07 July 2013

!!! जानें, क्या है शिव की महिमा और कैसे मनाएं शिवरात्रि !!!




कौन हैं शिव

शिव संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, कल्याणकारी या शुभकारी। यजुर्वेद में शिव को शांतिदाता बताया गया है। 'शि' का अर्थ है, पापों का नाश करने वाला, जबकि 'व' का अर्थ देने वाला यानी दाता।

क्या है शिवलिंग

शिव की दो काया है। एक वह, जो स्थूल रूप से व्यक्त किया जाए, दूसरी वह, जो सूक्ष्म रूपी अव्यक्त लिंग के रूप में जानी जाती है। शिव की सबसे ज्यादा पूजा लिंग रूपी पत्थर के रूप में ही की जाती है। लिंग शब्द को लेकर बहुत भ्रम होता है। संस्कृत में लिंग का अर्थ है चिह्न। इसी अर्थ में यह शिवलिंग के लिए इस्तेमाल होता है। शिवलिंग का अर्थ है : शिव यानी परमपुरुष का प्रकृति के साथ समन्वित-चिह्न

शिव, शंकर, महादेव...

शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं - शिव शंकर भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। शिव ने सृष्टि की स्थापना, पालना और विनाश के लिए क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु और महेश (महेश भी शंकर का ही नाम है) नामक तीन सूक्ष्म देवताओं की रचना की है। इस तरह शिव ब्रह्मांड के रचयिता हुए और शंकर उनकी एक रचना। भगवान शिव को इसीलिए महादेव भी कहा जाता है। इसके अलावा शिव को 108 दूसरे नामों से भी जाना और पूजा जाता है।

अर्द्धनारीश्वर क्यों

शिव को अर्द्धनारीश्वर भी कहा गया है, इसका अर्थ यह नहीं है कि शिव आधे पुरुष ही हैं या उनमें संपूर्णता नहीं। दरअसल, यह शिव ही हैं, जो आधे होते हुए भी पूरे हैं। इस सृष्टि के आधार और रचयिता यानी स्त्री-पुरुष शिव और शक्ति के ही स्वरूप हैं। इनके मिलन और सृजन से यह संसार संचालित और संतुलित है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। नारी प्रकृति है और नर पुरुष। प्रकृति के बिना पुरुष बेकार है और पुरुष के बिना प्रकृति। दोनों का अन्योन्याश्रय संबंध है। अर्धनारीश्वर शिव इसी पारस्परिकता के प्रतीक हैं। आधुनिक समय में स्त्री-पुरुष की बराबरी पर जो इतना जोर है, उसे शिव के इस स्वरूप में बखूबी देखा-समझा जा सकता है। यह बताता है कि शिव जब शक्ति युक्त होता है तभी समर्थ होता है। शक्ति के अभाव में शिव 'शिव' न होकर 'शव' रह जाता है।

नीलकंठ क्यों

अमृत पाने की इच्छा से जब देव-दानव बड़े जोश और वेग से मंथन कर 
रहे थे, तभी समुद से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएं जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया। देवताओं और दैत्यों सहित ऋषि, मुनि, मनुष्य, गंधर्व और यक्ष आदि उस विष की गरमी से जलने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर, भगवान शिव विषपान के लिए तैयार हो गए। उन्होंने भयंकर विष को हथेलियों में भरा और भगवान विष्णु का स्मरण कर उसे पी गए। भगवान विष्णु अपने भक्तों के संकट हर लेते हैं। उन्होंने उस विष को शिवजी के कंठ (गले) में ही रोक कर उसका प्रभाव खत्म कर दिया। विष के कारण भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया और वे संसार में नीलकंठ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

भोले बाबा

शिव पुराण में एक शिकारी की कथा है। एकबार उसे जंगल में देर हो गई। तब उसने एक बेल वृक्ष पर रात बिताने का निश्चय किया। जगे रहने के लिए उसने एक तरकीब सोची। वह सारी रात एक-एक पत्ता तोड़कर नीचे फेंकता रहा। कथानुसार, बेल के पत्ते शिव को बहुत प्रिय हैं। बेल वृक्ष के ठीक नीचे एक शिवलिंग था। शिवलिंग पर प्रिय पत्तों का अर्पण होते देख शिव प्रसन्न हो उठे, जबकि शिकारी को अपने शुभ काम का अहसास न था। उन्होंने शिकारी को दर्शन देकर उसकी मनोकामना पूरी होने का वरदान दिया। कथा से यह साफ है कि शिव कितनी आसानी से प्रसन्न हो जाते हैं। शिव महिमा की ऐसी कथाओं और बखानों से पुराण भरे पड़े हैं।

शिव स्वरूप

भगवान शिव का रूप-स्वरूप जितना विचित्र है, उतना ही आकर्षक भी। शिव जो धारण करते हैं, उनके भी बड़े व्यापक अर्थ हैं :

  • जटाएं : शिव की जटाएं अंतरिक्ष का प्रतीक हैं।
  • चंद्र : चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन चांद की तरह भोला, निर्मल, उज्ज्वल और जाग्रत है।
  • त्रिनेत्र : शिव की तीन आंखें हैं। इसीलिए इन्हें त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव की ये आंखें सत्व, रज, तम (तीन गुणों), भूत, वर्तमान, भविष्य (तीन कालों), स्वर्ग, मृत्यु पाताल (तीनों लोकों) का प्रतीक हैं।
  • सर्पहार : सर्प जैसा हिंसक जीव शिव के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक जीव है, जिसे शिव ने अपने वश में कर रखा है।
  • त्रिशूल : शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशूल भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है।
  • डमरू : शिव के एक हाथ में डमरू है, जिसे वह तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्मा रूप है।
  • मुंडमाला : शिव के गले में मुंडमाला है, जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में किया हुआ है।
  • छाल : शिव ने शरीर पर व्याघ्र चर्म यानी बाघ की खाल पहनी हुई है। व्याघ्र हिंसा और अहंकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा और अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है।
  • भस्म : शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से किया जाता है। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है।
  • वृषभ : शिव का वाहन वृषभ यानी बैल है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ धर्म का प्रतीक है। महादेव इस चार पैर वाले जानवर की सवारी करते हैं, जो बताता है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनकी कृपा से ही मिलते हैं।

इस तरह शिव-स्वरूप हमें बताता है कि उनका रूप विराट और अनंत है, महिमा अपरंपार है। उनमें ही सारी सृष्टि समाई हुई है।

महामृत्युंजय मंत्र

शिव के साधक को न तो मृत्यु का भय रहता है, न रोग का, न शोक का। शिव तत्व उनके मन को भक्ति और शक्ति का सामर्थ्य देता है। शिव तत्व का ध्यान महामृत्युंजय मंत्र के जरिए किया जाता है। इस मंत्र के जाप से भगवान शिव की कृपा मिलती है। शास्त्रों में इस मंत्र को कई कष्टों का निवारक बताया गया है। यह मंत्र यों हैं : ओम् त्र्यम्बकं यजामहे, सुगंधिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनात्, मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।

(भावार्थ : हम भगवान शिव की पूजा करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो हर श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं और पूरे जगत का पालन-पोषण करते हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे हमें मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर दें, ताकि मोक्ष की प्राप्ति हो जाए, उसी उसी तरह से जैसे एक खरबूजा अपनी बेल में पक जाने के बाद उस बेल रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है।)


क्या है महाशिवरात्रि
  • - भगवान शिव हिंदुओं के प्रमुख देवताओं में से एक हैं, जिन्हें हिंदू बड़ी ही आस्था और श्रद्धा के साथ स्वीकारते और पूजते हैं।
  • - यूं तो शिव की उपासना के लिए सप्ताह के सभी दिन अच्छे हैं, फिर भी सोमवार को शिव का प्रतीकात्मक दिन कहा गया है। इस दिन शिव की विशेष पूजा-अर्चना करने का विधान है।
  • - हर महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि कहते हैं। लेकिन फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी पर पड़ने वाली शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहा जाता है, जिसे बड़े ही हषोर्ल्लास और भक्ति के साथ मनाया जाता है।
  • - शिवरात्रि बोधोत्सव है। ऐसा महोत्सव, जिसमें अपना बोध होता है कि हम भी शिव का अंश हैं, उनके संरक्षण में हैं।
  • - माना जाता है कि सृष्टि की शुरुआत में इसी दिन आधी रात में भगवान शिव का निराकार से साकार रूप में (ब्रह्मा से रुद के रूप में) अवतरण हुआ था।
  • - ईशान संहिता में बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात आदि देव भगवान श्री शिव करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाले लिंगरूप में प्रकट हुए।
  • - ज्योतिष शास्त्र के मुताबिक फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि में चंदमा सूर्य के नजदीक होता है। उसी समय जीवनरूपी चंदमा का शिवरूपी सूर्य के साथ योग-मिलन होता है। इसलिए इस चतुर्दशी को शिवपूजा करने का विधान है।
  • - प्रलय की बेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से भस्म कर देते हैं। इसलिए इसे महाशिवरात्रि या जलरात्रि भी कहा गया है।
  • - इस दिन भगवान शिव की शादी भी हुई थी। इसलिए रात में शिव जी की बारात निकाली जाती है। रात में पूजा कर फलाहार किया जाता है। अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेल पत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है।

!!! कहानी नंदी की !!!




पुराणों में यह कथा मिलती है कि शिलाद मुनि के ब्रह्मचारी हो जाने के कारण वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने अपनी चिंता उनसे व्यक्त की। शिलाद निरंतर योग तप आदि में व्यस्त रहने के कारण गृहस्थाश्रम नहीं अपनाना चाहते थे अतः उन्होंने संतान की कामना से इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर जन्म और मृत्यु से हीन पुत्र का वरदान माँगा। इंद्र ने इसमें असर्मथता प्रकट की तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। तब शिलाद ने कठोर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया और उनके ही समान मृत्युहीन तथा दिव्य पुत्र की माँग की।


भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। उसको बड़ा होते देख भगवान शंकर ने मित्र और वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम में भेजे जिन्होंने नंदी को देखकर भविष्यवाणी की कि नंदी अल्पायु है। नंदी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह महादेव की आराधना से मृत्यु को जीतने के लिए वन में चला गया। वन में उसने शिव का ध्यान आरंभ किया। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन वरदान दिया- वत्स नंदी! तुम मृत्यु से भय से मुक्त, अजर-अमर और अदु:खी हो। मेरे अनुग्रह से तुम्हे जरा, जन्म और मृत्यु किसी से भी भय नहीं होगा।"

भगवान शंकर ने उमा की सम्मति से संपूर्ण गणों, गणेशों व वेदों के समक्ष गणों के अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक करवाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ। भगवान शंकर का वरदान है कि जहाँ पर नंदी का निवास होगा वहाँ उनका भी निवास होगा। तभी से हर शिव मंदिर में शिवजी के सामने नंदी की स्थापना की जाती है।

शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ अर्थात परिश्रम का प्रतीक है। नंदी का एक संदेश यह भी है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है। जैसे नंदी की दृष्टि शिव की ओर होती है, उसी तरह हमारी दृष्टि भी आत्मा की ओर होनी चाहिये। हर व्यक्ति को अपने दोषों को देखना चाहिए। हमेशा दूसरों के लिए अच्छी भावना रखना चाहिए। नंदी यह संकेत देता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है। इसे ही सामान्य भाषा में मन का स्वच्छ होना कहते हैं। जिससे शरीर भी स्वस्थ होता है और शरीर के निरोग रहने पर ही मन भी शांत, स्थिर और दृढ़ संकल्प से भरा होता है। इस प्रकार संतुलित शरीर और मन ही हर कार्य और लक्ष्य में सफलता के करीब ले जाते हुए मनुष्य अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है।

धर्म शास्त्रों में उल्लेख है कि जब शिव अवतार नंदी का रावण ने अपमान किया तो नंदी ने उसके सर्वनाश को घोषणा कर दी थी। रावण संहिता के अनुसार कुबेर पर विजय प्राप्त कर जब रावण लौट रहा था तो वह थोड़ी देर कैलाश पर्वत पर रुका था। वहाँ शिव के पार्षद नंदी के कुरूप स्वरूप को देखकर रावण ने उसका उपहास किया। नंदी ने क्रोध में आकर रावण को यह श्राप दिया कि मेरे जिस पशु स्वरूप को देखकर तू इतना हँस रहा है। उसी पशु स्वरूप के जीव तेरे विनाश का कारण बनेंगे।

नंदी का एक रूप सबको आनंदित करने वाला बी है। सबको आनंदित करने के कारण ही भगवान शिव के इस अवतार का नाम नंदी पड़ा। शास्त्रों में इसका उल्लेख इस प्रकार है-

त्वायाहं नंन्दितो यस्मान्नदीनान्म सुरेश्वर।
तस्मात् त्वां देवमानन्दं नमामि जगदीश्वरम।। 
-शिवपुराण शतरुद्रसंहिता ६/४५

अर्थात नंदी के दिव्य स्वरूप को देख शिलाद मुनि ने कहा तुमने प्रगट होकर मुझे आनंदित किया है। अत: मैं आनंदमय जगदीश्वर को प्रणाम करता हूं।

नासिक शहर के प्रसिद्ध पंचवटी स्थल में गोदावरी तट के पास एक ऐसा शिवमंदिर है जिसमें नंदी नहीं है। अपनी तरह का यह एक अकेला शिवमंदिर है। पुराणों में कहा गया है कि कपालेश्वर महादेव मंदिर नामक इस स्थल पर किसी समय में भगवान शिवजी ने निवास किया था। यहाँ नंदी के अभाव की कहानी भी बड़ी रोचक है। यह उस समय की बात है जब ब्रह्मदेव के पाँच मुख थे। चार मुख वेदोच्चारण करते थे, और पाँचवाँ निंदा करता था। उस निंदा से संतप्त शिवजी ने उस मुख को काट डाला। इस घटना के कारण शिव जी को ब्रह्महत्या का पाप लग गया। उस पाप से मुक्ति पाने के लिए शिवजी ब्रह्मांड में हर जगह घूमे लेकिन उन्हें मुक्ति का उपाय नहीं मिला। एक दिन जब वे सोमेश्वर में बैठे थे, तब एक बछड़े द्वारा उन्हें इस पाप से मुक्ति का उपाय बताया गया। कथा में बताया गया है कि यह बछड़ा नंदी था। वह शिव जी के साथ गोदावरी के रामकुंड तक गया और कुंड में स्नान करने को कहा। स्नान के बाद शिव जी ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो सके। नंदी के कारण ही शिवजी की ब्रह्म हत्या से मुक्ति हुई थी। इसलिए उन्होंने नंदी को गुरु माना और अपने सामने बैठने को मना किया।

आज भी माना जाता है कि पुरातन काल में इस टेकरी पर शिवजी की पिंडी थी। अब तक वह एक विशाल मंदिर बन चुकी है। पेशवाओं के कार्यकाल में इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ। मंदिर की सीढि़याँ उतरते ही सामने गोदावरी नदी बहती नजर आती है। उसी में प्रसिद्ध रामकुंड है। भगवान राम में इसी कुंड में अपने पिता राजा दशरथ के श्राद्ध किए थे। इसके अलावा इस परिसर में काफी मंदिर है। लेकिन इस मंदिर में आज तक कभी नंदी की स्थापना नहीं की गई।


!!! शिव पुराण !!!


शिव का अर्थ है कल्याण। शिव के महात्मय से ओत-प्रोत से यह पुराण शिव महापुराण के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान शिव पापों का नाश करने वाले देव हैं तथा बड़े सरल स्वभाव के हैं। इनका एक नाम भोला भी है। अपने नाम के अनुसार ही बड़े भोले-भाले एवं शीघ्र ही प्रसन्न होकर भक्तों को मनवाँछित फल देने वाले हैं। 18 पुराणों में कहीं शिव पुराण तो कहीं वायु पुराण का वर्णन आता है। शिव पुराण में 12 संहितायें हैं।


1. विघ्नेश्वर संहिता 2. रौद्र संहिता 3. वैनायक संहिता

4. भौम संहिता 5. मात्र संहिता 6. रूद्रएकादश संहिता

7. कैलाश संहिता 8. शत् रूद्र संहिता 9. कोटि रूद्र संहिता

10. सहस्र कोटि रूद्र संहिता 11. वायवीय संहिता 12. धर्म संहिता



विघ्नेश्वर तथा रौद्रं वैनायक मनुत्तमम्। भौमं मात्र पुराणं च रूद्रैकादशं तथा।

कैलाशं शत्रूद्रं च कोटि रूद्राख्यमेव च। सहस्रकोटि रूद्राख्यंवायुवीय ततःपरम्

धर्मसंज्ञं पुराणं चेत्यैवं द्वादशः संहिता। तदैव लक्षणमुदिष्टं शैवं शाखा विभेदतः

इन संहिताओं के श्रवण करने से मनुष्य के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा शिव धाम की प्राप्ति हो जाती है। शिव पुराण के अनुसार भगवान नारायण जब जल में शयन कर रहे थे तभी उनकी नाभि से एक सुन्दर एवं विशाल कमल प्रकट हुआ। उस कमल में ब्रह्मा जी उत्पन्न हुये। माया के वश में होने के कारण ब्रह्मा जी अपनी उत्पत्ति के कारण को नहीं जान सके। 


चारों ओर उन्हें जल ही जल दिखायी पड़ा तब आकाशवाणी हुयी, ‘‘तपस्या करो’’। बारह वर्षों तक तपस्या करने के पश्चात् भगवान विष्णु ने चतुर्भुज रूप में उन्हें दर्शन दिये और कहा मैंनें तुम्हें सत्व गुण से निर्माण किया है लेकिन मायावश ब्रह्मा जी विष्णुजी के स्वरूप को न जानकर उनसे युद्ध करने लगे। तब दोनों के विवाद को शान्त करने के लिये एक अद्भुत ज्योर्तिलिंग का अर्विभाव हुआ। दोनों बड़े आश्चर्य के साथ इस ज्योर्तिलिंग को देखते रहे और इसका स्वरूप जानने के लिये ब्रह्मा हंस स्वरूप बनाकर ऊपर की ओर और विष्णु वाराह स्वरूप धारण कर नीचे की ओर गये। लेकिन दोनों ही ज्योर्तिलिंग के आदि-अन्त का पता नहीं कर सके।



इस प्रकार 100 वर्ष बीत गये। इसके पश्चात् ज्योर्तिलिंग से उन्हें ओंकार शब्द का नाद सुनायी पड़ा और पँचमुखी एक मुर्ति दिखायी पड़ी। ये ही शिव थे। ब्रह्मा और विष्णु ने उन्हें प्रणाम किया, तब शिव ने कहा, ‘‘कि तुम दोनों मेरे ही अंश से उत्पन्न हुये हो।’’ और ब्रह्मा को सृष्टि की रचना एवं विष्णु को सृष्टि का पालन करने की जिम्मेदारी प्रदान की। शिव पुराण में 24000 श्लोक हैं। इसमें तारकासुर वध, मदन दाह, पार्वती की तपस्या, शिव-पावती विवाह, कार्तिकेय का जन्म, त्रिपुर का वध, केतकी के पुष्प शिव पुजा में निषेद्य, रावण की शिव-भक्ति आदि प्रसंग वर्णित हैं।



भगवान शंकर पूजन से शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं। शिवजी अपने भक्तों को कष्ट में नहीं देख सकते और अभिष्ट फल प्रदान करते हैं। भगवान शंकर का एक नाम नीलकंठ महादेव भी है। जब देवता और असुर लोगों ने मिलकर समुद्र से अमृत निकालने के लिये समुद्र-मंथन किया लेकिन अभी दूर-दूर तक अमृत का कोई नामो-निशान नहीं था कि समुद्र से भयंकर विष निकल पड़ा। जिससे समस्त देवता, दानव-मानव, सभी झुलसने लगे। तब भगवान शंकर ने ही प्राणियों एवं जीव-जगत की रक्षा हेतु उस हलाहल विष का पान कर अपने कण्ठ में धारण किया। तब से भगवान शंकर का एक नाम नीलकण्ठ महादेव पड़ गया।

शिवपुराण सुनने का फल:-


शिवपुराण में वर्णन आया है कि जो भी श्रद्धा से शिव पुराण कथा का श्रवण करता है वह जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है और भगवान शंकर के परम धाम को प्राप्त करता है। अन्य देवताओं की अपेक्षा भगवान शंकर जल्द ही प्रसन्न हो जाते हैं और थोड़ी सी पूजा का बहुत-बड़ा फल प्रदान करते हैं।
एक बार भष्मासुर ने भगवान शंकर की तपस्या कर इच्छित वर माँग लिया कि मैं जिसके सिर पर हाथ रखुँ वह भष्म हो जाये। भगवान शंकर इतने भोले-भाले कि बिना सोचे-समझे उन्होंनें भष्मासुर को तथास्तु कहकर इच्छित वर प्रदान किया। भष्मासुर ने सोचा कि पहले शंकर जी को ही भष्म करके देखता हूँ। भष्मासुर भगवान शंकर के पीछे दौड़ पड़े। भगवान शंकर दौड़ते हुये भगवान विष्णु के पास जा पहुँचे। सो भगवान विष्णु ने मोहिनी स्वरूप धारण कर भष्मासुर का हाथ उसके अपने सिर पर रखवा कर भगवान शंकर की रक्षा की।

इसलिये भगवान शंकर की थोड़ी भी पूजा कर दी जाये तो वह प्रसन्न हो बहुत ज्यादा फल देते हैं। जो शिव पुराण की कथा श्रवण करते हैं उन्हें कपिला गायदान के बराबर फल मिलता है। पुत्रहीन को पुत्र, मोक्षार्थी को मोक्ष प्राप्त होता है तथा उस जीव के कोटि जन्म पाप नष्ट हो जाते हैं और शिव धाम की प्राप्ति होती है। इसलिये शिव पुराण कथा का श्रवण अवश्य करना चाहिये।

शिव पुराण करवाने का मुहुर्त:-

शिव पुराण कथा करवाने के लिये सर्वप्रथम विद्वान ब्राह्मणों से उत्तम मुहुर्त निकलवाना चाहिये। शिव पुराण के लिये श्रावण-भाद्रपद, आश्विन, अगहन, माघ, फाल्गुन, बैशाख और ज्येष्ठ मास विशेष शुभ हैं। लेकिन विद्वानों के अनुसार जिस दिन शिव पुराण कथा प्रारम्भ कर दें, वही शुभ मुहुर्त है।


शिव पुराण का आयोजन कहाँ करें?:-

शिव पुराण करवाने के लिये स्थान अत्यधिक पवित्र होना चाहिये। जन्म भूमि में शिव पुराण करवाने का विशेष महत्व बताया गया है - जननी जन्मभूमिश्चः स्वर्गादपि गरियशी - इसके अतिरिक्त हम तीर्थों में भी शिव पुराण का आयोजन कर विशेष फल प्राप्त कर सकते हैं। फिर भी जहाँ मन को सन्तोष पहुँचे, उसी स्थान पर कथा करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है।

शिव पुराण करने के नियम:-

शिव पुराण का वक्ता विद्वान ब्राह्मण होना चाहिये। उसे शास्त्रों एवं वेदों का सम्यक् ज्ञान होना चाहिये। शिव पुराण में सभी ब्राह्मण सदाचारी हों और सुन्दर आचरण वाले हों। वो सन्ध्या बन्धन एवं प्रतिदिन गायत्री जाप करते हों। ब्राह्मण एवं यजमान दोनों ही सात दिनों तक उपवास रखें। केवल एक समय ही भोजन करें। भोजन शुद्ध शाकाहारी होना चाहिये। स्वास्थ्य ठीक न हो तो भोजन कर सकते हैं।

शिव पुराण में कितना धन लगता है?:-

इस भौतिक युग में बिना धन के कुछ भी सम्भव नहीं एवं बिना धन के धर्म भी नहीं होता। पुराणों में वर्णन है कि पुत्री के विवाह में जितना धन लगे उतना ही धन शिव पुराण में लगाना चाहिये और पुत्री के विवाह में जितनी खुशी हो उतनी ही खुशी मन से शिव पुराण को करना चाहिये।

‘‘विवाहे यादष्शं वित्तं तादष्श्यं परिकल्पयेत’’



!!! घर में पारद शिवलिंग सौभाग्य !!!

घर में पारद शिवलिंग सौभाग्य, शान्ति, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के लिए अत्यधिक सौभाग्यशाली है। दुकान, ऑफिस व फैक्टरी में व्यापारी को बढाऩे के लिए पारद शिवलिंग का पूजन एक अचूक उपाय है। शिवलिंग के मात्र दर्शन ही सौभाग्यशाली होता है। इसके लिए किसी प्राणप्रतिष्ठा की आवश्कता नहीं हैं। पर इसके ज्यादा लाभ उठाने के लिए पूजन विधिक्त की जानी चाहिए।

पूजन की विधि यहाँ पर दी जा रही है।

सर्वप्रथम शिवलिंग को सफेद कपड़े पर आसन पर रखें।
स्वयं पूर्व-उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठ जाए।
अपने आसपास जल, गंगाजल, रोली, मोली, चावल, दूध और हल्दी, चन्दन रख लें।

सबसे पहले पारद शिवलिंग के दाहिनी तरफ दीपक जला कर रखो।
थोडा सा जल हाथ में लेकर तीन बार निम्न मन्त्र का उच्चारण करके पी लें।

प्रथम बार ॐ मुत्युभजाय नम:
दूसरी बार ॐ नीलकण्ठाय: नम:
तीसरी बार ॐ रूद्राय नम:
चौथी बार ॐशिवाय नम:

हाथ में फूल और चावल लेकर शिवजी का ध्यान करें और मन में ''ॐ नम: शिवाय`` का 5 बार स्मरण करें और चावल और फूल को शिवलिंग पर चढ़ा दें।


इसके बाद ॐ नम: शिवाय का निरन्तर उच्चारण करते रहे।

फिर हाथ में चावल और पुष्प लेकर ''ॐ पार्वत्यै नम:`` मंत्र का उच्चारण कर माता पार्वती का ध्यान कर चावल पारा शिवलिंग पर चढ़ा दें।
इसके बाद ॐ नम: शिवाय का निरन्तर उच्चारण करें।
फिर मोली को और इसके बाद बनेऊ को पारद शिवलिंग पर चढ़ा दें।
इसके पश्चात हल्दी और चन्दन का तिलक लगा दे।
चावल अर्पण करे इसके बाद पुष्प चढ़ा दें।
मीठे का भोग लगा दे।


भांग, धतूरा और बेलपत्र शिवलिंग पर चढ़ा दें।
फिर अन्तिम में शिव की आरती करे और प्रसाद आदि ले लो।
जो व्यक्ति इस प्रकार से पारद शिवलिंग का पूजन करता है इसे शिव की कृपा से सुख समृद्धि आदि की प्राप्ति होती है।


!!! वैदिक १६ संस्कार !!!


वैदिक कर्मकाण्ड के अनुसार निम्न सोलह संस्कार होते हैं:

1. गर्भाधान संस्कारः उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये प्रथम संस्कार।
2. पुंसवन संस्कारः गर्भस्थ शिशु के बौद्धि एवं मानसिक विकास हेतु गर्भाधान के पश्चात् दूसरे या तीसरे महीने किया जाने वाला द्वितीय संस्कार।

3. सीमन्तोन्नयन संस्कारः माता को प्रसन्नचित्त रखने के लिये, ताकि गर्भस्थ शिशु सौभाग्य सम्पन्न हो पाये, गर्भाधान के पश्चात् आठवें माह में किया जाने वाला तृतीय संस्कार।

4. जातकर्म संस्कारः नवजात शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना हेतु किया जाने वाला चतुर्थ संस्कार।

5. नामकरण संस्कारः नवजात शिशु को उचित नाम प्रदान करने हेतु जन्म के ग्यारह दिन पश्चात् किया जाने वाला पंचम संस्कार।


6. निष्क्रमण संस्कारः शिशु के दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करने की कामना के लिये जन्म के तीन माह पश्चात् चौथे माह में किया जाने वला षष्ठम संस्कार।


7. अन्नप्राशन संस्कारः शिशु को माता के दूध के साथ अन्न को भोजन के रूप में प्रदान किया जाने वाला जन्म के पश्चात् छठवें माह में किया जाने वाला सप्तम संस्कार।


8. चूड़ाकर्म (मुण्डन) संस्कारः शिशु के बौद्धिक, मानसिक एवं शारीरिक विकास की कामना से जन्म के पश्चात् पहले, तीसरे अथवा पाँचवे वर्ष में किया जाने वाला अष्टम संस्कार।


9. विद्यारम्भ संस्कारः जातक को उत्तमोत्तम विद्या प्रदान के की कामना से किया जाने वाला नवम संस्कार।


10. कर्णवेध संस्कारः जातक की शारीरिक व्याधियों से रक्षा की कामना से किया जाने वाला दशम संस्कार।


11. यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कारः जातक की दीर्घायु की कामना से किया जाने वाला एकादश संस्कार।


12. वेदारम्भ संस्कारः जातक के ज्ञानवर्धन की कामना से किया जाने वाला द्वादश संस्कार।


13. केशान्त संस्कारः गुरुकुल से विदा लेने के पूर्व किया जाने वाला त्रयोदश संस्कार।


14. समावर्तन संस्कारः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से किया जाने वाला चतुर्दश संस्कार।


15. पाणिग्रहण संस्कारः पति-पत्नी को परिणय-सूत्र में बाँधने वाला पंचदश संस्कार।


16. अन्त्येष्टि संस्कारः मृत्योपरान्त किया जाने वाला षष्ठदश संस्कार।


उपरोक्त सोलह संस्कारों में आजकल नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म (मुण्डन), यज्ञोपवीत (उपनयन), पाणिग्रहण और अन्त्येष्टि संस्कार ही चलन में बाकी रह गये हैं।


!!! कलियुग का आगमन की कथा !!!

धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव पाँचों पाण्डव महापराक्रमी परीक्षित को राज्य देकर महाप्रयाण हेतु उत्तराखंड की ओर चले गये और वहाँ जाकर पुण्यलोक को प्राप्त हुये। राजा परीक्षित धर्म के अनुसार तथा ब्राह्नणों की आज्ञानुसार शासन करने लगे। उत्तर नरेश की पुत्री इरावती के साथ उन्होंने अपना विवाह किया और उस उत्तम पत्नी से उनके चार पुत्र उत्पन्न हुये। आचार्य कृप को गुरु बना कर उन्होंने जाह्नवी के तट पर तीन अश्वमेघ यज्ञ किये। उन यज्ञों में अनन्त धन राशि ब्रह्मणों को दान में दी और दिग्विजय हेतु निकल गये।

उन्हीं दिनों धर्म ने बैल का रूप बना कर गौरूपिणी पृथ्वी से सरस्वती तट पर भेंट किया। गौरूपिणी पृथ्वी की नेत्रों से अश्रु बह रहे थे और वह श्रीहीन सी प्रतीत हो रही थी। धर्म ने पृथ्वी से पूछा - "हे देवि! तुम्हारा मुख मलिन क्यों हो रहा है? किस बात की तुम्हें चिन्ता है? कहीं तुम मेरी चिन्ता तो नहीं कर रही हो कि अब मेरा केवल एक पैर ही रह गया है या फिर तुम्हें इस बात की चिन्ता है कि अब तुम पर शूद्र राज्य करेंगे?"

पृथ्वी बोली - "हे धर्म! तुम सर्वज्ञ होकर भी मुझ से मेरे दुःख का कारण पूछते हो! सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, सन्तोष, त्याग, शम, दम, तप, सरलता, क्षमता, शास्त्र विचार, उपरति, तितिक्षा, ज्ञान, वैराग्य, शौर्य, तेज, ऐश्वर्य, बल, स्मृति, कान्ति, कौशल, स्वतन्त्रता, निर्भीकता, कोमलता, धैर्य, साहस, शील, विनय, सौभाग्य, उत्साह, गम्भीरता, कीर्ति, आस्तिकता, स्थिरता, गौरव, अहंकारहीनता आदि गुणों से युक्त भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन के कारण घोर कलियुग मेरे ऊपर आ गया है। मुझे तुम्हारे साथ ही साथ देव, पितृगण, ऋषि, साधु, सन्यासी आदि सभी के लिये महान शोक है। भगवान श्रीकृष्ण के जिन चरणों की सेवा लक्ष्मी जी करती हैं उनमें कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि के चिह्न विराजमान हैं और वे ही चरण मुझ पर पड़ते थे जिससे मैं सौभाग्यवती थी। अब मेरा सौभाग्य समाप्त हो गया है।" जब धर्म और पृथ्वी ये बातें कर ही रहे थे कि मुकुटधारी शूद्र के रूप में कलियुग वहाँ आया और उन दोनों को मारने लगा।

राजा परीक्षित दिग्विजय करते हुये वहीं पर से गुजर रहे थे। उन्होंने मुकुटधारी शूद्र को हाथ में डण्डा लिये एक गाय और एक बैल को बुरी तरह पीटते देखा। वह बैल अत्यन्त सुन्दर था, उसका श्वेत रंग था और केवल एक पैर था। गाय भी कामधेनु के समान सुन्दर थी। दोनों ही भयभीत हो कर काँप रहे थे। महाराज परीक्षित अपने धनुषवाण को चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी में ललकारे - "रे दुष्ट! पापी! नराधम! तू कौन है? इन निरीह गाय तथा बैल क्यों सता रहा है? तू महान अपराधी है। तेरे अपराध का उचित दण्ड तेरा वध ही है।" उनके इन वचनों को सुन कर कलियुग भय से काँपने लगा।

महाराज ने बैल से पूछा कि हे बैल तुम्हारे तीन पैर कैस टूटे गये हैं। तुम बैल हो या कोई देवता हो। हे धेनुपुत्र! तुम निर्भीकतापूर्वक अपना अपना वृतान्त मुझे बताओ। हे गौमाता! अब तुम भयमुक्त हो जाओ। मैं दुष्टों को दण्ड देता हूँ। किस दुष्ट ने मेरे राज्य में घोर पाप कर के पाण्डवों की पवित्र कीर्ति में यह कलंक लगाया है? चाहे वह पापी साक्षात् देवता ही क्यों न हो मैं उसके भी हाथ काट दूँगा। तब धर्म बोला - "हे महाराज! आपने भगवान श्रीकृष्ण के परमभक्त पाण्डवों के कुल में जन्म लिया है अतः ये वचन आप ही के योग्य हैं। हे राजन्! हम यह नहीं जानते कि संसार के जीवों को कौन क्लेश देता है। शास्त्रों में भी इसका निरूपण अनेक प्रकार से किया गया है। जो द्वैत को नहीं मानता वह दुःख का कारण अपने आप को ही स्वीकार करता हैं। कोई प्रारब्ध को ही दुःख का कारण मानता है और कोई कर्म को ही दुःख का निमित्त समझता है। कतिपय विद्वान स्वभाव को और कतिपय ईश्वर को भी दुःख का कारण मानते हैं। अतः हे राजन्! अब आप ही निश्चित कीजिये कि दुःख का कारण कौन है।"

सम्राट परीक्षित उस बैल के वचनों को सुन कर बोले - "हे वृषभ! आप अवश्य ही बैल के रूप में धर्म हैं और यह गौरूपिणी पृथ्वी माता है। आप धर्म के मर्म को भली-भाँति जानते हैं। आप किसी की चुगली नहीं कर सकते इसीलिये आप दुःख देने वाले का नाम नहीं बता रहे हैं। हे धर्म! सतयुग में आपके तप, पवित्रता, दया और सत्य चार चरण थे। त्रेता में तीन चरण रह गये, द्वापर में दो ही रह गये और अब इस दुष्ट कलियुग के कारण आपका एक ही चरण रह गया है। यह अधर्मरूपी कलियुग अपने असत्य से उस चरण को भी नष्ट करने का प्रयत्न कर रहा है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन से दुष्ट पापी शूद्र राजा लोग इस गौरूपिणी पृथ्वी को भोगेंगे इसी कारण से यह माता भी दुःखी हैं।"
इतना कह कर राजा परीक्षीत ने उस पापी शूद्र राजवेषधारी कलियुग को मारने के लिये अपनी तीक्ष्ण धार वाली तलवार निकाली। कलियुग ने भयभीत होकर अपने राजसी वेष को उतार कर राजा परीक्षित के चरणों में गिर गया और त्राहि-त्राहि कहने लगा। राजा परीक्षित बड़े शरणागत वत्सल थे, उनहोंने शरण में आये हुये कलियुग को मारना उचित न समझा और कलियुग से कहा - "हे कलियुग! तू मेरे शरण में आ गया है इसलिये मैंने तुझे प्राणदान दिया। किन्तु अधर्म, पाप, झूठ, चोरी, कपट, दरिद्रता आदि अनेक उपद्रवों का मूल कारण केवल तू ही है। अतः तू मेरे राज्य से तुरन्त निकल जा और लौट कर फिर कभी मत आना।"

राजा परीक्षित के इन वचनों को सुन कर कलियुग ने कातर वाणी में कहा - "हे राजन्! आपका राज्य तो सम्पूर्ण पृथ्वी पर है, आपके राज्य से बाहर ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ पर कि मैं निवास कर सकूँ। हे भूपति! आप बड़े दयालु हैं, आपने मुझे शरण दिया है। अब दया करके मेरे निवास का भी कुछ न कुछ प्रबन्ध आपको करना ही होगा।"

कलियुग इस तरह कहने पर राजा परीक्षित सोच में पड़ गये। फिर विचार कर के उन्होंने कहा - "हे कलियुग! द्यूत, मद्यपान, परस्त्रीगमन और हिंसा इन चार स्थानों में असत्य, मद, काम और क्रोध का निवास होता है। इन चार स्थानों में निवास करने की मैं तुझे छूट देता हूँ।" इस पर कलियुग बोला - "हे उत्तरानन्दन! ये चार स्थान मेरे निवास के लिये अपर्याप्त हैं। दया करके कोई और भी स्थान मुझे दीजिये।" कलियुग के इस प्रकार माँगने पर राजा परीक्षित ने उसे पाँचवा स्थान 'स्वर्ण' दिया। कलियुग इन स्थानों के मिल जाने से प्रत्यक्षतः तो वहाँ से चला गया किन्तु कुछ दूर जाने के बाद अदृष्य रूप में वापस आकर राजा परीक्षित के स्वर्ण मुकुट में निवास करने लगा।



!!! शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव के दस प्रमुख अवतार !!!


शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव के दस प्रमुख अवतार ।
यह दस अवतार इस प्रकार है जो मानव को सभी इच्छित फल प्रदान करने वाले हैं-

1. महाकाल- शिव के दस प्रमुख अवतारों में पहला अवतार महाकाल नाम से विख्यात हैं। भगवान शिव का महाकाल स्वरुप अपने भक्तों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला परम कल्याणी हैं। इस अवतार की शक्ति मां महाकाली मानी जाती हैं।
2. तार- शिव के दस प्रमुख अवतारों में दूसरा अवतार तार नाम से विख्यात हैं। भगवान शिव का तार स्वरुप अपने भक्तों को भुक्ति-मुक्ति दोनों फल प्रदान करने वाला हैं। इस अवतार की शक्ति तारादेवी मानी जाती हैं।
3. बाल भुवनेश- शिव के दस प्रमुख अवतारों में तीसरा अवतार बाल भुवनेश नाम से विख्यात हैं। भगवान शिव का बाल भुवनेश स्वरुप अपने भक्तों को सुख, समृद्धि और शांति प्रदान करने वाला हैं। इस अवतार की शक्ति को बाला भुवनेशी माना जाता हैं।
4.षोडश श्रीविद्येश- शिव के दस प्रमुख अवतारों में चौथा अवतार षोडश श्रीविद्येश नाम से विख्यात हैं। भगवान शिव का षोडश श्रीविद्येश स्वरुप अपने भक्तों को सुख, भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला हैं। इस अवतार की शक्ति को देवी षोडशी श्रीविद्या माना जाता हैं।
5. भैरव- शिव के दस प्रमुख अवतारों में पांचवा अवतार भैरव नाम से विख्यात हैं। भगवान शिव का भैरव स्वरुप अपने भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करने वाला हैं। इस अवतार की शक्ति भैरवी गिरिजा मानी जाती हैं।
6. छिन्नमस्तक- शिव के दस प्रमुख अवतारों में छठा अवतार छिन्नमस्तक नाम से विख्यात हैं। भगवान शिव का छिन्नमस्तक स्वरुप अपने भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला हैं। इस अवतार की शक्ति देवी छिन्नमस्ता मानी जाती हैं।
7. धूमवान- शिव के दस प्रमुख अवतारों में सातवां अवतार धूमवान नाम से विख्यात हैं। भगवान शिव का धूमवान स्वरुप अपने भक्तों की सभी प्रकार से श्रेष्ठ फल देने वाला हैं। इस अवतार की शक्ति को देवी धूमावती माना जाता हैं।
8. बगलामुख- शिव के दस प्रमुख अवतारों में आठवां अवतार बगलामुख नाम से विख्यात हैं। भगवान शिव का बगलामुख स्वरुप अपने भक्तों को परम आनंद प्रदान करने वाला हैं। इस अवतार की शक्ति को देवी बगलामुखी माना जाता हैं।
9. मातंग- शिव के दस प्रमुख अवतारों में नौवां अवतार मातंग के नाम से विख्यात हैं। भगवान शिव का मातंग स्वरुप अपने भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला हैं। इस अवतार की शक्ति को देवी मातंगी माना जाता हैं।
10. कमल- शिव के दस प्रमुख अवतारों में दसवां अवतार कमल नाम से विख्यात हैं। भगवान शिव का कमल स्वरुप अपने भक्तों को भुक्ति और मुक्ति प्रदान करने वाला हैं। इस अवतार की शक्ति को देवी कमला माना जाता हैं।
विद्वानो के मत से उक्त शिव के सभी प्रमुख अवतार व्यक्ति को सुख, समृद्धि, भोग, मोक्ष प्रदान करने वाले एवं व्यक्ति की रक्षा करने वाले हैं।


!!! शिव पूजा विधि - शिवपुराण विधि विधान !!!



श्री शिवमहापुराण में एक सूत्र इस प्रकार से है :- वेदी पर स्थापित प्रतिमा में, अग्नि में और ब्राह्मण के शरीर में षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। उक्त तीनो प्रकार में उत्तरोत्तर पूजन करना श्रेष्ठ है। (प्रमाण श्री शिवमहापुराण विद्येश्वर संहिता अध्याय १४ श्लोक २४ ) ब्राह्मण के षोडशोपचार पूजन में ये प्रक्रियाएं हैं। एक दिन पूर्व ब्राह्मण देवता को घर से सम्मानपूर्वक अपने घर लाना, उनके चरण धोकर चरणामृत पीना, उन्हें जल पान कराना, उनकी तेल-पंचामृत-पंचगव्य से अभिषेक करना, शरीर पोंछना, इत्र लगाना,भस्म त्रिपुण्ड़ लगाना , वस्त्र -उपवस्त्र पहनाना, पुष्प-माला पहनाना, धूप करना, पंच पकवान, ऋतु-फल खिलाना, दक्षिणा देना, आरती करना, चॅंवर डुलाना, चरण -सेवन करना और घर तक पहुॅचाने जाना।

मैं इस प्रकार का नित्य ब्राह्मणों का पूजन करू- यह वरदान विष्णु के अवतार कृष्ण ने ब्राह्मण बालक उपमन्यु (ऋषि व्याघ्रपाद के पुत्र, द्यौम्य के बड़े भाई) से दीक्षा लेकर हिमालय पर १६ महीने तपस्या करके प्रभु शिव एवं पार्वती से आठ-आठ वरदानों में यह वरदान (ब्राह्मणों का नित्य पूजन) भी मॉंगा था।श्री गणेश जो कि प्रथम पूज्य है, विघ्ननाशक है तथा सब सिद्धियों को देने वाले हैं, उनकी पूजा की सिद्धि के लिए भी ब्राह्मणों का पूजन अनिवार्य है। (प्रमाण श्री शिवमहापुराण कुमारखंड अध्याय १८ ) शास्त्रों में पॉंच प्रकार के ब्राह्मण वर्णित है। यहॉं ब्राह्मण का अर्थ है जो जन्म और कर्म से ब्राह्मण हो। आपको जिस ब्राह्मण का नित्य पूजन करना है, उसके लक्षण निम्न होने चाहियें :- वह जन्म कर्म का ब्राह्मण हो, गुरू परम्परा से निर्गुण - निराकार अजन्मा ब्रह्म (शिव) के कर्मकाण्ड में दीक्षित हो, मंत्रों से रूद्राक्ष और भस्म त्रिपुण्ड़ धारण करता हो, श्री शिवमहापुराण २४६७२ श्लोक वाले का नित्य पूजन कर, साष्टॉंग प्रणाम कर, आजीवन मर्यादापूर्वक पाठ करता हो, नित्य दिन में १२ बार नर्मदेश्वर शिवलिंग का जल बिल्व पत्रादि से पूजा करता हो, नित्य सौ माला ऊॅं नम: शिवाय मंत्र को जपता हो, नित्य व्रत अथवा महिने में दस व्रत करता हो। (दोनों अष्टमी, दोनों एकादशी, दोनो प्रदोष तथा सभी सोमवार) प्रदोष का विशेष पूजन करता हो। हर मास शिवरात्रि को निर्जला-निराहार, रात्रि जागरण पूर्वक चार - पूजन करता हो, दिव्य नदी नर्मदा के तट पर रहता हो और प्राप्त दान में से चतुर्थांश हर माह दान करता हो। दिव्य नदी नर्मदा के नाभिक्षेत्र, दक्षिण-तट पर स्थापित श्री विमलेश्वर महादेव आश्रम में ऐसे गुरू परम्परा से दीक्षित , नित्य व्रत रखने वाले कर्मकाण्डी ब्राह्मण उपलब्ध है। ऐसे ब्राह्मणों का नित्य पूजन करने से और उनके द्वारा अनुष्ठान करवाने पर आपको घर बैठे निम्न लाभ प्राप्त होंगे जो कि विश्व में अन्यत्र कहीं संभव नहीं है।



सांसारिक सभी कामनाओं की प्राप्ति, पुराने सभी पापों का नाश (अब आपको पुराने पापों का बुरा फल भोगना नहीं पडेगा) ,शत्रु पीडा, ग्रह पीड़ा का नाश, पितरों की सद्गति, सुखद बुढापा, शांतिपूर्ण मृत्यु, निश्चित रूप से अगला जन्म राजकुल अथवा योगी कुल में प्राप्त होना, निश्चित रूप से तीन जन्मों में मुक्ति।



श्री गणेश की उत्पत्ति का रहस्य

श्री गणेश प्रथम पूज्य क्यों है ? श्री गणेश की विद्यिवत दीक्षा लेकर पूजा करने का फल, श्री गणेश की पूजा से पूरा फल क्यों नहीं मिल रहा है?

सभी धर्मशास्त्रों (वेद-पुराणादि) प्रभु शिव को सर्वोपरि मानते है फिर प्रभु शिव और पार्वती जगदम्बा ने मिलकर श्री गणेश क्यों उत्पन्न किया ? प्रभु शिव ने ही गणेश को अनेक वरदान दिये, प्रभु शिव ने ही प्रथम स्वयं गणेश पूजन किया। ब्रह्मा -विष्णु-महेश ने एक साथ गणेश को प्रथम पूजित होने का वरदान दिया फिर भी ये गणेश प्रभु शिव और पार्वती की आज्ञा के बिना आपका कार्य नहीं करते।

जो व्यक्ति अपने विश्वस्त एवं योग्य शिष्यों के तीनों गुणों(तामस, राजस, सात्विक) को हटाकर प्रभु शिव का साक्षात्कार करा देता है वही गुरू कहने योग्य हैं ( श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता अ०१८ श्लोक ८५-९८ पृष्ठ ७०-७१) जिसके मस्तक पर भस्म त्रिपुण्ड नहीं हो, शरीर में रूद्राक्ष धारण किया न हो और मुख में शिव नाम न हो ऐसे अधम को छोड़ देना चाहिए( श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता अ०२३ श्लोक १३ पृष्ठ ८२)पापों का विनाश करने के लिए ही रूद्राक्ष धारण करना कहा गया है। इसीलिए सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले इस रूद्राक्ष को अवश्य धारण करना चाहिए शिव भक्तों को, विष्णु भक्तों को तथा चारों वर्णो को, सभी स्त्रियों को धारण करना चाहिए।(प्रभु शिव ने पार्वती को यह गुप्त ज्ञान दिया)( श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता अ०२५ पृष्ठ ८८-९२) दैत्यों के गुरू शुक्राचार्य के पास मृत संजीवनी विद्या है। (अर्थात् मृत को जीवित करने की विद्या)। यह विद्या विष्णु और ब्रह्मा के पास भी नहीं है, देवताओं के गुरू वृहस्पति के पास भी नहीं है। दैत्यों के गुरू शुक्राचार्य काशी में पॉंच हजार वर्ष तक (शुक्रेश्वर लिंग स्थापित कर) तपस्या की। 

प्रभु शिव प्रसन्न हुए और शुक्राचार्य ने शिव की अष्टमूर्ति की स्तुति की और प्रभु शिव ने प्रसन्न होकर शुक्राचार्य जी को मृतसंजीवनी विद्या प्रदान की।( प्रमाण श्री शिव महापुराण युद्धखण्ड अध्याय ५० पृष्ठ संख्या ४७४ से ४७६) प्रहृलाद,विष्णु भक्त था। श्री विष्णु ने उसे बचाने के लिए नृसिंह अवतार लेकर उसके पिता हिरण्यकशिपु का वध किया। प्रहृलाद का पुत्र विरोचन महादानी था जिसने कपटी इन्द्र को (जो ब्राह्मण का रूप धर करआया था)अपना सिर काटकर दे दिया। विरोचन का पुत्र राजा बलि भी महादानी था और महान् शिवभक्त था। वरदान के कारण प्रभु शिव अपने गणों के साथ बाणासुर की राजधानी शोणितपुर में रहते थे ..


 श्री कृष्ण का बाणासुर के साथ युद्ध हुआ, जिसमे प्रभु शिव बाणासुर की ओर से श्री कृष्ण से लड़े। श्री कृष्ण सहित यादवों की सारी सेना परास्तहो गई तब श्री कृष्ण ने प्रभु शिव की स्तुति करके प्रभु को युद्ध स्थल से हट जाने के लिए प्रार्थना की।( प्रमाण श्री शिव महापुराण युद्धखण्ड अध्याय ५४ श्लोक ४३-५६ पृष्ठ संख्या ४८४) सती जगदम्बा ने (जब सीता बनकर) राम की परीक्षा ली। तब सती के पूछने पर राम ने (विष्णु रूप में) प्रभु शिव से प्राप्त वरदान का वर्णन किया।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय २५ श्लोक १-३८ पृष्ठ संख्या १९६-९७)जिस पर आप दोनों(शिव तथा सती) की दया हो जाती है, वही पुरूष श्रेष्ठ होता है।



दक्ष के यज्ञ में विष्णु अध्यक्ष थे, ब्रह्मा भी उपस्थित थे, इन्द्रादि आठों लोकपाल आयुध लेकर यज्ञ की रक्षा करते थे, ८८ हजार ऋषि एक समय अग्नि में आहुति देते थे। अग्नि, साक्षात हजारों जिव्हा बनाकर आहुति स्वीकार कर रहे थे। सती जगदम्बा भी आ गई थी। केवल एक संहारक महेश ही नहीं थे( जबकि यज्ञ जैसे मांगलिक कार्य में संहारक देवता की आवश्यकता भी नहीं है फिर भी सत्युग में किये गये ब्रह्मा के पुत्र दक्ष प्रजापति का, समस्त विश्व का कल्याण हो- ऐसी श्रेष्ठ कामना से, यज्ञ जैसा शुभ कर्म भी सफल नहीं हुआ। यज्ञ विध्वंस हुआ, दक्ष प्रजापति मारा गया।संहारक भगवान शंकर की जटा के एक बाल के आधे टुकड़े से उत्पन्न वीरभद्र ने बड़ी सरलता से दक्ष का सिर काटकर अग्नि में डाल दिया और यज्ञ विध्वंस किया।वीरभद्र ने उत्पन्न होकर प्रभु शिव से कहा।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय ३२ श्लोक २८-४४ पृष्ठ संख्या २१०-२११) हे शिवजी! आपकी आज्ञा से, नीच पुरूष भी संसार रूपी समुद्र को पार कर लेते है। आपके भेजे हुए तृण से भी बिना परिश्रम ही, बडे-़बड़े कार्य क्षण भर में हो जाते हैं इसमें कोई संदेह नहीं हैं।आपकी आज्ञा के बिना, कोई भी तिनका आदि वस्तुओं को भी हिला नहीं सकता, इसमें संदेह नहीं है। उसी की प्रतिदिन विजय होती है, उसी को शुभ की प्राप्ति होती है, जिसके मन में उत्तम आश्रय स्वरूप शिव में दृढ़ भक्ति होती है। वीरभद्र ने सरलता से दक्ष प्रजापति का सिर काटकर अग्नि कुण्ड में डाल दिया और यज्ञ विध्वंस कर दिया।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय ३७ पृष्ठ संख्या २१८-२२०)

पृथ्वी पर सबसे बड़ा व्यक्ति देहधारी गुरू से दीक्षित शिव भक्त ब्राह्मण। यह व्यक्ति पृथ्वी पर राजा से भी बड़ा होता है और सबसे अधिक पूज्य होता है। ऐसे ही च्यवन ऋषि के पुत्र दधीचि ऋ़षि ने विष्णु और उनके सहायक इन्द्रादि लोकपालों को बिना अस्त्र के पराजित कर दिया और विष्णु सहित सभी देवताओं को शाप भी दिया।इस प्रसंग का नित्य (विधिवत)पाठ करने से शत्रु पर विजय प्राप्त होती है।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय ३८-३९ पृष्ठ संख्या २२०-२२५)
इस अनुष्ठान का विधान आप आश्रम से सीख सकते हैं। जब सारा प्रयत्न करने पर भी (विष्णु-ब्रह्मा-इन्द्रादि लोकपाल के पूरा प्रयत्न करने पर भी) विध्वंस हो गया और दक्ष प्रजापति मारे गये, तब विष्णु ब्रह्मा इन्द्रादि लोकपाल कैलास में जाकर प्रभु शिव से क्षमा याचना मॉंगी और दक्ष को पुन: जीवित करनेऔर यज्ञ को पुन: सफल करने की प्रार्थना की। प्रभु शिव की प्रथम पूजा होगी और प्रभु शिव का भग निकाला जायेगा ऐसा विश्वास दिलाने पर प्रभु शिव ने कृपा की। दक्ष के धड़ पर बकरे का सिर लगाकर, प्रभु शिव ने अपनी कृपा दृष्टि से उसे जीवित कर दिया।(देवताओं की स्तुति श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय ४१ पृष्ठ संख्या २२७-२२८) दक्ष ने (बकरे के सिर से) प्रभु शिव की स्तुति की( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय ४२ श्लोक ३२-४१ पृष्ठ संख्या २२९-२३०)आपने दंड़ देकर मेरे ऊपर बड़ी कृपा की। मैं मूर्ख हॅू। हे देव! मैने आपके तत्व को नहीं समझा। मैं आज आपके तत्व को समझ गया कि आप सर्वश्रेष्ठ है। आप ब्रह्मा-विष्णु आदि के भी सेवनीय है। वेदों द्वारा जानने योग्य महेश्वर है। आप साधु पुरूषों के लिए कल्पवृक्ष के समान है। दुष्टों को सदैव दंड़ देते है। आप स्वतंत्र परमात्मा है, अपने भक्तों को इच्छित वरदान देते है। हे शिवजी! आपने ही विद्या, तप, व्रत को धारण करने वाले ब्राह्मणों की सबसे पहले आत्म तत्व को जानने े लिए अपने मुख से सृष्टि की। जिस प्रकार ग्वाला, पशुओं की रक्षा करता है उसी प्रकार आप प्राणियों की, सभी आपत्तियों से दंड़ धारण कर, रक्षा करते हैं और आप ही मर्यादा के रक्षक है।


ब्रह्मा, अपने पुत्र देवर्षि नारद को समझाते है, "जब तक मनुष्य गृहस्थाश्रम में रहे तब तक वह पंचदेवों की प्रतिमाओं (श्री गणेश-सूर्य-विष्णु-दुर्गा-शंकर) का पूजन करता रहे अथवा केवल प्रभु शिवजी की शिवलिंग में पूजा करे, वे ही सबके मूल है क्योंकि मूल को सींचने से शाखादि सभी तृप्त हो जाते हैं। शाखाओं(श्री गणेश-सूर्य-विष्णु-दुर्गा) को सींचने से मूल (शिव) की प्राप्ति नहीं होती है। इस प्रकार सभी देवताओं(श्री गणेश-सूर्य-विष्णु-दुर्गा) के तृप्त हो जाने पर भी प्रभु शिवजी की तृप्ति नहीं होती है। ऐसा सुक्ष्म बुद्धि वालों को जानना चाहिये और शिवजी को पूज लेने पर सभी देवताओं (श्री गणेश-सूर्य-विष्णु-दुर्गा और शंकर) की पूजा हो जाती है। सभी प्राणियों के हित में लगे रहने वाले, सभी लोकों का कल्याण करने वाले प्रभु शिवजी की पूजा, सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति के लिए करनी चाहिए।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सृष्टिखण्ड अध्याय १२ श्लोक ८२-८६ पृष्ठ संख्या १२३)

प्रभु शिव को या शिव भक्तों को विशेष करके शिवभक्त ब्राह्मण को अपनी कन्या पत्नी रूप में देने का क्या महत्व है, उस पर श्री शिवमहापुराण में एक बहुत ही ज्ञानवर्द्धक प्रसंग है। कश्यप-दीति के वंश में वज्रांग-वरांगी के कुल में तारक नामक असुर पैदा हुआ, जिसके पैदा होतें ही पूरे विश्व में भंयकर अपशकुन हुए।( प्रमाण श्री शिवमहापुराण पार्वतीखंड अध्याय १४-१५ पृष्ठ संख्या २५७-२६०) यह तारक दैत्य प्रभु शिव के वीर्य से उत्पन्न पुत्र ही उसको मार सकेगा, ऐसा वरदान ब्रह्मा से तारकासुर को प्राप्त हुआ। तारकासुर को विष्णु इन्द्रादि भी नहीं पराजित कर सके- तारकासुर ने सभी को जीत लिया। देवताओं ने प्रयत्न करके प्रभु शिव को विवाह के लिए तैयार कर दिया और उधर हिमालय को भी अपनी कन्या (पार्वती) को शिव पत्नी बनाने के लिए आज्ञा दी...... जब हिमालय, अपनी कन्या प्रभु शिवजी को (पत्नी रूप में ) देने के लिए तैयार हो गया तब देवताओं को एक अलग ही प्रकार की चिन्ता हुई।




"हिमालय यदि स्वेच्छा से अपनी कन्या शिवजी को पत्नी रूप में दे देगा, तो हिमालय का जो जड़ रूप है वह भी अदृश्य हो जायेगा तब देवता लोग विहार कहॉं करेंगे ? तब स्वार्थी देवता अपने गुरू वृहस्पति के पास गये और उनसे बोले, " आप हिमालय को शिव-निन्दा सुनाइयें, जिसे सुनकर हिमालय की इतना पाप लगेगा कि वह अपनी कन्या शिवजी को पत्नी रूप में देने पर भी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकेगा। इस ज्ञानवर्द्धक प्रसंग को पाठकगण श्री शिवमहापुराण के पार्वतीखण्ड अध्याय ३१पृष्ठ संख्या २८९-२९१ से समझ लें।



श्री गणेश प्रथम पूज्य क्यों है ? उस पर देखे कुमार खण्ड अध्याय १३-२० पृष्ठ सं० ३६५-३८०

कुल-तारक सन्तान की प्राप्ति के लिए प्रभु शिव का गृहपति अवतार, श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय १३-१५ पृष्ठ संख्या ५१९-५२६)प्रभु शिव की इच्छा बिना आप तिनके को भी हिलाने में भी असमर्थ है।( प्रमाण प्रभु शिव का यक्षेश्वर अवतार श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय १६ पृष्ठ संख्या ५२६-५२९) प्रभु शिवजी का हनुमान अवतार ( श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय २० पृष्ठ संख्या ५३३-३४)
विष्णु के घमण्ड को नष्ट करने वाला शिवजी का अवतार :- शरभेश्वर अवतार ,श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय १०-१२ पृष्ठ संख्या ५१४-५१९)। भगवान शंकर का वृषेश्वर अवतार श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय २२-२३ पृष्ठ संख्या ५३५-५३९)। शनि ग्रह-पीड़ा को नष्ट करने वाला प्रभु शिव का पिप्पलाद अवतार ,श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय २४-२५ पृष्ठ संख्या ५३९-५४२)। महिलाओं के सभी पापों को नष्ट करने वाला श्री शिव का वैश्यनाथ अवतार श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय २६ पृष्ठ संख्या ५४२-५४५) तथा स्कन्द पुराण में महानन्दा कथा।



हमारी सभी सम्पत्ति,धन, पत्नी, पुत्र,सम्पत्ति आदि १०० प्रतिशत प्रभु शिव की ही है- प्रभु शिव का कृष्ण दर्शन अवतार जिन्होंने विष्णु भक्त राजा अम्बरीष के पितामह राजा नभग को ज्ञान दिया। श्री शिव का कृष्ण-दर्शन अवतार ,श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय २९ पृष्ठ संख्या ५४९-५५१) जीवन में एक बार भी श्रद्धा-भक्ति से शिव भक्त(दीक्षित) का पूजन करने का फल प्रभु शिव स्वयंअपने ऋषभ अवतार से एक राजा के मृत बालक को जीवित करके उसे अमोघ शिवकवच की दीक्षा देकर १२ हजार हाथियों का बल देकर, खोया हुआ राज्य वापिस दिलाते है। (श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय ४ श्लोक ३४-४६ पृष्ठ संख्या ५०२) देवगुरू वृहस्पति के अंश से भरद्वाज द्वारा अयोनिज द्रोण के पुत्र, शिवजी का अवतार अश्वत्थामा,जिन्होंने महाभारत केे युद्ध में कौरवों की और से लड़े और जिन्हेें श्री कृष्ण और अर्जुन भी नहीं परास्त कर सके। (श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय ३६ पृष्ठ संख्या ५६४-५६६) श्री कृष्ण केे होते हुए पाण्ड़व लोग जुऍं में हार गये और १३ वर्ष वनवास का कष्ट भोगा। वनवास की अवधि में भी दुर्योधन ने दुर्वासा ऋषि और मूक राक्षस को पाण्ड़वों का अहित कने के लिए भेजा।वनवास काल में द्वारिका से श्री कृष्ण पाण्ड़वों सेे मिलने के लिए आये। दुर्योधन के त्रास सेे बचने का उपाय पाण्ड़वों ने श्री कृष्ण से पूछा। श्री कृष्ण बोले," हे श्रेष्ठ पाण्ड़व़ों! मैरे मत के अनुसार आपका कर्तव्य हैे कि आप सबको प्रभु शिवजी की विशेष भक्ति करनी चाहिए। मुझ कृष्ण ने द्वारिका जाकर अपने शत्रुओं को जीतने की इच्छा से , हिमालय में जाकर महात्मा उपमन्यु से दीक्षा लेकर १६ महिने उमा-महेश्वर की तपस्या करके पुत्र प्राप्ति, ब्राह्मणों का पूजन आदि ८-८ वरदान प्राप्त किये। प्रभु शिव ने मेरे सभी मनोरथ पूर्ण किये। प्रभु शिव के प्रभाव से मैने सभी उत्तम शक्तियॉं प्राप्त की। मैं अब भी प्रभु शिव की सेवा करता हॅू। तुम भी, भुक्ति तथा मुक्ति देने वाले तथा सभी प्रकार के सुखों को देने वाले प्रभु शिवजी की सेवा करो। (श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय ३७ श्लोक १२-१६ पृष्ठ संख्या ५६६ तथा उमा संहिता अध्याय १-३ पृष्ठ संख्या ६६३-६७०)

वेदव्यास जी ने भी (श्री कृष्ण की तरह)वनवास काल में दुर्याधन के त्रास से बचने के लिए पाण्ड़वों को श्री शिवजी की पूजा करने का निर्देश दिया। श्री व्यास बोले,"धर्म बुद्धि वाले पाण्ड़वों!श्री कृष्ण ने सत्य ही कहा क्योंकि मैं भी शिवजी की उपासना करता हॅू। आप लोग भी प्रेम में प्रभु शिवजी की सेवा करो, उससे अपार सुख आपको मिलेगा।प्रभु शिव को भुला देने से ही सब प्रकारके दु:ख होते हैंं।(श्री शिवमहापुराण उमासंहिता अध्याय ३७ श्लोक ५१ -५२ पृष्ठ संख्या ५६७)
गुरू व्यास जी ने अर्जुन को प्राथमिक दीक्षा दी। फिर इन्द्र ने अर्जुन को प्रभु शिवजी की अगली दीक्षा दी। तब तपस्या करके अर्जुन ने प्रभु शिव को प्रसन्न कर लिया तब प्रभु शिव ने अर्जुन को पशुपतास्त्र देते हुए कहा,"मैने अपना महान अस्त्र तुम्हें दे दिया है।अब तुम्हें कोई जीत नहीं सकेगा और मैं श्री कृष्ण से भी यही कहॅूगा। वे तुम्हारी सहायता करेंगे।(श्री शिवमहापुराण उमासंहिता अध्याय ४१,श्लोक ५६-५८ पृष्ठ ५७६) क्या श्री कृष्ण पाण्ड़वों की सहायता(बिना प्रभु शिव की आज्ञा के) नहीं कर सकते थे। श्री कृष्ण के होते हुए अर्जुन को तपस्या करने और प्रभु शिव से पाशुपतास्त्र प्राप्त करने की क्यों आवश्यकता पड़ी? भारत मेें प्रभु शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंग, जिनके स्मरण मात्र से (प्रात: सायं) सम्पूर्ण पापों का नाश होता है।(श्री शिवमहापुराण कोटिरूद्र संहिता अध्याय १४-३३ पृष्ठ संख्या ६०४-६४०)

शाप से उद्धार पाने के लिए, चन्द्रमा देवता द्वारा भगवान शिव की तपस्या से प्रकट श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग।(श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय १४ पृष्ठ ६०४-६०६)
जाति धर्म के कर्म से भी अधिक महत्वपूर्ण है प्रभु शिव की शिवलिंग में पूजा।(श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय १६-१७ पृष्ठ ६०७-६११)
खेल-खेल में (बिना दीक्षा के,बिना रूद्राक्ष के, बिना त्रिपुण्ड़ के, बिना शिवलिंगि के, बिना सामग्री के) शिव-पूजा करने का प्रभाव।आठवी पीढ़ी में नन्दबाबा का जन्म, जिनके घर में विष्णु का कृष्ण अवतार हुआ। श्रीकर गोप की कथा(श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय १७ पृष्ठ ६०८-६११)

सुख-दु:ख ,लाभ-हानि, यश-अपयश, में मन स्थिर रहे, समान-भाव बना रहे,( गौतम ऋषि का चरित्र श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय २४-२७ पृष्ठ ६२१-२८ तथा ब्राह्मणी भरद्वाज गोत्रीय घुष्मा द्वारा बिना तपस्या के प्रकट किया गया श्री घुष्मेश्वर ज्योतिर्लिंगश्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय ३२-३३ पृष्ठ ६३६-६४०)
जब विष्णु भी देवताओं की रक्षा के लिए, दैत्यों का वध नहीं कर सके, तब विष्णु ने प्रभु शिव से सुदर्शन चक्र कैसे प्राप्त किया?(श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय ३४-३६ पृष्ठ ६४०-६४६)
प्रभु शिव की पूजा तथा उनके लिए नियमित दान किए बिना कुल-तारक संतान की प्राप्ति नहीं हो सकती।(सूतजी का ऋषियों को उपदेश श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय ३७ पृष्ठ ६४६-६४८)
जो ब्राह्मण प्रभु शिव को प्रसन्न करने के लिए महीने में दस व्रत नहीं रखता और प्रभु शिव के लिए नियमित २५ प्रतिशत दान नहीं करता, वह अगले जन्म में चोर होता है एवं व्रतराज शिवरात्रि की महिमा( विष्णु आदि के पूछले पर प्रभु शिव द्वारा उपदेश श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय ३८ पृष्ठ ६४८-६५१)

प्रभु शिव की माया का प्रभाव: विष्णु, ब्रह्मा,इन्द्र,सूर्य,चन्द्रमा,ऋषि मुनि आदि काम के वशीभूत होकर पर-स्त्री रमन किये। (श्री शिव महारापुराण उमा संहिता अध्याय ४, पृष्ठ ६७०-६७१)

अन्नदान की महिमा:(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय ११ पृष्ठ ६८२-६८४ )ब्राह्मण की परीक्षा लेकर अन्नदान करने का महत्व(स्कन्द पुराण रेवाखंड)

तपस्या तथा सत्य की महिमा (श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय १२ पृष्ठ ६८४-६८६ )किसी भी मंदिर में (दीक्षा लेकर) पुराण पढ़ने का फल श्री शिव महापुराण २४६७२ श्लोक वाले के पढ़ने का चमत्कार। सद्गुरू से दीक्षा लेकर २४६७२ श्लोक वाले श्री शिव महापुराण के मर्यादापूर्वक ५ से ७ बार पाठ करने पर प्रभु शिव का साक्षात्कार हो जाता है।(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय १३ पृष्ठ ६८६-६८८ ) इसके पढ़ने की दीक्षा इस आश्रम द्वारा दी जाती है। परीक्षा लेकर, दीक्षित शिव कर्मकाण्ड़ी ब्राह्मण को १० महादान देने का फल जैसे भूमि, स्वर्ण,तिल, हाथी,कन्या, दासी, घर, रथ, मणि, कपिला-गाय (श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय १४ पृष्ठ ६८८-६८९ )
विशेष दान(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय १५ पृष्ठ ६८९-६९० )देवताओं की पूजा से भी अधिक महत्व अपने मर गये पितरों ककी पूजा का महाफल है।(सनत्कुमार का मार्कण्डेयजी को उपदेश,मार्कण्डेय जी का शान्तनु को उपदेश, शान्तनु का भीष्म-पितामह को उपदेश, शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह का युधिष्ठिर आदि पाण्ड़वों को पितरों की पूजा का महत्व बतलाना।(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय ४०-४२ पृष्ठ ७३४-७३९ )
जिन सद्गुरू से आपने पुराण श्रवण किया, उनके पूजन का महत्व(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय ४३ पृष्ठ ७३९-७४४ )सर्वकामना की प्राप्ति के लिए काशी के दारा नगर में स्थित श्री मद्यमेश्वर की पूजा का फल:- श्री वेदव्यास की उत्पत्ति, श्री वेदव्यास की तपस्या, श्री वेदव्यास द्वारा प्रभु शिव से प्राप्त वरदान।(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय ४० पृष्ठ ७४०-७४५ )
प्रभु शिव तथा उनकी शक्ति दुर्गा की महिमा- आश्विन नवरात्रा की महिमा, मोह का नाशक तथा छिने हुए राज्य को पुन:प्राप्त करना।(श्री शिवमहापुराण उमा संहिता,अध्याय४५-५१पृष्ठ ७५५-५७ ) प्रयोग विधि आश्रम से सीखें।
पार्वती जगदम्बा ने ऊॅ मंत्र की दीक्षा प्रभु शिव से प्राप्त की।(श्री शिव महापुराण कैलाससंहिता, अध्याय १-२ पृष्ठ ७६३-७६६ )
वामदेव ऋषि रचित कार्तिकेय स्तुति जिसका नित्य पाठ करने से बुद्धि,शिवभक्ति, आयु, आरोग्य,धनवृद्धि के साथ सभी कामनायें पूर्ण होती है।(श्री शिव महापुराण कैलाससंहिता,पूर्वभाग, अध्याय ११ पृष्ठ ७८१-७८३)
ब्रह्मा द्वारा ऋषियों को शिव की महिमा बताया।(श्री शिव महापुराण वायवीय संहिता,पूर्वभाग, अध्याय १-३ पृष्ठ ८१३-८१९ )
वायु देवता द्वारा ऋषियों को शिवतत्व समझाना,वायवीय संहिता, पूर्वभाग,अध्याय ४-३५, पृष्ठ सं० ८१९-८७८)
प्रभु शिव को छोड़कर और किसी देवता से वरदान नहीं लेना चाहिए। उस पर आधारित विष्णु अवतार श्री कृष्ण के गुरू उपमन्यु का चरित्र(श्री शिव महापुराण वायुसंहिता,पूर्वभाग, अध्याय ३४-३५ पृष्ठ ८७४-८७८ )
पृथ्वी पर देवताओं की पूजा की बड़ी महिमा है परन्तु ये देवता महा-स्वार्थी हैं, ऐसे ही उनके गुरूदेव वृहस्पति है। तारकासुर से पीड़ित देवता लोग दुर्गा की स्तु ति करके उसे हिमालय और मेना की पुत्री (पार्वती) उत्पन्न करने में सफल हो गये। जब देवताओं की प्रार्थना से प्रभु शिव ने पार्वती से विवाह भी कर लिया तब प्रभु शिव और पार्वती के विहार में स्वार्थी देवताओं ने विघ्न किया और पार्वती से देवताओं की स्त्रियों को शाप मिला।( प्रमाण श्री शिव महापुराण कुमारखंड, अध्याय २ श्लोक १४-१८ पृष्ठ ३४४ ) जब हिमालय और मैना अपनी पुत्री (पार्वती) प्रभु शिव को पत्नी रूप में देने को तैयार हो गये (इसमें देवताओं का ही हित था) पार्वती और शिव से पुत्र कार्तिकेय का जन्म होना थ जो कि देवताओं के वैरी तारकासुर को मारेगा), तब भी स्वार्थी नहीं चाहते थे कि हिमालय भक्ति से अपनी पुत्री पार्वती को पत्नी रूप में प्रभु शिव को दे।(क्योंकि ऐसा करने से हिमालय का भी मोक्ष हो जायेगा। तब देवता विहार कहॉं करेंगे?)तब देवता लोग पहले गुरू वृहस्पति के पास, फिर ब्रह्मा के पास गये और प्रार्थना की कि वे (वृहस्पति या ब्रह्मा) हिमालय के पास जाकर प्रभु शिव की निन्दा करें। (क्योंकि शिव निन्दा सुनने से हिमालय को इतना प्रभु शिव की माया को समझना अत्यन्त कठिन है यहॅंा तक की साक्षात दुर्गा, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र आदि भी नहीं समझतें। प्रभु शिव की माया से मोहित होकर विष्णु ने पर-स्त्री गमन किया। ब्रह्मा अपनी ही पोत्री, दक्ष की कन्या सती पर कामासक्त हुए। उस समय कामासक्त ब्रह्मा के चार बूॅंदे वीर्य पृथ्वी पर गिरी तब प्रभु शिव ब्रह्मा का वध करने के लिए उत्सुक हुए। तब विष्णु ने प्रभु शिव की स्तुति की।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखंड अध्याय १९ श्लोक ५०-५६तथा ६८-७५ पृष्ठ संख्या १८३-१८४) दूसरी बार फिर ब्रह्मा प्रभु शिव की पत्नी (दुर्गा) का अवतार, पार्वती पर कामासक्त हुए, तब फिर प्रभु शिव ब्रह्मा का वध करने के लिए तत्पर हुए तब देवताओं ने आपकी स्तुति करते हुए कहा,.... हे विभु! सातों समुद्र आपके वस्त्र है, दसो दिशाऍं भुजा है, द्युलोक शिर है, आकाश नाभि है, वायु नासिका है, अग्नि-सूर्य-चन्द्रमा आपके नेत्र है। मेघमण्डल केश है, नक्षत्र - तारे आदि आपके आभूषण है। हे विभु!हे परमेश्वर! हे देवेश! हम आपकी कैसे स्तुति करें। आप मन तथा वाणी से परे है। आप पंचमुख रूद्र हैं। पचास करोड़ मूर्तियों वाले हैं, तीनों लोकों के स्वामी है, सर्वश्रेष्ठ है। विद्यातत्व के अधिपति हैं, वर्णनातीत हैं, नित्य है। (प्रमाण श्री शिव महापुराण पार्वती खण्ड अध्याय ४९ श्लोक १२-३१ पृष्ठ संख्या ३२५ से ३२६)
पाप लगेगा कि वह शिवजी को कन्यादान करने पर मोक्षलाभ नहीं प्राप्त कर सकेगा। (श्री शिव महापुराण पार्वतीसंहिता, अध्याय ३१ श्लोक १-२३ पृष्ठ २८९-२९० )ये सभी स्वार्थी देवता हर मनुष्य के शरीर में विद्यमान रहते है। ये सभी देवता चाहते है कि वह हम केवल देवताओं का ही पूजन करें(प्रभु शिव का नहीं)। जब मनुष्य प्रभु शिव का पूजन करता है, तो ये शरीर-स्थित स्वार्थी देवता(अपने ही इष्ट प्रभु शिव) प्रभु शिव की पूजा करने वाले को विघ्न डालते है। ये देवता केवल एक ही प्रयोग से (शरीर में रहते हुए भी)शान्त रहते है। हमारा आश्रम यह प्रयोग सिखाता है।
अधिकांश धर्माचार्य बताते हैं कि बुरे कर्मो का फल भुगतना ही पड़ता है, परन्तु देहधारी गुरू से दीक्षा लेकर प्रभु शिव की शिवलिंग में विद्यिवत पूजा करने से पुराने पापों का बुरा फल भुगतना नहीं पड़ता । मृकण्डु पुत्र मार्कण्डेय ऋ्रषि की आयु( उसके पूर्व जन्मों के कर्मो के अनुसार) केवल आठ वर्ष की ही थी, शिवलिंग की पूजा से मार्कण्डेय चिरंजीवि हो गया। मार्कण्डेय ऋषि रचित चन्द्रशेखराष्टक स्तोत्र है, जिसमें मार्कण्डेय ऋषि कहे है, "मैं चन्द्रशेखर (शिव) के आश्रय में हॅू, यमराज मेरा क्या बिगाड़ सकेगा?"अकाल मृत्यु से बचने के लिए इस चन्द्रशेखराष्टक का प्रयोग हमारा आश्रम सिखाता है।




शिवपुराण की कोटिरुद्रसंहिता में बताया गया है कि शिवरात्रि व्रत करने से व्यक्ति को भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्राप्त होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा पार्वती के पूछने पर भगवान सदाशिव ने बताया कि शिवरात्रि व्रत करने से महान पुण्य की प्राप्ति होती है। मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले चार संकल्प पर नियमपूर्वक पालन करना चाहिए।

ये चार संकल्प हैं- शिवरात्रि पर भगवान शिव की पूजा, रुद्रमंत्र का जप, शिवमंदिर में उपवास तथा काशी में देहत्याग। शिवपुराण में मोक्ष के चार सनातन मार्ग बताए गए हैं। इन चारों में भी शिवरात्रि व्रत का विशेष महत्व है। अतः इसे अवश्य करना चाहिए।

यह सभी के लिए धर्म का उत्तम साधन है। निष्काम अथवा सकामभाव से सभी मनुष्यों, वर्णों, स्त्रियों, बालकों तथा देवताओं के लिए यह महान व्रत परम हितकारक माना गया है। प्रत्येक मास के शिवरात्रि व्रत में भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी में होने वाले महाशिवरात्रि व्रत का शिवपुराण में विशेष महात्म्य है।

उपवास में रात्रि जागरण क्यों? :-




ऋषि मुनियों ने समस्त आध्यात्मिक अनुष्ठानों में उपवास को महत्वपूर्ण माना है। 'विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देनिहः' के अनुसार उपवास विषय निवृत्ति का अचूक साधन है। अतः आध्यात्मिक साधना के लिए उपवास करना परमावश्यक है। उपवास के साथ रात्रि जागरण के महत्व पर संतों का यह कथन अत्यंत प्रसिद्ध है-'या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।'

इसका सीधा तात्पर्य यही है कि उपासना से इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण करने वाला संयमी व्यक्ति ही रात्रि में जागकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो सकता है। अतः शिवोपासना के लिए उपवास एवं रात्रि जागरण उपयुक्त हो सकता है? रात्रि प्रिय शिव से भेंट करने का समय रात्रि के अलावा और कौन समय हो सकता है?

इन्हीं सब कारणों से इस महान व्रत में व्रतीजन उपवास के साथ रात्रि में जागकर शिव पूजा करते हैं। इसलिए महाशिवरात्रि को रात के चारों पहरों में विशेष पूजा की जाती है। सुबह आरती के बाद यह उपासना पूर्ण होती है।

महाशिवरात्रि पूजा विधि : -


ND

शिवपुराण के अनुसार व्रती पुरुष को प्रातः काल उठकर स्नान संध्या कर्म से निवृत्त होने पर मस्तक पर भस्म का तिलक और गले में रुद्राक्षमाला धारण कर शिवालय में जाकर शिवलिंग का विधिपूर्वक पूजन एवं शिव को नमस्कार करना चाहिए। तत्पश्चात उसे श्रद्धापूर्वक व्रत का इस प्रकार संकल्प करना चाहिए-

शिवरात्रिव्रतं ह्येतत्‌ करिष्येऽहं महाफलम।
निर्विघ्नमस्तु से चात्र त्वत्प्रसादाज्जगत्पते।

यह कहकर हाथ में लिए पुष्पाक्षत्‌ जल आदि को छोड़ने के पश्चात यह श्लोक पढ़ना चाहिए-

देवदेव महादेव नीलकण्ठ नमोऽस्तु से
कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तव।
तव प्रसादाद्देवेश निर्विघ्नेन भवेदिति।
कामाशः शत्रवो मां वै पीडां कुर्वन्तु नैव हि॥

हे देवदेव! हे महादेव! हे नीलकण्ठ! आपको नमस्कार है। हे देव! मैं आपका शिवरात्रि व्रत करना चाहता हूं। हे देवश्वर! आपकी कृपा से यह व्रत निर्विघ्न पूर्ण् हो और काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रु मुझे पीड़ित न करें।

रात्रि पूजा का विधान :-
दिनभर अधिकारानुसार शिवमंत्र का यथाशक्ति जप करना चाहिए अर्थात्‌ जो द्विज हैं और जिनका विधिवत यज्ञापवीत संस्कार हुआ है तथा नियमपूर्वक यज्ञोपवीत धारण करते हैं। उन्हें ॐ नमः शिवाय मंत्र का जप करना चाहिए परंतु जो द्विजेतर अनुपनीत एवं स्त्रियां हैं, उन्हें प्रणवरहित केवल शिवाय नमः मंत्र का ही जप करना चाहिए।

रुग्ण, अशक्त और वृद्धजन दिन में फलाहार ग्रहण कर रात्रि पूजा कर सकते हैं, वैसे यथाशक्ति बिना फलाहार ग्रहण किए रात्रिपूजा करना उत्तम है।

रात्रि के चारों प्रहरों की पूजा का विधान शास्त्रकारों ने किया है। सायंकाल स्नान करके किसी शिवमंदिर जाकर अथवा घर पर ही सुविधानुसार पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर और तिलक एवं रुद्राक्ष धारण करके पूजा का इस प्रकार संकल्प करे-देशकाल का संकीर्तन करने के अनंतर बोले- 'ममाखिलपापक्षयपूर्वकसकलाभीष्टसिद्धये शिवप्रीत्यर्थ च शिवपूजनमहं करिष्ये।' अच्छा तो यह है कि किसी वैदिक विद्वान ब्राह्मण के निर्देश में वैदिक मंत्रों से रुद्राभिषेक का अनुष्ठान करवाएं।