जो धर्म की रक्षा करता है वह स्वयं रक्षित होता है।
इस उद्घोष का कोई तो कारण होगा। आखिर क्यों हमारी संस्कृति में धर्म को इतना महत्व दिया गया है। धर्म का क्या अर्थ है? क्या सच्चरित्रता धर्म है? क्या नैतिकता धर्म है? क्या पूजा धर्म है? ऐसे ना जाने कितने प्रश्न हमें घेरे रहते हैं।
असल में धर्म वह धरती है जिस पर चरित्र, विवेक, शील, नैतिकता और कर्तव्यपरायणता आदि जैसे गुण विकसित होते हैं। यदि धर्म का आधार न हो तो इन गुणों का भी कोई अस्तित्व न हो। धर्म एक संस्कृत शब्द है जिसका आज तक किसी अन्य भाषा में अनुवाद नहीं हो पाया। यह केवल और केवल भारतीय संस्कृति का ही अंग रहा है। आमतौर पर लोग इसका अंग्रेज़ी अनुवाद रिलीजन के रूप में करते हैं, किन्तु यह उससे कहीं अधिक व्यापक है। धरती जितना विस्तारित, या शायद उससे भी अधिक। इसकी कोई सीमा नहीं और यदि है तो उस सीमा के बाहर कुछ भी नहीं।
धर्म के बिना जीवन का कोई अस्तित्व नहीं। धरा का प्रत्येक जीव धर्म से बंधा है। नदी का धर्म है उपर से नीचे की ओर बहना। यदि वह अपने इस धर्म का पालन न करे तो उसका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। वह झील या सरोवर होकर रह जायेगी। प्रकृति, मनुष्य, पालन, पोषण, जन्म-मृत्यु, जीव, वनस्पति आदि सभी धर्म से संचालित हैं।
सरल शब्दों में कहें तो जीवन का विधान ही धर्म है। देश को चलाने के लिए कानून की आवश्यकता होती है। यहाँ तक कि छोटी से छोटी इकाई को चलने के लिए भी नियम होते हैं। इन नियमों के बिना उनका कोई अस्तित्व नहीं। ठीक इसी प्रकार जीवन को चलाने के लिए भी नियम की आवश्यकता होती है। जीवन के यह नियम ही धर्म है। आप जिस भी रूप में जीवन को पायें, आपके लिए कुछ नियम होंगे। आप उन नियमों का पालन करते हैं तो धर्मी हैं, नहीं करते तो अधर्मी।
अगला प्रश्न जो मन में आता है, वह है कि कैसे जानें धर्म क्या है? तो उसका उत्तर है कि समय-समय पर महापुरुषों का आचरण ही धर्म को प्रकट करता है। स्वामी विवेकानंद एक महात्मा ना रहकर आज एक विचार बन चुके हैं। आचार्य शंकर एक व्यक्ति ना रहकर परम्परा बन चुके हैं। धर्मराज युधिष्ठिर से पूछे गये यक्ष प्रश्नों में एक यह भी था – कः पन्थः? रास्ता क्या है? तब धर्मराज उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि धर्म तत्व गहन है। इसे महापुरुषों के आचरण से ही समझा जा सकता है। महापुरुष जिस मार्ग पर चले कालांतर में वही धर्म हो गया। रामः विग्रह्धर्मः। राम स्वयं धर्मविग्रह हैं।
धर्म शाश्वत है। व्यक्ति विशेष के विचार और देश काल से यह प्रभावित नहीं होता। यह परिवर्तनशील नहीं है। धर्म का आधार श्रद्धा एवं विश्वास है। तर्क-वितर्क से परे हटकर हमें मनीषियों और महापुरुषों के आचरण से प्रेरणा प्राप्त कर धर्मपूर्वक आचरण करना चाहिये क्योंकि – ‘शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनं’
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