आयुर्वेद एक संस्कृत शब्द है जो वास्तव में दो शब्दों: आयुर् अर्थात् जीवन एवं वेद अर्थात् ज्ञान का मेल है ।इसलिये आयुर्वेद ज्ञान की एक व्यवस्था है, न केवल एक चिकित्सात्मक ज्ञान बल्कि जीवन एवं आत्म के विषय में ज्ञान । आयुर्वेद आज जीवित है क्योंकि यह अनवरत रूप से पिछले 5,000 वर्षों से चलन में है । यह व्यक्ति को एक जीवन-शैली, भोजन के चुनाव एवं उसे पकाने की विधि की तरफ मर्गदर्शित करता है ।
आयुर्वेद के अनुसार, हम उन्हीं पंच तत्वों से निर्मित हैं जिनसे विश्व (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी एवं आकाश) । जब हम इन तत्वों के निकट रहते हैं या उनके और प्रकृति के साथ एक हो जाते हैं तो हमारे अन्दर ऊर्जाओं (दोषों) में संतुलन स्थापित होता है एवं हम अच्छे स्वास्थ्य का आनन्द लेते हैं।
हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करनेवाले सभी जटिल कारकों को वात (वायु), पित्त (अग्नि) एवं कफ (जल) कहे जानेवाले तीन मूलभूत संघटनात्मक प्रकारों में सरलीकृत किया जा सकता है । इन्हें "तीन दोष" कहा जाता है ।आयुर्वेदिक उपचार का मुख्य उद्देश्य इन तीन संघटनात्मक तत्वों में संतुलन स्थापित करना है, क्योंकि एक असंतुलन शारीरिक बीमारी का प्रत्यक्ष कारण उत्पन्न करता है । जब आप संतुलन में रहते हैं तो आप जीवन के प्रति अभिरूचि अनुभव करते हैं । आपको भूख अच्छी लगती है, आपके शारीरिक तंतु एवं प्रक्रियाएँ सामान्य ढ़ंग से काम करते हैं और आपका शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ आनन्द से परिपूर्ण रहते हैं । हमारे चारों तरफ बाह्य जगत में ये तीन प्राकृतिक प्रभाव या दोष भी सक्रिय रहते हैं और हमारे पर्यावरण, हममें एवं हम जो भोजन करते हैं उसमें पाये जाते हैं । भौतिक शरीर एवं भोजन दोनों पाँच आवश्यक तत्वों; पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश से मिलकर निर्मित हैं । आयुर्वेदिक भोजन हमारे शरीर के अन्दर इन आवश्यक तत्वों के बीच संतुलन उत्पन करता है जब इसे छ: आयुर्वेदिक स्वादों;मीठा, नमकीन, खट्टा, तीखा, कसैला एवं कड़वा का सही मात्रा में प्रयोग कर तैयार किया जाता है । छ: स्वादों की अपनी अनुपम तात्विक संरचनाएँ होती हैं जो उन्हें विशेष उपचारिक गुण-धर्म प्रदान करती हैं । एक संतुलित आहार इनका स्वास्थ्यकर संयोजन होगा ।
मधुर स्वाद (पृथ्वी एवं जल तत्व)
मधुर स्वादवाले खादपदार्थ सर्वाधिक पुष्टिकर माने जाते हैं । वे शरीर से उन महत्वपूर्ण विटामिनों एवं खनिज-लवणों को ग्रहण करते हैं जिसका प्रयोग शर्करा को पचाने के लिये किया जाता है ।इस श्रेणी में आनेवाले खादपदार्थों में समूचे अनाज के कण, रोटी, पास्ता, चावल, बीज एवं बादाम हैं ।अनेक फल एवं सब्जियाँ भी मीठे होते हैं । कुछ मीठा खाना हमारी तत्काल क्षुधा को तृप्त करता है; यह हमारे शरीर में ऊर्जा के स्तर को बढाता है और इसका शान्तिकारक प्रभाव भी होता है । लेकिन मीठे भोजन का अत्यधिक सेवन हमारे शरीर में इस चक्र को असंतुलित करता है एवं मोटापा तथा मधुमेह को जन्म देता है ।
खट्टा स्वाद (पृथ्वी एवं अग्नि तत्व)
इन वर्गों में आनेवाले खट्टे खद्पदार्थों में छाछ, खट्टी मलाई, दही एवं पनीर हैं I अधिकांश अधपके फल भी खट्टे होते हैं । खट्टे खाद्पदार्थ का सेवन करने से आपकी भूख बढ़ती है; यह आपके लार एवं पाचक रसों का प्रवाह तेज करती है । खट्टे भोजन का अति सेवन करने से हमारे शरीर में दर्द तथा ऐंठन की अधिक सम्भावना रहती है ।
नमकीन स्वाद ( जल एवं अग्नि तत्व)
प्राकृतिक रूप से समुद्री घास एवं समुद्री शैवाल हमारे शरीर को निर्मल करने तथा अधिवृक्क ग्रंथियों, गुर्दाओं, पुरस्थ एवं गलग्रंथि को मजबूत करने में मदद करता है । इसमें पोटैशियम, आयोदीन होता है जो सोडियम को संतुलित करने में मदद करता है । प्राकृतिक संतुलन करनेवाले तत्वों से रहित कृत्रिम नमक शरीर में द्रवों के धारण को बढा़ता है और इस प्रकार गुर्दा को प्रभावित करता है एवं रक्त-वाहिकाओं तथा सभी तंत्र व्यवस्थाओं को प्रभावित करता है । समग्र रूप से यह शारीर में जीव-विष को शरीर में धारण करने के लिये उत्पन्न कर सकता है ।
तीखा स्वाद (अग्नि एवं वायु तत्व)
तीखे खाद्पदार्थों में प्याज, चोकीगोभी, शोभांजन, अदरख, सरसों, लाल मिर्च चूर्ण एवं केश्वास शामिल हैं । तीखे खाद्पदार्थों में उच्च उपचारिक गुण होते हैं; उनका नमकीन भोजन के विपरीत प्रभाव होता है ।यह तंतुओं के द्रव की मात्रा को कम कर देता है, श्वाँस में सुधार लाता है एवं ध्यान केन्द्रित करने की शक्ति में सुधार लाता है । तीखी जड़ी-बूटियाँ मन को उत्तेजित करता है तथा मस्तिष्क में रक्त-संचार की वृद्धि करता है । तीखे स्वाद का अति सेवन अनिद्रा, बेचैनी तथा चिंता को बढ़ा सकता है ।
कड़वा स्वाद (वायु एवं आकाश तत्व)
कड़वे खाद्पदार्थ सामान्य रूप से हरी सब्जियों, चाय से संबंधित है । कड़वा भोजन पाचन एवं चयापचयी दर में सहायता करता है ।
कसैला स्वाद (वायु एवं पृथ्वी तत्व)
इस श्रेणी में आनेवाले खाद्पदार्थों में अजवाइन, खीरा, बैंगन, काहू, कुकुरमुत्ता हैं । सेव, रूचिरा, झड़बेरी, अंगूर एवं नाशपाती भी कसैले होते हैं । फल प्राय: शरीर के द्रवों, लसीका एवं पसीने की सफाई का काम करता है । यह केशिका छिद्र रोकने का भी काम करता है;
त्वचा एवं बलगम झिल्ली का उपचार करता है ।
भोजन तीन प्रकार के हो सकते हैं - सात्विक, राजसिक एवं तामसिक । आयुर्वेद एक स्वस्थ जीवन के लिये सात्विक आहार पर बल देता है तथा शरीर एवं मन दोनों में आनन्दमय स्थिति का समर्थन करता है ।सात्विक आहार का मूल रूप से योग के अभ्यास एवं उच्चतर चेतना के लिये तैयार किया गया था । सात्विक भोजन मन को बेचैन कर या सुस्त कर उस पर अस्थिरकारी प्रभाव डालता है । राजसी भोजन प्याज, लाल मिर्च, शराब, लहसुन, लाल मांस एवं गर्म काली मिर्च के समान अत्यधिक मसालेदार, नमकीन एवं खट्टे होते हैं । तामसिक भोजन अतिक्रियाशीलता, आलस्य एवं अति निद्रा उत्पन्न करता है; वे इन्द्रियों को सुस्त करते हैं एवं आवेग को तीव्र तथा प्रभावशून्य रखते हैं । तामसी भोजन, बासी, पुराने, पुन: पकाये हुए, कृत्रिम, अति तले हुए, चर्बीदार या भारी भोजन होते हैं । इसमें सभी "मृत" भोजन जैसे मांस और मछली, खमीरयुक्त खादपदार्थ तथा मादक पदार्थ शामिल हैं । राजसी एवं तामसी खादपदार्थ दोनों में एक संतुलित, एक समान मन-शरीर अनुभव को अवलंबित करने की क्षमता नहीं है ।
तीन संघटनात्मक प्रकार: वात पित्त एवं कफ
संघटनात्मक प्रकारों की संकल्पना बताती है कि हम सभी एक समान हैं (आखिरकार हम सब एक ही उपजाति हैं), लेकिन हमारे बीच विभिन्नताएँ भी हैं । आयुर्वेदिक औषधि ने मानव जनसंख्या में अवलोकित किये गये भेद को दर्ज किया तथा यह ध्यान किया कि लोगों में विभिन्न स्थितियों में तीन मूल प्रवृत्तियाँ या आद्यप्ररूपीय प्रतिक्रयाएँ होती हैं । पूरे जीवन-काल में दो अन्य प्रतिक्रियाओं के प्रति एक प्रतिक्रिया से संघटनात्मक प्रकार प्राप्त होता है । तीन संघटनात्मक प्रकारों के अलग-अलग मनोभाव होते हैं । उनके तंत्रिका तंत्र विभिन्न खिंचावों पर स्थापित रहते हैं । वे भोजन को विभिन्न ढ़ंग से खाते एवं पचाते हैं। उनके पसन्द अलग-अलग होते हैं, और विव्भिन्न भोजन उन्हें परेशान कर देते हैं। जब वे परेशान रहते हैं तो उनमें विभिन्न मनोभवों को व्यक्त करने की प्रवृत्ति होती है । अधिकांश लोग विभिन्न प्रकारों के एक सम्मिश्रण होते हैं इसलिये किसी व्यक्ति में व्याप्त प्रत्येक प्रकार का निर्धारण करने के लिये कुछ अवलोकन की आवश्यकता होती है । कोई व्यक्ति कैसा है इसकी एक समझ उसकी बीमारी के पहले भी हो सकती है और कुछ निरोधक दृष्टिकोण भी सुझाये ज सकते हैं । एक बार यदि हम यह जान जान जाते हैं कि व्यक्ति किस संघटनात्मक प्रकार का है तो हम यह समझते हैं कि पर्यावरण के कौन से उत्प्रेरक, किस प्रकार के भोजन, पाक-तकनीक, रंग, पोशाक या निद्रा के स्वरूप उसके लिये बेहतर हैं । इनमें से कुछ प्रभाव एक प्रकार के लिये असंतुलनकारी होंगे किन्तु अन्य के लिये नहीं ।
आयुर्वेदिक भोजन प्राय: अपनी उपचारिक शक्तियों से जुड़ी रहती है जिनसे बीमारी की रोकथाम एवं इलाज के साथ चिकित्सा-स्वास्थ्य लाभ होता है । तथापि सही भोजन सम्मिश्रण का चुनाव करना कभी भी सरल नहीं रहा है । भोजन का मन, मनोभावों, शारीरिक एवं शरीर के प्रतिरक्षी अनुक्रियाओं पर एक सशक्त प्रभाव पड़ता है । एक विशिष्ट भोजन का व्यक्ति पर प्रभाव अनेक कारकों जैसे कि शरीर का भार, प्रत्यूर्जता आदि पर निर्भर करता है । आयुर्वेदिक पाक-विधि सरल पाचन एवं हमारे द्वारा सेवन किये जानेवाले भोजन से पोषक तत्वों को अवशोषित करने की शरीर की क्षमता पर ध्यान केन्द्रित करता है ।
यदि किसी का आहार असंतुलित है तो वात, पित्त एवं कफ का मूल प्रभाव असंतुलित हो जाता है । सही भोजन, मसालों एवं तैयारी के साथ कोई अपने आहार में सुधार ला सकता है एवं किसी भोजन में वात, पित्त एवं कफ के प्रभावों में संतुलन बनाये रख सकता है ।मसालों के एक मूल सम्मिश्रण जो शरीर में सभी तीन प्रभावों वात, पित्त एवं कफ को संतुलित करते है वे हल्दी, जीरा एवं धनिया हैं ।ये तीन मूल मसाले एक स्वादिष्ट सब्जी मसाले को तैयार करते हैं जिसे आप किसी भी भाजी में प्रयोग कर सकते हैं । इनके अनुपात हैं हल्दी 1 भाग, जीरा 2 भाग, धनिया 3 भाग । ताजे अदरक या धनिया, धनिया पौधे के ताजे पत्ते के साथ समूचे बीज से ताजे पिसे हुए इन मसालों के प्रयोग से कोई भी भोजन आनन्दमय एवं संतुलित अनुभव देता है ।
शरीर को ऋतुओं के अनुसार अनुकूल बनाने के लिये आयुर्वेद विभिन्न ऋतुओं के लिये विभिन्न आहारों की सलाह देता है । उदाहरण के लिये, ग्रीष्म ऋतु में, जो कि पित्त ऋतु है, जब किसी के लिये मुँहासे एवं छाले होने की संभावना अधिक रहती है तो पित्त दोष के असंतुलन से मदद के लिये हल्के ठंढ़े फल एवं सलाद खाने की सलाह दी जाती है ।
आयुर्वेदिक पाक-विधि ताजे भोजन खाने की सलाह देता है क्योंकि यह अधिकतम मात्रा में ऊर्जा प्रदान करता है, यह रोज की आदत के रूप में बचा-खुचा या संसाधित खाद्य खाने को बढ़ावा नहीं देता है क्योंकि उनमें आवश्यक ऊर्जा का अभाव होता है । आयुर्वेदिक पाक सिद्धांत यह भी सलाह देता है कि सब्जियों को पका कर खाना चाहिये बनिस्बत कच्चा खाने के चूँकि पकाने से पाचन में सुधार होता है ।
आनंद भी एक पूर्ण संतुलित आहार के लिये एक आवश्यक घटक है । ताजे मौसमी समूचे खाद्य पदार्थ, जड़ी-बूटियाँ एवं मसालों का प्रयोग कर एक स्वादिष्ट भोजन का आनंद उठाने से इसका हमारे स्वास्थ्य एवं तंदुरूस्ती पर एक बड़ा अनुकूल प्रभाव पड़ता है । भोजन में सभी छ: स्वादों का होना एवं सभी पाँच इन्द्रियों का संतुष्ट होना पाचन क्रिया को सक्रिय बना देता है जिससे कि हम खाये जानेवाले अपने भोजन को पूर्णत: पचाकर शरीर में मिला सकते हैं । वस्तुत: भिन्नता जीवन का मसाला है । विभिन्न प्रकार के स्वाद, बनावट, रंग, भोजन के प्रकार एवं मसाले, ये सभी वात, पित्त एवं कफ में संतुलन बनाये रखने के लिये जीवतत्व को पोषण प्रदान करते हुए पाचन प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। एक आयुर्वेदिक बावर्ची के रूप में भोजन पकाते समय हमें जो सबसे महत्वपूर्ण मसाला प्रदान करना चाहिये वह है हमारा अपना सुखद प्रेममय लक्ष्य । जब हम किसी के लिये कुछ बनाते हैं तो हम कुछ वह देते हैं जो कि अपना होता है । यह वस्तुत: एक ईश्वरीय उपहार हो सकता है । हमारा प्रेम एवं आनंद हमारे द्वारा तैयार किये जानेवाले भोजन में प्रत्यक्षत: जाता है एवं जो इसका आनंद उठाते हैं उनमें सजीव हो जाता है ।
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