19 September 2012

बुधवार का दिन धर्मग्रन्थों में गणेश जी का दिन माना जाता है

बुधवार का दिन धर्मग्रन्थों में गणेश जी का दिन माना जाता है. इस वर्ष गणेश पर्व बुधवार से प्रारंभ हो रहा है. यह शुभ संयोग आप सभी को मंगलमय जीवन दे और आपकी इच्छाओं की पूर्ति करे... ऐसी मंगलकामना के साथ..........
हिन्दू पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल चतुर्थी को हिन्दुओं का प्रमुख त्यौहार गणेश चतुर्थी मनाया जाता है। गणेश पुराण में वर्णित कथाओं के अनुसार समस्त विघ्न बाधाओं को दूर
करनेवाले, कृपा के सागर तथा भगवान शंकर और माता पार्वती के पुत्र श्री गणेश का आविर्भाव हुआ था।

भगवान विनायक के जन्मदिवस पर मनाया जानेवाला यह महापर्व महाराष्ट्र सहित भारत के सभी राज्यों में हर्सोल्लास पूर्वक और भव्य तरीके से आयोजित किया जाता है। इस महापर्व पर लोग प्रात: काल उठकर सोने, चांदी, तांबे अथवा मिट्टी के गणेश जी की प्रतिमा स्थापित कर षोडशोपचार विधि से उनका पूजन करते हैं। पूजन के पश्चात् नीची नजर से चंद्रमा को अघ्र्य देकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देते हैं। इस पूजा में गणपति को 21 लड्डुओं का भोग लगाने का विधान है।

कथानुसार एक बार मां पार्वती स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसका नाम गणेश रखा। फिर उसे अपना द्वारपाल बना कर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश देकर स्नान करने चली गई। थोड़ी देर बाद भगवान शिव आए और द्वार के अन्दर प्रवेश करना चाहा तो गणेश ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया। इसपर भगवान शिव क्रोधित हो गए और अपने त्रिशूल से गणेश के सिर को काट दिया और द्वार के अन्दर चले गए। जब मां पार्वती ने पुत्र गणेश का कटा हुआ सिर देखा तो अत्यंत क्रोधित हो गई।
तब ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देवताओं ने उनकी स्तुति कर उनको शांत किया और भोलेनाथ से बालक गणेश को जिंदा करने का अनुरोध किया। महामृत्युंजय रूद्र उनके अनुरोध को स्वीकारते हुए एक गज के कटे हुए मस्तक को श्री गणेश के धड़ से जोड़ कर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया।

राजेश अग्रवाल 

टूथपेस्ट रगड़-रगड़ के चमकाते हैं दांत, तो हो जाएं सावधान!


ज्यादा टूथपेस्ट और टूथपाउडर लगा कर दांतों को चमकाने वाले सावधान हो जाएं। ऐसा करने वाले लोग अपने दांतों को ना सिर्फ नुक्सान पहुंचा सकते है बल्कि दांतों को जल्दी बूढा भी बना सकते है।
बीएचयू में चल रहे एक शोध के प्रारंभिक परिणामों का हवाला माने तो मार्केट में बिकने वाले कुछ टूथपेस्ट/टूथपाउडर में अधिक और अनुचित आकार में अब्रैजिव (घिसने) वाले पदार्थों के होने से दांतों की सेहत और उम्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। 

RAJESH AGRAWAL


भारत का वैज्ञानिक चिन्तन

पश्चिम का विज्ञान : एक अस्पष्ट से दूसरे अस्पष्ट तक -----------------
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विज्ञान का एक दूसरा रूप है जिसे प्योर साइंस कहा गया है। इसके अन्तर्गत कुछ मूलभूत प्रश्नों के संदर्भ में विचार किया गया। व्रह्माण्ड क्या है? इसका अंतिम सत्य क्या है व्रह्माण्ड की विभिन्न इकाइयों का स्वरूप क्या है तथा उनका आपसी सम्बंध क्या है?
उपर्युक्त मूलभूत प्रश्नों पर पश्चिम और भारत-दोनों ही जगह विचार किया गया, विश्लेषण किया गया, निष्कर्ष निकाले गए। परन्तु दोनों के मार्ग भिन्न थे। जैसा स्वामी विवेकानंद ने कहा, ‘पश्चिमी विज्ञान बहिर्जगत्‌ के व्यापक विश्लेषण और प्रयोग द्वारा इन प्रश्नों के उत्तर पाने की दिशा में बढ़ा और भारत बहिर्जगत्‌ का सामान्य परन्तु अन्तर्जगत्‌ का विशेष रूप से अवलोकन करते हुए आगे बढ़ा।‘ दोनों ने इस खोज यात्रा के निष्कर्ष निकाले, उस आधार पर उनकी एक विश्व दृष्टि और जीवन दृष्टि बनी, जिसने सम्पूर्ण जगत के विभिन्न पारस्परिक व्यवहारों को प्रभावित किया।

भारत का वैज्ञानिक चिंतन की अंतिम कड़ियों में हम पश्चिम और भारत की इस खोज यात्रा और उसके परिणामों का विश्लेषण करेंगे।

पश्चिम की विज्ञान यात्रा
(क) प्राचीन ग्रीक दार्शनिकों के अनुसार जगत पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि-इन चार तत्वों से बना है। कुछ दार्शनिकों ने यह माना कि जगत अणुमय है। इन सभी का संसार के प्रति जैविक दृष्टिकोण था। यह धारणा सन्‌ १५०० तक पश्चिम में प्रभावी रही परन्तु सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में पश्चिम में विज्ञान के क्षेत्र में मूलभूत परिवर्तन हुए, जिन्होंने आज तक चली आ रही धारणाओं को जड़-मूल से हिला दिया। इस परिवर्तन के सूत्रधार थे फ्रांसिस बेकन, रेने देकार्ते, गैलीलियो एवं न्यूटन।

(ख) जगत के ज्ञान की प्राप्ति हेतु 
फ्रांसिस  बेकन ने गणितीय पद्धति का प्रतिपादन किया। उसके अनुसार पहले प्रयोग करना फिर सामान्य निष्कर्ष निकालना तथा पुन: प्रयोग से जांचना, इससे जो ठीक निकलेगा वह ठीक और बाकी गलत है।

रेने देकार्ते ने ज्ञान की पारंपरिक विधि न मानते हुए कहा कि समस्त ज्ञान, जिसमें संभावना की बात कही गई हो, अस्वीकार करने योग्य है। केवल वही ज्ञान स्वीकार्य है जो निश्चयात्मक और संशयातीत हो। इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने का तरीका उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘डिस्कोर्स ऑन मेथड‘ में बताया। इस पुस्तक में उन्होंने प्रतिपादित किया कि किसी समस्या को जानना है तो उसके छोटे से छोटे टुकड़े करते जाएं, फिर उनका तार्किक संयोजन करें। यह विश्लेषणात्मक पद्धति उसकी आधुनिक विज्ञान को बड़ी देन बनी।

गैलीलियो ने यंत्रों के प्रयोग से निरीक्षण करने का प्रयत्न किया और ग्रहों के निरीक्षण के आधार पर उस समय की भू-केन्द्रक विश्व की अवधारणा को चुनौती दी और प्रतिपादित किया कि सूर्य पृथ्वी का नहीं अपितु पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है।

इस प्रकार देकार्ते ने विश्व को छोटे से छोटे टुकड़े कर समझने की बात कही तो गैलीलियो ने विशाल अंतरिक्ष के निरीक्षण का द्वार खोला और आगे चलकर पश्चिम की विज्ञान यात्रा व्रह्माण्ड के सूक्ष्मतम अंश की खोज और उसकी विशालता को मापने की दिशा में अग्रसर हुई।


व्रह्माण्ड के सूक्ष्मतम भाग की खोज में पहले माना गया कि यह जगत तत्व (एलीमेंट) यौगिक (कम्पाऊन्ड) तथा मिश्रण (मिक्सचर) का समुच्चय है। फिर खोज आगे बढ़ी तब कहा कि मूल तत्व एलीमेंट हैं और वह अविभाज्य है। लगभग ९२ प्रकार के तत्व खोजे गए और माना गया कि जगत इनका समुच्चय है। परन्तु एवगेड्रो और डाल्टन ने प्रतिपादित किया कि तत्व (एलीमेंट) मूल नहीं हैं बल्कि ये छोटे-छोटे अविभाज्य कणों से बने हैं जिन्हें अणु और परमाणु कहा गया।

न्यूटन ने इन समस्त वैज्ञानिक तथ्यों का संयोजन करते हुए सम्पूर्ण व्रह्माण्ड की कल्पना प्रस्तुत की। उसने अपनी प्रतिभा से एक नयी गणितीय पद्धति, जिसे डिफरेंशियल कैलकुलस कहा जाता है, का विकास किया तथा उसके द्वारा केप्लर के ग्रहीय गति (प्लेनेटरी मोशन) के नियमों तथा गैलीलियो के गिरती वस्तु के नियम (लॉ ऑफ फालिंग बॉडीज) को अपने सामान्य गति के नियमों में समाहित किया, जिसके द्वारा सामान्य पत्थर से लेकर सौर मंडलों और तारों तक के नियंत्रण और गति की व्याख्या हो सकती थी। इस आधार पर न्यूटन ने अपना एक व्रह्माण्डीय मॉडल प्रस्तुत किया। न्यूटन के अनुसार सम्पूर्ण व्रह्माण्ड में दिक्‌ और काल अनंत है इनमें दिक्‌ एक रस है व काल सरल रैखिक है। इसी देश-काल से सामान्य रेत के कण से लेकर विराट ग्रह व नक्षत्र सब बने हैं। इनका निर्माण छोटे-छोटे अविभाज्य कणों के द्वारा हुआ है और कणों को गति गुरुत्व शक्ति से मिलती है। न्यूटन ने अपने गति संबंधी नियमों से व्रह्माण्ड की गति की व्याख्या प्रस्तुत की तथा प्रतिपादित किया कि सम्पूर्ण व्रह्माण्ड इन नियमों से चलता है। आगे लगभग ३०० वर्षों तक न्यूटन की व्रह्माण्डीय मशीन की अवधारणा सम्पूर्ण पश्चिमी जगत पर हावी रही।


(ग) १९वीं सदी के अंत तथा २०वीं सदी के प्रारंभ में विज्ञान के क्षेत्र में दो बड़ी सैद्धान्तिक प्रणालियां अस्तित्व में आएं जिन्होंने न्यूटन के मशीनी व्रह्माण्ड तथा इस जगत का निर्माण मूलभूत कणों से हुआ है, इस अवधारणा को जड़-मूल से हिला दिया। ये सैद्धान्तिक प्रणालियां थीं ऊर्जा पुंज सिद्धान्त (क्वांटम थ्योरी) जिसका सम्बन्ध शक्ति की बुनियादी इकाई से था। तथा सापेक्षता सिद्धान्त (थ्योरी ऑफ रिलेटीविटी) जिसका सम्बंध दिक्‌ (स्पेस) काल (टाइम) तथा सम्प्पूर्ण व्रह्माण्ड की बनावट से था।

ऊर्जापुंज सिद्धान्त के प्रतिपादन में मैक्सवेल, मैक्सप्लांक, मैडमक्यूरी, रदर फोर्ड, नील्स बोर, हीजनबर्ग, जेम्स चाडविक, लुई डी व्रोगली, इरविन श्रोडिंगर आदि का योगदान रहा।


(१) १८वीं सदी के मध्य तक परमाणु अविभाज्य माना गया। परन्तु हेम्होस नामक जर्मन भौतिकविद्‌ ने यह अवधारणा रखी कि विद्युत ऋण और धन आवेश युक्त होती है और जैसे तत्व परमाणु से बने हैं, उसी प्रकार विद्युत भी कणों से बनी होगी। आगे चलकर थामसन, हर्ट आदि ने प्रयोगों से सिद्ध किया कि विद्युत इलेक्ट्रान नामक सूक्ष्म कणों से बना है। ये कण परमाणु के नाभिक के आस-पास चक्कर लगाते हैं। रदरफोर्ड और नील्सबोर ने परमाणु के ग्रहीय रूप का प्रतिपादन किया। आगे चलकर परमाणु का नाभिक टूटा और घन आवेशित प्रोटान और बिना आवेश के न्यूट्रान ऋण की खोज हुई। आइंस्टीन ने प्रतिपादित किया कि प्रकाश फोटोन नामक कणों का प्रवाह है जो विद्युत चुम्बकीय कणों से भिन्न है। इस खोज की प्रक्रिया में १९६३ तक परमाणु के अंदर मेसोन, पायोन न्यूयॉन, हाइपरान, न्यूट्रीनों आदि २०० प्रकार के सूक्ष्म कणों की खोज हुई और मानो कणों का जंगल खड़ा हो गया। अनेकानेक कण खोजे गए, परन्तु इन कणों का सत्य क्या है, यह जानने जब विज्ञान निकला तो एक बाधा आई, जिसका समाधान आज तक नहीं हो पाया। क्योंकि यदि हम इलेक्ट्रॉन की आन्तरिक रचना जानना चाहते हैं तो हमें इलेक्ट्रॉन की गति तथा दिशा का ज्ञान प्राप्त करना पड़ेगा। उसकी दिशा जानने के लिए गामा किरण का प्रयोग करना पड़ेगा। पर इलेक्ट्रान, जो प्रकाश के साधारण फोटोन से टकराकर अपना रूप बदल देता है, गामा किरण से टकराने के साथ ही भिन्न रूप में आ जाएगा। तब समस्या यह आई कि जिसकी आन्तरिक रचना जानना है उसे देखते हैं तो वह वही नहीं रहता। इसे वर्नर हीजनबर्ग ने अनिश्चितता का सिद्धान्त कहा और कहा कि इलेक्ट्रान कोई वस्तु नहीं है, इसकी अन्तरिक रचना जानना कठिन है। तब प्रश्न उठा कि फिर जानने का माध्यम क्या? इस प्रश्न के उत्तर की खोज में ध्यान में आया कि मूल तत्व कण है या तरंग, यह हम नहीं जानते। परन्तु कभी ये एक इकाई के रूप अकेले नहीं अपितु एक प्रवाह के रूप में व्यवहार करते हैं। कभी वे कण रूप में भासित होते हैं तथा कभी तरंग रूप में, और यह अनुभूति वास्तविक है। तो ध्यान में आया कि कण या तरंग रूप का अनुभव उस प्रक्रिया पर निर्भर है जिसका उपयोग जानने के लिए किया गया है। इस प्रकार इन सूक्ष्म तत्वों की अनुभूति दृष्टा या आब्जर्वर तथा उसके द्वारा अपनाये जाने वाली प्रक्रिया पर आश्रित हो गई। आज का वैज्ञानिक असंख्य कणों को न जानते हुए भी उनके स्वभाव के आधार पर उनसे व्यवहार करता है। इसका उल्लेख करते हुए सर जेम्स जीन्स अपनी पुस्तक ‘न्यू बैकग्राउण्ड ऑफ साइंस‘ में कहते हैं ‘आज के भौतिक विज्ञान के इलेक्ट्रान, प्रोटान, फोटान वैसे ही हैं, जैसे किसी बालक के पास बीज गणित के क,ख,ग। आज अधिक से अधिक यह हो रहा है कि बिना यह जाने कि यह कण क्या है हम इनसे व्यवहार कर कुशलतापूर्वक आविष्कार करने में सक्षम हुए हैं।‘ इससे व्रह्माण्ड के अंतिम सत्य को जानने की विज्ञान यात्रा आइंस्टीन के शब्दों में ‘एक अस्पष्ट से दूसरे अस्पष्ट को निकालना मात्र रह गई है।‘

(२) विज्ञान ने व्रह्माण्ड के मूल तत्व की खोज की यात्रा में पाया कि अन्त: पारमाण्विक जगत के कण या तरंग अकेले व्यवहार नहीं करते अपितु उनका प्रवाह रहता है और यह प्रवाह ऊर्जा रूप है और हम उन ऊर्जाओं के साथ व्यवहार करते हैं। पूर्व में प्रकाश, ताप, चुम्बकत्व, विद्युत, ध्वनि आदि विविध शक्तियां भिन्न-भिन्न मानी जाती थीं। परन्तु बाद में नवीन खोजों से शक्तियों के एकीकरण की प्रक्रिया चली और इसमें से माना गया कि चार मूलभूत बल हैं। (१) गुरुत्वाकर्षण बल-यह सभी मुख्य कणों इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तथा न्यूट्रोनों के बीच है तथा पृथ्वी सहित समस्त व्रह्माण्ड पर नियमन करने वाला बल है। पर इसका कारण माने जाने वाले ग्रेविटोन को अभी तक जाना नहीं जा सका है। (२) विद्युत चुम्बकीय बल, इलेक्ट्रोमेग्नेटिक फोर्स। अब यह सिद्ध हो गया है कि ताप, विद्युत, ध्वनि, चुम्बकत्व और अन्य सब शक्तियां विभिन्न तरंगदैध्य वाली विद्युत चुम्बकीय शक्ति ही हैं। (३) प्रबल नाभिकीय बल, यह परमाणु के नाभिक में प्रोट्रॉन और न्यूट्रॉन को बांधे रखने वाला बल है। यह विद्युत चुम्बकीय बल से दस लाख गुना प्रबल है। (४) निर्बल नाभिकीय बल (ध्र्ड्ढड्ढत्त्‌ त्दद्यड्ढद्धद्मठ्ठड़द्यत्दृद)। इन चार बातों में सब कुछ समाहित है। इसमें विद्युत चुम्बकीय तथा प्रबल और निर्बल नाभिकीय बलों का समन्वय वाइनबर्ग एवं पाकिस्तान के अब्दुस सलाम ने किया है। परन्तु अभी गुरुत्व बल को इसमें नहीं जोड़ा जा सका है। (जारी)

(३) आइंस्टीन ने अपने विशिष्ट सापेक्षिता सिद्धांत में पदार्थ व ऊर्जा का एकीकरण किया। उन्होंने कहा ऊर्जा की स्थूल अभिव्यक्ति पदार्थ है तथा अपने प्रसिद्ध समीकरण कउथ्र्ड़२ द्वारा सिद्ध किया कि दोनों एक-दूसरे में परिवर्तित हो सकते हैं।


राजेश अग्रवाल