29 September 2012

श्राद्ध में शंका करने का परिणाम व श्रद्धा करने से लाभ


बृहस्पति कहते हैं- "श्राद्धविषयक चर्चा एवं उसकी विधियों को सुनकर जो मनुष्य दोषदृष्टि से देखकर उनमें अश्रद्धा करता है वह नास्तिक चारों ओर अंधकार से घिरकर घोर नरक में गिरता है। योग से जो दवेष करने वाले हैं वे समुद्र में ढोला बनकर तब तक निवास करते हैं जब तक इस पृथ्वी की अवस्थिति रहती है। भूल से भी योगियों की निन्दा तो करनी ही नहीं चाहिए क्योंकि योगियों की निन्दा करने से वहीं कृमि होकर जन्म धारण करना पड़ता है। योगपरायण योगेश्वरों की निन्दा करने से मनुष्य चारों ओर अंधकार से आच्छन्न, निश्चय ही अतयंत घोर दिखाई पड़ने वाले नरक में जाता है। आत्मा को वश में रखने वाले योगेश्वरों की निन्दा जो मनुष्य सुनता है वह चिरकालपर्यंत कुम्भीपाक नरक में निवास करता है इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। योगियों के प्रति द्वेष की भावना मनसा, वाचा, कर्मणा सर्वथा वर्जित है।

जिस प्रकार चारागाह में सैंकड़ों गौओं में छिपी हुई अपनी माँ को बछड़ा ढूँढ लेता है उसी प्रकार श्राद्धकर्म में दिए गये पदार्थ को मंत्र वहाँ पर पहुँचा देता है जहाँ लक्षित जीव अवस्थित रहता है। पितरों के नाम, गोत्र और मंत्र श्राद्ध में दिये गये अन्न को उसके पास ले जाते हैं, चाहे वे सैंकड़ों योनियों में क्यों न गये हों। श्राद्ध के अन्नादि से उनकी तृप्ति होती है। परमेष्ठी ब्रह्मा ने इसी प्रकार के श्राद्ध की मर्यादा स्थिर की है।"

जो मनुष्य इस श्राद्ध के माहात्म्य को नित्य श्रद्धाभाव से, क्रोध को वश में रख, लोभ आदि से रहित होकर श्रवण करता है वह अनंत कालपर्यंत स्वर्ग भोगता है। समस्त तीर्थों एवं दानों को फलों को वह प्राप्त करता है। स्वर्गप्राप्ति के लिए इससे बढ़कर श्रेष्ठ उपाय कोई दूसरा नहीं है। आलस्यरहित होकर पर्वसंधियों में जो मनुष्य इस श्राद्ध-विधि का पाठ सावधानीपूर्वक करता है वह मनुष्य परम तेजस्वी संततिवान होता और देवताओं के समान उसे पवित्रलोक की प्राप्ति होती है। जिन अजन्मा भगवान स्वयंभू (ब्रह्मा) ने श्राद्ध की पुनीत विधि बतलाई है उन्हे हम नमस्कार करते हैं ! महान् योगेश्वरों के चरणों में हम सर्वदा प्रणाम करते हैं !

जीवात्मा का अगला जीवन पिछले संस्कारों से बनता है। अतः श्राद्ध करके यह भावना भी की जाती है कि उनका अगला जीवन अच्छा हो। वे भी हमारे वर्त्तमान जीवन की अड़चनों को दूर करने की प्रेरणा देते हैं और हमारी भलाई करते हैं।

आप जिससे भी बात करते हैं उससे यदि आप प्रेम से नम्रता से और उसके हित की बात करते हैं तो वह भी आपके साथ प्रेम से और आपके हित की बात करेगा। यदि आप सामने वाले से काम करवाकर फिर उसकी ओर देखते तक नहीं तो वह भी आपकी ओर नहीं देखेगा या आप से रुष्ट हो जायेगा। Every action creates reaction.

किसी के घर में ऐरे गैरे या लूले लँगड़े या माँ-बाप को दुःख देने वाले बेटे पैदा होते हैं तो उसका कारण भी यही बताया जाता है कि जिन्होंने पितरों को तृप्त नहीं किया है, पितरों का पूजन नहीं किया, अपने माँ-बाप को तृप्त नहीं किया उनके बच्चे भी उनको तृप्त करने वाले नहीं होते।

श्री अरविन्दघोष जब जेल में थे तब उन्होंने लिखा थाः "मुझे स्वामी विवेकानन्द की आत्मा द्वारा प्रेरणा मिलती है और मैं 15 दिन तक महसूस करता रहा हूँ कि स्वामी विवेकानन्द की आत्मा मुझे सूक्ष्म जगत की साधना का मार्गदर्शन देती रही है।" (अनुक्रम)

जब उन्होंने परलोकगमन वालों की साधना की तब उन्होंने महसूस किया कि रामकृष्ण परमहंस का अंतवाहक शरीर (उनकी आत्मा) भी उन्हें सहयोग देता था।

अब यहाँ एक संदेह हो सकता है कि श्री रामकृष्ण परमहंस को तो परमात्म-तत्त्व का साक्षात्कार हो गया था, वे तो मुक्त हो गये थे। वे अभी पितर लोक में तो नहीं होंगे। फिर उनके द्वारा प्रेऱणा कैसे मिली?

'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में श्री वशिष्ठजी कहते हैं-

"ज्ञानी जब शरीर में होते हैं तब जीवन्मुक्त होते हैं और जब उनका शरीर छूटता है तब वे विदेहमुक्त होते हैं। फिर वे ज्ञानी व्यापक ब्रह्म हो जाते हैं। वे सूर्य होकर तपते हैं, चंद्रमा होकर चमकते हैं, ब्रह्माजी होकर सृष्टि उत्पन्न करते हैं, विष्णु होकर सृष्टि का पालन करते हैं और शिव होकर संहार करते हैं।

जब सूर्य एवं चंद्रमा में ज्ञानी व्याप जाते हैं तब अपने रास्ते जाने वाले को वे प्रेरणा दे दें यह उनके लिए असंभव नहीं है।

मेरे गुरुदेव तो व्यापक ब्रह्म हो गये लेकिन मैं अपने गुरुदेव से जब भी बात करना चाहता हूँ तो देर नहीं लगती। अथवा तो ऐसा कह सकते हैं कि अपना शुद्ध संवित ही गुरुरूप में पितृरूप में प्रेरणा दे देता है।

कुछ भी हो श्रद्धा से किए हुए पिण्डदान आदि कर्त्ता को मदद करते हैं। श्राद्ध का एक विशेष लाभ यह है कि 'मरने का बाद भी जीव का अस्तित्व रहता है....' इस बात की स्मृति बनी रहती है। दूसरा लाभ यह है कि इसमें अपनी संपत्ति का सामाजिकरण होता है। गरीब-गुरबे, कुटुम्बियों आदि को भोजन मिलता है। अन्य भोज-समारोहों में रजो-तमोगुण होता है जबकि श्राद्ध हेतु दिया गया भोजन धार्मिक भावना को बढ़ाता है और परलोक संबंधी ज्ञान एवं भक्तिभाव को विकसित करता है।

हिन्दुओं में जब पत्नी संसार से जाती है तब पति को हाथ जोड़कर कहती हैः "मेरे से कुछ अपराध हो गया हो तो क्षमा करना और मेरी सदगति के लिए आप प्रार्थना करना.... प्रयत्न करना।" अगर पति जाता है तो हाथ जोड़ते हुए कहता हैः "जाने अनजाने में तेरे साथ मैंने कभी कठोर व्यवहार किया हो तो तू मुझे क्षमा कर देना और मेरी सदगति के लिए प्रार्थना करना.... प्रयत्न करना।"

हम एक-दूसरे की सदगति के लिए जीते-जी भी सोचते हैं और मरणकाल का भी सोचते हैं, मृत्यु के बाद का भी सोचते हैं।

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