बड़े ही दुःख की बात है कि अधिकांश हिन्दू वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा के बीच में कोई अंतर नहीं समझते . और यही अज्ञानता हिन्दू समाज में आपसी भेदभाव , और ऊंच नीच का विचार पैदा करने का कारण बना हुआ है . इसी विचार के कारण हिन्दू एकजुट नहीं हो पा रहे है .वास्तव में वर्णव्यवस्था किसी के जन्म के आधार पर नहीं , बल्कि उसके कर्मों के आधार पर तय की जाती है .कुछ लोग जातिप्रथा का आधार ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के मन्त्र 12 का उदाहरण देते हैं . जिसमे कहा है .
ब्राह्मणों अस्य मुखमासीद बाहू राजन्यः कतः
उरू तदस्य यद् वैश्यः पदाभ्याम शूद्रो अजायत "
उरू तदस्य यद् वैश्यः पदाभ्याम शूद्रो अजायत "
कुछ लोग इस मन्त्र का अर्थ इस तरह करते है , कि उस ईश्वर के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए. लेकिन इस मन्त्र से यह बात सिद्ध नहीं होती कि ब्राहण , क्षत्रिय , और वैश्य उच्च वर्ण हैं और शरीर के नीचे होने वाले पैरों के समान शूद्र नीच समझे जाएँ .
ऐसे मुर्ख यह नहीं जानते कि यदि शूद्र पैरों की तरह अपवित्र और अशुद्ध है तो सभी हिन्दू देवी, देवताओं. और अपने माता, पिता और गुरुओं का चरण स्पर्श करके उनका आदर क्यों करते हैं? उनका शिर स्पर्श क्यों नहीं करते?
वास्तव में वर्णव्यवस्था लोगों के व्यवसाय, यानि उनके कर्मों के अनुसार निर्धारित की जाति थी .
किसी परिवार में जन्म होने के आधार पर नहीं.गीता में स्पष्ट कहा गया है
"चातुर्वर्ण्य मया स्रष्टअम गुण कर्म विभागशः गीता .अध्याय 4 श्लोक 13
फिर भी जो लोग खुद को सवर्ण बता कर शूद्रों को हेय समझते हैं . वह इस बात पर गौर करें कि .महर्षि वाल्मीकि न तो ब्राहमण थे और न ही क्षत्रिय या वैश्य थे .सभी जानते है कि वह शूद्र थे . फिर भी इस सत्य को जानने के बाद भी जब भगवान राम ने किसी कारण से सीता जी को छोड़ दिया था , तो उनको वाल्मीकि जी के आश्रम में भेज दिया था . वह चाहते तो सीता जी को उनके मायके नेपाल भेज देते .
इसी तरह हिदू जिस गीता को भगवान के वचन मानते हैं , वह महाभारत का एक अंश है .जिसकी रचना व्यास जी ने की थी . और व्यास भी सवर्ण नहीं थे .
जाति व्यवस्था मिटाने का एक ही उपाय हो सकता है . कि किसी को शूद्र कहकर उसका महत्त्व कम न करें , बल्कि उनको आर्य कहकर सम्मान करते हुए ऋषियों की संतान समझें . जाति प्रथा मुसलमानों की देन है .
ऐसे मुर्ख यह नहीं जानते कि यदि शूद्र पैरों की तरह अपवित्र और अशुद्ध है तो सभी हिन्दू देवी, देवताओं. और अपने माता, पिता और गुरुओं का चरण स्पर्श करके उनका आदर क्यों करते हैं? उनका शिर स्पर्श क्यों नहीं करते?
वास्तव में वर्णव्यवस्था लोगों के व्यवसाय, यानि उनके कर्मों के अनुसार निर्धारित की जाति थी .
किसी परिवार में जन्म होने के आधार पर नहीं.गीता में स्पष्ट कहा गया है
"चातुर्वर्ण्य मया स्रष्टअम गुण कर्म विभागशः गीता .अध्याय 4 श्लोक 13
फिर भी जो लोग खुद को सवर्ण बता कर शूद्रों को हेय समझते हैं . वह इस बात पर गौर करें कि .महर्षि वाल्मीकि न तो ब्राहमण थे और न ही क्षत्रिय या वैश्य थे .सभी जानते है कि वह शूद्र थे . फिर भी इस सत्य को जानने के बाद भी जब भगवान राम ने किसी कारण से सीता जी को छोड़ दिया था , तो उनको वाल्मीकि जी के आश्रम में भेज दिया था . वह चाहते तो सीता जी को उनके मायके नेपाल भेज देते .
इसी तरह हिदू जिस गीता को भगवान के वचन मानते हैं , वह महाभारत का एक अंश है .जिसकी रचना व्यास जी ने की थी . और व्यास भी सवर्ण नहीं थे .
जाति व्यवस्था मिटाने का एक ही उपाय हो सकता है . कि किसी को शूद्र कहकर उसका महत्त्व कम न करें , बल्कि उनको आर्य कहकर सम्मान करते हुए ऋषियों की संतान समझें . जाति प्रथा मुसलमानों की देन है .
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