25 July 2013

!!! पंचगव्य !!!


गाय के दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर का पानी को सामूहिक रूप से पंचगव्य कहा जाता है। आयुर्वेद में इसे औषधि की मान्यता है। हिन्दुओं के कोई भी मांगलिक कार्य इनके बिना पूरे नहीं होते।

पंचगव्य का चिकित्सकीय महत्व
पंचगव्य का निर्माण गाय के दूध, दही, घी, मूत्र, गोबर के द्वारा किया जाता है। पंचगव्य द्वारा शरीर के रोगनिरोधक क्षमता को बढाकर रोगों को दूर किया जाता है। गोमूत्र में प्रति ऑक्सीकरण की क्षमता के कारण डीएनए को नष्ट होने से बचाया जा सकता है। गाय के गोबर का चर्म रोगों में उपचारीय महत्व सर्वविदित है। दही एवं घी के पोषण मान की उच्चता से सभी परिचित हैं। दूध का प्रयोग विभिन्न प्रकार से भारतीय संस्कृति में पुरातन काल से होता आ रहा है। घी का प्रयोग शरीर की क्षमता को बढ़ाने एवं मानसिक विकास के लिए किया जाता है। दही में सुपाच्य प्रोटीन एवं लाभकारी जीवाणु होते हैं जो क्षुधा को बढ़ाने में सहायता करते हैं। पंचगव्य का निर्माण देसी मुक्त वन विचरण करने वाली गायों से प्राप्त उत्पादों द्वारा ही करना चाहिए।

पंचगव्य निर्माण
सूर्य नाड़ी वाली गायें ही पंचगव्य के निर्माण के लिए उपयुक्त होती हैं। देसी गायें इसी श्रेणी में आती हैं। इनके उत्पादों में मानव के लिए जरूरी सभी तत्त्व पाये जाते हैं। महर्षि चरक के अनुसार गोमूत्र कटु तीक्ष्ण एवं कषाय होता है। इसके गुणों में उष्णता, राष्युकता, अग्निदीपक प्रमुख हैं। गोमूत्र में नाइट्रोजन, सल्फुर, अमोनिया, कॉपर, लौह तत्त्व, यूरिक एसिड, यूरिया, फास्फेट, सोडियम, पोटेसियम, मैंगनीज, कार्बोलिक एसिड, कैल्सिअम, नमक, विटामिन बी, ऐ, डी, ई; एंजाइम, लैक्टोज, हिप्पुरिक अम्ल, कृएतिनिन, आरम हाइद्रक्साइद मुख्य रूप से पाये जाते हैं। यूरिया मूत्रल, कीटाणु नाशक है। पोटैसियम क्षुधावर्धक, रक्तचाप नियामक है। सोडियम द्रव मात्रा एवं तंत्रिका शक्ति का नियमन करता है। मेगनीसियम एवं कैल्सियम हृदयगति का नियमन करते हैं।


भारत में गाय को माता कहा जाता है। विश्व के दूसरे देशों में गाय को पूजनीय नहीं माना जाता। भारतीय गोवंश मानव का पोषण करता रहा है, जिसका दूध, गोमूत्र और गोबर अतुलनीय है। सुख, समृद्धि की प्रतीक रही भारतीय गाय आज गोशालाओं में भी उपेक्षित है। अधिक दूध के लिए विदेशी गायों को पाला जा रहा है जबकि भारतीय नस्ल की गायें आज भी सर्वाधिक दूध देती हैं। गोशाला में देशी गोवंश के संरक्षण, संवर्धन की परम्परा भी खत्म हो रही है। हमारी गोशालाएं ‘डेयरी फार्म’ बन चुकी हैं, जहां दूध का ही व्यवसाय हो रहा है और सरकार भी इसी को अनुदान देती है। वैसे गोशाला में दान देने वाले व्यक्तियों की भी कमी नहीं है। हमें देशी गाय के महत्व और उसके साथ सहजीवन को समझना जरुरी है। आज भारतीय गोशालाओं से भारतीय गोवंश सिमटता जा रहा है।

गाय की उत्पत्ति स्थल भी भारत ही है। गाय का उद्भव बास प्लैनिफ्रन्स के रूप में प्लाईस्टोसीन के प्रथम चरण (15 लाख वर्ष पूर्व) में हुआ। इस प्रकार इसका सर्वप्रथम विकास एशिया में हुआ। इसके बाद प्लाईस्टोसीन के अंतिम दौर (12 लाख वर्ष पूर्व) गाय अफ्रीका और यूरोप में फैली। विश्व के अन्य क्षेत्र उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में तो 19वीं सदी में गोधन गया। गायों का विकास दुनिया के पर्यावरण, वहां की आबोहवा के साथ उनके भौतिक स्वरूप व अन्य गुणों में परिवर्तित हुआ। भारतीय ऋषि-मुनियों ने गाय को कामधेनु माना, जो समस्त भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करने वाली है। गाय का दूध अनमोल पेय रहा है। गोबर से ऊर्जा के लिए कंडे व कृषि के लिए उत्तम खाद तैयार होती है। गोमूत्र तो एक रामबाण दवा है, जिसका अब पेटेंट का हो चुका है।

विदेशी नस्ल की गाय को भारतीय संस्कृति की दृष्टि से गोमाता नहीं कहा जा सकता। जर्सी, होलस्टीन, फ्रिजियन, आस्ट्रियन आदि नस्ल की तुलना भारतीय गोवंश से नहीं हो सकती। आधुनिक गोधन जिनेटिकली इंजीनियर्ड है। इन्हें मांस व दूध उत्पादन अधिक देने के लिए सुअर के जींस से विलगाया गया है।

भारतीय नस्ल की गायें सर्वाधिक दूध देती थीं और आज भी देती हैं। ब्राजील में भारतीय गोवंश की नस्लें सर्वाधिक दूध दे रही हैं। अंग्रेजों ने भारतीयों की आर्थिक समृद्धि को कमजोर करने के लिए षडयंत्र रचा था। कामनवेल्थ लाइब्रेरी में ऐसे दस्तावेज आज भी रखे हैं। आजादी बचाओ आंदोलन के प्रणेता प्रो. धर्मपाल ने इन दस्तावेजों का अध्ययन कर सच्चाई सामने रखी है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट में कहा गया है-‘ब्राजील भारतीय नस्ल की गायों का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। वहां भारतीय नस्ल की गायें होलस्टीन, फ्रिजीयन (एचएफ) और जर्सी गाय के बराबर दूध देती हैं।

हमारे गोवंश की शारीरिक संरचना अदभुत है। इसलिए गोपालन के साथ वास्तु शास्त्र में भी गाय को विशेष महत्व दिया गया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भारतीय गोवंश की रीढ़ में सूर्य केतु नामक एक विशेष नाड़ी होती है। जब इस पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं, तब यह नाड़ी सूर्य किरणों के तालमेल से सूक्ष्म स्वर्ण कणों का निर्माण करती है। यही कारण है कि देशी नस्ल की गायों का दूध पीलापन लिए होता है। इस दूध में विशेष गुण होता है। विदेशी नस्ल की गायों का दूध त्याज्य है। ध्यान दें कि अनेक पालतू पशु दूध देते हैं, पर गाय का दूध को उसके विशेष गुण के कारण सर्वोपरी पेय कहा गया है। गाय के दूध, गोबर व मूत्र में अदभुत गुण हैं, जो मानव जीवन के पोषण के लिए सर्वोपरि हैं।

देशी गाय का गोबर व गोमूत्र शक्तिशाली है। रासायनिक विश्लेषण में देखें कि खेती के लिए जरुरी 23 प्रकार के प्रमुख तत्व गोमूत्र में पाए जाते हैं। इन तत्वों में कई महत्वपूर्ण मिनरल, लवण, विटामिन, एसिड्स, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट होते हैं।

गोबर में विटामिन बी-12 प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह रेडियोधर्मिता को भी सोख लेता है। हिंदुओं के हर धार्मिक कार्यों में सर्वप्रथम पूज्य गणेश उनकी माता पार्वती को गोबर से बने पूजा स्थल में रखा जाता है। गौरी-गणेश के बाद ही पूजा कार्य होता है। गोबर में खेती के लिए लाभकारी जीवाणु, बैक्टीरिया, फंगल आदि बड़ी संख्या में रहते हैं। गोबर खाद से अन्न उत्पादन व गुणवत्ता में वृद्धि होती है।

गाय मानव जीवन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राणी है। भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति और परम्परा में गाय को इसीलिए पूज्यनीय ही माना जाता है। हम भारतीय गोवंश को अपनाकर उन्हें गोशाला में संरक्षित, संवर्धित कर सकते हैं, जिसका सर्वाधिक लाभ भी हमें ही मिलेगा। देशी गौवंश को हमारी गोशालाओं से हटाने की साजिश भी सफल हो रही है, जिस पर समय रहते ध्यान देना जरुरी है।




!!! महामृत्युंजय साधना का चमत्कार !!!

इस प्रकार वेदोक्त 'त्र्यम्बकं यजामहे' मंत्र में ॐ सहित विविध सम्पुट लगने से उपर्युक्त मंत्रों की रचना हुई है। उपर्युक्त तीन मंत्रों में मृतसंजीवनी मंत्र 

ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः 
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌ 
ॐ स्वः भुवः ॐ सः जूं हौं ॐ। 

यह मंत्र सर्वाधिक प्रचलित एवं फल देने वाला माना गया है। कुछ लघु मंत्र भी प्रयोग में आते हैं, जैसे- त्र्यक्षरी अर्थात तीन अक्षरों वाला 

ॐ जूं सः पंचाक्षरी ॐ हौं जूं सः ॐ तथा ॐ जूं सः पालय पालय आदि। 

ॐ हौं जूं सः पालय पालय सः जूं हौं ॐ। हौं जूं सः पालय पालय सः जूं हौं ॐ।

इस मंत्र के 11 लाख अथवा सवा लाख जप का मृत्युंजय कवच यंत्र के साथ जप करने का विधान भी है। यंत्र को भोजपत्र पर अष्टगंध से लिखकर पुरुष के दाहिने तथा स्त्री के बाएँ हाथ पर बाँधने से असाध्य रोगों से मुक्ति होती है। सर्वप्रथम यंत्र की सविधि विभिन्न पूजा उपचारों से पूजा-अर्चना करना चाहिए, पूजा में विशेष रूप से आंकड़े, एवं धतूरे का फूल, केसरयुक्त, चंदन, बिल्वपत्र एवं बिल्वफल, भांग एवं जायफल का नैवेद्य आदि।

मंत्र जप के पश्चात्‌ सविधि हवन, तर्पण एवं मार्जन करना चाहिए। मंत्र प्रयोग विधि सुयोग्य वैदिक विद्वान आचार्य के आचार्यत्व या मार्गदर्शन में सविधि सम्पन्न हो तभी यथेष्ठ की प्राप्ति होती है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ होने की आशंका हो सकती है।

जप विधि में साधक को नित्यकर्म से निवृत्त हो आचमन-प्राणायाम के साथ मस्तक पर केसरयुक्त चंदन के साथ रुद्राक्ष माला धारण कर प्रयोग प्रारंभ करना चाहिए। प्रयोग विधि में मृत्युंजय देवता के सम्मुख पवित्र आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर शरीर शुद्धि कर संकल्प करने का विधान प्रमुख है। संकल्प के साथ विनियोग न्यास एवं ध्यान जप विधि के प्रमुख अंग हैं। मृत्युंजय महादेवों त्राहिमाम्‌ शरणामम्‌। जन्म-मृत्यु जरारोगैः पीड़ितम्‌ कर्मबंधनैः के ध्यान के साथ जप निवेदन करना चाहिए। अनिष्टकारी योगों एवं असाध्य रोगों से मुक्ति की यह रामबाण महौषधि है।



!!! शिवलिंग की अर्द्ध-प्रदक्षिणा (अर्ध-परिक्रमा) क्यों की जाती है? !!!

श्री शिव महापुराण के अनुसार भगवान् शिव को प्रदक्षिणा अत्यंत प्रिय है और शिव पूजा भी शिव प्रदक्षिणा के बिना पूरी नहीं होती | शिव की प्रदक्षिणा के लिए शास्त्र का आदेश है की इनकी अर्द्ध-प्रदक्षिणा करनी चाहिए... 

[ दुर्गाजी की एक , सूर्य की सात, गणेश की तीन, विष्णु की चार, और शिव की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए... नारद पुराण ] 

शिवलिंग की निर्मली (जल की नाली ) को कभी भूल कर भी नहीं लांघना चाहिए... इससे भारी दोष लगता है और शिव कुपित होते हैं | शिव निर्मली को "सोमसूत्र" भी कहा जाता है जिसे कभी नहीं लांघना चाहिए ... 


"अर्द्ध सोमसूत्रांतमित्यर्थ: शिव प्रदक्षिणीकुर्वन सोमसूत्र न लंघयेत इति वाचनान्तरात" |

मुख्य द्वादश ज्योतिर्लिंगों में निर्मली 


(जहां से शिवलिंग पर जल चढ़ कर नीचे बहता है) के जल को वहीँ गड्ढा बना कर एकत्रित कर लेते हैं और वहाँ से निकाल कहीं जमीन में जाने देते हैं | यदि निर्मली ढकी हो और गुप्त रूप से बनी हो तो पूरी परिक्रमा करने पर भी दोष नहीं लगता | ऐसे में हम मंदिर के चारो ओर पूरी परिक्रमा कर सकते हैं | परन्तु जिन मंदिरों में निर्मली के निकास की समुचित व्यवस्था नहीं है, वहाँ उसे कदापि नहीं लांघना चाहिए |

मंदिर में स्थापित शिवलिंग साक्षात महादेव ही हैं... उनकी प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है शिव-लिंग में... अत: ऐसा माना जाता है कि अभिषेक का जल शिव के सहस्त्रार चक्र(मस्तक) से निकलने वाले अमृत से मिलकर अत्यंत पवित्र हो जाता है और देव-चेतना से भर जाता है... वही सोमसूत्र में प्रवाहित होता है | अत: उसे लांघना आराध्य का घोर अपमान करना है |

इसका एक वैज्ञानिक कारण भी है... 


सोमसुत्र में शक्ति-स्रोत होता है (देव-चेतना से परिपूरित ) | अत: उसे लांघते समय पैर फैलते हैं और वीर्य-निर्मित और ५ अन्तस्थ वायु के प्रवाह पर विपरीत प्रभाव पड़ता है | इससे देवदत्त और धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट पैदा हो जाती है | जिससे शरीर और मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है | अत: शिवलिंग कि अर्द्ध चंद्राकार प्रदक्षिणा ही करने का शास्त्र का आदेश है 
|


!!! आयुर्वेदिक पाक कार्यशाला !!!






आयुर्वेद एक संस्कृत शब्द है जो वास्तव में दो शब्दों: आयुर् अर्थात् जीवन एवं वेद अर्थात् ‌ ज्ञान का मेल है ।इसलिये आयुर्वेद ज्ञान की एक व्यवस्था है, न केवल एक चिकित्सात्मक ज्ञान बल्कि जीवन एवं आत्म के विषय में ज्ञान । आयुर्वेद आज जीवित है क्योंकि यह अनवरत रूप से पिछले 5,000 वर्षों से चलन में है । यह व्यक्ति को एक जीवन-शैली, भोजन के चुनाव एवं उसे पकाने की विधि की तरफ मर्गदर्शित करता है ।

आयुर्वेद के अनुसार, हम उन्हीं पंच तत्वों से निर्मित हैं जिनसे विश्व (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी एवं आकाश) । जब हम इन तत्वों के निकट रहते हैं या उनके और प्रकृति के साथ एक हो जाते हैं तो हमारे अन्दर ऊर्जाओं (दोषों) में संतुलन स्थापित होता है एवं हम अच्छे स्वास्थ्य का आनन्द लेते हैं।

हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करनेवाले सभी जटिल कारकों को वात (वायु), पित्त (अग्नि) एवं कफ (जल) कहे जानेवाले तीन मूलभूत संघटनात्मक प्रकारों में सरलीकृत किया जा सकता है । इन्हें "तीन दोष" कहा जाता है ।आयुर्वेदिक उपचार का मुख्य उद्देश्य इन तीन संघटनात्मक तत्वों में संतुलन स्थापित करना है, क्योंकि एक असंतुलन शारीरिक बीमारी का प्रत्यक्ष कारण उत्पन्न करता है । जब आप संतुलन में रहते हैं तो आप जीवन के प्रति अभिरूचि अनुभव करते हैं । आपको भूख अच्छी लगती है, आपके शारीरिक तंतु एवं प्रक्रियाएँ सामान्य ढ़ंग से काम करते हैं और आपका शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ आनन्द से परिपूर्ण रहते हैं । हमारे चारों तरफ बाह्य जगत में ये तीन प्राकृतिक प्रभाव या दोष भी सक्रिय रहते हैं और हमारे पर्यावरण, हममें एवं हम जो भोजन करते हैं उसमें पाये जाते हैं । भौतिक शरीर एवं भोजन दोनों पाँच आवश्यक तत्वों; पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश से मिलकर निर्मित हैं । आयुर्वेदिक भोजन हमारे शरीर के अन्दर इन आवश्यक तत्वों के बीच संतुलन उत्पन करता है जब इसे छ: आयुर्वेदिक स्वादों;मीठा, नमकीन, खट्‌टा, तीखा, कसैला एवं कड़वा का सही मात्रा में प्रयोग कर तैयार किया जाता है । छ: स्वादों की अपनी अनुपम तात्विक संरचनाएँ होती हैं जो उन्हें विशेष उपचारिक गुण-धर्म प्रदान करती हैं । एक संतुलित आहार इनका स्वास्थ्यकर संयोजन होगा ।
मधुर स्वाद (पृथ्वी एवं जल तत्व

मधुर स्वादवाले खादपदार्थ सर्वाधिक पुष्टिकर माने जाते हैं । वे शरीर से उन महत्वपूर्ण विटामिनों एवं खनिज-लवणों को ग्रहण करते हैं जिसका प्रयोग शर्करा को पचाने के लिये किया जाता है ।इस श्रेणी में आनेवाले खादपदार्थों में समूचे अनाज के कण, रोटी, पास्ता, चावल, बीज एवं बादाम हैं ।अनेक फल एवं सब्जियाँ भी मीठे होते हैं । कुछ मीठा खाना हमारी तत्काल क्षुधा को तृप्त करता है; यह हमारे शरीर में ऊर्जा के स्तर को बढाता है और इसका शान्तिकारक प्रभाव भी होता है । लेकिन मीठे भोजन का अत्यधिक सेवन हमारे शरीर में इस चक्र को असंतुलित करता है एवं मोटापा तथा मधुमेह को जन्म देता है ।

खट्‌टा स्वाद (पृथ्वी एवं अग्नि तत्व)

इन वर्गों में आनेवाले खट्‌टे खद्पदार्थों में छाछ, खट्‌टी मलाई, दही एवं पनीर हैं I अधिकांश अधपके फल भी खट्‌टे होते हैं । खट्‌टे खाद्पदार्थ का सेवन करने से आपकी भूख बढ़ती है; यह आपके लार एवं पाचक रसों का प्रवाह तेज करती है । खट्‌टे भोजन का अति सेवन करने से हमारे शरीर में दर्द तथा ऐंठन की अधिक सम्भावना रहती है ।

नमकीन स्वाद ( जल एवं अग्नि तत्व)

प्राकृतिक रूप से समुद्री घास एवं समुद्री शैवाल हमारे शरीर को निर्मल करने तथा अधिवृक्क ग्रंथियों, गुर्दाओं, पुरस्थ एवं गलग्रंथि को मजबूत करने में मदद करता है । इसमें पोटैशियम, आयोदीन होता है जो सोडियम को संतुलित करने में मदद करता है । प्राकृतिक संतुलन करनेवाले तत्वों से रहित कृत्रिम नमक शरीर में द्रवों के धारण को बढा़ता है और इस प्रकार गुर्दा को प्रभावित करता है एवं रक्त-वाहिकाओं तथा सभी तंत्र व्यवस्थाओं को प्रभावित करता है । समग्र रूप से यह शारीर में जीव-विष को शरीर में धारण करने के लिये उत्पन्न कर सकता है ।


तीखा स्वाद (अग्नि एवं वायु तत्व)

तीखे खाद्पदार्थों में प्याज, चोकीगोभी, शोभांजन, अदरख, सरसों, लाल मिर्च चूर्ण एवं केश्वास शामिल हैं । तीखे खाद्पदार्थों में उच्च उपचारिक गुण होते हैं; उनका नमकीन भोजन के विपरीत प्रभाव होता है ।यह तंतुओं के द्रव की मात्रा को कम कर देता है, श्वाँस में सुधार लाता है एवं ध्यान केन्द्रित करने की शक्ति में सुधार लाता है । तीखी जड़ी-बूटियाँ मन को उत्तेजित करता है तथा मस्तिष्क में रक्त-संचार की वृद्धि करता है । तीखे स्वाद का अति सेवन अनिद्रा, बेचैनी तथा चिंता को बढ़ा सकता है ।


कड़वा स्वाद (वायु एवं आकाश तत्व)

कड़वे खाद्पदार्थ सामान्य रूप से हरी सब्जियों, चाय से संबंधित है । कड़वा भोजन पाचन एवं चयापचयी दर में सहायता करता है ।


कसैला स्वाद (वायु एवं पृथ्वी तत्व)

इस श्रेणी में आनेवाले खाद्पदार्थों में अजवाइन, खीरा, बैंगन, काहू, कुकुरमुत्ता हैं । सेव, रूचिरा, झड़बेरी, अंगूर एवं नाशपाती भी कसैले होते हैं । फल प्राय: शरीर के द्रवों, लसीका एवं पसीने की सफाई का काम करता है । यह केशिका छिद्र रोकने का भी काम करता है; 


त्वचा एवं बलगम झिल्ली का उपचार करता है ।

भोजन तीन प्रकार के हो सकते हैं - सात्विक, राजसिक एवं तामसिक । आयुर्वेद एक स्वस्थ जीवन के लिये सात्विक आहार पर बल देता है तथा शरीर एवं मन दोनों में आनन्दमय स्थिति का समर्थन करता है ।सात्विक आहार का मूल रूप से योग के अभ्यास एवं उच्चतर चेतना के लिये तैयार किया गया था । सात्विक भोजन मन को बेचैन कर या सुस्त कर उस पर अस्थिरकारी प्रभाव डालता है । राजसी भोजन प्याज, लाल मिर्च, शराब, लहसुन, लाल मांस एवं गर्म काली मिर्च के समान अत्यधिक मसालेदार, नमकीन एवं खट्‌टे होते हैं । तामसिक भोजन अतिक्रियाशीलता, आलस्य एवं अति निद्रा उत्पन्न करता है; वे इन्द्रियों को सुस्त करते हैं एवं आवेग को तीव्र तथा प्रभावशून्य रखते हैं । तामसी भोजन, बासी, पुराने, पुन: पकाये हुए, कृत्रिम, अति तले हुए, चर्बीदार या भारी भोजन होते हैं । इसमें सभी "मृत" भोजन जैसे मांस और मछली, खमीरयुक्त खादपदार्थ तथा मादक पदार्थ शामिल हैं । राजसी एवं तामसी खादपदार्थ दोनों में एक संतुलित, एक समान मन-शरीर अनुभव को अवलंबित करने की क्षमता नहीं है ।



तीन संघटनात्मक प्रकार: वात पित्त एवं कफ

संघटनात्मक प्रकारों की संकल्पना बताती है कि हम सभी एक समान हैं (आखिरकार हम सब एक ही उपजाति हैं), लेकिन हमारे बीच विभिन्नताएँ भी हैं । आयुर्वेदिक औषधि ने मानव जनसंख्या में अवलोकित किये गये भेद को दर्ज किया तथा यह ध्यान किया कि लोगों में विभिन्न स्थितियों में तीन मूल प्रवृत्तियाँ या आद्यप्ररूपीय प्रतिक्रयाएँ होती हैं । पूरे जीवन-काल में दो अन्य प्रतिक्रियाओं के प्रति एक प्रतिक्रिया से संघटनात्मक प्रकार प्राप्त होता है । तीन संघटनात्मक प्रकारों के अलग-अलग मनोभाव होते हैं । उनके तंत्रिका तंत्र विभिन्न खिंचावों पर स्थापित रहते हैं । वे भोजन को विभिन्न ढ़ंग से खाते एवं पचाते हैं। उनके पसन्द अलग-अलग होते हैं, और विव्भिन्न भोजन उन्हें परेशान कर देते हैं। जब वे परेशान रहते हैं तो उनमें विभिन्न मनोभवों को व्यक्त करने की प्रवृत्ति होती है । अधिकांश लोग विभिन्न प्रकारों के एक सम्मिश्रण होते हैं इसलिये किसी व्यक्ति में व्याप्त प्रत्येक प्रकार का निर्धारण करने के लिये कुछ अवलोकन की आवश्यकता होती है । कोई व्यक्ति कैसा है इसकी एक समझ उसकी बीमारी के पहले भी हो सकती है और कुछ निरोधक दृष्टिकोण भी सुझाये ज सकते हैं । एक बार यदि हम यह जान जान जाते हैं कि व्यक्ति किस संघटनात्मक प्रकार का है तो हम यह समझते हैं कि पर्यावरण के कौन से उत्प्रेरक, किस प्रकार के भोजन, पाक-तकनीक, रंग, पोशाक या निद्रा के स्वरूप उसके लिये बेहतर हैं । इनमें से कुछ प्रभाव एक प्रकार के लिये असंतुलनकारी होंगे किन्तु अन्य के लिये नहीं ।

आयुर्वेदिक भोजन प्राय: अपनी उपचारिक शक्तियों से जुड़ी रहती है जिनसे बीमारी की रोकथाम एवं इलाज के साथ चिकित्सा-स्वास्थ्य लाभ होता है । तथापि सही भोजन सम्मिश्रण का चुनाव करना कभी भी सरल नहीं रहा है । भोजन का मन, मनोभावों, शारीरिक एवं शरीर के प्रतिरक्षी अनुक्रियाओं पर एक सशक्त प्रभाव पड़ता है । एक विशिष्ट भोजन का व्यक्ति पर प्रभाव अनेक कारकों जैसे कि शरीर का भार, प्रत्यूर्जता आदि पर निर्भर करता है । आयुर्वेदिक पाक-विधि सरल पाचन एवं हमारे द्वारा सेवन किये जानेवाले भोजन से पोषक तत्वों को अवशोषित करने की शरीर की क्षमता पर ध्यान केन्द्रित करता है ।

यदि किसी का आहार असंतुलित है तो वात, पित्त एवं कफ का मूल प्रभाव असंतुलित हो जाता है । सही भोजन, मसालों एवं तैयारी के साथ कोई अपने आहार में सुधार ला सकता है एवं किसी भोजन में वात, पित्त एवं कफ के प्रभावों में संतुलन बनाये रख सकता है ।मसालों के एक मूल सम्मिश्रण जो शरीर में सभी तीन प्रभावों वात, पित्त एवं कफ को संतुलित करते है वे हल्दी, जीरा एवं धनिया हैं ।ये तीन मूल मसाले एक स्वादिष्ट सब्जी मसाले को तैयार करते हैं जिसे आप किसी भी भाजी में प्रयोग कर सकते हैं । इनके अनुपात हैं हल्दी 1 भाग, जीरा 2 भाग, धनिया 3 भाग । ताजे अदरक या धनिया, धनिया पौधे के ताजे पत्ते के साथ समूचे बीज से ताजे पिसे हुए इन मसालों के प्रयोग से कोई भी भोजन आनन्दमय एवं संतुलित अनुभव देता है ।

शरीर को ऋतुओं के अनुसार अनुकूल बनाने के लिये आयुर्वेद विभिन्न ऋतुओं के लिये विभिन्न आहारों की सलाह देता है । उदाहरण के लिये, ग्रीष्म ऋतु में, जो कि पित्त ऋतु है, जब किसी के लिये मुँहासे एवं छाले होने की संभावना अधिक रहती है तो पित्त दोष के असंतुलन से मदद के लिये हल्के ठंढ़े फल एवं सलाद खाने की सलाह दी जाती है ।

आयुर्वेदिक पाक-विधि ताजे भोजन खाने की सलाह देता है क्योंकि यह अधिकतम मात्रा में ऊर्जा प्रदान करता है, यह रोज की आदत के रूप में बचा-खुचा या संसाधित खाद्य खाने को बढ़ावा नहीं देता है क्योंकि उनमें आवश्यक ऊर्जा का अभाव होता है । आयुर्वेदिक पाक सिद्धांत यह भी सलाह देता है कि सब्जियों को पका कर खाना चाहिये बनिस्बत कच्चा खाने के चूँकि पकाने से पाचन में सुधार होता है ।

आनंद भी एक पूर्ण संतुलित आहार के लिये एक आवश्यक घटक है । ताजे मौसमी समूचे खाद्य पदार्थ, जड़ी-बूटियाँ एवं मसालों का प्रयोग कर एक स्वादिष्ट भोजन का आनंद उठाने से इसका हमारे स्वास्थ्य एवं तंदुरूस्ती पर एक बड़ा अनुकूल प्रभाव पड़ता है । भोजन में सभी छ: स्वादों का होना एवं सभी पाँच इन्द्रियों का संतुष्ट होना पाचन क्रिया को सक्रिय बना देता है जिससे कि हम खाये जानेवाले अपने भोजन को पूर्णत: पचाकर शरीर में मिला सकते हैं । वस्तुत: भिन्नता जीवन का मसाला है । विभिन्न प्रकार के स्वाद, बनावट, रंग, भोजन के प्रकार एवं मसाले, ये सभी वात, पित्त एवं कफ में संतुलन बनाये रखने के लिये जीवतत्व को पोषण प्रदान करते हुए पाचन प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। एक आयुर्वेदिक बावर्ची के रूप में भोजन पकाते समय हमें जो सबसे महत्वपूर्ण मसाला प्रदान करना चाहिये वह है हमारा अपना सुखद प्रेममय लक्ष्य । जब हम किसी के लिये कुछ बनाते हैं तो हम कुछ वह देते हैं जो कि अपना होता है । यह वस्तुत: एक ईश्वरीय उपहार हो सकता है । हमारा प्रेम एवं आनंद हमारे द्वारा तैयार किये जानेवाले भोजन में प्रत्यक्षत: जाता है एवं जो इसका आनंद उठाते हैं उनमें सजीव हो जाता है ।



!!! जैसा भोजन है वैसा ही मन है !!!

तामसिक भोजन


सात्विक भोजन


हमारे भोजन का हम पर बहुत प्रभाव पड़ता है। ये पुरानी कहावतें बिल्कुल सच है-जैसा आहार वैसा विचार और जैसा अन्न वैसा मन। भोजन तीन प्रकार के होते है- राजसिक, तामसिक और सात्विक। तीनों का अपना-अपना, अलग-अलग प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है।

प्रथम स्थान पर आता है-

राजसिक भोजन- ये हमारे मन को बहुत चंचल बनाता है तथा उसे संसार की ओर प्रवृत करता है। इसमें अण्डे, मछली, केसर, पेस्ट्री, नमक, मिर्च, मसाले आदि तथा सब उतेजक पदार्थ जैसे चाय, काफी, गरम दूध और ज्यादा मात्रा में खाया गया खाना आता है।

दूसरे स्थान पर आता है-

तामसिक भोजन- ये हमारे अंदर आलस, क्रोध,आदि उत्पन्न करता है। इसमें मांस, शराब, तम्बाकू, मादक पदार्थ, भारी और बासी खाना आते हैं। वास्तव में किसी भी भोजन की बहुत ज्यादा मात्रा तामसिक प्रभाव रखती है।

तीसरे स्थान पर आता है-

सात्विक भोजन- ये हमारे मन को शांति प्रदान करता है और पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं। इसमें फल, सब्जियां, दूध (कम मात्रा में और ज्यादा गरम नहीं), मक्खन, पनीर, शहद, बादाम, जौ, गेंहू, दालें, चावल आदि शामिल हैं। इसमें सब सादे और हलके पदार्थ, जोकि कम मात्रा में खायें जाएं आते है।

राजसिक और तामसिक भोजन से बुरे विचार उत्पन्न होते हैं। सात्विक भोजन से शुद्ध विचार आते हैं। शुद्ध विचारों से चरित्र अच्छा बनता है और परमात्मा के प्रेम के लिए अच्छा चरित्र बहुत जरूरी है। परमात्मा के प्रेम के बिना कोई आत्मिक उन्नित नहीं हो सकती।

सदा शुद्ध सात्विक भोजन करें। सात्विक भोजन नेकी और ईमानदारी से कमाया जाना चाहिए और उस कमाई में से बुजुर्गों को और दूसरे सब लोगों को उनका उचित हिस्सा दे दिया जाना चाहिए। खाना सादा और हल्का होना चाहिए और उसे प्रसन्नचित होकर खाना और पकाना चाहिए। कम खाना चाहिए और खाने से पहले,परमात्मा का शुकर गुजार होना चाहिए।

मेहनत से कमाए हुए धन से खरीदी हुई सब्जी और अनाज आदि से सात्विक भोजन तैयार करना चाहिए। सात्विक भोजन बनाने वाला भी सात्विक स्वभाव का हो। उस सात्विक स्वभाव का असर भोजन और उसके खाने वाले पर होता है। ऐसे आहार के खाने से मन शांत होगा और चित मालिक की याद में लगेगा।

हम जैसा भी भोजन करते हैं वह अपनी प्रकृति के अनुसार हमारे तन-मन दोनों पर प्रभाव डालता है। 
इसी लिए आयुर्वेद ने भोजन को तीन भागों – 

सात्विक, राजसिक और तामसिक – में बांटा है। इन तीन गुणों वाले भोजन की कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं होती। ऐसे भोजन के मिश्रित मिश्रित गुण हो सकते हैं या विभिन्न अनुपातों में हो सकते हैं जो उसे तैयार करने की विधि व प्रक्रिया पर निर्भर करते हैं। उदाहरण के लिए अधिक पकाया या अधिक मसाले वाला भोजन बहुत समय बाद खाया जाए तो वह शरीर पर तामसिक प्रभाव डालेगा। इसी तरह अधिक मात्रा में लिया गया किसी का भोजन तामसिक प्रभाव डालेगा।
सात्विक भोजन: कम आंच में पका भोजन, ताजे फल, बादाम, अंकुरित अनाज और हरी व पत्तेदार सब्जियां सात्विक भोजन के तहत आते हैं। इसी तरह मसालों में हल्दी, अदरक, इलाइची, कालीमिर्च , सौंफ, जीरा व दालमिर्च सात्विक माने जाते हैं।


सात्विक भोजन हमारे शरीर को उत्तेजना और मन को चंचलता से बचाता है। इस तरह का भोजन सुपाच्य होने के कारण हमारे किडनी और लीवर पर अतिरिक्त बोझ नहीं डालता। फलतः हम अधिक ऊर्जावान महसूस करते हैं। यह भोजन हमारे शरीर के वजन को संतुलित रखता है।

राजसिक भोजन: वह सात्विक भोजन जिसमे नमक, तेल, मिर्च, मसाले आदि की अधिक मात्रा पाई जाती है और अत्यधिक तला व पका हुआ भोजन राजसिक भोजन कहलाता है। शक्कर एवं मावे की अधिकता वाला मीठा भोजन भी राजसिक भोजन होता है। बिरयानी, नूडल्स, पित्ज़ा, बर्गर, मसालेदार सब्जियां, मिठाइयां, पूरी-पराठे आदि सभी राजसिक भोजन की श्रेणी में आते हैं।

तामसिक भोजन: इस प्रकार के भोजन में मांसाहारी व बासी, सड़ा हुआ, नींद लाने वाले दुर्गन्धयुक्त भोजन आता है। प्याज, तेल, चर्बीवाले खाद्य पदार्थ, डिब्बाबंद भोजन, शराब, दवाइयां, काफी, तम्बाकू भी इसी श्रेणी में आते हैं। अत्यधिक रासायनिक खाद दाल के उपजाए अनाज और फलों और सब्जियों को भी इस श्रेणी में डाला जा सकता है।

भगवान! क्या हमें किसी अनुशासन या विनियमों का अपनी खाने की आदत में पालन करना चाहिये? क्या वह हमारे आध्यात्मिक प्रयास के लिये आवश्यक है? सम्पूर्ण विश्व के साईं भक्त आपकी शिक्षाओं के कारण शाकाहारी हो गये हैं, यह आश्चर्यजनक है। आज हमारे बीच हमारे भोजन की आदतों से सम्बन्धित विषयों को बताने वाला कोई अन्य नहीं है। कृपया हमें निर्देशित करें।


भगवान-

जैसा भोजन है वैसा ही मन है, 
जैसा मन है, वैसे ही हमारे विचार है, 
जैसे विचार हैं, वैसे ही कर्म हैं, 
जैसे कर्म हैं वैसे ही परिणाम हैं। 

इसलिये परिणाम भोजन पर निर्भर है जो तुम खाते हो। सप्रयास और बिना गलती किये तुम्हें अपने खाने की आदतों में अनुशासन का पालन करना चाहिये। भोजन, सर (Head) और ईश्वर को इस क्रम में देखना चाहिये। जैसा तुम्हारा खाना होगा वैसा ही तुम्हारा सर (Head), जैसी दशा तुम्हारे सर (Head) की होगी वैसा ही तुम में ईश्वर का प्रकटीकरण होता है।

तुम्हें बहुत अधिक नहीं खाना चाहिये। तुम्हें खाना जीने के लिये लेना चाहिये न कि जीना खाने के लिये। अत्यधिक मात्रा में भोजन लेना तामसिक गुण है। यदि तुम दिन में एक बार खाते हो, तुम योगी हो, यदि तुम दिन में दो बार खाते हो, तुम रोगी हो। यदि तुम सात्विक, मुलायम और सन्तुलित भोजन मध्यम मात्रा में लेते हो, तुम सात्विक, मन विकसित करते हो और यदि तुम राजसिक, मसालेदार, गरम भोजन लोगे तो तुम में राजसिक गुण, भावुकता, उत्तेजित मन आदि होगा और यदि तुम तामसिक भोजन, मांस शराब आदि लेते हो, तुम में तामसिक या पशुजनित गुण, आलस्य, निष्क्रिय एवं निश्चेष्ट मन होगा। अत: यह भोजन है जो मन को आकार देता है और इस पर ही तुम्हारे कर्म निर्भर है जो तुम्हें उसी प्रकार के परिणाम देते हैं।

तुम्हें ``पात्र शुद्धी´´ उपयोग में आने वाले बड़े व छोटे बर्तनों की स्वच्छता, ``पदार्थ शुद्धी´´ खाद्य पदार्थो की शुद्धता, ``पाक शुद्धी´´ खाना पकाने का शुद्ध तरीका और ``भाव शुद्धी´´ उस व्यक्ति के विचारों की शुद्धता जो भोजन बना रहा है, पर भी ध्यान देना चाहिए। तुम्हें कहीं भी दिया गया भोजन नहीं खाना चाहिये।

कुछ वर्ष पूर्व एक सन्यासी था, जिसने एक व्यापारी के निमन्त्रण पर उसके आवास पर भोजन किया। यह सन्यासी, एक ब्रह्मचारी और आध्यात्मिक जिज्ञासु पूरी रात सो नहीं सका। किसी प्रकार वह बहुत देर में सोया और स्वप्न में उसने एक सोलह साल की लड़की को रोते हुए देखा। तब यह सन्यासी अपने गुरू के पास गया और स्वप्न के बारे में उन्हें बताया। गुरू ने कुछ देर ध्यान लगाया और स्वप्न का कारण बताया कि उस दिन जब व्यापारी ने उसे भोजन के लिये बुलाया था, वह उसकी 16 वर्षीय पत्नी की मृत्यु का ग्यारहवां दिन था और वह परम्परागत विशेष अनुष्ठान कर रहा था। चूंकि सन्यासी ने उस अवसर के लिये तैयार किये भोजन को खाया, इसलिये वह लड़की जो मर चुकी थी, उसके स्वप्न में आंसू बहाते दिखाई दी। लड़की का पिता बहुत गरीब था, मुश्किल से अपना परिवार पाल रहा था। अत: लड़की की इच्छा के विपरीत उसने इस बूढ़े व्यापारी के साथ विवाह कर दिया। निराशा में उसने कुयें में कूद कर आत्महत्या कर ली। व्यापारी को परम्परागत अत्येष्टि क्रिया करना ही था, उसे ग्यारहवें दिन करते हुये उसने सन्यासी से भोजन करने हेतु घर आने का निवेदन किया था। यह सम्पूर्ण कहानी है सन्यासी के स्वप्न की। इसलिये बिना सोचे विचारे तथा बिना जाने तुम्हें किसी के भी द्वारा दिया गया भोजन नहीं खाना चाहिये।

ऐसा ही एक बार स्वामी नित्यानन्द के शिष्य के साथ घटित हुआ। एक दिन वह आश्रम के बाहर गया और बाहर खाना खाया। लौटते हुये उसने एक घर से एक चांदी का गिलास चुरा लिया और आश्रम में ले आया। लेकिन शीघ्र ही वह अपनी इस दशा पर दुखी हुआ, क्यों कि उसने चांदी के गिलास की चोरी जैसा अपराध किया था। वह रोया और पश्चाताप किया। दूसरी सुबह वह अपने गुरू के पास गया और सब कुछ स्वीकार कर लिया, क्योंकि अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा नित्यानन्द कारण जान सकते थे। उन्होंने शिष्य से कहा ``खाना जो तुमने आश्रम के बाहर खाया, वह कभी रहे एक चोर द्वारा पकाया गया था, जिसके परिणाम स्वरूप तुम में चोरी की भावना उत्पन्न हुई।´´ इसलिये रसोइये के विचार भी शुद्ध होने चाहिये।

इसके अतिरिक्त, तुम्हें अपना शरीर भोजन के बाद उतना ही हल्का महसूस होना चाहिये जितना खाने के पूर्व था। आधा पेट खाली रखना सर्वोत्तम है। शेष आधा पानी तथा अन्य खाद्य पदार्थो से भरना चाहिये। तुम्हें शुद्ध दूध नहीं पीना चाहिये। तुम्हें दूध में पानी मिलाकर पीना चाहिये। तुम्हें दो भोजन के बीच कम से कम चार घन्टे का अन्तर रखना चाहिये। तुम्हें वह खाना खाना चाहिये जो तुम्हारे शरीर को आवश्यक पर्याप्त कैलोरी प्रदान करें। तुम्हें अत्यधिक तैलीय और भुनी हुई सब्जी नहीं खाना चाहिये। मध्याह्न भोजन के बाद थोड़ा सो लेना और रात्रि भोजन के बाद थोड़ा टहलना चाहिये। तुम्हे कठोर श्रम और भलीभांति भोजन करना चाहिये।

तामसिक खाना वो होता है जिसमें जिव्हा की लोलुपता को महत्व दिया जाता है और सात्विक खाना वो होता है जिसमें शरीर के पोषण का ध्यान रखा जाता है और हम लोग अक्सर तामसिक भोजन पर ज्यादा ध्यान देते है और तरह तरह बीमारियों को न्योता देते रहते है ॥ हरी ॐ ॥ श्यामगढ़ मे दो मित्र रहते थे एक बार एक मित्र ने दूसरे मित्र को खाने पर घर बुलाया मित्र को खिलाने के लिए उसने तरह तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बनाए तय समय पर मित्र उसके घर पहुँच गया इसके बाद दोनों ने साथ मिलकर भरपेट भोजन किया जब दूसरा मित्र जाने को हुआ तो पहले मित्र ने उससे पूछा कहो भाई भोजन कैसा लगा यह सुनकर अतिथि मित्र ने जवाब दिया तुम्हारे इस सवाल का जवाब मैं आज नही बल्कि सातवें दिन दूँगा जब तुम मेरे यहाँ खाना खाने आओगे इतना कहकर उसने मेजबान मित्र को सातवें दिन अपने घर आने का और साथ भोजन करने का निमंत्रण दे दिया और रवाना हो गया सातवें दिन मित्र खाना खाने के लिए तो पहले वाले मित्र ने कहा अब तो मेरे सवाल का जवाब दो की खाना कैसा लगा था ? तो दूसरे मित्र ने कहाँ की पहले भोजन करते है फिर मे उस सवाल का जवाब दे दूँगा दोनों ने भोजन किया भोजन करने के बाद फिर पहले मित्र ने कहा अब तो भोजन भी हो गया अब तो बोलो तो दूसरा मित्र हँसते हुए बोला क्यों तुम्हें जवाब नही मिला पहला मित्र आश्चर्यचकित होते हुए बोला अगर मिल जाता तो फिर मे तुमसे वापस क्यो पूछता इस पर दूसरा मित्र बोला बेशक तुम्हारे यहाँ का भोजन बेहद स्वादिष्ट था और मेने छककर दावत उड़ाई पर जानते हो उसका नतीजा क्या हुआ पहले मित्र ने अनभिज्ञता जाहिर की इस पर दूसरा मित्र बोला यही की घर आकर मुझे पूरे एक घंटे तक सोना पड़ा आलस्य के कारण शाम तक कोई काम न कर सका पर मेरे यहाँ तुमने जो खाना खाया है उसमें तुम्हें ऐसी कोई समस्या नही होने वाली है तुम सीधे काम पर जा सकते हो पहले मित्र ने अनुभव किया की उसका कहना सच है उसने जो अपने घर पर खाना बनाया था वह तामसिक था उसमें जिव्हा की लोलुपता को महत्व दिया था और जो मित्र के यहाँ खाना खाया है वह सात्विक था उसमें शरीर के पोषण का ध्यान रखकर बनाया गया था वह समझ गया था अपना उत्तर

भोजन जीवन का आधार है। आधार हमेशा मजबूत होना चाहिए न कि मजबूरी, लापरवाही, अज्ञान अथवा अविवेक पूर्ण आचरण का भोजन कितना ही संतुलित, पौष्टिक, सुपाच्य, स्वास्थ्यवर्धक क्यों न हों, परन्तु यदि खिलानें वाले का व्यवहार अच्छा न हों, उपेक्षापूर्ण हों, वाणी में व्यंग और भाषा में अपमानजनक शब्दावली हों तो ऐसा भोजन भी अपेक्षित लाभ नहीं पहुँचा सकता। भोजन को प्रसाद की भांति खाना चाहिए। खाया हुआ भोजन तीन भागों में विभक्त हो जाता है। स्थूल भाग मल बनता है, पोष्टिक तत्त्वों से शरीर के अवयवों का निर्माण होता है। अन्न के भावांश से मन बनता है। पेट तो भोजन से भर सकता है, परन्तु मन तो भोजन बनाने और खिलाने वालों के भावों से ही भरता है। इसी कारण होटल के स्वादिष्ट खाने से पेट तो भर सकता है, परन्तु मन नहीं।

आधुनिक खान-पान की एक और विसंगति है कि जब शरीर श्रम करता है, तब उसे कम आहार दिया जाता है परन्तु जब वह विश्राम की अवस्था में होता है, तब उसे अधिक मात्रा में कैलोरीयुक्त आहार दिया जाता है। जैसे दिन का समय जो मेहनत परिश्रम का होता है तब तो हल्का भोजन, नाश्ता, चाय, काफी, ठंड़े पेय आदि कम कैलोरी वाले आहार करता है और रात्रि में जो विश्राम का समय होता है, प्रायः अधिकांश व्यक्ति गरिष्ठ भोजन करते हैं, जो स्वास्थ्य के मूल सिद्धान्तों के विपरीत होता है।


स्वाद के वशीभूत हो हम कभी-कभी अनावश्यक हानिकारक वस्तुएँ खाते हुए भी संकोच नहीं करते। भूख एवं आवश्यकता से ज्यादा भोजन कर लेते हैं। जीभ के स्वादवश अधिक आहार हो जाता है तो कभी अतिव्यस्तता के कारण भोजन ही छूट जाता है। अधिक खाना और न खाना दोनों स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। तामसिक भोजन करने वाला तामसिक वृत्तियों वाला होता है। तामसिक व्यक्ति शरीर के लिए जीता है। राजसिक भोजन से मन और बुद्धि चंचल होती है। राजसिक प्रवृत्ति वाले अत्यधिक महत्वकांक्षी होते हैं। अतः उन्हें उत्तेजना पैदा करने वाला भोजन अच्छा लगता है। सात्विक भोजन ही संतुलित होने से सर्व श्रेष्ठ होता है। भोजन के सम्बन्ध में हमारी प्राथमिकता क्या हो? जिस प्रकार बिना कपड़े पहने आभूषण पहिनने वालों पर दुनियाँ हँसती है। ठीक उसी प्रकार शरीर की पौष्टिकता के नाम पर मन, भाव और आत्मा को विकारी बनाने वाला भोजन अदूरदर्शितापूर्ण आचरण ही होता है।

अतः प्रत्येक स्वास्थ्य प्रेमी सजग व्यक्ति को भोजन कब, क्यों, कितना, कहाँ, कैसा करना चाहिए और कब, कहाँ, कैसा, कितना भोजन नहीं करना चाहिए का विवेक रखना चाहिए।

!!! ऐसा भोजन करें जो मन को शांति दे !!!

क्या हमारे खाने का संबंध हमारे मन के शांत रहने या व्यग्र रहने से है? तो जवाब है- हां है। भारतीय परंपरा में सदा से ये बात मानी जाती रही है कि हम जो खाते हैं उसका संबंध तन से ही नहीं, मन से भी है। इस अनुसार तामसिक भोजन क्रोध और उद्वेग पैदा करता है। राजसी भोजन आलस्य लाता है। सात्विक भोजन मन के लिए शांति और तप के लिए ऊर्जाकारक होता है।



बहुत से नए वैज्ञानिक अनुसंधान इस बात की ताकीद करते हैं। वे भोजन को ठीक इन्हीं तीन प्रकारों में तो विभक्त नहीं करते, मगर यह जरूर बताते हैं कि हम जिस प्रकार का भोजन करते हैं उसका असर हमारे भावनात्मक उद्वेगों पर जरूर पड़ता है।

एक महिला को पैनिक अटैक आते थे। यानी जब यह अटैक आता तब व्यग्रता बहुत बढ़ जाती, ऐसा लगने लगता धड़कन बहुत बढ़ गई है, पसीना आने लगता और घबराहट होने लगती। सारे लक्षण हृदयाघात जैसे मगर हृदयाघात नहीं। तब मनोचिकित्सक ने इस महिला को दवाइयां तो दीं ही मगर साथ ही में एक भोजन-योजना भी बनाकर दी। इस भोजन योजना के अनुसार उन्हें समय पर भोजन करना था। सादा मगर संपूर्ण और पौष्टिक भोजन करना था। डॉक्टर का कहना था- इससे मस्तिष्क भी शांत रहेगा, व्यग्रता के दौरे नहीं आएंगे।

अनाज और दालों से हमें लो ग्लाईकेमिक इंडेक्स वाला भोजन मिल जाता है। यह भोजन शरीर में धीरे-धीरे शर्करा रिलीज करता है। इससे शरीर में लगातार ऊर्जा बनी रहती है, मस्तिष्क शांत रहता है और अधिक समय तक पेट भरे रहने का एहसास होता है। हमारा रोज का भोजन, जिसमें अन्ना, दालें, सब्जियां और दूध होता है, इसी उत्तम भोजन की श्रेणी में आता है।

वहीं भोजन में प्रोटीन हो तो वह हमें ऊर्जा देता है। मगर जब हम हाई ग्लाईकेमिक इंडेक्स वाली चीजें खाते हैं जैसे रिफाइंड शकर, मैदा आदि तो रक्त में शर्करा का स्तर एकदम उछलता है और गिरता है। जब गिरता है तो शरीर और शकर मांगता है। बार-बार और जल्दी-जल्दी भूख लगती है। कचौड़ी, पकौड़ी, बर्गर, पित्जा, पेस्ट्री, गुलाब जामुन आदि इसी गरिष्ठ भोजन की श्रेणी में आते हैं जो व्यक्ति को लद्दू, उत्तेजित और मोटा बनाते हैं। अतः समय पर सामान्य भोजन करने से इस स्त्री को बेहद राहत मिली। वर्ना या तो वह भूखी रहती थी, दुबले होने के लिए कुछ खाती-पीती नहीं थी, या फिर भूख सहन न होने पर तला हुआ, गरिष्ठ जो हाथ पड़ा वह खा लेती थी। यह सब मस्तिष्क में हार्मोनों के उतार-चढ़ाव के जरिए उसके व्यग्रता रोग में और बढ़ोतरी कर रहा था।

दरअसल, अंट-शंट खाने के साथ ही भूख को दबाना भी अवसाद पैदा करता है। अच्छी भूख लगना अच्छे स्वास्थ्य की निशानी मानी गई है। मगर वेट-वॉच कर रही स्त्रियां भूख लगने से डरती हैं। वेट-वॉच इंडस्ट्री भूख दबाने की गोलियां बेचती है। इसका उल्टा असर होता है। भूख दबाने से वजन घटता नहीं बढ़ता है, क्योंकि इससे पाचक रसों का स्रतवन चक्र बिगड़ जाता है, चयापचय धीमा हो जाता है।

नतीजा यह कि शरीर आपातकाल के लिए वसा जमा करने लगता है। इससे वजन बढ़ता है, सुस्ती बढ़ती है। ग्लूकोज की पूर्ति न होने से एकाग्रता घटती है। अतः तन और मन दोनों की राहत के लिए जरूरी है समय पर, संतुलित, संपूर्ण, सादा, स्वादिष्ट, पौष्टिक भोजन करना। आजकल मनोरोगों के इलाज में भी यह धारा काम कर रही है। मनोचिकित्सक भी मरीज को बताने लगे हैं कि दवाइयों के साथ ही भोजन और व्यायाम की भूमिका उनके जीवन में क्या होनी चाहिए।
श्रावण मास में मंत्रों के जपने से भोले भंडारी शिव जी की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है। मनोकामना पूर्ति, जीवन में सफलता-सुख-शांति और सिद्धी के लिए इनका अवश्य पाठ करना चाहिए। प्रस्तुत है शिव के सरल मंत्र जिनका प्रतिदिन रुद्राक्ष की माला से जप करना चाहिए।

शिव के सरल मं‍त्र
* ॐ नमः शिवाय ।
* प्रौं ह्रीं ठः ।
* ऊर्ध्व भू फट् ।
* इं क्षं मं औं अं ।
* नमो नीलकण्ठाय ।
* ॐ पार्वतीपतये नमः ।
* ॐ ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय ।
* ॐ नमो भगवते दक्षिणामूर्त्तये मह्यं मेधा प्रयच्छ स्वाहा ।



!!! घर में लगाएं धन समृद्घि का पौधा !!!

घर के सामने कुछ पेड़-पौधे भी मकान और मनुष्य के भाग्य को बदल देते हैं। कुछ पेड़ पौधों का प्रभाव ऐसा होता है कि आप पतन के गर्त में चले जाते हैं। इसीलिए घर के सामने पेड़-पौधे सोच-समझकर लगाएं। घर के सामने कांटेदार पेड़ पौधे, जैसे कि बेर या करौंदा के पेड़ नहीं लगाने चाहिए। यह बेवजह कलह को आमंत्रित करते हैं। अगर घर के सामने तुलसी, आंवला, मेहंदी, आम, शमी, हरसिंगार आदि शुभ पौधा हो, तो लक्ष्मी आती है। घर के पास भारी-भरकम वृक्ष नहीं होने चाहिए। ध्यान रहे कि ईशान कोण में तो बिल्कुल नहीं होने चाहिए। घर के सामने ईशान कोण में आंवला, शमी, श्वेतार्क, तुलसी, हरसिंगार, आम अवश्य लगाने चाहिए। घर के अंदर केले के पेड़ को न लगाएं। कैक्टस भी न रखें। प्रतिदिन सभी पौधों और पेड़ों की देखभाल करनी चाहिए। इससे देवता और पितर प्रसन्न होते हैं। घर के मुख्य द्वार या फिर चारों तरफ देवदार के पेड़ भी इस तरह लगाने चाहिए कि मुख्यद्वार पर उनसे आड़ न हो।

शमी से खुश रहते हैं शनि


नवग्रहों में शनि महाराज को न्यायाधीश का स्थान प्राप्त है। इसलिए जब शनि की दशा आती है तब अच्छे बुरे कर्मों का पूरा फल प्राप्त होता है। यही कारण है कि शनि के कोप से लोग भयभीत रहते हैं। शनि को खुश करने के लिए कई उपाय है जिनमें एक उपाय है वृक्ष पूजा।

पीपल और शमी दो ऐसे वृक्ष हैं जिन पर शनि का प्रभाव होता है। कहते हैं कि इनकी पूजा से शनि प्रसन्न हो जाते हैं। पीपल का वृक्ष बहुत बड़ा होता है इसलिए इसे घर में नहीं लगाया जा सकता है।

बोनसाई वृक्ष उन्नति का मार्ग अवरोध करता है इसलिए बोनसाई पीपल भी नहीं लगाना चाहिए। ऐसे में शमी का पौधा ही घर में लगाकर शनि को प्रसन्न किया जा सकता है।

वास्तु विज्ञान के अनुसार नियमित शमी वृक्ष की पूजा की जाए और इसके नीचे सरसो तेल का दीपक जलाएं तो शनि दोष से कुप्रभाव से बचाव होता है। नवरात्र में विजयादशमी के दिन शमी की पूजा करने से घर में धन दौलत का आगमन होता है।

शमी का पौधा नकारात्मक प्रभाव को दूर करता है। टोने-टोटके के कारण प्रगति में आने वाले अवरोध को भी शमी शमन करता है।