10 October 2012

घर या आश्रम **



एक भिक्षु घर-घर जाकर भिक्षा मांगता था। उसे जो भी मिलता वह सहज भाव से स्वीकार करता था। इसके बदले वह सबको आशीर्वाद देता था। उसका व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि लोग उसके आने की प्रतीक्षा करते रहते थे। उसे भिक्षा देकर वे अपने को धन्य समझते थे। लेकिन एक व्यक्ति ऐसा भी था जो उस भिक्षु को देखना तक पसंद नहीं करता था। उसके घर से कभी भिक्षु को भिक्षा नहीं मिलती थी। लेकिन भिक्षु नियमित उसके घर जाया करता था। वह कुछ देर प्रतीक्षा करता फिर लौट जाता। अगर कोई व्यक्ति घर में दिख जाता तो वह उसे आशीर्वाद देता।

एक दिन जब वह रोज की तरह उस घर में गया तो गृह स्वामिनी ने कहा-क्षमा करें, यहां आपको भिक्षा नहीं मिलेगी। लेकिन अगले दिन भिक्षु फिर आ पहुंचा। यह सिलसिला जारी रहा। उस घर के लोग आपस में बात करते कि यह भी अजीब भिक्षु है। एक दिन घर के मुखिया ने कहा-जब तुम्हें कहा जा चुका है कि यहां तुम्हें कुछ भी न मिलेगा फिर भी तुम किस आशा से रोज चले आते हो? इस पर भिक्षु ने मुस्कराकर कहा-अनुगृहीत हुआ। इतने प्रेम से कोई नहीं कहता कि यहां तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। एक भिक्छु के लिए द्वार तक आना और यह सुनना कि यहां तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा, क्या कम है? आपने मुझे साधना का एक अवसर दिया है। मुझे सहनशीलता सिखाई है। इससे मेरा अहं विलीन हो गया। इस तरह आपका घर तो एक आश्रम है। यहां सीखने का मौका मिलता है। वह व्यक्ति लज्जित हो गया। उसने भिक्षु से क्षमा मांगी।

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