03 July 2013

!!! दुर्गा-पूजा विधान !!!



एकान्त स्थान पर जगह को साफ़ करने के बाद उसे नमक मिले पानी से साफ़ करें,और दुर्गा पूजा के लिये कलश स्थापना कर लें,फ़िर प्राण्गमुख होकर आसन पर बैठ जावें,जल से शिखा का प्रेक्षण करे,और शिखा को बांध लें। तिलक लगाकर आचमन एवं प्राणायाम करें। हाथ में फ़ूल लेकर अंजलि बांध कर दुर्गाजी का ध्यान करे। 

ध्यान का मंत्र इस प्रकार है:-


सिंहस्था शशिशेखरा मरकतप्रख्यैश्चतुर्भिभुजै:,शंखं चक्रधनु:शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभि: शोभिता।
आमुक्तांगदहारकंकणरणत्कांचीरणन्नूपुरा,दुर्गा दुर्गति हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला॥

(ध्यानार्थे अक्षतपुष्पाणि समर्पयामि ऊँ दुर्गायै नम:)


अर्थ:- जो सिंह की पीठ पर विराजमान है,जिनके मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट है,जो मरकतमणि के समान कान्तिवाली अपनी चार भुआओं में शंख चक्र धनुष और बाण धारण करती हैं,तीन नेत्रों से सुशोभित होती है,जिनके भिन्न भिन्न अंग बांधे हुये बाजूबंद हार कंकण खनखनाती हुई करधनी और रुनझुन करते हुये नूपुरों से विभूषित है,तथा जिनके कानों में रत्न जटित कुण्डल झिलमिलाते रहते है,वे भगवती दुर्गा हमारी दुर्गति दूर करने वाली हों। यदि प्रतिष्टित मूर्ति हो तो आवाहन की जगह पुष्पांजलि दें,नहीं तो दुर्गाजी का आवाहन करें।


आवाहन


आगच्छ त्वं महादेवि ! स्थाने चात्र स्थिरा भव। यावत पूजां करिष्यामि तावत त्वं संनिधौ भव॥
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। दुर्गादेवीमावाहयामि। आवाहनार्थे पुष्पांजलि समर्पयामि ॥ 

(दोनो हाथों में फ़ूल लेकर प्रतिमा या आवाहन करने वाले नारियल के ऊपर हाथ का पृष्ठ भाग नीचे रखकर चढायें।

आसन


अनेक रत्न संयुक्तम नाना मणि गणान्वितम। इदम हेममयम दिव्यासनम प्रति गृह्यताम॥
श्री जगदाम्बायै दुर्गा देव्यै नम:। आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि। 

(सजा हुआ आसन या प्रतिमा पर फूल चढाकर आसन पर स्थापित होने की प्रार्थना करें)

पाद्य


गंगादि सर्व तीर्थेभ्य आनीतम तोय मुत्तमम। पाद्यार्थम ते प्रदास्यामि ग्रहाण परमेश्वरि॥

(साफ़ बिना टोंटी के लोटे से प्रतिमा या नारियल में देवी के पैरों में जल चढायें).


अर्घ्य



गन्ध पुष्प अक्षतैर्युक्तम अर्घ्यम सम्पादितम मया। ग्रहाण त्वम महादेवि प्रसन्ना भव सर्वदा॥

(पानी में लाल चन्दन घिसकर मिलालें,फ़ूल डाल लें,और चावल मिलाकर देवी के हाथों में लगायें)

आचमन


कर्पूरेण सुगन्धेन वासितम स्वादु शीतलम। तोयम आचमनीयार्थम ग्रहाण परमेश्वरि॥

(कोरे घडे से निकाला हुआ ठंडा जल,कपूर मिलाकर देवी को प्रार्थना करके उनको आचमन के लिये चढायें)

स्नान


मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरम शुभम। तदिदम कल्पितम देवि! स्नार्थम प्रतिगृह्यताम॥

(गंगाजल या पवित्र नदी का जल लेकर प्रतिमा अथवा नारियल को स्नान करवाने का क्रम करें)


स्नानांग-आचमन


स्नानान्ते पुनराचमनीयम जलम समर्पयामि।

(स्नान के बाद आचमन के लिये शुद्ध कपूर मिला जल दें)

दुग्ध स्नान


कामधेनु सम उत्पन्नम सर्व ईशाम जीवनम परम। पावनम यज्ञ हेतुश्च पय: स्नानार्थम अर्पितम॥

(गाय के दूध से स्नान करवायें)

दधि स्नान

पयस अस्तु समुद भूतम मधुर अम्लम शशि प्रभम। दध्यानीतम मया देवि! स्नानार्थम प्रति गृह्यताम॥

(गाय के दही से स्नान करवायें)

घृतस्नान

नवनीत सम उत्पन्नम सर्व संतोष कारकम। घृतम तुभ्यम प्रदस्य अमि स्नानार्थम प्रति गृह्यताम॥

(गाय के घी से स्नान करवायें)

मधु स्नान


पुष्प रेणु सम उत्पन्नम सु स्वादु मधुरम मधु। तेज: पुष्टि सम आयुक्तम स्नार्थम प्रति गृह्यताम॥

(शहद से स्नान करवायें)

शर्करा स्नान

इक्षु सार सम अद्भुताम शर्कराम पुष्टिदाम शुभाम।मल अपहारिकाम दिव्याम स्नानार्थम प्रति गृह्यताम॥

(शक्कर से स्नान करवायें)

पंचामृत स्नान

पयो दधि घृत चैव मधु च शर्करान्वितम। पंचामृतम मय आनीतम स्नानार्थम प्रति गृह्यताम॥

(किसी दूसरे बर्तन में दूध,दही,घी,शहद,शक्कर मिलाकर पंचामृत का निर्माण करें और किसी कांसे या चांदी के पात्र में इसी पंचामृत से स्नान करवायें)

गन्धोदक स्नान

मलयाचल सम्भूतम चन्दन अगरु मिश्रितम। सलिलम देव देवेशि शुद्ध स्नानाय गृह्यताम॥

(सफ़ेद चंदन लकडी वाला घिसकर और अगर को पानी में घिस कर एक बर्तन में मिलाकर स्नान करवायें)


शुद्धोदक स्नान


शुद्धम यत सलिलम दिव्यम गंगाजल समम स्मृतम। समर्पितम मया भक्त्या स्नानार्थम प्रति गृह्यताम॥

(शुद्ध जल से स्नान करवायें,और स्नान करवाने के बाद आचमन के लिये वही कपूर मिला शीतल जल दें)


वस्त्र पहिनाना


पट्ट युगमम मया दत्तम कंचुकेन समन्वितम। परिधेहि कृपाम कृत्वा माता दुर्गति नाशिनि॥

(लाल रंग की कंचुकी पहिनायें,फ़िर लाल रंग की साडी या वेष पहिनायें और ऊपर से चुनरी ओढायें,हाथों में लाल रंग की मौली बांधे,फ़िर आचमन के लिये वही कपूर से युक्त शीतल जल आचमन के लिये दें)

सौभाग्यसूत्र


सौभाग्य सूत्रम वरदे सुवर्ण मणि संयुतम। कण्ठे बघ्नामि देवेशि सौभाग्यम देहि मे सदा॥

(मंगल सूत्र लाल धागे का पीले रंग के मोतियों से युक्त या स्वर्ण से बने मोतियों से युक्त देवी के गले में पहिनायें,माता पुत्र का मानसिक ध्यान करे)

चन्दन

श्रीखण्डम चन्दनम दिव्यम गन्ध आढ्यम सुमनोहरम। विलेपनम सुर श्रेष्ठे चन्दनम प्रति गृह्यताम॥

(लकडी वाला लाल चन्दन शिला पर पानी के साथ घिस कर माता के माथे पर तिलक स्थान पर,दोनो कानों की लौरियों पर दोनो हाथों के बाजुओं पर और दोनो हाथों की हथेलियों पर लगायें)


हरिद्राचूर्ण


हरिद्रा रंचिते देवि ! सुख सौभाग्य दायिनी। तस्मात त्वाम पूज्याम यत्र सुखम शान्तिम प्रयच्छ में॥

(हल्दी को पहले से घिसकर लेप बनाकर सुखा लें,फ़िर उसका चूर्ण पूजा के लिये सावधानी से रख ले,और माता के सभी अंगों पर लगायें,हल्दी को पीस कर या बाजार की हल्दी को पिसी हुयी लाकर कदापि नहीं चढायें)


कुंकुम


कुंकुमम कामदम दिव्यम कामिनी काम सम्भवम। कुंकुमेन अर्चितम देवी कुंकुमम प्रति गृह्यताम॥

(माता के पैरों में कुंकुम लगायें,दोनो हाथों में लगायें)


सिन्दूर


सिन्दूरमरुणाभासम जपा कुसुम संनिभम। अर्पितम ते मया भक्त्या प्रसीद परमेश्वरि॥

(माता के माथे पर सिन्दूर की बिन्दी लगायें,नाक की सीध में बालों के अन्दर सिन्दूर भरें)

काजल


चक्षुर्भ्याम कज्जलम रम्यम सुभगे शान्ति कारकम। कर्पूर्ज्योति समुत्पन्नम गृहाण परमेश्वरि॥

(कपूर को जलाकर उसकी लौ के ऊपर कांसे का बर्तन रखें थोडी सी देर में काले रंग का काजल बर्तन पर आजायेगा,उस काजल को माता की आंखों में नीचे की तरफ़ सावधानी से दाहिने हाथ की अनामिका उंगली से लगायें)

दूर्वांकुर


तृणकान्त मणि प्रख्य हरित अभि: सुजातिभि:। दूर्वाभिराभिर्भवतीम पूजयामि महेश्वरि॥

(किसी नदी या साफ़ स्थान से हरी और सफ़ेद दूब जिसके अन्दर ऊपर के भाग की तीन पत्तियों के अंकुर हों साफ़ करने के बाद अपने पास रखलें,रोजाना लाना सम्भव नही हो तो पहले लाकर किसी साफ़ सफ़ेद कपडे को गीला करने के बाद उसके अन्दर लपेट कर रख दें,पीली दूब या सूखी दूब कभी नही चढायें,१०८ या कम से कम १८ अंकुर रोजाना जरूर चढायें)

बिल्वपत्र

त्रिदलम त्रिगुणाकारम त्रिनेत्रम च त्रिधायुतम। त्रिजन्म पाप संहारम बिल्वपत्रम शिवार्पणम॥

(अर्धनारीश्वर की आभा में देवी का रूप है,शैवमत के अनुसार शिव के बिना शक्ति नही है और शक्ति के बिना शिव नही है,बिल्व पत्र की तीन पत्तियों वाली हरी कोमल शाखायें माता के तीन नेत्रों का प्रति रूप है,ध्यान रखना चाहिये कि यह नौ से अधिक कभी न चढायें,पहली तीन पत्ती की शाखा माता के आंखों के ऊपर लगायें बाद में कान नाक मुंह हाथ नाभि कटि गुहा पैरों लगाना चाहिये)


आभूषण


हार कंकण केयूर मेखला कुण्डलादिभि:। रत्नाढ्यम हीरकोपेतम भूषणम प्रति गृह्यताम॥

(दुर्गापूजा से पहले ही माता के लिये स्वर्ण या रजत से निर्मित हार कंगन बाजूबंद कनकती कुन्डल पाजेब बिछिया जिनके अन्दर विभिन्न रत्न लगे हों बनवाकर रख लेना चाहिये,और पूजा में पहिनाने चाहिये,तथा मूर्ति विसर्जित होने पर उनको किसी कन्या को दान कर देना चाहिये,या मूर्ति के साथ जाने देना चाहिये,भूलकर भी लोभ वश उन्हे अन्य काम के लिये नहीं रखना चाहिये)

पुष्पमाला


माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि भक्तित:। मय आर्ह्यतानि पुष्पाणि पूजार्थम प्रति गृह्यताम॥

(अपने हाथ से लाल फ़ूलों की माला लाल रंग के धागे में अपने हाथों से पिरोना चाहिये,फ़ूल सौ से अधिक या कम नही हों,एक बार या प्रतिमा के अनुसार दो बार तीन बार माला को घुमाकर दाहिने से पहिनानी चाहिये)

परिमल द्रव्य


अबीरम गुलालम च हरिद्रा आदि समन्वितम। नाना परिमल द्रव्यम गृहाण परमेश्वरि॥

(सफ़ेद रंग की खडिया मिट्टी को पीसकर लाल रंग और सुगन्धित केवडा आदि मिलाकर अबीर तैयार करना चाहिये,हल्दी,चन्दन,छोटी इलायची और तेज पत्ता को पीसकर गुलाल तैयार करना चाहिये,हल्दी का पहले तैयार किया चूर्ण कपूर पीस कर मिलाकर तैयार करना चाहिये,और माता के चारों तरफ़ दाहिने से बायें चढाना चाहिये)

सौभाग्य पेटिका


हरिद्राम कुंकुमम चैव सिन्दूरादि समन्वितम। सौभाग्यपेटिकामेताम गृहाण परमेश्वरि॥

(हल्दी का चूर्ण कुंकुम सिन्दूर हरी चूडियां श्रंगार का अन्य सामान सहित सौभाग्य पेटी (श्रंगारदान) माता को अर्पित करें)

धूप


वनस्पतिरसोदभूतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तम:। आघ्रेय: सर्वदेवानाम धूपोअयम प्रति गृह्यताम॥

(धूप जो बनी हुई अगर तगर कपूर चन्दन के बुरादे से युक्त माता के सामने धूपें)

दीप

साज्यं च वर्ति संयुक्तम वाहिन्ना योजितम मया। दीपम गृहाण देवेशि त्रैलोक्य तिमिरापहम॥

(शुद्ध रुई की दोहरी बत्ती बनायें,और आरती वाले पात्र में जिसमे कमसे कम दो अंगुल ऊंचा शुद्ध गाय का घी भरा हो,उसके अन्दर बत्तियों को डुबोकर अगरबत्ती से दीपक को प्रज्वलित करें,दीपक के अन्दर एक चांदी का या सोने का सिक्का डालें और माता को दिखायें,दीपक दिखाकर दीपक को अपने दाहिने रखें और हाथ साफ़ पानी से धो लें)

नैवेद्य

शर्कराखण्ड खाद्यानि दधि क्षीर घृतानि च। आहारार्थम भक्ष्य भोज्यम नैवेद्यम प्रति गृह्यताम॥

(शक्कर और दही तथा खीर में घी मिलाकर नैवेद्य माता को आहार के रूप में अर्पित करें,नैवेद्य अर्पित करने के बाद आचमन के लिये कपूर मिला शीतल जल अर्पित करें,उसके बाद सादा पानी हाथ और मुंह धोने के लिये अर्पित करें)


ऋतुफ़ल


इदम फ़लम मया देवि स्थापितम पुरतस्तव। तेन मे सफ़ल अवाप्तिर भवेज जन्मनि जन्मनि॥

(जो भी फ़ल बाजार में आ रहे हों,उन्ही को बिना दाग धब्बे के लेकर आवें,और माता को प्रकार प्रकार के चढावें)

ताम्बूल

पूगीफ़लम महाद्दिव्यम नागवल्ली दलैर्युतम। एलालवंगसंयुक्तम ताम्बूलम प्रतिगृह्यताम॥

(इलायची लौंग सुपाडी और पान माता को अर्पित करें)

दक्षिणा

दक्षिणाम हेमसहिताम यथा शक्ति समर्पिताम। अनन्तफ़लदामेनाम गृहाण परमेश्वरि॥

(मुद्रा में जो वर्तमान में चल रही हो,सिक्कों के रूप में माता को चढायें,भूलकर भी कागज की मुद्रा नही चढायें,अगर नही मिले तो केवल चावल बिना टूटे चढावें)

आरती


कदली गर्भ सम्भूतम कर्पूरम तु प्रदीपितम। आरार्तिकमहम कुर्वे पश्य माम वरदा भव॥

(चलते हुये दीपक से पीतल के बर्तन में कपूर को जला लें और माता की दाहिने बायें सात बार आरती उतारें,और आरती के बाद पानी को तांबे के लोटे में भरकर सात बार पानी से आरती उतारें)

दुर्गा सप्तशती का मन्त्र पाठ

एक सौ आठ बार दुर्गा सप्तशती का मंत्र जाप करें, मंत्र के शुरु में जो "ऊँ" प्रत्यय लगा है उसे कदापि नही बोलें,मन्त्र को शुरु करने के लिये उच्चारण को साफ़ तरीके से करें, मन्त्र है:-

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाये विच्चै,ऊँ ग्लों हूँ क्लीं जूँ स:, ज्वालय ज्वालय,ज्वल जवल,प्रज्वल प्रज्वल,ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाये विच्चै,ज्वल हँ सँ लँ क्षँ फ़ट स्वाहा।

तदुपरान्त दुर्गा सप्तशती के पाठ जो तीन चरित्रों में है उनको क्रम बार करें,चाहें तो तुरत परिणाम के लिये पाठ के पहले रात्रि सूक्त और इक्कीस बार कुंजिका-स्तोत्र फ़िर एक बार रात्रि सूक्त का पाठ करें।



!!! ऊँ और स्वास्तिक का महत्व !!!



स्वास्तिक भारतीयों में चाहे वे वैदिक मतालम्बी हों या सनातनी हो या जैन मतालम्बी,ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र सभी मांगलिक कार्यों जैसे विवह आदि संस्कार घर के अन्दर कोई भी मांगलिक कार्य होने पर "ऊँ" और स्वातिक का दोनो का अथवा एक एक का प्रयोग किया जाता है। इन दोनो का प्रयोग करने का तरीका यह जरूरी नही है कि वह पढे लिखे या विद्वान संगति में ही देखने को मिलता हो,यह किसी भी ग्रामीण या शहरी संस्कृति में देखने को मिल जाता है। किसी के घर में मांगलिक कार्य होते है तो दरवाजे पर लिखा जाता है,किसी मंदिर में जाते है तो उसके दरवाजे पर यह लिखा मिलता है,किसी प्रकार की नई लिखा पढी की जाती है तो शुरु में इन दोनो को या एक को ही प्रयोग में लाया जाता है। "ऊँ" के अन्दर तीन अक्षरों का प्रयोग किया जाता है,"अ उ म" इन तीनो अक्षरों में अ से अज यानी ब्रह्मा जो ब्रह्माण्ड के निर्माता है,सृष्टि का बनाने का काम जिनके पास है,उ से उनन्द यानी विष्णुजी जो ब्रह्माण्ड के पालक है और सृष्टि को पालने का कार्य करते है, म से महेश यानी भगवान शिवजी,जो ब्रह्माण्ड में बदलाव के लिये पुराने को नया बनाने के लिये विघटन का कार्य करते है। वेदों में ऊँ को प्रणव की संज्ञा दी गयी है,जब भी किसी वेद मंत्र का उच्चारण होता है तो ऊँकार से ही शुरु किया जाता है,स्वास्तिक को चित्र के रूप में भी बनाया जाता है और लिखा भी जाता है जैसे "स्वास्ति न इन्द्र:" आदि.

हिन्दू समाज में किसी भी शुभ संस्कार में स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग किया जाता है,बच्चे का पहली बार जब मुंडन संस्कार किया जाता है तो स्वास्तिक को बुआ के द्वारा बच्चे के सिर पर हल्दी रोली मक्खन को मिलाकर बनाया जाता है,स्वास्तिक को सिर के ऊपर बनाने का अर्थ माना जाता है कि धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का योगात्मक रूप सिर पर हमेशा प्रभावी रहे,स्वास्तिक के अन्दर चारों भागों के अन्दर बिन्दु लगाने का मतलब होता है कि व्यक्ति का दिमाग केन्द्रित रहे,चारों तरफ़ भटके नही,वृहद रूप में स्वास्तिक की भुजा का फ़ैलाव सम्बन्धित दिशा से सम्पूर्ण इनर्जी को एकत्रित करने के बाद बिन्दु की तरफ़ इकट्ठा करने से भी माना जाता है,स्वास्तिक का केन्द्र जहाँ चारों भुजायें एक साथ काटती है,उसे सिर के बिलकुल बीच में चुना जाता है,बीच का स्थान बच्चे के सिर में परखने के लिये जहाँ हड्डी विहीन हिस्सा होता है और एक तरह से ब्रह्मरंध के रूप में उम्र की प्राथमिक अवस्था में उपस्थित होता है और वयस्क होने पर वह हड्डी से ढक जाता है,के स्थान पर बनाया जाता है। स्वास्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद है,पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इसे वैयाकरण कौमुदी में ५४ वें क्रम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है। यह स्वास्तिक पद ’सु’ उपसर्ग तथा ’अस्ति’ अव्यय (क्रम ६१) के संयोग से बना है,इसलिये ’सु+अस्ति=स्वास्ति’ इसमें ’इकोयणचि’सूत्र से उकार के स्थान में वकार हुआ है। ’स्वास्ति’ में भी ’अस्ति’ को अव्यय माना गया है और ’स्वास्ति’ अव्यय पद का अर्थ ’कल्याण’ ’मंगल’ ’शुभ’ आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब स्वास्ति में ’क’ प्रत्यय का समावेश हो जाता है तो वह कारक का रूप धारण कर लेता है और उसे ’स्वास्तिक’ का नाम दे दिया जाता है। स्वास्तिक का निशान भारत के अलावा विश्व में अन्य देशों में भी प्रयोग में लाया जाता है,जर्मन देश में इसे राजकीय चिन्ह से शोभायमान किया गया है,अन्ग्रेजी के क्रास में भी स्वास्तिक का बदला हुआ रूप मिलता है,हिटलर का यह फ़ौज का निशान था,कहा जाता है कि वह इसे अपनी वर्दी पर दोनो तरफ़ बैज के रूप में प्रयोग करता था,लेकिन उसके अंत के समय भूल से बर्दी के बेज में उसे टेलर ने उल्टा लगा दिया था,जितना शुभ अर्थ सीधे स्वास्तिक का लगाया जाता है,उससे भी अधिक उल्टे स्वास्तिक का अनर्थ भी माना जाता है। स्वास्तिक की भुजाओं का प्रयोग अन्दर की तरफ़ गोलाई में लाने पर वह सौम्य माना जाता है,बाहर की तरफ़ नुकीले हथियार के रूप में करने पर वह रक्षक के रूप में माना जाता है। काला स्वास्तिक शमशानी शक्तियों को बस में करने के लिये किया जाता है,लाल स्वास्तिक का प्रयोग शरीर की सुरक्षा के साथ भौतिक सुरक्षा के प्रति भी माना जाता है,डाक्टरों ने भी स्वास्तिक का प्रयोग आदि काल से किया है,लेकिन वहां सौम्यता और दिशा निर्देश नही होता है। केवल धन (+) का निशान ही मिलता है। पीले रंग का स्वास्तिक धर्म के मामलों में और संस्कार के मामलों में किया जाता है,विभिन्न रंगों का प्रयोग विभिन्न कारणों के लिये किया जाता है।


ऊँ परमात्मा वाची कहा गया है,ऊँ को मंगल रूप में जाना गया है,जैन धर्म के अनुसार ऊँ पंच परमेष्ठीवाचक की उपाधि से विभूषित है। णमोकार मंत्र के पहले इसे प्रयोग किया गया है। ऊँ एक बीजाक्षर की भांति है,इसके मात्र उच्चारण करने से ही भक्ति महिमा का निष्पादन हो जाता है। इसका रूप दोनो आंखों के बीच में आंखों को बन्द करने के बाद सुनहले रूप में कल्पित करते रहने से यह सहज योग का रूप सामने लाना शुरु कर देता है,और उन अनुभूतियों की तरफ़ मनुष्य जाना शुरु कर देता है जिन्हे वह कभी सोच भी नही सकता है।

ऊँ कार बिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिना:।
कामदं मोक्षदं चैव ऊँकाराय नमो नम:॥




!!! हनुमान पूजा और वैज्ञानिक तथ्य !!!


हनुमान पूजा और वैज्ञानिक तथ्यहमारे भारत वर्ष में अक्षर पूजा की मान्यता रही है,अक्षरों को मूर्तियों में उकेर कर और उनके रूप को सजाकर विभिन्न नाम दिये गये है। समय की धारा में मूर्ति को ही भगवान मान लिया गया और उन्ही की श्रद्धा से पूजा की जाने लगी,हनुमान जी की पूजा का अर्थ भी यही लिया गया। अक्षर "ह" को सजाकर और ब्रह्मविद्या से जोड कर देखा जाये तो "हं" की उत्पत्ति होती है। मुँह को खोलने के बाद ही अक्षर "ह" का उच्चारण किया जा सकता है। अक्षर "हं" को उच्चारित करते समय नाक और मुंह के अलावा नाभि से लेकर सिर के सर्वोपरि भाग में उपस्थित ब्रह्मरन्ध तक हवा का संचार हो जाता है। "हं हनुमतये नम:" का जाप करते करते गला जीभ और व्यान अपान सभी वायु निकल कर शरीर से बाहर हो जाती हैं। इसी प्रकार मारक अक्षर "क" का सम्बोधन करने पर और बीजाक्षर "क्रीं" को सजाने पर मारक शक्ति काली का रूप सामने आता है,लेकिन बीज "क्रां" को सजाने पर पर्वत को धारण किये हुये हनुमान जी का रूप सामने आजाता है,ग्रहों के बीजाक्षरों को उच्चारण करने पर उन्ही अक्षरों के प्रयोग को सकारात्मक,नकारात्मक और द्विशक्ति बीजों का उच्चारण किया जाता है। जैसे मंगल जिनके देवता स्वयं हनुमान जी है,के बीजात्मक मंत्र के लिये "ऊँ क्रां क्रीं क्रौं स: भोमाय नम:" का उच्चारण किया जाता है,इस बीज मंत्र में "क्र" आक्रामक रूप में सामने होता है,बडे आ की मात्रा लगाने पर समर्थ होता है और बिन्दु का प्रयोग करने पर ब्रह्माण्डीय शक्तियों का प्रवेश होता है।
इसी प्रकार से अगर शिव जी के मंत्र को जपा जाता है तो "ऊँ नम: शिवाय" का जाप किया जाता है,अक्षर "श" को ध्यानपूर्वक देखने पर बैठे हुये भगवान शिव का रूप सामने आता है,लेकिन जबतक "इ" की मात्रा नही लगती है,तब तक शब्द "शव" ही रहता है,इ की मात्रा लगते ही "शिव" शक्ति से पूर्ण हो जाता है,शनि देव का रंग काला है और ग्रहों के लिये इनका प्रयोग शक्ति वाले श का प्रयोग किया गया है,अगर शनि के बीज मंत्र को ध्यान से देखें तो "शं" बीज का प्रयोग किया गया है,"ऊँ शं शनिश्चराय नम:" का जाप करने पर भगवान शनि के द्वारा दिये गये कठिन समय को आराम से निकाला जा सकता है।
लेकिन अक्षर "शं" को साकार रूप में सजाने पर मुरली बजाते हुये भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति भी मिलती है,और उस मूर्ति का रंग भी काला है,वृंदावन में कोकिलावन की उपस्थिति इसी बात का द्योतक मानी जा सकती है। शब्द हरि को अगर सजा दिया जाये तो लिटाकर रखने पर सागर के अन्दर लेटी हुयी भगवान विष्णु की प्रतिमा को माना जा सकता है। "श्रीं" शब्द को सजाकर देखा जाये तो लक्ष्मी जी का रूप साक्षात देखा जा सकता है।
ह्रीं को सजाकर देखने पर माता सरस्वती को देखा जा सकता है,इसी प्रकार से विभिन्न अक्षरों को सजाकर देखने पर उन भगवान के दर्शन होते है।


!!! मंत्रात्मक श्री दुर्गा-सप्तशती !!!


श्री दुर्गा सप्तशती का प्रस्तुत संस्करण गुप्तावतार पूज्य बाबा श्री द्वारा अपने प्रिय स्वदेश भारतवर्ष के प्रति दिया गया एक अनूठा और अद्वितीय उपहार है। इसकी पाण्डु लिपि आपने अपने कर कमलो से उस विलक्षण अनुष्ठान के लिये तैयार की थी,जिसके सम्पन्न होने के फ़लस्वरूप ही संवत १९९९ वि. सन १९४२ में भारत छोडो आन्दोलन हुआ और भारत स्वतंत्र हुआ। पूज्य चरण बाबा मोतीलाल जी महाराज ने श्रीदुर्गा सप्तशती के इस संस्करण के सम्बन्ध मे अपने कर कमलों से लिखित रजिस्टर के प्रारम्भ में लिखा है कि -

हिमालय के प्रवास में नेपाल की तिब्बती सीमा पर एक ब्राह्मण नेवार शिष्य साधक ने मन्त्रात्मक सप्तशती की यह प्रति मुझे दी जो अपने ढंग की अनूठी है,यह पाण्डुलिपि संवत ११२१ वि. यानी सन १०६४ ई. की थी।

मन्त्रात्मक सप्तशती के प्रस्तुत संस्करण को बाबा श्री ने संवत १९८१ वि सन १९२४ ई में काशी में पुन: लिपि बद्ध किया था। इसमें उन्होने विस्तार पूर्वक श्रीद्र्गा सप्तशती के ७०० मन्त्रों का सम्पूर्ण पूजा विधान व आहुति प्रकार लिखा। दैव योग से बाबा श्री द्वारा लिखित रजिस्टर श्री चण्डी धाम में आज भी सुरक्षित है।

यहाँ उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत मन्त्रात्मक सप्तशती में प्रत्येक मंत्र के अनुष्ठान की जो विधि दी गयी है,वह देखने से ही बडी वैज्ञानिक प्रतीत होती है। साधकों को सुविधा के लिये प्रत्येक मन्त्र का विधान और अधिक स्पष्ट रूप में अलग अलग प्रकाशित किया जा रहा है,इससे कोई भी श्रद्धालु व्यक्तिसहज ही अपने अभीष्ट मन्त्र का अनुष्ठान कर लाभ उठा सकता है।

अन्त मे यह लिखना आवश्यक है कि लोगों को अपने गुरु देव की अनुमति प्राप्त कर ही मन्त्रात्मक सप्तशती के अनुसार किसी अनुष्ठान में प्रवृत्त होना चाहिये।

परिचय

हम सबको उपहार स्वरूप मन्त्रात्मक सप्तशती देने वाले पूज्य बाबा श्री का जन्म सं १९४१ विक्रमी को श्रावण शुक्ला त्रयोदशी को हुआ था। आज उनकी १२७ वीं जयन्ती के पावन अवसर पर मन्त्रात्मक सप्तशती के इन्टरनेट संस्करण को लिखने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ है। यह किताब श्री श्याम सुन्दर भुवालका जी कलकत्ता वालों की तरफ़ से बहुत पहले मुझे दी गयी थी। इसके बारे में अधिक विस्तार से बताने वाले लाल बाबा रतनगढ वाले आज हमारे बीच नही है जिन्होने मुझे दस विद्या की जानकारी भुवालका जी के कलकत्ता निवास पर दी थी।

पूज्य बाबा श्री मन्त्र शास्त्र के गहन ज्ञाता होने के साथ ही परम देश भक्त भी थे। बाबा श्री चरितामृत नामक आपके परिचय ग्रन्थ में आपके सम्बन्ध में सन १९२७ से सम्पर्क में रहने वाले श्री यशवन्त केशव प्रधान लिखते है कि -

"……..सन १९३० में जिन दिनो सारे देश में महात्मा गांधी का आन्दोलन प्रारम्भ होकर उच्च स्थिति को प्राप्त कर रहा था,उन दिनो श्री बाबा जी महाराज सदा चिन्ता ग्रस्त मालुम होते थे। भारत वर्ष की भावी स्थिति के सम्बन्ध में वे सदैव चिन्त्तित रहते थे। मेरे देखने में जो श्रेष्ठ उपासक पुरुष साधु सन्त इत्यादि अब तक आये है,उनमे से अधिकांश अपनी स्वयं की उन्नति किस प्रकार हो सकती इसी विचार में मग्न रहने वाले रहे है। भारत का पुनुरुत्थान कैसे होगा और कैसे किया जाये ? इस प्रकर का विचार करने वाले केवल बाबाजी महाराज मिले। उनके जैसा अपने शिष्य की उन्नतावस्था के लिये सदा दूक्ष द्रिष्टि से विचार करने वाला और साथ ही शाथ अपने राष्ट्र के सम्बन्ध मे विचार करने वाला सन्त मेरे देखने में तथा अध्ययन करने में अन्य कोई नही हुआ।

पूज्य श्री बाबाजी ने भारत के उत्थान के लिये शत चण्डी यज्ञ भी किया था,इस्के लिये उनके निर्देशानुसार निम्न संकल्प के अनुसार चैत्र पूर्णिमा के दिन अनुष्ठान प्रारम्भ हुआ यथा -

"मम देशस्य क्षेम स्थैर्यायुरारोग्यामिवृद्धयर्थ श्री जगदम्बा योग माया-भगवती दुर्गा प्रसाद सिद्धयर्थ च नमो युत प्रणव वाग बीज स्व बीज लोम विलोम पुटितोक्त शरणागत सम्पुटित श्रीसप्तशत्यन्तर्गत अमुक (श्लोक संख्या) मन्त्र जपे विनियोग:।"

पूज्य श्री बाबाश्री ने हमे उक्त संकल्प के साथ्ही सप्तशती के श्लोक पाठ भी दिखलाये। श्लोकों का अर्थ बताने के साथ साथ किन किन कार्यों में इन श्लोकों का अनुष्ठान किया जाता है व किसने किसने ऐसे अनुष्ठान किये है,इस सबका उन्होने वर्णन किया। प्रत्येक श्लोक का कौन कौन सा गुण है कौन सी इन्द्रिय है कौन सा रस है,कौन सी कर्मेन्द्रिय है कौन सा स्वर है कौन से तत्व है कौन सी कला है कौन सी मुद्रा है और क्या ध्यान है ? इत्यादि समस्त बातें जब बाबा श्री ने हमे बता दीं तब हम सब लोगों ने मन्त्र के द्वारा आहुति दी।

इस प्रकार दस आदमी दस बार मन्त्र पढकर आहुति देते थे। नित्य दश श्लोक होते थे और अन्त में आरती आदि होने के पश्चात प्रसाद बांटा जाता था। फ़िर राज के एक बजे के बाद सारा समूह बाबाजी के साथ सागर के किनारे शमशान भूमि के पास बैठता था और प्राय: प्रात: चार बजे हमें बांदरा स्टेशन पहुंचना दिया जाता था।

उक्त अनुष्ठान के पूर्ण होने में लगभग तीन महिने लग गये। अनुष्ठान के पूर्ण होने पर पूज्य बाबाजी के निर्देशों से ऐसा आभास हुआ कि कि इसी प्रकार के और भी महत्य के अनुष्ठाओं का योग आयेगा।

दूसरा अनुष्ठान श्रावण मास में आरम्भ हुआ था। इस बार किसी यन्त्र की प्रतिष्ठा नही की गयी। चांदी का एक विशाल कुम्भ जो पहले के कुम्भ से अधिक बडा था एक यन्त्र पर स्थापित किया गया था। इस दूसरे अनुष्ठान का संकल्प तीव्र था। भगवती योग माया दुर्गा देवी के प्रसाद से स्वदेश के शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर देश की स्वतन्त्रता के लिये पूर्ववत बीज सहित प्रत्येक श्लोक की = इत्यं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति। तदा तदावतीर्याऽहं करिष्याम्यारि संक्षयम।" इस मन्त्र से सम्पुटित कर अनुष्ठान किया गया।

बाबाजी ने कुछ श्लोकों के लिये -

"कु-नीतिन: ब्रिटेनस्य,गृहीत्वा त्वमुपागता। लोकेषु विनाशाय ख्याता देवि! भविष्यसि॥"

उक्त पाठ को लेकर हवन किया था। कुछ समय के बाद मैने महाराज श्री से पूछा था कि - इस यज्ञ की फ़लद्रूपता कब होगी ? उन्होने बताया था कि "अभी और तम बाकी है, तीसरा अनुष्ठान हो जाये,तो जल्दी ही सिद्धि प्राप्ति होगी। नही तो तम निरसन होने में नौ या ग्यारह वर्ष लगेंगे",ऐसा ही हुआ। ग्यारह वर्षों के बाद आठ अगस्त १९४२ को भारत छोडो आन्दोलन की शुरुआत हुयी और आगे नौ वर्षों की अवधि के भीतर ही स्वराज मिल गया और छब्बिस जनवरी १९५० भारतीय गणराज्य की स्थापना भी हो गयी।…"

स्पष्ट है कि बाबाश्री द्वारा प्राप्त प्रस्तुत मन्त्रात्मक सप्तशती नामक विधान अत्यन्त विलक्षण है। इसके द्वारा पूज्य बाबा श्री ने भारत की स्वतन्त्रता हेतु अनुष्ठान कर हमें प्रेरणा दी है,वह अपने आप में अपूर्व एवं पूर्णतया फ़लप्रद है। मन्त्रात्मक सप्तशती जैसे सांगोपांग अनुष्ठान के द्वारा हम अपना एवं अपने देश का अभीष्ट कल्याण करें,यही बाबा श्री की इच्छा थी। हमे बाबा श्री की इस इच्छा को सदैव ध्यान में रखना चाहिये।

साधना की कुछ विशेष बातें

मन्त्रात्मक सप्तशती में श्रीदुर्गा सप्तशती के प्रत्येक मन्त्र का सर्वश्रेष्ठ विधान है,इसमें मन्त्र के १४ अंगों का वर्णन है, यथा -१. ऋषि,२. देवता,३. बीज,

४. शक्ति,५. महाविद्या,६. गुण, ७. ज्ञानेन्द्रिय, ८. रस, ९. कर्मेन्द्रिय १०. स्वर, ११. तत्व, १२. कला, १३. उत्कीलन, १४. मुद्रा, मन्त्र के इन १४ अंगों से तादात्म्य स्थापित होने पर श्रीजगदम्बा योगमाया भगवती दुर्गा की कृपा प्राप्त होती है।

मन्त्र का पहला अंग ऋषि होता है । ऋषि शब्द गत्यर्थक ऋ धातु और षिंड. प्रापणे प्रत्यय से बना है,जिससे उस परम साधक का बोध होता है,जो मन्त्र की वास्तविक गति से परमात्मा के स्वरूप को स्वयं प्राप्त करता है एवं कराता है। इस प्रकार किसी मन्त्र को सिद्ध करने के लिये मन्त्र के ऋषि से तादाम्त्य स्थापित करना परम आवश्यक है।

देवता मन्त्र का दूसरा अंग है इसके द्वारा साधक को देव भाव की प्राप्ति होती है।

बीज मन्त्र के स्फ़ुरण एवं विकास का केन्द्र है,इसकी अपने में स्थापना होने से ही अभीष्ट फ़ल की प्राप्ति होती है।

शक्ति मन्त्र की क्रिया शक्ति का बोधक है इससे तादात्म्य होने पर साधक की क्रिया शक्ति मन्त्र मय हो जाती है।

महाविद्या मन्त्र की मूल प्रकृति की सूचक है इससे तादात्म्य होने पर साधक की प्रकृति भी मन्त्र मय हो जाती है।

गुण ज्ञानेन्द्रिय रस कर्मेन्द्रिय स्वर तत्व कला मन्त्र के अन्य विशिष्ट अंग है,इनसे तादात्म्य होने पर साधक का मन्त्र से सीधा सम्बन्ध हो जाता है।

मन्त्र का ऊर्जा स्वरूप उत्कीलन द्वारा हस्तगत होता है,इससे तादात्म्य स्थापित होने पर मन्त्र की ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है।

मन्त्र की ऊर्जा सतत प्रवाहित होने के लिये मन्त्र की प्रसन्नता कारक शक्ति मुद्रा का ज्ञान होन आवश्यक है,अत: सम्पूर्ण शरीर में इसकी प्रतिष्ठा की जाती है।

अभीष्ट फ़ल की प्राप्ति साधक के प्रार्थना भाव की गहराई पर न्रिभर होती है,अत: अंजलो यानी प्रार्थना मुद्रा में जुडे दोनो हाथों मे इसका न्यास किया जाता है।

मन्त्र के अक्षरों को छ: भागों मे विभाजित करके छ कर अंगों १. अंगूठा २. तर्जनियों ३. मध्यमाओं ४. अनामिकाओं ५. कनिष्ठाओं ६. करतल पृष्ठों में तथा छ: प्रधान अंगों १. ह्रदय २. शिर ३. शिखा ४. कवच ५. नेत्र ६. अस्त्र में प्रतिष्ठित किया जाता है।

अंगुष्ठाभ्याम नम: ह्रदयाय नम: का तात्पर्य है कि भावना मय देवता के समक्ष साधक सब प्रकार से अपनी विनम्रता प्रकट करता है।

तर्जनीभ्याम नम: और शिरसे स्वाहा का तात्पर्य है कि साधक क्षुद्र अहन्ता के स्थान पर दिव्य अहन्ता का अनुभव करता है।

मध्यमा वषट शिखायै वषट के द्वारा साधक आत्मा के दिव्य तेजोमय स्वरूप का अनुभव करता है,वषट का अर्थ समर्पण है।

अनामिकाभ्याम हुम और कवचाय हुम के द्वारा साधक अपने तेजोमय स्वरूप के सुरक्षित होने की भावना करता है,इससे साधक में दूसरों के लिये भय प्रद और अपनेलिये रक्षा कारक तेज का प्रादुर्भाव होता है।

कनिष्ठकाभ्याम वौषट और नेत्र त्राय वौषट के द्वारा साधक मन्त्र रूपी आत्मशक्ति का साक्षात्कार करता है।

करतल कर पृष्ठाभ्याम फ़ट और अस्त्राय फ़ट के द्वारा साधक अपने तीनो प्रकार के तापों को दूर फ़ेंक कर मन्त्र शक्ति की ज्ञानाग्नि में जलाकर भस्म करने की भावना करता है।

इस प्रकार से साधना करने से अभीष्ट फ़ल की प्राप्ति निश्चित होती है। पूज्य बाबाश्री ने श्रीदुर्गा सप्तशती के प्रत्येक मन्त्र हेतु हमें पूर्ण विधान उपहार स्वरूप दिया है। हम सबको इस दिव्य विधान द्वारा अपना एवं देश का अभीष्ट कल्याण सिद्ध करना चाहिये। श्रीदुर्गा सप्तशती के श्लोकों मे कल्याणकारी भाव छिपे है,किसी अभीष्ट कल्याण कारी श्लोक को मन्त्रात्मक सप्तशती के विधान के अनुसार प्रत्येक श्लोक के साथ सम्पुटित कर विशिष्ट अभीष्ट फ़ल प्राप्त कर सकते है।

किसी विशिष्ट अभीष्ट फ़ल की कामना नही होने पर केवल माँ दुर्गा की कृपा एवं अपने कल्याण की कामना हो तो प्रस्तुत विधान के द्वारा प्रतिदिन निश्चित संख्या में एक एक मन्त्र का अनुष्ठान करने से विशेष अनुभूतियों की प्राप्ति होती है। यदि हवन करना सम्भव नही हो तो उसके स्थान पर दशांस जाप अधिक करना चाहिये। इस प्रकार क्रमश: एक एक मन्त्र का अनुष्ठान कर सभी ७०० मन्त्रों का अनुष्ठान अकेले पूरा किया जा सकता है। जो बन्धु समर्थ हो वे यज्ञ की भांति इससे अनुष्ठान कर या करवा सकते है। दस या दस से अधिक योग्य व्यक्तियों का सहयोग लेकर सभी मन्त्रों का अनुष्ठान कुछ ही दिनो में सम्पन्न किया जा सकता है।

अन्त में यह उल्लेखनीय है कि बाबाश्री के अनुसार प्रस्तुत मन्त्रात्मक सप्तशती का विधान मुख्यत: ऊर्ध्वाम्नायोक्त है। अत: इसका प्रयोग क्षुद्र कामनाओं के लिये नही करना चाहिये,व्यक्ति समाज राष्ट्र के वास्तविक कल्याण हेतु ही इसका अनुष्ठान करना चाहिये।

महाकाली





प्रथम चरित विधानं

विनियोग

ऊँ प्रथम चरितस्य श्रीब्रह्मा ऋषि: महाकाली देवता गायत्री छन्द: नन्दा शक्ति: रक्त दन्तिका बीजं अग्नितत्वं ऋग्वेद: स्वरूपं श्रीमहाकाली प्रीत्यर्थं जपे विनियोग: ।

ऋष्यादि न्यास

श्री ब्रह्मा ऋषये नम: शिरसि,श्रीमहाकाली देवतायै नमं ह्रदि,गायत्री छन्दसे नम: मुखे,नन्दा शक्तयै नम: नाभौ,रक्त दन्तिका बीजाय नम: लिंगे,अग्नि तत्वाय नम: गुह्ये,ऋग्वेद स्वरूपाय नम: पादौ,श्रीमहाकाली प्रीत्यर्थं जपे विनियोगाय नम: सर्वांगे।


षडंग न्यास:कर न्यास:अंग न्यास:
खंगिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा,शंखिनी चापिनी बाण भुशुण्डी परिघायुधाअंगुष्ठाभ्याम नम:ह्रदयाय नम:
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खडगेन चाम्बिके,घण्टा स्वनेन न: पाहि चाप ज्या नि: स्वनेन चतर्जनीभ्याम स्वाहाशिरसे स्वाहा
प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे,भ्रामणेनात्म शूलस्य उत्तरस्यां तथेस्वरिमध्यमाम वषटशिखायै वषट
सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते,यानि चात्यर्थ घोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवंअनामिकाभ्यां हुमकवचाय हुम
खडग शूल गदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके,कर पल्लव संगीनि तैरस्मान रक्ष सर्वत:कनिष्ठकाभ्याम वौषटनेत्रत्राय वौषट
सर्व स्वरूपे सर्वेशे सर्व शक्ति समन्विते,भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु तेकरतल कर पृष्ठाभ्याम फ़टअस्त्राय फ़ट

ध्यानम
षडंग न्यास: कर न्यास: अंग न्यास:
खंगिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा,शंखिनी चापिनी बाण भुशुण्डी परिघायुधा अंगुष्ठाभ्याम नम: ह्रदयाय नम:

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खडगेन चाम्बिके,घण्टा स्वनेन न: पाहि चाप ज्या नि: स्वनेन च तर्जनीभ्याम स्वाहा शिरसे स्वाहा

प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे,भ्रामणेनात्म शूलस्य उत्तरस्यां तथेस्वरि मध्यमाम वषट शिखायै वषट

सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते,यानि चात्यर्थ घोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवं अनामिकाभ्यां हुम कवचाय हुम

खडग शूल गदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके,कर पल्लव संगीनि तैरस्मान रक्ष सर्वत: कनिष्ठकाभ्याम वौषट नेत्रत्राय वौषट

सर्व स्वरूपे सर्वेशे सर्व शक्ति समन्विते,भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते करतल कर पृष्ठाभ्याम फ़ट अस्त्राय फ़ट

ध्यानम

खडगं चक्र गदेषु चाप परिघांछूलं भुशुण्डीं शिर:,

शंखं सन्दधतीं करैस्त्रि नयनां सर्वांग भूषावृताम।

नीलाश्म द्युतिमास्य पाद दशकां सेवे महाकालिकाम,

यामस्तीत स्वपिते हरो कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम॥

दक्षिणाम्नाय मते आयुधानि

दक्षिण करे - खडक चक्र गदा इषु चाप

वाम करे - परिघ शूल भुशुण्डी शिर: शंख।

ऊर्ध्वाम्नाय मते आयुधानि

दक्षिण करे- खडग गदा चाप शूल शिर:,

वाम करे - चक्र इषु परिघ भुशुण्डी शंख।


!!! शिव की उपासना !!!

माता पार्वती को समझाते हुए भगवान् शिव कहते हैं, ‘प्रियतमे ! पुण्य कर्मों से ही वंश की वृद्धि होती है। पुण्य कर्म करने से ही जीव कीर्तिवान होता है और इसी पुण्य कर्म में लगे रहने से शरीर के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं।’

शास्त्र कहते हैं कि अवश्यमेव भोक्तव्यम कृते कर्म शुभाशुभं अर्थात मनुष्य को अपने द्वारा किए हुए पाप-पुण्य जनित कर्मों का फल भोगना पड़ता है। जीव पाप करके भी तभी तक सुखी रह पाता है, जब तक कि उसके द्वारा संचित पुण्य कर्मों का कोष खाली नहीं हो जाता। कोष खाली होते पाप कर्मों का फल मिलने लगता है। फिर जीवात्मा इतनी परेशान हो जाती है कि उसे बचने का कोई भी मार्ग दिखाई नहीं देता। श्रावण मे स्वयं भगवान शिव माता पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, नंदी और अपने शिवगणों सहित पूरे माह पृथ्वी पर विराजते हैं। यही शिव जब जीव का संहार करते हैं, तो महाकाल बन जाते हैं। यही शिव महामृत्युंजय बनकर उसी जीव कि रक्षा भी करते हैं और शंकर बनकर जीव का भरण-पोषण भी करते हैं, तो रुद्र बनकर महाविनाशलीला भी करते हैं। अर्थात स्वयं शिव ही ब्रह्मा और विष्णु के रूप में एकाकार देवो के देव महादेव बन जाते हैं। इन्हीं महादेव को प्रसन्न करने के लिए अच्छे अवसर के रूप में मासिक शिवरात्रि का पावन पर्व आता है। आप शिव की आराधना पंचामृत से करें, तो अति उत्तम रहेगा। शिव की पूजा ही ऐसी पूजा है, जिसमें केवल पत्रं-पुष्पं-फलं-तोयं अर्थात पत्र, पुष्प, फल और जल से करके पूर्ण फल प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए जो भी आप के पास सामग्री हो, उसी को लेकर श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान शिव की पूजा करें।


"ॐ नम: शिवाय करालं महाकाल कालं कृपालं ॐ नम: शिवाय।"


इस मंत्र का जप करते रहें। साथ ही "ॐ नमो भगवते रुद्राय" का जप भी कर सकते हैं। ऐसा जपते हुए बेलपत्र पर चंदन या अष्टगंध से राम-राम लिखकर शिव पर चढ़ाएं। पुत्र की इच्छा रखने वाले शिव भक्त मंदार पुष्प से, घर में सुख-शांति चाहने वाले धतूरे के पुष्प अथवा फल से शत्रुओं पर विजय पाने वाले अथवा मुकदमों में सफलता की इच्छा रखने वाले लोग भांग से शिव की पूजा करें, तो सभी तरह की पराजय की संभावनाएं समाप्त हो जाएंगी। संपूर्ण कष्टों और पुनर्जन्मों से मुक्ति चाहने वाले मनुष्य गंगा जल और पंचामृत चढ़ाते हुए


ॐ नमो भगवते रुद्राय, ॐ तत्पुरुषाय विध्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात।


यह मंत्र पढ़ते हुए सभी सामग्री जो भी यथासंभव हो समर्पण भाव से शिव को अर्पित करें। आज आप श्रद्धा भाव और विश्वास के साथ जो भी करेंगे महादेव आपकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण करेंगे।



आप अपना ट्रांसफर चाहते हैं यह उपाय करे


छोटे-छोटे उपायों से व्यक्ति को जीवन में कई लाभ हो सकते हैं। लाल किताब में ऐसे कई उपाय बताए गए हैं, जिनपर अमल करने से हम कठिनतम परेशानियों से भी उबर सकते हैं। असल में कुछ परेशानियां ऐसी होती हैं, जिनका सरोकार हमारे दैनिक जीवन से होता है। जैसे अगर आप कोर्ट केस के चक्कर में फंसे हुए हैं और मामला जल्दी निपट नहीं रहा है, तो आपको दक्षिण में शयन करना लाभप्रद रहेगा। इसके अलावा मंगलवार के दिन व्रत रखने एवं प्रतिदिन सात बार बजरंग बाण का पाठ करने से भी आपको विजयश्री हासिल होगी। अगर आप चांदी के एक चौकोर टुकड़े को पीले कपड़े में बांधकर गले में धारण करें, तो लाभ होगा।


अगर आप अपना ट्रांसफर चाहते हैं, तो सूर्योदय से पहले स्नान कर लें और कपड़े बदल लें। सूर्योदय के पश्चात सूर्य नमस्कार करें और लाल मिर्च के 21 बीज लेकर सूर्य देवता को अर्पित कर दें। यह प्रक्रिया तीन दिनों तक करें। आपका ट्रांसफर हो जाएगा।


शिव जी की पूजा का जो महात्म्य है। लेकिन इससे भी अधिक महत्व शिवलिंग की पूजा का बताया गया है। शास्त्रों के अनुसार मृत्युलोक में भगवान शिव मानव कल्याण के लिए विभिन्न रूप धारण कर प्रत्येक रूप में मानव कल्याण का कार्य करते हैं। इनकी पूजा सरल व सुगम होने की वजह से सभी स्त्री-पुरुष तन-मन-धन से इस माह में इनकी पूजा करते हैं। पर अगर आपको अपनी पूजा का फल तुरंत चाहिए और आप भगवान की कृपा पाना चाहते हैं, तो विभिन्न अभिलाषाओं के लिए अलग पदार्थों से बने शिवलिंग की पूजा करना श्रेयस्कर माना गया है।


अगर साधक को प्रॉपर्टी की कामना हो, तो उसे फूलों से बने शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए।


अगर साधक चाहता है कि उसका व उसके परिवार का स्वास्थ्य अच्छा रहे, तो उसे जौ, गेहूं, चावल का समान भागों में मिला आटे से शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा करनी चाहिए।

इसी प्रकार अगर साधक की यह कामना है कि वह जहां जाए, वहां लोगों से उसके संबंध मधुर रहें और उसकी बात भी सब माने, तो उसे सोंठ, मिर्च, पीपल का चूर्ण, नमक समभाग में लेकर शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा करने से लाभ होगा।


अगर साधक अपनी सारी अभिलाषाओं की पूर्ति करना चाहता है, तो तिल के शिवलिंग बनाकर पूजा करना ठीक रहेगा।


प्रेम संबंधों में सफलता के लिए गुड़ की डली के शिवलिंग बनाकर पूजा करें, तो लाभ होगा।


वंश वृद्धि के लिए बांस के अंकुर को शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा करने से लाभ होगा।


रजत पत्र के शिवलिंग भी धन-धान्य बढ़ाते हैं


!!! धन प्रदायक अचूक उपाय !!!




भगवान श्री गणेश प्रखर बुद्धि के स्वामी हैं। यह विघ्रहर्ता है। भुत प्रेत आदि इनकी सेवा करते हैं। श्री गणेश जी की पुजा के करण शिव गण भी प्रसन्न होते हैं। जब हम श्री गणेश जी का पुजन नहीं करते तब शिव गण भुत प्रेत आदि पुजा पाठ मे विघ्र उत्तपन करते हैं। इसी करण श्री गणेश जी की सबसे पहले पुजा की जाती हैं। इनकी कृपा से बुद्धि निखर जाती हैं और पुजा पाठ मे भी बुद्धि शुद्ध होना जरुरी हैं। बुद्धि ही सही और गलत का निर्णय लेती है। सही दिशा मे कदम बढने से सफलता निश्चित होती है। ऐसी सफलता आदमी को यश और सम्मान देती है।

इसलिये भगवान गणेश की उपासना सुखदायक, दु:खनाशक और धनदायक भी है। क्योंकि बुद्धि को सही दिशा देने पर कम प्रयास मे भी अचुक सफलता मिलती हैं और बुद्धि बल से कोई भी अदमी अपनी काबिलियत को साबित कर सकता है। जो सभी चाहते हैं। जबकि विपरित समय मे भी बुद्धि कठिन दौर से बाहर आना मे मदद करती है। इसलिए भगवान गणेश की उपासना शुभ फलदायी मानी गई है। श्री गणेश जी संकटनाशक है। अतः गणेश जी का ध्यान जरुरी करें। 


बुधवार को की गई भगवान गणेश की उपासना का अच्छा प्रभाव होता है। इस संसार मे पैसे का कितना महत्व हैं यह तो आप सब जांनते ही हैं। या यूं कहे कि इस दुनिया मे पेसा और उस दुनिया मे राम नाम ही काम आता है। इन दोनो साधना मे श्री गणेश जी कल्याणकारी है। इनकी पुजा से यह दोनो प्राप्त होने लगते हैं। पैसा कमाने के लिए इंसान दिन-रात मेहनत करता है। और मन मे एक प्रशन होता हैं कि और पैसा कैसे कमाया जाए? यहाँ पर मैं श्री गणेश जी की इच्छा से कुछ सरल से उपाय आप के सामने रख रहा हूं। आप इन उपाय को एक बार करके देखे शेष मुझे कहने की जरुरत नहीं हैं।

धन प्रदायक उपाय (श्री लक्ष्मी जी और श्री गणपति जी) 


उनी या कम्बल का साफ आसन बिछाये अब पूर्व दिशा की ओर मुंह करके आसन पर बैठ जाओ। एक लकडी के बाजोट पर कोई नया पीला रुमाल सा बिछाये। इसके ऊपर मसूर की दाल की ढेरी बनाए। इस ढेरी पर सात कौडिय़ां व एक लघु शंख को स्थापित करें। फिर मूंगे की माला से “ॐ गं गणपतये नम:” मंत्र का पांच माला जप करें। जप पुरा होने पर इस रुमाल की सामग्री सहित गाठ मार कर किसी निर्जन स्थान (जहां कोई आता-जाता न हो) पर जाकर गाढ़ दें। चुपचाप घर चले आये, रास्ते मे किसी से बात ना करें, घर पर आकर मुंह हाथ धो ले। किसी बुजर्ग महिला या माँ या गाय आदि को कुछ मिठा खिला आशीर्वाद लो बस हो गया जीवन परिवर्तन। अब पैसे की कमी नहीं रहेगी।


पैसो की कमी का एक कारण श्री शनि देव हैं और श्री शनि देव जी भी क्या करें जब किसी व्यकिती के कर्म ही खराब थे। इसलिये श्री शनि देव का पुजन भी करते रहना चाहिये और प्रार्थना करे कि मेरे गुनाओ को क्षमा करे। क्योंकि जब श्री शनि देव जी प्रसन्न होने वाले होते है तो श्री लक्ष्मी जी उनसे पहले ही प्रसन्न हो जाती हैं। और बिना मांगे ही आ जाती हैं। (खराब शनि की निशानी फटी एडियाँ हैं अपने तलवे देखे)


या फिर एक बात यह कि श्री लक्ष्मी जी को कमल गट्टे विशेष प्रिय हैं इसलिये कमल गट्टे की माला को श्री लक्ष्मी जी के मन्दिर मे श्री लक्ष्मी जी को चढाना चाहिये या फिर घर-दुकान में कमल गट्टे की माला (का आसन दे) को बिछा कर उसके ऊपर श्री लक्ष्मी जी का चित्र स्थापित कर पुजा की जाए तो व्यापार बहुत अच्छा चलता हैं।



या फिर एक दिन शुभ समय मे हवन करें। हवन मे घी लगाकर कमल गटटे के बीजो से 108 आहुतियां दे। और अंत मे श्री लक्ष्मी जी से बने रहने की प्रार्थना करे। एक विशेष बात यह है कि यदि आपने ऐसा 21 दिन तक लगातार किया तो आने वाली कई पीढिय़ां का भी उद्धार हो जायेगा।


या फिर अगर कोई व्यक्ति श्री लक्ष्मी जी की पूजा-पाठ के दौरान-उपरांत अपने गले में कमल गटटे की माला धारण करें तो श्री लक्ष्मी जी की कृपा उस पर सदा बनी रहती है।

या फिर श्री लक्ष्मी जी की मुर्ति, चित्र या यंत्र पर कमल गट्टे की माला पहनाकर किसी तालाब, नदी में श्री लक्ष्मी जी को विसर्जित करें तो उसके घर में निरंतर लक्ष्मी का आगमन बना रहता है।




या फिर ऐसा करें कि श्री लक्ष्मी जी को सफेद गुंजा बहुत पसन्द हैं इस गुंजा को श्री लक्ष्मी जी स्त्रोत्र से 2-5 बार अभिमंत्रित करें। गुंजा फिर पैसे के स्थान पर रखे। (गुंजा उडद की साबुत दाल के बराबर से थोडा सा बडा होता है लोग इसे लडाई की जड के नाम से जानते है। यह सामान्यतः आधी लाल- आधी काले रंग की होती है। इसके लाल काले दाने यदि किसी के घर मै डाल दिये जाये तो जब तक यह दाने उसके घर से ना निकले तब तक लडाई होती रहती ही है। सफेद रंग के दाने हल्का किनारे से काले होते है यह ही लक्ष्मी पुजन मे काम आते है। यह किसी पंसारी के यहाँ से मिल सकते है। वेसे तो बरसात के मोसम मे ही होते है। कोई भी 10 रु मे दे देता है। पुजा मे 7, 11, 21 दाने ही प्रयोग होते है।)


यह सब अचूक प्रयोग हैं आप अपनी इच्छा अनुसार इसमे से कितने भी कर ले परंतु विस्वास रखना चाहिये।





!!! जायजाद, बीमारी और शांति के लिए टोटके !!!



घर में किसी तरह के क्लेश रहते हों या किसी बीमारी से परेशान हैं, तो इसके लिए तंत्र शास्त्र में कई छोटे-छोटे उपाय बताए गए हैं। ये सरल होने के साथ-साथ कारगर भी हैं। इनके बारे में आप भी जानें:

हृदय संबंधी कोई विकार हो, तो एकमुखी या सोलहमुखी रुद्राक्ष धारण करें। इनके न मिलने पर ग्यारहमुखी, सातमुखी अथवा पांचमुखी रुद्राक्ष का उपयोग भी कर सकते हैं। धारण करने से पहले रुद्राक्ष को सावन मास में किसी प्रदोष व्रत के दिन अथवा सोमवार के दिन, गंगाजल से स्नान कराकर शिवजी पर चढ़ाएं। संभव हो, तो रुद्राभिषेक करें या शिवजी पर ‘ॐ नम: शिवाय’ बोलते हुए दूध से अभिषेक करें। इस प्रकार अभिमंत्रित रुद्राक्ष को काले डोरे में पिरोकर गले में पहन लें। इससे हृदय संबंधी बीमारी में राहत मिलती है।

घर में नित्य घी का दीपक जलाएं। दीपक की लौ पूर्व या दक्षिण दिशा की ओर रखें। इसके अलावा रात्रि के समय शयनकक्ष में कपूर जलाएं।इससे घर में बीमारियां नहीं आती। पितृदोष का नाश होता है और घर में शांति बनी रहती है।

पूर्णिमा के दिन चांद की रोशनी में खीर बनाएं। ठंडी होने पर चंद्रमा और अपने पितरों को भोग लगाएं। इसमें से कुछ खीर काले कुत्तों को भी दे दें। इस उपाय को पूरे वर्ष करें। ऐसा करते रहने से गृह क्लेश, बीमारी तथा व्यापार-हानि से मुक्ति मिलती है।
पुत्र बीमार हो, तो कन्याओं को हलवा खिलाएं। पीपल के पेड़ की लकड़ी सिरहाने रखकर सोएं। यदि पत्नी बीमार रहती हो, तो गौ-दान करें। 

सोते हुए अपना सिर हमेशा पूर्व या दक्षिण दिशा की तरफ रखना चाहिए। दक्षिण दिशा की ओर सिर कर के सोने वाले व्यक्ति में चुम्बकीय बल रेखाएं पैर से सिर की ओर जाती हैं, जो अधिक से अधिक रक्त खींच कर सिर की ओर लाएंगी, जिससे व्यक्ति विभिन्न रोगों से मुक्त रहता है। उसे नींद भी अच्छी आती है।

जिस घर की स्त्री हमेशा बीमार रहती हो, उस घर में तुलसी का पौधा लगाकर उसकी श्रद्धापूर्वक देखभाल करें। रोग आदि पीड़ा से मुक्ति मिलती है। इसके अलावा मंदिर में गुप्त दान भी कर सकते हैं। रविवार के दिन बूंदी के सवा किलो लड्डू मंदिर में प्रसाद के रूप में बांटें।

किसी भी रविवार से आरंभ करके लगातार 3 दिन तक गेहूं के आटे का पेड़ा और एक लोटा पानी बीमार व्यक्ति के ऊपर से उतार लें। जल को पौधे में डालें और पेड़ा गाय को खिला दें।

!!! काली हल्दी का चमत्कार !!!


मां लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए तंत्र शास्त्र में हरिद्रा तंत्र की चर्चा है। कहते हैं, इससे मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और धन-धान्य की वर्षा करती हैं। हरिद्रा यानी काली हल्दी खाने के काम में नहीं आती, पर चोट लगने और दूसरे औषधीय गुणों में इसे महत्व दिया जाता है। यदि किसी को इस काली हल्दी की गांठ प्राप्त हो, तो उसे पूजा घर में रख दें। मान्यता है कि यह जहां भी होती है, सहज ही वहां श्री-समृद्धि का आगमन होने लगता है। हरिद्रा तंत्र को नए कपड़े में अक्षत और चांदी के टुकड़े अथवा किसी सिक्के के साथ रखकर गांठ बांध दें और धूप-दीप से पूजा करके गल्ले या बक्से में रख दें, तो आश्चर्यजनक आर्थिक लाभ होने लगता है। लेकिन इसको घर में रखने से पहले अभिमंत्रित भी कर लें, तभी इसका विशेष प्रभाव दिखता है।



हरिद्रा तंत्र के लिए साधना विधि महीने की किसी भी अष्टमी से इस पूजा को शुरू कर सकते हैं। इस दिन प्रात: उठकर नित्यकर्म से निवृत्त होकर पूर्व की ओर मुख करके आसन पर बैठ जाएं। तत्पश्चात् काली हल्दी की गांठ को धूप-दीप देकर नमस्कार करें। फिर उगते हुए सूर्यको नमस्कार करें और 108 बार निम्न मंत्र का जाप करें।

‘‘ॐ ह्रीं सूर्याय नम:।’




इसके बाद स्थापित काली हल्दी की पूजा करें। पूरे दिन व्रत रखें और फलाहार करें। यथाशक्ति दान-पुण्य भी करें। हरिद्रा तंत्र की साधना में यह तथ्य स्मरण रखना चाहिए कि इसके साधक के लिए मूली, गाजर और जिमींकंद का प्रयोग वर्जित है। इस प्रयोग को विधिपूर्वक करने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। घर में बरकत होती है।

!!! अग्नि देव की पत्नी !!!



यज्ञ आदि अनुष्ठान में हवन करते समय देवताओं के नाम की आहुति देने का विधान है। कहते हैं कि देवताओं की पुष्टि यज्ञों में अर्पित आहुतियों से ही होती है। इसलिए जब भी असुरों ने देवताओं को पराजित किया, उन्होंने यज्ञों का भी विध्वंस किया ताकि देवताओं की शक्ति क्षीण हों। पुराणों के अनुसार, यज्ञ की अग्नि के माध्यम से भेजी गई आहुतियां देवताओं तक अवश्य पहुंचती हैं और इसका माध्यम बनती है स्वाहा। यज्ञ की प्रज्वलित अग्नि में मंत्रोच्चारण के साथ ‘स्वाहा’ बोलते हुए यज्ञ सामग्री और घी की आहुतियां दी जाती हैं। क्या आपको मालूम है कि स्वाहा का उच्चारण बार-बार क्यों किया जाता है?

स्वाहा शब्द का अर्थ है सु+आ+हा यानी अच्छे लोगों को दिया गया। श्रीमद्भागवत एवं शिवपुराण के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री स्वाहा का विवाह अग्नि देवता के साथ हुआ था। अग्नि अपनी पत्नी स्वाहा द्वारा ही भोजन ग्रहण करते हैं। इसीलिए स्वाहा बोलकर उनके माध्यम से अग्नि को हविष्य भेंट करने का विधान है। विभिन्न देवी-देवताओं के नाम के बाद स्वाहा का उच्चारण किया जाता है, ताकि अग्निदेव तक आहुतियां पहुंचें और फिर अग्निदेव उसे विभिन्न देवताओं तक पहुंचाएं।




!!! बीज मंत्र की महिमा !!!


मंत्र शास्त्र में बीज मंत्रों का विशेष स्थान है। मंत्रों में भी इन्हें शिरोमणि माना जाता है क्योंकि जिस प्रकार बीज से पौधों और वृक्षों की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार बीज मंत्रों के जप से भक्तों को दैवीय ऊर्जा मिलती है। ऐसा नहीं है कि हर देवी-देवता के लिए एक ही बीज मंत्र का उल्लेख शास्त्रों में किया गया है। बल्कि अलग-अलग देवी-देवता के लिए अलग बीज मंत्र हैं।



“ऐं” सरस्वती बीज । यह मां सरस्वती का बीज मंत्र है, इसे वाग् बीज भी कहते हैं। जब बौद्धिक कार्यों में सफलता की कामना हो, तो यह मंत्र उपयोगी होता है। जब विद्या, ज्ञान व वाक् सिद्धि की कामना हो, तो श्वेत आसान पर पूर्वाभिमुख बैठकर स्फटिक की माला से नित्य इस बीज मंत्र का एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


“ह्रीं” भुवनेश्वरी बीज । यह मां भुवनेश्वरी का बीज मंत्र है। इसे माया बीज कहते हैं। जब शक्ति, सुरक्षा, पराक्रम, लक्ष्मी व देवी कृपा की प्राप्ति हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


“क्लीं” काम बीज । यह कामदेव, कृष्ण व काली इन तीनों का बीज मंत्र है। जब सर्व कार्य सिद्धि व सौंदर्य प्राप्ति की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


“श्रीं” लक्ष्मी बीज । यह मां लक्ष्मी का बीज मंत्र है। जब धन, संपत्ति, सुख, समृद्धि व ऐश्वर्य की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पश्चिम मुख होकर कमलगट्टे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


"ह्रौं" शिव बीज । यह भगवान शिव का बीज मंत्र है। अकाल मृत्यु से रक्षा, रोग नाश, चहुमुखी विकास व मोक्ष की कामना के लिए श्वेत आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


"गं" गणेश बीज । यह गणपति का बीज मंत्र है। विघ्नों को दूर करने तथा धन-संपदा की प्राप्ति के लिए पीले रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


"श्रौं" नृसिंह बीज । यह भगवान नृसिंह का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, सर्व रक्षा बल, पराक्रम व आत्मविश्वास की वृद्धि के लिए लाल रंग के आसन पर दक्षिणाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या मूंगे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


“क्रीं” काली बीज । यह काली का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, पराक्रम, सुरक्षा, स्वास्थ्य लाभ आदि कामनाओं की पूर्ति के लिए लाल रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


“दं” विष्णु बीज । यह भगवान विष्णु का बीज मंत्र है। धन, संपत्ति, सुरक्षा, दांपत्य सुख, मोक्ष व विजय की कामना हेतु पीले रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर तुलसी की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।




!!! दुर्गा सप्तशती !!!



दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद के अनुसार भस्म, चंदन अथवा रोली लगा लें, शिखा बाँध लें, फिर पूर्वाभिमुख होकर तत्त्व शुद्धि के लिए चार बार आचमन करें। इस समय निम्न मंत्रों को बोलें-

ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥

तत्पश्चात प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करें, फिर ‘पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ’ इत्यादि मन्त्र से कुश की पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर निम्नांकित रूप से संकल्प करें-

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकायने महामांगल्यप्रदे मासानाम्‌ उत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरान्वितायाम्‌ अमुकनक्षत्रे अमुकराशिस्थिते सूर्ये अमुकामुकराशिस्थितेषु चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुक नाम अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्व-विधपीडानिवृत्तिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायुः पुष्टिधनधान्यसमृद्ध्‌यर्थं श्री नवदुर्गाप्रसादेन सर्वापन्निवृत्तिसर्वाभीष्टफलावाप्तिधर्मार्थ- काममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्सरं कवचार्गलाकीलकपाठ- वेदतन्त्रोक्त रात्रिसूक्त पाठ देव्यथर्वशीर्ष पाठन्यास विधि सहित नवार्णजप सप्तशतीन्यास- धन्यानसहितचरित्रसम्बन्धिविनियोगन्यासध्यानपूर्वकं च ‘मार्कण्डेय उवाच॥ सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।’ इत्याद्यारभ्य ‘सावर्णिर्भविता मनुः’ इत्यन्तं दुर्गासप्तशतीपाठं तदन्ते न्यासविधिसहितनवार्णमन्त्रजपं वेदतन्त्रोक्तदेवीसूक्तपाठं रहस्यत्रयपठनं शापोद्धारादिकं च करिष्ये/करिष्यामि।

इस प्रकार प्रतिज्ञा (संकल्प) करके देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार की विधि से पुस्तक की पूजा करें, (पुस्तक पूजा का मन्त्रः- “ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।” (वाराहीतन्त्र तथा चिदम्बरसंहिता))। योनिमुद्रा का प्रदर्शन करके भगवती को प्रणाम करें, फिर मूल नवार्ण मन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें। इसके बाद शापोद्धार करना चाहिए। इसके अनेक प्रकार हैं।
‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशागुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’

इस मंत्र का आदि और अन्त में सात बार जप करें। यह “शापोद्धार मंत्र” कहलाता है। इसके अनन्तर उत्कीलन मन्त्र का जाप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है- ‘ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।’ इसके जप के पश्चात्‌ आदि और अन्त में सात-सात बार मृतसंजीवनी विद्या का जाप करना चाहिए, जो इस प्रकार है-
‘ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।’

मारीचकल्प के अनुसार सप्तशती-शापविमोचन का मन्त्र यह है-

‘ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।’

इस मन्त्र का आरंभ में ही एक सौ आठ बार जाप करना चाहिए, पाठ के अन्त में नहीं। अथवा रुद्रयामल महातन्त्र के अंतर्गत दुर्गाकल्प में कहे हुए चण्डिका शाप विमोचन मन्त्र का आरंभ में ही पाठ करना चाहिए। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-

ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य वसिष्ठ-नारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषयः सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्री शक्तिः त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तौ मम संकल्पितकार्यसिद्ध्‌यर्थे जपे विनियोगः। 



ॐ (ह्रीं) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥1॥
ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥2॥
ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥3॥
ॐ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥4॥
ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥5॥
ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥6॥
ॐ तृं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव॥7॥
ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥8॥
ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥9॥
ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥10॥
ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥11॥
ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥12॥
ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥13॥
ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥14॥
ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥15॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥16॥
ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥17॥
ॐ ऐं ह्री क्लीं महाकालीमहालक्ष्मी-
महासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः॥18॥
इत्येवं हि महामन्त्रान्‌ पठित्वा परमेश्वर।
चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः॥19॥
एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः।
आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः॥20॥ 

इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका बहिर्मातृका आदि न्यास करें, फिर श्रीदेवी का ध्यान करके रहस्य में बताए अनुसार नौ कोष्ठों वाले यन्त्र में महालक्ष्मी आदि का पूजन करें, इसके बाद छ: अंगों सहित दुर्गासप्तशती का पाठ आरंभ किया जाता है।

कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य- ये ही सप्तशती के छ: अंग माने गए हैं। इनके क्रम में भी मतभेद हैं। चिदम्बरसंहिता में पहले अर्गला, फिर कीलक तथा अन्त में कवच पढ़ने का विधान है, किन्तु योगरत्नावली में पाठ का क्रम इससे भिन्न है। उसमें कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गई है।

जिस प्रकार सब मंत्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति का तथा अन्त में कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवच रूप बीज का, फिर अर्गला रूपा शक्ति का तथा अन्त में कीलक रूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिए। यहाँ इसी क्रम का अनुसरण किया गया है।

।। देवी माहात्म्यम् ।।

।। श्री।।
श्रीचण्डिकाध्यानम्
ॐ बन्धूककुसुमाभासां पञ्चमुण्डाधिवासिनीम् ।
स्फुरच्चन्द्रकलारत्नमुकुटां मुण्डमालिनीम् ।।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां पीनोन्नतघटस्तनीम् ।
पुस्तकं चाक्षमालां च वरं चाभयकं क्रमात् ।।
दधतीं संस्मरेन्नित्यमुत्तराम्नायमानिताम् ।

अथवा

या चण्डी मधुकैटभादिदैत्यदलनी या माहिषोन्मूलिनी
या धूम्रेक्षणचण्डमुण्डमथनी या रक्तबीजाशनी ।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धिदात्री परा
सा देवी नवकोटिमूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी ।।

।। अथ देवी कवचम् ।।
ॐ नमश्चण्डिकायै

मार्कण्डेय उवाच

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ।। १।।

ब्रह्मोवाच
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ।। २।।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।। ३।।

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम् ।। ४।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।। ५।।

अग्निना दह्यमानास्तु शत्रुमध्यगता रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ।। ६।

न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे ।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ।। ७।।

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते ।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः ।। ८।।

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना ।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ।। ९।।

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ।।१०।।

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना ।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ।।११।।

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः ।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ।।१२।।

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः ।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ।।१३।।

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् ।।१४।।

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ।।१५।।

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ।।१६।।

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि ।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ।।१७।।

दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खड्गधारिणी ।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी ।।१८।।

उदीच्यां पातु कौबेरी ईशान्यां शूलधारिणी ।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा ।।१९।।

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना ।
जया मामग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ।।२०।।

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता ।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ।।२१।।

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी ।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा तु नासिके ।।२२।।

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी ।
कपोलौ कालिका रक्षेत् कर्णमूले तु शाङ्करी ।। २३।।

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्टे च चर्चिका ।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ।। २४।।

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका ।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ।। २५।।

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमङ्गला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ।। २६।।

नीलग्रीवा बहिः कण्ठे नलिकां नलकूबरी ।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ।। २७।।

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च ।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत् कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ।। २८।।

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी ।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ।। २९।।

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ।। ३०।।

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी ।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ।। ३१।।

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी ।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ।। ३२।।

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी ।
रोमकूपेषु कौमारी त्वचं वागीश्वरी तथा ।। ३३।।

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।
अन्त्राणि कालरात्रिश्व पित्तं च मुकुटेश्वरी ।। ३४।।

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु ।। ३५।।

शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ।। ३६।।

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत् प्राणान् कल्याणशोभना ।। ३७।।

रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्त्वं रजस्तमश्वैव रक्षेन्नारायणी सदा ।। ३८।।

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी ।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्या च चक्रिणी ।। ३९।।

गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके ।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ।। ४०।।

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमङ्करी तथा ।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ।।४१।।

रक्षाहीनं तु यत् स्थानं वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी ।।४२।।

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः ।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ।।४३।।

तत्र तत्रार्थलाभश्व विजयः सार्वकामिकः ।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ।।४४।।

निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ।। ४५।।

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ।। ४६।।

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः ।
जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ।। ४७।।

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः ।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चैव यद्विषम् ।। ४८।।

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले ।
भूचराः खेचराश्चैव कुलजाश्चौपदेशिकाः ।। ४९।।

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा ।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ।। ५०।।

गृहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ।। ५१।।

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे ह्रदि संस्थिते ।
मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञास्तेजोवृद्धिकरं परम् ।। ५२।।

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभुतले ।
जपेत् सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ।।५३।।

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी ।। ५४।।

देहान्ते परमं स्थानं सुरैरपि सुदुर्लभम् ।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ।। ५५।।
लभते परमं स्थानं शिवेन समतां व्रजेत् ।। ५६।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे हरिहरब्रह्मविरचितं देवीकवचं समाप्तम् ।

अथ अर्गलास्तोत्रम्
।।ॐ नमश्वण्डिकायै।।
मार्कण्डेय उवाच

ॐ जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते ।। १।।

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ।। २।।

मधुकैटभविद्रावि विधातृवरदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ३।।

महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ४।।

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ५।।

शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ६।।

वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ७।।

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ८।।

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ९।।

स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १०।।

चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ११।।

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १२।।

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमयच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १३।।

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १४।।

सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १५।।

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १६।।

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १७।।

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १८।।

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १९।।

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २०।।

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २१।।

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २२।।

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २३।।

भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ।।२४।।

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
स तु सप्तशतींसंख्या वरमाप्नोति सम्पदाम्।।ॐ।। २५।।

।। इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम् ।।

।। अथ कीलकस्तोत्रम् ।।
ॐ नमश्चण्डिकायै

मार्कण्डेय उवाच –

ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे ।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ।। १।।

सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम् ।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जप्यतत्परः ।। २।।

सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि ।
एतेन स्तुवतां देवीं स्तोत्रमात्रेण सिद्धयति ।। ३।।

न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते ।
विना जाप्येन सिद्ध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम् ।। ४।।

समग्राण्यपि सिद्धयन्ति लोकशङ्कामिमां हरः ।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम् ।। ५।।

स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः ।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्निमन्त्रणाम् ।। ६।।

सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेव न संशयः ।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः ।। ७।।

ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति ।
इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ।। ८।।

यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः ।। ९।।

न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते ।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।। १०।।

ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति ।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः ।। ११।।

सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने ।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जप्यमिदम् शुभम् ।। १२।।

शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः ।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत् ।। १३।।

ऐश्वर्यं तत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः ।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः ।।ॐ।। १४।।

।। इति श्रीभगवत्याः कीलकस्तोत्रं समाप्तम् ।।

।। अथ प्रथमचरित्रम् ।।

महाकालीध्यानम्

ॐ खड्गं चक्रगदेषुचापपरिधान् शूलं भुशुण्डीं शिरः
शङ्खं सन्दधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम् ।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकाम्
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम् ।।

ॐ नमश्चण्डिकायै
ॐ ऐं मार्कण्डेय उवाच ।। १।।

सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः ।
निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद्गदतो मम ।। २।।

महामायानुभावेन यथा मन्वन्तराधिपः ।
स बभूव महाभागः सावर्णिस्तनयो रवेः ।। ३।।

स्वारोचिषेऽन्तरे पूर्वं चैत्रवंशसमुद्भवः ।
सुरथो नाम राजाभूत्समस्ते क्षितिमण्डले ।। ४।।

तस्य पालयतः सम्यक् प्रजाः पुत्रानिवौरसान् ।
बभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वंसिनस्तदा ।। ५।।

तस्य तैरभवद् युद्धमतिप्रबलदण्डिनः ।
न्यूनैरपि स तैर्युद्धे कोलाविध्वंसिभिर्जितः ।। ६।।

ततः स्वपुरमायातो निजदेशाधिपोऽभवत् ।
आक्रान्तः स महाभागस्तैस्तदा प्रबलारिभिः ।। ७।।

अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः ।
कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः ।। ८।।

ततो मृगयाव्याजेन हृतस्वाम्यः स भूपतिः ।
एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम् ।। ९।।

स तत्राश्रममद्राक्षीद् द्विजवर्यस्य मेधसः ।
प्रशान्तः श्वापदाकीर्णं मुनिशिष्योपशोभितम् ।। १०।।

तस्थौ कंचित्स कालं च मुनिना तेन सत्कृतः ।
इतश्चेतश्च विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे ।। ११।।

सोऽचिन्तयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टमानसः (ममत्वाकृष्टचेतनः)।
मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मया हीनं पुरं हि तत् ।।१२।।

मद्धृत्तैस्तैरसद्वृत्तैर्धर्मतः पाल्यते न वा ।
न जाने स प्रधानो मे शूरहस्ती सदामदः ।।१३।।

मम वैरिवशं यातः कान् भोगानुपलप्स्यते ।
ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः ।।१४।।

अनुवृत्तिं ध्रुवं तेऽद्य कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम् ।
असम्यग्व्ययशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततं व्ययम् ।।१५।।

सञ्चितः सोऽतिदुःखेन क्षयं कोशो गमिष्यति ।
एतच्चान्यच्च सततं चिन्तयामास पार्थिवः ।।१६।।

तत्र विप्राश्रमाभ्याशो वैश्यमेकं ददर्श सः ।
स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्चागमनेऽत्र कः ।।१७।।

सशोक इव कस्मात्त्वं दुर्मना इव लक्ष्यसे ।
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम् ।।१८।।
प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपम् ।। १९।।

वैश्य उवाच ।। २०।।

समाधिर्नाम वैश्योऽहमुत्पन्नो धनिनां कुले ।
पुत्रदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः ।। २१।।

विहीनश्च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम् ।
वनमभ्यागतो दुःखी निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः ।। २२।।

सोऽहं न वेद्मि पुत्राणां कुशलाकुशलात्मिकाम् ।
प्रवृत्तिं स्वजनानां च दाराणां चात्र संस्थितः ।। २३।।

किं नु तेषां गृहे क्षेममक्षेमं किं नु साम्प्रतम् ।। २४।।
कथं ते किं नु सद्वृत्ता दुर्वृताः किं नु मे सुताः ।। २५।।

राजोवाच ।। २६।।

यैर्निरस्तो भवाँल्लुब्धैः पुत्रदारादिभिर्धनैः ।। २७।।
तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति मानसम् ।। २८।।

वैश्य उवाच ।। २९।।

एवमेतद्यथा प्राह भवानस्मद्गतं वचः ।
किं करोमे न बध्नाति मम निष्ठुरतां मनः ।। ३०।।

यैः सन्त्यज्य पितृस्नेहं धनलुभ्धैर्निराकृतः ।
पतिः स्वजनहार्दं च हार्दि तेष्वेव मे मनः ।। ३१।।

किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि महामते ।
यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि बन्धुषु ।। ३२।।

तेषां कृते मे निःश्वासो दौर्मनस्यं च जायते ।। ३३।।

करोमि किं यन्न मनस्तेष्वप्रीतिषु निष्ठुरम् ।। ३४।।

मार्कण्डेय उवाच ।। ३५।।

ततस्तौ सहितौ विप्र तं मुनिं समुपस्थितौ ।। ३६।।

समाधिर्नाम वैश्योऽसौ स च पार्थिवसत्तमः ।। ३७।।

कृत्वा तु तौ यथान्यायं यथार्हं तेन संविदम् ।
उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्यपार्थिवौ ।। ३८।।

राजोवाच ।। ३९।।

भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छाम्येकं वदस्व तत् ।। ४०।।
दुःखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना ।। ४१।।

ममत्वं गतराज्यस्य राज्याङ्गेष्वखिलेष्वपि ।
जानतोऽपि यथाज्ञस्य किमेतन्मुनिसत्तम ।। ४२।।

अयं च निकृतः पुत्रैर्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः ।
स्वजनेन च सन्त्यक्तस्तेषु हार्दी तथाप्यति ।। ४३।।

एवमेष तथाहं च द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ ।
दृष्टदोषेऽपि विषये ममत्वाकृष्टमानसौ ।। ४४।।

तत्किमेतन्महाभाग यन्मोहो ज्ञानिनोरपि ।
ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढता ।। ४५।।

ऋषिरुवाच ।। ४६।।

ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे ।
विषयाश्च महाभाग यान्ति चैवं पृथक्पृथक् ।। ४७।।

दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे ।
केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः ।। ४८।।

ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किन्तु ते न हि केवलम् ।
यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः ।। ४९।।

ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम् ।
मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः ।। ५०।।

ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान् पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु ।
कणमोक्षादृतान् मोहात्पीडयमानानपि क्षुधा ।। ५१।।

मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति ।
लोभात् प्रत्युपकाराय नन्वेतान् किं न पश्यसि ।। ५२।।

तथापि ममतावर्ते मोहगर्ते निपातिताः ।
महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा ।। ५३।।

तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा जगत्पतेः ।
महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत् ।। ५४।।

ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।। ५५।।

तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम् ।
सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये ।। ५६।।

सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी ।। ५७।।

संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी ।। ५८।।

राजोवाच ।। ५९।।

भगवन् का हि सा देवी महामायेति यां भवान् ।
ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा कर्मास्याश्च किं द्विज ।। ६०।।

यत्प्रभावा च सा देवी यत्स्वरूपा यदुद्भवा ।। ६१।।

तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो ब्रह्मविदां वर ।। ६२।।

ऋषिरुवाच ।। ६३।।

नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम् ।। ६४।।

तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतां मम ।। ६५।।

देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा ।
उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते ।। ६६।।

योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते ।
आस्तीर्य शेषमभजत् कल्पान्ते भगवान् प्रभुः ।। ६७।।

तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ मधुकैटभौ ।
विष्णुकर्णमलोद्भूतौ हन्तुं ब्रह्माणमुद्यतौ ।। ६८।।

स नाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः ।
दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं च जनार्दनम् ।। ६९।।

तुष्टाव योगनिद्रां तामेकाग्रहृदयः स्थितः ।
विबोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम् ।। ७०।।

विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम् ।
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः ।। ७१।।

ब्रह्मोवाच ।। ७२।।

त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका ।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिताः ।। ७३।।

अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः ।
त्वमेव सा त्वं सावित्री त्वं देवि जननी परा ।। ७४।।

त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत् सृज्यते जगत् ।
त्वयैतत् पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ।। ७५।।

विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने ।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ।। ७६।।

महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः ।
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी ।। ७७।।

प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी ।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा ।। ७८।।

त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा ।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च ।। ७९।।

खड्गिनी शूलिनी घोर गदिनी चक्रिणी तथा ।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा ।। ८०।।

सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी ।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ।। ८१।।

यच्च किञ्चित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके ।
तस्य सर्वस्य या शक्त्तिः सा त्वं किं स्तूयसे मया ।। ८२।।

यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत् ।
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ।। ८३।।

विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च ।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत् ।। ८४।।

सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता ।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ।। ८५।।

प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु ।। ८६।।

बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ ।। ८७।।

ऋषिरुवाच ।। ८८।।

एवं स्तुता तदा देवी तामसी तत्र वेधसा ।
विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं मधुकैटभौ ।। ८९।।

नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः ।
निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ।। ९०।।

उत्तस्थौ च जगन्नाथस्तया मुक्तो जनार्दनः ।
एकार्णवेऽहिशयनात्ततः स ददृशे च तौ ।। ९१।।

मधुकैटभौ दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ ।
क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं ब्रह्माणं जनितोद्यमौ ।। ९२।।

समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान् हरिः ।
पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो विभुः ।। ९३।।

तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ ।। ९४।।
उक्तवन्तौ वरोऽस्मत्तो व्रियतामिति केशवम् ।। ९५।।

श्रीभगवानुवाच ।। ९६।।

भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि ।। ९७।।

किमन्येन वरेणात्र एतावद्धि वृतं मम ।। ९८।।

ऋषिरुवाच ।। ९९।।

वञ्चिताभ्यामिति तदा सर्वमापोमयं जगत् ।
विलोक्य ताभ्यां गदितो भगवान् कमलेक्षणः ।। १००।।

आवां जहि न यत्रोर्वी सलिलेन परिप्लुता ।। १०१।।

ऋषिरुवाच ।। १०२।।

तथेत्युक्त्वा भगवता शङ्खचक्रगदाभृता ।
कृत्वा चक्रेण वै छिन्ने जघने शिरसी तयोः ।। १०३।।

एवमेषा समुत्पन्ना ब्रह्मणा संस्तुता स्वयम् ।
प्रभावमस्या देव्यास्तु भूयः श्रृणु वदामि ते ।।ऐं ॐ।। १०४।।

।। इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः ।।

।। अथ मध्यमचरितम् ।।
महालक्ष्मीध्यानम्

ॐ अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम् ।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम् ।।

ॐ ऋषिरुवाच ।। १।।

देवासुरमभूद्युद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा ।
महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे ।। २।।

तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यं पराजितम् ।
जित्वा च सकलान् देवानिन्द्रोऽभून्महिषासुरः ।। ३।।

ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम् ।
पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ ।। ४।।

यथावृत्तं तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम् ।
त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम् ।। ५।।

सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च ।
अन्येषां चाधिकारान्स स्वयमेवाधितिष्ठति ।। ६।।

स्वर्गान्निराकृताः सर्वे तेन देवगणा भुवि ।
विचरन्ति यथा मर्त्या महिषेण दुरात्मना ।। ७।।

एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम् ।
शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम् ।। ८।।

इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः ।
चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकुटीकुटिलाननौ ।। ९।।

ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः ।
निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शङ्करस्य च ।। १०।।

अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः ।
निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत ।। ११।।

अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम् ।
ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम् ।। १२।।

अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम् ।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा ।। १३।।

यदभूच्छाम्भवं तेजस्तेनाजायत तन्मुखम् ।
याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा ।। १४।।

सौम्येन स्तनयोर्युग्मं मध्यं चैन्द्रेण चाभवत् ।
वारुणेन च जङ्घोरू नितम्बस्तेजसा भुवः ।। १५।।

ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदङ्गुल्योऽर्कतेजसा ।
वसूनां च कराङ्गुल्यः कौबेरेण च नासिका ।। १६।।

तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा ।
नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा ।। १७।।

भ्रुवौ च सन्ध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च ।
अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा ।। १८।।

ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम् ।
तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः ।। १९।।

शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक् ।
चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाद्य स्वचक्रतः ।। २०।।

शङ्खं च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यै हुताशनः ।
मारुतो दत्तवांश्चापं बाणपूर्णे तथेषुधी ।। २१।।

वज्रमिन्द्रः समुत्पाद्य कुलिशादमराधिपः ।
ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद्गजात् ।। २२।।

कालदण्डाद्यमो दण्डं पाशं चाम्बुपतिर्ददौ ।
प्रजापतिश्चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम् ।। २३।।

समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन् दिवाकरः ।
कालश्च दत्तवान् खड्गं तस्याश्चर्म च निर्मलम् ।। २४।।

क्षीरोदश्चामलं हारमजरे च तथाम्बरे ।
चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च ।। २५।।

अर्धचन्द्रं तथा शुभ्रं केयूरान् सर्वबाहुषु ।
नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम् ।। २६।।

अङ्गुलीयकरत्नानि समस्तास्वङ्गुलीषु च ।
विश्वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम् ।। २७।।

अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाऽभेद्यं च दंशनम् ।
अम्लानपङ्कजां मालां शिरस्युरसि चापराम् ।। २८।।

अददज्जलधिस्तस्यै पङ्कजं चातिशोभनम् ।
हिमवान् वाहनं सिंहं रत्नानि विविधानि च ।। २९।।

ददावशून्यं सुरया पानपात्रं धनाधिपः ।
शेषश्च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम् ।। ३०।।

नागहारं ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीमिमाम् ।
अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधैस्तथा ।। ३१।।

सम्मानिता ननादोच्चैः साट्टहासं मुहुर्मुहुः ।
तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः ।। ३२।।

अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत् ।
चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्च चकम्पिरे ।। ३३।।

चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्च महीधराः ।
जयेति देवाश्च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम् ।। ३४।।

तुष्टुवुर्मुनयश्चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः ।
दृष्ट्वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः ।। ३५।।

सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः ।
आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः ।। ३६।।

अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः ।
स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा ।। ३७।।

पादाक्रान्त्या नतभुवं किरीटोल्लिखिताम्बराम्
क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम् ।। ३८।।

दिशो भुजसहस्रेण समन्ताद्व्याप्य संस्थिताम् ।
ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम् ।। ३९।।

शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगन्तरम् ।
महिषासुरसेनानीश्चिक्षुराख्यो महासुरः ।। ४०।।

युयुधे चामरश्चान्यैश्चतुरङ्गबलान्वितः ।
रथानामयुतैः षड्भिरुदग्राख्यो महासुरः ।। ४१।।

अयुध्यतायुतानां च सहस्रेण महाहनुः ।
पञ्चाशद्भिश्च नियुतैरसिलोमा महासुरः ।। ४२।।

अयुतानां शतैः षड्भिर्बाष्कलो युयुधे रणे ।
गजवाजिसहस्रौघैरनेकैः परिवारितः ।। ४३।।

वृतो रथानां कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत ।
बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायुतैः ।। ४४।।

युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः ।
अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः ।। ४५।।

युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महासुराः ।
कोटिकोटिसहस्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा ।। ४६।।

हयानां च वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः ।
तोमरैर्भिन्दिपालैश्च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा ।। ४७।।

युयुधुः संयुगे देव्या खड्गैः परशुपट्टिशैः ।
केचिच्च चिक्षिपुः शक्तीः केचित् पाशांस्तथापरे ।। ४८।।

देवीं खड्गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुं प्रचक्रमुः ।
सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका ।। ४९।।

लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी ।
अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः ।। ५०।।

मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्वरी ।
सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेसरी ।। ५१।।

चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः ।
निःश्वासान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका ।। ५२।।

त एव सद्यः सम्भूता गणाः शतसहस्रशः ।
युयुधुस्ते परशुभिर्भिन्दिपालासिपट्टिशैः ।। ५३।।

नाशयन्तोऽसुरगणान् देवीशक्त्युपबृंहिताः ।
अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्खांस्तथापरे ।। ५४।।

मृदङ्गाश्च तथैवान्ये तस्मिन्युद्धमहोत्सवे ।
ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः ।। ५५।।

खड्गादिभिश्च शतशो निजघान महासुरान् ।
पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान् ।। ५६।।

असुरान् भुवि पाशेन बद्ध्वा चान्यानकर्षयत् ।
केचिद् द्विधा कृतास्तीक्ष्णैः खड्गपातैस्तथापरे ।। ५७।।

विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते ।
वेमुश्च केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः ।। ५८।।

केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि ।
निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे ।। ५९।।

श्येनानुकारिणः प्राणान्मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः ।
केषाञ्चिद्बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे ।। ६०।।

शिरांसि पेतुरन्येषामन्ये मध्ये विदारिताः ।
विच्छिन्नजङ्घास्त्वपरे पेतुरुर्व्यां महासुराः ।। ६१।।

एकबाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्या द्विधा कृताः ।
छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः ।। ६२।।

कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधाः ।
ननृतुश्चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिताः ।। ६३।।

कबन्धाश्छिन्नशिरसः खड्गशक्त्यृष्टिपाणयः ।
तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः ।।६४।।

पातितै रथनागाश्वैरसुरैश्च वसुन्धरा ।
अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत् स महारणः ।। ६५।।

शोणितौघा महानद्यस्सद्यस्तत्र प्रसुस्रुवुः ।
मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम् ।। ६६।।

क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका ।
निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम् ।। ६७।।

स च सिंहो महानादमुत्सृजन् धुतकेसरः ।
शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति ।। ६८।।

देव्या गणैश्च तैस्तत्र कृतं युद्धं महासुरैः ।
यथैषां तुष्टुवुर्देवाः पुष्पवृष्टिमुचो दिवि ।।ॐ।। ६९।।

।। इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः ।।

।। अथ तृतीयोऽध्यायः ।।
ध्यानम्
ॐ उद्यद्भानुसहस्त्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां
रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्।
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं
देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम्।।

‘ॐ’ ऋषिरुवाच ।। १।।

निहन्यमानं तत्सैन्यमवलोक्य महासुरः ।
सेनानीश्चिक्षुरः कोपाद्ययौ योद्धुमथाम्बिकाम् ।। २।।

स देवीं शरवर्षेण ववर्ष समरेऽसुरः ।
यथा मेरुगिरेः श्रृङ्गं तोयवर्षेण तोयदः ।। ३।।

तस्यच्छित्त्वा ततो देवी लीलयैव शरोत्करान् ।
जघान तुरगान्बाणैर्यन्तारं चैव वाजिनाम् ।। ४।।

चिच्छेद च धनुः सद्यो ध्वजं चातिसमुच्छ्रितम् ।
विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः ।। ५।।

स छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः ।
अभ्यधावत तं देवीं खड्गचर्मधरोऽसुरः ।। ६।।

सिंहमाहत्य खड्गेन तीक्ष्णधारेण मूर्धनि ।
आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान् ।। ७।।

तस्याः खड्गो भुजं प्राप्य पफाल नृपनन्दन ।
ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचनः ।। ८।।

चिक्षेप च ततस्तत्तु भद्रकाल्यां महासुरः ।
जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिम्बमिवाम्बरात् ।। ९।।

दृष्ट्वा तदापतच्छूलं देवी शूलममुञ्चत ।
तच्छूलं शतधा तेन नीतं स च महासुरः ।। १०।।

हते तस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूपतौ ।
आजगाम गजारूढश्चामरस्त्रिदशार्दनः ।। ११।।

सोऽपि शक्तिं मुमोचाथ देव्यास्तामम्बिका द्रुतम् ।
हुङ्काराभिहतां भूमौ पातयामास निष्प्रभाम् ।। १२।।

भग्नां शक्तिं निपतितां दृष्ट्वा क्रोधसमन्वितः ।
चिक्षेप चामरः शूलं बाणैस्तदपि साच्छिनत् ।। १३।।

ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरस्थितः ।
बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा ।। १४।।

युध्यमानौ ततस्तौ तु तस्मान्नागान्महीं गतौ ।
युयुधातेऽतिसंरब्धौ प्रहरैरतिदारुणैः ।। १५।।

ततो वेगात् खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा ।
करप्रहारेण शिरश्चामरस्य पृथक् कृतम् ।। १६।।

उदग्रश्च रणे देव्या शिलावृक्षादिभिर्हतः ।
दन्तमुष्टितलैश्चैव करालश्च निपातितः ।। १७।।

देवी क्रुद्धा गदापातैश्चूर्णयामास चोद्धतम् ।
वाष्कलं भिन्दिपालेन बाणैस्ताम्रं तथान्धकम् ।। १८।।

उग्रास्यमुग्रवीर्यं च तथैव च महाहनुम् ।
त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी ।। १९।।

बिडालस्यासिना कायात् पातयामास वै शिरः ।
दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम् ।। २०।।

एवं संक्षीयमाणे तु स्वसैन्ये महिषासुरः ।
माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामास तान् गणान् ।। २१।।

कांश्चित्तुण्डाप्रहारेण खुरक्षेपैस्तथापरान् ।
लाङ्गूलताडितांश्चान्यान् श्रृङ्गाभ्यां च विदारितान् ।। २२।।

वेगेन कांश्चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च ।
निःश्वासपवनेनान्यान्पातयामास भूतले ।। २३।।

निपात्य प्रमथानीकमभ्यधावत सोऽसुरः ।
सिंहं हन्तुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततोऽम्बिका ।। २४।।

सोऽपि कोपान्महावीर्यः खुरक्षुण्णमहीतलः ।
श्रृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च ।। २५।।

वेगभ्रमणविक्षुण्णा मही तस्य व्यशीर्यत ।
लाङ्गूलेनाहतश्चाब्धिः प्लावयामास सर्वतः ।। २६।।

धुतश्रृङ्गविभिन्नाश्च खण्डं खण्डं ययुर्घनाः ।
श्वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोऽचलाः ।। २७।।

इति क्रोधसमाध्मातमापतन्तं महासुरम् ।
दृष्ट्वा सा चण्डिका कोपं तद्वधाय तदाकरोत् ।। २८।।

सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम् ।
तत्याज माहिषं रूपं सोऽपि बद्धो महामृधे ।। २९।।

ततः सिंहोऽभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिरः ।
छिनत्ति तावत् पुरुषः खड्गपाणिरदृश्यत ।। ३०।।

तत एवाशु पुरुषं देवी चिच्छेद सायकैः ।
तं खड्गचर्मणा सार्धं ततः सोऽभून्महागजः ।। ३१।।

करेण च महासिंहं तं चकर्ष जगर्ज च ।
कर्षतस्तु करं देवी खड्गेन निरकृन्तत ।। ३२।।

ततो महासुरो भूयो माहिषं वपुरास्थितः ।
तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम् ।। ३३।।

ततः क्रुद्धा जगन्माता चण्डिका पानमुत्तमम् ।
पपौ पुनः पुनश्चैव जहासारुणलोचना ।। ३४।।

ननर्द चासुरः सोऽपि बलवीर्यमदोद्धतः ।
विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान् ।। ३५।।

सा च तान्प्रहितांस्तेन चूर्णयन्ती शरोत्करैः ।
उवाच तं मदोद्धूतमुखरागाकुलाक्षरम् ।। ३६।।

देव्युवाच ।। ३७।।

गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम् ।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः ।। ३८।।

ऋषिरुवाच ।। ३९।।

एवमुक्त्वा समुत्पत्य सारूढा तं महासुरम् ।
पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत् ।। ४०।।

ततः सोऽपि पदाऽऽक्रान्तस्तया निजमुखात्ततः ।
अर्धनिष्क्रान्त एवासीद्देव्या वीर्येण संवृतः ।। ४१।।

अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः ।
तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः ।। ४२।।

ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाश तत् ।
प्रहर्षं च परं जग्मुः सकला देवतागणाः ।। ४३।।

तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सहदिव्यैर्महर्षिभिः ।
जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।। ४४।।

।। इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरवधो नाम तृतीयोऽध्यायः ।।

।। अथ चतुर्थोऽध्यायः ।।
ध्यानम्
ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां
शंखं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरुढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः।।

‘ॐ’ ऋषिरुवाच ।। १।।

शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये
तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या ।
तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा
वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः ।। २।।

देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निःशेषदेवगणशक्त्तिसमूहमूर्त्या ।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः ।। ३।।

यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो
ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च ।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ।। ४।।

या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः ।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ।। ५।।

किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत्
किञ्चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि ।
किं चाहवेषु चरितानि तवाद्भुतानि
सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु ।। ६।।

हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषैर्न
ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा ।
सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत-
मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या ।। ७।।

यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेन
तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि ।
स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु-
रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च ।। ८।।

या मुक्त्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्वं
अभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः ।
मोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै-
र्विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि ।। ९।।

शब्दात्मिका सुविमलग्यर्जुषां निधान-
मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम् ।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय
वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री ।। १०।।

मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा
दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा ।
श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासा
गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा ।। ११।।

ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र-
बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम् ।
अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि
वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण ।। १२।।

दृष्ट्वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकराल-
मुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः ।
प्राणान्मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं
कैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन ।। १३।।

देवि प्रसीद परमा भवती भवाय
सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि ।
विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत-
न्नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य ।। १४।।

ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां
तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः ।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा
येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना ।। १५।।

धम्यार्णि देवि सकलानि सदैव कर्मा-
ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति ।
स्वर्गं प्रयाति च ततो भवती प्रसादा-
ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन ।। १६।।

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ।। १७।।

एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते
कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम् ।
संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु
मत्वेति नूनमहितान्विनिहंसि देवि ।। १८।।

दृष्ट्वैव किं न भवती प्रकरोति भस्म
सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम् ।
लोकान्प्रयान्तु रिपवोऽपि हि शस्त्रपूता
इत्थं मतिर्भवति तेष्वपि तेऽतिसाध्वी ।। १९।।

खड्गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैः
शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम् ।
यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड-
योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत् ।। २०।।

दुर्वृत्तवृत्तशमनं तव देवि शीलं
रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः ।
वीर्यं च हन्तृ हृतदेवपराक्रमाणां
वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम् ।। २१।।

केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्य
रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र ।
चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा
त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि ।। २२।।

त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन
त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा ।
नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्तम्
मस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते ।। २३।।

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके ।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च ।। २४।।

प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे ।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि ।। २५।।

सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते ।
यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम् ।। २६।।

खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्रानि तेऽम्बिके ।
करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः ।। २७।।

ऋषिरुवाच ।। २८।।

एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः ।
अर्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः ।। २९।।

भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैर्धूपैस्तु धूपिता ।
प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान् ।। ३०।।

देव्युवाच ।। ३१।।

व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाञ्छितम् ।। ३२।।
ददाम्यहमतिप्रीत्या स्तवैरेभिः सुपूजिता ।

देवा उचुः ।। ३३।।

भगवत्या कृतं सर्वं न किञ्चिदवशिष्यते ।
यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः ।। ३४।।

यदि चापि वरो देयस्त्वयाऽस्माकं महेश्वरि ।
संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः ।। ३५।।

यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने ।
तस्य वित्तद्धिर्विभवैर्धनदारादिसम्पदाम् ।। ३६।।

वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके ।। ३७।।

ऋषिरुवाच ।। ३८।।

इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथाऽऽत्मनः ।
तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप ।। ३९।।

इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा ।
देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी ।। ४०।।

पुनश्च गौरीदेहा सा समुद्भूता यथाभवत् ।
वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः ।। ४१।।

रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी ।
तच्छृणुष्व मयाऽऽख्यातं यथावत्कथयामि ते ।।ह्रीं ॐ।। ४२।।

।। इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शक्रादिस्तुतिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः ।।

।। अथ उत्तमचरितम्।।
।। अथ पञ्चमोऽध्यायः ।।

अथ ध्यानम्

घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम् ।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्रसरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम् ।।

जो अपने करकमलों में घण्टा, शूल, हल, शङ्ख, मुसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, शरद् ऋतु के शोभासम्पन्न चन्द्रमा के समान जिनकी मनोहर कान्ति है, जो तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करनेवाली हैं तथा गौरी के शरीर से जिनका प्राकट्य हुआ है, उन महासरस्वती देवी का मैं निरन्तर भजन करता हूँ।

‘ॐ क्लीं’ ऋषिरुवाच ।। १।।

पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपतेः ।
त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्च हृता मदबलाश्रयात् ।। २।।

तावेव सूर्यतां तद्वदधिकारं तथैन्दवम् ।
कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च ।। ३।।

तावेव पवनर्द्धिं च चक्रतुर्वह्निकर्म च ।
ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः ।। ४।।

हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः ।
महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम् ।। ५।।

तयास्माकं वरो दत्तो यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः ।
भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः ।। ६।।

इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तं नगेश्वरम् ।
जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः ।। ७।।

देवा ऊचुः ।। ८।।

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ।। ९।।

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः ।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः ।। १०।।

कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः ।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ।। ११।।

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै ।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ।। १२।।

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः ।
नमो जगत्प्रतिष्टायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ।। १३।।

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || १४-१६||

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || १७-१९||

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || २०-२२||

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || २३-२५||

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || २६-२८||

या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || २९-३१||

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ३२-३४||

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ३५-३७||

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ३८-४०||

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ४१-४३||

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ४४-४६||

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ४७-४९||

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ५०-५२||

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ५३-५५||

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ५६-५८||

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ५९-६१||

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ६२-६४||

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ६५-६७||

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ६८-७०||

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ७१-७३||

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ७४-७६||

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या |
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः || ७७||

चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद्व्याप्य स्थिता जगत् |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः || ७८-८०||

स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रया-
त्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता ।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी
शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ।। ८१।।

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितै-
रस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते ।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः
सर्वापदो भक्त्तिविनम्रमूर्तिभिः ।। ८२।।

ऋषिरुवाच ।। ८३।।

एवं स्तवादियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती ।
स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन ।। ८४।।

साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्भिः स्तूयतेऽत्र का ।
शरीरकोशतश्चास्याः समुद्भूताऽब्रवीच्छिवा ।। ८५।।

स्तोत्रं ममैतत्क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः ।
देवैः समेतैः समरे निशुम्भेन पराजितैः ।। ८६।।

शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका ।
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते ।। ८७।।

तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती ।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया ।। ८८।।

ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम् ।
ददर्श चण्डो मुण्डश्व भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः ।। ८९।।

ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता अतीव सुमनोहरा ।
काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम् ।। ९०।।

नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम् ।
ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्वर ।। ९१।।

स्त्रीरत्नमतिचार्वङ्गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा
सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति ।। ९२।।

यानि रत्नानि मणयो गजाश्वादीनि वै प्रभो ।
त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे ।। ९३।।

ऐरावतः समानीतो गजरत्नं पुरन्दरात् ।
पारिजाततरुश्चायं तथैवोच्चैःश्रवा हयः ।। ९४।।

विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्गणे ।
रत्नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम् ।। ९५।।

निधिरेष महापद्मः समानीतो धनेश्वरात् ।
किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्कजाम् ।। ९६।।

छत्रं ते वारूणं गेहे काञ्चनस्त्रावि तिष्ठति ।
तथाऽयं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः ।। ९७।।

मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता ।
पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे ।। ९८।।

निशुम्भस्याब्धिजाताश्च समस्ता रत्नजातयः ।
वह्निरपि ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी ।। ९९।।

एवं दैत्येन्द्र रत्नानि समस्तान्याहृतानि ते ।
स्त्रीरत्नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते ।। १००।।

ऋषिरुवाच ।। १०१।।

निशम्येति वचः शुम्भः स तदा चण्डमुण्डयोः ।
प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम् ।। १०२।।

इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम ।
यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु ।। १०३।।

स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशोऽतिशोभने ।
सा देवी तां ततः प्राह श्लक्ष्णं मधुरया गिरा ।। १०४।।

दूत उवाच ।। १०५।।

देवि दैत्येश्वरः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्वरः ।
दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः ।। १०६।।

अव्याहताज्ञः सर्वासु यः सदा देवयोनिषु ।
निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह शृणुष्व तत् ।। १०७

मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवा वशानुगाः ।
यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्नामि पृथक् पृथक् ।। १०८।।

त्रैलोक्ये वररत्नानि मम वश्यान्यशेषतः ।
तथैव गजरत्नं च हृत्वा देवेन्द्रवाहनम् ।। १०९।।

क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्नं ममामरैः ।
उच्चैःश्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम् ।। ११०।।

यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च ।
रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने ।। १११।।

स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम् ।
सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम् ।। ११२।।

मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम् ।
भज त्वं चञ्चलापाङ्गि रत्नभूतासि वै यतः ।। ११३।।

परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात् ।
एतद् बुद्धया समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज ।। ११४।।

ऋषिरुवाच ।। ११५।।

इत्युक्त्ता सा तदा देवी गम्भीरान्तःस्मिता जगौ ।
दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत् ।। ११६।।

देव्युवाच ।। ११७।।

सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम्
त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः ।। ११८।।

किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम् ।
श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा ।। ११९।।

यो मां जयति सङ्ग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति ।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति ।। १२०।।

तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महासुरः ।
मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु ।। १२१।।

दूत उवाच ।। १२२।।

अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः ।
त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः ।। १२३।।

अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि ।
तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका ।। १२४।।

इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे ।
शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम् ।। १२५।।

सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः ।
केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि ।। १२६।।

देव्युवाच ।। १२७।।

एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्चातिर्वीर्यवान् ।
किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा ।। १२८।।

स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः ।
तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु तत् ।।ॐ।। १२९।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्या दूतसंवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ।।

।। अथ षष्ठोऽध्यायः ।।

ध्यानम्
ॐ नागाधीश्वरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरुरत्नावली-
भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्भासिताम्।
मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां
सर्वज्ञेश्वरभैरवाङ्कनिलयां पद्मावतीं चिन्तये।।

‘ॐ’ ऋषिरुवाच ।। १।।

इत्याकर्ण्य वचो देव्याः स दूतोऽमर्षपूरितः ।
समाचष्ट समागम्य दैत्यराजाय विस्तरात् ।। २।।

तस्य दूतस्य तद्वाक्यमाकर्ण्यासुरराट् ततः ।
सक्रोधः प्राह दैत्यानामधिपं धूम्रलोचनम् ।। ३।।

हे धूम्रलोचनाशु त्वं स्वसैन्यपरिवारतिः ।
तामानय बलाद्दुष्टां केशाकर्षणविह्वलाम् ।। ४।।

तत्परित्राणदः कश्चिद्यदि वोत्तिष्ठतेऽपरः ।
स हन्तव्योऽमरो वापि यक्षो गन्धर्व एव वा ।। ५।।

ऋषिरुवाच ।। ६।।

तेनाज्ञप्तस्ततः शीघ्रं स दैत्यो धूम्रलोचनः ।
वृतः षष्टया सहस्राणामसुराणां दृतं ययौ ।। ७।।

स दृष्ट्वा तां ततो देवीं तुहिनाचलसंस्थिताम् ।
जगादोच्चैः प्रयाहीति मूलं शुम्भनिशुम्भयोः ।। ८।।

न चेत्प्रीत्याद्य भवती मद्भर्तारमुपैष्यति ।
ततो बलान्नयाम्येष केशाकर्षणविह्वलाम् ।। ९।।

देव्युवाच ।। १०।।

दैत्येश्वरेण प्रहितो बलवान्बलसंवृतः ।
बलान्नयसि मामेवं ततः किं ते करोम्यहम् ।। ११।।

ऋषिरुवाच ।। १२।।

इत्युक्तः सोऽभ्यधावत्तामसुरो धूम्रलोचनः ।
हुङ्कारेणैव तं भस्म सा चकाराम्बिका ततः ।। १३।।

अथ क्रुद्धं महासैन्यमसुराणां तथाम्बिकाम् ।
ववर्ष सायकैस्तीक्ष्णैस्तथा शक्त्तिपरश्वधैः ।। १४।।

ततो धुतसटः कोपात्कृत्वा नादं सुभैरवम् ।
पपातासुरसेनायां सिंहो देव्याः स्ववाहनः ।। १५।।

कांश्चित्करप्रहारेण दैत्यानास्येन चापरान् ।
आक्रान्त्या चाधरेणान्यान् स जघान महासुरान् ।। १६।।

केषाञ्चित्पाटयामास नखैः कोष्ठानि केसरी ।
तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान्पृथक् ।। १७।।

विच्छिन्नबाहुशिरसः कृतास्तेन तथापरे ।
पापौ च रुधिरं कोष्ठादन्येषां धुतकेसरः ।। १८।।

क्षणेन तद्बलं सर्वं क्षयं नीतं महात्मना ।
तेन केसरिणा देव्या वाहनेनातिकोपिना ।। १९।।

श्रुत्वा तमसुरं देव्या निहतं धूम्रलोचनम् ।
बलं च क्षयितं कृत्स्नं देवीकेसरिणा ततः ।। २०।।

चुकोप दैत्याधिपतिः शुम्भः प्रस्फुरिताधरः ।
आज्ञापयामास च तौ चण्डमुण्डौ महासुरौ ।। २१।।

हे चण्ड हे मुण्ड बलैर्बहुभिः परिवारितौ ।
तत्र गच्छत गत्वा च सा समानीयतां लघु ।। २२।।

केशेष्वाकृष्य बद्ध्वा वा यदि वः संशयो युधि ।
तदाशेषायुधैः सर्वैरसुरैर्विनिहन्यताम् ।। २३।।

तस्यां हतायां दुष्टायां सिंहे च विनिपातिते ।
शीघ्रमागम्यतां बद्ध्वा गृहीत्वा तामथाम्बिकाम् ।। २४।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये धूम्रलोचनवधो नाम षष्ठोऽध्यायः ।।

।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।।

ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्गीं
न्यस्तैकाङि्घ्रं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां
मातङ्गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्।।

‘ॐ’ ऋषिरुवाच ।। १।।

आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः ।
चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः ।। २।।

ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम् ।
सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने ।। ३।।

ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः ।
आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः ।। ४।।

ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन्प्रति ।
कोपेन चास्या वदनं मषीवर्णमभूत्तदा ।। ५।।

भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्दृतम् ।
काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी ।। ६।।

विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा ।
द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा ।। ७।।

अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा ।
निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा ।। ८।।

सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान् ।
सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम् ।। ९।।

पार्ष्णिग्राहाङ्कुशग्राहियोधघण्टासमन्वितान् ।
समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान् ।। १०।।

तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह ।
निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्यतिभैरवम् ।। ११।।

एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम् ।
पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत् ।। १२।।

तैर्मुक्त्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः ।
मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि ।। १३।।

बलिनां तद्बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम् ।
ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा ।। १४।।

असिना निहताः केचित्केचित्खट्वाङ्गताडिताः ।
जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा ।। १५।।

क्षणेन तद्बलं सर्वमसुराणां निपातितम् ।
दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम् ।। १६।।

शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः ।
छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहस्रशः ।। १७।।

तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम् ।
बभुर्यथाऽर्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम् ।। १८।।

ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी ।
काली करालवक्त्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला ।। १९।।

उत्थाय च महासिं हं देवी चण्डमधावत ।
गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत् ।। २०।।

अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् ।
तमप्यपातयद्भूमौ सा खड्गाभिहतं रुषा ।। २१।।

हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् ।
मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम् ।। २२ ।।

शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च ।
प्राह प्रचण्डाट्टहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम् ।। २३।।

मया तवात्रोपहृतौ चण्डमुण्डौ महापशू ।
युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि ।। २४।।

ऋषिरुवाच ।। २५।।

तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ ।
उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः ।। २६।।

यस्माच्चण्डम् च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता ।
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवी भविष्यसि ।।ॐ।। २७।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः ।।

।। अष्टमोऽध्यायः ।।

ॐ अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं धृतपाशाङ्कुशबाणचापहस्ताम्।
अणिमादिभिरावृतां मयूखैरहमित्येव विभावये भवानीम्।।

‘ॐ’ ऋषिरुवाच ।। १।।

चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते ।
बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः ।। २।।

ततः कोपपराधीनचेताः शुम्भः प्रतापवान् ।
उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह ।। ३।।

अद्य सर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः ।
कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्यान्तु स्वबलैर्वृताः ।। ४।।

कोटिवीर्याणि पञ्चाशदसुराणां कुलानि वै ।
शतं कुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया ।। ५।।

कालका दौर्हृदा मौर्याः कालिकेयास्तथासुराः ।
युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम ।। ६।।

इत्याज्ञाप्यासुरपतिः शुम्भो भैरवशासनः ।
निर्जगाम महासैन्यसहस्रैर्बहुभिर्वृतः ।। ७।।

आयान्तं चण्डिका दृष्ट्वा तत्सैन्यमतिभीषणम् ।
ज्यास्वनैः पूरयामास धरणीगगनान्तरम् ।। ८।।

ततः सिंहो महानादमतीव कृतवान्नृप ।
घण्टास्वनेन तान्नादानम्बिका चोपबृंहयत् ।। ९।।

धनुर्ज्यासिंहघण्टानां नादापूरितदिङ्मुखा ।
निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये विस्तारितानना ।। १०।।

तं निनादमुपश्रुत्य दैत्यसैन्यैश्चतुर्दिशम् ।
देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः परिवारिताः ।। ११।।

एतस्मिन्नन्तरे भूप विनाशाय सुरद्विषाम् ।
भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः ।। १२।।

ब्रह्मेशगुहविष्णूनां तथेन्द्रस्य च शक्तयः ।
शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य तद्रूपैश्चण्डिकां ययुः ।। १३।।

यस्य देवस्य तद्रूपं यथा भूषणवाहनम् ।
तद्वदेव हि तच्छक्तरसुरान्योद्धुमाययौ ।। १४।।

हंसयुक्तविमानाग्रे साक्षसूत्रकमण्डलुः ।
आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणी साभिधीयते ।। १५।।

माहेश्वरी वृषारूढा त्रिशूलवरधारिणी ।
महाहिवलया प्राप्ता चन्द्ररेखाविभूषणा ।। १६।।

कौमारी शक्तिहस्ता च मयूरवरवाहना ।
योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका गुहरूपिणी ।। १७।।

तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि संस्थिता ।
शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गखड्गहस्ताऽभ्युपाययौ ।। १८।।

यज्ञवाराहमतुलं रूपं या बिभ्रतो हरेः ।
शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीं बिभ्रती तनुम् ।। १९।।

नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः ।
प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः ।। २०।।

वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता ।
प्राप्ता सहस्रनयना यथा शक्रस्तथैव सा ।। २१।।

ततः परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभिः ।
हन्यन्तामसुराः शीघ्रं मम प्रीत्याऽऽह चण्डिकाम् ।। २२।।

ततो देवीशरीरात्तु विनिष्क्रान्तातिभीषणा ।
चण्डिका शक्तिरत्युग्रा शिवाशतनिनादिनी ।। २३।।

सा चाह धूम्रजटिलमीशानमपराजिता ।
दूत त्वं गच्छ भगवन्पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः ।। २४।।

ब्रूहि शुम्भं निशुम्भं च दानवावतिगर्वितौ ।
ये चान्ये दानवास्तत्र युद्धाय समुपस्थिताः ।। २५।।

त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः ।
यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ ।। २६।।

बलावलेपादथ चेद्भवन्तो युद्धकाङ्क्षिणः ।
तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः ।। २७।।

यतो नियुक्तो दौत्येन तया देव्या शिवः स्वयम् ।
शिवदूतीति लोकेऽस्मिंस्ततः सा ख्यातिमागता ।। २८।।

तेऽपि श्रुत्वा वचो देव्याः शर्वाख्यातं महासुराः ।
अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्र कात्यायनी स्थिता ।। २९।।

ततः प्रथममेवाग्रे शरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः ।
ववर्षुरुद्धतामर्षास्तां देवीममरारयः ।। ३०।।

सा च तान् प्रहितान् बाणाञ्छूलशक्तिपरश्वधान् ।
चिच्छेद लीलयाऽऽध्मातधनुर्मुक्त्तैर्महेषुभिः ।। ३१।।

तस्याग्रतस्तथा काली शूलपातविदारितान् ।
खट्वाङ्गपोथितांश्चारीन्कुर्वती व्यचरत्तदा ।। ३२।।

कमण्डलुजलाक्षेपहतवीर्यान् हतौजसः ।
ब्रह्माणी चाकरोच्छत्रून्येन येन स्म धावति ।। ३३।।

माहेश्वरी त्रिशूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी ।
दैत्याञ्जघान कौमारी तथा शक्त्याऽतिकोपना ।। ३४।।

ऐन्द्री कुलिशपातेन शतशो दैत्यदानवाः ।
पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां रुधिरौघप्रवर्षिणः ।। ३५।।

तुण्डप्रहारविध्वस्ता दंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः ।
वाराहमूर्त्या न्यपतंश्चक्रेण च विदारिताः ।। ३६।।

नखैर्विदारितांश्चान्यान् भक्षयन्ती महासुरान् ।
नारसिंही चचाराजौ नादापूर्णदिगम्बरा ।। ३७।।

चण्डाट्टहासैरसुराः शिवदूत्यभिदूषिताः ।
पेतुः पृथिव्यां पतितांस्तांश्चखादाथ सा तदा ।। ३८।।

इति मात्रुगणं क्रुद्धं मर्दयन्तं महासुरान् ।
दृष्ट्वाऽभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः ।। ३९।।

पलायनपरान्दृष्ट्वा दैत्यान्मातृगणार्दितान् ।
योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः ।। ४०।।

रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य शरीरतः ।
समुत्पतति मेदिन्यां तत्प्रमाणस्तदासुरः ।। ४१।।

युयुधे स गदापाणिरिन्द्रशक्त्या महासुरः ।
ततश्चन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताडयत् ।। ४२।।

कुलिशेनाहतस्याशु बहु सुस्राव शोणितम् ।
समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः ।। ४३।।

यावन्तः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिन्दवः ।
तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः ।। ४४।।

ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा रक्तसम्भवाः ।
समं मात्रुभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम् ।। ४५।।

पुनश्च वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो यदा ।
ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः सहस्रशः ।। ४६।।

वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघान ह ।
गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्वरम् ।। ४७।।

वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्रावसम्भवैः ।
सहस्रशो जगद्व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः ।। ४८।।

शक्त्या जघान कौमारी वाराही च तथाऽसिना ।
माहेश्वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं महासुरम् ।। ४९।।

स चापि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत् पृथक् ।
मातॄः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः ।। ५०।।

तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि ।
पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः ।। ५१।।

तैश्चासुरास्रुक्सम्भूतैरसुरैः सकलं जगत् ।
व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम् ।। ५२।।

तान् विषण्णान् सुरान् दृष्ट्वा चण्डिका प्राह सत्वरा ।
उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्णं वदनं कुरु ।। ५३।।

मच्छस्त्रपातसम्भूतान् रक्तबिन्दून् महासुरान् ।
रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिता ।। ५४।।

भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान् ।
एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति ।। ५५।।

भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे ।
इत्युक्त्वा तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम् ।। ५६।।

मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य शोणितम् ।
ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम् ।। ५७।।

न चास्या वेदनां चक्रे गदापातोऽल्पिकामपि ।
तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्राव शोणितम् ।। ५८।।

यतस्ततस्तद्वक्त्रेण चामुण्डा सम्प्रतीच्छति ।
मुखे समुद्गता येऽस्या रक्तपातान्महासुराः ।। ५९।।

तांश्चखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम् ।। ६०।।

देवी शूलेन वज्रेण बाणैरसिभिरृष्टिभिः ।
जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम् ।। ६१।।

स पपात महीप्रिष्ठे शस्त्रसङ्घसमाहतः ।
नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः ।। ६२।।

ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप ।
तेषां मात्रुगणो जातो ननर्तासृङ्मदोद्धतः ।।ॐ।। ६३।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये रक्तबीजवधो नाम अष्टमोऽध्यायः ।।

।। अथ नवमोऽध्यायः ।।

ध्यानम्
ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां
पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्दैः।
बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र-
मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि।।

‘ॐ’ राजोवाच ।। १।।

विचित्रमिदमारख्यातं भगवन् भवता मम ।
देव्याश्चरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम् ।। २।।

भूयश्चेच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते ।
चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्चातिकोपनः ।। ३।।

ऋषिरुवाच ।। ४।।
चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते ।
शुम्भासुरो निशुम्भश्च हतेष्वन्येषु चाहवे ।। ५।।

हन्यमानं महासैन्यं विलोक्यामर्षमुद्वहन् ।
अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ मुरव्ययासुरसेनया ।। ६।।

तस्याग्रतस्तथा पृष्ठे पार्श्वयोश्च महासुराः ।
सन्दष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुं देवीमुपाययुः ।। ७।।

आजगाम महावीर्यः शुम्भोऽपि स्वबलैर्वृतः ।
निहन्तुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धं तु मातृभिः ।। ८।।

ततो युद्धमतीवासीद्देव्या शुम्भनिशुम्भयोः ।
शरवर्षमतीवोग्रं मेघयोरिव वर्षतोः ।। ९।।

चिच्छेदास्ताञ्छरांस्ताभ्यां चण्डिका स्वशरोत्करैः ।
ताडयामास चाङ्गेषु शस्त्रौघैरसुरेश्वरौ ।। १०।।

निशुम्भो निशितं खड्गं चर्म चादाय सुप्रभम् ।
अताडयन्मूर्घ्नि सिंहं देव्या वाहनमुत्तमम् ।। ११।।

ताडिते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुत्तमम् ।
निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम् ।। १२।।

छिन्ने चर्मणि खड्गे च शक्त्तिं चिक्षेप सोऽसुरः ।
तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रेणाभिमुखागताम् ।। १३।।

कोपाध्मातो निशुम्भोऽथ शूलं जग्राह दानवः ।
आयातं मुष्टिपातेन देवी तच्चाप्यचूर्णयत् ।। १४।।

आविध्याथ गदां सोऽपि चिक्षेप चण्डिकां प्रति ।
सापि देव्या त्रिशूलेन भिन्ना भस्मत्वमागता ।। १५।।

ततः परशुहस्तं तमायान्तं दैत्यपुङ्गवम् ।
आहत्य देवी बाणौघैरपातयत भूतले ।। १६।।

तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुम्भे भीमविक्रमे ।
भ्रातर्यतीव संक्रुद्धः प्रययौ हन्तुमम्बिकाम् ।। १७।।

स रथस्थस्तथात्युच्चैर्गृहीतपरमायुधैः ।
भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं वभौ नभः ।। १८।।

तमायान्तं समालोक्य देवी शङ्खमवादयत् ।
ज्याशब्दं चापि धनुषश्चकारातीव दुःसहम् ।। १९।।

पूरयामास ककुभो निजघण्टास्वनेन च ।
समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिना ।। २०।।

ततः सिंहो महानादैस्त्याजितेभमहामदैः ।
पूरयामास गगनं गां तथैव दिशो दश ।। २१।।

ततः काली समुत्पत्य गगनं क्षमामताडयत् ।
कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्ते तिरोहिताः ।। २२।।

अट्टाट्टहासमशिवं शिवदूती चकार ह ।
तैः शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ ।। २३।।

दुरात्मंस्तिष्ठ तिष्ठेति व्याजहाराम्बिका यदा ।
तदा जयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितैः ।। २४।।

शुम्भेनागत्य या शक्तिर्मुक्ता ज्वालातिभीषणा ।
आयान्ती वह्निकूटाभा सा निरस्ता महोल्कया ।। २५।।

सिंहनादेन शुम्भस्य व्याप्तं लोकत्रयान्तरम् ।
निर्घातनिःस्वनो घोरो जितवानवनीपते ।। २६।।

शुम्भमुक्ताञ्छरान्देवी शुम्भस्तत्प्रहिताञ्छरान् ।
चिच्छेद स्वशरैरुग्रैः शतशोऽथ सहस्रशः ।। २७।।

ततः सा चण्डिका क्रुद्धा शूलेनाभिजघान तम् ।
स तदाभिहतो भूमौ मूर्च्छितो निपपात ह ।। २८।।

ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः ।
आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा ।। २९।।

पुनश्च कृत्वा बाहूनामयुतं दनुजेश्चरः ।
चक्रायुधेन दितिजश्छादयामास चण्डिकाम् ।। ३०।।

ततो भगवती क्रुद्धा दुर्गा दुर्गातिर्नाशिनी ।
चिच्छेद तानि चक्राणि स्वशरैः सायकांश्च तान् ।। ३१।।

ततो निशुम्भो वेगेन गदामादाय चण्डिकाम् ।
अभ्यधावत वै हन्तुं दैत्यसेनासमावृतः ।। ३२।।

तस्यापतत एवाशु गदां चिच्छेद चण्डिका ।
खड्गेन शितधारेण स च शूलं समाददे ।। ३३।।

शूलहस्तं समायान्तं निशुम्भममरार्दनम् ।
हृदि विव्याध शूलेन वेगाविद्धेन चण्डिका ।। ३४।।

भिन्नस्य तस्य शूलेन हृदयान्निःसृतोऽपरः ।
महाबलो महावीर्यस्तिष्ठेति पुरुषो वदन् ।। ३५।।

तस्य निष्क्रामतो देवी प्रहस्य स्वनवत्ततः ।
शिरश्चिच्छेद खड्गेन ततोऽसावपतद्भुवि ।। ३६।।

ततः सिंहश्चखादोग्रं दंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान् ।
असुरांस्तांस्तथा काली शिवदूती तथापरान् ।। ३७।।

कौमारीशक्तिनिर्भिन्नाः केचिन्नेशुर्महासुराः ।
ब्रह्माणीमन्त्रपूतेन तोयेनान्ये निराकृताः ।। ३८।।

माहेश्वरीत्रिशूलेन भिन्नाः पेतुस्तथापरे ।
वाराहीतुण्डघातेन केचिच्चूर्णाकृता भुवि ।। ३९।।

खण्डं खण्डं च चक्रेण वैष्णव्या दानवाः कृताः ।
वज्रेण चैन्द्रीहस्ताग्रविमुक्तेन तथापरे ।। ४०।।

केचिद्विनेशुरसुराः केचिन्नष्टा महाहवात् ।
भक्षिताश्चापरे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः ।।ॐ।। ४१।।

इति श्री मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये निशुम्भवधो नाम नवमोऽध्यायः ।।

।। अथ दशमोऽध्यायः ।।

ध्यानम्
ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्निनेत्रां धनुश्शरयुताङ्कुशपाशशूलम्।
रम्यैर्भुजैश्च दधतीं शिवशक्तिरुपां कामेश्वरीं ह्रदि भजामि धृतेन्दुलेखाम्।।

‘ॐ’ ऋषिरुवाच ।। १।।

निशुम्भं निहतं दृष्ट्वा भ्रातरं प्राणसम्मितम् ।
हन्यमानं बलं चैव शुम्भः क्रुद्धोऽब्रवीद्वचः ।। २।।

बलावलेपद्दुष्टे त्वं मा दुर्गे गर्वमावह ।
अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे यातिमानिनी ।। ३।।

देव्युवाच ।। ४।।

एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा ।
पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः ।। ५।।

ततः समस्तास्ता देव्यो ब्रह्माणीप्रमुखा लयम् ।
तस्या देव्यास्तनौ जग्मुरेकैवासीत्तदाम्बिका ।। ६।।

देव्युवाच ।। ७।।

अहं विभूत्या बहुभिरिह रूपैर्यदास्थिता ।
तत्संहृतं मयैकैव तिष्ठाम्याजौ स्थिरो भव ।। ८।।

ऋषिरुवाच ।। ९।।

ततः प्रववृते युद्धं देव्याः शुम्भस्य चोभयोः ।
पश्यतां सर्वदेवानामसुराणां च दारुणाम् ।। १०।।

शरवर्षैः शितैः शस्त्रैस्तथास्त्रैश्चैव दारुणैः ।
तयोर्युद्धमभूद्भूयः सर्वलोकभयङ्करम् ।। ११।।

दिव्यान्यस्त्राणि शतशो मुमुचे यान्यथाम्बिका ।
बभञ्च तानि दैत्येन्द्रस्तत्प्रतीघातकर्तृभिः ।। १२।।

मुक्तानि तेन चास्त्राणि दिव्यानि परमेश्वरी ।
बभञ्च लीलयैवोग्रहुङ्कारोच्चारणादिभिः ।। १३।।

ततः शरशतैर्देवीमाच्छादयत सोऽसुरः ।
सापि तत्कुपिता देवी धनुश्चिच्छेद चेषुभिः ।। १४।।

छिन्ने धनुषि दैत्येन्द्रस्तथा शक्तिमथाददे ।
चिच्छेद देवी चक्रेण तामप्यस्य करे स्थिताम् ।। १५।।

ततः खड्गमुपादाय शतचन्द्रं च भानुमत् ।
अभ्यदावत्तदा देवीं दैत्यनामधिपेश्वरः ।। १६।।

तस्यापतत एवाशु खड्गं चिच्छेद चण्डिका ।
धनुर्मुक्तैः शितैर्बाणैश्चर्म चार्ककरामलम् ।। १७।।

हताश्वः स तदा दैत्यश्छिन्नधन्वा विसारथिः ।
जग्राह मुद्गरं घोरमम्बिकानिधनोद्यतः ।। १८।।

चिच्छेदापततस्तस्य मुद्गरं निशितैः शरैः ।
तथापि सोऽभ्यधावत्तां मुष्टिमुद्यम्य वेगवान् ।। १९।।

स मुष्टिं पातयामास हृदये दैत्यपुङ्गवः ।
देव्यास्तं चापि सा देवी तलेनोरस्यताडयत् ।। २०।।

तलप्रहाराभिहतो निपपात महीतले ।
स दैत्यराजः सहसा पुनरेव तथोत्थितः ।। २१।।

उत्पत्य च प्रगृह्योच्चैर्देवीं गगनमास्थितः ।
तत्रापि सा निराधारा युयुधे तेन चण्डिका ।। २२।।

नियुद्धं खे तदा दैत्यश्चण्डिका च परस्परम् ।
चक्रतुः प्रथमं सिद्धमुनिविस्मयकारकम् ।। २३।।

ततो नियुद्धं सुचिरं कृत्वा तेनाम्बिका सह ।
उत्पात्य भ्रामयामास चिक्षेप धरणीतले ।। २४।।

स क्षिप्तो धरणीं प्राप्य मुष्टिमुद्यम्य वेगितः ।
अभ्यधावत दुष्टात्मा चण्डिकानिधनेच्छया ।। २५।।

तमायान्तं ततो देवी सर्वदैत्यजनेश्वरम् ।
जगत्यां पातयामास भित्त्वा शूलेन वक्षसि ।। २६।।

स गतासुः पपातोर्व्यां देवी शूलाग्रविक्षतः ।
चालयन् सकलां पृथ्वीं साब्धिद्वीपां सपर्वताम् ।। २७।।

ततः प्रसन्नमखिलं हते तस्मिन् दुरात्मनि ।
जगत्स्वास्थ्यमतीवाप निर्मलं चाभवन्नभः ।। २८।।

उत्पातमेघाः सोल्का ये प्रागासंस्ते शमं ययुः ।
सरितो मार्गवाहिन्यस्तथासंस्तत्र पातिते ।। २९।।

ततो देवगणाः सर्वे हर्षनिर्भरमानसाः ।
बभूवुर्निहते तस्मिन् गन्धर्वा ललितं जगुः ।। ३०।।

अवादयंस्तथैवान्ये ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।
ववुः पुण्यास्तथा वाताः सुप्रभोऽभूद्दिवाकरः ।। ३१।।

जज्वलुश्चाग्नयः शान्ताः शान्ता दिग्जनितस्वनाः ।। ३२।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शुम्भवधो नाम दशमोऽध्यायः ।।

।। अथ एकादशोऽध्यायः ।।

धऽयानम्
ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरिटां तुङ्गकुचा नयनत्रययुक्ताम्।
स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्।।

‘ॐ’ ऋषिरुवाच ।। १।।

देव्या हते तत्र महासुरेन्द्रे
सेन्द्राः सुरा वह्निपुरोगमास्ताम् ।
कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभा-
द्विकासिवक्त्राब्जविकाशिताशाः ।। २।।

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य ।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ।। ३।।

आधारभूता जगतस्त्वमेका
महीस्वरूपेण यतः स्थितासि ।
अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत-
दाप्यायते कुत्स्नमलङ्घयवीर्ये ।। ४।।

त्वं वैष्णवीशक्तिरनन्तवीर्या
विश्वस्य बीजं परमासि माया ।
सम्मोहितं देवि समस्तमेत-
त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः ।। ५।।

विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु ।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्
का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः ।। ६।।

सर्वभूता यदा देवी भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी ।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः ।। ७।।

सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते ।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। ८।।

कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि ।
विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते ।। ९।।

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वाथर्साधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १०।।

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि ।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ।। ११।।

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १२।।

हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि ।
कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १३।।

त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि ।
माहेश्वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तुते ।। १४।।

मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनघे ।
कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १५।।

शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गगृहीतपरमायुधे ।
प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १६।।

गृहीतोग्रमहाचक्रे दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे ।
वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १७।।

नृसिंहरूपेणोग्रेण हन्तुं दैत्यान् कृतोद्यमे ।
त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १८।।

किरीटिनि महावज्र सहस्रनयनोज्ज्वले ।
वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। १९।।

शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले ।
घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते ।। २०।।

दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे ।
चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते ।। २१।।

लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टि स्वधे ध्रुवे ।
महारात्रि महाऽविद्ये नारायणि नमोऽस्तु ते ।। २२।।

मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि ।
नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तुते ।। २३।।

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वेशक्तिसमन्विते ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ।। २४।।

एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम् ।
पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते ।। २५।।

ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम् ।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते ।। २६।।

हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत् ।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्यो नः सुतानिव ।। २७।।

असुरामृग्वसापङ्कचर्चिंतस्ते करोज्ज्वलः ।
शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम् ।। २८।।

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ।। २९।।

एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्य
धर्मद्विषां देवि महासुराणाम् ।
रूपैरनेकैर्बहुधात्ममूर्तिम्
कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या ।। ३०।।

विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे-
ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या ।
ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे
विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम् ।। ३१।।

रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा
यत्रारयो दस्युबलानि यत्र ।
दावानलो यत्र तथाब्धिमद्ये
तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ।। ३२।।

विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम् ।
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ।। ३३।।

देवि प्रसीद परिपालय नोऽरि-
भीतेर्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः ।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु
उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान् ।। ३४।।

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि ।
त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव ।। ३५।।

देव्युवाच ।। ३६।।

वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छथ ।
तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम् ।। ३७।।

देवा ऊचुः ।। ३८।।

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि ।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ।। ३९।।

देव्युवाच ।। ४०।।

वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ।।४१।।

नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ।। ४२।।

पुनरप्यतिरौद्रेण रूपेण पृथिवीतले ।
अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांस्तु दानवान् ।। ४३।।

भक्षयन्त्याश्च तानुग्रान् वैप्रचितान् महासुरान् ।
रक्ता दन्ता भविष्यन्ति दाडिमीकुसुमोपमाः ।। ४४।।

ततो मां देवताः स्वर्गे मर्त्यलोके च मानवाः ।
स्तुवन्तो व्याहरिष्यन्ति सततं रक्तदन्तिकाम् ।। ४५।।

भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्टयामनम्भसि ।
मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्यामययोनिजा ।। ४६।।

ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि यन्मुनीन् ।
कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः ।। ४७।।

ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः ।
भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः ।। ४८।।

शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि ।
तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम् ।।४९।।

दुर्गादेवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति ।
पुनश्चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वा हिमाचले ।। ५०।।

रक्षांसि क्षययिष्यामि मुनीनां त्राणकारणात् ।
तदा मां मुनयः सर्वे स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः ।। ५१।।

भीमादेवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति ।
यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति ।। ५२।।

तदाऽहं भ्रामरं रूपं कृत्वासङ्खयेयषट्पदम् ।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम् ।। ५३।।

भ्रामरीति च मां लोकास्तदा स्तोष्यन्ति सर्वतः ।
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।। ५४।।

तदा तदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ।।ॐ।। ५५।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये नारायणिस्तुतिर्नाम एकादशोऽध्यायः ।।

।। अथ द्वादशोऽध्यायः ।।

ध्यानम्
ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे।।

‘ॐ’ देव्युवाच ।। १।।

एभिः स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः ।
तस्याहं सकलां बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम् ।। २।।

मधुकैटभनाशं च महिषासुरघातनम् ।
कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद्वधं शुम्भनिशुम्भयोः ।। ३।।

अष्टभ्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां चैकचेतसः ।
श्रोष्यन्ति चैव ये भक्त्या मम माहात्म्यमुतमम् ।। ४।।

न तेषां दुष्कृतं किञ्चिद्दुष्कृतोत्था न चापदः ।
भविष्यति न दारिद्रयं न चैवेष्टवियोजनम् ।। ५।।

शत्रुतो न भयं तस्य दस्युतो वा न राजतः ।
न शस्त्रानलतोयौघात् कदाचित् सम्भविष्यति ।। ६।।

तस्मान्ममैतन्माहात्म्यं पठितव्यं समाहितैः ।
श्रोतव्यं च सदा भक्त्या परं स्वस्त्ययनं हि तत् ।। ७।।

उपसर्गानशेषांस्तु महामारीसमुद्भवान् ।
तथा त्रिविधमुत्पातं माहात्म्यं शमयेन्मम ।। ८।।

यत्रैतत्पठ्यते सम्यङ्नित्यमायतने मम ।
सदा न तद्विमोक्ष्यामि सान्निध्यं तत्र मे स्थितम् ।। ९।।

बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे ।
सर्वं ममैतच्चरितमुच्चार्यं श्राव्यमेव च ।। १०।।

जानताजानता वापि बलिपूजां तथा कृताम् ।
प्रतीच्छिष्याम्यहं प्रीत्या वह्निहोमं तथाकृतम् ।। ११।।

शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी ।
तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः ।। १२।।

सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः ।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ।। १३।।

श्रुत्वा ममैतन्माहात्म्यं तथा चोत्पत्तयः शुभाः ।
पराक्रमं च युद्धेषु जायते निर्भयः पुमान् ।। १४।।

रिपवः संक्षयं यान्ति कल्याणं चोपपद्यते ।
नन्दते च कुलं पुंसां माहात्म्यं मम श्रृण्वताम् ।। १५।।

शान्तिकर्मणि सर्वत्र तथा दुःस्वप्नदर्शने ।
ग्रहपीडासु चोग्रासु माहात्म्यं श्रृणुयान्मम ।। १६।।

उपसर्गाः शमं यान्ति ग्रहपीडाश्च दारुणाः ।
दुःस्वप्नं च नृभिर्दृष्टं सुस्वप्नमुपजायते ।। १७।।

बालग्रिहाभिभूतानां बालानां शान्तिकारकम् ।
सङ्घातभेदे च नृणां मैत्रीकरणमुत्तमम् ।। १८।।

दुर्वृत्तानामशेषाणां बलहानिकरं परम् ।
रक्षोभूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम् ।। १९।।

सर्वं ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम् ।
पशुपुष्पार्ध्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः ।। २० ।।

विप्राणां भौजनर्होमैः प्रोक्षणीयैरहर्निशम् ।
अन्यैश्च विविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेण या ।। २१।।

प्रीतिर्मे क्रियते सास्मिन्सकृत्सुचरिते श्रुते ।
श्रुतं हरति पापानि तथाऽऽरोग्यं प्रयच्छति ।। २२।।

रक्षां करोति भूतेभ्यो जन्मनां कीर्तनं मम ।
युद्धेषु चरितं यन्मे दुष्टदैत्यनिबर्हणम् ।। २३।।

तस्मिञ्च्छ्रुते वैरिकृतं भयं पुंसां न जायते ।
युष्माभिः स्तुतयो याश्च याश्च ब्रह्मर्षिभिः कृताः ।। २४।।

ब्रह्मणा च कृतास्तास्तु प्रयच्छन्ति शुभां मतिम् ।
अरण्ये प्रान्तरे वापि दावाग्निपरिवारितः ।। २५।।

दस्युभिर्वा वृतः शून्ये गृहीतो वापि शत्रुभिः ।
सिंहव्याघ्रानुयातो वा वने वा वनहस्तिभिः ।। २६।।

राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा ।
आधूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे ।। २७।।

पतत्सु चापि शस्त्रेषु सङ्ग्रामे भृशदारुणे ।
सर्वाबाधासु घोरासु वेदनाभ्यर्दितोऽपि वा ।। २८।।

स्मरन् ममैतच्चरितं नरो मुच्येत सङ्कटात् ।
मम प्रभावात्सिंहाद्या दस्यवो वैरिणस्तथा ।। २९।।

दूरादेव पलायन्ते स्मरतश्चरितं मम ।। ३०।।

ऋषिरुवाच ।। ३१।।

इत्युक्त्वा सा भगवती चण्डिका चण्डविक्रमा ।
पश्यतामेव देवानां तत्रैवान्तरधीयत ।। ३२।।

तेऽपि देवा निरातङ्काः स्वाधिकारान्यथा पुरा ।
यज्ञभागभुजः सर्वे चक्रुर्विनिहतारयः ।। ३३।।

दैत्याश्च देव्या निहते शुम्भे देवरिपौ युधि ।
जगद्विध्वंसिनि तस्मिन् महोग्रेऽतुलविक्रमे ।। ३४।।

निशुम्भे च महावीर्ये शेषाः पातालमाययुः ।। ३५।।

एवं भगवती देवी सा नित्यापि पुनः पुनः ।
सम्भूय कुरुते भूप जगतः परिपालनम् ।। ३६।।

तयैतन्मोह्यते विश्वं सैव विश्वं प्रसूयते ।
सा याचिता च विज्ञानं तुष्टा ऋद्धिं प्रयच्छति ।। ३७।।

व्याप्तं तयैतत्सकलं ब्रह्माण्डं मनुजेश्वर ।
महाकाल्या महाकाले महामारीस्वरूपया ।। ३८।।

सैव काले महामारी सैव सृष्टिर्भवत्यजा ।
स्थितं करोति भूतानां सैव काले सनातनी ।। ३९।।

भवकाले नृणां सैव लक्ष्मीर्वृद्धिप्रदा गृहे ।
सैवाभावे तथालक्ष्मीर्विनाशायोपजायते ।। ४०।।

स्तुता सम्पूजिता पुष्पैर्धूपगन्धादिभिस्तथा ।
ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मे गतिं शुभाम् ।। ४१।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये फलस्तुतिर्नाम द्वादशोऽध्यायः ।।

।। अथ त्रयोदशोऽध्यायः ।।

ध्यानम्
ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्।
पाशाङ्कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे।।

‘ॐ’ ऋषिरुवाच ।। १।।

एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम् ।। २।।

एवम्प्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत् ।
विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया ।। ३।।

तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः ।
मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे ।। ४।।

तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम् ।
आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा ।। ५।।

मार्कण्डेय उवाच ।। ६।।

इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः ।
प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं संशितव्रतम् ।। ७।।

निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च ।
जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने ।। ८।।

सन्दर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः ।
स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन् ।। ९।।

तो तस्मिन् पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम् ।
अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः ।। १०।।

निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ ।
ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम् ।। ११।।

एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः ।
परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका ।। १२।।

देव्युवाच ।। १३।।

यत्प्राथ्यर्ते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन ।। १४।।

मतस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामि तत् ।। १५।।

मार्कण्डेय उवाच ।। १६।।

ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि ।
अत्र चैव निजं राज्यं जतशत्रुबलं बलात् ।। १७।।

सोऽपि वैश्यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः ।
ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्गविच्युतिकारकम् ।। १८।।

देव्युवाच ।। १९।।

स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वराज्यं प्राप्स्यते भवान् ।। २०।।

हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति ।। २१।।

मृतश्च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः ।। २२।।

सावर्णिको नाम मनुर्भवान्भुवि भविष्यति ।। २३।।

वैश्यवर्य त्वया यश्च वरोऽस्मतोऽभिवाञ्छितः ।। २४।।

तं प्रयच्छामि संसिद्ध्यै तव ज्ञानं भविष्यति ।। २५।।

मार्कण्डेय उवाच ।। २६।।

इति दत्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम् ।
बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता ।। २७।।

एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः ।
सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिभर्विता मनुः ।। २८।।

सावर्णिभर्विता मनुः क्लीं ॐ ।। २९।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्येसुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ।। ३०।।

श्रीसप्तशतीदेवीमाहात्म्यं समाप्तम्
ॐ तत् सत् ॐ ।।

।। अथ देवीसूक्त्तम् ।।
ॐ अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्वराम्यह-मादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यह-मिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ।। १।।

अहं सोममाहनसं बिभम्र्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ।। २।।

अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां भा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ।। ३।।

मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उपक्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ।। ४।।

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तं तमुग्रं कृष्णोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ।। ५।।

अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृष्णोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ।। ६।।

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्टे भुवनानु विश्वो-तामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ।। ७।।

अहमेव वात इव प्र वाम्या-रभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यै-तावती महिना सं बभूव ।। ८।।

।। इति ऋग्वेदोक्तं देवीसूक्तं समाप्तम् ।।

अथ प्रधानिकं रहस्यम्

ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्द:, महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्त्यर्थ जपे विनियोग:।

राजोवाच

भगवन्नवतारा मे चण्डिकायास्त्वयोदिता:।
एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तु मर्हसि॥1॥

आराध्यं यन्मया देव्या: स्वरूपं येन च द्विज।
विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥2॥

ऋषिरुवाच

इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते।
भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥3॥

सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी।
लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥4॥

मातुलुङ्गं गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती।
नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥5॥

तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा।
शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा॥6॥

शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्वरी।
बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि॥7॥

सा भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कितवरानना।
विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा॥8॥

खड्गपात्रशिर:खेटैरलंकृतचतुर्भुजा।
कबन्धहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिर:स्त्रजम॥9॥

सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा।
नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नम:॥10॥

तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमदोत्तमाम्।
ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते॥11॥

महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा।
निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया॥12॥

इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभि:।
एभि: कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्रुते सुखम्॥13॥

तामित्युक्त्वा महालक्ष्मी: स्वरूपमपरं नृप।
सत्त्‍‌वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ॥14॥

अक्षमालाङ्कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी।
सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ॥15॥

महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती।
आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्वरी॥16॥

अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीम्।
युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरूपत:॥17॥

इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मी: ससर्ज मिथुनं स्वयम्।
हिरण्यगभरै रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ॥18॥

ब्रह्मन् विधे विरिञ्चेति धातरित्याह तं नरम्।
श्री: पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम्॥19॥

महाकाली भारती च मिथुने सृजत: सह।
एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते॥20॥

नीलकण्ठं रक्त बाहुं श्वेताङ्गं चन्द्रशेखरम्।
जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम्॥21॥

स रुद्र: शंकर: स्थाणु: कपर्दी च त्रिलोचन:।
त्रयी विद्या कामधेनु: सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा॥22॥

सरस्वती स्त्रियं गौरीं कृष्णं च पुरुषं नृप।
नयामास नामानि तयोरपि वदामि ते॥23॥

विष्णु: कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दन:।
उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा॥ 24॥

एवं युवतय: सद्य: पुरुषत्वं प्रपेदिरे।
चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेऽतद्विदो जना:॥25॥

ब्रह्मणे प्रददौ पत्‍‌नीं महालक्ष्मीर्नृप त्रयीम्।
रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम्॥26॥

स्वरया सह सम्भूय विरिञ्चोऽण्डमजीजनत्।
बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान्॥ 25॥

अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप।
महाभूतात्मकं सर्व जगत्स्थावरजङ्गमम्॥28॥

पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशव:।
संजहार जगत्सर्व सह गौर्या महेश्वर:॥29॥

महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्‍‌वमयीश्वरी।
निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्॥30॥

नामान्तरैर्निरूप्यैषा नामन नान्येन केनचित्॥ॐ॥31॥

अर्थ :- ॐ सप्तशती के इन तीनों रहस्यों के नारायण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता हैं। शास्त्रोक्त फल की प्राप्ति के लिये जप में इनका विनियोग होता है।

राजा बोले- भगवन्! आपने चण्डिका के अवतारों की कथा मुझसे कही। ब्रह्मन्! अब इन अवतारों की प्रधान प्रकृति का निरूपण कीजिये॥1॥ द्विजश्रेष्ठ! मैं आपके चरणों में पडा हूँ। मुझे देवी के जिस स्वरूप की और जिस विधि से आराधना करनी है, वह सब यथार्थरूप से बतलाइये॥2॥

ऋषि कहते हैं-राजन्! यह रहस्य परम गोपनीय है। इसे किसी से कहने योग्य नहीं बतलाया गया है; किंतु तुम मेरे भक्त हो, इसलिये तुमसे न कहने योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है॥3॥ त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण हैं। वे ही दृश्य और अदृश्ष्यरूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं॥4॥ राजन! वे अपनी चार भुजाओं में मातुलुङ्ग (बिजौरे का फल), गदा, खेट (ढाल) एवं पानपात्र और मस्तक पर नाग, लिङ्ग तथा योनि-इन वस्तुओं को धारण करती हैं॥5॥ तपाये हुए सुवर्ण के समान उनकी कान्ति है, तपाये हुए सुवर्ण के ही उनके भूषण हैं। उन्होंने अपने तेज से इस शून्य जगत् को परिपूर्ण किया है॥6॥ परमेश्वरी महालक्ष्मी ने इस सम्पूर्ण जगत् को शून्य देखकर केवल तमोगुणरूप उपाधि के द्वारा एक अन्य उत्कृष्ट रूप धारण किया॥7॥ वह रूप एक नारी के रूप में प्रकट हुआ, जिसके शरीर की कान्ति निखरे हुए काजल की भाँति काले रंग की थी। उसका श्रेष्ठ मुख दाढों से सुशोभित था। नेत्र बडे-बडे और कमर पतली थी॥8॥उसकी चार भुजाएं ढाल, तलवार, प्याले और कटे हुए मस्तक से सुशोभित थीं। वह वक्ष:स्थल पर कबन्ध (धड) की तथा मस्तक पर मुण्डों की माला धारण किये हुए थी॥9॥ इस प्रकार प्रकट हुई स्त्रियों में श्रेष्ठ तामसी देवी ने महालक्ष्मी से कहाञ्ा माताजी! आपको नमस्कार है। मुझे मेरा नाम और कर्म बताइये॥ 8॥ तब महालक्ष्मी ने स्त्रियों में श्रेष्ठ उस तामसी देवी से कहा-मैं तुम्हें नाम प्रदान करती हूँ और तुम्हारे जो-जो कर्म हैं, उनको भी बतलाती हूँ,॥11॥ महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, कालरात्रि तथा दुरत्यया-॥12॥ ये तुम्हारे नाम हैं, जो कर्मो के द्वारा लोक में चरितार्थ होंगे। इन नामों के द्वारा तुम्हारे कर्मो को जानकर जो उनका पाठ करता है, वह सुख भोगता है॥13॥ राजन्! महाकाली से यों कहकर महालक्ष्मी ने अत्यन्त शुद्ध सत्त्‍‌वगुण के द्वारा दूसरा रूप धारण किया, जो चन्द्रमा के समान गौरवर्ण था॥ 14॥ वह श्रेष्ठ नारी अपने हाथों में अक्षमाला, अङ्कुश, वीणा तथा पुस्तक धारण किये हुए थी। महालक्ष्मी ने उसे भी नाम प्रदान किये॥15॥ महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, वेदगर्भा और धीश्वरी (बुद्धि की स्वामिनी)- ये तुम्हारे नाम होंगे॥16॥ तदनन्तर महालक्ष्मी ने महाकाली और महासरस्वती से कहा-देवियों! तुम दोनों अपने-अपने गुणों के योग्य स्त्री-पुरुष के जोडे उत्पन्न करो॥17॥ उन दोनों से यों कहकर महालक्ष्मी ने पहले स्वयं ही स्त्री-पुरुष का एक जोडा उत्पन्न किया। वे दानों हिरण्यगर्भ (निर्मल ज्ञान से सम्पन्न) सुन्दर तथा कमल के आसन पर विराजमान थे। उनमें से एक स्त्री थी और दूसरा पुरुष॥18॥ तत्पश्चात माता महालक्ष्मी ने पुरुष को ब्रह्मन्! विधे! विरिञ्च! तथा धात:! इस प्रकार सम्बोधित किया और स्त्री को श्री! पद्मा! कमला! लक्ष्मी! इत्यादि नामों से पुकारा॥19॥ इसके बाद महाकाली और महासरस्वती ने भी एक-एक जोडा उत्पन्न किया। इनके भी रूप और नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥20॥ महाकाली ने कण्ठ में नील चिह्न से युक्त , लाल भुजा, श्वेत शरीर और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण करने वाले पुरुष को तथा गोरे रंग की स्त्री को जन्म दिया॥21॥ वह पुरुष रुद्र, शंकर, स्थाणु, कपर्दी और त्रिलोचन के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा स्त्री के त्रयी, विद्या, कामधेनु, भाषा, अक्षरा और स्वरा- ये नाम हुए॥22॥ राजन्! महासरस्वती ने गोरे रंग की स्त्री और श्याम रंग के पुरुष को प्रकट किया। उन दोनों के नाम भी मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥23॥उनमें पुरुष के नाम विष्णु, कृष्ण, हृषीकेश, वासुदेव और जनार्दन हुए तथा स्त्री उमा, गौरी, सती, चण्डी, सुन्दरी, सुभगा और शिवा- इन नामों से प्रसिद्ध हुई॥24॥ इस प्रकार तीनों युवतियाँ ही तत्काल पुरुषरूप को प्राप्त हुई। इस बात को ज्ञाननेत्र वाले लोग ही समझ सकते हैं। दूसरे अज्ञानीजन इस रहस्य को नहीं जान सकते॥25॥ राजन्! महालक्ष्मी ने त्रयीविद्यारूपा सरस्वती को ब्रह्मा के लिये पत्‍‌नीरूप में समर्पित किया, रुद्र को वरदायिनी गौरी तथा भगवान् वासुदेव को लक्ष्मी दे दी॥26॥ इस प्रकार सरस्वती के साथ संयुक्त होकर ब्रह्माजी ने ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया और परम पराक्रमी भगवान् रुद्र ने गौरी के साथ मिलकर उसका भेदन किया॥27॥ राजन्! उस ब्रह्माण्ड में प्रधान (महत्तत्त्‍‌व) आदि कार्यसमूह- पञ्चमहाभूतात् मक समस्त स्थावर-जङ्गमरूप जगत् की उत्पत्ति हुई॥28॥ फिर लक्ष्मी के साथ भगवान् विष्णु ने उस जगत् का पालन-पोषण किया और प्रलयकाल में गौरी के साथ महेश्वर ने उस सम्पूर्ण जगत् का संहार किया॥29॥ महाराज! महालक्ष्मी ही सर्वसत्त्‍‌वमयी तथा सब सत्त्‍‌वों की अधीश्वरी हैं। वे ही निराकार और साकाररूप में रहकर नाना प्रकार के नाम धारण करती हैं॥30॥ सगुणवाचक सत्य, ज्ञान, चित्, महामाया आदि नामान्तरों से इन महालक्ष्मी का निरूपण करना चाहिये। केवल एक नाम (महालक्ष्मी मात्र) से अथवा अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से उनका वर्णन नहीं हो सकता॥31॥

अथ वैकृतिकं रहस्यम्

ॐ त्रिगुणा तामसी देवी सात्त्विकी या त्रिधोदिता।
सा शर्वा चण्डिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते॥1॥

योगनिद्रा हरेरुक्ता महाकाली तमोगुणा।
मधुकैटभनाशार्थ यां तुष्टावाम्बुजासन:॥2॥

दशवक्त्रा दशभुजा दशपादाञ्जनप्रभा।
विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया॥3॥

स्फुरद्दशनदंष्ट्रा सा भीमरूपापि भूमिप।
रूपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रिय:॥4॥

खड्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत्।
परिघं कार्मुकं शीर्ष निश्च्योतद्रुधिरं दधौ॥5॥

एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया।
आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्चराचरम्॥6॥

सर्वदेवशरीरेभ्यो याऽऽविर्भूतामितप्रभा।
त्रिगुणा सा महालक्ष्मी: साक्षान्महिषमर्दिनी॥7॥

श्वेतानना नीलभुजा सुश्वेतस्तनमण्डला।
रक्त मध्या रक्त पादा नीलजङ्घोरुरुन्मदा॥8॥

सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा।
चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥9॥

अष्टादशभुजा पूज्या सा सहस्त्रभुजा सती।
आयुधान्यत्र वक्ष्यन्ते दक्षिणाध:करक्रमात्॥10॥

अक्षमाला च कमलं बाणोऽसि: कुलिशं गदा।
चक्रं त्रिशूलं परशु: शङ्खो घण्टा च पाशक:॥11॥

शक्तिर्दण्डश्चर्म चापं पानपात्रं कमण्डलु:।
अलंकृतभुजामेभिरायुधै: कमलासनाम्॥12॥

सर्वदेवमयीमीशां महालक्ष्मीमियां नृप।
पूजयेत्सर्वलोकानां स देवानां प्रभुर्भवेत्॥13॥

गौरीदेहात्समुद्भूता या सत्त्‍‌वैकगुणाश्रया।
साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुम्भासुरनिबर्हिणी॥14॥

दधौ चाष्टभुजा बाणमुसले शूलचक्रभृत्।
शङ्खं घण्टां लाङ्गलं च कार्मुकं वसुधाधिप॥15॥

एषा सम्पूजिता भक्त्या सर्वज्ञत्वं प्रयच्छति।
निशुम्भमथिनी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी॥16॥

इत्युक्तानि स्वरूपाणि मूर्तीनां तव पार्थिव।
उपासनं जगन्मातु: पृथगासां निशामय॥17॥

महालक्ष्मीर्यदा पूज्या महाकाली सरस्वती।
दक्षिणोत्तरयो: पूज्ये पृष्ठतो मिथुनत्रयम्॥18॥

विरञ्चि: स्वरया मध्ये रुद्रो गौर्या च दक्षिणे।
वामे लक्ष्म्या हृषीकेश: पुरतो देवतात्रयम्॥19॥

अष्टादशभुजा मध्ये वामे चास्या दशानना।
दक्षिणेऽष्टभुजा लक्ष्मीर्महतीति समर्चयेत्॥20॥

अष्टादशभुजा चैषा यदा पूज्या नराधिप।
दशानना चाष्टभुजा दक्षिणोत्तरयोस्तदा॥21॥

कालमृत्यू च सम्पूज्यौ सर्वारिष्टप्रशान्तये।
यदा चाष्टभुजा पूज्या शुम्भासुरनिबर्हिणी॥22॥

नवास्या: शक्त य: पूज्यास्तदा रुद्रविनायकौ।
नमो देव्या इति स्तोत्रैर्महालक्ष्मीं समर्चयेत्॥23॥

अवतारत्रयार्चायां स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रया:।
अष्टादशभुजा सैव पूज्या महिषमर्दिनी॥24॥

महालक्ष्मीर्महाकाली सैव प्रोक्ता सरस्वती।
ईश्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्वरी॥25॥

महिषान्तकरी येन पूजिता स जगत्प्रभु:।
पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्॥26॥

अघ्र्यादिभिरलंकारैर्गन्धपुष्पैस्तथाक्षतै:। धू
पैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितै:॥27॥

रुधिराक्ते न बलिना मांसेन सुरया नृप।
(बलिमांसादिपूजेयं विप्रवज्र्या मयेरिता॥

तेषां किल सुरामांसैर्नोक्ता पूजा नृप क्वचित्।)
प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना॥28॥

सकर्पूरैश्च ताम्बूलैर्भक्ति भावसमन्वितै:।
वामभागेऽग्रतो देव्याश्छिन्नशीर्ष महासुरम्॥29॥

पूजयेन्महिषं येन प्राप्तं सायुज्यमीशया।
दक्षिणे पुरत: सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम्॥30॥

वाहनं पूजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्।
कुर्याच्च स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानस:॥31॥

तत: कृताञ्जलिर्भूत्वा स्तुवीत चरितैरिमै:।
एकेन वा मध्यमेन नैकेनेतरयोरिह॥32॥

चरितार्ध तु न जपेज्जपञिछद्रमवापनुयात्।
प्रदक्षिणानमस्कारान् कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्जलि:॥33॥

क्षमापयेज्जगद्धात्रीं मुहुर्मुहुरतन्द्रित:।
प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषा॥34॥

जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा चण्डिकायै शुभं हवि:।
भूयो नामपदैर्देवीं पूजयेत्सुसमाहित:॥35॥

प्रयत: प्राञ्जलि: प्रह्व: प्रणम्यारोप्य चात्मनि।
सुचिरं भावयेदीशां चण्डिकां तन्मयो भवेत्॥36॥

एवं य: पूजयेद्भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरीम्।
भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्॥37॥

यो न पूजयते नित्यं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्।
भस्मीकृत्यास्य पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्वरी॥38॥

तस्मात्पूजय भूपाल सर्वलोकमहेश्वरीम्।
यथोक्ते न विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि॥38॥

अर्थ :- ऋषि कहते हैं- राजन्! पहले जिन सत्त्‍‌वप्रधाना त्रिगुणामयी महालक्ष्मी के तामसी आदि भेद से तीन स्वरूप बतलाये गये, वे ही शर्वा, चण्डिका, दुर्गा, भद्रा और भगवती आदि अनेक नामों से कही जाती हैं॥1॥ तमोगुणमयी महाकाली भगवान् विष्णु की योगनिद्रा कही गयी हैं। मधु और कैटभ का नाश करने के लिये ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी, उन्हीं का नाम महाकाली है॥2॥ उनके दस मुख, दस भुजाएँ और दस पैर हैं। वे काजल के समान काले रंग की हैं अथा तीस नेत्रों की विशाल पंक्ति से सुशोभित होती हैं॥3॥ भूपाल! उनके दाँत और दाढें चमकती रहती हैं। यद्यपि उनका रूप भयंकर है, तथापि वे रूप, सौभाग्य, कान्ति एवं महती सम्पदा की अधिष्ठान (प्राप्तिस्थान) हैं॥4॥ वे अपने हाथों में खड्ग, बाण, गदा, शूल, चक्र, शङ्ख, भुशुण्डि, परिघ, धनुष तथा जिससे रक्त चूता रहता है, ऐसा कटा हुआ मस्तक धारण करती हैं॥5॥ ये महाकाली भगवान् विष्णु की दुस्तर माया हैं। आराधना करने पर ये चराचर जगत् को अपने उपासक के अधीन कर देती हैं॥6॥

सम्पूर्ण देवताओं के अङ्गों से जिनका प्रादुर्भाव हुआ था, वे अनन्त कान्ति से युक्त साक्षात् महालक्ष्मी हैं। उन्हें ही त्रिगुणमयी प्रकृति कहते हैं तथा वे ही महिषासुर का मर्दन करने वाली हैं॥7॥ उनका मुख गोरा, भुजाएँ श्याम, स्तनमण्डल अत्यन्त श्वेत, कटिभाग और चरण लाल तथा जङ्घा और पिंडली नीले रंग की हैं। अजेय होने के कारण उनको अपने शौर्य का अभिमान है॥8॥ कटिके आगे का भाग बहुरंगे वस्त्र से आच्छादित होने के कारण अत्यन्त सुन्दर एवं विचित्र दिखायी देता है। उनकी माला, वस्त्र, आभूषण तथा अङ्गराग सभी विचित्र हैं। वे कान्ति, रूप और सौभाग्य से सुशोभित हैं॥9॥ यद्यपि उनकी हजारों भुजाएँ हैं, तथापि उन्हें अठारह भुजाओं से युक्त मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये। अब उनके दाहिनी ओर के निचले हाथों से लेकर बायीं ओर के निचले हाथों तक में क्रमश: जो अस्त्र हैं, उनका वर्णन किया जाता है॥10॥ अक्षमाला, कमल, बाण, खड्ग, वज्र, गदा, चक्र, त्रिशूल, परशु, शङ्ख, घण्टा, पाश, शक्ति दण्ड, चर्म (ढाल), धनुष, पानपात्र और कमण्डलु- इन आयुधों से उनकी भुजाएँ विभूषित हैं। वे कमल के आसन पर विराजमान हैं, सर्वदेवमयी हैं तथा सबकी ईश्वरी हैं। राजन्! जो इन महालक्ष्मी देवी का पूजन करता है, वह सब लोकों तथा देवताओं का भी स्वामी होता है॥11-13॥

जो एकमात्र सत्त्‍‌वगुण के आश्रित हो पार्वतीजी के शरीर से प्रकट हुई थीं तथा जिन्होंने शुम्भ नामक दैत्य का संहार किया था, वे साक्षात् सरस्वती कही गयी हैं॥14॥ पृथ्वीपते! उनके आठ भुजाएँ हैं तथा वे अपने हाथों में क्रमश: बाण, मुसल, शूल, चक्र, शङ्ख, घण्टा, हल एवं धनुष धारण करती हैं॥15॥ ये सरस्वती देवी, जो निशुम्भ का मर्दन तथा शुम्भासुर का संहार करने वाली हैं, भक्ति पूर्वक पूजित होने पर सर्वज्ञता प्रदान करती हैं॥16॥ राजन! इस प्रकार तुमसे महाकाली आदि तीनों मूर्तियों के स्वरूप बतलाये, अब जगन्माता महालक्ष्मी की तथा इन महाकाली आदि तीनों मूर्तियों की पृथक्-पृथक् उपासना श्रवण करो॥17॥ जब महालक्ष्मी की पूजा करनी हो, तब उन्हें मध्य में स्थापित करके उनके दक्षिण और वाम भाग में क्रमश: महाकाली और महासरस्वती का पूजन करना चाहिये और पृष्ठ भाग में तीनों युगल देवताओं की पूजा करनी चाहिये॥18॥ महालक्ष्मी के ठीक पीछे मध्य भाग में सरस्वती के साथ ब्रह्मा का पूजन करे। उनके दक्षिण भाग में गौरी के साथ रुद्र की पूजा करे तथा वामभाग में लक्ष्मी सहित विष्णु का पूजन करे। महालक्ष्मी आदि तीनों देवियों के सामने निमनङ्कित तीन देवियों की भी पूजा करनी चाहिये॥19॥ मध्यस्थ महालक्ष्मी के आगे मध्यभाग में अठारह भुजाओं वाली महालक्ष्मी का पूजन करे। उनके वामभाग में दस मुखों वाली महाकाली का तथा दक्षिणभाग में आठ भुजाओं वाली महासरस्वती का पूजन करे॥20॥ राजन्! जब केवल अठारह भुजाओं वाली महालक्ष्मी का अथवा दशमुखी काली का अष्टभुजा सरस्वती का पूजन करना हो, तब सब अरिष्टों की शान्ति के लिये इनके दक्षिणभाग में काल की और वामभाग में मृत्यु की भी भलीभाँति पूजा करनी चाहिये। जब शुम्भासुर का संहार करने वाली अष्टभुजा देवी की पूजा करनी हो, तब उनके साथ उनकी नौ शक्तियों का और दक्षिण भाग में रुद्र एवं वामभाग में गणेशजी का भी पूजन करना चाहिये (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री, शिवदूती तथा चामुण्डा-ये नौ शक्ति याँ हैं)। नमो देव्यै.. इस स्तोत्र से महालक्ष्मी की पूजा करनी चाहिये॥21-23॥ तथा उनके तीन अवतारों की पूजा के समय उनके चरित्रों में जो स्तोत्र और मन्त्र आये हैं, उन्हीं का उपयोग करना चाहिये। अठारह भुजाओं वाली महिषासुरमर्दिनी महालक्ष्मी ही विशेषरूप से पूजनीय हैं; क्योंकि वे ही महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती कहलाती हैं। वे ही पुण्य पापों की अधीश्वरी तथा सम्पूर्ण लोकों की महेश्वरी हैं॥24-25॥ जिसने महिषासुर का अन्त करने वाली महालक्ष्मी की भक्ति पूर्वक आराधना की है, वही संसार का स्वामी है। अत: जगत् को धारण करने वाली भक्त वत्सला भगवती चण्डिका की अवश्य पूजा करनी चाहिये॥26॥ अ‌र्ध्य आदि से, आभूषणों से, गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थो से युक्त नैवेद्यों से, रक्त सिञ्चित बलि से, मांस से तथा मदिरा से भी देवी का पूजन होता है। (राजन्! बलि और मांस आदि से की जाने वाली पूजा ब्राह्मणों को छोडकर बतायी गयी है। उनके लिये मांस और मदिरा से कहीं भी पूजा का विधान नहीं है।) प्रणाम, आचमन के योग्य जल, सुगन्धित चन्दन, कपूर तथा ताम्बूल आदि सामग्रियों को भक्ति भाव से निवेदन करके देवी की पूजा करनी चाहिये। देवी के सामने बायें भाग में कटे मस्तकवाले महादैत्य महिषासुर का पूजन करना चाहिये, जिसने भगवती के साथ सायुज्य प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार देवी के सामने दक्षिण भाग में उनके वाहन सिंह का पूजन करना चाहिये, जो सम्पूर्ण धर्म का प्रतीक एवं षड्विध ऐश्वर्य से युक्त है। उसी ने इस चराचर जगत् को धारण कर रखा है।

तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुष एकाग्रचित हो देवी की स्तुति करे। फिर हाथ जोडकर तीनों पूर्वोक्त चरित्रों द्वारा भगवती का स्तवन करे। यदि कोई एक ही चरित्र से स्तुति करना चाहे तो केवल मध्यम चरित्र के पाठ से कर ले; किंतु प्रथम और उत्तर चरित्रों में से एक का पाठ न करे। आधे चरित्र का भी पाठ करना मना है। जो आधे चरित्र का पाठ करता है, उसका पाठ सफल नहीं होता। पाठ-समाप्ति के बाद साधक प्रदक्षिणा और नमस्कार कर तथा आलस्य छोडकर जगदम्बा के उद्देश्य से मस्तक पर हाथ जोडे और उनके बारम्बार त्रुटियों या अपराधों के लिये क्षमा प्रार्थना करे। सप्तशती का प्रत्येक श्लोक मन्त्ररूप है, उससे तिल और घृत मिली हुई खीर की आहुति दे॥27-34॥ अथवा सप्तशती में जो स्तोत्र आये हैं, उन्हीं के मन्त्रों से चण्डिका के लिये पवित्र हविष्य का हवन करे। हाम के पश्चात एकाग्रचित्त हो महालक्ष्मी देवी के नाम मन्त्रों को उच्चारण करते हुए पुन: उनकी पूजा करे॥35॥ तत्पश्चात् मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए हाथ जोड विनीत भाव से देवी को प्रणाम करे और अन्त:करण में स्थापित करके उन सर्वेश्वरी चण्डिका देवी का देरतक चिन्तन करे। चिन्तन करते-करते उन्हीं में तन्मय हो जाय॥36॥ इस प्रकार जो मनुष्य प्रतिदिन भक्ति पूर्वक परमेश्वरी का पूजन करता है, वह मनोवाञ्छित भोगों को भोगकर अन्त में देवी का सायुज्य प्राप्त करता है॥37॥ जो भक्त वत्सला चण्डी का प्रतिदिन पूजन नहीं करता, भगवती परमेश्वरी उसके पुण्यों को जलाकर भस्म कर देती हैं॥38॥ इसलिये राजन्! तुम सर्वलोकमहेश्वरी चण्डिका का शास्त्रोक्त विधि से पूजन करो। उससे तुम्हें सुख मिलेगा॥39॥
अथ मूर्तिरहस्यम्

ऋषिरुवाच

ॐ नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा।
स्तुता सा पूजिता भक्त्या वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥1॥

कनकोत्तमकान्ति: सा सुकान्तिकनकाम्बरा।
देवी कनकवर्णाभा कनकोत्तमभूषणा॥2॥

कमलाङ्कुशपाशाब्जैरलंकृतचतुर्भुजा।
इन्दिरा कमला लक्ष्मी: सा श्री रुक्माम्बुजासना॥3॥

या रक्त दन्तिका नाम देवी प्रोक्ता मयानघ।
तस्या: स्वरूपं वक्ष्यामि शृणु सर्वभयापहम्॥4॥

रक्ताम्बरा रक्त वर्णा रक्तसर्वाङ्गभूषणा।
रक्तायुधा रक्त नेत्रा रक्त केशातिभीषणा॥5॥

रक्त तीक्ष्णनखा रक्त दशना रक्त दन्तिका।
पतिं नारीवानुरक्ता देवी भक्तं भजेज्जनम्॥6॥

वसुधेव विशाला सा सुमेरुयुगलस्तनी।
दीर्घौ लम्बावतिस्थूलौ तावतीव मनोहरौ॥7॥

कर्कशावतिकान्तौ तौ सर्वानन्दपयोनिधी।
भक्तान् सम्पाययेद्देवी सर्वकामदुघौ स्तनौ॥8॥

खड्गं पात्रं च मुसलं लाङ्गलं च बिभर्ति सा।
आख्याता रक्त चामुण्डा देवी योगेश्वरीति च॥9॥

अनया व्याप्तमखिलं जगत्स्थावरजङ्गमम्।
इमां य: पूजयेद्भक्त्या स व्यापनेति चराचरम्॥10॥
(भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्।)

अधीते य इमं नित्यं रक्त दन्त्या वपु:स्तवम्।
तं सा परिचरेद्देवी पतिं प्रियमिवाङ्गना॥11॥

शाकम्भरी नीलवर्णा नीलोत्पलविलोचना।
गम्भीरनाभिस्त्रिवलीविभूषिततनूदरी॥12॥

सुकर्कशसमोत्तुङ्गवृत्तपीनघनस्तनी।
मुष्टिं शिलीमुखापूर्णं कमलं कमलालया॥13॥

पुष्पपल्लवमूलादिफलाढयं शाकसञ्चयम्।
काम्यानन्तरसैर्युक्तं क्षुत्तृण्मृत्युभयापहम्॥14॥

कार्मुकं च स्फुरत्कान्ति बिभ्रती परमेश्वरी।
शाकम्भरी शताक्षी सा सैव दुर्गा प्रकीर्तिता॥15॥

विशोका दुष्टदमनी शमनी दुरितापदाम्।
उमा गौरी सती चण्डी कालिका सा च पार्वती॥16॥

शाकम्भरीं स्तुवन् ध्यायञ्जपन् सम्पूजयन्नमन्।
अक्षय्यमश्रुते शीघ्रमन्नपानामृतं फलम्॥17॥

भीमापि नीलवर्णा सा दंष्ट्रादशनभासुरा।
विशाललोचना नारी वृत्तपीनपयोधरा॥18॥

चन्द्रहासं च डमरुं शिर: पात्रं च बिभ्रती।
एकावीरा कालरात्रि: सैवोक्ता कामदा स्तुता॥19॥

तजोमण्डलुदुर्धर्षा भ्रामरी चित्रकान्तिभृत्।
चित्रानुलेपना देवी चित्राभरणभूषिता॥20॥

चित्रभ्रमरपाणि: सा महामारीति गीयते।
इत्येता मूर्तयो देव्या या: ख्याता वसुधाधिप॥21॥

जगन्मातुश्चण्डिकाया: कीर्तिता: कामधेनव:।
इदं रहस्यं परमं न वाच्यं कस्यचित्त्‍‌वया॥22॥

व्याख्यानं दिव्यमूर्तीनामभीष्टफलदायकम्।
तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन देवीं जप निरन्तरम्॥23॥

सप्तजन्मार्जितैर्घोरै‌र्ब्रह्महत्यासमैरपि।
पाठमात्रेण मन्त्राणां मुच्यते सर्वकिल्बिषै:॥24॥

देव्या ध्यानं मया ख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं महत्।
तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन सर्वकामफलप्रदम्॥25॥

(एतस्यास्त्वं प्रसादेन सर्वमान्यो भविष्यसि।
सर्वरूपमयी देवी सर्व देवीमयं जगत्।
अतोऽहं विश्वरूपां तां नमामि परमेश्वरीम्।)

अर्थ :- ऋषि कहते हैं- राजन्! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली हैं, उनकी यदि भक्ति पूर्वक स्तुति और पूजा की जाय तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं॥1॥ उनके श्रीअङ्गों की कान्ति कनक के समान उत्तम है। वे सुनहरे रंग के सुन्दर वस्त्र धारण करती हैं। उनकी आभा सुवर्ण के तुल्य है तथा वे सुवर्ण के ही उत्तम आभूषण धारण करती हैं॥2॥ उनकी चार भुजाएँ कमल, अङ्कुश, पाश और शङ्ख से सुशोभित हैं। वे इन्दिरा, कमला, लक्ष्मी, श्री तथा रुक्माम्बुजासना (सुवर्णमय कमल के आसन पर विराजमान) आदि नामों से पुकारी जाती हैं॥3॥ निष्पाप नरेश! पहले मैंने रक्त दन्तिका नाम से जिन देवी का परिचय दिया है, अब उनके स्वरूप का वर्णन करूँगा; सुनो। वह सब प्रकार के भयों को दूर करने वाली है॥4॥ वे लाल रंग के वस्त्र धाण करती हैं। उनके शरीर का रंग भी लाल ही है और अङ्गों के समस्त आभूषण भी लाल रंग के हैं। उनके अस्त्र-शस्त्र, नेत्र, शिर के बाल, तीखे नख और दाँत सभी रक्त वर्ण के हैं; इसलिये वे रक्त दन्तिका कहलाती और अत्यन्त भयानक दिखायी देती हैं। जैसे स्त्री पति के प्रति अनुराग रखती है, उसी प्रकार देवी अपने भक्त पर (माता की भाँति) स्नेह रखते हुए उसकी सेवा करती हैं॥5-6॥ देवी रक्त दन्तिका का आकार वसुधा की भाँति विशाल है। उनके दोनों स्तन सुमेरु पर्वत के समान हैं। वे लंबे, चौडे, अत्यन्त स्थूल एवं बहुत ही मनोहर हैं। कठोर होते हुए भी अत्यन्त कमनीय हैं तथा पूर्ण आनन्द के समुद्र हैं। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले ये दोनों स्तन देवी अपने भक्त कों को पिलाती हैं॥7-8॥ वे अपनी चार भुजाओं में खड्ग, पानपात्र, मुसल और हल धारण करती हैं। ये ही रक्त चामुण्डा और योगेश्वरी देवी कहलाती हैं॥9॥ इनके द्वारा सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त है। जो इन रक्त दन्तिका देवी का भक्ति पूर्वक पूजन करता है, वह भी चराचर जगत् में व्याप्त होता है॥10॥ (वह यथेष्ट भोगों को भोगकर अन्त में देवी के साथ सायुज्य प्राप्त कर लेता है।) जो प्रतिदिन रक्तदन्तिका देवी के शरीर का यह स्तवन करता है, उसकी वे देवी प्रेमपूर्वक संरक्षणरूप सेवा करती हैं ठीक उसी तरह, जैसे पतिव्रता नारी अपने प्रियतम पति की परिचर्या करती है॥11॥ शाकम्भरी देवी के शरीर की कान्ति नीले रंग की है! उनके नेत्र नील कमल के समान हैं, नाभि नीची है तथा त्रिवली से विभूषित उदर (मध्यभाग) सूक्ष्म है॥12॥ उनके दोनों स्तन अत्यन्त कठोर, सब ओर से बराबर, ऊँचे, गोल, स्थूल तथा परस्पर सटे हुए हैं। वे परमेश्वरी कमल में निवास करने वाली हैं और हाथों में बाणों से भरी मुष्टि, कमल, शाक-समूह तथा प्रकाशमान धनुष धारण करती हैं। वह शाकसमूह अनन्त मनोवाञ्िछत रसों से युक्त तथा क्षुधा, तृषा और मृत्यु के भय को नष्ट करने वाला तथा फूल, पल्लव, मूल आदि एवं फलों से सम्पन्न है। वे ही शाकम्भरी, शताक्षी तथा दुर्गा कही गयी हैं॥13-15॥ वे शोक से रहित, दुष्टों का दमन करने वाली तथा पाप और विपत्ति को शान्त करने वाली हैं। उमा, गौरी, सती, चण्डी, कालिका और पार्वती भी वे ही हैं॥16॥ जो मनुष्य शाकम्भरी देवी की स्तुति, ध्यान, जप, पूजा और वन्दन करता है, वह शीघ्र ही अन्न, पान एवं अमृतरूप अक्षय फल का भागी होता है॥17॥

भीमादेवी का वर्ण भी नील ही है। उनकी दाढें और दाँत चमकते रहते हैं। उनके नेत्र बडे-बडे हैं, स्वरूप स्त्री का है, स्तन गोल-गोल और स्थूल हैं। वे अपने हाथों में चन्द्रहास नामक खड्ग, डमरू, मस्तक और पानपात्र धारण करती हैं। वे ही एकवीरा, कालरात्रि तथा कामदा कहलाती और इन नामों से प्रशंसित होती हैं॥18-19॥

भ्रामरी देवी की कान्ति विचित्र (अनेक रंग की) है। वे अपने तेजोमण्डल के कारण दुर्धर्ष दिखायी देती हैं। उनका अङ्गराग भी अनेक रंग का है तथा वे चित्र-विचित्र आभूषणों से विभूषित हैं॥20॥ चित्रभ्रमरपाणि और महामारी आदि नामों से उनकी महिमा का गान किया जाता है। राजन्! इस प्रकार जगन्माता चण्डिका देवी की ये मूर्तियाँ बतलायी गयी हैं॥21॥ जो कीर्तन करने पर कामधेनु के समान सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करती हैं। यह परम गोपनीय रहस्य है। इसे तुम्हें दूसरे किसी को नहीं बतलाना चाहिए॥22॥ दिव्य मूर्तियों का यह आख्यान मनोवाञ्छित फल देने वाला है, इसलिये पूर्ण प्रयत्‍‌न करके तुम निरन्तर देवी के जप (आराधन) में लगे रहो॥23॥ सप्तशती के मन्त्रों के पाठमात्र से मनुष्य सात जन्मों में उपार्जित ब्रह्महत्यासदृश घोर पातकों एवं समस्त कल्मषों से मुक्त हो जाता है॥ 24॥ इसलिये मैंने पूर्ण प्रयत्‍‌न करके देवी के गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय ध्यान का वर्णन किया है, जो सब प्रकार के मनोवाञ्छित फलों को देने वाला है॥25॥ (उनके प्रसाद से तुम सर्वमान्य हो जाओगे। देवी सर्वरूपमयी हैं तथा सम्पूर्ण जगत् देवीमय है। अत: मैं उन विश्वरूपा परमेश्वरी को नमस्कार करता हूँ।)
।। अथ अपराधक्षमापणस्तोत्रम् ।।
ॐ अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि।।१।।

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि।।२।।

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।।३।।

अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् ।
यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ।। ४।।

सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके ।
इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ।। ५।।

अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रोन्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ।। ६।।

कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ।। ७।।

गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसात्सुरेश्वरि।।८।।

।। इति अपराधक्षमापणस्तोत्रं समाप्तम्।।

।। ॐ तत् सत् ॐ ।।