वर्तमान के अनुसार उनका जन्म आज से करीब 5185 साल पहले हुआ था।
• महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखायः कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेगें।
उनके राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि, सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे।
महाराजा अग्रसेन जी का जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ, जिसे अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व प्रताप नगर के राजा वल्लभ के यहाँ सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ था। वर्तमान में राजस्थान व हरियाणा राज्य के बीच सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर स्थित था। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ॠषि ने महाराज वल्लभ से कहा था, कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा। इस के राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हज़ारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा।
माधवी का वरण महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहाँ आयोजित स्वंयवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया इस स्वंयवर में देव लोक से राजा इंद्र भी राजकुमारी माधवी से विवाह की इच्छा से उपस्थित थे परन्तु माधवी द्वारा श्री अग्रसेन का वरण करने से इंद्र कुपित होकर स्वंयवर स्थल से चले गये इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ। तपस्या कुपित इंद्र ने अपने अनुचरो से प्रताप नगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दिया जिससे भयंकर आकाल पड़ा। चारों तरफ त्राहि त्राहि मच गई तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शस्त्रों का संधान कर इन्द्र से युद्ध कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं था। तब अग्रसेन ने भगवान शंकर एवं महालक्ष्मी माता की अराधना की, इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएँ उत्पन्न कीं परन्तु श्री अग्रसेन की अविचल तपस्या से महालक्ष्मी प्रकट हुई एवं वरदान दिया कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा। माता को अग्रसेन ने इन्द्र की समस्या से अवगत कराया तो महालक्ष्मी ने कहा, इन्द्र को अनुभव प्राप्त है। आर्य एवं नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसे दुखी कर दिया है, तुम्हें कूटनीति अपनानी होगी। कोलापुर के राजा भी नागवंशी है, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो कोलापुर नरेश महीरथ की शक्तियाँ तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, तब इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पडेगा। तुम निडर होकर अपने नये राज्य की स्थापना करो।
माधवी का वरण महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहाँ आयोजित स्वंयवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया इस स्वंयवर में देव लोक से राजा इंद्र भी राजकुमारी माधवी से विवाह की इच्छा से उपस्थित थे परन्तु माधवी द्वारा श्री अग्रसेन का वरण करने से इंद्र कुपित होकर स्वंयवर स्थल से चले गये इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ। तपस्या कुपित इंद्र ने अपने अनुचरो से प्रताप नगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दिया जिससे भयंकर आकाल पड़ा। चारों तरफ त्राहि त्राहि मच गई तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शस्त्रों का संधान कर इन्द्र से युद्ध कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं था। तब अग्रसेन ने भगवान शंकर एवं महालक्ष्मी माता की अराधना की, इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएँ उत्पन्न कीं परन्तु श्री अग्रसेन की अविचल तपस्या से महालक्ष्मी प्रकट हुई एवं वरदान दिया कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा। माता को अग्रसेन ने इन्द्र की समस्या से अवगत कराया तो महालक्ष्मी ने कहा, इन्द्र को अनुभव प्राप्त है। आर्य एवं नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसे दुखी कर दिया है, तुम्हें कूटनीति अपनानी होगी। कोलापुर के राजा भी नागवंशी है, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो कोलापुर नरेश महीरथ की शक्तियाँ तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, तब इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पडेगा। तुम निडर होकर अपने नये राज्य की स्थापना करो।
अग्रोहा का निर्माण महाराजा वल्लभ के निधन के बाद श्री अग्रसेन राजा हुए और राजा वल्लभ के आशीर्वाद से लोहागढ़ सीमा से निकल कर अग्रसेन ने सरस्वती और यमुना नदी के बीच एक वीर भूमि खोजकर वहाँ अपने नए राज्य अग्रोहा का निर्माण किया और अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है।
अठारह यज्ञ
माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 पुत्र के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। माना जाता है कि यज्ञों में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई । यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ॠषि बने, राजकुमार विभु को दीक्षित कर उन्हें गर्ग गोत्र से मंत्रित किया। इसी प्रकार दूसरा यज्ञ गोभिल ॠषि ने करवाया और द्वितीय पुत्र को गोयल गोत्र दिया। तीसरा यज्ञ गौतम ॠषि ने गोइन गोत्र धारण करवाया, चौथे में वत्स ॠषि ने बंसल गोत्र, पाँचवे में कौशिक ॠषि ने कंसल गोत्र, छठे शांडिल्य ॠषि ने सिंघल गोत्र, सातवे में मंगल ॠषि ने मंगल गोत्र, आठवें में जैमिन ने जिंदल गोत्र, नवें में तांड्य ॠषि ने तिंगल गोत्र, दसवें में और्व ॠषि ने ऐरन गोत्र, ग्यारवें में धौम्य ॠषि ने धारण गोत्र, बारहवें में मुदगल ॠषि ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में वसिष्ठ ॠषि ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में मैत्रेय ॠषि ने मित्तल गोत्र, पंद्रहवें कश्यप ॠषि ने कुच्छल गोत्र दिया। 17 यज्ञ पूर्ण हो चुके थे। जिस समय 18 वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न माँस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा। इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने क्षत्रिय धर्म को अपना लिया। अठारवें यज्ञ में नगेन्द्र ॠषि द्वारा नांगल गोत्र से अभिमंत्रित किया।
ॠषियों द्वारा प्रदत्त अठारह गोत्रों को महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों के साथ महाराजा द्वारा बसायी 18 बस्तियों के निवासियों ने भी धारण कर लिया एक बस्ती के साथ प्रेम भाव बनाये रखने के लिए एक सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि अपने पुत्र और पुत्री का विवाह अपनी बस्ती में नहीं दूसरी बस्ती में करेंगे। आगे चलकर यह व्यवस्था गोत्रों में बदल गई जो आज भी अग्रवाल समाज में प्रचलित है।
अठारह गोत्र
महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र हुए, जिनके नाम पर वर्तमान में अग्रवालों के 18 गोत्र हैं। ये गोत्र निम्नलिखित हैं: -
गोत्रों के नाम
गोत्रों के नाम
- ऐरन
- बंसल
- बिंदल
- भंदल
- धारण
- गर्ग
- गोयल
- गोयन
- जिंदल
- कंसल
- कुच्छल
- मधुकुल
- मंगल
- मित्तल
- नागल
- सिंघल
- तायल
- तिंगल
महाराज ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर अपने 18 पुत्रों को सौंप उनके 18 गुरुओं के नाम पर 18 गोत्रों की स्थापना की थी। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे। इसी कारण अग्रोहा भी सर्वंगिण उन्नति कर सका। राज्य के उन्हीं 18 गणों से एक-एक प्रतिनिधि लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, जिसका स्वरूप आज भी हमें भारतीय लोकतंत्र के रूप में दिखाई पडता है।
उन्होंने परिश्रम और उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसका समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर आत्म-रक्षा के लिए शस्त्रों के उपयोग की शिक्षा पर भी बल दिया।
उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोडे को बहुत बेचैन और डरा हुआ पा उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के ना चाहने पर भी पशू बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवाल समाज हिंसा से दूर ही रहता है। अपनी जिंदगी के अंतिम समय में महाराज ने अपने ज्येष्ट पुत्र विभू को सारी जिम्मेदारी सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम अपना लिया।
महाराज अग्रसेन के राज की वैभवता से उनके पडोसी राजा बहुत जलते थे। इसलिए वे बार-बार अग्रोहा पर आक्रमण करते रहते थे। बार-बार मुंहकी खाने के बावजूद उनके कारण राज्य में तनाव बना ही रहता था। इन युद्धों के कारण अग्रसेनजी के प्रजा की भलाई के कामों में विघ्न पडता रहता था। लोग भी भयभीत और रोज-रोज की लडाई से त्रस्त हो गये थे। इसी के साथ-साथ एक बार अग्रोहा में बडी भीषण आग लगी। उस पर किसी भी तरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गये और जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे। पर उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोडी। वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगे हुए हैं।