10 October 2012

ध्यान रखें शिवजी को कभी तुलसी ना चढ़ाएं ..



ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌॥



शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यरामदंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतानउत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए तपकिया और तप से प्रसन्नहोकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकरअंतध्र्यान हो गए। 

तब दंभ के यहां शंखचूड काजन्म हुआ और शंखचूड नेपुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा किवो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्रीकृष्णकवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा नेशंखजीचूड को धर्मध्वजकी कन्या तुलसी से विवाह करने की भी आज्ञा दे दी। 

ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह होगया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर भगवान विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्णकवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका 

श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण करतुलसी के शील का अपहरणकर लिया। अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया और तुलसी राक्षसराज की पत्नी थी। चुंकि तुलसी का शील भंग हो चूका था इसीलिए ऐसी मान्यता है कि शिवजी को पूजा में तुलसी चढ़ाने पर पूजा का फल नहीं मिलताऔर ऐसा करने से दोष लगता है ।


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