जानिये....अति दुर्लभ मृतसंजीवनी महामृत्युंजय मंत्र की महिमा.........
यह जो मंत्र आज मैं आपको बताने जा रहा हूँ यह मूल रूपेण मंत्रराज है, जीवन में रोग, द्वेष, व्यधि, पीड़ा, कष्ट, शत्रु, भय व काल, सभी कुछ इसके समक्ष शून्य है | या कभी जीवन में ऐसा भी समय आता है जब कोई रास्ता न दिखाई दे, जीवन अंधकारमय लगने लगे तब इस मंत्र का जाप व अनुष्ठान खुद करे या आचार्य से करवा ले ।
एवमारध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमेश्वरं । मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत् सदा ॥१॥
गौरीपति मृत्युञ्जयेश्र्वर भगवान् शंकर की विधिपूर्वक आराधना करने के पश्र्चात भक्त को सदा मृतसञ्जीवन नामक कवचका सुस्पष्ट पाठ करना चाहिये ॥१॥
सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं । महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं ॥ २॥
महादेव भगवान् शंकर का यह मृतसञ्जीवन नामक कवच का तत्त्व का भी तत्त्व है, पुण्यप्रद है गुह्य और मङ्गल प्रदान करने वाला है ॥२॥
समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं । शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥३॥
[आचार्य शिष्यको उपदेश करते हैं कि – हे वत्स! ] अपने मनको एकाग्र करके इस मृतसञ्जीवन कवच को सुनो । यह परम कल्याणकारी दिव्य कवच है । इसकी गोपनीयता सदा बनाये रखना ॥३॥
वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः । मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥४॥
जरा से अभय करने वाले, निरन्तर यज्ञ करने वाले, सभी देवत ओं से आराधित हे मृत्युञ्जय महादेव ! आप पर्व-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें ॥४॥
दधाअनः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः ।सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥५॥
अभय प्रदान करने वाली शक्ति को धारण करने वाले, तीन मुखों वाले तथा छ: भुजओं वाले, अग्रिरूपी प्रभु सदाशिव अग्रिकोण में मेरी सदा रक्षा करें ॥५॥
अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः । यमरूपि महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु ॥६॥
अट्ठारह भुजाओं से युक्त, हाथ में दण्ड और अभयमुद्रा धारण करने वाले, सर्वत्र व्याप्त यमरुपी महादेव शिव दक्षिण-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें ॥६॥
खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः । रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु ॥७॥
हाथ में खड्ग और अभय मुद्रा धारण करने वाले, धैर्यशाली, दैत्यगणों से आराधित रक्षो रुपी महेश नैर्ऋत्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें ॥७॥
पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः । वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु ॥८॥
हाथ में अभय मुद्रा और पाश धाराण करने वाले, शभी रत्नाकरों से सेवित, वरुण स्वरूप महादेव भगवान् शंकर पश्चिम- दिशा में मेरी सदा रक्षा करें ॥८॥
गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः । वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा ॥९॥
हाथों में गदा और अभय मुद्रा धारण करने वाले, प्राणोके रक्षक, सर्वदा गतिशील वायुस्वरूप शंकरजी वायव्य कोण में मेरी सदा रक्षा करें ॥९॥
शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः । सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः ॥१०॥
हाथों में शंख और अभय मुद्रा धारण करने वाले नायक (सर्वमार्गद्रष्टा) सर्वात्मा सर्वव्यापक परमेश्वर भगवान् शिव समस्त दिशाओं के मध्य में मेरी रक्षा करें ॥१०॥
शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः । ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥११॥
हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सभी विद्याओंके स्वामी, ईशानस्वरूप भगवान् परमेश्व शिव ईशानकोणमें मेरी रक्षा करें ॥११॥
ऊर्ध्वभागे ब्रःमरूपी विश्वात्माऽधः सदावतु । शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः॥१२॥
ब्रह्मरूपी शिव मेरी ऊर्ध्वभाग में तथा विश्वात्मस्वरूप शिव अधोभाग में मेरी सदा रक्षा करें । शंकर मेरे सिर की और चन्द्रशेखर मेरे ललाट की रक्षा करें ॥१२॥
भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचनेऽवतु । भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥१३॥
मेरे भौंहों के मध्यमें सर्वलो केश और दोनों नेत्रों की त्रिनेत्र भगवान् शंकर रक्षा करें, दोनों भौंहों की रक्षा गिरिश एवं दोनों कानों को रक्षा भगवान् महेश्वर करें ॥१३॥
नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः । जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु ॥१४॥
महादेव मेरी नासीका की तथा वृषभ ध्वज मेरे दोनों ओठों की सदा रक्षा करें । दक्षिणा मूर्ति मेरी जिह्वा की तथा गिरिश मेरे दाँतों की रक्षा करें ॥१४॥
मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः । पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम ॥१५॥
मृत्युञ्जय मेरे मुख की एवं नाग भूषण भगवान् शिव मेरे कण्ठ की रक्षा करें । पिनाकी मेरे दोनों हाथों की तथा त्रिशूली मेरे हृदय की रक्षा करें ॥१५॥
पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः । नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः ॥१६॥
पञ्चवक्त्र मेरे दोनों स्तनो की और जगदीश्वर मेरे उदर की रक्षा करें । विरूपाक्ष नाभि की और पार्वती पति पार्श्वभाग की रक्षा करें ॥१६॥
कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः । गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः ॥१७॥
गिरीश मेरे दोनों कटिभाग की तथा प्रमथाधिप पृष्टभाग की रक्षा करें । महेश्वर मेरे गुह्यभाग की और भैरव मेरे दोनों ऊरुओं की रक्षा करें ॥१७॥
जानुनी मे जगद्दर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका । पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥१८॥
जगद्धर्ता मेरे दोनों घुटनों की, जगदम्बिका मेरे दोनों जंघो की तथा लोकवन्दनीय सदाशिव निरन्तर मेरे दोनों पैरों की रक्षा करें ॥१८॥
गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम । मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः ॥१९॥
गिरीश मेरी भार्या की रक्षा करें तथा भव मेरे पुत्रों की रक्षा करें । मृत्युञ्जय मेरे आयु की गणनायक मेरे चित्त की रक्षा करें ॥१९॥
सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः । एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम् ॥२०॥
कालों के काल सदाशिव मेरे सभी अंगो की रक्षा करें । [ हे वत्स ! ] देवताओं के लिये भी दुर्लभ इस पवित्र कवच का वर्णन मैंने तुमसे किया है ॥२०॥
मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम् । सह्स्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥२१॥
महादेवजी ने मृतसञ्जीवन नामक इस कवच को कहा है । इस कवच की सहस्त्र आवृत्ति को पुरश्चरण कहा गया है ॥२१॥
यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः । सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥२२॥
जो अपने मन को एकाग्र करके नित्य इसका पाठ करता है, सुनता अथावा दूसरों को सुनाता है, वह अकाल मृत्यु को जीतकर पूर्ण आयु का उपयोग करता है ॥ २२॥
हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ । आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥२३॥
जो व्यक्ति अपने हाथ से मरणासन्न व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करते हुए इस मृतसञ्जीवन कवच का पाठ करता है, उस आसन्नमृत्यु प्राणी के भीतर चेतनता आ जाती है । फिर उसे कभी आधि-व्याधि नहीं होतीं ॥२३॥
कालमृयुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा । अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥२४॥
यह मृतसञ्जीवन कवच काल के गाल में गये हुए व्यक्ति को भी जीवन प्रदान कर देता है और वह मानवोत्तम अणिमा आदि गुणों से युक्त ऐश्वर्य को प्राप्त करता है ॥२४॥
युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं । युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥२५॥
युद्ध आरम्भ होने के पूर्व जो इस मृतसञ्जीवन कवच का २८ बार पाठ करके रणभूमि में उपस्थित होता है, वह उस समय सभी शत्रुऔं से अदृश्य रहता है ॥२५॥
न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै । विजयं लभते देवयुद्दमध्येऽपि सर्वदा ॥२६॥
यदि देवतऔं के भी साथ युद्ध छिड जाय तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नही कर सकते, वह विजय प्राप्त करता है ॥२६॥
प्रातरूत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं । अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥२७॥
जो प्रात:काल उठकर इस कल्याणकारी कवच सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा परलोक में भी अक्षय्य सुख प्राप्त होता है ॥२७॥
सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः । अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥२८॥
वह सम्पूर्ण व्याधियों से मुक्त हो जाता है, सब प्रकार के रोग उसके शरीर से भाग जाते हैं । वह अजर-अमर होकर सदा के लिये सोलह वर्षवाला व्यक्ति बन जाता है ॥२८॥
विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान् । तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम् ॥२९॥
इस लोक में दुर्लभ भोगों को प्राप्त कर सम्पूर्ण लोकों में विचरण करता रहता है । इसलिये इस महा गोपनीय कवच को मृतसञ्जीवन नाम से कहा है ॥२९॥
मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम् ॥३०॥
यह देवतओं के लिय भी दुर्लभ है ॥३०॥
॥ इति वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् ॥
॥ इस प्रकार मृतसञ्जीवन कवच सम्पूर्ण हुआ ॥
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