प्रत्येक देवता का नैवेध निर्धारित होता है लेकिन इसका मतलब ये नहीं होता कि आप इन्ही वस्तुओ का भोग लगाये ईश्वर श्रद्धा को ज्यादा महत्व देते है.भाव के बिना कुछ भी नहीं है.भाव भक्ति होनी जरुरी है.कहते है कि भगवान तो भाव के भूखे है.
लेकिन जैसे आप अपना मन पसंद पदार्थ देखकर खुश होते है इसी प्रकार देवता भी मन पसंद नैवेध देख कर प्रसन्न हो कर आशीर्वाद देते है, प्रिय पदार्थ देवता को आकृष्ट करते है और वह नैवेध अर्थात प्रसाद जब हम ग्रहण करते है तो उसमे विघमान शक्ति हमें प्राप्त होती है.
कौन से देवता को कौन सा नैवेध
१. - विष्णु जी को खीर या सूजी हलवा का नैवेध बहुत पसंद है.
२. - गणेश जी को मोदक या लड्डू का नैवेध बहुत पसंद है.
३. - श्री कृष्ण को माखन-मिश्री का नैवेध बहुत पसंद है.
४. - शिव को भांग का नैवेध बहुत पसंद है.
५. - अन्नपूर्णा माता को अन्न के बने पदार्थ,देवी को पायस या खीर बहुत
पसंद है.
६. - लक्ष्मी जी को सफ़ेद रंग से मिष्ठान बहुत पसंद होते है.
नैवेध कैसे चढ़ाये
नैवेध की थाली और भोजन की थाली परोसने कि पद्धति में सिर्फ एक अंतर होता है भोजन की थाली परोसते समय सबसे पहले नमक परोसा जाता है और नैवेध की थाली में मिष्ठान सबसे महत्वपूर्ण होते है इसके अलावा पकवान रखने चाहिये प्रत्येक खाघान्न पर तुलसी दल रखकर थाली के चारो ओर जल की धार गोल घुमाते हुए घंटी बजानी चाहिये.
नैवेध की थाली तुरंत भगवान के आगे से नहीं हटाना चाहिये. कुछ देर बाद सभी लोगो को इस थाली से प्रसाद बांटना चाहिये. गणेश जी और शिव जी के नैवेध में तुलसी पत्र नहीं रखते गणेश जी के नैवेध में दूर्वा दल और शिव जी के नैवेध में बेल पत्र रखते है.
प्रसाद का महत्व
जब हम भगवान को खाघ पदार्थ अर्पण करते है तो वह "भोग या नैवेध" कहलाता है और भगवान के ग्रहण करने के बाद वह "प्रसाद" बन जाता है.प्रसाद चाहे सूखा हो, बासी हो, अथवा दूर देश से लाया हुआ हो, उसे पाते ही खा लेना चाहिये. उसमे काल के विचार करने की आवश्यकता नहीं है, महा प्रसाद में काल या देश का नियम नहीं है. जिस समय भी महा प्रसाद मिल जाये, उसे वही उसी समय पाते ही जल्दी से खा ले,ऐसा भगवान ने साक्षात् अपने श्री मुख से कहा है.कभी भी प्रसाद का निरादर नहीं करना चाहिये, और ना ही लेने से मना करना चाहिये.
स्वयं भगवान ने कहा है -
नैवेध कैसे चढ़ाये
नैवेध की थाली और भोजन की थाली परोसने कि पद्धति में सिर्फ एक अंतर होता है भोजन की थाली परोसते समय सबसे पहले नमक परोसा जाता है और नैवेध की थाली में मिष्ठान सबसे महत्वपूर्ण होते है इसके अलावा पकवान रखने चाहिये प्रत्येक खाघान्न पर तुलसी दल रखकर थाली के चारो ओर जल की धार गोल घुमाते हुए घंटी बजानी चाहिये.
नैवेध की थाली तुरंत भगवान के आगे से नहीं हटाना चाहिये. कुछ देर बाद सभी लोगो को इस थाली से प्रसाद बांटना चाहिये. गणेश जी और शिव जी के नैवेध में तुलसी पत्र नहीं रखते गणेश जी के नैवेध में दूर्वा दल और शिव जी के नैवेध में बेल पत्र रखते है.
प्रसाद का महत्व
जब हम भगवान को खाघ पदार्थ अर्पण करते है तो वह "भोग या नैवेध" कहलाता है और भगवान के ग्रहण करने के बाद वह "प्रसाद" बन जाता है.प्रसाद चाहे सूखा हो, बासी हो, अथवा दूर देश से लाया हुआ हो, उसे पाते ही खा लेना चाहिये. उसमे काल के विचार करने की आवश्यकता नहीं है, महा प्रसाद में काल या देश का नियम नहीं है. जिस समय भी महा प्रसाद मिल जाये, उसे वही उसी समय पाते ही जल्दी से खा ले,ऐसा भगवान ने साक्षात् अपने श्री मुख से कहा है.कभी भी प्रसाद का निरादर नहीं करना चाहिये, और ना ही लेने से मना करना चाहिये.
स्वयं भगवान ने कहा है -
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:"
जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेम से पत्र (पत्ती), पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ, वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूँ.. जब श्रद्धा रूपी पत्र हो ,सुमन अर्थात फूल, हमारा अच्छा मन ही सुमन है,फल अर्थात अपने कर्म फल और जल अर्थात भाव में नैनो से बहें हुए, दो बूंद आँसू हो, इसे ही भगवान ग्रहण करते है.
तो आईये हम भी अपने अपने इष्ट को उनका मन पसंद नैवेध अर्पण करे और उनका आशीर्वाद प्राप्त करे.
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