अठारह महापुराणों में ' गरुणमहापुराण ' का अपना एक विशेष महत्त्व है . जैसे देवों मेम जनार्दन श्रेष्ठ हैं और आयुधों में सुदर्शन चक्र श्रेष्ठ है, वैसे ही पुराणों में गरुण्पुराण हरि के तत्वनिरुपण में मुख्य कहा गया है . जिस मनुष्य के हाथ में यह गरुणमहापुराण विद्यमान है, उसके हाथ में नीतियों का कोश है. जो मनुष्य इस पुराण का पाठ करता है अथवा इसको सुनता है , वह भोग और मोक्ष - दोनों को प्राप्त कर लेता है.
इस पुराण के स्वाध्याय से मनुष्य को शास्त्र - मर्यादा के अनुसार जीवनयापन की शिक्षा मिलती है . जन-सामान्य में एक भ्रान्त धारणा है कि गरुणमहापुराण मृ्त्यु के उपरांत केवल मृ्तजीव के कल्याण के लिए सुना जाता है , जो सर्वथा गलत है. यह पुराण अन्य पुराणों की भाँति नित्य पठन- पाठन और मनन का विषय है . इसका स्वाध्याय अनन्त पुण्य की प्राप्ति के साथ भक्ति - ज्ञान की वृ्द्धि में अनुपम सहायक है .
गरुण पुराण के अनुसार मृ्त्यु का स्वरुप :
मृ्त्यु ही काल है , उसका समय आ जाने पर जीवात्मा से प्राण और देह का वियोग हो जाता है . मृ्त्यु अपने समय पर आती है. मृ्त्यु कष्ट के प्रभाव से प्राणी अपने किये कर्मों को एक्दम भूल जाता है. जिस प्रकार वायु मेघमण्डलों को इधर-उधर खींचता है, उसी प्रकार प्राणी काल के वश में रहता हिअ. सात्विक, राजस और तामस - ये सभी भाव काल के वश में हैं. प्राणियों में वे काल के अनुसार अपने - अपने प्रभाव का विस्तार करते हैं. सूर्य , चंद्र , शिव, वायु, इन्द्र , अग्नि, आकाश, पृ्थ्वी, मित्र , औषधि , आठों वसु, नदी, सागर और भाव - अभाव - ये सभी कालके अनुसार यथासमय उद्भूत होते , बढ़ते हैं, घटते हैं और मृ्त्यु के उपस्थित होने पर काल के प्रभाव से विनष्ट हो जाते हैं.
जब मृ्त्यु आ जाती है तो उसके कुछ समय पूर्व दैवयोग से कोई रोग प्राणी के शरीर में उत्पन्न हो जाता है . इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं और बल, ओज तथा वेग शिथिल हो जाता है. प्राणियों को करोड़ों बिच्छूओं के एक साथ काटने का अनुभव होता है, उससे मृ्त्युजनित पीड़ा का अनुमान करना चाहिये. उसके बाद ही चेतना समाप्त हो जाती है, जड़ता आ जाती है. तदनन्तर यमदूत उसके समीप आ कर खड़े हो जाते हैं और उसके प्राणों को बलात अपनी ओर खींचना शुरु कर देते हैं. उस समय प्राण कण्ठ में आ जाते हैं. मृ्त्यु के पूर्व मृ्तक का रुप बीभत्स हो उठता है . वह फेन उगलने लगता है. उसका मुँह लार से भर जाता है . उसके बाद शरीर के भीतर विद्यमान रहने वाला वह अंगुष्ठपरिमाण का पुरुष हाहाकार करता हुआ तथा अपने घर को देखता हुआ यमदूतों के द्वारा यमलोक ले जाया जाता है.
जो लोग झूठ नहीं बोलते , जो प्रीतिका भेदन नहीं करते , आस्तिक और श्रद्धावान हैं, उन्हें सुखपूर्वक मृ्त्यु प्राप्त होती है . जो काम, ईर्ष्या और द्वेष के कारण स्वधर्म का परित्याग न करे, सदाचारी और सौम्य हो, वे सब निश्चित ही सुखपूर्वक मरते हैं.
जो लोग मोह और अज्ञान का उपदेश देते हैं , वे मृ्त्यु के समय महाअंधकार में फँस जाते हैं. जो झूठी गवाही देने वाले, असत्यभाषी , विश्वासघाती और वेदनिन्दक हैं, वे मूर्च्छारुपी मृ्त्यु को प्राप्त करते हैं. उनको ले जाने के लिए लाठी एवं मुद्गर से युक्त दुर्गंध से भरपूर एवं भयभीत करने वाले दुरात्मा यमदूत आते हैं. ऐसी भयंकर परिस्थिति देखकर प्राणी के शरीर में भयवश कँपन होने लगती है . उस समय वह अपनी रक्षा के लिए अनवरत माता- पिता और पुत्र को यादकर करुण - क्रंदन करता है . उस क्षण प्रयास करने पर भी ऐसे जीव के कण्ठ से एक शब्द भी स्पष्ट नहीं निकलता . भयवश प्राणी की आँखे नाचने लगती हैं. उसकी साँस बढ़ जाती है और मुँह सूखने लगता है . उसके बाद वेदना से आविष्ट होकर वह अपने शरीर का परित्याग करता है और उसके बाद ही वह सबके लिए अस्पृ्श्य एवं घृ्णायोग्य हो जाता है.
गरुण पुराण - नर्कों का स्वरुप :गरुण पुराण में नरकों के विभिन्न स्वरुप् व भेदों के बारे में विस्तृ्त जानकारी दी गई हैं, जिनमें जाकर पापी जन अत्यधिक दुख एवं कष्ट भोगते हैं. गरुण पुराण के अनुसार नर्क तो हज़ारों की संख्या में हैं, जिनकी चर्चा असंभव है परंतु मुख्य - मुख्य नर्कों की विवेचना निम्नवत है :'रौरव ' नामक नर्क अन्य सभी की अपेक्षा प्रधान है. झूठी गवाही देने वाला और झूठ बोलने वाला व्यक्ति रौरव नामक नर्क में जाता है. इसका विस्तार दो हज़ार योजन है . जाँघभर की गहराई में वहाँ दुस्तर गड्ढा है. दहकते हुए अंगारों से भरा हुआ वह गड्ढा पृ्थ्वी के समान बराबर ( समतल भूमि - जैसा) दिखता है. तीव्र अग्नि से वहाँ की भूमि भी तप्तांगार जैसी है. उसमें यम के दूत पापियों को डाल देते हैं. उस जलती हुई अग्नि से संतप्त होकर पापी उसी में इधर उधर भागता है . उसके पैर में छाले पड़ जाते हैं, जो फूट्कर बहने लगते हैं. रात दिन वह पापी वहाँ पैर उठा- उठा कर चलता है. इस प्रकार वह जब हज़ार योजन उस नर्क का विस्तार पार कर लेता है, तब उसे पाप की शुद्धि के लिए उसी प्रकार के दूसरे नर्क में भेजा जाता है. 'महारौरव ' नामक नर्क पाँच हज़ार योजन में फैला हुआ है. वहाँ की भूमि ताँबे के समान वर्णवाली है . उसके नीचे अग्नि जलती रहती है. वह भूमि विद्युतप्रभा के समान कांतिमान है. देखने में वह पापी जनों को महा भयंकर प्रतीत होती है. यमदूत पापी व्यक्ति के हाथ -पैर बाँधकर उसे उसी में लुढ़्का देते हैं और वह लुढ़कता हुआ उसमें चलता है. मार्ग में कौआ, बगुला, भेड़िया, उलूक , मच्छर और बिच्छू आदि जीव-जन्तु क्रोधातुर होकर उसे खाने के लिए तत्पर रहते हैं. वह उस जलती हुई भूमि एवं भयंकर जीव - जन्तुओं के आक्रमण से इतना संतप्त हो जाता है कि उसकी बुद्धि ही भ्रष्ट हो जाती है. वह घबड़ाकर चिल्लाने लगता है तथा बार- बार उस कष्ट से बेचैन हो उठता है. उसको वहाँ कहीं पर भी शांति प्राप्त नहीं होती है. इस प्रकार इस नरकलोक के कष्ट भोगते हुए पापी के जब हज़ारों वर्ष बीत जाते हैं, तब कहीं जाकर मुक्ति प्राप्त होती है. इसके बाद जो नरक है , उसका नाम ' अतिशीत' है. वह स्वभावत: अत्यंत शीतल है . महारौरव नरक के समान ही उसका भी विस्तार बहुत लंबा है. वह गहन अंधकार से व्याप्त रहता है. असह्य कष्ट देने वाले यमदूतों के द्वारा पापीजन लाकर यहाँ बाँध दिये जाते हैं. अत: वे एक दूसरे का आलिंगन करके वहाँ की भयंकर ठंड से बचने का प्रयास करते हैं. उनके दाँतों में कटकटाहट होने लगती है . उनका शरीर वहाँ की ठंड से काँपने लगता है. वहाँ भूख- प्यास बहुत अधिक लगती है. इसके अतिरिक्त भी अनेक कष्टों का सामना उन्हें वहाँ करना पड़्ता है . वहाँ हिमखण्ड का वहन करनेवाली वायु चलती है, जो शरीर की हड्डियों को तोड़ देती है. वहाँ के प्राणी भूख से त्रस्त होकर मज्जा, रक्त और गल रही हड्डियों को खाते हैं. परस्पर भेंट होने पर वे सभी पापी एक दूसरे का आलिंगन कर भ्रमण करते रहते हैं. इस प्रकार उस तमसावृ्त नरक में मनुष्य को बहुत से कष्ट झेलने पड़ते हैं. जो व्यक्ति अन्यान्य असंख्य पाप करता है , वह इस नरक के अतिरिक्त ' निकृ्न्तन ' नाम से प्रसिद्ध दूसरे नरक में जाता है. वहाँ अनवरत कुम्भकार के चक्र के समान चक्र चलते रहते हैं, जिनके ऊपर पापीजनों को खड़ा करके यम के अनुचरों के द्वारा अँगुलि में स्थित कालसूत्र से उनके शरीर को पैर से लेकर शिरोभाग तक छेदा जाता है. फिर भी उनका प्राणान्त नहीं होता . इसमें शरीर के सैकड़ों भाग टूट- टूट कर छिन्न - भिन्न हो जाते हैं और पुन: इकट्ठे हो जाते हैं. इस प्रकार यमदूत पापकर्मियों को वहाँ हज़ारों वर्ष तक चक्कर लगवाते रहते हैं. जब सभी पापों का विनाश हो जाता है , तब कहीं जाकर उन्हें उस नरक से मुक्ति प्राप्त होती है.
गर्भपात जैसे अमानुषिक घोर महापाप के ऊपर हमारे धर्मशास्त्र क्या कहते है … आगे देखे… एवं इसे प्रचारित करे , ताकि इस कुकृत्य की रूपरेखा अगर किसी के दिमाग में चल रही हो तो वो इस महापाप से बचे — -
१ – ब्रह्महत्या से जो पाप लगता है , उससे दुगना पाप गर्भपात करने से लगता है … इस गर्भपात रूपी महापाप का कोई प्रायश्चित भी नहीं है … (पाराशरस्मृति ४ । २० एवं गरुण पुराण १५ । २०-२१ )
२ – गर्भपात करने वाली स्त्री का देखा हुआ अन्न तक नहीं खाना चाहिए एवं उससे बातचीत भी नहीं करनी चाहिए ….. (मनुस्मृति ४। २०८ एवं अग्निपूराण १७३।३३ )
३ – गर्भपात करने वाली स्त्री नमस्कार करने के योग्य भी नहीं रहती …(नारद पुराण २५। ४०-४१ )
४ – श्रेष्ठ पुरुषो ने सभी प्रकार के पापो का प्रायश्चित बताया है , पाखंडी और परनिंदक का भी उद्धार होता है , किन्तु जो गर्भ के बालक की हत्या करता है , उसके उद्धार का कोई उपाय नहीं है …… (नारदपुराण , पूर्व॰ ७ । ५३ )
५ – भ्रूण हत्या अथवा गर्भपात करने वाले रोध ,शुनीमुख , रौरव आदि नरको में जाते है …. (ब्रह्मवैवर्त पुराण ८५।६३ एवं विष्णु पुराण २।६।८ , एवं ब्रह्मपुराण २२।८ )
६ – गर्भ की हत्या करने वाला कुंभीपाक नरक में गिरता है , फिर गीध , सूअर , कोआ और सर्प होता है , फिर विष्ठा का कीड़ा होता है , फिर बैल होने के बाद कोढ़ी मनुष्य है ….. (देवी भागवत ९ । ३४ । २४,२७ – २८ )
८ – गर्भपात करने वाले की अगले जन्म में संतान नहीं होती … ( वृद्धसूर्यारण ११८७। १ )
गर्भ मे नवअंकुरित कोमल शिशु की हत्या करने वाला न इस लोक न और न ही उस लोक मे सुख पा सकता है …. न ही ऐसे पापी समाज की उन्नति हो सकती है … Radhe Radhe !
मृत्यु एक ऐसा सच है जिसे कोई भी झुठला नहीं सकता ।
मृत्यु के बाद जीवात्मा यमलोक तक किस प्रकार जाती है, इसका विस्तृत वर्णन है। किस प्रकार मनुष्य के प्राण निकलते हैं और किस तरह वह पिंडदान प्राप्त कर प्रेत का रूप लेता है।
* जिस मनुष्य की मृत्यु होने वाली होती है, वह बोल नहीं पाता है। अंत समय में उसमें दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है और वह संपूर्ण संसार को एकरूप समझने लगता है । उसकी सभी इंद्रियां नष्ट हो जाती हैं। वह जड़ अवस्था में आ जाता है, यानी हिलने-डुलने में असमर्थ हो जाता है। इसके बाद उसके मुंह से झाग निकलने लगता है और लार टपकने लगती है । पापी पुरुष के प्राण नीचे के मार्ग से निकलते हैं ।
* मृत्यु के समय दो यमदूत आते हैं । वे बड़े भयानक, क्रोधयुक्त नेत्र वाले तथा पाशदंड धारण किए होते हैं । वे नग्न अवस्था में रहते हैं और दांतों से कट-कट की ध्वनि करते हैं । यमदूतों के कौए जैसे काले बाल होते हैं । उनका मुंह टेढ़ा-मेढ़ा होता है । नाखून ही उनके शस्त्र होते हैं। इन दूतों को देखकर प्राणी भयभीत होकर मलमूत्र त्याग करने लग जाता है। उस समय शरीर से अंगूष्ठमात्र (अंगूठे के बराबर) जीव हा हा शब्द करता हुआ निकलता है।
* यमराज के दूत जीवात्मा के गले में पाश बांधकर यमलोक ले जाते हैं। उस पापी जीवात्मा को रास्ते में थकने पर भी दूत भयभीत करते हैं और उसे नरक में मिलने वाली यातनाओं के बारे में बताते हैं । ऐसी भयानक बातें सुनकर पापात्मा जोर-जोर से रोने लगती है, किंतु उस पर बिल्कुल भी दया नहीं करते हैं ।
* इसके बाद वह अंगूठे के बराबर शरीर यमदूतों से डरता और कांपता हुआ, कुत्तों के काटने से दु:खी अपने पापकर्मों को याद करते हुए चलता है। आग की तरह गर्म हवा तथा गर्म बालू पर वह जीव चल नहीं पाता है । वह भूख-प्यास से भी व्याकुल हो उठता है । उसकी पीठ पर चाबुक मारते हुए उसे आगे ले जाते हैं। वह जीव जगह-जगह गिरता है और बेहोश हो जाता है। उसको अंधकारमय मार्गसे ले जाते हैं।
* यमलोक . पापी जीव को दो- तीन मुहूर्त में ले जाते हैं। इसके बाद उसे भयानक यातना देते हैं। यह भोगने के बाद यमराज की आज्ञा से यमदूत आकाशमार्ग से पुन: उसे उसके घर छोड़ आते हैं।
* घर में आकर वह जीवात्मा अपने शरीर में पुन: प्रवेश करने की इच्छा रखती है, लेकिन यमदूत के पाश से वह मुक्त नहीं हो पाती और भूख-प्यास के कारण रोती है। पुत्र आदि जो पिंड और अंत समय में दान करते हैं, उससे भी प्राणी की तृप्ति नहीं होती, क्योंकि पापी पुरुषों को दान, श्रद्धांजलि द्वारा तृप्ति नहीं मिलती। इस प्रकार भूख-प्यास से बेचैन होकर वह जीव यमलोक जाता है।
* जिस पापात्मा के पुत्र आदि पिंडदान नहीं देते हैं तो वे प्रेत रूप हो जाती हैं और लंबे समय तक निर्जन वन में दु:खी होकर घूमती रहती है। काफी समय बीतने के बाद भी कर्म को भोगना ही पड़ता है, क्योंकि प्राणी नरक यातना भोगे बिना मनुष्य शरीर नहीं प्राप्त होता। मनुष्य की मृत्यु के बाद 10 दिन तक पिंडदान अवश्य करना चाहिए। उस पिंडदान के प्रतिदिन चार भाग हो जाते हैं। उसमें दो भाग तो पंचमहाभूत देह को पुष्टि देने वाले होते हैं, तीसरा भाग यमदूत का होता है तथा चौथा भाग प्रेत खाता है। नवें दिन पिंडदान करने से प्रेत का शरीर बनता है। दसवें दिन पिंडदान देने से उस शरीर को चलने की शक्ति प्राप्त होती है।
• शव को जलाने के बाद पिंड से हाथ के बराबर का शरीर उत्पन्न होता है । वही यमलोक के मार्ग में शुभ-अशुभ फल भोगता है। पहले दिन पिंडदान से मूर्धा (सिर), दूसरे दिन गर्दन और कंधे, तीसरे दिन से हृदय, चौथे दिन के पिंड से पीठ, पांचवें दिन से नाभि, छठे और सातवें दिन से कमर और नीचे का भाग, आठवें दिन से पैर, नवें और दसवें दिन से भूख-प्यास उत्पन्न होती है । यह पिंड शरीर को धारण कर भूख-प्यास से व्याकुल प्रेतरूप में ग्यारहवें और बारहवें दिन का भोजन करता है ।
* यमदूतों द्वारा तेरहवें दिन प्रेत को बंदर की तरह पकड़ लिया जाता है । इसके बाद वह प्रेत भूख-प्यास से तड़पता हुआ यमलोक अकेला ही जाता है। यमलोक तक पहुंचने का रास्ता वैतरणी नदी को छोड़कर छियासी हजार योजन है । उस मार्ग पर प्रेत प्रतिदिन दो सौ योजन चलता है । इस प्रकार 47 दिन लगातार चलकर वह यमलोक पहुंचता है । मार्ग में सोलह पुरियों को पार कर यमराज के घर जाता है।
* इन सोलह पुरियों के नाम इस प्रकार है - सौम्य, सौरिपुर, नगेंद्रभवन, गंधर्व, शैलागम, क्रौंच, क्रूरपुर, विचित्रभवन, बह्वापाद, दु:खद, नानाक्रंदपुर, सुतप्तभवन, रौद्र, पयोवर्षण, शीतढ्य, बहुभीति । इन सोलह पुरियों को पार करने के बाद प्राणी यमपाश में बंधा मार्ग में हाहाकार करते हुए यमराज पुरी जाता है । ( मरने के बाद क्या होता है , श्री गरुण पुराण कि यह बात -.-
मृत्यु के बाद जीवात्मा यमलोक तक किस प्रकार जाती है, इसका विस्तृत वर्णन है । )
ये ज़रूर पढे -
गरुण पुराण अध्याय तीन का आखिरी भाग
श्री विष्णु भगवान श्री गरुण जी को आगे बताते हैं --------
धर्म राज एक बिशाल भैसे के ऊपर आसीन रहते हैं
उनकी बत्तीस भुजाओं में शस्त्र रहते हैं
उनकामुख,नासिका एवं अन्य अंग भयानक होते हैं
चित्र गुप्त जो स्वयं भयानक शरीर वाले हैं , धर्म राज के साथ होते हैं और उनके साथ होते हैं ज्वर रोग एवं मृत्यु / अब इस स्थिति में चित्र गुप्त अपना निर्णय सुनाते हुए कहते हैं … ......
अरे दुराचारी पापी तुम धन इकट्ठा करने में लगे रहे , पापी लोगों की संगत की , प्रसन्नता से पाप किया और अब तूं इन कर्मों के फल के रूप में यहाँ की यातनाओं को भोग / धर्म राज की आज्ञा के अनुकूल प्रचंड और चंडक यमदूत उस पापी को नरक में पहुंचाते हैं / नरक में एक पांच योजन चौड़ा एवं एक योजन ऊँचा बृक्ष है जिसे जलती हुयी अग्नि का बृक्ष कह सकते हैं / यमदूत उस बृक्ष से बाँध कर पिटाई करते हैं / यम दूत उस पापी के अतीत में किये गए पापों को बताते हुए उसे खूब पीटते हैं / पीटाई के समय शालमली बृक्ष के पत्ते जो गिरते रहते हैं वे उस पापी के देह में सूई की भांति छेड़ करते रहते हैं /
नरक चौरासी लाख प्रकार के हैं जिनमें से कुछ के नाम कुछ इस प्रकार से हैं … ....
तामिस्र , लौह्शंक , महारौरव , शाल्मली , रौरव , कुडमल , काकोल , सविस , संजीवन महापथ , अविची , तपन आदि / इन नरकों में नाना प्रकार के किये गए कर्मों को भोगना होता है / यहाँ इन नरकों में पापी कल्पों तक भोगता रहता है और जब सभीं यातनाएं भोग लेता है तब अंत में वह बिषय – वासना भोग [ स्त्री - पुरुष सह्बास ] के लिए अन्धतामिस्त्र , रौरव , आदि नरकों में जाता है /