12 April 2013

!!! स्थितप्रज्ञ के लक्षण !!!


 स्थितप्रज्ञ यानी वो जिसे ज्ञान की परम अनुभूति हो चुकी है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है,  जो पुरुष मन में आने वाली सभी कामनाओं का त्याग कर अपने आत्म भाव में ही सन्तृष्ट रहता है, वो पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है। जो सुख-दु:ख सभी परिस्थितयों में समान रहता है। जिसे न तो सुख लुभा सकता है,  और न ही दु:ख डिगा सकती है। वो पुरुष जिसे सुख की अनुभूति के लिए बाहरी असत्य वस्तुओं पर आश्रित रहने की जरुरत नहीं है। स्थितप्रज्ञ पुरुष अपने अन्दर ही पूर्ण सुख की खोज कर लेता है। उसके लिए न तो कोई शुभ वस्तु प्रसन्नता लाती है और न ही दु:खी करने वाली वस्तु दु:ख का बोध कराती है।

अब ऐसा नहीं समझना चाहिए की स्थितप्रज्ञ पुरुष वो है जिसके जीवन में कोई रस नहीं है । वस्तुत:  जीवन में परम आनन्द की अनुभूति सिर्फ स्थितप्रज्ञ पुरुष को ही होती है, क्योंकि वह क्षणिक आनन्द देने वाली बाहरी वस्तुओं पर आश्रित नहीं है। अब आप अपने जीवन में ही एक प्रयोग करके देखें। कभी सोचा है जिस खिलौने को हम अपने बाल्यावस्था में किसी को स्पर्श भी नहीं करने देना चाहते थे,  आज वो हमारे लिए कोई महत्त्व नहीं रखता है । आज हमारी अवस्था अलग है, हम आज अपने परिवार के साथ मन बहला रहे हैं , हमारे बच्चे / पोते आज हमारे लिए मन बहलाने वाले खिलौनें हैं। आज हमें कोई बाल्यावस्था के खिलौनें भेंट में दे तो हम उसे पागल समझेंगे। अत: हमारे आनन्द का साधन बदलता रहता है। ये तो बाल्यावस्था से युवावस्था तक आने की बातें है। आप युवावस्था में ही आनन्द के लिए वस्तुएँ बदलते रहते हैं। पिछले महीने आपने जो वस्तु अपने आनन्द के लिए खरीदी थी,  आज आपको वही वस्तु अब उतना आनन्द नहीं देती।  अत: समय के साथ आपके लिए आनन्द की परिभाषा बदलती रहती है। आप अपने आनन्द के लिए बाहरी परिस्थिति और वस्तुओं को बदलते बदलते थक जाते है। पर कभी सोचा है ऐसी अवस्था हो जहाँ आनन्द बाहरी परिस्थिति और वस्तुओं पर आश्रित न हो। यानी परम और पूर्ण आनन्द की अवस्था जो हमेशा बना रहे। स्थितप्रज्ञ पुरुष को यह अवस्था प्राप्त है।

ठीक इसी तरह जब आप अपने जीवन में दु:ख के कारणों की खोज करेंगे तो पायेंगे कि आपने अपने मन को जीवन की बाहरी बदलती हुई परिस्थिति में इतना आसक्त कर रखा है की थोड़ी बदली हुई परिवेश जो आपको पसन्द न हो दु:ख पहुँचा जाती है। हम किसी भी चोट पहुँचाने वाले स्थिति से आहत होते है और दु:ख हमें घेर लेता है। कई बार तो हमारा मन इतना कमजोर हो चुका होता है कि किसी के द्वारा बनाई हुई परिस्थिति हमें इतना आहत करती है कि हम उदासीनता की न्यूनतम स्थिति में पहुँच जाते हैं। इस स्थिति को आधुनिक विज्ञान की भाषा में "डिप्रेशन" भी कहते है। कभी सोचा है कि हम इस दु:ख वाली स्थिति से पूर्णता बाहर रह सकते है। स्थितप्रज्ञ पुरुष को यह अवस्था प्राप्त है। अत: स्थितप्रज्ञ पुरुष वो है जिसने अपने मन पर विजय प्राप्त कर ली हो।                    

स्थितप्रज्ञ पुरुष कामना रहित है है। उसे अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण स्वामीत्व प्राप्त है। आधुनिक स्वेच्छाचारी जीवन प्रवृति का तर्क प्रस्तुत करने वालों का मानना है कि अपनी कामनाओं को रोको मत और इच्छाओं की ज्यादा से ज्यादा पूर्ति करो, ताकि आनन्द की अनुभूति बढ़ती जाये। आज की आधुनिक पीढ़ी ऐसा कर रही है। किन्तु हमें अपनी इच्छाओं का अन्त कहीं नजर नहीं आता है। एक कामना की पूर्ति करो तो दूसरी आ खड़ी होती है। फिर हम दूसरी कामना की पूर्ति में लग जाते है। पहली कामना पूर्ति का सुख क्षणिक होता है और दूसरी कामना जो सामने खड़ी है उसकी पूर्ति करने को मन परेशान होता रहता है। अत: वस्तुत: आनन्द की अनुभूति कामनाओं की पूर्ति में नहीं है। आनन्द को बढ़ाना है तो मन में स्थित इच्छाओं की संख्या को कम करना होगा। परम पूज्य गुरुदेव स्वामी चिन्मयानन्द जी ने इसे गणित की सुन्दर भाषा में इस तरह समझाने की कोशिश की है

सुख की मात्रा =   पूर्ण हुई इच्छाओं की संख्या
                                 --------------------------------                               
                                  मन में स्थित इच्छाओं की संख्या



         आज का हमारा आधुनिक अर्थशास्त्र भी इस सिद्धान्त कि पुष्टि करता है । ला आफ डिमिनिशिंग मार्जनिल युटिलिटी अर्थशास्त्र का एक सिद्धान्त है जो यह सिद्ध करता है कि हम एक वस्तु का जितना भोग करते जायेंगे, हमारी आनन्द की अनुभूति उससे कम होती जायेगी।

स्थितप्रज्ञ पुरुष क्रोध मुक्त होता है । हम अपने जीवन में क्रोध के कारणों का पता लगायें तो पायेंगे कि क्रोध का कारण हमारा मन है जो बाहरी परिस्थितयों में आनन्द की खोज करता है। जब भी हमारे सामने प्रतिकूल परिस्थिति आती है तो हमें क्रोध आ जाता है और जब अनुकूल परिस्थिति आती है तो हमें आनन्द आता है। उदाहरण के लियें हमने कहीं सफर करने के लिए रेलवे से वातानुकूलित डिब्बे में टिकट आरक्षित करवाई। जब प्रस्थान वाले दिन हम रेलवे स्टेशन पहुँचते है तो हमें पता लगता है की वातानुकूलित आरक्षित डिब्बे रद्द कर दी गई है और हमें अनारक्षित सामान्य डिब्बे में सफर करना पड़ेगा। अब इस समय स्थिति हमारे अनुकूल नहीं है, हमें क्रोध आता है। हम क्रोध करते है रेलवे कर्मचारियों पर। इस क्रोध में संपूर्ण मार्ग पर परेशान होते हुए सफर करते है। प्रयोग के लिए ऐसी स्थिति में क्रोध न करके देखें। आपके सफर का आनन्द दुगुना हो जायेगा। स्थितप्रज्ञ पुरुष अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में स्थिर रहता है। अत: स्थितप्रज्ञ पुरुष क्रोध मुक्त होता है ।

              
               
[29 सितम्बर को ब्रह्मलीन परम पूज्य स्वामी शंकरानन्द जी की पूण्यतिथि है
एक बार उन्होनें मुझे कहा था " कुछ पढ़ो कुछ लिखो " कलम उठाकर लिखने लगा तो
उनका चेहरा सामने आया, तो स्थितप्रज्ञ पुरुष के सारे लक्षण सामने आ गये ]


!!! पुरुषार्थ से सुधारें अपना प्रारब्ध !!!


पुरुषार्थ से हम अपना भाग्य बदल सकते हैं। इस संबंध में एक पुरानी कहावत भी है कि कर्मों का फल अवश्य मिलता है। लेकिन लोग अक्सर कर्म के सिद्धांत को समझने में गलती कर देते हैं और अपनी नियति को भाग्य से जोड़ देते हैं। बहुत से लोगों को ऐसा कहते सुना जाता है कि अगर भाग्य पहले से निर्धारित है, तो कर्म करने की क्या जरूरत है? हर चीज भाग्य पर छोड़ दो। लेकिन ऐसा नहीं है। 

कर्म के सिद्धांत को समझने के लिए कर्म के प्रकारों को समझना जरूरी है। कर्म के तीन प्रकार हैं: संचित, प्रारब्ध और क्रियामना अर्थात् आगामी। बीत चुके समय या पिछले जन्मों के कर्म संचित कर्म हैं। इनकी झलक व्यक्ति के चरित्र, उसके रुझान, क्षमता, प्रवृति और इच्छा में देखने को मिलती है। प्रारब्ध कर्म भी संचित कर्म का ही हिस्सा है और यह व्यक्ति के वर्तमान जीवन को प्रभावित करते हैं। यह कर्म की वह स्थिति है, जब हमें पहले के कर्मों का फल प्राप्त होने लगता है। क्रियामना से आशय उन कर्मों से है, जो भविष्य के लिए किए जाते हैं। इनका फल भविष्य में मिलता है या फिर अगले जन्मों में।
कर्म के प्रकारों को वेदों में एक धनुर्धर (धनुषधारी) का उदाहरण देकर समझाया गया है। उसकी पीठ पर मौजूद तरकश के तीर संचित कर्म के समान हैं। जो तीर उसने छोड़ दिए हैं, उनकी तुलना प्रारब्ध कर्म से की गई है और जो तीर वह छोड़ेगा, वे आगामी या क्रियामना कर्म हैं। संचित और आगामी कर्मों पर तो उसका पूरा नियंत्रण है, लेकिन उसके लिए जरूरी है कि वह प्रारब्ध को नियंत्रित करे। 
कर्म की तुलना भंडार में जमा करके रखे गए चावलों से भी की गई है। संचित कर्म भंडार में रखे चावलों की तरह हैं और वर्तमान को प्रभावित करने वाला प्रारब्ध-कर्म पकाने के लिए तैयार गए चावलों की तरह। खेत में बोया जाने वाला चावल वर्तमान कर्मों के परिणाम, यानी क्रियामना की तरह है। चावल की जो फसल बोई जा रही है, वह कल की ऐसी पूंजी है, जिससे धान का भंडार बढ़ेगा।