08 July 2013

!!! हिंदू धर्म में सप्ताह के सातों दिन अलग-अलग !!!


हिंदू धर्म में सप्ताह के सातों दिन अलग-अलग देवताओं के पूजन का विधान बताया गया है जिनसे मनचाहे फल की प्राप्ति संभव है। शिवमहापुराण में इस संदर्भ में विस्तृत वर्णन मिलता है। शिवमहापुराण के अनुसार किस दिन कौन से देवता का पूजन करना चाहिए व उसका क्या फल मिलता है 

  • शिव महापुराण के अनुसार रविवार को सूर्य की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराने से समस्त प्रकार के शारीरिक रोगों से मुक्ति मिलती है।
  • शिव महापुराण के अनुसार सोमवार को लक्ष्मी की पूजा करने तथा ब्राह्मणों को सपत्नीक घी से पका हुआ भोजन कराने से धन-सम्पत्ति का लाभ होता है।
  • शिव महापुराण के अनुसार मंगलवार को काली मां की पूजा करने तथा उड़द, मूंग एवं अरहर की दाल आदि अन्नों से युक्त भोजन ब्राह्मण को कराने से सभी रोगों समाप्त हो जाते हैं।
  • - शिव महापुराण के अनुसार बुधवार को दही युक्त अन्न से भगवान विष्णु का पूजन करने से पुत्र सुख मिलता है।
  • शिव महापुराण के अनुसार गुरुवार को वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घी मिश्रित खीर से देवताओं का पूजन करने से लंबी आयु प्राप्त होती है।
  • - शिव महापुराण के अनुसार शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करने तथा यथासंभव ब्राह्मणों को अन्न दान करने से समस्त प्रकार के भोगों की प्राप्ति होती है।
  • - शिव महापुराण के अनुसार शनिवार अकाल मृत्यु का निवारण करने वाला है। इस दिन भगवान रुद्र की पूजा तथा तिल से होम करने, दान से देवताओं को संतुष्ट करके ब्राह्मणों को तिलमिश्रित भोजन कराने से अकाल मृत्यु नहीं होती।

!!! कौन हैं वेद व्यास और सूतजी ???


सूतजी- पुराणों में सूतजी को परम ज्ञानी ऋषि कहा गया है। वे भागवत की कथा सुनाते हैं। कथा सुनने वालों में शौनक सहित 84 हजार ऋषि शामिल हैं। शौनक- ये भी ऋषि हैं। जिज्ञासु और भागवत कथा के रसिक हैं। वे सूतजी से कथा सुनते हैं।

वेद व्यास- ये विष्णु के अंशावतार माने गए हैं। उन्होंने ब्रह्मासूत्र, महाभारत के अलावा भागवत सहित 18 पुराण लिखे। इन्होंने ही वेदों का विभाजन किया। इसलिए इन्हें वेद व्यास कहा जाता है |



जवान मां के बूढ़े बच्चे हैं ये

यह सुनने में अजीब लगता है लेकिन सत्य है। श्रीमद् भागवत महापुराण की कथा यहीं से शुरू होती है। ये कथा भागवत का महात्म्य है। हर ग्रंथ के शुरुआत में उसका महात्म्य होता है। भागवत के इसी महात्म्य में यह कथा है, 

जब नारद मृत्युलोक यानी पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं और उन्हें एक युवती रोती दिखाई देती है। उसकी गोद में सिर रख दो बूढ़े पुरुष सो रहे हैं, दोनों बहुत कमजोर और बीमार दिखाई दे रहे हैं। जब नारद उस युवती से पूछते हैं तो वह बताती है कि दोनों बूढ़े पुरुष उसके पुत्र हैं। यह सुनकर नारद को बड़ा आश्चर्य होता है, एक जवान स्त्री के बच्चे इतने बूढ़े कैसे हो सकते हैं। 

तब वह युवती बताती है कि वह भक्ति है और उसके दोनों बूढ़े पुत्र पहले स्वस्थ्य और जवान थे लेकिन कलियुग में उनकी यह दुर्दशा हो गई है। दोनों पुत्रों के नाम थे ज्ञान और वैराग्य। तब नारद भक्ति को श्रीमद् भागवत का श्रवण करने का उपाय बताते हैं, 


जिससे उसके बूढ़े बच्चे ज्ञान और वैराग्य फिर स्वस्थ्य और जवान हो गए। कथा यह बताती है कि कलियुग यानी आधुनिक युग में लोगों में भक्ति तो होगी लेकिन ज्ञान और वैराग्य का अभाव होगा। ज्ञान इसलिए नहीं होगा क्योंकि लोग धर्म शास्त्रों का अध्ययन करना छोड़ देंगे। ज्ञान नहीं होगा तो मन में वैराग्य का भाव नहीं आएगा। भक्ति अधूरी ही रहेगी, ज्ञान और वैराग्य के बिना। परम ज्ञान के लिए भागवत का अध्ययन सबसे श्रेष्ठ उपाय है। इससे हमें सारी सृष्टि का ज्ञान होता है और जीवन को नई दृष्टि मिलती है।

भक्ति सिखाती है भागवत


श्रीमद् भागवत कथा भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को स्थापित करती है। नारदजी कहते हैं अनेक जन्मों के पुण्य इकट्ठे होते हैं तो सत्संग मिलता है जिससे मनुष्य का मोह-मद का अंधकार हट जाता है तथा विवेक का उदय होता है। भागवत में धुंधुकारी प्रसंग बताता है कि किस तरह मनुष्य वेश्यारूपी पांच इंद्रियों की इच्छाएं पूरी करने में जीवन नष्ट कर देता है और अंत में वह प्रेत बन जाता है, जिसे भागवत कथा सुनने के बाद मुक्ति मिलती है। 

भागवत के पहले स्कंध में प्रमुख रूप से कलियुग से प्रभावित राजा परीक्षित की मुक्ति का प्रसंग हमें संदेश देता है कि जीवन का मुख्य लक्ष्य जीवन-मरण के चक्कर से मुक्ति पाना है। जीवन का जो समय बचा है उसे इस दिशा में ले जाएं।

भागवत में स्कंध-दर-स्कंध आगे बढ़ती कथा के विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से यही समझाया गया है कि इस संसार के पहले भी एकमात्र ईश्वर था और इस दिखाई देने वाले सारे संसार में वही ईश्वर है। जब यह संसार खत्म होगा तो यही ईश्वर शेष रह जाएगा। 


प्राणियों के शरीर के रूप में पंचभूत (आकाश, पृथ्वी, वायु, जल और अग्नि) ईश्वर हैं तो आत्मा के रूप में ईश्वर है। कहने का तात्पर्य यही है कि संपूर्ण संसार में एकमात्र ईश्वर ही है। ईश्वर ही वास्तविकता है। इसलिए हमें सभी में ईश्वर को ही देखना चाहिए।


श्रीमद् भागवत हमें ईश्वर को समझने के लिए पहले भक्ति सिखाती है, फिर इसका ज्ञान देती है। भक्ति और ज्ञान से जब हम ईश्वर की सत्ता को समझ लेते हैं तो मन वैराग्य की ओर मुड़ जाता है। इस स्थिति में श्रीमद् भागवत हमें वास्तविक वैराग्य से परिचित कराती है।


॥ श्री सुवर्णमालास्तुतिः ॥


॥ॐ ह्रीं गं ह्रीं महागणेशाय नमः स्वाहा॥

ईश गिरीश नरेश परेश महेश बिलेशय भूषण भो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥

उमया दिव्य सुमङ्गल विग्रह यालिङ्गित वामाङ्ग विभो।
ऊरी कुरु मामज्ञमनाथं दूरी कुरु मे दुरितं भो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥१॥


ऋषिवर मानस हंस चराचर जनन स्थिति लय कारण भो।
अन्तःकरण विशुद्धिं भक्तिं च त्वयि सतिं प्रदेहि विभो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥२॥


करुणावरुणालयमयिदास उदासस्तवोचितो न हि भो।
जय कैलाश निवास प्रमथ गणाधीश भू सुरार्चित भो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥३॥

झनुतक झङ्किणु झनुतत्किटतट शब्दैर्नटसि महानट भो।
धर्मस्थापन दक्ष त्रयक्ष गुरो दक्ष यज्ञ शिक्षक भो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥४॥


बलमारोग्यं चायुस्त्वद्गुण रुचितां चिरं प्रदेहि विभो।
भगवन् भर्ग भयापह भूतपते भूतिभूषिताङ्ग विभो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥५॥

शर्व देव सर्वोत्तम सर्वद दुर्वृत्तगर्वहरण विभो।
षड् रिपु षडूर्मि षड्विकार हर सन्मुख षन्मुख जनक विभो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥६॥


सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मे त्येतत्लक्षण लक्षित भो।
हाऽहाऽहूऽहू मुख सुरगायक गीता पदान पद्य विभो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥७॥

॥ इति श्री शङ्कराचार्य कृत सुवर्णमालास्तुतिः॥


॥ महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रं ॥



अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनी विश्वविनोदिनी नन्दनुते
गिरिवर विन्ध्यशिरोधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिश्नुनुते।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुंबिनि भूरि कुटुंबिनि भूरि कृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१॥

सुरवरवर्षिणि दुर्धरदर्शिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्विषमोषिणि घोषरते।
दनुज निरोषिणि दितिसुत रोषिणि दुर्मद शोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥२॥

अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुण्ड गजाधिपते
रिपु गज गण्ड विदारण चण्ड पराक्रम शुण्ड मृगाधिपते।
निज भुज दण्ड निपाथित चण्ड विपाथित मुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥३॥

धनुरनु संग रणक्षणसंग परिस्फुर दंग नटत्कटके
कनकपिशंग पृषत्कनिषंग रसद्‌भटशृंग हताबटुके।
कृत चतुरङ्ग बलक्षिति रङ्ग घटद्‌बहुरङ्ग रटद्‌बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥४॥

जय जय जप्य जयेजय शब्द परस्तुति तत्पर विश्वनुते
झन्झण झिञ्झिमि झिंकृत नूपुर सिंजित मोहित भूतपते।
नटित नटार्धनटीनटनायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥५॥

अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहर कांतियुते
श्रित रजनी रजनी रजनी रजनी रजनीकर वक्त्रवृते।
सुनयन विभ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥६॥

सहित महाहव मल्लम तल्लिक मल्लित रल्लिक मल्लरते
सिरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक चिल्लिक भिल्लिक वर्गवृते।
सितकृत फुल्लिसमुल्लसितारुण तल्लजपल्लवसललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥७॥

कमलदलामल कोमलकांति कला ललितामल भाललते
सकल विलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले।
अलिकुल सङ्कुल कुंवलय मण्डल मौलिमिलद्‌बकुलाधि कुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥८॥

अयि जगदंब मदंब कदंब वनप्रियवासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्ग हिमालय शृंग निजालय मध्यगते।
मधु मधुरे मधु कैटभ गंजिनि कैटभ भंजिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥ ९॥

कर मुरलीरववीजित कूजित लज्जित कोकिल मञ्जुरते
मिलित मिलिन्द मनोहर गुञ्जित रंजितशैलनिकुञ्जगते।
निजगण भूत महाशबरीगण रंगण संमृत केलिरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१०॥

अयि मयी दीनदयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननीति यथाऽसि तथाऽसि ममाममतासिरमे ।
यदुचितमत्र भवत्युररि कुरुतादुरुतापमपातुरमे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥११॥

॥ॐ साम्बसदाशिवाय नमः॥

॥ श्री गणेश अथर्वशीर्ष॥

॥ शान्ति पाठ॥

ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयां देवः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः॥
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः। व्यशेम देवहितं यदायुः॥१॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु ॥२॥
ॐ शान्तिः॥ शान्तिः॥ शान्तिः॥

॥ अथ श्री गणेश अथर्वशीर्षं व्याख्यस्यामः॥

ॐ नमस्ते गणपतये॥

त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि॥ त्वमेव केवलं कर्ताऽसि॥
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि॥ त्वमेव केवलं हर्ताऽसि॥
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि॥ त्वं सक्षादात्मसि नित्यं॥ १॥

॥ स्वरूप तत्त्व॥

ऋतं वच्मि
सत्यम् वच्मि॥ २॥

अव त्वं माम्॥ अव वक्तारं॥
अव श्रोतारं॥ अव दातारं॥
अव धातारं॥ अवानूचानवम शिष्यं॥
अव पुरस्तात्॥ अवो उत्तरातात्॥
अव दक्षिणातात्॥ अव चोर्ध्वातात्॥
अवाधरातात्॥ सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात्॥ ३॥

त्वं वाङ्ग्मयस्त्वं चिन्मयः॥
त्वंआनन्दमयस्त्वं ब्रह्ममयः॥
त्वं सच्चिदानन्दाद्वितियोसि॥
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि॥
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि॥ ४॥

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जयते॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति॥
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति॥
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति॥
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलोऽ नभः॥
त्वं चत्वारि वाक्पदानि॥ ५॥

त्वं गुणत्रयातीतः॥ त्वं देहत्रयातीतः॥
त्वं कालत्रयातीतः॥ त्वं अवस्थात्रयातीतः॥
त्वं मूलाधार स्थितोसिनित्यं॥
त्वं शक्तित्रयात्मकः॥
त्वं योगिनो ध्यायन्ति नित्यं॥
त्वं ब्रह्मस्त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं
अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमस्त्वं
ब्रह्मभूर्भुवस्वरोम्॥ ६॥

॥ गणेश मन्त्र॥

गणादिं पूर्वमुच्चारय वर्णादिं तदनन्तरं॥
अनुस्वारः परतरः॥ अर्धेन्दुलसितं॥
तारेण ऋद्धं॥ एतत्त्व मनुस्वरूपं॥
गकारः पूर्वरुपं॥ अकारो मध्यं रूपं॥
अनुस्वारश्चान्त्य रूपं॥ बिन्दुरुत्तररूपं॥
नादानुसन्धानं॥ संहिता सन्धिः॥
सैषा गणेशविद्या॥ गणक ऋषिः॥
निचृद्गायत्रि छन्दः॥ गणपतिर्देवता॥
ॐ गं गणपतये नमः॥ ७॥

॥ गणेश गायत्री॥

एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि
तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥ ८॥

॥ गणेश रूप॥

एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमं कुशधारिणं॥
रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजं॥

रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससं॥
रक्तं गन्धानुलिप्तान्गं रक्तपुष्पैहि सुपूजितं॥
भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतं॥
अविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परं
एवं धायेयति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः॥ ९॥

॥ अष्ट नाम गणपति॥

नमो व्रातपतये॥ नमो गणपतये॥
नमो प्रमथपतये॥
नमस्ते अस्तु लम्बोदराय
एकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय
श्री वरदमूर्तये नमो नमः॥ १०॥

॥फल श्रुति॥

एतदथर्वशीर्षं योधीऽते। स ब्रह्मभूयाय कल्पते।
स सर्वविघ्नैर्ण बाध्यते। स सर्वतः सुखमेधते।
स पञ्चमहापापत् प्रमुच्यते।
सायमधीयनो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रत्रिकृतं पापं नाशयति।
सायंप्रातः प्रयुंजानो अपापो भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।
धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति।
इदमथर्वशीर्षमशिष्याय ना देयं।
यो यदि मोहाद्दास्यति। स पापीयान् भवति।
सहस्त्रावर्तनात् यं यं काममधीते।
तं तमनेन साधयेत्॥ ११॥

अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मि भवति॥
चतुर्थ्यामनश्नन जपति स विद्यावान् भवति॥
स यशोवान् भवति॥
इत्यर्थवर्णवाक्यं। ब्रह्माद्याचरणं विद्यात्।
न बिभेति कदाचनेति॥ १२॥

यो दूर्वांकुरैर्यजति॥ स वैश्रवणोपमो भवति॥
यो लाजैर्यजति॥ स यशोवान् भवति॥
स मेधावान् भवति॥
यो मोदकसहस्त्रेण यजति। स वाञ्छितफलंवाप्नोति॥
यः साज्यसमिद्भिर्यजति।
स सर्वं लभते स सर्वं लभते॥१३॥

अष्टौ ब्रह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा
सूर्यवर्चस्वि भवति।
सूर्यगृहे महानद्यां प्रतिमासन्निधौ
वा जपत्वा सिद्धमन्त्रो भवति॥
महाविघ्नात् प्रमुच्यते॥ महादोषात् प्रमुच्यते॥
महापापात् प्रमुच्यते॥
स सर्वविद्भवति। स सर्वविद्भवति॥
य एवं वेद इत्युपनिषत्॥१४॥

॥शान्ति मन्त्र॥

ॐ सहनाववतु॥ सहनौभुनक्तु॥
सह वीर्यं करवावहै॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयां देवः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः॥
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः। व्यशेम देवहितं यदायुः॥१॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु ॥२॥
ॐ शान्तिः॥ शान्तिः॥ शान्तिः ॥

॥ श्री हनुमान वडवानलस्तोत्रम् ॥

॥श्रीगणेशाय नमः॥

ॐ अस्य श्री हनुमान वडवानलस्तोत्रमन्त्रस्य
श्रीरामचन्द्र ऋषिः, श्रीवडवानलहनुमान देवता,
मम समस्तरोगप्रशमनार्थं, आयुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्ध्यर्थं,
समस्तपापक्षयार्थं, सीतारामचन्द्रप्रीत्यर्थं
हनुमान वडवानलस्तोत्रजपमहं करिष्ये॥

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्री महाहनुमते प्रकटपराक्रम
सकलदिग्मण्डलयशोवितान धवलीकृतजगत्त्रितय वज्रदेह
रुद्रावतार लङ्कापुरीदहन उमामयमन्त्र उदधिबन्धन
दशशिरःकृतान्तक सीताश्वसन वायुपुत्र अञ्जनीगर्भसम्भूत
श्रीरामलक्ष्मणानन्दकर कपिसैन्यप्राकार सुग्रीवसाह्य
रणपर्वतोत्पाटन कुमारब्रह्मचारिन् गभीरनाद
सर्वपापग्रहवारण सर्वज्वरोच्चाटन डाकिनीविध्वंसन॥

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महावीरवीराय सर्वदुःखनिवारणाय
ग्रहमण्डल सर्वभूतमण्डल सर्वपिशाचमण्डलोच्चाटन
भूतज्वर एकाहिकज्वर द्वाहिकज्वर त्र्याहिकज्वर चातुर्थिकज्वर-
सन्तापज्वर विषमज्वरतापज्वर माहेश्वरवैष्णवज्वरान् छिन्धि छिन्धि
यक्षब्रह्मराक्षसभूतप्रेतपिशाचान् उच्चाटय उच्चाटय॥

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहाहनुमते
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः आं हां हां हां हं औं सौं एहि एहि
ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ नमो भगवते श्रीमहाहनुमते
श्रवणचक्षुर्भूतानां शाकिनीडाकिनीनां विषमदुष्टानां
सर्वविषं हर हर आकाशभुवनं भेदय भेदय छेदय छेदय
मारय मारय शोषय शोषय मोहय मोहय ज्वालय ज्वालय
प्रहारय प्रहारय सकलमायां भेदय भेदय॥

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महाहनुमते सर्व ग्रहोच्चाटन
परबलं क्षोभय क्षोभय सकलबन्धनमोक्षणं कुरु कुरु
शिरःशूलगुल्मशूलसर्वशूलान्निर्मूलय निर्मूलय
नागपाशानन्तवासुकितक्षककर्कोटककालियान्
यक्षकुलजलगतबिलगतरात्रिञ्चरदिवाचर
सर्वान्निर्विषं कुरु कुरु स्वाहा॥

राजभय चोरभय परमन्त्र परयन्त्र परतन्त्र परविद्याः छेदय छेदय
स्वमन्त्र स्वयन्त्र स्वतन्त्र स्वविद्याः प्रकटय प्रकटय
सर्वारिष्ट नाशय नाशय सर्वशत्रुः नाशय नाशय
असाध्यं साधय साधय हुं फट् स्वाहा॥

॥ इति श्रीविभीषणकृतं हनुमद्वडवानलस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥


॥ उमामहेश्वर स्तोत्रम् ॥


नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्याम्‌
परस्पराश्लिष्ट व पूः धराभ्याम्‌।
नागेन्द्रकन्या वृषकेतनाभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ १॥

नमः शिवाभ्यां सरसोत्सवाभ्याम्‌
नमस्कृताभीष्ट वरप्रदाभ्याम्‌।
नारायणेनार्चित पादुकाभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ २॥

नमः शिवाभ्यां वृषवाहनाभ्याम्‌
विरञ्चि विष्णु इन्द्र सुपूजिताभ्याम्
विभूतिपाटीर विलेपनाभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ३॥

नमः शिवाभ्यां जगदीश्वराभ्याम्
जगत्पतिभ्यां जयविग्रहाभ्याम्‌।
जम्भारिमुख्यै अभिवन्दिताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ४॥

नमः शिवाभ्यां परमौषधाभ्याम्‌
पञ्चाक्षरी पञ्जररञ्जिताभ्याम्‌।
प्रपञ्चसृष्टिस्थिति संहृताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ५॥

नमः शिवाभ्याम् अतिसुन्दराभ्याम्‌
अत्यन्तम् आसक्त हृदम्बुजाभ्याम्‌।
अशेषलोकैक हितङ्कराभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ६॥

नमः शिवाभ्यां कलिनाशनाभ्याम्‌
कङ्कालकल्याण व पूः धराभ्याम्‌।
कैलासशैलस्थित देवताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ७॥

नमः शिवाभ्याम् अशुभापहाभ्याम्‌
अशेषलोकैक विशेषिताभ्याम्‌।
अकुण्ठिताभ्याम्‌ स्मृतिसंभृताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ८॥

नमः शिवाभ्यां रथवाहनाभ्याम्‌
रवीन्दुवैश्वानर लोचनाभ्याम्‌।
राकाशशाङ्काभ मुखाम्बुजाभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ९॥

नमः शिवाभ्यां जटिलन्धरभ्याम्‌
जरामृतिभ्यां च विवर्जिताभ्याम्‌।
जनार्दनाब्जोद्भव पूजिताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ १०॥

नमः शिवाभ्यां विषमेक्षणाभ्याम्‌
बिल्वच्छदा मल्लिकदामभृद्भ्याम्‌।
शोभावती शान्तवतीश्वराभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ११॥

नमः शिवाभ्यां पशुपालकाभ्याम्‌
जगत् रयी रक्षण बद्धहृद्भ्याम्‌।
समस्त देवासुरपूजिताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ १२॥

स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं शिवपार्वतीभ्याम्‌ भक्त्या पठेद्द्वादशकं नरो यः।
स सर्वसौभाग्य फलानि भुङ्क्ते शतायुरान्ते शिवलोकमेति॥

॥इति उमामहेश्वरस्तोत्रं सम्पूर्णम्‌॥


॥ श्री शिवषड्क्षर स्तोत्रम् ॥

॥ॐ गं गणपतये नमः॥

॥श्री शिवषड्क्षर स्तोत्रम्॥

ॐकारं बिन्दु संयुक्तं नित्यम् ध्यायन्ति योगिनः
कामदम् मोक्षदम् चैव ॐकारय नमो नमः ॥१॥

नमन्ति ऋषियो देव नमन्ति अप्सरसांगणाः
नरा नमन्ति देवेशम् नकारय नमो नमः ॥२॥

महादेवम् महात्मानम् महाध्यानपरायणम्
महापाप हरम् देवम् मकारय नमो नमः ॥३॥ 

शिवम् शान्तम् जग्नन्नाथम् लोकानुग्रह कारकम्
शिवमेकपदम् नित्यम् शिकारय नमो नमः ॥४॥ 

वाहनम् वृषभोयस्य वासुकि कन्ठ भूषणम्
वामे शक्ति धरं देवम् वकारय नमो नमः॥५॥

यत्र यत्र स्थितो देव सर्व व्यापि महेश्वरः
यो गुरुः सर्व देवानाम् यकारय नमो नमः॥६॥ 

॥ षडक्षरमिदम् स्तोत्रम् यः पठे शिव सन्निधौ शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥

॥ इति श्री रुद्रयामले उमामहेश्वरसंवादे षडक्षरस्तोत्रं संपूर्णम्॥