मनुष्य के भीतर स्थित पाँच-कोषों को खोलकर ही आत्मा का परमात्मा से मिलन संभव है। इन पाँचों कोशों में सबसे निम्न स्तर पर है, अविद्या। इस अन्न-जल रुपी ‘अन्नमय-कोष’ से मनुष्य कभी बाहर निकल ही नहीं पाता। इसकी प्रत्येक परत मानो किसी पुष्प की कोंपल के समान होती है। जैसे-जैसे इसकी पंखुड़ियाँ खुलती हैं, आत्म-ज्ञान की सुगंध उतनी ही अधिक मिलती है। ‘मूलाधार चक्र’ को योग द्वारा सक्रिय करके इस अन्नमय कोष से बाहर निकला जा सकता है।
अन्नमय कोष से मुक्ति पाकर मनुष्य ‘प्राणमय कोष’ के स्तर पर पहुँचता है। इस कोष को प्राण-वायु फलीभूत करता है और अधिकांश मनुष्य प्राण-वायु के विकार के कारण ही ‘अज्ञान और अहंकार’ से ग्रस्त होते हैं। नाभि में स्थित ‘स्वाधिष्ठान चक्र’ को जागृत करके ‘प्राणमय कोष’ से मानुष को मुक्ति मिल सकती है।
इससे ऊपर ‘मनोमय कोष’ है। जिसके द्वारा मनुष्य द्वेष के अंकुश में उलझ जाता है; और स्वार्थ उसकी जीवन-शैली का अभिन्न अंग बन जाता है। ‘ह्रदय चक्र’ के समीप पहुँचते ही मनुष्य अपने विचारों और चिंतन को एक गंतव्य तक निर्धारित कर सकता है। ऐसा करके मनोमय कोष को नियंत्रित किया जा सकता है।
इससे ऊपर स्थित ‘विज्ञानमय कोष’ मनुष्य के ‘अहं-भाव’ के कारक होते हैं, जिससे ‘अहंकार’ भाव उत्पन्न होते हैं। कंठ में स्थित ‘आनंदमय चक्र’ को जागृत करके मनुष्य अपनी अधीरता और व्याकुलता को नियंत्रित कर सकता है। ऐसे व्यक्ति सुख-दुःख, प्रत्येक परिस्थिति में भाव-विभोर और तन्मय रहते हैं।
ललाट के मध्य में स्थित है सबसे शक्तिशाली चक्र, ‘आज्ञा-चक्र’। इस चक्र को जागृत करके मनुष्य अपनी छठीं इन्द्रिय को गतिशील करते हुए, आत्मा को परमात्मा के समीप ले आता है। जब मनुष्य सुख्कारका भाव अथवा दुःख-कारक भाव को तटस्थ करने के योग्य हो जाता है, तब वह आनंद-कोष को प्राप्त कर जाता है!
... और फिर मनुष्य अपने गंतव्य, शिव को प्राप्त करता है! शिवोsहं! शिवोsहं!
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