के अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में आता हैः

अर्थाल्लोभाद्रा कामाद्रा वर्णानां चाप्यनिश्चयात्।

अज्ञानाद्वापि वर्णानां जायते वर्णसंकरः।।

तेषामेतेन विधिना जातानां वर्णसंकरे।

धन पाकर या धन के लोभ में आकर अथवा कामना के वशीभूत होकर जब उच्च वर्ण की स्त्री नीच वर्ण के पुरुष के साथ संबंध स्थापित कर लेती है तब वर्णसंकर संतान उत्पन्न होती है। वर्ण का निश्चय अथवा ज्ञान न होने से भी वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है।

महाभारतः दानधर्म पर्वः 48.1.2

श्राद्धकाल में शरीर, द्रव्य, स्त्री, भूमि, मन, मंत्र और ब्राह्मण ये सात चीज़ें विशेष शुद्ध होनी चाहिए। श्राद्ध में तीन बातों को ध्यान रखना चाहिए। शुद्धि, अक्रोध और अत्वरा यानी जल्दबाजी नहीं।

श्राद्ध में कृषि और वाणिज्य का धन उत्तम, उपकार के बदले दिया गया धन मध्यम और ब्याज एवं छल कपट से कमाया गया धन अधम माना जाता है। उत्तम धन से देवता और पितरों की तृप्ति होती है, वे प्रसन्न होते हैं। मध्यम धन से मध्यम प्रसन्नता होती है और अधम धन से छोटी योनि (चाण्डाल आदि योनि) में जो अपने पितर हैं उनको तृप्ति मिलती है। श्राद्ध में जो अन्न इधर उधर छोड़ा जाता है उससे पशु योनि एवं इतर योनि में भटकते हुए हमारे कुल के लोगों को तृप्ति मिलती है, ऐसा कहा गया है।

श्राद्ध के दिन भगवदगीता के सातवें अध्याय का माहात्मय पढ़कर फिर पूरे अध्याय का पाठ करना चाहिए एवं उसका फल मृतक आत्मा को अर्पण करना चाहिए।

पढ़ाई में मन की एकाग्रता हेतु सरल, चमत्कारी टिप्स



अपने अध्ययन कक्ष में मां सरस्वती का छोटा सा चित्र लगाएं व पढ़ने के लिए बैठने से पूर्व उसके समक्ष कपूर का दीपक जलाएं अथवा तीन अगरबत्ती हाथ जोड़ कर जलाएं, प्रार्थना करें व पढ़ाई शुरू करें।

एक थाली में केसर में गंगाजल मिलाकर बनी स्याही से स्वास्तिक चिह्न बनाएं। उस पर नैवेद्य चढ़ाएं। सामने शुद्ध घी का दीपक जला कर रखें। ऊपर वर्णित किसी स्तोत्र (संस्कृत अथवा हिंदी) से मां सरस्वती की स्तुति करें। इसके बाद थाली में जल मिलाकर गिलास में डालकर पी लें। ऐसा करने से शिक्षा के क्षेत्र में पूर्ण उन्नति होती है।

अध्ययन कक्ष के द्वार के बाहर अधिक प्रकाश देने वाला बल्ब लगाएं उसे शाम होते ही जल दें।

विद्यार्थी अपनी मेज पर ग्लोब रखें और दिन में तीन बार उसे घुमाएं।

परीक्षाओं से पांच दिन पूर्व से बच्चों को मीठा दही नियमित रूप से दें। उसमें समय परिवर्तन करें। यदि एक दिन सुबह 8 बजे दही दिया है तो अगले दिन 9 बजे, उसके अगले दिन 10 बजे, उसके अगले दिन 11 बजे दें। इस क्रिया को दोहराते रहें और प्रतिदिन एक घंटा बढ़ाते रहें।


पढ़ते समय विद्यार्थी का मुंह पूर्व अथवा उत्तर दिशा में होना चाहिए। पश्चिम की ठोस दीवार की ओर पीठ करके बैठना चाहिए।

कंप्यूटर आग्नेय कोण में (दक्षिण-पूर्व) तथा पुस्तकों की अल्मारी नैर्ऋ्रत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में रखें। अल्मारी खुली न रखें। उस पर दरवाजा न हो तो परदा अवश्य लगाएं।

एक क्रिस्टल बाल अथवा क्रिस्टल का श्रीयंत्र लाकर अपने अध्ययन कक्ष में रख लें। यह नकारात्मक ऊर्जा को सोख लेता है।

विद्यार्थी सुबह उठते ही ‘‘¬ ऐं ह्रीं सरस्वत्यै नमः’’ का 21 बार जाप करें।

जो बच्चे पढ़ते समय शीघ्र सोने लगते हैं, अथवा मन भटकने के कारण अध्ययन नहीं कर पाते उनके अध्ययन कक्ष में हरे रंग के परदे लगाएं।


जिन बच्चों की स्मरण शक्ति कमजोर हो, उन्हें तुलसी के 11 पत्तों का रस मिश्री के साथ नियमित रूप से दें।

मंदिर में घंटी बजाने का महत्व


हिंदू धर्म से जुड़े प्रत्येक मंदिर और धार्मिक स्थलों के बाहर आप सभी ने बड़े-बड़े घंटे या घंटियां लटकी तो अवश्य देखी होंगी जिन्हें मंदिर में प्रवेश करने से पहले भक्त श्रद्धा के साथबजाते हैं. लेकिन क्या कभी आपने यहसोचा है कि इन घंटियों को मंदिरके बाहर लगाए जाने के पीछे क्या कारण है या फिर धार्मिक दृष्टिकोण से इनका औचित्य क्या है?
असल में प्राचीन समय से ही देवालयों और मंदिरों के बाहर इन घंटियों को लगाया जाने की शुरुआत हो गई थी. इसके पीछे यह मान्यता हैकि जिन स्थानों पर घंटी की आवाज नियमित तौर पर आती रहती है वहां का वातावरण हमेशा सुखद और पवित्र बना रहता है और नकारात्मक या बुरीशक्तियां पूरी तरह निष्क्रिय रहती हैं.

यही वजह है कि सुबह और शाम जब भी मंदिरमें पूजा या आरती होती है तोएक लय और विशेष धुन के साथ घंटियां बजाई जाती हैं जिससे वहां मौजूद लोगों को शांति और दैवीय उपस्थिति की अनुभूति होती है.
लोगों का मानना है कि घंटी बजाने से मंदिर में स्थापित देवी-देवताओं की मूर्तियों में चेतना जागृत होती है जिसके बाद उनकी पूजा और आराधना अधिक फलदायक और प्रभावशाली बन जाती है.

पुराणों के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से मानव के कई जन्मों के पाप तक नष्ट हो जाते हैं. जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद (आवाज) गूंजी थीवही आवाज घंटी बजाने पर भी आती है. उल्लेखनीय है कि यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जागृत होता है.

मंदिर के बाहर लगी घंटी या घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है. कहीं-कहीं यह भी लिखित है कि जब प्रलय आएगा उस समय भी ऐसा ही नाद गूंजेगा. मंदिर में घंटी लगाए जाने के पीछेना सिर्फ धार्मिक कारण है बल्कि वैज्ञानिक कारण भी इनकी आवाज को आधार देते हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि जब घंटी बजाई जाती है तो वातावरण में कंपन पैदा होता है, जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है. इस कंपन का फायदा यह है कि इसके क्षेत्र में आने वाले सभी जीवाणु, विषाणु और सूक्ष्म जीव आदि नष्ट हो जाते हैं, जिससे आसपासका वातावरण शुद्ध हो जाता है.

इसीलिए अगर आप मंदिर जाते समय घंटी बजाने को अहमियत नहीं देते हैं तो अगली बार प्रवेश करने से पहले घंटी बजाना ना भूलें.


श्राद्ध में पिण्डदान !!!


हमारे जो सम्बन्धी देव हो गये हैं, जिनको दूसरा शरीर नहीं मिला है वे पितृलोक में अथवा इधर उधर विचरण करते हैं, उनके लिए पिण्डदान किया जाता है।

बच्चों एवं सन्यासियों के लिए पिण्डदान नहीं किया जाता। पिण्डदान उन्हीं का होता है जिनको मैं-मेरे की आसक्ति होती है। बच्चों की मैं-मेरे की स्मृति और आसक्ति विकसित नहीं होती और सन्यास ले लेने पर शरीर को मैं मानने की स्मृति सन्यासी को हटा देनी होती है। शरीर में उनकी आसक्ति नहीं होती इसलिए उनके लिए पिण्डदान नहीं किया जाता।


श्राद्ध में बाह्य रूप से जो चावल का पिण्ड बनाया जाता, केवल उतना बाह्य कर्मकाण्ड नहीं है वरन् पिण्डदान के पीछे तात्त्विक ज्ञान भी छुपा है।

जो शरीर में नहीं रहे हैं, पिण्ड में हैं, उनका भी नौ तत्त्वों का पिण्ड रहता हैः चार अन्तःकरण और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। उनका स्थूल पिण्ड नहीं रहता है वरन् वायुमय पिण्ड रहता है। वे अपनी आकृति दिखा सकते हैं किन्तु आप उन्हे छू नहीं सकते । दूर से ही वे आपकी दी हुई चीज़ को भावनात्मक रूप से ग्रहण करते हैं। दूर से ही वे आपको प्रेरणा आदि देते हैं अथवा कोई कोई स्वप्न में भी मार्गदर्शन देते हैं।

अगर पितरों के लिए किया गया पिण्डदान एवं श्राद्धकर्म व्यर्थ होता तो वे मृतक पितर स्वप्न में यह नहीं कहते किः हम दुःखी हैं। हमारे लिए पिण्डदान करो ताकि हमारी पिण्ड की आसक्ति छूटे और हमारी आगे की यात्रा हो... हमें दूसरा शरीर, दूसरा पिण्ड मिल सके।

श्राद्ध इसीलिए किया जाता है कि पितर मंत्र एवं श्रद्धापूर्वक किये गये श्राद्ध की वस्तुओं को भावनात्मक रूप से ले लेते हैं और वे तृप्त भी होते हैं।

28 September 2012

महाराजा अग्रसेन जयंती की हार्दिक शुभकामनाए ::

Photo: महाराजा अग्रसेन जयंती की हार्दिक शुभकामनाए::

महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे। धार्मिक मान्यतानुसार इनका जन्म मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम की चौंतीसवी पीढ़ी में सूर्यवशीं क्षत्रिय कुल के महाराजा वल्लभ सेन के घर में द्वापर के अन्
तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में हुआ था। वर्तमान के अनुसार उनका जन्म आज से करीब 5185 साल पहले हुआ था।
• महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखायः कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेगें।

उनके राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि, सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे।
महाराजा अग्रसेन जी का जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ, जिसे अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व प्रताप नगर के राजा वल्लभ के यहाँ सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ था। वर्तमान में राजस्थान व हरियाणा राज्य के बीच सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर स्थित था। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ॠषि ने महाराज वल्लभ से कहा था, कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा। इस के राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हज़ारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा।
माधवी का वरण
महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहाँ आयोजित स्वंयवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया इस स्वंयवर में देव लोक से राजा इंद्र भी राजकुमारी माधवी से विवाह की इच्छा से उपस्थित थे परन्तु माधवी द्वारा श्री अग्रसेन का वरण करने से इंद्र कुपित होकर स्वंयवर स्थल से चले गये इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ।
तपस्या
कुपित इंद्र ने अपने अनुचरो से प्रताप नगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दिया जिससे भयंकर आकाल पड़ा। चारों तरफ त्राहि त्राहि मच गई तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शस्त्रों का संधान कर इन्द्र से युद्ध कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं था। तब अग्रसेन ने भगवान शंकर एवं महालक्ष्मी माता की अराधना की, इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएँ उत्पन्न कीं परन्तु श्री अग्रसेन की अविचल तपस्या से महालक्ष्मी प्रकट हुई एवं वरदान दिया कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा। माता को अग्रसेन ने इन्द्र की समस्या से अवगत कराया तो महालक्ष्मी ने कहा, इन्द्र को अनुभव प्राप्त है। आर्य एवं नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसे दुखी कर दिया है, तुम्हें कूटनीति अपनानी होगी। कोलापुर के राजा भी नागवंशी है, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो कोलापुर नरेश महीरथ की शक्तियाँ तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, तब इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पडेगा। तुम निडर होकर अपने नये राज्य की स्थापना करो।
अग्रोहा का निर्माण
महाराजा वल्लभ के निधन के बाद श्री अग्रसेन राजा हुए और राजा वल्लभ के आशीर्वाद से लोहागढ़ सीमा से निकल कर अग्रसेन ने सरस्वती और यमुना नदी के बीच एक वीर भूमि खोजकर वहाँ अपने नए राज्य अग्रोहा का निर्माण किया और अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है।
अठारह यज्ञ
माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 पुत्र के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। माना जाता है कि यज्ञों में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई । यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ॠषि बने, राजकुमार विभु को दीक्षित कर उन्हें गर्ग गोत्र से मंत्रित किया। इसी प्रकार दूसरा यज्ञ गोभिल ॠषि ने करवाया और द्वितीय पुत्र को गोयल गोत्र दिया। तीसरा यज्ञ गौतम ॠषि ने गोइन गोत्र धारण करवाया, चौथे में वत्स ॠषि ने बंसल गोत्र, पाँचवे में कौशिक ॠषि ने कंसल गोत्र, छठे शांडिल्य ॠषि ने सिंघल गोत्र, सातवे में मंगल ॠषि ने मंगल गोत्र, आठवें में जैमिन ने जिंदल गोत्र, नवें में तांड्य ॠषि ने तिंगल गोत्र, दसवें में और्व ॠषि ने ऐरन गोत्र, ग्यारवें में धौम्य ॠषि ने धारण गोत्र, बारहवें में मुदगल ॠषि ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में वसिष्ठ ॠषि ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में मैत्रेय ॠषि ने मित्तल गोत्र, पंद्रहवें कश्यप ॠषि ने कुच्छल गोत्र दिया। 17 यज्ञ पूर्ण हो चुके थे। जिस समय 18 वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न माँस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा। इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने क्षत्रिय धर्म को अपना लिया। अठारवें यज्ञ में नगेन्द्र ॠषि द्वारा नांगल गोत्र से अभिमंत्रित किया।
ॠषियों द्वारा प्रदत्त अठारह गोत्रों को महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों के साथ महाराजा द्वारा बसायी 18 बस्तियों के निवासियों ने भी धारण कर लिया एक बस्ती के साथ प्रेम भाव बनाये रखने के लिए एक सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि अपने पुत्र और पुत्री का विवाह अपनी बस्ती में नहीं दूसरी बस्ती में करेंगे। आगे चलकर यह व्यवस्था गोत्रों में बदल गई जो आज भी अग्रवाल समाज में प्रचलित है।
अठारह गोत्र
महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र हुए, जिनके नाम पर वर्तमान में अग्रवालों के 18 गोत्र हैं। ये गोत्र निम्नलिखित हैं: -
गोत्रों के नाम
ऐरन बंसल बिंदल भंदल धारण गर्ग गोयल गोयन जिंदल
कंसल कुच्छल मधुकुल मंगल मित्तल नागल सिंघल तायल तिंगल

महाराज ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर अपने 18 पुत्रों को सौंप उनके 18 गुरुओं के नाम पर 18 गोत्रों की स्थापना की थी। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे। इसी कारण अग्रोहा भी सर्वंगिण उन्नति कर सका। राज्य के उन्हीं 18 गणों से एक-एक प्रतिनिधि लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, जिसका स्वरूप आज भी हमें भारतीय लोकतंत्र के रूप में दिखाई पडता है।

उन्होंने परिश्रम और उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसका समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर आत्म-रक्षा के लिए शस्त्रों के उपयोग की शिक्षा पर भी बल दिया।
उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोडे को बहुत बेचैन और डरा हुआ पा उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के ना चाहने पर भी पशू बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवाल समाज हिंसा से दूर ही रहता है। अपनी जिंदगी के अंतिम समय में महाराज ने अपने ज्येष्ट पुत्र विभू को सारी जिम्मेदारी सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम अपना लिया।

महाराज अग्रसेन के राज की वैभवता से उनके पडोसी राजा बहुत जलते थे। इसलिए वे बार-बार अग्रोहा पर आक्रमण करते रहते थे। बार-बार मुंहकी खाने के बावजूद उनके कारण राज्य में तनाव बना ही रहता था। इन युद्धों के कारण अग्रसेनजी के प्रजा की भलाई के कामों में विघ्न पडता रहता था। लोग भी भयभीत और रोज-रोज की लडाई से त्रस्त हो गये थे। इसी के साथ-साथ एक बार अग्रोहा में बडी भीषण आग लगी। उस पर किसी भी तरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गये और जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे। पर उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोडी। वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगे हुए हैं।

महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे। धार्मिक मान्यतानुसार इनका जन्म मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम की चौंतीसवी पीढ़ी में सूर्यवशीं क्षत्रिय कुल के महाराजा वल्लभ सेन के घर में द्वापर के अन्तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में हुआ था। 

वर्तमान के अनुसार उनका जन्म आज से करीब 5185 साल पहले हुआ था।


• महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखायः कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेगें।

उनके राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि, सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे।


महाराजा अग्रसेन जी का जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ, जिसे अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व प्रताप नगर के राजा वल्लभ के यहाँ सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ था। वर्तमान में राजस्थान व हरियाणा राज्य के बीच सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर स्थित था। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ॠषि ने महाराज वल्लभ से कहा था, कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा। इस के राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हज़ारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा।
माधवी का वरण महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहाँ आयोजित स्वंयवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया इस स्वंयवर में देव लोक से राजा इंद्र भी राजकुमारी माधवी से विवाह की इच्छा से उपस्थित थे परन्तु माधवी द्वारा श्री अग्रसेन का वरण करने से इंद्र कुपित होकर स्वंयवर स्थल से चले गये इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ। तपस्या कुपित इंद्र ने अपने अनुचरो से प्रताप नगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दिया जिससे भयंकर आकाल पड़ा। चारों तरफ त्राहि त्राहि मच गई तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शस्त्रों का संधान कर इन्द्र से युद्ध कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं था। तब अग्रसेन ने भगवान शंकर एवं महालक्ष्मी माता की अराधना की, इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएँ उत्पन्न कीं परन्तु श्री अग्रसेन की अविचल तपस्या से महालक्ष्मी प्रकट हुई एवं वरदान दिया कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा। माता को अग्रसेन ने इन्द्र की समस्या से अवगत कराया तो महालक्ष्मी ने कहा, इन्द्र को अनुभव प्राप्त है। आर्य एवं नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसे दुखी कर दिया है, तुम्हें कूटनीति अपनानी होगी। कोलापुर के राजा भी नागवंशी है, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो कोलापुर नरेश महीरथ की शक्तियाँ तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, तब इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पडेगा। तुम निडर होकर अपने नये राज्य की स्थापना करो।


अग्रोहा का निर्माण महाराजा वल्लभ के निधन के बाद श्री अग्रसेन राजा हुए और राजा वल्लभ के आशीर्वाद से लोहागढ़ सीमा से निकल कर अग्रसेन ने सरस्वती और यमुना नदी के बीच एक वीर भूमि खोजकर वहाँ अपने नए राज्य अग्रोहा का निर्माण किया और अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है।

अठारह यज्ञ

माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 पुत्र के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। माना जाता है कि यज्ञों में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई । यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ॠषि बने, राजकुमार विभु को दीक्षित कर उन्हें गर्ग गोत्र से मंत्रित किया। इसी प्रकार दूसरा यज्ञ गोभिल ॠषि ने करवाया और द्वितीय पुत्र को गोयल गोत्र दिया। तीसरा यज्ञ गौतम ॠषि ने गोइन गोत्र धारण करवाया, चौथे में वत्स ॠषि ने बंसल गोत्र, पाँचवे में कौशिक ॠषि ने कंसल गोत्र, छठे शांडिल्य ॠषि ने सिंघल गोत्र, सातवे में मंगल ॠषि ने मंगल गोत्र, आठवें में जैमिन ने जिंदल गोत्र, नवें में तांड्य ॠषि ने तिंगल गोत्र, दसवें में और्व ॠषि ने ऐरन गोत्र, ग्यारवें में धौम्य ॠषि ने धारण गोत्र, बारहवें में मुदगल ॠषि ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में वसिष्ठ ॠषि ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में मैत्रेय ॠषि ने मित्तल गोत्र, पंद्रहवें कश्यप ॠषि ने कुच्छल गोत्र दिया। 17 यज्ञ पूर्ण हो चुके थे। जिस समय 18 वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न माँस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा। इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने क्षत्रिय धर्म को अपना लिया। अठारवें यज्ञ में नगेन्द्र ॠषि द्वारा नांगल गोत्र से अभिमंत्रित किया।
ॠषियों द्वारा प्रदत्त अठारह गोत्रों को महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों के साथ महाराजा द्वारा बसायी 18 बस्तियों के निवासियों ने भी धारण कर लिया एक बस्ती के साथ प्रेम भाव बनाये रखने के लिए एक सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि अपने पुत्र और पुत्री का विवाह अपनी बस्ती में नहीं दूसरी बस्ती में करेंगे। आगे चलकर यह व्यवस्था गोत्रों में बदल गई जो आज भी अग्रवाल समाज में प्रचलित है।

अठारह गोत्र

महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र हुए, जिनके नाम पर वर्तमान में अग्रवालों के 18 गोत्र हैं। ये गोत्र निम्नलिखित हैं: -
गोत्रों के नाम 

  1. ऐरन 
  2. बंसल 
  3. बिंदल 
  4. भंदल 
  5. धारण 
  6. गर्ग 
  7. गोयल 
  8. गोयन 
  9. जिंदल
  10. कंसल 
  11. कुच्छल 
  12. मधुकुल 
  13. मंगल 
  14. मित्तल 
  15. नागल 
  16. सिंघल 
  17. तायल 
  18. तिंगल

महाराज ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर अपने 18 पुत्रों को सौंप उनके 18 गुरुओं के नाम पर 18 गोत्रों की स्थापना की थी। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे। इसी कारण अग्रोहा भी सर्वंगिण उन्नति कर सका। राज्य के उन्हीं 18 गणों से एक-एक प्रतिनिधि लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, जिसका स्वरूप आज भी हमें भारतीय लोकतंत्र के रूप में दिखाई पडता है।

उन्होंने परिश्रम और उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसका समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर आत्म-रक्षा के लिए शस्त्रों के उपयोग की शिक्षा पर भी बल दिया।

उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोडे को बहुत बेचैन और डरा हुआ पा उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के ना चाहने पर भी पशू बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवाल समाज हिंसा से दूर ही रहता है। अपनी जिंदगी के अंतिम समय में महाराज ने अपने ज्येष्ट पुत्र विभू को सारी जिम्मेदारी सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम अपना लिया।

महाराज अग्रसेन के राज की वैभवता से उनके पडोसी राजा बहुत जलते थे। इसलिए वे बार-बार अग्रोहा पर आक्रमण करते रहते थे। बार-बार मुंहकी खाने के बावजूद उनके कारण राज्य में तनाव बना ही रहता था। इन युद्धों के कारण अग्रसेनजी के प्रजा की भलाई के कामों में विघ्न पडता रहता था। लोग भी भयभीत और रोज-रोज की लडाई से त्रस्त हो गये थे। इसी के साथ-साथ एक बार अग्रोहा में बडी भीषण आग लगी। उस पर किसी भी तरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गये और जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे। पर उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोडी। वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगे हुए हैं।

बेटी के घर का अन्न-जल माँ-बाप को क्यूँ नहीं ग्रहण करना चाहिए !


अक्सर हम ये सुनते हैं की हमारे शास्त्रों में कहा गया है की शादी के बाद अपनी बेटी के घर (ससुराल) जाकर कुछ नहीं खाना चाहिए . यहाँ तक की बेटी के घर का पानी भी नहीं पीना चाहिए. उसका कारण ये है की माँ-बाप ने अपनी कन्या का दान कर दिया है और दान की हुई किसी भी वास्तु पर दाता का कोई अधिकार नहीं होता है. 

जब तक बेटी की कोई संतान न पैदा हो तब तक
उसके घर का अन्न-जल नहीं लेना चाहिए. जब बेटी के घर संतान पैदा हो जाये तो ये पाबन्दी नहीं होती है. इसका कारण ये है की उनके दामाद ने अपने पित्रऋण से मुक्त होने के लिए उनकी बेटी को स्वीकार किया है. उससे संतान होने पर दामाद पित्रऋण से मुक्त हो जाता है और बेटी पर माँ--बाप का अधिकार हो जाता है. तभी तो दैहित्र या दोता अपने नाना-नानी का श्राद तर्पण करता है और परलोक में नाना-नानी अपने दोते का किया हुआ श्राद-तर्पण, पिंड-पानी स्वीकार भी करते हैं. अगर बेटी के घर पुत्र नहीं होकर पुत्री भी पैदा होती है तो भी दामाद पर से पित्रऋण का भार समाप्त हो जाता है. बेटी की संतान पुत्र हो या पुत्री उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. एक बार संतान होने के बाद बेटी के घर का अन्न-जल ग्रहण करने में कोई मनाही नहीं है.

!! कपिल मुनि का सच !!


भागवत पुराण के अनुसार कपिल के माता पिता कर्दम ऋषि और देवहुति थे । जब कर्दम ऋषि ने संन्यास लेकर गृह त्याग कर दिया तब कपिल जी ने अपनी माता को योग के ज्ञान का उपदेश दिया था जिससे उनकी मुक्ति हो गयी। कपिल ऋषि के वंशज आज भी पंजाब में पाए जा सकते हैं। कपिल जी के सांख्य योग को भगवन कृष्ण ने उद्धव को दिया था,
उद्धव गीता में ।

कपिल जी के बारे में भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं ..... 

''सिद्धों में मैं कपिल हूँ । ''

ऋषि कपिल का गंगा के पृथ्वी पर आगमन से सीधा सम्बन्ध है। राजा सगर ने अपने साम्राज्य की समृद्धि के लिए एक अनुष्ठान करवाया । एक अश्व उस अनुष्ठान का एक अभिन्न हिस्सा था जिसे इंद्र ने ईर्ष्यावश चुरा लिया। सगर ने उस अश्व की खोज के लिए अपने सभी पुत्रों को पृथ्वी के चारों तरफ भेज दिया। उन्हें वह ध्यानमग्न कपिल ऋषि के निकट मिला, यह मानते हुए कि उस अश्व को कपिल ऋषि द्वारा ही चुराया गया है, 

वे उनका अपमान करने लगे और उनकी तपस्या को भंग कर दिया। ऋषि ने कई वर्षों में पहली बार अपने नेत्रों को खोला और सगर के बेटों को देखा, इस दृष्टिपात से वे सभी के सभी साठ हजार जलकर भस्म हो गए । अंतिम संस्कार न किये जाने के कारण सगर के पुत्रों की आत्माएं प्रेत बनकर विचरने लगीं । जब दिलीप के पुत्र और सगर के एक वंशज भगीरथ ने इस दुर्भाग्य के बारे में सुना तो उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे गंगा को पृथ्वी पर लायेंगे ताकि उसके जल से सगर के पुत्रों के पाप धुल सकें और उन्हें मोक्ष प्राप्त हो सके । भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए ब्रह्मा जी की तपस्या कीऔर गंगा को पृथ्वी पे लाये ।

हमारा हिंदुस्तान सर्वश्रेष्ठ है...!


क्या आप जानते हैं कि...... आज के पाश्च्यात्य और तथाकथित रूप से आधुनिक कहे जाने वाले अंग्रेजों के पूर्वज जब जंगलों में नंग-धडंग घूमा करते थे..... और.... कंदराओं में रहा करते थे (मुहम्मद-फुहम्मद का तो उस समय जन्म भी नहीं हुआ था)....... उस समय भी हम हिन्दुस्तानी (हिन्दू) ..... परमाणु बम और हीट सीकिंग मिसाईल जैसे .... आधुनिकतम हथियार का प्रयोग किया करते थे...!

दरअसल.... बात कुछ ऐसी है कि....... आधुनिक  भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढाया जाता है, वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है.... और, उस से पूर्व के इतिहास को "प्रमाण-रहित" कह कर नकार दिया जाता है।

स्थित तो यह है कि....हमारे "देशी अंग्रेजों" को यदि "सर जान मार्शल" प्रमाणित नहीं करते... तो, हमारे तथाकथित रूप से "बुद्धिजीवियों" को विश्वास ही नहीं होना था कि.... हडप्पा और मोहनजोदड़ो स्थल ईसा से लगभग 5000 वर्ष पूर्व के समय के हैं.... और, वहाँ पर ही ""विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया"" था।

मोहनजोदड़ो ...सिन्धु घाटी सभ्यता का एक प्रमुख नगर अवशेष है , जिसकी खोज 1922 ईस्वी मे "राखाल दास बनर्जी" ने की। यह नगर अवशेष सिन्धु नदी के किनारे "सक्खर जिले" में स्थित है....... और, सिन्धी भाषा में इसका अर्थ है - मृतको का टीला।

विश्व की प्राचीनतम् सिन्धु घाटी एवं मोहनजोदड़ो सभ्यता के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं।

जब पुरातत्वविदों ने पिछली शताब्दी में मोहनजोदडो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था ....तो, उन्हों ने देखा कि वहाँ की "गलियों में नर-कंकाल" पडे थे.... और, कई "अस्थि पिंजर चित अवस्था" में लेटे थे .......! साथ ही..... कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड रखा था .... मानो किसी भयानक विपत्ति ने उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।

गौर करने लायक बात यह है कि.... उन नर कंकालों पर ठीक उसी प्रकार के ""रेडियो -ऐक्टीविटी के चिन्ह"" थे.... जिस तरह के चिन्ह ... जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर "एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गये" थे।

मोहनजोदड़ो स्थल के अवशेषों पर ""नाईट्रिफिकेशन के जो चिन्ह"" पाये गये थे उस का कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्यों कि ऐसी अवस्था """केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही""" हो सकती है।

जब आप मोहनजोदड़ो की भूगोलिक स्थिति पर गौर करेंगे .... तो आप पाएंगे कि....
मोइन जोदडो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है... और , उसके चारों ओर दो किलोमीटर की परिधि में इस प्रकार की तबाही देखी जा सकती है.... जो ""मध्य केन्द्र से आरम्भ हो कर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी"" थी..(जैसा कि परमाणु बम विस्फोट के बाद ही होता है )

पुरात्तव विशेषज्ञों ने यह भी पाया कि ''''चूने मिटटी के बर्तनों के अवशेष किसी भीषण ऊष्मा के कारण पिघल कर एक दूसरे के साथ जुड गये"" थे।
हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये इस तरह के ढेरों को पुरात्तव विशेषज्ञों ने काले पत्थरों ...... अर्थात ....‘""ब्लैक -स्टोन्स"" की संज्ञा दी।

वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है... परन्तु मोहनजोदड़ो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी।

वहां के हालत ... चीख -चीख कर ये कह कर रहे हैं कि.... किसी कारण वहां की अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची.... जिस में चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये ।

ध्यान देने योग्य बात है कि..... अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री की ऊष्णता ज्वालामुखी या फिर... अणु बम के विस्फोट पश्चात ही घटती है।
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इस मोहनजोदड़ो की व्याख्या करने में .....इतिहास मौन है...!

परन्तु जब हम ... महाभारत .... और उसमे वर्णित घटनाओं पर नजर डालते हैं तो हर बात शीशे की तरह एक दम साफ हो जाती है....!

महाभारत युद्ध में............ महासंहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान रथों के साथ एक ""परमाणु युद्ध का उल्लेख भी"" मिलता है।
महाभारत में साफ साफ उल्लेखित है कि.... मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट था..... और, उस में चार पहिये लगे थे।

देव दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है.... जैसे कि, हम आधुनिक अस्त्र शस्त्रों से लैस सैनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं।
इस युद्ध के वृतान्त से बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं........ अपितु, इन्द्र के वज्र अपने "चक्रदार रफलेक्टर" के माध्यम से "संहारक रूप में प्रगट" होता है।

उस अस्त्र को जब दाग़ा गया तो एक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह "उसने अपने लक्ष्य को निगल लिया" था।

वह विनाश कितना भयावह था..... इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-

“अत्यन्त शक्तिशाली विमान से एक शक्ति–युक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया…धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिसकी चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा…!

वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र "साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत" था..... जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया…!
उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि ..... पहचानने योग्य नहीं थे..... उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे…

बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे ......और, पक्षी सफेद पड़ चुके थे…!

कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए…उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया…”

उपरोक्त दृश्य के वर्णन से स्पष्ट रूप से...ये.... हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।

एक अन्य वृतान्त में....... श्री कृष्ण अपने प्रतिद्वंदी .... शल्व का आकाश में पीछा करते हैं.....उसी समय आकाश में शल्व का विमान "शुभः" अदृश्य हो जाता है। उस को नष्ट करने के विचार से श्री कृष्ण ने एक ऐसा अस्त्र छोडा...... जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्षित कर सकता था।

निश्चित तौर पर....... वो एक मिसाईल था..... और, आजकल ऐसे
मिसाईल को ""हीट-सीकिंग और साऊड-सीकरस"" कहते हैं .... जो आधुनितम सेनाओं द्वारा प्रयोग किये जाते हैं।

और.. तो और ....... आधुनिक राजस्थान में भी…
परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं।

राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है.... जहाँ पर रेडियोएक्टिव राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है..... जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।

अब ... बात जरा रामायण की भी कर लेते हैं......

"लक्ष्मण-रेखा" की तरह अदृश्य "इलेक्ट्रानिक फैंस" तो .... कोठियों में आज कल पालतु जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जाती है ... और, हीरे जवाहरात ... इत्यादि की प्रदर्शनी में.... उनकी सुरक्षा के लिए ""अदृश्य लेजर बीम"" का प्रयोग किया जाता है...!

और.... अपने आप खुलने और बन्द हो जाने वाले दरवाजे तो ..... किसी भी माल में जा कर देखे जा सकते हैं।

यह सभी चीजे पहले आश्चर्यजनक और काल्पनिक प्रतीत होती थी.. परन्तु आज यह आम बात बन चुकी हैं।

यहाँ तक कि...."मन की गति से चलने वाले" रावण के पुष्पक-विमान का "प्रोटोटाईप" भी उडान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।

यहाँ सबसे उल्लेखनीय है कि.....
रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो पृथक-पृथक ऋषि थे ......और, आजकल की सेनाओं के साथ उन का कोई सम्बन्ध नहीं था।
वे दोनो महाऋषि थे.... और, किसी साईंटिफिक – फिक्शन के थ्रिल्लर – राईटर नहीं थे।

उन के उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि ......तथ्य क्या है और साहित्यक कल्पना क्या होती है.... क्योंकि कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की ही आवश्यकता होती है।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही....... परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे...!

परन्तु ... आज ये विडम्बना है कि....... आज मूर्ख तथा हमारे धर्मग्रंथों के प्रति पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य अंग्रेजों की दी गई ... अंग्रेजी शिक्षा के कारण......

अधिकतर हिन्दू... अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं ....और, उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना....!

इसीलिए मित्रो..... खुद को पहचानो.....

हम हिन्दू..... और.... हमारा हिंदुस्तान सर्वश्रेष्ठ है...!

जय महाकाल...!!!