शिव की आराधना का विशेष महत्व है। यह महत्व अनायास नहीं है। केवल कर्मकांड भी नहीं है। इनके राज गहरे हैं। केवल कर्मकाण्ड मानकर पूजा-पाठ करने से बात नहीं बनेगी।
शिव पूरक हैं। शिवत्व पूर्णता है। इनके व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह के जीवन में खास महत्व हैं। शिव के प्रचलित स्वरूप को ही देखें तो उनके हर अंग, आभूषण और मुद्रा का महत्व है। जैसे - जैसे आप इसे समझते हैं आप शिवमय होते जाते हैं। शिवत्व आपमें उतरता जाता है और आप सरस हो जाते हैं। केवल शिव ही हैं जिनकी आराधना के साथ अमर होने का वरदान जुड़ा हुआ है। वैसे तो शिव इतने व्यापक हैं कि उनके लेशमात्र का वर्णन करने की योग्यता मुझमें नहीं है, लेकिन उन्हीं की इच्छा से कोशिश करते हैं।
शिव की वेश-भूषा को देखिए। सर पर गंगा और चंद्रमा, माथे पर तीसरी खुली हुई आंख, कंठ और हाथों में सर्प, कंधे पर जनेउ, कमर में वाघम्बर, बाघम्बर का आसन, पद्मासन में भैरवी मुद्रा, त्रिशूल और डमरू। साथ में माता पार्वती और उनका वाहन नंदी। यह शिव की वाह्य छवि है जिसे हम देखते हैं। अगर हमें शिव को निरूपित करना हो तो हम कुछ ऐसी ही छवि बनाएंगे। सर के जिस स्थान पर गंगा को दर्शाया जाता है भारतीय शरीर शास्त्र (तंत्र) में उसे सहस्रार चक्र के रूप में परिभाषित किया गया है। जब बच्चा पैदा होता है तो सिर के मध्य भाग में एक स्थान बहुत कोमल होता है। बहुत दिनों तक उस स्थान पर होने वाले स्पंदन को प्रकट रूप में देखा जा सकता है। जैसे जैसे हमारी कोमलता नष्ट होने लगती है धीरे-धीरे वह स्थान भी कठोर हो जाता है।
वह स्थान तंत्र में सहस्रार के रूप में परिभाषित है। सहस्रार का सामान्य अर्थ समझना हो तो उसे सहस्रदल कमल कह लें। वह अमरता का स्रोत है। सिर के उस हिस्से की बनावट ऐसी है जैसी कमल की पंखुड़ियां। कमल कहां पैदा होता है? पानी में। जल का पवित्रतम रूप हैं गंगा। और गंगा का उद्गम क्षेत्र है शिव की जटा। इसका मतलब यह हुआ कि गंगा को वहां स्थापित करने के पीछे कारण हैं। हम प्रतीक रूप में गंगा को देखकर यह समझ लें कि वह स्थान अमरता का केन्द्र है। उस केन्द्र तक पहुंचना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए शिव ही साधना की अनेक विधियां बताते हैं जो विभिन्न शास्त्रों में वर्णित हैं। सामान्य जीवन में गंगा का क्या महत्व है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
उससे थोड़ा नीचे चंद्रमा स्थापित हैं। शिव के शरीर में जिस स्थान पर चंद्रमा का दर्शन होता है तंत्र में उस स्थान को बिन्दु विसर्ग कहते हैं। भौतिक शरीर में यह स्थान बुद्धि का केन्द्र है। चंद्रमा का स्वभाव शीतल है। बुद्धि शीतल हो। शांत हो। चंद्रमा इसी बात का संकेत हैं।
कंठ और भुजाओं पर सर्प की माला। संभवत: शिव की भारतीय मानस में स्थापना का ही परिणाम है कि सांप का सामान्य जीवन में बड़ा आदर है। सांपों का इतना आदर दुनिया के शायद ही किसी देश में हो। सांप पर्यावास के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण जीव होता है। संभवत: सांप ही एकमात्र ऐसा जीव होता है जो अपनी पूरा कायाकल्प कर लेता है। कंठ में जो चक्र स्थापित है उसका नाम है विशुद्धि। विशुद्धि चक्र शरीर में कई तरह के रसों का उत्पादन करता है जो पाचक रसों के रूप में जाने जाते हैं।
उससे थोड़ा नीचे चंद्रमा स्थापित हैं। शिव के शरीर में जिस स्थान पर चंद्रमा का दर्शन होता है तंत्र में उस स्थान को बिन्दु विसर्ग कहते हैं। भौतिक शरीर में यह स्थान बुद्धि का केन्द्र है। चंद्रमा का स्वभाव शीतल है। बुद्धि शीतल हो। शांत हो। चंद्रमा इसी बात का संकेत हैं।
कंठ और भुजाओं पर सर्प की माला। संभवत: शिव की भारतीय मानस में स्थापना का ही परिणाम है कि सांप का सामान्य जीवन में बड़ा आदर है। सांपों का इतना आदर दुनिया के शायद ही किसी देश में हो। सांप पर्यावास के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण जीव होता है। संभवत: सांप ही एकमात्र ऐसा जीव होता है जो अपनी पूरा कायाकल्प कर लेता है। कंठ में जो चक्र स्थापित है उसका नाम है विशुद्धि। विशुद्धि चक्र शरीर में कई तरह के रसों का उत्पादन करता है जो पाचक रसों के रूप में जाने जाते हैं।
अगर इन पाचक रसों में व्यवधान आ जाए तो व्यक्ति में कई तरह के रोग घर कर जाते हैं। तंत्र के साधक ऐसा कहते हैं कि विशुद्धि चक्र जागृत हो जाता है तो व्यक्ति में विष को पचा लेने की क्षमता अपने-आप आ जाती है। वह रसों का स्वामी हो जाता है। सांप को प्रतीक रूप में चुनने का एक और अर्थ है। शरीर के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति का स्थान होता है। उस स्थान को मूलाधार चक्र कहते हैं। मूलाधार चक्र जागृत होने पर वह शक्ति उर्ध्वगामी होती है और शरीर के सारे चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में जाकर विस्फोट करती है। इस सुसुप्त शक्ति का जो आकार है वह कुंडली मारकर बैठे हुए सर्प जैसी है। इड़ा और पिंगड़ा नाड़ियां सुषुम्ना को लपेटे हुए उपर की तरफ चलती हैं। इसलिए सांप को शिव के गले में प्रतीक रूप में रखने के पीछे यह महत्वपूर्ण कारण है।
इसी तरह शिव के माथे पर एक अधखुली आंख के दर्शन होते हैं। उसे त्रिनेत्र कहते हैं। शिव का यह त्रिनेत्र तंत्र में आज्ञा चक्र के रूप में परिभाषित है। आज्ञा चक्र सभी चक्रों का नियंत्रण करता है। उच्चतर साधनाओं के लिए त्रिनेत्र का खुलना जरूरी है। क्योंकि साधना के दौरान यह शरीर एक अनंत उर्जा का स्रोत बनता चला जाता है। इस उर्जा का समायोजन त्रिनेत्र के खुलने पर ही हो सकता है। अन्यथा कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति साधना के दौरान अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है।
इसी तरह शिव के माथे पर एक अधखुली आंख के दर्शन होते हैं। उसे त्रिनेत्र कहते हैं। शिव का यह त्रिनेत्र तंत्र में आज्ञा चक्र के रूप में परिभाषित है। आज्ञा चक्र सभी चक्रों का नियंत्रण करता है। उच्चतर साधनाओं के लिए त्रिनेत्र का खुलना जरूरी है। क्योंकि साधना के दौरान यह शरीर एक अनंत उर्जा का स्रोत बनता चला जाता है। इस उर्जा का समायोजन त्रिनेत्र के खुलने पर ही हो सकता है। अन्यथा कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति साधना के दौरान अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है।
त्रिनेत्र अथवा आज्ञा चक्र के खुलने पर हम एक नये ब्रह्माण्ड में पहुंच जाते हैं। इन दो आंखों से हम जो जगत देख पाते हैं त्रिनेत्र उसके परे के जगत से हमारा साक्षात्कार करवाता है। शिव के भाल पर त्रिनेत्र दर्शाने का संभवत: यही अर्थ है। क्योंकि जिन्हें तंत्र में चक्रों के रूप में परिभाषित किया गया है उनका कोई आकार तो है नहीं। वह उर्जा केन्द्र है। शिव में उन उर्जा केन्द्रों को उनके व्यवहार के अनुकूल दर्शाया गया है। आज्ञा चक्र का जो व्यवहार है उसको त्रिनेत्र के रूप इसीलिए दिखाया गया है।
No comments:
Post a Comment