10 October 2012

हौसले की होती है हमेशा जीत



जब भी दृढ इच्छाशक्ति की बात निकलती है तो दुष्यंत कुमार का यह शेर हमें बरबस याद आ जाता है- कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों..। साधनों की कमी की शिकायत करते हुए खुद कोई प्रयास न करना तो बेहद आसान है। ज्यादातर लोग करते भी यही हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनकी इच्छाशक्ति ही उनकी सबसे बडी पूंजी होती है। बिहार के गया जिले के छोटे से गांव ...गहलौर के दलित मजदूर दशरथ मांझी की जिद के आगे पर्वत को भी झुकना पडा। उन्होंने राह रोकने वाले पहाड का सीना चीर कर 365 फीट लंबा और 30 फीट चौडा रास्ता बना दिया। दरअसल पहाडी का रास्ता बहुत संकरा और उबड-खाबड था। उनकी पत्नी उसी रास्ते से पानी भरने जाती थीं। 


एक रोज उन्हें ठोकर लग गई और वह गिर पडीं। पत्नी के शरीर पर चोट के निशान देख दशरथ को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने उसी दम ठान लिया कि अब वह पहाडी को काटकर ऐसा रास्ता बनाएंगे, जिससे किसी को भी ठोकर न लगे। वह हाथों में छेनी-हथौडा लेकर पहाड काटने में जुट गए। तब लोग उन्हें पागल और सनकी समझते थे कि कोई अकेला आदमी पहाड काट सकता है भला! .पर उन्होंने अपनी जिद के आगे किसी की नहीं सुनी। वह रोजाना सुबह से शाम तक अपने काम में जुटे रहते। उन्होंने 1960 में यह काम शुरू किया था और इसे पूरा करने में उन्हें 22 वर्ष लग गए। ..लेकिन अफसोस कि उनका यह काम पूरा होने से कुछ दिनों पहले ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। वह अपनी सफलता की यह खुशी उनके साथ बांट न सके। उनकी इस कोशिश से ही बेहद लंबा घुमावदार पहाडी रास्ता छोटा और सुगम हो गया। अब दशरथ इस दुनिया में नहीं हैं पर वह रास्ता आज भी हमें उनके जिद्दी और जुझारू व्यक्तित्व की याद दिलाता है। उनकी दृढ इच्छाशक्ति को सम्मान देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने कर्मचारियों के लिए दशरथ मांझी पुरस्कार की शुरुआत की है।

तिलक का महत्व



हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है इसे सात्विकता का प्रतीक माना जाता है विजयश्री प्राप्त करने के उद्देश्य रोली, हल्दी, चन्दन या फिर कुमकुम का तिलक या कायर् की महत्ता को ध्यान में रखकर, इसी प्रकार शुभकामनाओं के रुप में हमारे तीर्थस्थानों पर, विभिन्न पर्वो-त्यौहारों, विशेष अतिथि आगमन पर आवाजाही के उददेश्य से भी लगाया जाता है ।

मस्तिष्क के भ्रु-मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । 


इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार-बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें । इस आसान तरीके से सर्वसाधारण की रुचि धार्मिकता की ओर, आत्मिकता की ओर, तृतीय नेत्र जानकर इसके उन्मीलन की दिशा में किया गयचा प्रयास जिससे आज्ञाचक्र को नियमित उत्तेजना मिलती रहती है ।

तन्त्र शास्त्र के अनुसार माथे को इष्ट इष्ट देव का प्रतीक समझा जाता है हमारे इष्ट देव की स्मृति हमें सदैव बनी रहे इस तरह की धारणा क ध्यान में रखकर, ताकि मन में उस केन्द्रबिन्दु की स्मृति हो सकें । शरीर व्यापी चेतना शनैः शनैः आज्ञाचक्र पर एकत्रित होती रहे । चुँकि चेतना सारे शरीर में फैली रहती है । अतः इसे तिलक या टीके के माधअयम से आज्ञाचक्र पर एकत्रित कर, तीसरे नेत्र को जागृत करा सकें ताकि हम परामानसिक जगत में प्रवेश कर सकें ।

तत्व दर्शन के अनुसार चन्दन का तिलक या त्रिपूंड उसकी प्रकृति प्रायः शीतल होने की वजह से इसे मस्तिष्क पर लगाया जाता है ताकि हमारे विचार-भाव शीतलता, प्रसन्नता, और शान्ति प्रदान करने वाले हों । तिलक द्व्य भिन्नता सजोये होने की वजह से श्वेत और रक्तचन्दन भक्ति का प्रतीक, इसका प्रयोग भजनामंदी किस्म के लोग करते है । केसर व गोरोचन ज्ञान-वैराग्य का प्रतीक, ज्ञानी तत्वचिन्तक इसका फ३योग करते है । परम अवस्था प्राप्त योगी लोग कस्तुरी ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, प्रेम, सौन्दर्य, ऐश्वर्य सभी का प्रतीक है ।

इसी तरह से तिलक लगाने की धारणा के भिन्न-भिन्न उन्गलियों से लगाने के विदान है तर्जनी से लाल या श्वेत चन्दन टीका पूर्व दिशा की ओर मूँह करके लगाया जाता है । मध्यमा से ऐश्वर्य के लिए सिन्दुर का टीका क्रमशः पूर्व दिशा, उत्तर, पश्चिम दिशा में से किसी भी दिशा की तरफ मूँह करके लगाया जाता है । अनामिका उन्गली से धन-वैभन, सुख-शांन्ति के लिए केसर का टीका क्रमशः पूर्व दिशा, उत्तर, पश्चिम दिशा में से किसी भी दिशा की तरफ मूँह करके लगाया जाता है । सभी धर्म सम्प्रदाय के प्रति सम्मान दृष्टि रखने वाले अन्गुठे से चन्दन का टीका लगाते है ।

तिलक का हमारे जीवन में कितना महत्व है शुभघटना से लेकर अन्य कई धार्मिक अनुष्ठानों, संस्कारों, युद्ध लडने जाने वाले को शुभकामनाँ के तौर पर तिलक लगाया जाता है वे प्रसंग जिन्हें हम हमारी स्मृति-पटल से हटाना नही चाहते इन शुशियों को मस्तिष्क में स्थआई तौर पर रखने, शुभ-प्रसंगों इत्यादि के लिए तिलक लगाया जाता है हमारे जीवन में तिलक का बडा महत्व है तत्वदर्शन व विज्ञान भी इसके प्रचलन को शिक्षा को बढाने व हमारे हमारे जीवन सरल व सार्थकता उतारने के जरुरत है ?



खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


इन 5 बातों का ध्यान रखेंगे तो फिर से नहीं होगा आपका जन्म --



शास्त्रों के अनुसार जन्म और मृत्यु एक चक्र है तो अनवरत चलता रहता है। आत्मा वस्त्रों की तरह शरीर बदलती रहती है। आत्मा अमर है और वह निश्चित समय के लिए अलग-अलग शरीर धारण करती है। प्राणी के जीवन और मृत्यु के इस चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहा जाता है। -----


आचार्य चाणक्य ने 5 बातें बताई हैं, जो इंसान जीवन में इन बातों का ध्यान रखता है उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है-


1. आचार्य चाणक्य कहते हैं कि- वचनशुद्धि मनशुद्धि औ, इन्द्रिय संयम शुद्धि। भूत दया औ स्वच्छता, पर अर्थिन यह बुद्धि।। आचार्य चाणक्य ने इस दौहे में बताया है कि जो लोग अपनी वाणी में पवित्रता बनाए रखते हैं, कभी भी किसी के मन को ठेस नहीं पहुंचाते हैं, हमेशा मीठा बोलते हैं, उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है।


2. जो लोग मन से शुद्ध होते हैं, किसी का अहित नहीं सोचते हैं उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है।

3. जो लोग इंद्रियों पर संयम रखते हैं और व्यर्थ की बातों में ध्यान नहीं देते हैं उन्हें बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसना नहीं पड़ता है।

4. सभी जीवों और प्राणियों से प्रेम करना, सभी का ध्यान रखना, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना ये गुण वाले व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है।

5. जो लोग अपने धन की दूसरों की मदद में खर्च करते हैं, जो धन को व्यर्थ खर्च नहीं करते हैं, जो लोग धर्म के कार्यों में धन लगाते हैं उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है।

कुरान की चौबीस आयतें और उन पर दिल्ली कोर्ट का हिन्दू महासभा के पक्ष में फैसला



श्री इन्द्रसेन (तत्कालीन उपप्रधान हिन्दू महासभा दिल्ली) और राजकुमार ने कुरान मजीद (अनु. मुहम्मद फारुख खां, प्रकाशक मक्तबा अल हस्नात, रामपुर उ.प्र. १९६६) की कुछ निम्नलिखित आयतों का एक पोस्टर छापा जिसके कारण इन दोनों पर इण्डियन पीनल कोड की धारा १५३ए और २६५ए के अन्तर्गत (एफ.आई.आर. २३७/८३यू/एस, २३५ए, १ पीसी होजकाजी, पुलिस स्टेशन दिल्ली) में मुकदमा चलाया गया।

1- ”फिर, जब हुरमत (रमजान ) के महीने बीत जाऐं, तो ‘मुश्रिको’ को जहाँ-कहीं पाओ कत्ल करो, और पकड़ो और उन्हें घेरो और हर घातकी जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे ‘तौबा’ कर लें ‘नमाज’ कायम करें और, जकात दें तो उनका मार्ग छोड़ दो। निःसंदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है।” (पा० १०, सूरा. ९, आयत ५,२ख पृ. ३६८)

2- ”हे ‘ईमान’ लाने वालो! ‘मुश्रिक’ (मूर्तिपूजक) नापाक हैं।” (१०.९.२८ पृ. ३७१)

3- ”निःसंदेह ‘काफिर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं।” (५.४.१०१. पृ. २३९)

4- ”हे ‘ईमान’ लाने वालों! (मुसलमानों) उन ‘काफिरों’ से लड़ो जो तुम्हारे आस पास हैं, और चाहिए कि वे तुममें सखती पायें।” (११.९.१२३ पृ. ३९१)

5- ”जिन लोगों ने हमारी ”आयतों” का इन्कार किया, उन्हें हम जल्द अग्नि में झोंक देंगे। जब उनकी खालें पक जाएंगी तो हम उन्हें दूसरी खालों से बदल देंगे ताकि वे यातना का रसास्वादन कर लें। निःसन्देह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वदर्शी हैं” (५.४.५६ पृ. २३१)

6- ”हे ‘ईमान’ लाने वालों! (मुसलमानों) अपने बापों और भाईयों को अपना मित्र मत बनाओ यदि वे ईमान की अपेक्षा ‘कुफ्र’ को पसन्द करें। और तुम में से जो कोई उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा, तो ऐसे ही लोग जालिम होंगे” (१०.९.२३ पृ. ३७०)

7- ”अल्लाह ‘काफिर’ लोगों को मार्ग नहीं दिखाता” (१०.९.३७ पृ. ३७४)

8- ”हे ‘ईमान’ लाने वालो! उन्हें (किताब वालों) और काफिरों को अपना मित्र बनाओ। अल्ला से डरते रहो यदि तुम ‘ईमान’ वाले हो।” (६.५.५७ पृ. २६८)

9- ”फिटकारे हुए, (मुनाफिक) जहां कही पाए जाऐंगे पकड़े जाएंगे और बुरी तरह कत्ल किए जाएंगे।” (२२.३३.६१ पृ. ७५९)

10- ”(कहा जाऐगा): निश्चय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे ‘जहन्नम’ का ईधन हो। तुम अवश्य उसके घाट उतरोगे।”

11- ‘और उस से बढ़कर जालिम कौन होगा जिसे उसके ‘रब’ की आयतों के द्वारा चेताया जाये और फिर वह उनसे मुँह फेर ले। निश्चय ही हमें ऐसे अपराधियों से बदला लेना है।” (२१.३२.२२ पृ. ७३६)

12- ‘अल्लाह ने तुमसे बहुत सी ‘गनीमतों’ का वादा किया है जो तुम्हारे हाथ आयेंगी,” (२६.४८.२० पृ. ९४३)

13- ”तो जो कुछ गनीमत (का माल) तुमने हासिल किया है उसे हलाल व पाक समझ कर खाओ” (१०.८.६९. पृ. ३५९)

14- ”हे नबी! ‘काफिरों’ और ‘मुनाफिकों’ के साथ जिहाद करो, और उन पर सखती करो और उनका ठिकाना ‘जहन्नम’ है, और बुरी जगह है जहाँ पहुँचे” (२८.६६.९. पृ. १०५५)

15- ‘तो अवश्य हम ‘कुफ्र’ करने वालों को यातना का मजा चखायेंगे, और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वे करते थे।” 
(२४.४१.२७ पृ. ८६५)

16- ”यह बदला है अल्लाह के शत्रुओं का (‘जहन्नम’ की) आग। इसी में उनका सदा का घर है, इसके बदले में कि हमारी ‘आयतों’ का इन्कार करते थे।” (२४.४१.२८ पृ. ८६५)

17- ”निःसंदेह अल्लाह ने ‘ईमानवालों’ (मुसलमानों) से उनके प्राणों और उनके मालों को इसके बदले में खरीद लिया है कि उनके लिए ‘जन्नत’ हैः वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं तो मारते भी हैं और मारे भी जाते हैं।” (११.९.१११ पृ. ३८८)

18- ”अल्लाह ने इन ‘मुनाफिक’ (कपटाचारी) पुरुषों और मुनाफिक स्त्रियों और काफिरों से ‘जहन्नम’ की आग का वादा किया है जिसमें वे सदा रहेंगे। यही उन्हें बस है। अल्लाह ने उन्हें लानत की और उनके लिए स्थायी यातना है।” (१०.९.६८ पृ. ३७९)

19- ”हे नबी! ‘ईमान वालों’ (मुसलमानों) को लड़ाई पर उभारो। यदि तुम में बीस जमे रहने वाले होंगे तो वे दो सौ पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे, और यदि तुम में सौ हो तो एक हजार काफिरों पर भारी रहेंगे, क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझबूझ नहीं रखते।” (१०.८.६५ पृ. ३५८)

20- ”हे ‘ईमान’ लाने वालों! तुम यहूदियों और ईसाईयों को मित्र न बनाओ। ये आपस में एक दूसरे के मित्र हैं। और जो कोई तुम में से उनको मित्र बनायेगा, वह उन्हीं में से होगा। निःसन्देह अल्लाह जुल्म करने वालों को मार्ग नहीं दिखाता।” (६.५.५१ पृ. २६७)

21- ”किताब वाले” जो न अल्लाह पर ईमान लाते हैं न अन्तिम दिन पर, न उसे ‘हराम’ करते हैं जिसे अल्लाह और उसके रसूल ने हराम ठहराया है, और न सच्चे दीन को अपना ‘दीन’ बनाते हैं उनकसे लड़ो यहाँ तक कि वे अप्रतिष्ठित (अपमानित) होकर अपने हाथों से ‘जिजया’ देने लगे।” (१०.९.२९. पृ. ३७२)

22- २२ ”…….फिर हमने उनके बीच कियामत के दिन तक के लिये वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते रहे हैं। (६.५.१४ पृ. २६०)

23- ”वे चाहते हैं कि जिस तरह से वे काफिर हुए हैं उसी तरह से तुम भी ‘काफिर’ हो जाओ, फिर तुम एक जैसे हो जाओः तो उनमें से किसी को अपना साथी न बनाना जब तक वे अल्लाह की राह में हिजरत न करें, और यदि वे इससे फिर जावें तो उन्हें जहाँ कहीं पाओं पकड़ों और उनका वध (कत्ल) करो। और उनमें से किसी को साथी और सहायक मत बनाना।” (५.४.८९ पृ. २३७)

24- ”उन (काफिरों) से लड़ों! अल्लाह तुम्हारे हाथों उन्हें यातना देगा, और उन्हें रुसवा करेगा और उनके मुकाबले में तुम्हारी सहायता करेगा, और ‘ईमान’ वालों लोगों के दिल ठंडे करेगा” (१०.९.१४. पृ. ३६९)


उपरोक्त आयतों से स्पष्ट है कि इनमें ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, कपट, लड़ाई-झगड़ा, लूटमार और हत्या करने के आदेश मिलते हैं। इन्हीं कारणों से देश व विश्व में मुस्लिमों व गैर मुस्लिमों के बीच दंगे हुआ करते हैं।

उपरोक्त आयतों में स्पष्ट है कि इनमें ईर्ष्या, घृणा, कपट, लड़ाई-झगड़ा, लूटमार और हत्या करने के आदेश मिलते हैं। इन्हीं कारणों से देश व विश्व में मुस्लिमों व गैर-मुस्लिमों के बीच दंगे हुआ करते हैं।

मैट्रोपोलिटिन मजिस्ट्रेट श्री जेड़ एस. लोहाट ने ३१ जुलाई १९८६ को फैसला सुनाते हुए लिखाः ”मैंने सभी आयतों को कुरान मजीद से मिलान किया और पाया कि सभी अधिकांशतः आयतें वैसे ही उधृत की गई हैं जैसी कि कुरान में हैं। लेखकों का सुझाव मात्र है कि यदि ऐसी आयतें न हटाईं गईं तो साम्प्रदायिक दंगे रोकना मुश्किल हो जाऐगा। मैं ए.पी.पी. की इस बात से सहमत नहीं हूँ कि आयतें २,५,९,११ और २२ कुरान में नहीं है या उन्हें विकृत करके प्रस्तुत किया गया है।”

तथा उक्त दोनों महानुभावों को बरी करते हुए निर्णय दिया कि- ”कुरान मजीद” की पवित्र पुस्तक के प्रति आदर रखते हुए उक्त आयतों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ये आयतें बहुत हानिकारक हैं और घृणा की शिक्षा देती हैं, जिनसे एक तरफ मुसलमानों और दूसरी ओर देश के शेष समुदायों के बीच मतभेदों की पैदा होने की सम्भावना है।” (ह. जेड. एस. लोहाट, मेट्रोपोलिटिन मजिस्ट्रेट दिल्ली ३१.७.१९८६)

जब एक अदालत इन मानवता विरोधी आयतों के खिलाफ अपना फैसला सुना सकती है तो हम क्यों अपनी आँखों में पट्टियाँ बाधे हुए हैं , आँखें खोलो हिन्दुओ और सच्चाई जानो इस मानवता विरोधी प्रसारवादी कौम की - जय श्री राम , जय हिंदुत्व , जय अखंड हिन्दुराष्ट्र भारत ...


जैसा खाये अन्न वैसा बने मन



निःसंदेह मनुष्य जिस प्रकार का राजसी, तामसी अथवा सात्विकी भोजन करता है, उसी प्रकार उसके गुणों एवम् स्वभाव का निर्माण होता है और जिनसे प्रेरित उसके कर्म भी वैसे ही हो जाते हैं फलतः कर्म के अनुसार ही मनुष्य का उत्थान-पतन हुआ करता है । जो मनुष्य इतने महत्वपूर्ण पदार्थ भोजन के सम्बन्ध में अनभिज्ञ है अथवा असंयम बरतता है उसे बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता । आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए प्रक्ताहार विहार का नियम कड़ाई के साथ पालन करने के लिए कहा गया है, 

जो मनुष्य किसी भी क्षेत्र में स्वस्थ, सुन्दर, सौम्य एवं समुन्नत जीवनयापन करना चाहता है उसके लिए भोजन सम्बंधी ज्ञान तथा उसका संयम बहुत आवश्यक है । भोजन के प्रति असंयम व्यक्ति अन्य किसी प्रकार के संयम का पालन नहीं कर सकता । भोजन का संयम अन्य इन्द्रियों के संयमों के पालन करने में बहुत कुछ सहायक होता है ।

जीवन निर्माण के आधार भोजन सम्बंधी अज्ञान कुछ कम खेद का विषय नहीं है । मनुष्य जो कुछ खाता है और जिसके बल पर जीता है, उसके विषय में क, ख तक न जानना निःसन्देह लज्जा की बात है । कितने आश्चर्य का विषय है जो मनुष्य कपड़ों लत्तों, घर-मकान और देश- देशान्तर के विषय में बहुत कुछ जानता है या जानने के लिए उत्सुक रहता है, वह जीवन तत्व देने वाले भोजन के विषय में जरा भी नहीं जानता और न जानना चाहता है । इसी अज्ञान के कारण हमारी भोजन सम्बंधी न जाने कितनी भ्रान्त धारणायें बन गई हैं । 


अनेक लोग यह यह समझते हैं कि जो भोजन जिव्हा को रुचिकर लगे, जिसमें दूध, दही, मक्खन आदि पौष्टिक पदार्थों का प्रचुर मात्रा में समावेश हो, मिर्च- मसाले इस मात्रा में पड़े हों जिन्हें देखकर ही मुँह में पानी आये वही भोजन सबसे अच्छा है । इसके विपरीत बहुत से लोग भोजन के नाम पर पापी पेट में जो कुछ माँस, घास, कूड़ा-कर्कट मिल जाये, डाल लेना ही आहार का उद्देश्य समझते हैं ।

भोजन के विषय में यह दोनों मान्यताएँ भ्रमपूर्ण एवं हानिकारक हैं । भोजन का प्रयोजन न तो जिव्हा का स्वाद है और न पेट को पाटना । जो मसालेदार, चटपटे और तले-जले पदार्थों का सेवन करते हैं, उनकी पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है और जो निस्सार एवं तत्व हीन भोजन से पेट को पाटते रहते हैं उनका आमाशय शीघ्र ही अशक्त हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप दोनों मान्यताओं वालों को रोगों का शिकार बनना पड़ता है । रोग शरीर के भयानक शत्रु हैं- सभी जानते हैं- किन्तु ऐसा जानते हुए भी उनके मल-मूत्र कारक आहार सम्बन्धी त्रुटियों को दूर करने के लिए तत्पर होने को तैयार नहीं ।

भोजन का एकमात्र उद्देश्य भूख निवृत्ति ही नहीं है, उसका मुख्य उद्देश्य आरोग्य एवं स्वास्थ्य ही है । जिस भोजन ने भूख को तो मिटा दिया किन्तु स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाला वह भोजन उपयुक्त भोजन नहीं माना जायेगा । उपयुक्त भोजन वही है, जिससे क्षुधा की निवृत्ति एवं स्वास्थ्य की वृद्धि हो ।

विटामिनों की दृष्टि से हरे शाक तथा फल आदि ही स्वास्थ्य के लिए आवश्यक एवं उपयुक्त आहार हैं, । इसके अतिरिक्त क्षार नामक आवश्यक तत्व भी फलों तथा शाकों से पाया जा सकता है । अनाज के छिलकों में भी यह तत्व वर्धमान रहता है किन्तु अज्ञानवश मनुष्य अधिकतर अनाजों को छील-पीसकर यह तत्व नष्ट कर देते हैं ।

कहना न होगा कि प्रकृति जिस रूप में फलों, शाकों तथा अनाजों को पैदा और पकाया करती है, उसी रूप में ही वे मनुष्य के वास्तविक आहार हैं । उनकों न तो अतिरिक्त पकाने अथवा उनमें नमक, शक्कर आदि मिलाने की आवश्यकता है । किन्तु मनुष्य का स्वभाव इतना बिगड़ गया है कि वह शाक-भाजियों तथा अन्न आदि को उनके प्रकृत रूप में नहीं खा सकता । 

इसके लिए यदि आहार को थोड़ा-सा हल्की आँच पर पका लिया जाये तब भी कोई विशेष हानि नहीं होती । किन्तु जब उनको बुरी तरह तला या जला डाला जाता है तो निश्चय ही उनके सारे तत्व नष्ट हो जाते हैं और वह आहार अयुक्ताहार हो जाता है । जहाँ तक सम्भव हो खाद्य पदार्थों को प्रकृत रूप में ही खाना चाहिये अथवा मंदी आँच या भाप पर थोड़ा- सा ही पकाना चाहिये । मिर्च, मसालों का प्रयोग निश्चय ही हानिकारक है इनका उपयोग तो बिल्कुल करना ही नहीं चाहिए ।

इन सब बातों का मुख्य तात्पर्य यह है कि मनुष्य के लिए उपयुक्त भोजन उसी को कहा जायेगा जिसके विटामिन तथा क्षार आदि तत्व सुरक्षित रहें, जो आसानी से पच जाये और जिसमें अधिक से अधिक सात्विक गुण हों । फल, शाक, मेवा, दूध आदि ही ऐसे पदार्थ हैं, जो मनुष्य के लिए स्वास्थ्यवर्धक आहार हैं ।

इसके साथ ही भोजन के संयम में स्वल्प अथवा तृप्ति तक भोजन करना ही ठीक है, अधिक भोजन से मनुष्य में आलस्य, प्रमाद, शिथिलता आदि ऐसे आसुरी दोष आ जाते हैं, जिनसे न तो वह परिश्रमी रह पाता है और न सात्विक स्वभाव का । असात्विकता अथवा असुरता मनुष्य को पतन की ओर ही ले जाती है । काम, क्रोध, आदि विचारों की प्रबलता भी असंयमित एंव अयुक्त आहार करने से ही होती है । यदि शरीर सब तरह से स्वस्थ एवं शुद्ध है तो मनुष्य का मन निश्चय ही सात्विक रहेगा । सात्विक मन एवं स्वस्थ शरीर के सम्पर्क से आत्मा का प्रसन्न तथा प्रमुदित रहना निश्चित है, जो कि एक दैवी लक्षण है जिसे भोजन के माध्यम से मनुष्य को प्राप्त करने का प्रयास करना ही चाहिए ।

अन्न को शास्त्रों में प्राण की संज्ञा दी गई है । अन्न को प्राण कहने में न तो कोई अयुक्तता है और न अत्युक्ति । निःसन्देह वह प्राण ही है । भोजन के तत्वों से ही शरीर में जीवनी शक्ति का निर्माण होता है । उसी से माँस, रक्त, मज्जा, अस्थि तथा ओजवीर्य आदि का निर्माण हुआ करता है । भोजन के अभाव में इन आवश्यक तत्वों का निर्माण रुक जाये तो शरीर शीघ्र ही स्वत्वहीन होकर स्तब्ध हो जाय ।

अन्न सर्व साधन रूप शरीर का आधार है । प्रत्येक मनुष्य तन, मन अथवा आत्मा से जो कुछ दिखाई देता है, उसका बहुत कुछ आधार हेतु उसका आहार ही है । जन्म काल से लेकर मृत्युपर्यन्त प्राणी का पालन, सम्वर्धन एवं अनुवर्धन आहार के आधार पर ही हुआ करता है । किसी का बलिष्ठ अथवा निर्बल होना, स्वस्थ अथवा अस्वस्थ होना बहुत अंशों तक भोजन पर ही निर्भर रहता है ।

समस्त सृष्टि तथा हमारे जीवन के लिए भोजन का इतना महत्व होते हुए भी कितने व्यक्ति ऐसे होंगे जो प्राण रूप आहार के विषय में जानकारी रखते हों और उसके सम्बन्ध में सावधान रहते हों, संसार में दिखलाई देने वाले शारीरिक एवं मानसिक दोषों में अधिकांश का कारण आहार सम्बंधी अज्ञान एवं असंयम ही है । जो भोजन शरीर को शक्ति और मन को बुद्धि को प्रखरता प्रदान करता है, वही असंयमित भी बना देता है । शारीरिक अथवा मानसिक विकृतियों को भोजन विषयक भूलों का ही परिणाम मानना चाहिये । अन्न दोष संसार के अन्य दोषों की जड़ है- जैसा खाये अन्न वैसा बने मन वाली कहावत से यही प्रतिध्वनित होता है कि मनुष्य की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का जन्म एवं पालन अच्छे, बुरे आहार पर ही निर्भर है ।



ॐ ॐ

ध्यान रखें शिवजी को कभी तुलसी ना चढ़ाएं ..



ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌॥



शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यरामदंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतानउत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए तपकिया और तप से प्रसन्नहोकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकरअंतध्र्यान हो गए। 

तब दंभ के यहां शंखचूड काजन्म हुआ और शंखचूड नेपुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा किवो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्रीकृष्णकवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा नेशंखजीचूड को धर्मध्वजकी कन्या तुलसी से विवाह करने की भी आज्ञा दे दी। 

ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह होगया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर भगवान विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्णकवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका 

श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण करतुलसी के शील का अपहरणकर लिया। अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया और तुलसी राक्षसराज की पत्नी थी। चुंकि तुलसी का शील भंग हो चूका था इसीलिए ऐसी मान्यता है कि शिवजी को पूजा में तुलसी चढ़ाने पर पूजा का फल नहीं मिलताऔर ऐसा करने से दोष लगता है ।


__स्वास्थ्यवर्धक खजूर___


* खजूर मधुर, शीतल, पौष्टिक व सेवन करने के बाद तुरंत शक्ति-स्फूर्ति देने वाला है। यह रक्त मांस व वीर्य की वृद्धि करता है। हृदय व मस्तिष्क को शक्ति देता है।

** कब्जनाशकः खजूर में रेचक गुण भरपूर हैं। 8-10 खजूर 200
ग्राम पानी में भिगो दें, सुबह मसलकर इनका शरबत बना लें। फिर इसमें 300 ग्राम पानी और डालकर गुनगुना गर्म करें। खाली पेट चाय की तरह पी जायें। कुछ देर बाद दस्त होगा। इससे आँतों को बल और शरीर को स्फूर्ति भी मिलेगी। उम्र के अनुसार खजूर की मात्रा कम-ज्यादा करें।

** शैयामूत्रः जो बच्चे रात्रि में बिस्तर गीला करते हों, उन्हें दो छुहारे रात्रि में भिगोकर सुबह दूध में उबाल के दें।

** बच्चों के दस्त में- बच्चों के दाँत निकलते समय उन्हें बार-बार हरे दस्त होते हों या पेचिश पड़ती हो तो खजूर के साथ शहद को अच्छी तरह फेंटकर एक-एक चम्मच दिन में 2-3 बार चटाने से लाभ होता है।

** तन-मन की पुष्टिः बच्चों को दूध में खजूर उबाल के देने से उन्हें शारीरि-मानसिक पोषण मिलता है व शरीर सुदृढ़ बनता है।

** नशा-निवारकः शराबी प्रायः नशे की झोंक में इतनी शराब पी जाता है कि उसका यकृत नष्ट होकर मृत्यु का कारण बन सकता है। इस स्थिति में ताजे पानी में खजूर को अच्छी तरह मसलते हुए शरबत बनायें। यह शरबत पीने से शराब कै विषैला प्रभाव नष्ट होने लगता है।

** खजूर रक्त को बढ़ाता है और यकृत (लीवर) के रोगों में लाभकारी है। रक्ताल्पता में इसका नियमित सेवन लाभकारी है।

***पोषक तत्वों से भरपूर खजूर****

* दांतों का गलना – छुहारे खाकर गर्म दूध पीने से कैलशियम की कमी से होने वाले रोग, जैसे दांतों की कमजोरी, हड्डियों का गलना इत्यादि रूक जाते हैं।

* रक्तचाप – कम रक्तचाप वाले रोगी 3-4 खजूर गर्म पानी में धोकर गुठ
ली निकाल दें। इन्हें गाय के गर्म दूध के साथ उबाल लें। उबले हुए दूध को सुबह-शाम पीएं। कुछ ही दिनों में कम रक्तचाप से छुटकारा मिल जायेगी।

* कब्ज – सुबह-शाम तीन छुहारे खाकर बाद में गर्म पानी पीने से कब्ज दूर होती है। खजूर का अचार भोजन के साथ खाया जाए तो अजीर्ण रोग नहीं होता तथा मुंह का स्वाद भी ठीक रहता है। खजूर का अचार बनाने की विधि थोड़ी कठिन है, इसलिए बना-बनाया अचार ही ले लेना चाहिए।

* पुराने घाव – पुराने घावों के लिए खजूर की गुठली को जलाकर भस्म बना लें। घावों पर इस भस्म को लगाने से घाव भर जाते हैं।

* मासिक धर्म : छुहारे खाने से मासिक धर्म खुलकर आता है और कमर दर्द में भी लाभ होता है।

* खजूर गर्भवती महिलाओं में दूध की मात्रा में वृद्धि करता है और अधिक ऊर्जा प्रदान करता है।

* आंख की पलक पर गुहेरी रोग हो जाता है। खजूर की गुठली को रगड़कर गुहेरी पर लगाए। आराम मिलेगा।

* मोटापा - खजूर का सेवन मोटापा लाता है तथा शरीर का भार बढ़ता है, अतः मोटे व्यक्ति सोचकर खाए। दुबले व्यक्ति भार बढ़ाने के लिए खा सकते हैं।

* जिनकी पाचन शक्ति अच्छी हो वे खजूर खाएं, क्योंकि यह पचाने में समय लेती है। छुहारे, पुरा वर्ष उपलब्ध रहते है। खजूर केवल सर्दी में तीन महीने। जब जो उपलब्ध हो, उसका सेवन करें।

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‎............टमाटर.............



यदि आप टमाटर जैसा लाल लाल दिखना चाहते है तो अपने भोजन में टमाटर का सेवन शुरू कर दीजिये. आप टमाटर को कच्चा ,पकाकर ,और सूप के रूप में सेवन कर सकते है .खट्टा-मीठा टमाटर पकाने के बाद खाने के जायके को जितना बढ़ाता है। उतना ही अधिक लाभ सलाद के रूप में लेने पर भी करता है। टमाटर में प्रोटीन, विटामिन, वसा आदि तत्व विद्यमान होते हैं। कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम होती है इसके अलावा भी टमाटर खाने से कई लाभ होते हैं। टमाटर सिर्फ एक सब्जी नहीं बल्कि ये अपने आप में एक संपूर्ण औषधी है
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* डायबिटीज में टमाटर - एक करेला एक ककड़ी(खीरा),एक टमाटर के नियमित सेवन से डायबिटीज, आंखों व पेशाब संबंधी रोगों, पुरानी कब्ज व त्वचा के रोगों का उपचार होता है।

* टमाटर लीवर और किडनी को उत्तेजित करता है जिससे शरीर में उनके कार्य उचित गति से होते रहते हैं .दिन में तीन बार एक-एक गिलास टमाटर का सूप पीजिये .२५० ग्राम टमाटर को एक लीटर पानी में उबालने के पश्चात मसल देने से सूप तैयार हो जाता है ,आप इसमें स्वाद के अनुसार चीनी या नमक और थोड़ी सी काली मिर्च और भुना जीरा मिला सकते हैं.


* टमाटर के गूदे में कच्चा दूध व नींबू का रस मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरे पर चमक आती है।

* भोजन करने से पहले दो या तीन पके टमाटरों को काटकर उसमें पिसी हुई कालीमिर्च, सेंधा नमक एवं हरा धनिया मिलाकर खाएं। इससे चेहरे पर लाली आती है व पौरूष शक्ति बढ़ती है।

* पेट में कीड़े होने पर सुबह खाली पेट टमाटर में पिसी हुई कालीमिर्च लगाकर खाने से लाभ होता है।या उसमे हींग का छौंका लगा दीजिये ,अब उसे पी जाइए ,सारे कीड़े मर जायेंगे.

* टमाटर को पीसकर चेहरे पर इसका लेप लगाने से त्वचा की कांति और चमक दो गुना बढ़ जाती है। मुँहासे, चेहरे की झाइयाँ और दाग-धब्बे दूर करने में मदद मिलती है।

** कैन्सर रोग में टमाटर - टमाटर खाने वालों को कैन्सर रोग नहीं होता।कैंसर प्रतिरोधक क्षमता छुपाये हुए है. अगर किसी को कैंसर हो गया हो तो उसके भोजन में ६० % हिस्सा टमाटर का कर दीजिये.जितनी कोशिकाएं नष्ट हो चुकी हैं उनकी संख्या में और बढ़ोत्तरी नहीं होगी और कैंसर नियंत्रित रहेगा।लाइकोपीन की वजह से यह कैसर कैंसर रोकने में फायदेमंद है।
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प्रात: बिना कुल्ला किए पका टमाटर खाना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होता है।टमाटर के नियमित सेवन से पेट साफ रहता है।

भास्कराचार्य/Bhaskaracharya


भास्कराचार्य प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे। इनका जन्म 1114 ई0 में हुआ था। 
भास्कराचार्य उज्जैन में स्थित वेधशाला के प्रमुख थे। 

यह वेधशाला प्राचीन भारत में गणित और खगोल शास्त्र का अग्रणी केंद्र था। जब इन्होंने "सिद्धान्त शिरोमणि" नामक ग्रन्थ लिखा तब वें मात्र 36 वर्ष के थे। "सिद्धान्त शिरोमणि" एक विशाल ग्रन्थ है जिसके चार भाग हैं (1) लीलावती (2) बीजगणित (3) गोलाध्याय और (4) ग्रह गणिताध्याय।

लीलावती भास्कराचार्य की पुत्त्री का नाम था। अपनी पुत्री के नाम पर ही उन्होंने पुस्तक का नाम लीलावती रखा। यह पुस्तक पिता-पुत्री संवाद के रूप में लिखी गयी है। लीलावती में बड़े ही सरल और काव्यात्मक तरीके से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है। इस पुस्तक से लिया गया एक उद्धरण है,


लीलावती अपने पिता भास्कराचार्य प्रश्न पूछती है, "पिताजी, यह पृथ्वी, जिस पर हम निवास करते हैं, किस पर टिकी हुई है?" । इसके उत्तर में भास्कराचार्य ने कहा, "बाले लीलावती, कुछ लोग जो यह कहते हैं कि यह पृथ्वी शेषनाग, कछुआ या हाथी या अन्य किसी वस्तु पर आधारित है तो वे गलत कहते हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि यह किसी वस्तु पर टिकी हुई है तो भी प्रश्न बना रहता है कि वह वस्तु किस पर टिकी हुई है और इस प्रकार कारण का कारण और फिर उसका कारण... यह क्रम चलता रहेगा"।

लीलावती ने कहा फिर भी यह प्रश्न बना रहता है कि पृथ्वी किस चीज पर टिकी है? तब भास्कराचार्य ने कहा कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं। आजकल हम कहते हैं कि न्यूटन ने ही सर्वप्रथम गुरुत्वाकर्षण की खोज की, परन्तु उसके 550 वर्ष पूर्व भास्कराचार्य ने पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को विस्तार में समझा दिया था।

लीलावती के बारे में एक कथा प्रचलित है। भास्कराचार्य ने लीलावती की कुंडली का अध्ययन किया जिससे उन्हें पता चला कि अगर लीलावती की शादी एक विशेष समय पर नहीं हुई तो उनके पति की जल्द ही मृत्यु हो जायेगी। उस विशेष समय का पता लगाने के लिए उन्होंने एक यन्त्र का निर्माण किया। इस उपकरण में पानी से भरे हुए एक बड़े बर्तन के ऊपर एक छोटा खाली बर्तन रखा गया था। छोटे बर्तन में एक छेद बनाया गया था ताकि पानी बड़े बर्तन से छोटे बर्तन में आ सके। इस यन्त्र को इस तरह से व्यवस्थित किया गया कि विशेष समय पर छोटा बर्तन बड़े बर्तन में पूरी तरह डूब जाये। यंत्र को व्यवस्थित करके भास्कराचार्य ने लीलावती को इससे दूर रहने का निर्देश दिया और अपने कार्य में लग गए। लेकिन लीलावती उत्सुकता वश उस उपकरण को ऊपर से देखने लगी और उसका एक मोती उपकरण में जा गिरा। इससे उपकरण सही समय नहीं बता पाया। गलत मुहूर्त में शादी होने के कारण लीलावती जल्द ही विधवा हो गयी।

भास्कराचार्य ने गणित और खगोलशात्र में महत्वपूर्ण शोध किये जिससे इन क्षेत्रों में भारत वर्ष का नाम आज भी सम्मान से लिया जाता है।



सर्व-संकट-निवारण


‘रुद्राष्टक’ का नित्य पाठ करें।

॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥


नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ३॥

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥

न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥

॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं संपूर्णम् ॥

विशेषः- उक्त ‘रुद्राष्टक’ को स्नानोपरान्त भीगे कपड़े सहित शिवजी के सामने सस्वर पाठ करने से किसी भी प्रकारका शाप या संकट कट जाता है। 

यदि भीगे कपड़े सहित पाठ की सुविधा न हो, तो घर पर या शिव-मन्दिर में भी तीन बार, पाचँ बार, आठ बार पाठ करके मनोवाञ्छित फल पाया जा सकता है। यह सिद्ध प्रयोग है। विशेषकरनाग-पञ्चमी’ पर रुद्राष्टक का पाठ विशेष फलदायी है।


घर या आश्रम **



एक भिक्षु घर-घर जाकर भिक्षा मांगता था। उसे जो भी मिलता वह सहज भाव से स्वीकार करता था। इसके बदले वह सबको आशीर्वाद देता था। उसका व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि लोग उसके आने की प्रतीक्षा करते रहते थे। उसे भिक्षा देकर वे अपने को धन्य समझते थे। लेकिन एक व्यक्ति ऐसा भी था जो उस भिक्षु को देखना तक पसंद नहीं करता था। उसके घर से कभी भिक्षु को भिक्षा नहीं मिलती थी। लेकिन भिक्षु नियमित उसके घर जाया करता था। वह कुछ देर प्रतीक्षा करता फिर लौट जाता। अगर कोई व्यक्ति घर में दिख जाता तो वह उसे आशीर्वाद देता।

एक दिन जब वह रोज की तरह उस घर में गया तो गृह स्वामिनी ने कहा-क्षमा करें, यहां आपको भिक्षा नहीं मिलेगी। लेकिन अगले दिन भिक्षु फिर आ पहुंचा। यह सिलसिला जारी रहा। उस घर के लोग आपस में बात करते कि यह भी अजीब भिक्षु है। एक दिन घर के मुखिया ने कहा-जब तुम्हें कहा जा चुका है कि यहां तुम्हें कुछ भी न मिलेगा फिर भी तुम किस आशा से रोज चले आते हो? इस पर भिक्षु ने मुस्कराकर कहा-अनुगृहीत हुआ। इतने प्रेम से कोई नहीं कहता कि यहां तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। एक भिक्छु के लिए द्वार तक आना और यह सुनना कि यहां तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा, क्या कम है? आपने मुझे साधना का एक अवसर दिया है। मुझे सहनशीलता सिखाई है। इससे मेरा अहं विलीन हो गया। इस तरह आपका घर तो एक आश्रम है। यहां सीखने का मौका मिलता है। वह व्यक्ति लज्जित हो गया। उसने भिक्षु से क्षमा मांगी।