14 October 2012

श्री पतञ्जलि----



पतञ्जलि काशी में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में विद्यमान थे। इनका जन्म गोनारद्य (गोनिया) में हुआ था पर ये काशी में "नागकूप' पर बस गये थे। ये व्याकरणाचार्य पाणिनी के शिष्य थे। काशीनाथ आज भी श्रावण कृष्ण ५, नागपंचमी को "छोटे गुरु का, बड़े गुरु का नाग लो भाई नाग लो' कहकर नाग के चित्र बाँटते हैं क्योंकि पतञ्जलि को शेषनाग का अवतार माना जाता है। पतञ्जलि महान् चकित्सक थे और इन्हें ही 'चरक संहिता' का प्रणेता माना जाता है। पतञ्जलि का महान अवदान है 'योगसूत्र'। पतञ्जलि रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे - अभ्रक विंदास अनेक धातुयोग और लौहशास्र इनकी देन है। पतञ्जलि संभवत: पुष्यमित्र शुंग (१९५-१४२ ई.पू.) के शासनकाल में थे। राजा भोज ने इन्हें तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है।

ई.पू. द्वितीय शताब्दी में 'महाभाष्य' के रचयिता पतञ्जलि काशी-मण्डल के ही निवासी थे। मुनियत्र की परंपरा में वे अंतिम मुनि थे। पाणिनी के पश्चात् पतञ्जलि सर्वश्रेष्ठ स्थान के अधिकारी पुरुष हैं। उन्होंने पाणिना व्याकरण के महाभाष्य की रचना कर स्थिरता प्रदान की। वे अलौकिक प्रतिभा के धनी थे। व्याकरण के अतिरिक्त अन्य शास्रों पर भी इनका समान रुप से अधिकार था। व्याकरण शास्र में उनकी बात को अंतिम प्रमाण समझा जाता है। उन्होंने अपने समय के जनजीवन का पर्याप्त निरीक्षण किया था। अत: महाभाष्य व्याकरण का ग्रंथ होने के साथ-साथ तत्कालीन समाज का विश्वकोश भी है। यह तो सभी जानते हैं कि पतञ्जलि शेषनाग के अवतार थे। द्रविड़ देश के सुकवि रामचन्द्र दीक्षित ने अपने 'पतञ्जलि चरित' नामक काव्य ग्रंथ में उनके चरित्र के संबंध में कुछ नये तथ्यों की संभावनाओं को व्यक्त किया है। उनके अनुसार शंकराचार्य के दादागुरु आचार्य गौड़पाद पतञ्जलि के शिष्य थे किंतु तथ्यों से यह बात पुष्ट नहीं होती है।

प्राचीन विद्यारण्य स्वामी ने अपने ग्रंथ 'शंकर दिग्विजय' में शंकराचार्य में गुरु गोविंद पादाचार्य का रुपांतर माना है। इस प्रकार उनका संबंध अद्वेैत वेदांत के साथ जुड़ गया। पतञ्जलि के समय निर्धारण के संबंध में पुष्यमित्र कण्व वंश के संस्थापक ब्राह्मण राजा के अश्वमेध यज्ञों की घटना को लिया जा सकता है। यह घटना ई.पू. द्वितीय शताब्दी की है। इसके अनसार महाभाष्य की रचना काल ई.पू. द्वितीय शताब्दी का मध्यकाल अथवा १५० ई. पूर्व माना जा सकता है। पतञ्जलि की एकमात्र रचना महाभाष्य है जो उनकी कीर्ति को अमर बनाने के लिये पर्याप्त है। दर्शन शास्र में शंकराचार्य को जो स्थान 'शारीरिक भाष्य' के कारण प्राप्त है, वही स्थान पतञ्जलि को महाभाष्य के कारण व्याकरण शास्र में प्राप्त है। पतञ्जलि ने इस ग्रंथ की रचना कर पाणिनी के व्याकरण की प्रामाणिकता पर अंतिम मुहर लगा दी है।




श्री पाणिनी-----



पाणिनी मुनि अपने व्याकरण 'अष्टाध्यायी" अथवा 'पाणिनीय अष्टक' के लिये प्रसिद्ध हैं। अब तक प्रकाशित ग्रंथों में सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ पाणिनी का ही है। पाणिनी का काल ३५० ई.पू. माना जाता है किंतु इस संबंध में प्रस्तुत सन्देह रहित नहीं है। संभवत: उनका काल ५०० ई. पूर्व या उसके बाद का था।

सूत्र साहित्य में पाणिनी कृत - 'अष्टाधायायी', 'श्रौत सूत्र', 'गृह्यसूत्र' तथा धर्मसूत्र का समावेश है। पाणिनीकृता 'अष्टाध्यायी' संस्कृत व्याकरण संबंद ग्रंथ है। इसमें श्रौत सूत्रों में पुरोहितों द्वारा सम्पादित किये जाने वाले संस्कारों का विवरण है। 'धर्मसूत्र' में परम्परागत नियम तथा विधियाँ दी गयी हैं और गृह्यसूत्रों में जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक की जीवन विष्यक क्रियाओं का उल्लेख है। प्रमुख सूत्रकारों में गौतम, बोधायन-आपस्तम्ब, वशिष्ठ, आश्वलायन तथा कात्यायन आदि कि गणना होती है।

पाणिनी के नाम से कमनीय पद्य केवल सूक्तियों में ही संग्रहित नहीं है, बल्कि कोश ग्रंथों में तथा अलंकार शास्रीय पुस्तकों में भी उधृत मिलते हैं। पुरातत्व वेत्ताओं में इस बात पर गहरा मतभेद है कि ये कविताएँ, वैय्याकरण पाणिनी की हैं अथवा 'पाणिनी' नामधारी किसी अन्य कवि की? डॉक्टर भाण्डारकर, पीचर्सन आदि विद्वान सब कुछ सोचने-विचारने के बाद यही सोचते हैं कि इन श्लोकों का रचियता पाणिनी वैय्याकरण पाणिनी नहीं हो सकता। इस के विपरीत डॉक्टर औफ्रेक्ट तथा डॉक्टर पिशेल की सम्मति है कि पाणिनी को केवल एक खूसट वैय्याकरम मानना बड़ी भारी भूल करना है, वह स्वयं अच्छ कवि थे। संस्कृत साहित्य की परंपरागत प्रसिद्धि पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि पाणिनी ही इन पद्यों के नि:सन्दिग्ध रचयिता है। राजशेखर ने सूक्तिग्रंथों में पाणिनी को व्याकरण तथा 'जाम्बवती जय' का रचयिता माना है -

नम: पाणिनये तस्मै यस्मादाविर भूदिह।

आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम्।।

यह बात महत्वपूर्ण है कि पाणिनी यदा-कदा फुटकर पद्य लिखने वाले कवि नहीं थे, बल्कि संस्कृत साहित्य के सर्वप्रथम महाकाव्य लिखने का श्रेय उन्हीं को जाता है। इस महाकाव्य का नाम कहीं तो 'पाताल विजय' तो कहीं 'जाम्बवती जय' पाया जाता है। अष्टाध्यायी में पारिभाषिक शब्दों में ऐसे अनेक शब्द हैं जो पाणिनी के बनाये हुए हैं और बहुत से ऐसे हैं जो पहले से ही प्रचलित हैं। पाणिनी ने अपने रचे शब्दों की व्याख्या की है और पहले के अनेक पारिभाषिक शब्दों की भी नयी व्याख्या कर उनके प्रयोग को विकसित किया है।

महर्षि पाणिनी ने काशी शब्द को गण के आदि में दिखलाया है।

काश्यादिभ्यष्ठञत्रिठौ-अष्टाध्यायी ४-२-११६

अष्टाध्यायी में 'काशीय:' रुप की सिद्धि भी बतायी गयी है।

संस्कृत में उच्चारण की शुद्धता पर अधिक जोर दिया जाता है। वैदिक मन्त्रों में उच्चारण में यदि छोटी सी भी त्रुटि हो जाती है, तो महान् अनर्थ उपस्थित हो जाता है और इस अनर्थ का भाजन स्वयं वृत्तासुर को बनना पड़ा था जिसे यज्ञ में स्वर के अपराध से लेने के देने पड़ गये थे। महर्षि पाणिनी ने व्याघ्री को अपने बच्चे को मुँह में ले जाते देखा था और उसी को उन्होंने वर्णोंच्चारण-विधान में आदर्श माना था। बोलने वाले को चाहिये कि न तो वह वर्णों का काटे, न वर्णों को मुँह से बिखरने दे -

व्याघ्री यथा हरेत् पुत्रान् दंष्ट्राभ्यां न च पीडयेत्।

भीता पतन-भेदाभ्यां तद्वद् वर्णान प्रजोजयेत्।।-पाणिनी शिक्षा-श्लोक २४




भूख से कम खाने पर लाभ :


गुणाश्च षण्मितभुक्तं भजन्ते आरोग्यमायुश्च बलं सुखं च।
अनाबिलं चास्य भवत्यपत्यं न चैनमाद्यूत इति क्षिपन्ति।।


भूख से थोड़ा सा कम खाने से पहला फायदा है कि व्यक्ति रोगी नहीं होता। क्योंकि ज्यादा खाना पाचन में गड़बड़ी से कई बीमारियों की वजह बनता है। कम खाने से इनसे बचाव होता है।

जब व्यक्ति खान-पान नियंत्रित रख निरोगी रहता है तो जाहिर है कि उसकी उम्र बढ़ती है यानी लंबे वक्त तक जीवित रहता है।

कम भोजन से सेहतमंद और बलवान शरीर मन, वचन व व्यवहार को भी साधकर जीवन के सारे सुख बटोरना आसान बना देता हैं।

कम खाने से जुड़ी व्यावहारिक तौर पर सबसे रोचक बात व फायदा यही है कि ऐसे व्यक्ति को कोई 'ज्यादा खाने वाला' यानी 'पेटू'बोलकर ताना नहीं मारता, टोकता नहीं या फिर कोई उससे कतराता नहीं है।


ॐ ॐ

धूप का महत्व


धूप, दीप, चंदन, कुमकुम, अष्टगंध, जल, अगर, कर्पूर, घृत, गुड़, घी, पुष्प, फल, पंचामृत, पंचगव्य, नैवेद्य, हवन, शंख, घंटा, रंगोली, माँडना, आँगन-अलंकरण, तुलसी, तिलक, मौली (कलाई पर बाँधे जाने वाला नाड़ा), स्वस्तिक, ओम, पीपल, आम और कैले के पत्तों का सनातन धर्म में बहुत महत्व है। भोजन करने के पूर्व कुछ मात्रा में भोजन को अग्नि को समर्पित करने से वैश्वदेव यज्ञ पूर्ण होता है।

तंत्रसार के अनुसार अगर, तगर, कुष्ठ, शैलज, शर्करा, नागरमाथा, चंदन, इलाइची, तज, नखनखी, मुशीर, जटामांसी, कर्पूर, ताली, सदलन और गुग्गुल ये सोलह प्रकार के धूप माने गए हैं। इसे षोडशांग धूप कहते हैं। मदरत्न के अनुसार चंदन, कुष्ठ, नखल, राल, गुड़, शर्करा, नखगंध, जटामांसी, लघु और क्षौद्र सभी को समान मात्रा में मिलाकर जलाने से उत्तम धूप बनती है। इसे दशांग धूप कहते हैं।

इसके अलावा भी अन्य मिश्रणों का भी उल्लेख मिलता है जैसे- छह भाग कुष्ठ, दो भाग गुड़, तीन भाग लाक्षा, पाँचवाँ भाग नखला, हरीतकी, राल समान अंश में, दपै एक भाग, शिलाजय तीन लव जिनता, नागरमोथा चार भाग, गुग्गुल एक भाग लेने से अति उत्तम धूप तैयार होती है। रुहिकाख्य, कण, दारुसिहृक, अगर, सित, शंख, जातीफल, श्रीश ये धूप में श्रेष्ठ माने जाते हैं।

यहाँ प्रस्तुत है सामान्य तौर पर गुड़ और घी से दी जाने वाली धूप के महत्व के बारे में संक्षिप्त जानकारी।

कैसे दें धूप : धूप देने और दीप जलाने का बहुत ज्यादा महत्व है। सामान्य तौर पर धूप दो तरह से ही दी जाती है। पहला गुग्गुल-कर्पूर से और दूसरा गुड़-घी मिलाकर जलते कंडे पर उसे रखा जाता है। यहाँ गुड़ और घी से दी गई धूप का खास महत्व है।


सर्वप्रथम एक कंडा जलाएँ। फिर कुछ देर बाद जब उसके अंगारे ही रह जाएँ तब गुड़ और घी बराबर मात्रा में लेकर उक्त अंगारे पर रख दें और उसके आस-पास अँगुली से जल अर्पण करें। अँगुली से देवताओं को और अँगूठे से अर्पण करने से वह धूप पितरों को लगती है। जब देवताओं के लिए करें तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश का ध्यान करें और जब पितरों के लिए अर्पण करें तब अर्यमा सहित अपने पितरों का ध्यान करें और उनसे सुख-शांति की कामना करें।

धूप देने के नियम : रोज धूप नहीं दे पाएँ तो तेरस, चौदस, और अमावस्या, चौदस तथा पूर्णिमा को सुबह-शाम धूप अवश्य देना चाहिए। सुबह दी जाने वाली धूप देवगणों के लिए और शाम को दी जाने वाली धूप पितरों के लिए।

धूप देने के पूर्व घर की सफाई कर दें। पवित्र होकर-रहकर ही धूप दें। धूप ईशान कोण में ही दें। घर के सभी कमरों में धूप की सुगंध फैल जाना चाहिए। धूप देने और धूप का असर रहे तब तक किसी भी प्रकार का संगीत नहीं बजाना चाहिए। हो सके तो कम से कम बात करना चाहिए।

लाभ : धूप देने से मन, शरीर और घर में शांति की स्थापना होती है। रोग और शोक मिट जाते हैं। गृहकलह और आकस्मिक घटना-दुर्घटना नहीं होती। घर के भीतर व्याप्त सभी तरह की नकारात्मक ऊर्जा बाहर निकलकर घर का वास्तुदोष मिट जाता है। ग्रह-नक्षत्रों से होने वाले छिटपुट बुरे असर भी धूप देने से दूर हो जाते हैं। श्राद्धपक्ष में 16 दिन ही दी जाने वाली धूप से पितृ तृप्त होकर मुक्त हो जाते हैं तथा पितृदोष का समाधान होकर पितृयज्ञ भी पूर्ण होता है।


ॐ ॐ


आयोडीन के नाम पर जो महंगा नमक बेचा जा रहा है... वह आयोडीन केवल हम खरीदते हैं...वह हमारे भोजन में पहुंचता ही नहीं...!!


आज हिन्दुराष्ट्र भारत में आयोडीन के नाम पर जो महंगा नमक बेचा जा रहा है... वह आयोडीन केवल हम खरीदते हैं...वह हमारे भोजन में पहुंचता ही नहीं...!!

हमारे देश की रसोई में रोज खाना बनाने की परंपरा है हमारे देश की बहू बेटियां प्रतिदिन हमें ताजा खाना बनाकर ...गरमा गरम खाना परोसती हैं

जबकि विदेशों में बाजार से खरीदा हुआ ठंडा बासी खाना जो फ्रिज में हफ़्तों पड़ा रहा हो ... वह भी खाने की परंपरा है.

आयोडीन एक अत्यंत वाष्पशील पदार्थ है और यह हलकी सी गर्मी से ही बाष्प बनके उड़ जाता है. अपनी सब्जी, दाल, कढ़ी में जिस आयोडीन नमक को हम डालते हैं... वह हलकी सी गर्मी भी नहीं झेल सकता और यह वाष्प बनके तुरंत उड़ जाता है. आपकी रसोई में रखा हुआ नमक का पैकेट भी अगर गर्म है और खुला हुआ है तो आयोडीन उसमें है ही नहीं.. जाँच करके देख लीजिये.

आप थोडा सा स्टार्च या चावल या मक्का या गेंहू का आटा लीजिये..
या अमरुद को काट लीजिये रिवाईटल तो घर में होगा... कपड़ों में डालने वाला

इनमें से किसी भी वस्तु पर आप जिस ब्रांड के आयोडीन नमक को डालना चाहें... डालिए...अगर रंग बदल के हल्का काला या नीला हो जाय तो इसका अर्थ है... उस नमक में आयोडीन है.

अब उस एक चम्मच नमक को हल्का सा ही गर्म कीजिये या नमक को पानी में घोल लीजिये और गर्म कीजिये और पुनः डालके देखिये...
अब रंग नहीं बदलेगा ...इसका अर्थ है... आयोडीन हवा में वाष्प बन के उड़ गया.!!

हम जिस स्टाईल में सब्जी, दाल, कढ़ी बनाते समय पहले नमक डाल के देर तक भूनते है.. या दो चार सीटी लगा के उबाल उबाल के दाल या कढ़ी बनाते हैं ...


उसके बाद एक अणु आयोडीन भी उस भोजन में बचता ही नहीं.
लेकिन चिंता मत कीजिये... इस आयोडीन की आपको जरूरत भी नहीं है...
इसलिए..कम्पनियाँ इसको केवल बेचती हैं... आपको खाने नहीं देती...
नहीं तो आप अधिक आयोडीन खाने से बौने रह जायेंगे.
हा हा हा

नमक में जिस आयोडीन की बात कर कर के इस देश में करोड़ों का नमक का बाजार बनाया गया ...वह इस देश के गरीबों के साथ धोखा है... और कुछ नहीं.


आज नमक जो कभी एक रुपये का पांच किलो मिलता था अब दूध के भाव १५ -१६ रुपये किलो बिक रहा है और बड़ी बड़ी कम्पनियाँ आयोडीन का भय दिखा दिखा के करोड़ों लूट रही हैं...!!

जिस देश के पास हजारों किलोमीटर लम्बा समुद्र तट हो और जहाँ नहाने पर भी मुंह, कान, नाक में रेट के साथ फ्री का नमक भर जाय वहां नमक भी बाजार का ब्रांड बन गया ...! 
स्टेटस सिम्बल है... अब आयोडीन नमक...आज लोगों की आँखों न पानी हैं न नमक ...मगर इसकी चिंता कोई नहीं करता !!

यह बाजारवाद की संस्कृति हमारे गलें में घेघा ठीक करे न करें... घेंघा का डर दिखाने वाले रिसर्च की फंब्डिंग जरूर करती है...! पहले झूठ मूठ के रिसर्च करो...फिर बाजार में विकल्प के नाम पर कूड़ा बेचो...!!

अधिक आयोडीन खाने से ही दसों बीमारियाँ होती हैं...भाई अपनी गर्दन को घेंघा से नहीं .. इन बाजार में बैठे डकैतों से... बचाईये...

सोचिये जरा ...!