महिम्नः पारं ते परमविदुषो यज्ञसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीना मपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामधि गृणन्
ममाप्येषः स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ॥१॥
१. हे प्रभु ! बड़े बड़े पंडित और योगीजन आपके महिमा को नहीं जान पाये तो मैं तो एक साधारण बालक हूँ, मेरी क्या गिनती ? लेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती ? मैं ये नहीं मानता क्योंकि अगर ये सच है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहेलायेगी । मैं तो ये मानता हूँ कि सबको अपनी मति अनुसार स्तुति करने का हक है । इसलिए हे भोलेनाथ ! आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति का स्वीकार करें ।
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाड् मनसयो
रतद्व्यावृत्यायं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥२॥
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत
स्तव ब्रह्मन्किं वा गपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेस्मिन् पुरमथनबुद्धिर्व्यवसिता ॥३॥
तवैश्चर्यें यत्तद् जगदुदयरक्षाप्रलयकृत
त्रयी वस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहंतुं व्योक्रोशीं विदधत इहै के जडधियः ॥४॥
४. हे प्रभु, आप इस सृष्टि के सृजनहार है, पालनहार है और विसर्जनकार है । इस प्रकार आपके तीन स्वरूप है – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा आप में तीन गुण है – सत्व, रज और तम । वेदों में इनके बारे में जीक्र किया गया है फिर भी अज्ञानी लोग आपके बारे में उटपटांग बातें करते रहते है । एसा करने से भले उन्हें संतुष्टि मिलती हो, मगर हकिकत से वो मुँह नहीं मोड़ सकते ।
किमिहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं ।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ॥
अतकर्यैश्वर्येत्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः ।
कुतर्कोडयंकांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥५॥
५. हे प्रभु, मूर्ख लोग अक्सर तर्क करते रहते है कि ये सृष्टि की रचना कैसे हुई, किसकी ईच्छा से हुई, किन चिजों से उसे बनाया गया वगैरह वगैरह । उनका उद्देश्य लोगों में भ्रांति पैदा करने के अलावा कुछ नहि । सच पूछो तो ये सभी प्रश्नों के उत्तर आपकी दिव्य शक्ति से जुड़े है और मेरी सीमित शक्ति से उसे बयाँ करना असंभव है
अजन्मानो लोकाः किमवयवंवतोडपि जगता ।
मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादत्य भवति ॥
अनीशो वा कुर्याद भुवनजनने कः परिकरो ।
यतो मंदास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥६॥
त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्या दजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्य स्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥७॥
७. हे प्रभु ! आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग है - सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि । लोग अपनी रुचि के मुताबिक कोई एक मार्ग को पसंद करते है । मगर आखिरकार ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समंदर में जाकर मिलता है वैसे ही, आप तक पहूँचते है । सचमुच, किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है ।
महोक्षः खड्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीय त्तव वरद तंत्रोपकरणम् ।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भव द्भ्रूप्रणिहितां
नहि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ॥८॥
८. हे प्रभु, आपने केवल एक दृष्टिपात से देवगण को सर्व भोग-सुख से संपन्न कर दिया, मगर अपने लिए क्या छोडा ? सिर्फ कुल्हाडी, बैल, व्याघ्रचर्म, शरीर पर भस्म तथा हाथ में खप्पर (खोपड़ी) ! इससे ये फलित होता है कि जो आत्मानंद में लीन रहता है वो संसार के भोगपदार्थो में नहीं फँसता ।
ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वद्ध्रुवमिदं
परो ध्रोव्याध्रोव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।
समस्तेडप्येतस्मि न्पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवंजिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥९॥
९. हे प्रभु, कोई कहता है कि ये जगत सत्य है, तो कोई कहता है ये असत्य और अनित्य है । लोग जो भी कहें, आपके भक्त तो आपको हमेंशा सत्य मानते है और आपकी भक्ति मे आनंद पाते है । मैं भी उनका समर्थन करता हूँ, चाहे किसीको मेरा ये कहेना ज्यादा लगे, मुझे उसकी परवाह नहीं ।
तवैश्वर्यं यत्ना द्यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः
परिच्छेतुं याता वनलमनलस्कंधवपुषः ।
ततो भक्तिश्रद्धा भरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिने फलति ॥१०॥
१०. हे प्रभु ! जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद हुआ की दोनों में से कौन महान है, तब आपने उनकी परीक्षा करने के लिए अग्निस्तंभ का रूप लिया । ब्रह्मा और विष्णु - दोनोंनें स्तंभ को अलग अलग छोर से नापने की कोशिश की मगर वो नाकामियाब रहे । आखिरकार अपनी हार मानकर उन्होंने आपकी स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर आपने अपना मुल रूप प्रकट किया । सचमुच, अगर कोई सच्चे दिल से आपकी स्तुति करे और आप प्रकट न हों एसा कभी हो सकता है भला ?
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहू नभृन रणकंडुपरवशान् ।
शिरःपद्मश्रेणी रचितचरणांभोरुहबलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्ते स्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ॥११॥
११. हे त्रिपुरानाशक ! आपके परम भक्त रावण ने पद्म की जगह अपने नौ-नौ मस्तक आपकी पूजा में समर्पित कर दिये । जब वो अपना दसवाँ मस्तक काटकर अर्पण करने जा रहा था तब आपने प्रकट होकर उसको वरदान दिया । ये वरदान की वजह से ही उसकी भुजाओं में अतूट बल प्रकट हुआ और वो तीनो लोक में शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ रहा । ये सब आपकी दृढ भक्ति का नतीजा है ।
अमुष्य त्वत्सेवा समधिगतसारं भुजवनं
बलात्कैलासेडपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।
अलभ्यापाताले डप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा प्रत्वय्या सीद्ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ॥१२॥
१२. आपकी परम भक्ति से रावण अतुलित बल का स्वामी बन बैठा मगर इससे उसने क्या करना चाहा ? आपकी पूजा के लिए हर रोज कैलाश जाने का श्रम बचाने के लिए कैलाश को उठाकर लंका में गाढ़ देना चाहा । जब कैलाश उठाने के लिए रावण ने अपनी भूजाओं को फैलाया तब पार्वती भयभीत हो उठी । उसे भयमुक्त करने के लिए आपने सिर्फ अपने पैर का अंगूठा हिलाया तो रावण जाकर पाताल में गिरा और वहाँ भी उसे स्थान नहीं मिला । सचमुच, जब कोई आदमी अनधिकृत बल या संपत्ति का स्वामी बन जाता है तो उसका उपभोग करने में विवेक खो देता है ।
यदद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती
मधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयस्त्रिभुवनः ।
न तच्चित्रं तस्मिंन्वरिवसितरि त्वच्चरणयो
र्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥१३॥
१३. हे प्रभु ! बाण जैसा साधारण राक्षस त्रिभुवन का स्वामी और देवराज ईन्द्र से ज्यादा ऐश्वर्यवान बन गया । लेकिन इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है क्योंकि वो आपका परम भक्त था । जो मनुष्य आपके चरण में श्रद्धाभक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है ।
अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा
विधेयस्यासीद्यस्त्रिनयविषं संह्रतवतः ।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोडपि श्लाध्यो भुवनभयभंगव्यसनिनः ॥१४॥
१४. हे प्रभु ! जब समुद्रमंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था । आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया । विषपान करने से आपके कंठ में नीला चिन्ह हो गया और आप नीलकंठ कहलाये । परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरुप बनाता है ? हरगिझ नहीं, ये तो आपकी शोभा को ओर बढाता है । जो व्यक्ति ओरों के दुःख दुर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजापात्र बन जाता है ।
असिद्धार्था नैव कवचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।
स पश्यन्नीश त्वामितरसरुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्यः परिभवः ॥१५॥
१५. हे प्रभु, जब आप समाधि में लीन थे तब (तारकासुर को मारने के लिए आपके द्वारा कोई पुत्र हो एसा सोचकर) देवोंने आपकी समाधि भंग करने के लिए कामदेव को भेजा । यूँ तो कामदेव के बाण मनुष्य हो या देवता - सब के लिए अमोघ सिद्ध होते है मगर आपने तो कामदेव को ही अपने तीसरे नेत्र से भस्मीभूत कर दिया । सचमुच, किसी संयमी मनुष्य का अपमान करने से अच्छा फल नहीं मिलता ।
मही पादाधाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।
मुहुद्यौंर्दोस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥१६॥
१६. जब विश्व की रक्षा के लिये आपने तांडव नृत्य करना प्रारंभ किया तब समग्र सृष्टि भय के मारे कांप उठी । आपके पदप्रहार से पृथ्वी को लगा कि उसका अंत समीप है, आपकी जटा से स्वर्ग में विपदा आ पड़ी और आपकी भुजाओं के बल से वैंकुंठ में खलबली मच गई । हे प्रभु ! सचमुच आपका बल अतिशय कष्टप्रद है ।
वियद्व्यापी तारागणगुणितफेनोद्गमरुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदष्टः शिरसि ते ।
जगद् द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ॥१७॥
१७. गंगा नदी जब मंदाकिनी के नाम से स्वर्ग से उतरती है तब नभोमंडल में चमकते हुए सितारों की वजह से उसका प्रवाह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है, मगर आपके शिर पर सिमट जाने के बाद तो वह एक बिंदु समान दिखाई पडती है । बाद में जब गंगाजी आपकी जटा से निकलती है और भूमि पर बहने लगती है तब बड़े बड़े द्वीपों का निर्माण करती है । ईससे पता चलता है कि आपका शरीर कितना दिव्य और महिमावान है ।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाडगे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणिः शर इति ।
दिधक्षोस्ते कोडयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिर्
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ॥१८॥
१८. हे प्रभु ! आप जब (तारकासुर के पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंश करने निकले तब आपने पृथ्वी का रथ बनाया, ब्रह्माजी को रथी किया, सूर्य और चंद्र के दो पहिये किये, मेरु पर्वत का धनुष्य बनाया और विष्णुजी का बाण लिया .. मगर ये सब दिखावा करने की आपको क्या जरूरत थी ? (अर्थात् आप स्वयं ईतने महान है कि आपको किसीका साथ लेने की जरूरत नहीं थी ।) आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रही) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी ।
हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयो
यदिकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।
गतो भकत्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ॥१९॥
१९. हे प्रभु ! हजार पद्मों से आपकी पूजा करने का विष्णुजी का नियम था । एक बार विष्णुजी की परीक्षा करने के लिए आपने एक पद्म गायब कर दिया । तब विष्णुजीने पद्म के बजाय अपना एक नेत्र आपके चरणों में अर्पित किया । उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर आपने विष्णुजी को सुदर्शन चक्र प्रदान किया । हे प्रभु, आप तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) की रक्षा के लिए सदैव जाग्रत रहते हो ।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दटपरिकरः कर्मसु जनः ॥२०॥
२०. हे प्रभु ! यज्ञ की समाप्ति होने पर आप यज्ञकर्ता को उसका फल देते हो । आपकी उपासना और श्रद्धा बिना किया गया कोई कर्म फलदायक नही होता । यही वजह है कि वेदों मे श्रद्धा रखके और आपको फलदाता मानकर हरकोई अपने कार्यो का शुभारंभ करते है ।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता
मृषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः ।
क्रतुभ्रंषस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥२१॥
२१. हे प्रभु, आप यज्ञकर्ता को हमेशा फल देते हो । मगर दक्ष प्रजापति का यज्ञ, जिसमें बड़े ऋषिमुनि यज्ञकर्ता थे और जिसे देखने के लिए कई देवता पधारे थे, उसे आपने नष्ट कर दिया, क्यूँकि उसमें आपका सम्मान नहीं किया गया । सचमुच, भक्ति के बिना किये गये यज्ञ किसी भी यज्ञकर्ता के लिए हानिकारक सिद्ध होते है ।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतंममुं
त्रसन्तं तेडद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥२२॥
२२. एक बार प्रजापिता ब्रह्मा को अपनी पुत्री पर मोह हुआ ।जब उसने मृगिनी का रूप धारण किया तो ब्रह्माजी ने मृग का रूप लिया । उश वक्त हे प्रभु ! आपने हाथ में धनुष्यबाण लेकर शिकारी का रूप लिया और ब्रह्मा को मार भगाया । ब्रह्माजी नभोमंडल में अदृश्य अवश्य हुए मगर आज तक आपसे डरते रहते है ।
स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दष्टवा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत देहार्धघटना
दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ॥२३॥
२३. हे त्रिपुरानाशक ! जब कामदेव ने आपकी तपश्चर्या में बाधा डालनी चाहि और आपके मन में पार्वती के प्रति मोह उत्पन्न करने की कोशिश की, तब आपने कामदेव को तृणवत् भस्म कर दिया । अगर तत्पश्चात् भी पार्वती ये समझती है कि आप उन पर मुग्ध है क्योंकि आपके शरीर का आधा हिस्सा उसका है, तो ये उसका भ्रम होगा । सच पूछो तो हर युवती अपनी सुंदरता पे मुग्ध होती है ।
स्मशानेष्वाक्रीडा स्महर पिशाचाः सहचरा
श्चिताभस्मालेपः स्तगपि नृकरोटीपरिकरः ।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथाडपि स्मर्तृणां वरद परमं मंगलमसि ॥२४॥
२४. हे प्रभु ! आप स्मशानवासी है, भूत-प्रेत आपके मित्र है, आपके शरीर पर भस्म का लेपन है और खोपडीयों की माला आपके गले में सुहाती है । अगर बाह्य रूप से देखा जाय तो आप में कुछ मंगल या शुभ नहीं दिखाई पडता, मगर जो मनुष्य आपका स्मरण करते है, उसका आप सदैव शुभ और मंगल करते है ।
मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुतः
प्रह्रष्यद्रोमाणः प्रमदसलिलोत्संगितदशः ।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्ज्यामृतमये
दद्यत्यंतस्तत्त्वं क्रिमपि यमिनस्तत्किल भवान् ॥२५॥
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह
स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयिपरिणता बिभ्रतु गिरं
न विद्मस्तत्तत्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥२६॥
त्रयीं तिस्त्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथोत्रीनपिसुरा
नकाराद्यैर्वर्णै स्त्रिभिरभिदधत्तीर्ण विकृतिः ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥२७॥
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहां
स्तथां भीमशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।
अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रवितरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मै धाम्ने प्रणिहितनमस्योडस्मि भवते ॥२८॥
नमो नेदिष्ठाय प्रियदवदविष्ठाय च नमो
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ।
नमोवर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठा च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमितिशर्वाय च नमः ॥२९॥
बहलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः ।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥३०॥
कृशपरिणति चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुणसीमोल्लंधिनी शश्वद्रद्धिः
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ॥३१॥
असितगिरिसमंस्यात् कज्जलं सिंधुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखिनी पत्रमुर्वि ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणाना मीश पारं न याति ॥३२॥
असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौले
र्ग्रथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।
सकलगणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो
रुचिरमलधुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ॥३३॥
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान्यः ।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाडत्र
प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीर्तिमांश्च ॥३४॥
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मंत्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ॥३५॥
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।
महिम्नस्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥३६॥
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः
शिशुशशिधरमौलेर्देव देवस्य दासः ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्नः ॥३७॥
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्रांजलिर्नान्यचेताः ।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥३८॥
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गंधर्वभाषितम् ।
अनौपम्यं मनोहारिशिवमीश्वरवर्णनम् ॥३९॥
३९. पुष्पदंत गांधर्व द्वारा रचित, भगवान शिव के गुणानुवाद से भरा, मनमोहक, अनुपम और पुण्यप्रदायक स्तोत्र यहाँ पर संपूर्ण होता है ।
इत्येषा वाडमयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयोः ।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ॥४०॥
तव तत्त्वं न जानामि कीद्शोडसि महेश्वर ।
याद्सोडसि महादेव ताद्शाय नमो नमः ॥४१॥
४१. हे प्रभु!हे महेश्वर!मैं आपका सही स्वरूप नहीं पहेचानता,लेकिन आप जैसे भी है, जो भी है,मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥४२॥
४२. अगर कोई मनुष्य यह स्तोत्र का (हररोज) केवल एक, दो या तीन बार भी पठन करेगा तो वह पवित्र और सर्व प्रकार के पाप से विमुक्त होकर शिवलोक में सुख और समृद्धि का हकदार होगा ।
श्री पुष्पदंतमुखपंकजनिर्गतेन
स्तोत्रेंण किल्बिहरेण हरप्रियेण ।
कंठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥४३॥
सायको-पागल-मतलबी-राक्षस तुक्छ भक्त
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