05 July 2013

!!! भज गोविन्दम' स्तोत्र !!!




'भज गोविन्दम' स्तोत्र की रचना शंकराचार्य ने की थी। यह मूल रूप से बारह पदों में सरल संस्कृत में लिखा गया एक सुंदर स्तोत्र है। इसलिए इसे द्वादश मंजरिका भी कहते हैं। 'भज गोविन्दम' में शंकराचार्य ने संसार के मोह में ना पड़ कर भगवान् कृष्ण की भक्ति करने का उपदेश दिया है। उनके अनुसार, संसार असार है और भगवान् का नाम शाश्वत है। उन्होंने मनुष्य को किताबी ज्ञान में समय ना गँवाकर और भौतिक वस्तुओं की लालसा, तृष्णा व मोह छोड़ कर भगवान् का भजन करने की शिक्षा दी है। इसलिए 'भज गोविन्दम' को 'मोह मुगदर' यानि मोह नाशक भी कहा जाता है। शंकराचार्य का कहना है कि अन्तकाल में मनुष्य की सारी अर्जित विद्याएँ और कलाएँ किसी काम नहीं आएँगी, काम आएगा तो बस हरि नाम।

भज गोविन्दम श्री शंकराचार्य की एक बहुत ही खूबसूरत रचना है। इस स्तोत्र को मोहमुदगर भी कहा गया है जिसका अर्थ है- वह शक्ति जो आपको सांसारिक बंधनों से मुक्त कर दे। छः व्याख्यानों के द्वारा मैंने इन पर रौशनी डालने का प्रयास किया है। सारे व्याख्यान हिंदी में हैं । अपने व्याख्यानों के दौरान मैं स्तोत्र का उल्लेख अवश्य करता हूँ ताकि आप इन्हें पूर्ण रूप से समझ सकें और इनका आनंद उठा सकें।



भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते। 
सम्प्राप्ते सन्निहिते मरणे, नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ॥1॥ 

हे भटके हुए प्राणी, सदैव परमात्मा का ध्यान कर क्योंकि तेरी अंतिम सांस के वक्त तेरा यह सांसारिक ज्ञान तेरे काम नहीं आएगा। सब नष्ट हो जाएगा। 

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णां, कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्। 
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं, वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥2॥ 

हम हमेशा मोह माया के बंधनों में फसें रहते हैं और इसी कारण हमें सुख की प्राप्ति नहीं होती। हम हमेशा ज्यादा से ज्यादा पाने की कोशिश करते रहते हैं। सुखी जीवन बिताने के लिए हमें संतुष्ट रहना सीखना होगा। हमें जो भी मिलता है उसे हमें खुशी खुशी स्वीकार करना चाहिए क्योंकि हम जैसे कर्म करते हैं, हमें वैसे ही फल की प्राप्ति होती है। 

नारीस्तनभरनाभीनिवेशं, दृष्ट्वा-माया-मोहावेशम्।
एतन्मांस-वसादि-विकारं, मनसि विचिन्तय बारम्बाररम् ॥3॥ 

हम स्त्री की सुन्दरता से मोहित होकर उसे पाने की निरंतर कोशिश करते हैं। परन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह सुन्दर शरीर सिर्फ हाड़ मांस का टुकड़ा है। 

नलिनीदलगतसलिलं तरलं, तद्वज्जीवितमतिशय चपलम्। 
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोकं शोकहतं च समस्तम् ॥4॥ 

हमारा जीवन क्षण-भंगुर है। यह उस पानी की बूँद की तरह है जो कमल की पंखुड़ियों से गिर कर समुद्र के विशाल जल स्त्रोत में अपना अस्तित्व खो देती है। हमारे चारों ओर प्राणी तरह तरह की कुंठाओं एवं कष्ट से पीड़ित हैं। ऐसे जीवन में कैसी सुन्दरता? 

यावद्वित्तोपार्जनसक्त:, तावत् निज परिवारो रक्तः। 
पश्चात् धावति जर्जर देहे, वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे ॥5॥

जिस परिवार पर तुम ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, जिसके लिए तुम निरंतर मेहनत करते रहे, वह परिवार तुम्हारे साथ तभी तक है जब तक के तुम उनकी ज़रूरतों को पूरा करते हो। 

यावत्पवनो निवसति देहे तावत् पृच्छति कुशलं गेहे। 
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥6॥


तुम्हारे मृत्यु के एक क्षण पश्चात ही वह तुम्हारा दाह-संस्कार कर देंगे। यहाँ तक की तुम्हारी पत्नी जिसके साथ तुम ने अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ारी, वह भी तुम्हारे मृत शरीर को घृणित दृष्टि से देखेगी। 


बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावत् चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥7॥

सारे बालक क्रीडा में व्यस्त हैं और नौजवान अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने में समय बिता रहे हैं। बुज़ुर्ग केवल चिंता करने में व्यस्त हैं। किसी के पास भी उस परमात्मा को स्मरण करने का वक्त नहीं।

का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयं अतीव विचित्रः। 
कस्य त्वं कः कुत अयातः तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रातः ॥8॥

कौन है हमारा सच्चा साथी? हमारा पुत्र कौन हैं? इस क्षण-भंगुर, नश्वर एवं विचित्र संसार में हमारा अपना अस्तित्व क्या है? यह ध्यान देने वाली बात है। 

सत्संगत्वे निःसंगत्वं, निःसंगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥9॥

संत परमात्माओ के साथ उठने बैठने से हम सांसारिक वस्तुओं एवं बंधनों से दूर होने लगते हैं। 
ऐसे हमें सुख की प्राप्ति होती है। सब बन्धनों से मुक्त होकर ही हम उस परम ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं। 

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः। 
क्षीणे वित्ते कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥10॥

यदि हमारा शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं तो हमें शारीरिक सुख की प्राप्ति नहीं होगी। वह ताल ताल नहीं रहता यदि उसमें जल न हो। जिस प्रकार धन के बिखर जाने से पूरा परिवार बिखर जाता है, उसी तरह ज्ञान की प्राप्ति होते ही, हम इस विचित्र संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। 

मा कुरु धन-जन-यौवन-गर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वम्। 
मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्म पदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥11॥

हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी सुन्दरता एवं हमारा गुरूर, सब एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। कुछ भी अमर नहीं है। यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा है। हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए।

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः। 
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चति आशावायुः ॥12॥ 

समय का बीतना और ऋतुओं का बदलना सांसारिक नियम है। कोई भी व्यक्ति अमर नहीं होता। मृत्यु के सामने हर किसी को झुकना पड़ता है। परन्तु हम मोह माया के बन्धनों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते हैं। 

का ते कान्ता धनगतचिन्ता वातुल किं तव नास्ति नियन्ता। 
त्रिजगति सज्जन संगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका ॥13॥ 

सांसारिक मोह माया, धन और स्त्री के बन्धनों में फंस कर एवं व्यर्थ की चिंता कर के हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा। क्यों हम सदैव अपने आप को इन चिंताओं से घेरे रखते हैं? क्यों हम महात्माओं से प्रेरणा लेकर उनके दिखाए हुए मार्ग पर नहीं चलते? संत महात्माओं से जुड़ कर अथवा उनके दिए गए उपदेशों का पालन कर के ही हम सांसारिक बन्धनों एवं व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त हो सकते हैं । 

जटिलो मुण्डी लुञ्चित केशः काषायाम्बर-बहुकृतवेषः। 
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृत शोकः ॥14॥ 

इस संसार का हर व्यक्ति चाहे वह दिखने में कैसा भी हो, चाहे वह किसी भी रंग का वस्त्र धारण करता हो, निरंतर कर्म करता रहता है। क्यों? केवल रोज़ी रोटी कमाने के लिए। फिर भी पता नहीं क्यों हम सब कुछ जान कर भी अनजान बनें रहते हैं। 

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशन विहीनं जातं तुण्डम्। 
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चति आशापिण्डम् ॥15॥ 

जिस व्यक्ति का शरीर जवाब दे चूका है, जिसके बदन में प्राण सिर्फ नाम मात्र ही बचे हैं, जो व्यक्ति बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता, वह व्यक्ति भी स्वयं को सांसारिक मोह माया से छुड़ाने में असमर्थ रहा है। 

अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः रात्रौ चिबुक-समर्पित-जानुः। 
करतलभिक्षा तरुतलवासः तदपि न मुञ्चति आशापाशः ॥16॥ 

समय निरंतर चलता रहता है। इसे न कोई रोक पाया है और न ही कोई रोक पायेगा। सिर्फ अपने शरीर को कष्ट देने से और किसी जंगल में अकेले में कठिन तपस्या करने से हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी।


कुरुते गंगासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्। 
ज्ञानविहिनः सर्वमतेन मुक्तिः न भवति जन्मशतेन ॥17॥ 

हमें मुक्ति की प्राप्ति सिर्फ आत्मज्ञान के द्वारा प्राप्त हो सकती है। लम्बी यात्रा पर जाने से या कठिन व्रत रखने से हमें परम ज्ञान अथवा मोक्ष प्राप्त नहीं होगा।

सुर-मन्दिर-तरु-मूल-निवासः शय्या भूतलमजिनं वासः। 
सर्व-परिग्रह-भोग-त्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः ॥18॥ 

जो इंसान संसार के भौतिक सुख सुविधाओं से ऊपर उठ चुका है, जिसके जीवन का लक्ष्य शारीरिक सुख एवं धन और समाज में प्रतिष्ठा की प्राप्ति मात्र नहीं है, वह प्राणी अपना सम्पूर्ण जीवन सुख एवं शांति से व्यतीत करता है।

योगरतो वा भोगरतो वा संगरतो वा संगविहीनः। 
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दति एव ॥19॥

चाहे हम योग की राह पर चलें या हम अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना ही बेहतर समझें, यदि हमने अपने आप को परमात्मा से जोड़ लें तो हमें सदैव सुख प्राप्त होगा।

भगवद्गीता किञ्चिदधीता गंगा-जल-लव-कणिका-पीता। 
सकृदपि येन मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम् ॥20॥

जो अपना समय आत्मज्ञान को प्राप्त करने में लगाते हैं, जो सदैव परमात्मा का स्मरण करते हैं एवं भक्ति के मीठे रस में लीन हो जाते हैं, उन्हें ही इस संसार के सारे दुःख दर्द एवं कष्टों से मुक्ति मिलती है।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्। 
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥

हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।

रथ्याचर्पट-विरचित-कन्थः पुण्यापुण्य-विवर्जित-पन्थः। 
योगी योगनियोजित चित्तः रमते बालोन्मत्तवदेव ॥22॥ 

जो योगी सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर अपनी इन्द्रियों को वश में करने में सक्षम हो जाता है, उसे किसी बात का डर नहीं रहता और वह निडर होकर, एक चंचल बालक के समान, अपना जीवन व्यतीत करता है।

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः। 
इति परिभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥23॥ 

हम कौन हैं? हम कहाँ से आये हैं? हमारा इस संसार में क्या है? ऐसी बातों पर चिंता कर के हमें अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। यह संसार एक स्वप्न की तरह ही झूठा एवं क्षण-भंगुर है।

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः व्यर्थं कुप्यसि सर्वसहिष्णुः। 
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥24॥ 

संसार के कण कण में उस परमात्मा का वास है। कोई भी प्राणी ईश्वर की कृपा से अछूता नहीं है। 

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ। 
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं वाछंसि अचिराद् यदि विष्णुत्वम्॥25॥

हमें न ही किसी से अत्यधिक प्रेम करना चाहिए और न ही घृणा। सभी प्राणियों में ईश्वर का वास है। हमें सबको एक ही नज़र से देखना चाहिए और उनका आदर करना चाहिए क्योंकि तभी हम परमात्मा का आदर कर पाएंगे।

कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वात्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञानविहीना मूढाः ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥26॥ 

हमारे जीवन का लक्ष्य कदापि सांसारिक एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं होना चाहिए। हमें उन्हें पाने के विचारों को त्याग कर, परम ज्ञान की प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। तभी हम संसार के कष्ट एवं पीडाओं से मुक्ति पा सकेंगे।

गेयं गीता नाम सहस्रं ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्। 
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥27॥

उस परम परमेश्वर का सदैव ध्यान कीजिए। उसकी महिमा का गुणगान कीजिए। हमेशा संतों की संगती में रहिए और गरीब एवं बेसहारे व्यक्तियों की सहायता कीजिए। 

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः। 
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥28॥ 

जिस शरीर का हम इतना ख्याल रखते हैं और उसके द्वारा तरह तरह की भौतिक एवं शारीरिक सुख पाने की चेष्टा करते हैं, वह शरीर एक दिन नष्ट हो जाएगा। मृत्यु आने पर हमारा सजावटी शरीर मिट्टी में मिल जाएगा। फिर क्यों हम व्यर्थ ही बुरी आदतों में फंसते हैं।

अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥29॥ 

संसार के सभी भौतिक सुख हमारे दुखों का कारण है। जितना ज्यादा हम धन या अन्य भौतिक सुख की वस्तुओं को इकट्ठा करते हैं, उतना ही हमें उन्हें खोने का डर सताता रहता है। सम्पूर्ण संसार के जितने भी अत्यधिक धनवान व्यक्ति हैं, वे अपने परिवार वालों से भी डरते हैं। 

प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवेकविचारम्। 
जाप्यसमेत समाधिविधानं कुर्ववधानं महदवधानम् ॥30॥ 

हमें सदैव इस बात को ध्यान में रखना चाहिए की यह संसार नश्वर है। हमें अपनी सांस, अपना भोजन और अपना चाल चलन संतुलित रखना चाहिए। हमें सचेत होकर उस ईश्वर पर अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर देना चाहिए।

गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥32॥

हमें अपने गुरु के कमल रूपी चरणों में शरण लेनी चाहिए।
तभी हमें मोक्ष की प्राप्ति होगी। यदि हम अपनी इन्द्रियों और अपने मस्तिष्क पर संयम रख लें तो हमारे अपने ही ह्रदय में हम ईश्वर को महसूस कर पायेंगे।



॥ श्रीशिवपञ्चाक्षरस्तोत्रम् ॥



श्रीमच्छङ्करभगवत्पादाचार्यैः विरचितं
॥श्रीशिवपञ्चाक्षरस्तोत्रम्॥

नागेन्द्रहाराय विलोचनाय
भस्माङ्गरागाय महेश्वराय ।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय
तस्मै नकाराय नमः शिवाय ॥ १ ॥

मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय
नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय ।
मन्दारमुख्यबहुपुष्पसुपूजिताय
तस्मै मकारमहिताय नमः शिवाय ॥ २ ॥

शिवाय गौरीवदनाब्जबृन्द-
सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय
तस्मै शिकाराय नमः शिवाय ॥ ३ ॥

वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य-
मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय ।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय
तस्मै वकाराय नमः शिवाय ॥ ४ ॥

यज्ञस्वरूपाय जटाधराय
पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय
तस्मै यकाराय नमः शिवाय ॥ ५ ॥

॥शिवपञ्चाक्षरस्तोत्रं संपूर्णम्॥

!!! श्रीमद आद्य शंकराचार्यविरचितम् !!!



शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं,
यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||१||


यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?


कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं,
गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||२||


सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?


षड़ंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या,
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||३||


वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?


विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः,
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||४||


जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उनका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो सदगुणों से क्या लाभ?


क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः,
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||५||


जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इस सदभाग्य से क्या लाभ?


यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्,
जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||६||


दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगांतरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-एश्वर्य हस्तगत हों,किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तभाव न रखता हो तो इन सारे एशवर्यों से क्या लाभ?


न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ,
न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||७||


जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, स्त्री-सुख और धनोभोग से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो मन की इस अटलता से क्या लाभ?


अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये,
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||८||


जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी वह मन आसक्त न हो पाये तो इन सारी अनासक्त्तियों का क्या लाभ?


गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही,
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही |
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसंज्ञं,
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ||९||


जो यति, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशालीशरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को संप्राप्त कर लेता है यह निश्चित है


!!! महा कालभैरव स्तोत्र -देवसुत !!!

|अउम|

यम् यम् यम् यक्ष रूपं, दश दिशी विदितम, भूमि कम्पायमानं |
सं सं संहार मूर्तिं, शिर मुकुट जटा शेखरं चन्द्र बिम्बं |
दम दम दम दीर्घ कायम विकृत नख मुखं , ज्वोर्ध्व रोमं कराळम् |
पं पं पं पाप नाशं, प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं |

रम् रम् रम् रक्त वर्णं, कटिकटिततनुं तीक्ष्ण दन्स्त्रा कराळम् |
घम् घम् घम् घोष घोषं घ घ घ घ घटितं घर्जरं घोर नादं |
कम् कम् कम् काल पाषं धृक धृक ध्रि कृतं ज्वालितम् कामदाहं |
तम् तम् तम् दिव्य देहं, प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं | 

लम् लम् लम् लम् वदन्तं ल ल ल ल ललितं दीर्घ जिव्हा कराळम् |
धूम धूम धूम धूम्र वर्णं स्फुट विकट मुखं भास्करं भीमरूपं |
रुम रुम रुम रून्दमालं रवितनुं नेयतं ताम्र नेत्रं कराळम् |
नम नम नम नग्नाभूषं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं |

वम् वम् वम् वायुवेगं नटजन सदयं ब्रह्म सारं परम् तम |
खम् खम् खम् खड्ग हस्तं त्रिभुवन विलयं भास्करं भीमरूपं |
चम् चम् चम् चलित्वा चल चल चलिता चालितम् भूमि चक्रं |
मम् मम् मम् मायी रूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं |

शम् शम् शम् शङ्ख हस्तं ससि कर धवलं मूक्ष संपूर्ण तेजम |
मम् मम् मम् मम् महन्तं कुल मकुल कुलं मन्त्र गुप्तं सुनित्यं |
यम् यम् यम् भूतनादं किलि किलि किलितं बालकेली प्रधानं |
आम् आम् आम् आन्तरिक्षं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं |

खम् खम् खम् खड्ग भेदं विष मामृत मयं काल कालं कराळम् |
क्षम् क्षम् क्षम् क्षेप्र वेगं दह दह धनं तप्त संदीप्य मानं|
हौम् हौम् हौम्कार नादं प्रकटित गहनं गर्जितै भूमि कम्पं |
वम् वम् वम् वाल लीलम् प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं |

सम् सम् सम् सिद्धि योगं सकल गुण मखं देव देवं प्रसन्नं |
पम् पम् पम् पद्मनाभं हरिहर मयं चन्द्र सूर्याग्नि नेत्रं |
ऐम् ऐम् ऐश्वर्य नादं सत त भय हरं पूर्वदेव स्वरूपम् |
रौम् रौम् रौम् रौद्र रूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं |

हम् हम् हम् हंसयानं हपितकल हकं मुक्तयोगत्त हासं |
धम धम धम नेत्र रूपं शिरमुकुट जटाबन्ध बन्धाग्र हस्तं |
टम टम टान्क नाधम त्रिद सलत ल टम काम गर्वाप हरं |
भ्रूं भ्रूं भ्रूं भूतनादं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं |

|अउम|

!!! शिव स्तुति (भैरवरूप शिव-स्तुति) !!!



शंकरं, शंप्रदं, सज्जनानंददं, शैल-कन्या-वरं, परमरम्यं। 
काम-मद-मोचनं, तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भावगम्यं।।
कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं, सुंदरं, सच्चिदानंदकंदं। 
सिंद्ध-सनकादि-योगीन्द्र-वृंदारका, विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं।।
ब्रह्म-कुल-वल्लभं, सुलभ मति दुर्लभं, विकट-वेषं, विभुं, वेदपारं।
नौमि करूणाकरं, गरल-गंगाधरं, निर्मलं, निर्गुणं, निर्विकारं।।
लोकनाथं, शोक-शूल-निर्मूलिनं, शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं। 
कालकालं, कलातीतमजरं, हरं, कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं।।
तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं, सर्वगं, सर्वसौभाग्यमूलं।
प्रचुर-भव-भंजनं, प्रणत-जन-रंजनं, दास तुलसी शरण सानुकूलं।।


!!! ब्रह्ममुरारी सुरार्चित लिंगं !!!


शिवपुराण के मुताबिक शिव संसार को रचने वाले भी हैं तो दूसरी ओर बुरी शक्तियों के विनाशक भी। इस तरह शिव की शक्तियों व गुण का सार कल्याणकारी ही है। ठीक किसी कल्पवृक्ष की तरह हर इच्छाओं को पूरा करने वाला। 


शास्त्रों के मुताबिक शिव के निराकार रूप शिव लिंग की उपासना व दर्शन कामनासिद्धी का अचूक उपाय है। इंसान की ऐसी ही कामनाओं में एक है - सफलता।

अगर आप भी किसी भी क्षेत्र में जल्द कामयाबी की चाहत रखते हैं तो यहां बताई जा रही शिव मंत्र स्तुति, जो लिगांष्टक के रूप में प्रसिद्ध है, शिव के गंगाजल या दूध से स्नान और पंचोपचार पूजा में धतूरा या बिल्वपत्र चढ़ाने के बाद जरूर करें –


ब्रह्ममुरारी सुरार्चित लिंगं, बुद्धी विवरधन कारण लिंगं।
संचित पाप विनाशन लिंगं, दिनकर कोटी प्रभाकर लिंगं।
तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं ।1।

देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गम् कामदहम् करुणाकर लिङ्गम्। 
रावणदर्पविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।2।

सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गम् बुद्धिविवर्धनकारणलिङ्गम्। 
सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।3।

कनकमहामणिभूषितलिङ्गम् फनिपतिवेष्टित शोभित लिङ्गम्। 
दक्षसुयज्ञ विनाशन लिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।4।

कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गम् पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम्।
सञ्चितपापविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम।5।

देवगणार्चित सेवितलिङ्गम् भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम्।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम्।6।

अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गम् सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम्। 
अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम्।7।

सुरगुरुसुरवरपूजित लिङ्गम् सुरवनपुष्प सदार्चित लिङ्गम्।
परात्परं परमात्मक लिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।8।

लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ। 
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते।9।