अथ कुंजिकस्त्रोत्र प्रारंभ:
श्री गणेशाय नमः
ॐ अस्य श्री कुन्जिका स्त्रोत्र मंत्रस्य सदाशिव ऋषि:॥
अनुष्टुपूछंदः ॥ श्रीत्रिगुणात्मिका देवता ॥
ॐ ऐं बीजं ॥ ॐ ह्रीं शक्ति: ॥ ॐ क्लीं कीलकं ॥
मम सर्वाभीष्टसिध्यर्थे जपे विनयोग: ॥
।।शिव उवाच।।
श्री गणेशाय नमः
ॐ अस्य श्री कुन्जिका स्त्रोत्र मंत्रस्य सदाशिव ऋषि:॥
अनुष्टुपूछंदः ॥ श्रीत्रिगुणात्मिका देवता ॥
ॐ ऐं बीजं ॥ ॐ ह्रीं शक्ति: ॥ ॐ क्लीं कीलकं ॥
मम सर्वाभीष्टसिध्यर्थे जपे विनयोग: ॥
।।शिव उवाच।।
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि, कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्र प्रभावेण, चण्डी जापः शुभो भवेत।।
न कवचं नार्गला-स्तोत्रं, कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च, न न्यासो न च वार्चनम्।।
कुंजिका पाठ मात्रेण, दुर्गा पाठ फलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि, देवानामपि दुलर्भम्।।
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति
मारणं मोहनं वष्यं स्तम्भनोव्च्चाटनादिकम्।
पाठ मात्रेण संसिद्धयेत् कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।।
|| अथ महामंत्र ||
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।
नमस्ते रूद्र रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि।
नमः कैटभ हारिण्यै, नमस्ते महिषार्दिनि।।1
नमस्ते शुम्भ हन्त्र्यै च, निशुम्भासुर घातिनि।
जाग्रतं हि महादेवि जप, सिद्धिं कुरूष्व मे।।2
ऐं-कारी सृष्टि-रूपायै, ह्रींकारी प्रतिपालिका।
क्लींकारी काल-रूपिण्यै, बीज रूपे नमोऽस्तुते।।3
चामुण्डा चण्डघाती च, यैकारी वरदायिनी।
विच्चे नोऽभयदा नित्यं, नमस्ते मन्त्ररूपिणि।।4
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नीः, वां वीं वागेश्वरी तथा।
क्रां क्रीं श्रीं में शुभं कुरू, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।5
ॐॐॐ कार-रूपायै, ज्रां ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिकादेवि ! शां शीं शूं में शुभं कुरू।।6
ह्रूं ह्रूं ह्रूंकार रूपिण्यै, ज्रं ज्रं ज्रम्भाल नादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे ! भवानि ते नमो नमः।।7
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव।
आविर्भव हं सं लं क्षं मयि जाग्रय जाग्रय
त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरू कुरू स्वाहा।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।।8
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुंजिकायै नमो नमः।
सां सीं सप्तशती सिद्धिं, कुरूश्व जप-मात्रतः।।9
।।फल श्रुति।।
इदं तु कुंजिका स्तोत्रं मन्त्र-जागर्ति हेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति।।
यस्तु कुंजिकया देवि, हीनां सप्तशती पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।।
यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर-कृतानि च।
तानि तानि प्रणश्यन्ति, प्रदक्षिणं पदे पदे।।
एतस्यास्त्वं प्रसादन, सर्व मान्यो भविष्यसि।
सर्व रूप मयी देवी, सर्वदेवीमयं जगत्।।
अतोऽहं विश्वरूपां तां, नमामि परमेश्वरीम्।।
यथा-अपराध सहस्त्राणि, क्रियन्तेऽहर्निषं मया।
दासोऽयमिति मां मत्वा, क्षमस्व परमेश्वरि।।
आवाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि, क्षम्यतां परमेश्वरि।।
मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वरि ।
यत् पूजितम् मया देवि ! परिपूर्णं तदस्तु मे।।
अपराध शतं कृत्वा, जगदम्बेति चोच्चरेत्।
या गतिः समवाप्नोति, न तां ब्रह्मादयः सुराः।।
सापराधोऽस्मि शरणं, प्राप्यस्त्वां जगदम्बिके ।
इदानीमनुकम्प्योऽहं, यथेच्छसि तथा कुरू।।
अज्ञानाद् विस्मृतेर्भ्रान्त्या, यन्न्यूनमधिकं कृतम्।
तत् सर्वं क्षम्यतां देवि ! प्रसीद परमेश्वरि ।
कामेश्वरि जगन्मातः, सच्चिदानन्द-विग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या, प्रसीद परमेश्वरि ।
गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री त्वं, गुहाणास्मत् कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि ! त्वत् प्रसादात् सुरेश्वरि।।
। इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ।
इसका अर्थ इस प्रकार है :
शिवजी बोले- देवी! सुनो। मैं उत्तम कुञ्जिकास्तोत्र का उपदेश करूँगा, जिस मन्त्र के प्रभाव से देवी का जप (पाठ) सफल होता है॥1॥
कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त , ध्यान, न्यास यहाँ तक कि अर्चन भी (आवश्यक) नहीं है॥2॥
केवल कुञ्जिका के पाठ से दुर्गा-पाठ का फल प्राप्त हो जाता है। यह (कुञ्जिका) अत्यन्त गुप्त और देवों के लिये भी दुर्लभ है॥3॥
हे पार्वती! इसे स्वयोनि की भाँति प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये। यह उत्तम कुञ्जिकास्तोत्र केवल पाठ के द्वारा मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि (आभिचारिक) उद्देश्यों को सिद्ध करता है॥4॥
मन्त्र : ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥ ऊँ ग्लौं हुं क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा (इस मन्त्र में आये बीजों का अर्थ जानना न सम्भव है, न आवश्यक और न वाञ्छनीय... केवल जप पर्याप्त है...)
हे रुद्रस्वरूपिणी! तुम्हें नमस्कार...हे मधु दैत्य को मारने वाली! तुम्हें नमस्कार है...कैटभविनाशिनी को नमस्कार... महिषासुर को मारने वाली देवी! तुम्हें नमस्कार है॥1॥
शुम्भ का हनन करने वाली और निशुम्भ को मारने वाली! तुम्हें नमस्कार है॥2॥
हे महादेवि! मेरे जप को जाग्रत् और सिद्ध करो। ऐंकार के रूप में सृष्टिस्वरूपिणी, ह्रीं के रूप में सृष्टि-पालन करने वाली॥3॥
कीं रूप में कामरूपिणी तथा (निखिल ब्रह्माण्ड) की बीजरूपिणी देवी! तुम्हें नमस्कार है... चामुण्डा के रूप में चण्डविनाशिनी और यैकार के रूप में तुम वर देने वाली हो॥4॥
विच्चे रूप में तुम नित्य ही अभय देती हो। (इस प्रकार ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) तुम इस मन्त्र का स्वरूप हो॥5॥
धां धीं धूं के रूप में धूर्जटी (शिव) की तुम पत्नी हो। वां वीं वूं के रूप में तुम वाणी की अधीश्वरी हो। क्रां क्रीं क्रू के रूप में कालिका देवी, शां शीं शूं के रूप में मेरा कल्याण करो॥6॥
हुं हुं हुंकार स्वरूपिणी, जं जं जं जम्भनाशिनी, भ्रां भ्रीं भ्रूं के रूप में हे कल्याणकारिणी भैरवी भवानी! तुम्हें बार-बार प्रणाम॥7॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं... धिजाग्रं धिजाग्रं इन सबको तोडो और दीप्त करो करो स्वाहा... पां पीं पूं के रूप में तुम पार्वती पूर्णा हो... खां खीं खूं के रूप में तुम खेचरी (आकाशचारिणी) अथवा खेचरी मुद्रा हो॥8॥
सां सीं सूं स्वरूपिणी सप्तशती देवी के मन्त्र को मेरे लिये सिद्ध करो...यह कुञ्जिकास्तोत्र मन्त्र को जगाने के लिये है...इसे भक्तिहीन पुरुष को नहीं देना चाहिय...हे पार्वती! इसे गुप्त रखो... हे देवी! जो बिना कुञ्जिका के सप्तशती का पाठ करता है उसे उसी प्रकार सिद्धि नहीं मिलती जिस प्रकार वन में रोना निरर्थक होता है...
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