भज गोविन्दम श्री शंकराचार्य की एक बहुत ही खूबसूरत रचना है। इस स्तोत्र को मोहमुदगर भी कहा गया है जिसका अर्थ है- वह शक्ति जो आपको सांसारिक बंधनों से मुक्त कर दे। छः व्याख्यानों के द्वारा मैंने इन पर रौशनी डालने का प्रयास किया है। सारे व्याख्यान हिंदी में हैं । अपने व्याख्यानों के दौरान मैं स्तोत्र का उल्लेख अवश्य करता हूँ ताकि आप इन्हें पूर्ण रूप से समझ सकें और इनका आनंद उठा सकें।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।
सम्प्राप्ते सन्निहिते मरणे, नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ॥1॥
हे भटके हुए प्राणी, सदैव परमात्मा का ध्यान कर क्योंकि तेरी अंतिम सांस के वक्त तेरा यह सांसारिक ज्ञान तेरे काम नहीं आएगा। सब नष्ट हो जाएगा।
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णां, कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं, वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥2॥
हम हमेशा मोह माया के बंधनों में फसें रहते हैं और इसी कारण हमें सुख की प्राप्ति नहीं होती। हम हमेशा ज्यादा से ज्यादा पाने की कोशिश करते रहते हैं। सुखी जीवन बिताने के लिए हमें संतुष्ट रहना सीखना होगा। हमें जो भी मिलता है उसे हमें खुशी खुशी स्वीकार करना चाहिए क्योंकि हम जैसे कर्म करते हैं, हमें वैसे ही फल की प्राप्ति होती है।
नारीस्तनभरनाभीनिवेशं, दृष्ट्वा-माया-मोहावेशम्।
एतन्मांस-वसादि-विकारं, मनसि विचिन्तय बारम्बाररम् ॥3॥
हम स्त्री की सुन्दरता से मोहित होकर उसे पाने की निरंतर कोशिश करते हैं। परन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह सुन्दर शरीर सिर्फ हाड़ मांस का टुकड़ा है।
नलिनीदलगतसलिलं तरलं, तद्वज्जीवितमतिशय चपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोकं शोकहतं च समस्तम् ॥4॥
हमारा जीवन क्षण-भंगुर है। यह उस पानी की बूँद की तरह है जो कमल की पंखुड़ियों से गिर कर समुद्र के विशाल जल स्त्रोत में अपना अस्तित्व खो देती है। हमारे चारों ओर प्राणी तरह तरह की कुंठाओं एवं कष्ट से पीड़ित हैं। ऐसे जीवन में कैसी सुन्दरता?
यावद्वित्तोपार्जनसक्त:, तावत् निज परिवारो रक्तः।
पश्चात् धावति जर्जर देहे, वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे ॥5॥
जिस परिवार पर तुम ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, जिसके लिए तुम निरंतर मेहनत करते रहे, वह परिवार तुम्हारे साथ तभी तक है जब तक के तुम उनकी ज़रूरतों को पूरा करते हो।
यावत्पवनो निवसति देहे तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥6॥
तुम्हारे मृत्यु के एक क्षण पश्चात ही वह तुम्हारा दाह-संस्कार कर देंगे। यहाँ तक की तुम्हारी पत्नी जिसके साथ तुम ने अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ारी, वह भी तुम्हारे मृत शरीर को घृणित दृष्टि से देखेगी।
बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावत् चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥7॥
सारे बालक क्रीडा में व्यस्त हैं और नौजवान अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने में समय बिता रहे हैं। बुज़ुर्ग केवल चिंता करने में व्यस्त हैं। किसी के पास भी उस परमात्मा को स्मरण करने का वक्त नहीं।
का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयं अतीव विचित्रः।
कस्य त्वं कः कुत अयातः तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रातः ॥8॥
कौन है हमारा सच्चा साथी? हमारा पुत्र कौन हैं? इस क्षण-भंगुर, नश्वर एवं विचित्र संसार में हमारा अपना अस्तित्व क्या है? यह ध्यान देने वाली बात है।
सत्संगत्वे निःसंगत्वं, निःसंगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥9॥
संत परमात्माओ के साथ उठने बैठने से हम सांसारिक वस्तुओं एवं बंधनों से दूर होने लगते हैं।
ऐसे हमें सुख की प्राप्ति होती है। सब बन्धनों से मुक्त होकर ही हम उस परम ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं।
वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥10॥
यदि हमारा शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं तो हमें शारीरिक सुख की प्राप्ति नहीं होगी। वह ताल ताल नहीं रहता यदि उसमें जल न हो। जिस प्रकार धन के बिखर जाने से पूरा परिवार बिखर जाता है, उसी तरह ज्ञान की प्राप्ति होते ही, हम इस विचित्र संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।
मा कुरु धन-जन-यौवन-गर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वम्।
मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्म पदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥11॥
हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी सुन्दरता एवं हमारा गुरूर, सब एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। कुछ भी अमर नहीं है। यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा है। हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए।
दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चति आशावायुः ॥12॥
समय का बीतना और ऋतुओं का बदलना सांसारिक नियम है। कोई भी व्यक्ति अमर नहीं होता। मृत्यु के सामने हर किसी को झुकना पड़ता है। परन्तु हम मोह माया के बन्धनों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते हैं।
का ते कान्ता धनगतचिन्ता वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जन संगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका ॥13॥
सांसारिक मोह माया, धन और स्त्री के बन्धनों में फंस कर एवं व्यर्थ की चिंता कर के हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा। क्यों हम सदैव अपने आप को इन चिंताओं से घेरे रखते हैं? क्यों हम महात्माओं से प्रेरणा लेकर उनके दिखाए हुए मार्ग पर नहीं चलते? संत महात्माओं से जुड़ कर अथवा उनके दिए गए उपदेशों का पालन कर के ही हम सांसारिक बन्धनों एवं व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त हो सकते हैं ।
जटिलो मुण्डी लुञ्चित केशः काषायाम्बर-बहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृत शोकः ॥14॥
इस संसार का हर व्यक्ति चाहे वह दिखने में कैसा भी हो, चाहे वह किसी भी रंग का वस्त्र धारण करता हो, निरंतर कर्म करता रहता है। क्यों? केवल रोज़ी रोटी कमाने के लिए। फिर भी पता नहीं क्यों हम सब कुछ जान कर भी अनजान बनें रहते हैं।
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशन विहीनं जातं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चति आशापिण्डम् ॥15॥
जिस व्यक्ति का शरीर जवाब दे चूका है, जिसके बदन में प्राण सिर्फ नाम मात्र ही बचे हैं, जो व्यक्ति बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता, वह व्यक्ति भी स्वयं को सांसारिक मोह माया से छुड़ाने में असमर्थ रहा है।
अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः रात्रौ चिबुक-समर्पित-जानुः।
करतलभिक्षा तरुतलवासः तदपि न मुञ्चति आशापाशः ॥16॥
समय निरंतर चलता रहता है। इसे न कोई रोक पाया है और न ही कोई रोक पायेगा। सिर्फ अपने शरीर को कष्ट देने से और किसी जंगल में अकेले में कठिन तपस्या करने से हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी।
कुरुते गंगासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहिनः सर्वमतेन मुक्तिः न भवति जन्मशतेन ॥17॥
हमें मुक्ति की प्राप्ति सिर्फ आत्मज्ञान के द्वारा प्राप्त हो सकती है। लम्बी यात्रा पर जाने से या कठिन व्रत रखने से हमें परम ज्ञान अथवा मोक्ष प्राप्त नहीं होगा।
सुर-मन्दिर-तरु-मूल-निवासः शय्या भूतलमजिनं वासः।
सर्व-परिग्रह-भोग-त्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः ॥18॥
जो इंसान संसार के भौतिक सुख सुविधाओं से ऊपर उठ चुका है, जिसके जीवन का लक्ष्य शारीरिक सुख एवं धन और समाज में प्रतिष्ठा की प्राप्ति मात्र नहीं है, वह प्राणी अपना सम्पूर्ण जीवन सुख एवं शांति से व्यतीत करता है।
योगरतो वा भोगरतो वा संगरतो वा संगविहीनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दति एव ॥19॥
चाहे हम योग की राह पर चलें या हम अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना ही बेहतर समझें, यदि हमने अपने आप को परमात्मा से जोड़ लें तो हमें सदैव सुख प्राप्त होगा।
भगवद्गीता किञ्चिदधीता गंगा-जल-लव-कणिका-पीता।
सकृदपि येन मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम् ॥20॥
जो अपना समय आत्मज्ञान को प्राप्त करने में लगाते हैं, जो सदैव परमात्मा का स्मरण करते हैं एवं भक्ति के मीठे रस में लीन हो जाते हैं, उन्हें ही इस संसार के सारे दुःख दर्द एवं कष्टों से मुक्ति मिलती है।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥
हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।
रथ्याचर्पट-विरचित-कन्थः पुण्यापुण्य-विवर्जित-पन्थः।
योगी योगनियोजित चित्तः रमते बालोन्मत्तवदेव ॥22॥
जो योगी सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर अपनी इन्द्रियों को वश में करने में सक्षम हो जाता है, उसे किसी बात का डर नहीं रहता और वह निडर होकर, एक चंचल बालक के समान, अपना जीवन व्यतीत करता है।
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥23॥
हम कौन हैं? हम कहाँ से आये हैं? हमारा इस संसार में क्या है? ऐसी बातों पर चिंता कर के हमें अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। यह संसार एक स्वप्न की तरह ही झूठा एवं क्षण-भंगुर है।
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः व्यर्थं कुप्यसि सर्वसहिष्णुः।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥24॥
संसार के कण कण में उस परमात्मा का वास है। कोई भी प्राणी ईश्वर की कृपा से अछूता नहीं है।
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं वाछंसि अचिराद् यदि विष्णुत्वम्॥25॥
हमें न ही किसी से अत्यधिक प्रेम करना चाहिए और न ही घृणा। सभी प्राणियों में ईश्वर का वास है। हमें सबको एक ही नज़र से देखना चाहिए और उनका आदर करना चाहिए क्योंकि तभी हम परमात्मा का आदर कर पाएंगे।
कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वात्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञानविहीना मूढाः ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥26॥
हमारे जीवन का लक्ष्य कदापि सांसारिक एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं होना चाहिए। हमें उन्हें पाने के विचारों को त्याग कर, परम ज्ञान की प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। तभी हम संसार के कष्ट एवं पीडाओं से मुक्ति पा सकेंगे।
गेयं गीता नाम सहस्रं ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥27॥
उस परम परमेश्वर का सदैव ध्यान कीजिए। उसकी महिमा का गुणगान कीजिए। हमेशा संतों की संगती में रहिए और गरीब एवं बेसहारे व्यक्तियों की सहायता कीजिए।
सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥28॥
जिस शरीर का हम इतना ख्याल रखते हैं और उसके द्वारा तरह तरह की भौतिक एवं शारीरिक सुख पाने की चेष्टा करते हैं, वह शरीर एक दिन नष्ट हो जाएगा। मृत्यु आने पर हमारा सजावटी शरीर मिट्टी में मिल जाएगा। फिर क्यों हम व्यर्थ ही बुरी आदतों में फंसते हैं।
अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥29॥
संसार के सभी भौतिक सुख हमारे दुखों का कारण है। जितना ज्यादा हम धन या अन्य भौतिक सुख की वस्तुओं को इकट्ठा करते हैं, उतना ही हमें उन्हें खोने का डर सताता रहता है। सम्पूर्ण संसार के जितने भी अत्यधिक धनवान व्यक्ति हैं, वे अपने परिवार वालों से भी डरते हैं।
प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं कुर्ववधानं महदवधानम् ॥30॥
हमें सदैव इस बात को ध्यान में रखना चाहिए की यह संसार नश्वर है। हमें अपनी सांस, अपना भोजन और अपना चाल चलन संतुलित रखना चाहिए। हमें सचेत होकर उस ईश्वर पर अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर देना चाहिए।
गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥32॥
हमें अपने गुरु के कमल रूपी चरणों में शरण लेनी चाहिए।
तभी हमें मोक्ष की प्राप्ति होगी। यदि हम अपनी इन्द्रियों और अपने मस्तिष्क पर संयम रख लें तो हमारे अपने ही ह्रदय में हम ईश्वर को महसूस कर पायेंगे।