10 October 2012

जैसा खाये अन्न वैसा बने मन



निःसंदेह मनुष्य जिस प्रकार का राजसी, तामसी अथवा सात्विकी भोजन करता है, उसी प्रकार उसके गुणों एवम् स्वभाव का निर्माण होता है और जिनसे प्रेरित उसके कर्म भी वैसे ही हो जाते हैं फलतः कर्म के अनुसार ही मनुष्य का उत्थान-पतन हुआ करता है । जो मनुष्य इतने महत्वपूर्ण पदार्थ भोजन के सम्बन्ध में अनभिज्ञ है अथवा असंयम बरतता है उसे बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता । आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए प्रक्ताहार विहार का नियम कड़ाई के साथ पालन करने के लिए कहा गया है, 

जो मनुष्य किसी भी क्षेत्र में स्वस्थ, सुन्दर, सौम्य एवं समुन्नत जीवनयापन करना चाहता है उसके लिए भोजन सम्बंधी ज्ञान तथा उसका संयम बहुत आवश्यक है । भोजन के प्रति असंयम व्यक्ति अन्य किसी प्रकार के संयम का पालन नहीं कर सकता । भोजन का संयम अन्य इन्द्रियों के संयमों के पालन करने में बहुत कुछ सहायक होता है ।

जीवन निर्माण के आधार भोजन सम्बंधी अज्ञान कुछ कम खेद का विषय नहीं है । मनुष्य जो कुछ खाता है और जिसके बल पर जीता है, उसके विषय में क, ख तक न जानना निःसन्देह लज्जा की बात है । कितने आश्चर्य का विषय है जो मनुष्य कपड़ों लत्तों, घर-मकान और देश- देशान्तर के विषय में बहुत कुछ जानता है या जानने के लिए उत्सुक रहता है, वह जीवन तत्व देने वाले भोजन के विषय में जरा भी नहीं जानता और न जानना चाहता है । इसी अज्ञान के कारण हमारी भोजन सम्बंधी न जाने कितनी भ्रान्त धारणायें बन गई हैं । 


अनेक लोग यह यह समझते हैं कि जो भोजन जिव्हा को रुचिकर लगे, जिसमें दूध, दही, मक्खन आदि पौष्टिक पदार्थों का प्रचुर मात्रा में समावेश हो, मिर्च- मसाले इस मात्रा में पड़े हों जिन्हें देखकर ही मुँह में पानी आये वही भोजन सबसे अच्छा है । इसके विपरीत बहुत से लोग भोजन के नाम पर पापी पेट में जो कुछ माँस, घास, कूड़ा-कर्कट मिल जाये, डाल लेना ही आहार का उद्देश्य समझते हैं ।

भोजन के विषय में यह दोनों मान्यताएँ भ्रमपूर्ण एवं हानिकारक हैं । भोजन का प्रयोजन न तो जिव्हा का स्वाद है और न पेट को पाटना । जो मसालेदार, चटपटे और तले-जले पदार्थों का सेवन करते हैं, उनकी पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है और जो निस्सार एवं तत्व हीन भोजन से पेट को पाटते रहते हैं उनका आमाशय शीघ्र ही अशक्त हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप दोनों मान्यताओं वालों को रोगों का शिकार बनना पड़ता है । रोग शरीर के भयानक शत्रु हैं- सभी जानते हैं- किन्तु ऐसा जानते हुए भी उनके मल-मूत्र कारक आहार सम्बन्धी त्रुटियों को दूर करने के लिए तत्पर होने को तैयार नहीं ।

भोजन का एकमात्र उद्देश्य भूख निवृत्ति ही नहीं है, उसका मुख्य उद्देश्य आरोग्य एवं स्वास्थ्य ही है । जिस भोजन ने भूख को तो मिटा दिया किन्तु स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाला वह भोजन उपयुक्त भोजन नहीं माना जायेगा । उपयुक्त भोजन वही है, जिससे क्षुधा की निवृत्ति एवं स्वास्थ्य की वृद्धि हो ।

विटामिनों की दृष्टि से हरे शाक तथा फल आदि ही स्वास्थ्य के लिए आवश्यक एवं उपयुक्त आहार हैं, । इसके अतिरिक्त क्षार नामक आवश्यक तत्व भी फलों तथा शाकों से पाया जा सकता है । अनाज के छिलकों में भी यह तत्व वर्धमान रहता है किन्तु अज्ञानवश मनुष्य अधिकतर अनाजों को छील-पीसकर यह तत्व नष्ट कर देते हैं ।

कहना न होगा कि प्रकृति जिस रूप में फलों, शाकों तथा अनाजों को पैदा और पकाया करती है, उसी रूप में ही वे मनुष्य के वास्तविक आहार हैं । उनकों न तो अतिरिक्त पकाने अथवा उनमें नमक, शक्कर आदि मिलाने की आवश्यकता है । किन्तु मनुष्य का स्वभाव इतना बिगड़ गया है कि वह शाक-भाजियों तथा अन्न आदि को उनके प्रकृत रूप में नहीं खा सकता । 

इसके लिए यदि आहार को थोड़ा-सा हल्की आँच पर पका लिया जाये तब भी कोई विशेष हानि नहीं होती । किन्तु जब उनको बुरी तरह तला या जला डाला जाता है तो निश्चय ही उनके सारे तत्व नष्ट हो जाते हैं और वह आहार अयुक्ताहार हो जाता है । जहाँ तक सम्भव हो खाद्य पदार्थों को प्रकृत रूप में ही खाना चाहिये अथवा मंदी आँच या भाप पर थोड़ा- सा ही पकाना चाहिये । मिर्च, मसालों का प्रयोग निश्चय ही हानिकारक है इनका उपयोग तो बिल्कुल करना ही नहीं चाहिए ।

इन सब बातों का मुख्य तात्पर्य यह है कि मनुष्य के लिए उपयुक्त भोजन उसी को कहा जायेगा जिसके विटामिन तथा क्षार आदि तत्व सुरक्षित रहें, जो आसानी से पच जाये और जिसमें अधिक से अधिक सात्विक गुण हों । फल, शाक, मेवा, दूध आदि ही ऐसे पदार्थ हैं, जो मनुष्य के लिए स्वास्थ्यवर्धक आहार हैं ।

इसके साथ ही भोजन के संयम में स्वल्प अथवा तृप्ति तक भोजन करना ही ठीक है, अधिक भोजन से मनुष्य में आलस्य, प्रमाद, शिथिलता आदि ऐसे आसुरी दोष आ जाते हैं, जिनसे न तो वह परिश्रमी रह पाता है और न सात्विक स्वभाव का । असात्विकता अथवा असुरता मनुष्य को पतन की ओर ही ले जाती है । काम, क्रोध, आदि विचारों की प्रबलता भी असंयमित एंव अयुक्त आहार करने से ही होती है । यदि शरीर सब तरह से स्वस्थ एवं शुद्ध है तो मनुष्य का मन निश्चय ही सात्विक रहेगा । सात्विक मन एवं स्वस्थ शरीर के सम्पर्क से आत्मा का प्रसन्न तथा प्रमुदित रहना निश्चित है, जो कि एक दैवी लक्षण है जिसे भोजन के माध्यम से मनुष्य को प्राप्त करने का प्रयास करना ही चाहिए ।

अन्न को शास्त्रों में प्राण की संज्ञा दी गई है । अन्न को प्राण कहने में न तो कोई अयुक्तता है और न अत्युक्ति । निःसन्देह वह प्राण ही है । भोजन के तत्वों से ही शरीर में जीवनी शक्ति का निर्माण होता है । उसी से माँस, रक्त, मज्जा, अस्थि तथा ओजवीर्य आदि का निर्माण हुआ करता है । भोजन के अभाव में इन आवश्यक तत्वों का निर्माण रुक जाये तो शरीर शीघ्र ही स्वत्वहीन होकर स्तब्ध हो जाय ।

अन्न सर्व साधन रूप शरीर का आधार है । प्रत्येक मनुष्य तन, मन अथवा आत्मा से जो कुछ दिखाई देता है, उसका बहुत कुछ आधार हेतु उसका आहार ही है । जन्म काल से लेकर मृत्युपर्यन्त प्राणी का पालन, सम्वर्धन एवं अनुवर्धन आहार के आधार पर ही हुआ करता है । किसी का बलिष्ठ अथवा निर्बल होना, स्वस्थ अथवा अस्वस्थ होना बहुत अंशों तक भोजन पर ही निर्भर रहता है ।

समस्त सृष्टि तथा हमारे जीवन के लिए भोजन का इतना महत्व होते हुए भी कितने व्यक्ति ऐसे होंगे जो प्राण रूप आहार के विषय में जानकारी रखते हों और उसके सम्बन्ध में सावधान रहते हों, संसार में दिखलाई देने वाले शारीरिक एवं मानसिक दोषों में अधिकांश का कारण आहार सम्बंधी अज्ञान एवं असंयम ही है । जो भोजन शरीर को शक्ति और मन को बुद्धि को प्रखरता प्रदान करता है, वही असंयमित भी बना देता है । शारीरिक अथवा मानसिक विकृतियों को भोजन विषयक भूलों का ही परिणाम मानना चाहिये । अन्न दोष संसार के अन्य दोषों की जड़ है- जैसा खाये अन्न वैसा बने मन वाली कहावत से यही प्रतिध्वनित होता है कि मनुष्य की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का जन्म एवं पालन अच्छे, बुरे आहार पर ही निर्भर है ।



ॐ ॐ

No comments: