28 September 2012

महाराजा अग्रसेन जयंती की हार्दिक शुभकामनाए ::

Photo: महाराजा अग्रसेन जयंती की हार्दिक शुभकामनाए::

महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे। धार्मिक मान्यतानुसार इनका जन्म मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम की चौंतीसवी पीढ़ी में सूर्यवशीं क्षत्रिय कुल के महाराजा वल्लभ सेन के घर में द्वापर के अन्
तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में हुआ था। वर्तमान के अनुसार उनका जन्म आज से करीब 5185 साल पहले हुआ था।
• महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखायः कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेगें।

उनके राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि, सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे।
महाराजा अग्रसेन जी का जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ, जिसे अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व प्रताप नगर के राजा वल्लभ के यहाँ सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ था। वर्तमान में राजस्थान व हरियाणा राज्य के बीच सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर स्थित था। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ॠषि ने महाराज वल्लभ से कहा था, कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा। इस के राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हज़ारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा।
माधवी का वरण
महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहाँ आयोजित स्वंयवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया इस स्वंयवर में देव लोक से राजा इंद्र भी राजकुमारी माधवी से विवाह की इच्छा से उपस्थित थे परन्तु माधवी द्वारा श्री अग्रसेन का वरण करने से इंद्र कुपित होकर स्वंयवर स्थल से चले गये इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ।
तपस्या
कुपित इंद्र ने अपने अनुचरो से प्रताप नगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दिया जिससे भयंकर आकाल पड़ा। चारों तरफ त्राहि त्राहि मच गई तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शस्त्रों का संधान कर इन्द्र से युद्ध कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं था। तब अग्रसेन ने भगवान शंकर एवं महालक्ष्मी माता की अराधना की, इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएँ उत्पन्न कीं परन्तु श्री अग्रसेन की अविचल तपस्या से महालक्ष्मी प्रकट हुई एवं वरदान दिया कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा। माता को अग्रसेन ने इन्द्र की समस्या से अवगत कराया तो महालक्ष्मी ने कहा, इन्द्र को अनुभव प्राप्त है। आर्य एवं नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसे दुखी कर दिया है, तुम्हें कूटनीति अपनानी होगी। कोलापुर के राजा भी नागवंशी है, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो कोलापुर नरेश महीरथ की शक्तियाँ तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, तब इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पडेगा। तुम निडर होकर अपने नये राज्य की स्थापना करो।
अग्रोहा का निर्माण
महाराजा वल्लभ के निधन के बाद श्री अग्रसेन राजा हुए और राजा वल्लभ के आशीर्वाद से लोहागढ़ सीमा से निकल कर अग्रसेन ने सरस्वती और यमुना नदी के बीच एक वीर भूमि खोजकर वहाँ अपने नए राज्य अग्रोहा का निर्माण किया और अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है।
अठारह यज्ञ
माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 पुत्र के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। माना जाता है कि यज्ञों में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई । यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ॠषि बने, राजकुमार विभु को दीक्षित कर उन्हें गर्ग गोत्र से मंत्रित किया। इसी प्रकार दूसरा यज्ञ गोभिल ॠषि ने करवाया और द्वितीय पुत्र को गोयल गोत्र दिया। तीसरा यज्ञ गौतम ॠषि ने गोइन गोत्र धारण करवाया, चौथे में वत्स ॠषि ने बंसल गोत्र, पाँचवे में कौशिक ॠषि ने कंसल गोत्र, छठे शांडिल्य ॠषि ने सिंघल गोत्र, सातवे में मंगल ॠषि ने मंगल गोत्र, आठवें में जैमिन ने जिंदल गोत्र, नवें में तांड्य ॠषि ने तिंगल गोत्र, दसवें में और्व ॠषि ने ऐरन गोत्र, ग्यारवें में धौम्य ॠषि ने धारण गोत्र, बारहवें में मुदगल ॠषि ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में वसिष्ठ ॠषि ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में मैत्रेय ॠषि ने मित्तल गोत्र, पंद्रहवें कश्यप ॠषि ने कुच्छल गोत्र दिया। 17 यज्ञ पूर्ण हो चुके थे। जिस समय 18 वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न माँस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा। इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने क्षत्रिय धर्म को अपना लिया। अठारवें यज्ञ में नगेन्द्र ॠषि द्वारा नांगल गोत्र से अभिमंत्रित किया।
ॠषियों द्वारा प्रदत्त अठारह गोत्रों को महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों के साथ महाराजा द्वारा बसायी 18 बस्तियों के निवासियों ने भी धारण कर लिया एक बस्ती के साथ प्रेम भाव बनाये रखने के लिए एक सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि अपने पुत्र और पुत्री का विवाह अपनी बस्ती में नहीं दूसरी बस्ती में करेंगे। आगे चलकर यह व्यवस्था गोत्रों में बदल गई जो आज भी अग्रवाल समाज में प्रचलित है।
अठारह गोत्र
महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र हुए, जिनके नाम पर वर्तमान में अग्रवालों के 18 गोत्र हैं। ये गोत्र निम्नलिखित हैं: -
गोत्रों के नाम
ऐरन बंसल बिंदल भंदल धारण गर्ग गोयल गोयन जिंदल
कंसल कुच्छल मधुकुल मंगल मित्तल नागल सिंघल तायल तिंगल

महाराज ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर अपने 18 पुत्रों को सौंप उनके 18 गुरुओं के नाम पर 18 गोत्रों की स्थापना की थी। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे। इसी कारण अग्रोहा भी सर्वंगिण उन्नति कर सका। राज्य के उन्हीं 18 गणों से एक-एक प्रतिनिधि लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, जिसका स्वरूप आज भी हमें भारतीय लोकतंत्र के रूप में दिखाई पडता है।

उन्होंने परिश्रम और उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसका समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर आत्म-रक्षा के लिए शस्त्रों के उपयोग की शिक्षा पर भी बल दिया।
उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोडे को बहुत बेचैन और डरा हुआ पा उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के ना चाहने पर भी पशू बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवाल समाज हिंसा से दूर ही रहता है। अपनी जिंदगी के अंतिम समय में महाराज ने अपने ज्येष्ट पुत्र विभू को सारी जिम्मेदारी सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम अपना लिया।

महाराज अग्रसेन के राज की वैभवता से उनके पडोसी राजा बहुत जलते थे। इसलिए वे बार-बार अग्रोहा पर आक्रमण करते रहते थे। बार-बार मुंहकी खाने के बावजूद उनके कारण राज्य में तनाव बना ही रहता था। इन युद्धों के कारण अग्रसेनजी के प्रजा की भलाई के कामों में विघ्न पडता रहता था। लोग भी भयभीत और रोज-रोज की लडाई से त्रस्त हो गये थे। इसी के साथ-साथ एक बार अग्रोहा में बडी भीषण आग लगी। उस पर किसी भी तरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गये और जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे। पर उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोडी। वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगे हुए हैं।

महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे। धार्मिक मान्यतानुसार इनका जन्म मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम की चौंतीसवी पीढ़ी में सूर्यवशीं क्षत्रिय कुल के महाराजा वल्लभ सेन के घर में द्वापर के अन्तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में हुआ था। 

वर्तमान के अनुसार उनका जन्म आज से करीब 5185 साल पहले हुआ था।


• महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखायः कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेगें।

उनके राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि, सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे।


महाराजा अग्रसेन जी का जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ, जिसे अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व प्रताप नगर के राजा वल्लभ के यहाँ सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ था। वर्तमान में राजस्थान व हरियाणा राज्य के बीच सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर स्थित था। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ॠषि ने महाराज वल्लभ से कहा था, कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा। इस के राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हज़ारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा।
माधवी का वरण महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहाँ आयोजित स्वंयवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया इस स्वंयवर में देव लोक से राजा इंद्र भी राजकुमारी माधवी से विवाह की इच्छा से उपस्थित थे परन्तु माधवी द्वारा श्री अग्रसेन का वरण करने से इंद्र कुपित होकर स्वंयवर स्थल से चले गये इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ। तपस्या कुपित इंद्र ने अपने अनुचरो से प्रताप नगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दिया जिससे भयंकर आकाल पड़ा। चारों तरफ त्राहि त्राहि मच गई तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शस्त्रों का संधान कर इन्द्र से युद्ध कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं था। तब अग्रसेन ने भगवान शंकर एवं महालक्ष्मी माता की अराधना की, इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएँ उत्पन्न कीं परन्तु श्री अग्रसेन की अविचल तपस्या से महालक्ष्मी प्रकट हुई एवं वरदान दिया कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा। माता को अग्रसेन ने इन्द्र की समस्या से अवगत कराया तो महालक्ष्मी ने कहा, इन्द्र को अनुभव प्राप्त है। आर्य एवं नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसे दुखी कर दिया है, तुम्हें कूटनीति अपनानी होगी। कोलापुर के राजा भी नागवंशी है, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो कोलापुर नरेश महीरथ की शक्तियाँ तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, तब इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पडेगा। तुम निडर होकर अपने नये राज्य की स्थापना करो।


अग्रोहा का निर्माण महाराजा वल्लभ के निधन के बाद श्री अग्रसेन राजा हुए और राजा वल्लभ के आशीर्वाद से लोहागढ़ सीमा से निकल कर अग्रसेन ने सरस्वती और यमुना नदी के बीच एक वीर भूमि खोजकर वहाँ अपने नए राज्य अग्रोहा का निर्माण किया और अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है।

अठारह यज्ञ

माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 पुत्र के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। माना जाता है कि यज्ञों में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई । यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ॠषि बने, राजकुमार विभु को दीक्षित कर उन्हें गर्ग गोत्र से मंत्रित किया। इसी प्रकार दूसरा यज्ञ गोभिल ॠषि ने करवाया और द्वितीय पुत्र को गोयल गोत्र दिया। तीसरा यज्ञ गौतम ॠषि ने गोइन गोत्र धारण करवाया, चौथे में वत्स ॠषि ने बंसल गोत्र, पाँचवे में कौशिक ॠषि ने कंसल गोत्र, छठे शांडिल्य ॠषि ने सिंघल गोत्र, सातवे में मंगल ॠषि ने मंगल गोत्र, आठवें में जैमिन ने जिंदल गोत्र, नवें में तांड्य ॠषि ने तिंगल गोत्र, दसवें में और्व ॠषि ने ऐरन गोत्र, ग्यारवें में धौम्य ॠषि ने धारण गोत्र, बारहवें में मुदगल ॠषि ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में वसिष्ठ ॠषि ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में मैत्रेय ॠषि ने मित्तल गोत्र, पंद्रहवें कश्यप ॠषि ने कुच्छल गोत्र दिया। 17 यज्ञ पूर्ण हो चुके थे। जिस समय 18 वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न माँस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा। इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने क्षत्रिय धर्म को अपना लिया। अठारवें यज्ञ में नगेन्द्र ॠषि द्वारा नांगल गोत्र से अभिमंत्रित किया।
ॠषियों द्वारा प्रदत्त अठारह गोत्रों को महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों के साथ महाराजा द्वारा बसायी 18 बस्तियों के निवासियों ने भी धारण कर लिया एक बस्ती के साथ प्रेम भाव बनाये रखने के लिए एक सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि अपने पुत्र और पुत्री का विवाह अपनी बस्ती में नहीं दूसरी बस्ती में करेंगे। आगे चलकर यह व्यवस्था गोत्रों में बदल गई जो आज भी अग्रवाल समाज में प्रचलित है।

अठारह गोत्र

महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र हुए, जिनके नाम पर वर्तमान में अग्रवालों के 18 गोत्र हैं। ये गोत्र निम्नलिखित हैं: -
गोत्रों के नाम 

  1. ऐरन 
  2. बंसल 
  3. बिंदल 
  4. भंदल 
  5. धारण 
  6. गर्ग 
  7. गोयल 
  8. गोयन 
  9. जिंदल
  10. कंसल 
  11. कुच्छल 
  12. मधुकुल 
  13. मंगल 
  14. मित्तल 
  15. नागल 
  16. सिंघल 
  17. तायल 
  18. तिंगल

महाराज ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर अपने 18 पुत्रों को सौंप उनके 18 गुरुओं के नाम पर 18 गोत्रों की स्थापना की थी। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे। इसी कारण अग्रोहा भी सर्वंगिण उन्नति कर सका। राज्य के उन्हीं 18 गणों से एक-एक प्रतिनिधि लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, जिसका स्वरूप आज भी हमें भारतीय लोकतंत्र के रूप में दिखाई पडता है।

उन्होंने परिश्रम और उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसका समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर आत्म-रक्षा के लिए शस्त्रों के उपयोग की शिक्षा पर भी बल दिया।

उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोडे को बहुत बेचैन और डरा हुआ पा उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के ना चाहने पर भी पशू बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवाल समाज हिंसा से दूर ही रहता है। अपनी जिंदगी के अंतिम समय में महाराज ने अपने ज्येष्ट पुत्र विभू को सारी जिम्मेदारी सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम अपना लिया।

महाराज अग्रसेन के राज की वैभवता से उनके पडोसी राजा बहुत जलते थे। इसलिए वे बार-बार अग्रोहा पर आक्रमण करते रहते थे। बार-बार मुंहकी खाने के बावजूद उनके कारण राज्य में तनाव बना ही रहता था। इन युद्धों के कारण अग्रसेनजी के प्रजा की भलाई के कामों में विघ्न पडता रहता था। लोग भी भयभीत और रोज-रोज की लडाई से त्रस्त हो गये थे। इसी के साथ-साथ एक बार अग्रोहा में बडी भीषण आग लगी। उस पर किसी भी तरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गये और जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे। पर उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोडी। वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगे हुए हैं।

बेटी के घर का अन्न-जल माँ-बाप को क्यूँ नहीं ग्रहण करना चाहिए !


अक्सर हम ये सुनते हैं की हमारे शास्त्रों में कहा गया है की शादी के बाद अपनी बेटी के घर (ससुराल) जाकर कुछ नहीं खाना चाहिए . यहाँ तक की बेटी के घर का पानी भी नहीं पीना चाहिए. उसका कारण ये है की माँ-बाप ने अपनी कन्या का दान कर दिया है और दान की हुई किसी भी वास्तु पर दाता का कोई अधिकार नहीं होता है. 

जब तक बेटी की कोई संतान न पैदा हो तब तक
उसके घर का अन्न-जल नहीं लेना चाहिए. जब बेटी के घर संतान पैदा हो जाये तो ये पाबन्दी नहीं होती है. इसका कारण ये है की उनके दामाद ने अपने पित्रऋण से मुक्त होने के लिए उनकी बेटी को स्वीकार किया है. उससे संतान होने पर दामाद पित्रऋण से मुक्त हो जाता है और बेटी पर माँ--बाप का अधिकार हो जाता है. तभी तो दैहित्र या दोता अपने नाना-नानी का श्राद तर्पण करता है और परलोक में नाना-नानी अपने दोते का किया हुआ श्राद-तर्पण, पिंड-पानी स्वीकार भी करते हैं. अगर बेटी के घर पुत्र नहीं होकर पुत्री भी पैदा होती है तो भी दामाद पर से पित्रऋण का भार समाप्त हो जाता है. बेटी की संतान पुत्र हो या पुत्री उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. एक बार संतान होने के बाद बेटी के घर का अन्न-जल ग्रहण करने में कोई मनाही नहीं है.

!! कपिल मुनि का सच !!


भागवत पुराण के अनुसार कपिल के माता पिता कर्दम ऋषि और देवहुति थे । जब कर्दम ऋषि ने संन्यास लेकर गृह त्याग कर दिया तब कपिल जी ने अपनी माता को योग के ज्ञान का उपदेश दिया था जिससे उनकी मुक्ति हो गयी। कपिल ऋषि के वंशज आज भी पंजाब में पाए जा सकते हैं। कपिल जी के सांख्य योग को भगवन कृष्ण ने उद्धव को दिया था,
उद्धव गीता में ।

कपिल जी के बारे में भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं ..... 

''सिद्धों में मैं कपिल हूँ । ''

ऋषि कपिल का गंगा के पृथ्वी पर आगमन से सीधा सम्बन्ध है। राजा सगर ने अपने साम्राज्य की समृद्धि के लिए एक अनुष्ठान करवाया । एक अश्व उस अनुष्ठान का एक अभिन्न हिस्सा था जिसे इंद्र ने ईर्ष्यावश चुरा लिया। सगर ने उस अश्व की खोज के लिए अपने सभी पुत्रों को पृथ्वी के चारों तरफ भेज दिया। उन्हें वह ध्यानमग्न कपिल ऋषि के निकट मिला, यह मानते हुए कि उस अश्व को कपिल ऋषि द्वारा ही चुराया गया है, 

वे उनका अपमान करने लगे और उनकी तपस्या को भंग कर दिया। ऋषि ने कई वर्षों में पहली बार अपने नेत्रों को खोला और सगर के बेटों को देखा, इस दृष्टिपात से वे सभी के सभी साठ हजार जलकर भस्म हो गए । अंतिम संस्कार न किये जाने के कारण सगर के पुत्रों की आत्माएं प्रेत बनकर विचरने लगीं । जब दिलीप के पुत्र और सगर के एक वंशज भगीरथ ने इस दुर्भाग्य के बारे में सुना तो उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे गंगा को पृथ्वी पर लायेंगे ताकि उसके जल से सगर के पुत्रों के पाप धुल सकें और उन्हें मोक्ष प्राप्त हो सके । भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए ब्रह्मा जी की तपस्या कीऔर गंगा को पृथ्वी पे लाये ।

हमारा हिंदुस्तान सर्वश्रेष्ठ है...!


क्या आप जानते हैं कि...... आज के पाश्च्यात्य और तथाकथित रूप से आधुनिक कहे जाने वाले अंग्रेजों के पूर्वज जब जंगलों में नंग-धडंग घूमा करते थे..... और.... कंदराओं में रहा करते थे (मुहम्मद-फुहम्मद का तो उस समय जन्म भी नहीं हुआ था)....... उस समय भी हम हिन्दुस्तानी (हिन्दू) ..... परमाणु बम और हीट सीकिंग मिसाईल जैसे .... आधुनिकतम हथियार का प्रयोग किया करते थे...!

दरअसल.... बात कुछ ऐसी है कि....... आधुनिक  भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढाया जाता है, वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है.... और, उस से पूर्व के इतिहास को "प्रमाण-रहित" कह कर नकार दिया जाता है।

स्थित तो यह है कि....हमारे "देशी अंग्रेजों" को यदि "सर जान मार्शल" प्रमाणित नहीं करते... तो, हमारे तथाकथित रूप से "बुद्धिजीवियों" को विश्वास ही नहीं होना था कि.... हडप्पा और मोहनजोदड़ो स्थल ईसा से लगभग 5000 वर्ष पूर्व के समय के हैं.... और, वहाँ पर ही ""विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया"" था।

मोहनजोदड़ो ...सिन्धु घाटी सभ्यता का एक प्रमुख नगर अवशेष है , जिसकी खोज 1922 ईस्वी मे "राखाल दास बनर्जी" ने की। यह नगर अवशेष सिन्धु नदी के किनारे "सक्खर जिले" में स्थित है....... और, सिन्धी भाषा में इसका अर्थ है - मृतको का टीला।

विश्व की प्राचीनतम् सिन्धु घाटी एवं मोहनजोदड़ो सभ्यता के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं।

जब पुरातत्वविदों ने पिछली शताब्दी में मोहनजोदडो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था ....तो, उन्हों ने देखा कि वहाँ की "गलियों में नर-कंकाल" पडे थे.... और, कई "अस्थि पिंजर चित अवस्था" में लेटे थे .......! साथ ही..... कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड रखा था .... मानो किसी भयानक विपत्ति ने उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।

गौर करने लायक बात यह है कि.... उन नर कंकालों पर ठीक उसी प्रकार के ""रेडियो -ऐक्टीविटी के चिन्ह"" थे.... जिस तरह के चिन्ह ... जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर "एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गये" थे।

मोहनजोदड़ो स्थल के अवशेषों पर ""नाईट्रिफिकेशन के जो चिन्ह"" पाये गये थे उस का कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्यों कि ऐसी अवस्था """केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही""" हो सकती है।

जब आप मोहनजोदड़ो की भूगोलिक स्थिति पर गौर करेंगे .... तो आप पाएंगे कि....
मोइन जोदडो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है... और , उसके चारों ओर दो किलोमीटर की परिधि में इस प्रकार की तबाही देखी जा सकती है.... जो ""मध्य केन्द्र से आरम्भ हो कर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी"" थी..(जैसा कि परमाणु बम विस्फोट के बाद ही होता है )

पुरात्तव विशेषज्ञों ने यह भी पाया कि ''''चूने मिटटी के बर्तनों के अवशेष किसी भीषण ऊष्मा के कारण पिघल कर एक दूसरे के साथ जुड गये"" थे।
हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये इस तरह के ढेरों को पुरात्तव विशेषज्ञों ने काले पत्थरों ...... अर्थात ....‘""ब्लैक -स्टोन्स"" की संज्ञा दी।

वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है... परन्तु मोहनजोदड़ो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी।

वहां के हालत ... चीख -चीख कर ये कह कर रहे हैं कि.... किसी कारण वहां की अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची.... जिस में चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये ।

ध्यान देने योग्य बात है कि..... अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री की ऊष्णता ज्वालामुखी या फिर... अणु बम के विस्फोट पश्चात ही घटती है।
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इस मोहनजोदड़ो की व्याख्या करने में .....इतिहास मौन है...!

परन्तु जब हम ... महाभारत .... और उसमे वर्णित घटनाओं पर नजर डालते हैं तो हर बात शीशे की तरह एक दम साफ हो जाती है....!

महाभारत युद्ध में............ महासंहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान रथों के साथ एक ""परमाणु युद्ध का उल्लेख भी"" मिलता है।
महाभारत में साफ साफ उल्लेखित है कि.... मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट था..... और, उस में चार पहिये लगे थे।

देव दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है.... जैसे कि, हम आधुनिक अस्त्र शस्त्रों से लैस सैनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं।
इस युद्ध के वृतान्त से बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं........ अपितु, इन्द्र के वज्र अपने "चक्रदार रफलेक्टर" के माध्यम से "संहारक रूप में प्रगट" होता है।

उस अस्त्र को जब दाग़ा गया तो एक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह "उसने अपने लक्ष्य को निगल लिया" था।

वह विनाश कितना भयावह था..... इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-

“अत्यन्त शक्तिशाली विमान से एक शक्ति–युक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया…धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिसकी चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा…!

वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र "साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत" था..... जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया…!
उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि ..... पहचानने योग्य नहीं थे..... उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे…

बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे ......और, पक्षी सफेद पड़ चुके थे…!

कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए…उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया…”

उपरोक्त दृश्य के वर्णन से स्पष्ट रूप से...ये.... हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।

एक अन्य वृतान्त में....... श्री कृष्ण अपने प्रतिद्वंदी .... शल्व का आकाश में पीछा करते हैं.....उसी समय आकाश में शल्व का विमान "शुभः" अदृश्य हो जाता है। उस को नष्ट करने के विचार से श्री कृष्ण ने एक ऐसा अस्त्र छोडा...... जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्षित कर सकता था।

निश्चित तौर पर....... वो एक मिसाईल था..... और, आजकल ऐसे
मिसाईल को ""हीट-सीकिंग और साऊड-सीकरस"" कहते हैं .... जो आधुनितम सेनाओं द्वारा प्रयोग किये जाते हैं।

और.. तो और ....... आधुनिक राजस्थान में भी…
परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं।

राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है.... जहाँ पर रेडियोएक्टिव राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है..... जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।

अब ... बात जरा रामायण की भी कर लेते हैं......

"लक्ष्मण-रेखा" की तरह अदृश्य "इलेक्ट्रानिक फैंस" तो .... कोठियों में आज कल पालतु जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जाती है ... और, हीरे जवाहरात ... इत्यादि की प्रदर्शनी में.... उनकी सुरक्षा के लिए ""अदृश्य लेजर बीम"" का प्रयोग किया जाता है...!

और.... अपने आप खुलने और बन्द हो जाने वाले दरवाजे तो ..... किसी भी माल में जा कर देखे जा सकते हैं।

यह सभी चीजे पहले आश्चर्यजनक और काल्पनिक प्रतीत होती थी.. परन्तु आज यह आम बात बन चुकी हैं।

यहाँ तक कि...."मन की गति से चलने वाले" रावण के पुष्पक-विमान का "प्रोटोटाईप" भी उडान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।

यहाँ सबसे उल्लेखनीय है कि.....
रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो पृथक-पृथक ऋषि थे ......और, आजकल की सेनाओं के साथ उन का कोई सम्बन्ध नहीं था।
वे दोनो महाऋषि थे.... और, किसी साईंटिफिक – फिक्शन के थ्रिल्लर – राईटर नहीं थे।

उन के उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि ......तथ्य क्या है और साहित्यक कल्पना क्या होती है.... क्योंकि कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की ही आवश्यकता होती है।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही....... परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे...!

परन्तु ... आज ये विडम्बना है कि....... आज मूर्ख तथा हमारे धर्मग्रंथों के प्रति पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य अंग्रेजों की दी गई ... अंग्रेजी शिक्षा के कारण......

अधिकतर हिन्दू... अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं ....और, उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना....!

इसीलिए मित्रो..... खुद को पहचानो.....

हम हिन्दू..... और.... हमारा हिंदुस्तान सर्वश्रेष्ठ है...!

जय महाकाल...!!!

रावण के परिवार कि मुक्ति का सच

इन्द्रजीत कि मृत्यु होने से रावण पुत्र-वियोग में रोने लगा. उस समय मन्दोदरी रावण को समझाने लगी कि मेरा बड़ा पुत्र चला गया. परन्तु अब भी आप नहीं मानते. श्रीराम परमात्मा है. उनके साथ आप विरोध करना छोड़ दो.. रावण ने कहा - मै जानता हु कि राम परमात्मा है. मंदोदरी ने कहा. राम परमात्मा है, यह आप जानते हो, फिर वैर क्यों करते हो? रावण ने कहा - मैंने विचार किया है कि मै अकेला बैठकर रामजी का ध्यान करू और प्रेम से स्मरण करू तो मुझे अकेले को ही मुक्ति मिलेगी. परन्तु मै यदि रामजी के साथ वैर विरोध करता हु तो मेरे सम्पूर्ण वंश का कल्याण होता है. इन राक्षसों का आहार तामसी है. 

ये भक्ति कर सके इस योग्य नहीं. ध्यान, तप , जप कर सके इस लायक नहीं है, परन्तु रामजी के साथ मै विरोध करता हु तो यह सब राम-बाण-गंगा में स्नान करके, अन्तकाल में रामजी के दर्शन करते करते प्राण छोड़ेगे और इस प्रकार मेरे समस्त राक्षस मुक्ति को प्राप्त होगें. रावण कोई बहुत बड़ा मुर्ख नहीं था. वह प्रचण्ड विद्वान था. उसने मंदोदरी से कहा - मैंने भगवान राम को साक्षात परमात्मा श्रीहरि जानकार ही यह निश्चय किया था कि मै विरोध-बुद्धि से ही भगवान को पाउँगा. क्युकि भक्ति के द्वारा भगवान शीघ्र प्रसन्न नहीं हो सकते, और उससे तो सिर्फ मेरी ही मुक्ति होती. जबकि में समस्त राक्षस कुल की मुक्ति चाहता हू।

अनन्त चतुर्दशी




भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी का व्रत किया जाता है। इसका उल्लेख कृत्यकल्पतरू में नहीं है। इसमें अनन्त के रूप में हरि की पूजा होती है। पुरुष दाहिने तथा नारियां बाँये हाथ में अनन्त धारण करती हैं रूई या रेशम के धागे कुंकमी रंग में रंगे होते हैं और उनमें चौदह गाँठे होती हैं। इन्हीं धागों से अनन्त का निर्माण होता है। यह व्यक्तिगत पूजा है, इसका कोई सामाजिक धार्मिक उत्सव नहीं होता। अग्नि पुराण में इसका विवरण है। चतुर्दशी को दर्भ से बनी हरि की प्रतिमा की, जो कलश के जल में रखी होती है, पूजा होती है। व्रती को धान के एक प्रस्थ (प्रसर) आटे से रोटियाँ (पूड़ी) बनानी होती हैं जिनकी आधी वह ब्राह्मण को दे देता है और शेष अर्धांश स्वयं प्रयोग में लाता है।

यह व्रत नदी-तट पर किया जाना चाहिए, जहाँ हरि की कथाएँ सुननी चाहिए। हरि से इस प्रकार की प्रार्थना की जाती है--'हे वासुदेव, इस अनन्त संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए लोगों की रक्षा करो तथा उन्हें अनन्त के रूप का ध्यान करने में संलग्न करो, अनन्त रूप वाले तुम्हें नमस्कार।' इस मन्त्र से हरि की पूजा करके तथा अपने हाथ के ऊपरी भाग में या गले में धागा बाँधकर या लटकाकर (जिस पर मन्त्र पढ़ा गया हो) व्रती अनन्त व्रत करता है तथा प्रसन्न होता है। यदि हरि अनन्त हैं तो 14 गाँठें हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की द्योतक हैं। में अनन्त व्रत का विवरण विशद रूप से आया है, उसमें कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर से कही गयी कौण्डिन्य एवं उसकी स्त्री शीला की गाथा भी आयी है। कृष्ण का कथन है कि 'अनन्त' उनके रूपों का एक रूप है और वे काल हैं जिसे अनन्त कहा जाता है। अनन्त व्रत चन्दन, धूप, पुष्प, नैवेद्य के उपचारों के साथ किया जाता है। इस व्रत के विषय में अन्य बातों के लिए। ऐसा आया है कि यदि यह व्रत 14 वर्षों तक किया जाय तो व्रती विष्णुलोक की प्राप्ति कर सकता है। इस व्रत के उपयुक्त एवं तिथि के विषय में कई मत प्रकाशित हो गये हैं। माधव के अनुसार इस व्रत में मध्याह्न कर्मकाल नहीं है किन्तु वह तिथि, जो सूर्योदय के समय तीन मुहर्तों तक अवस्थित रहती है, अनन्त व्रत के लिए सर्वोत्तम है। किन्तु नि0 सि0 ने इस मत का खण्डन किया है। आजकल अनन्त चतुर्दशी व्रत किया जाता है, किन्तु व्रतियों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है।

कथा

इस दिन भगवान विष्णु की कथा होती है। इसमें उदय तिथि ली जाती है। पूर्णिमा का सहयोग होने से इसका बल बढ़ जाता है। यदि मध्याह्न तक चतुर्दशी हो तो ज़्यादा अच्छा है। जैसा इस व्रत के नाम से लक्षित होता है कि यह दिन उस अंत न होने वाले सृष्टि के कर्ता निर्गुण ब्रह्मा की भक्ति का दिन है। इस दिन भक्तगण लौकिक कार्यकलापों से मन को हटाकर ईश्वर भक्ति में अनुरक्त हो जाते हैं। इस दिन वेद ग्रंथों का पाठ करके भक्ति की स्मृति का डोरा बांधा जाता है। इस व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है।

इस दिन व्रती को चाहिए कि प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर कलश की स्थापना करें। कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनन्त की स्थापना की जाती है। इसके आगे कुंकुम, केसर या हल्दी से रंगकर बनाया हुआ कच्चे डोरे का चौदह गांठों वाला 'अनन्त' भी रखा जाता है। कुश के अनन्त की वंदना करके, उसमें भगवान विष्णु का आह्वान तथा ध्यान करके गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन करें। तत्पश्चात अनन्त देव का ध्यान करके शुद्ध अनन्त को अपनी दाहिनी भुजा पर बांध लें। यह डोरा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनन्त फल देने वाला माना गया है। यह व्रत धन पुत्रादि की कामना से किया जाता है।

इस दिन नए डोरे के अनन्त को धारण करके पुराने का त्याग कर देना चाहिए। इस व्रत का पारण ब्राह्मण को दान करके करना चाहिए। अनन्त की चौदह गांठे चौदह लोकों की प्रतीत मानी गई हैं। उनमें अनन्त भगवान विद्यमान हैं। भगवान सत्यनारायण के समान ही अनन्तदेव भी भगवान विष्णु का ही एक नाम है। यही कारण है कि इस दिन सत्यनारायण का व्रत और कथा का आयोजन प्राय: किया जाता है। जिसमें सत्यनारायण की कथा के साथ-साथ अनन्तदेव की कथा भी सुनी जाती है।

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मण्डप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मण्डप इतना मनोरम था कि जल व स्थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मण्डप में धोखा खा चुके थे। एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मण्डप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर 'अंधों की संतान अंधी' कहकर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया। यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पाण्डवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पाण्डवों को द्यूत-क्रीड़ा में हराकर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पाण्डवों को जुए में पराजित कर दिया।

पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पाण्डवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा वन में रहते हुए पाण्डव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा-'हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनन्त भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।' इस संदर्भ में श्रीकृष्ण एक कथा सुनाते हुए बोले-

प्राचीन काल में सुमन्त नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसके एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी। जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी के मरने के बाद सुमन्त ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह उस ब्राह्मण ने कौडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांधकर दे दिए। कौडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परन्तु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर सन्ध्या करने लगे। सुशीला ने देखा-वहां पर बहुत सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनन्त व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांधकर ऋषि कौडिन्य के पास आ गई।

कौडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़कर अग्नि में डाल दिया इससे भगवान अनन्त जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनन्त भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं। पश्चाताप करते हुए ऋषि कौडिन्य अनन्त डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनन्त भगवान प्रकट होकर बोले- 'हे कौडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनन्त व्रत करो। चौदह वर्ष पर्यन्त व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से सम्पन्न हो जाओगे। कौडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।' श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनन्त भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पाण्डव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।

!!! अंजीर (Fig) के औषधीय प्रयोग !!!


परिचय : अफगानिस्तान के काबुल में अंजीर की अधिक पैदावार होती है। हमारे देश में बंगलूर, सूरत, कश्मीर, उत्तर-प्रदेश, नासिक तथा मैसूर में यह ज्यादा पैदा होता है। अंजीर का पेड़ लगभग 4.5 से 5.5 मीटर ऊंचा होता है। इ
सके पत्ते और शाखाओं पर रोएं होते हैं तथा कच्चे फल हरे और पकने पर लाल-आसमानी रंग के हो जाते हैं। सूखे अंजीर हमेशा उपलब्ध होते हैं। कच्चे फल की सब्जी बनती है। इस
के बीजों से तेल निकाला जाता है।

विभिन्न भाषाओं में नाम :

संस्कृत काकोदुम्बरिका।
हिंदी        अंजीर।
मराठी     अंजीर।
गुजराती  पेपरी।
बंगाली    पेयारा।
अंग्रेजी    फिग।
लैटिन     फिकस कैरिका।

रंग : अंजीर रंग सुर्ख और स्याह मिश्रित होता है।
स्वाद : यह खाने में मीठा होता है।
स्वरूप : अंजीर एक बिलायती (विदेशी) पेड़ का फल है जो गूलर के समान होता है। यह जंगलों में अक्सर पाया जाता है। आमतौर पर लोग इसे बनगूलर के नाम से भी पुकारते हैं।
स्वभाव : यह गर्म प्रकृति का होता है।
हानिकारक : अंजीर का अधिक सेवन यकृत (जिगर) और आमाशय के लिए हानिकारक हो सकता है।
दोषों को दूर करने वाला : अंजीर के हानिकारक प्रभाव को नष्ट करने के लिए बादाम का उपयोग किया जाता है।
मात्रा (खुराक) : अंजीर की पांच दाने तक ले सकते हैं।

गुण : अंजीर के सेवन से मन प्रसन्न रहता है। यह स्वभाव को कोमल बनाता है। यकृत और प्लीहा (तिल्ली) के लिए लाभकारी होता है, कमजोरी को दूर करता है तथा खांसी को नाश करता
वैज्ञानिक मतानुसार अंजीर के रासायनिक गुणों का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि इसके सूखे फल में कार्बोहाइड्रेट (शर्करा) 63 प्रतिशत, प्रोटीन 5.5 प्रतिशत, सेल्यूलोज 7.3 प्रतिशत, चिकनाई एक प्रतिशत, खनिज लवण 3 प्रतिशत, अम्ल 1.2 प्रतिशत, राख 2.3 प्रतिशत और जल 20.8 प्रतिशत होता है। इसके अलावा प्रति 100 ग्राम अंजीर में लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग लोहा, विटामिन `ए´ 270 आई.यू., थोड़ी मात्रा में चूना, पोटैशियम, सोडियम, गंधक, फास्फोरिक एसिड और गोंद भी पाया जाता है।

विभिन्न रोगों में अंजीर से उपचार:

1 कब्ज:- *3 से 4 पके अंजीर दूध में उबालकर रात्रि में सोने से पूर्व खाएं और ऊपर से उसी दूध का सेवन करें। इससे कब्ज और बवासीर में लाभ होता है।
*माजून अंजीर 10 ग्राम को सोने से पहले लेने से कब्ज़ में लाभ होता है।
*अंजीर 5 से 6 पीस को 250 मिलीलीटर पानी में उबाल लें, पानी को छानकर पीने से कब्ज (कोष्ठबद्धता) में राहत मिलती है।
*2 अंजीर को रात को पानी में भिगोकर सुबह चबाकर खाकर ऊपर से पानी पीने पेट साफ हो जाता है।
*अंजीर के 4 दाने रात को सोते समय पानी में डालकर रख दें। सुबह उन दानों को थोड़ा सा मसलकर जल पीने से अस्थमा में बहुत लाभ मिलता है तथा इससे कब्ज भी नष्ट हो जाती है।
*स्थायी रूप से रहने वाली कब्ज अंजीर खाते रहने से दूर हो जाती है। अंजीर के 2 से 4 फल खाने से दस्त आते हैं। खाते समय ध्यान रहे कि इसमें से निकलने वाला दूध त्वचा पर न लगने पाये क्योंकि यह दूध जलन और चेचक पैदा कर सकता है।
*खाना खाते समय अंजीर के साथ शहद का प्रयोग करने से कब्ज की शिकायत नहीं रहती है।"

2 दमा :- *दमा जिसमें कफ (बलगम) निकलता हो उसमें अंजीर खाना लाभकारी है। इससे कफ बाहर आ जाता है तथा रोगी को शीघ्र ही आराम भी मिलता है।
*प्रतिदिन थोड़े-थोड़े अंजीर खाने से पुरानी कब्जियत में मल साफ और नियमित आता है। 2 से 4 सूखे अंजीर सुबह-शाम दूध में गर्म करके खाने से कफ की मात्रा घटती है, शरीर में नई शक्ति आती है और दमा (अस्थमा) रोग मिटता है।"

3 प्यास की अधिकता :- बार-बार प्यास लगने पर अंजीर का सेवन करें।

4 मुंह के छाले :- अंजीर का रस मुंह के छालों पर लगाने से आराम मिलता है।

5 प्रदर रोग :- अंजीर का रस 2 चम्मच शहद के साथ प्रतिदिन सेवन करने से दोनों प्रकार के प्रदर रोग नष्ट हो जाते हैं।

6 दांतों का दर्द :- *अंजीर का दूध रुई में भिगोकर दुखते दांत पर रखकर दबाएं।
*अंजीर के पौधे से दूध निकालकर उस दूध में रुई भिगोकर सड़ने वाले दांतों के नीचे रखने से दांतों के कीड़े नष्ट होते हैं तथा दांतों का दर्द मिट जाता है।"

7 पेशाब का अधिक आना :- 3-4 अंजीर खाकर, 10 ग्राम काले तिल चबाने से यह कष्ट दूर होता है।

8 त्वचा के विभिन्न रोग :- *कच्चे अंजीर का दूध समस्त त्वचा सम्बंधी रोगों में लगाना लाभदायक होता है।
*अंजीर का दूध लगाने से दिनाय (खुजली युक्त फुंसी) और दाद मिट जाते हैं। बादाम और छुहारे के साथ अंजीर को खाने से दाद, दिनाय (खुजली युक्त फुंसी) और चमड़ी के सारे रोग ठीक हो जाते है।"

9 दुर्बलता (कमजोरी) :- *पके अंजीर को बराबर की मात्रा में सौंफ के साथ चबा-चबाकर सेवन करें। इसका सेवन 40 दिनों तक नियमित करने से शारीरिक दुर्बलता दूर हो जाती है।
*अंजीर को दूध में उबालकर-उबाला हुआ अंजीर खाकर वही दूध पीने से शक्ति में वृद्धि होती है तथा खून भी बढ़ता है।"

10 रक्तवृद्धि और शुद्धि हेतु :- 10 मुनक्के और 5 अंजीर 200 मिलीलीटर दूध में उबालकर खा लें। फिर ऊपर से उसी दूध का सेवन करें। इससे रक्तविकार दूर हो जाता है।

11 पेचिश और दस्त :- अंजीर का काढ़ा 3 बार पिलाएं।

12 ताकत को बढ़ाने वाला :- सूखे अंजीर के टुकड़े और छिली हुई बादाम गर्म पानी में उबालें। इसे सुखाकर इसमें दानेदार शक्कर, पिसी इलायची, केसर, चिरौंजी, पिस्ता और बादाम बराबर मात्रा में मिलाकर 8 दिन तक गाय के घी में पड़ा रहने दें। बाद में रोजाना सुबह 20 ग्राम तक सेवन करें। छोटे बालकों की शक्तिक्षीण के लिए यह औषधि बड़ी हितकारी है।

13 जीभ की सूजन :- सूखे अंजीर का काढ़ा बनाकर उसका लेप करने से गले और जीभ की सूजन पर लाभ होता है।

14 पुल्टिश :- ताजे अंजीर कूटकर, फोड़े आदि पर बांधने से शीघ्र आराम होता है।

15 दस्त साफ लाने के लिए :- दो सूखे अंजीर सोने से पहले खाकर ऊपर से पानी पीना चाहिए। इससे सुबह साफ दस्त होता है।

16 क्षय यानी टी.बी के रोग :- इस रोग में अंजीर खाना चाहिए। अंजीर से शरीर में खून बढ़ता है। अंजीर की जड़ और डालियों की छाल का उपयोग औषधि के रूप में होता है। खाने के लिए 2 से 4 अंजीर का प्रयोग कर सकते हैं।

17 फोड़े-फुंसी :- अंजीर की पुल्टिस बनाकर फोड़ों पर बांधने से यह फोड़ों को पकाती है।

18 गिल्टी :- अंजीर को चटनी की तरह पीसकर गर्म करके पुल्टिस बनाएं। 2-2 घंटे के अन्तराल से इस प्रकार नई पुल्टिश बनाकर बांधने से `बद´ की वेदना भी शांत होती है एवं गिल्टी जल्दी पक जाती है।

19 सफेद कुष्ठ (सफेद दाग) :- *अंजीर के पेड़ की छाल को पानी के साथ पीस लें, फिर उसमें 4 गुना घी डालकर गर्म करें। इसे हरताल की भस्म के साथ सेवन करने से श्वेत कुष्ठ मिटता है।
*अंजीर के कच्चे फलों से दूध निकालकर सफेद दागों पर लगातार 4 महीने तक लगाने से यह दाग मिट जाते हैं।
*अंजीर के पत्तों का रस श्वेत कुष्ठ (सफेद दाग) पर सुबह और शाम को लगाने से लाभ होता है।
*अंजीर को घिसकर नींबू के रस में मिलाकर सफेद दाग पर लगाने से लाभ होता है।"

20 गले के भीतर की सूजन :- सूखे अंजीर को पानी में उबालकर लेप करने से गले के भीतर की सूजन मिटती है।

21 श्वासरोग :- अंजीर और गोरख इमली (जंगल जलेबी) 5-5 ग्राम एकत्रकर प्रतिदिन सुबह को सेवन करने से हृदयावरोध (दिल की धड़कन का अवरोध) तथा श्वासरोग का कष्ट दूर होता है।

22 शरीर की गर्मी :- पका हुआ अंजीर लेकर, छीलकर उसके आमने-सामने दो चीरे लगाएं। इन चीरों में शक्कर भरकर रात को ओस में रख दें। इस प्रकार के अंजीर को 15 दिनों तक रोज सुबह खाने से शरीर की गर्मी निकल जाती है और रक्तवृद्धि होती है।

23 जुकाम :- पानी में 5 अंजीर को डालकर उबाल लें और इसे छानकर इस पानी को गर्म-गर्म सुबह और शाम को पीने से जुकाम में लाभ होता है।

24 फेफड़ों के रोग :- फेफड़ों के रोगों में पांच अंजीर एक गिलास पानी में उबालकर छानकर सुबह-शाम पीना चाहिए।

25 मसूढ़ों से खून का आना :- अंजीर को पानी में उबालकर इस पानी से रोजाना दो बार कुल्ला करें। इससे मसूढ़ों से आने वाला खून बंद हो जाता है तथा मुंह से दुर्गन्ध आना बंद हो जाती है।

26 तिल्ली (प्लीहा) के रोग में :- अंजीर 20 ग्राम को सिरके में डुबोकर सुबह और शाम रोजाना खाने से तिल्ली ठीक हो जाती है।

27 खांसी :- *अंजीर का सेवन करने से सूखी खांसी दूर हो जाती है। अंजीर पुरानी खांसी वाले रोगी को लाभ पहुंचाता है क्योंकि यह बलगम को पतला करके बाहर निकालता रहता है।
*2 अंजीर के फलों को पुदीने के साथ खाने से सीने पर जमा हुआ कफ धीरे-धीरे निकल जाएगा।
*पके अंजीर का काढ़ा पीने से खांसी दूर हो जाती है।"

28 गुदा चिरना :- सूखा अंजीर 350 ग्राम, पीपल का फल 170 ग्राम, निशोथ 87.5 ग्राम, सौंफ 87.5 ग्राम, कुटकी 87.5 ग्राम और पुनर्नवा 87.5 ग्राम। इन सब को मिलाकर कूट लें और कूटे हुए मिश्रण के कुल वजन का 3 गुने पानी के साथ उबालें। एक चौथाई पानी बच जाने पर इसमें 720 ग्राम चीनी डालकर शर्बत बना लें। यह शर्बत 1 से 2 चम्मच प्रतिदिन सुबह-शाम पीयें।

29 बवासीर (अर्श) :- *सूखे अंजीर के 3-4 दाने को शाम के समय जल में डालकर रख दें। सुबह उन अंजीरों को मसलकर प्रतिदिन सुबह खाली पेट खाने से अर्श (बवासीर) रोग दूर होता है।
*अंजीर को गुलकन्द के साथ रोज सुबह खाली पेट खाने से शौच के समय पैखाना (मल) आसानी से होता है।"

30 कमर दर्द :- अंजीर की छाल, सोंठ, धनियां सब बराबर लें और कूटकर रात को पानी में भिगो दें। सुबह इसके बचे रस को छानकर पिला दें। इससे कमर दर्द में लाभ होता है।

31 आंवयुक्त पेचिश :- पेचिश तथा आवंयुक्त दस्तों में अंजीर का काढ़ा बनाकर पीने से रोगी को लाभ होता है।

32 अग्निमान्द्य (अपच) होने पर :- अंजीर को सिरके में भिगोकर खाने से भूख न लगना और अफारा दूर हो जाता है।

33 प्रसव के समय की पीड़ा :- प्रसव के समय में 15-20 दिन तक रोज दो अंजीर दूध के साथ खाने से लाभ होता है।

34 बच्चों का यकृत (जिगर) बढ़ना :- 4-5 अंजीर, गन्ने के रस के सिरके में गलने के लिए डाल दें। 4-5 दिन बाद उनको निकालकर 1 अंजीर सुबह-शाम बच्चे को देने से यकृत रोग की बीमारी से आराम मिलता है।

35 फोड़ा (सिर का फोड़ा) :- फोड़ों और उसकी गांठों पर सूखे अंजीर या हरे अंजीर को पीसकर पानी में औटाकर गुनगुना करके लगाने से फोड़ों की सूजन और फोड़े ठीक हो जाते हैं।

36 दाद :- अंजीर का दूध लगाने से दाद ठीक हो जाता है।

37 सिर का दर्द :- सिरके या पानी में अंजीर के पेड़ की छाल की भस्म मिलाकर सिर पर लेप करने से सिर का दर्द ठीक हो जाता है।

38 सर्दी (जाड़ा) अधिक लगना :- लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग की मात्रा में अंजीर को खिलाने से सर्दी या शीत के कारण होने वाले हृदय और दिमाग के रोगों में बहुत ज्यादा फायदा मिलता है।

39 खून और वीर्यवद्धक :- *सूखे अंजीर के टुकड़ों एवं बादाम के गर्भ को गर्म पानी में भिगोकर रख दें फिर ऊपर से छिलके निकालकर सुखा दें। उसमें मिश्री, इलायची के दानों की बुकनी, केसर, चिरौंजी, पिस्ते और बलदाने कूटकर डालें और गाय के घी में 8 दिन तक भिगोकर रखें। यह मिश्रण प्रतिदिन लगभग 20 ग्राम की मात्रा में खाने से कमजोर शक्ति वालों के खून और वीर्य में वृद्धि होती है।
*एक सूखा अंजीर और 5-10 बादाम को दूध में डालकर उबालें। इसमें थोड़ी चीनी डालकर प्रतिदिन सुबह पीने से खून साफ होता है, गर्मी शांत होती है, पेट साफ होता है, कब्ज मिटती है और शरीर बलवान बनता है।
*अंजीर को अधिक मात्रा में सेवन करने से शरीर शक्तिशाली होता है, और मनुष्य के संभोग करने की क्षमता भी बढ़ती है।
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40 मुंहासे :- कच्चे अंजीर का दूध मुंहासों पर 3 बार लगाएं।

चाणक्यनीति / Chanakya Quotes


जब भीष्म पितामह ने पूछा - "मेरे कौन से कर्म का फल है जो मैं सरसैया पर पड़ा हुआ हूँ?''

बात प्राचीन महाभारत काल की है। महाभारत के युद्ध में जो कुरुक्षेत्र के मैंदान में हुआ, जिसमें अठारह अक्षौहणी सेना मारी गई, इस युद्ध के समापन और सभी मृतकों को तिलांज्जलि देने के बाद पांडवों सहित श्री कृष्ण पितामह भीष्म से आशीर्वाद लेकर हस्तिनापुर को वापिस हुए तब श्रीकृष्ण को रोक कर पितामाह ने श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया, "मधुसूदन, मेरे कौन से कर्म का फल है जो मैं सर सैया पर पड़ा हुआ हूँ?''


यह बात सुनकर मधुसूदन मुस्कराये और पितामह भीष्म से पूछा, 'पितामह आपको कुछ पूर्व जन्मों का ज्ञान है?'' इस पर पितामह ने कहा, 'हाँ''। श्रीकृष्ण मुझे अपने सौ पूर्व जन्मों का ज्ञान है कि मैंने किसी व्यक्ति का कभी अहित नहीं किया? इस पर श्रीकृष्ण मुस्कराये और बोले पितामह आपने ठीक कहा कि आपने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया, लेकिन एक सौ एक वें पूर्वजन्म में आज की तरह तुमने तब भी राजवंश में जन्म लिया था और अपने पुण्य कर्मों से बार-बार राजवंश में जन्म लेते रहे, लेकिन उस जन्म में जब तुम युवराज थे, तब एक बार आप शिकार खेलकर जंगल से निकल रहे थे, तभी आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरा। आपने अपने बाण से उठाकर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया, उस समय वह बेरिया के पेड़ पर जा कर गिरा और बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस गये क्योंकि पीठ के बल ही जाकर गिरा था? 


करकेंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार करकेंटा अठारह दिन जीवित रहा और यही ईश्वर से प्रार्थना करता रहा, 'हे युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ, ठीक इसी प्रकार तुम भी होना।'' तो, हे पितामह भीष्म! तुम्हारे पुण्य कर्मों की वजह से आज तक तुम पर करकेंटा का श्राप लागू नहीं हो पाया। लेकिन हस्तिनापुर की राज सभा में द्रोपदी का चीर-हरण होता रहा और आप मूक दर्शक बनकर देखते रहे। जबकि आप सक्षम थे उस अबला पर अत्याचार रोकने में, लेकिन आपने दुर्योधन और दुःशासन को नहीं रोका। इसी कारण पितामह आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और करकेंटा का 'श्राप' आप पर लागू हो गया। अतः पितामह प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ेगा। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है। इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव जन्तु को भी भोगना पड़ता है और कर्मों के ही अनुसार ही जन्म होता है।

!!! रामायण महाभारत में परमाणु बम्ब का प्रमाण !!!


पूरा पढ़े और शहर करें ताकि हर हिंदुस्थानी जान सके ।

आधुनिक भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढाया जाता है वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है। उस से पूर्व के इतिहास को ‘ प्रमाण-रहित’ कह कर नकार दिया जाता है। हमारे ‘देसी अंग्रेजों’ को यदि सर जान मार्शल प्रमाणित नहीं करते तो हमारे ’बुद्धिजीवियों’ को विशवास ही नहीं होना था कि हडप्पा और मोइन जोदडो स्थल ईसा से लग भग 5000 वर्ष पूर्व के समय के हैं और वहाँ पर ही विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया था।

विदेशी इतिहासकारों के उल्लेख

विश्व की प्राचीनतम् सिन्धु घाटी सभ्यता मोइन जोदडो के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोइन जोदडो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्हों ने देखा कि वहाँ की गलियों में नर-कंकाल पडे थे। कई अस्थि पिंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड रखे थे मानों किसी विपत्ति नें उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।

उन नर कंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो -ऐक्टीविटी के चिन्ह थे जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गये थे। मोइन जोदडो स्थल के अवशेषों पर नाईट्रिफिकेशन के जो चिन्ह पाये गये थे उस का कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्यों कि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है।

मोइनजोदडो की भूगोलिक स्थिति

मोइन जोदडो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है। उस के चारों ओर दो किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रकार की तबाही देखी जा सकती है जो मध्य केन्द्र से आरम्भ हो कर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी थी। पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने पाया कि मिट्टी चूने के बर्तनों के अवशेष किसी ऊष्णता के कारण पिघल कर ऐक दूसरे के साथ जुड गये थे। हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये ढेरों को पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने काले पत्थरों ‘बलैक -स्टोन्स’ की संज्ञा दी। वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है। किन्तु मोइन जोदडो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी।

निशकर्ष यही हो सकता है कि किसी कारण अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची जिस में चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये । अगर ज्वालामुखी नहीं था तो इस प्रकार की घटना अणु बम के विस्फोट पश्चात ही घटती है।

महाभारत के आलेख
इतिहास मौन है परन्तु महाभारत युद्ध में महा संहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान रथों के साथ ऐक एटामिक प्रकार के युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट था और उस में चार पहिये लगे थे। देव दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र शस्त्रों से लैस सैनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। इस युद्ध के वृतान्त से बहुत महत्व शाली जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं अपितु इन्द्र के वज्र अपने चक्रदार रफलेक्टर के माध्यम से संहारक रूप में प्रगट होता है। उस अस्त्र को जब दाग़ा गया तो ऐक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह उस ने अपने लक्ष्य को निगल लिया था। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-

“अत्यन्त शक्तिशाली विमान से ऐक शक्ति – युक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया…धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिस की चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा…वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया…उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं थे. उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे…बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे और पक्षी सफेद पड़ चुके थे…कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए…उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया…”

उपरोक्त वर्णन दृश्य रूप में हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।

ऐक अन्य वृतान्त में श्री कृष्ण अपने प्रतिदून्दी शल्व का आकाश में पीछा करते हैं। उसी समय आकाश में शल्व का विमान ‘शुभः’ अदृष्य हो जाता है। उस को नष्ट करने के विचार से श्री कृष्ण नें ऐक ऐसा अस्त्र छोडा जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्ष्य कर सकता था। आजकल ऐसे मिस्साईल्स को हीट-सीकिंग और साऊड-सीकरस कहते हैं और आधुनिक सैनाओं दूारा प्रयोग किये जाते हैं।

राजस्थान से भी…
प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।

‘लक्ष्मण-रेखा’ प्रकार की अदृष्य ‘इलेक्ट्रानिक फैंस’ तो कोठियों में आज कल पालतु जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जातीं हैं, अपने आप खुलने और बन्द होजाने वाले दरवाजे किसी भी माल में जा कर देखे जा सकते हैं। यह सभी चीजे पहले आशचर्य जनक थीं परन्तु आज ऐक आम बात बन चुकी हैं। ‘मन की गति से चलने वाले’ रावण के पुष्पक-विमान का ‘प्रोटोटाईप’ भी उडान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।

निस्संदेह रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो प्रथक-प्रथक ऋषि थे और आजकल की सैनाओं के साथ उन का कोई सम्बन्ध नहीं था। वह दोनो महाऋषि थे और किसी साईंटिफिक – फिक्शन के थ्रिल्लर – राईटर नहीं थे। उन के उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि तथ्य क्या है और साहित्यक कल्पना क्या होती है। कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की आवश्यक्ता होती है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु हम स्वयं ही अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना, हमारा ऐसा मानना केवल हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की देन है, पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकर अपनी शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।

खुद को भारतीय कहने वालो गर्व करो ....