प्राचीन भारत में नागार्जुन नाम के महान रसायन शास्त्री हुए हैं। इनकी जन्म तिथि एवं जन्मस्थान के विषय में अलग-अलग मत हैं। एक मत के अनुसार इनका जन्म द्वितीय शताब्दी में हुआ था। नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर
बहुत शोध कार्य किया। रसायन शास्त्र पर इन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिनमें 'रस रत्नाकर' और 'रसेन्द्र मंगल' बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अपनी चिकित्सकीय सूझबूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार की। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें 'कक्षपुटतंत्र', 'आरोग्य मंजरी', 'योग सार' और 'योगाष्टक' हैं।
नागार्जुन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘रस रत्नाकार‘ दो रूपों में उपलब्ध है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इसी नाम के एक बौद्ध रसायनज्ञ ने इस पुस्तक का पुनरावलोकन किया। यह पुस्तक अपने में रसायन का तत्कालीन अथाह ज्ञान समेटे हुए हैं। नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन (डिस्टीलेशन) विधि वर्णित है। नागार्जुन के रस रत्नाकर में रजत के धातुकर्म का वर्णन तो विस्मयकारी है। रस रत्नाकर में वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं।
प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है। पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था।
भारत में पारद आश्रित रसविद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री-पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है। पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ, उसे रससिन्दूर कहा गया, जो आयुष्य-वर्धक सार के रूप में माना गया। ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है।
नागार्जुन से संबधित एक प्रेरणादायक घटना इस प्रकार है। नागार्जुन जब वृद्ध हो चले, तो उन्होंने एक बार राजा से कहा - 'राजन! प्रयोगशाला का काम बहुत बढ़ चला है। इसलिए मुझे अपने काम के लिए एक सहायक की आवश्यकता है।' राजा ने ध्यान से नागार्जुन की बात सुनी और कुछ सोचकर कहा- 'कल मैं आपके पास दो कुशल और योग्य नवयुवकों को भेजूँगा। आप उनमें से किसी एक का चयन अपने सहायक के रूप में कर लीजिएगा।' अगले दिन सवेरे दो नवयुवक नागार्जुन के पास पहुँचे। नागार्जुन ने उन्हें अपने पास बिठाया और उनसे उनकी योग्यताओं के बारे में पूछा। दोनों ही नवयुवक समान योग्यताएँ रखते थे। अब नागार्जुन के सामने यह समस्या उठ खड़ी हुई कि वह उन दोनों में से किसे अपना सहायक चुनें? बहुत सोच-विचार के बाद नागार्जुन ने उन दोनों को एक-एक पदार्थ दिया और उनसे कहा - 'यह क्या है, इस बारे में मैं तुम्हें कुछ नहीं बताऊँगा। तुम स्वयं इसकी पहचान करो और फिर इसका कोई एक रसायन अपनी मर्जी के अनुसार बनाकर लाओ। इसके बाद ही मैं यह निर्णय करूँगा कि तुम दोनों में से किसे अपना सहायक बनाऊँ?' दोनों युवक पदार्थ लेकर उठ खड़े हुए। तब नागार्जुन ने कहा - 'तुम लोगों की मैं परसों प्रतीक्षा करूँगा।' वह दोनों युवक जैसे ही जाने को हुए। नागार्जुन ने फिर कहा, 'और सुनो, घर जाने के लिए तुम्हें पूरा राजमार्ग तय करना होगा।' दोनों नवयुवक उनकी अजीब शर्त सुनकर हैरत में पड़ गए और सोचने लगे कि आचार्य उन्हें राजमार्ग पर से होकर ही जाने को क्यों कह रहे हैं? लेकिन आचार्य से उन्होंने इस बारे में कोई सवाल नहीं किया और वहाँ से चल दिए। तीसरे दिन सायं दोनों नवयुवक यथासमय नागार्जुन के पास पहुँचे। उनमें से एक नवयुवक काफी खुश दिखाई दे रहा था और दूसरा खामोश। नागार्जुन ने पहले युवक से पूछा 'क्यों भाई! वह रसायन तैयार कर लिया?' युवक ने तत्परता से प्रत्युत्तर दिया - 'जी हाँ! मैंने उस पदार्थ की पहचान कर रसायन तैयार कर लिया है।' तब नागार्जुन ने तैयार रसायन की परख की और उसके संबंध में युवक से कुछ प्रश्न किए। युवक ने उनके सही-सही उत्तर दे दिए। तब नागार्जुन ने दूसरे युवक से पूछा - 'तुम अपना रसायन क्यों नहीं लाए?' युवक ने उत्तर दिया - 'आचार्य जी! मुझे बहुत दुख है कि मैं रसायन बनाकर नहीं ला सका। हालाँकि मैंने आपके दिए हुए पदार्थ को पहचान लिया था।' 'लेकिन क्यों?' नागार्जुन ने पूछा। युवक ने उत्तर दिया - 'जी! मैं आपके आदेश के अनुसार राजमार्ग से होकर गुजर रहा था कि अचानक मैंने देखा कि एक पेड़ के नीचे एक वृद्ध और बीमार व्यक्ति पड़ा दर्द से कराह रहा है और पानी माँग रहा है। मुझसे उस वृद्ध की यह दशा देखी न गई और मैं उसे उठाकर अपने घर ले गया। मेरा सारा समय उसकी चिकित्सा और सेवा सुश्रुषा में लग गया। अब वह स्वास्थ्य लाभ कर रहा है। इसीलिए मैं आपके द्वारा दिए गए पदार्थ का रसायन तैयार न कर पाया। कृपया मुझे क्षमा करें।' इस पर नागार्जुन मुस्करा उठे और उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा - 'मैं तुम्हें अपना सहायक नियुक्त करता हूँ। अगले दिन जब नागार्जुन राजा से मिले तो राजा ने आश्चर्य से पूछा - 'आचार्य जी! मैं अब तक नहीं समझ पा रहा हूँ कि आपने रसायन बनाकर लाने वाले युवक के स्थान पर उस युवक को क्यों अपना सहायक बनाना स्वीकार किया, जो रसायन बनाकर नहीं ला सका?' तब नागार्जुन ने बताया - 'राजन! मैंने उचित ही किया है। जिस नवयुवक ने रसायन नहीं बनाया। उसने मानवता की सेवा की। दोनों नवयुवक एक ही रास्ते से गुजरे, लेकिन एक उस वृद्ध बीमार की सेवा के लिए रुक गया और दूसरा उसे अनदेखा कर चला गया। रसायन तो बहुत लोग तैयार कर सकते हैं किंतु अपने स्वार्थ को भूलकर मानवता की सेवा करने वाले सेवाभावी बहुत कम हुआ करते हैं। मेरे जीवन का ध्येय ही मानवता की सेवा करना है। और मुझे ऐसे ही व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो सच्चे मन से मानव सेवा कर सके। राजा नागार्जुन की यह अनुभव भरी व समझपूर्ण बात सुनकर उनके आगे श्रद्धा से नतमस्तक हो गया।
नागार्जुन नाम के ही एक बौद्ध रसायनज्ञ और दर्शनशास्त्री हुए हैं। इनका जन्म दक्षिण भारत के नागार्जुनकोंडा नमक स्थान पर हुआ। आन्ध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद से लगभग 150 क़िमी दूर कृष्णा नदी पर नागार्जुन सागर बाँध बनाया गया है। इस बाँध से निर्मित नागार्जुन सागर झील दुनिया की तीसरी सब से बड़ी मानव निर्मित झील है। नागार्जुन बाँध बनाते समय हुई खुदाई में नागार्जुनकोंडा में तीसरी शताब्दी के बौद्ध। यहाँ कभी बौद्ध विहार और एक विश्व विश्वविद्यालय हुआ करता था। नागार्जुन सागर परियोजना के द्वारा नागार्जुनकोंडा में मिले अवशेषों को झील के मध्य में स्थित द्वीप पर पुनर्स्थापित कर दिया गया है। झील के मध्य में स्थित नागार्जुन कोंडा और यहाँ पर बनाया गया संग्राहलय एक दर्शनीय स्थल है। नागार्जुन सागर से लगभग 200 क़िमी दूर श्रीसैल पर्वत पर बसा श्रीसैलम तीर्थ स्थल है। भारत में बारह ज्योतिर्लिंग हैं जिनमे से एक श्रीसैलम में है। शिवजी के स्वरूप को यहाँ श्री मल्लिकार्जुन स्वामी कहा जाता है। साथ ही यहां शक्तिपीठ भी है जहाँ देवी भ्रमरंभा की उपासना की जाती है। यह भारत का एक मात्र तीर्थ स्थल है जहाँ ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ एक ही स्थान पर है। पास में कृष्णा नदी है जो जंगलों और पहाडों के बीच से होकर निकलती है। नागार्जुनकोंडा और श्रीसैलम को कृष्णा नदी के साथ-साथ नागार्जुन भी एक सूत्र में पिरोते हैं। नागार्जुनकोंडा में रसायन शास्त्री नागार्जुन ने पारे और गंधक पर बारह वर्षों तक शोध कार्य किया। भारतीय दर्शन में पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया। श्रीसैलम में आज भी इन दो तत्वों की पूजा के लिए देश के कोने-कोने श्रृद्धालू आते हैं।
नागार्जुन से संबधित एक प्रेरणादायक घटना इस प्रकार है। नागार्जुन जब वृद्ध हो चले, तो उन्होंने एक बार राजा से कहा - 'राजन! प्रयोगशाला का काम बहुत बढ़ चला है। इसलिए मुझे अपने काम के लिए एक सहायक की आवश्यकता है।' राजा ने ध्यान से नागार्जुन की बात सुनी और कुछ सोचकर कहा- 'कल मैं आपके पास दो कुशल और योग्य नवयुवकों को भेजूँगा। आप उनमें से किसी एक का चयन अपने सहायक के रूप में कर लीजिएगा।' अगले दिन सवेरे दो नवयुवक नागार्जुन के पास पहुँचे। नागार्जुन ने उन्हें अपने पास बिठाया और उनसे उनकी योग्यताओं के बारे में पूछा। दोनों ही नवयुवक समान योग्यताएँ रखते थे। अब नागार्जुन के सामने यह समस्या उठ खड़ी हुई कि वह उन दोनों में से किसे अपना सहायक चुनें? बहुत सोच-विचार के बाद नागार्जुन ने उन दोनों को एक-एक पदार्थ दिया और उनसे कहा - 'यह क्या है, इस बारे में मैं तुम्हें कुछ नहीं बताऊँगा। तुम स्वयं इसकी पहचान करो और फिर इसका कोई एक रसायन अपनी मर्जी के अनुसार बनाकर लाओ। इसके बाद ही मैं यह निर्णय करूँगा कि तुम दोनों में से किसे अपना सहायक बनाऊँ?' दोनों युवक पदार्थ लेकर उठ खड़े हुए। तब नागार्जुन ने कहा - 'तुम लोगों की मैं परसों प्रतीक्षा करूँगा।' वह दोनों युवक जैसे ही जाने को हुए। नागार्जुन ने फिर कहा, 'और सुनो, घर जाने के लिए तुम्हें पूरा राजमार्ग तय करना होगा।' दोनों नवयुवक उनकी अजीब शर्त सुनकर हैरत में पड़ गए और सोचने लगे कि आचार्य उन्हें राजमार्ग पर से होकर ही जाने को क्यों कह रहे हैं? लेकिन आचार्य से उन्होंने इस बारे में कोई सवाल नहीं किया और वहाँ से चल दिए। तीसरे दिन सायं दोनों नवयुवक यथासमय नागार्जुन के पास पहुँचे। उनमें से एक नवयुवक काफी खुश दिखाई दे रहा था और दूसरा खामोश। नागार्जुन ने पहले युवक से पूछा 'क्यों भाई! वह रसायन तैयार कर लिया?' युवक ने तत्परता से प्रत्युत्तर दिया - 'जी हाँ! मैंने उस पदार्थ की पहचान कर रसायन तैयार कर लिया है।' तब नागार्जुन ने तैयार रसायन की परख की और उसके संबंध में युवक से कुछ प्रश्न किए। युवक ने उनके सही-सही उत्तर दे दिए। तब नागार्जुन ने दूसरे युवक से पूछा - 'तुम अपना रसायन क्यों नहीं लाए?' युवक ने उत्तर दिया - 'आचार्य जी! मुझे बहुत दुख है कि मैं रसायन बनाकर नहीं ला सका। हालाँकि मैंने आपके दिए हुए पदार्थ को पहचान लिया था।' 'लेकिन क्यों?' नागार्जुन ने पूछा। युवक ने उत्तर दिया - 'जी! मैं आपके आदेश के अनुसार राजमार्ग से होकर गुजर रहा था कि अचानक मैंने देखा कि एक पेड़ के नीचे एक वृद्ध और बीमार व्यक्ति पड़ा दर्द से कराह रहा है और पानी माँग रहा है। मुझसे उस वृद्ध की यह दशा देखी न गई और मैं उसे उठाकर अपने घर ले गया। मेरा सारा समय उसकी चिकित्सा और सेवा सुश्रुषा में लग गया। अब वह स्वास्थ्य लाभ कर रहा है। इसीलिए मैं आपके द्वारा दिए गए पदार्थ का रसायन तैयार न कर पाया। कृपया मुझे क्षमा करें।' इस पर नागार्जुन मुस्करा उठे और उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा - 'मैं तुम्हें अपना सहायक नियुक्त करता हूँ। अगले दिन जब नागार्जुन राजा से मिले तो राजा ने आश्चर्य से पूछा - 'आचार्य जी! मैं अब तक नहीं समझ पा रहा हूँ कि आपने रसायन बनाकर लाने वाले युवक के स्थान पर उस युवक को क्यों अपना सहायक बनाना स्वीकार किया, जो रसायन बनाकर नहीं ला सका?' तब नागार्जुन ने बताया - 'राजन! मैंने उचित ही किया है। जिस नवयुवक ने रसायन नहीं बनाया। उसने मानवता की सेवा की। दोनों नवयुवक एक ही रास्ते से गुजरे, लेकिन एक उस वृद्ध बीमार की सेवा के लिए रुक गया और दूसरा उसे अनदेखा कर चला गया। रसायन तो बहुत लोग तैयार कर सकते हैं किंतु अपने स्वार्थ को भूलकर मानवता की सेवा करने वाले सेवाभावी बहुत कम हुआ करते हैं। मेरे जीवन का ध्येय ही मानवता की सेवा करना है। और मुझे ऐसे ही व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो सच्चे मन से मानव सेवा कर सके। राजा नागार्जुन की यह अनुभव भरी व समझपूर्ण बात सुनकर उनके आगे श्रद्धा से नतमस्तक हो गया।
नागार्जुन नाम के ही एक बौद्ध रसायनज्ञ और दर्शनशास्त्री हुए हैं। इनका जन्म दक्षिण भारत के नागार्जुनकोंडा नमक स्थान पर हुआ। आन्ध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद से लगभग 150 क़िमी दूर कृष्णा नदी पर नागार्जुन सागर बाँध बनाया गया है। इस बाँध से निर्मित नागार्जुन सागर झील दुनिया की तीसरी सब से बड़ी मानव निर्मित झील है। नागार्जुन बाँध बनाते समय हुई खुदाई में नागार्जुनकोंडा में तीसरी शताब्दी के बौद्ध। यहाँ कभी बौद्ध विहार और एक विश्व विश्वविद्यालय हुआ करता था। नागार्जुन सागर परियोजना के द्वारा नागार्जुनकोंडा में मिले अवशेषों को झील के मध्य में स्थित द्वीप पर पुनर्स्थापित कर दिया गया है। झील के मध्य में स्थित नागार्जुन कोंडा और यहाँ पर बनाया गया संग्राहलय एक दर्शनीय स्थल है। नागार्जुन सागर से लगभग 200 क़िमी दूर श्रीसैल पर्वत पर बसा श्रीसैलम तीर्थ स्थल है। भारत में बारह ज्योतिर्लिंग हैं जिनमे से एक श्रीसैलम में है। शिवजी के स्वरूप को यहाँ श्री मल्लिकार्जुन स्वामी कहा जाता है। साथ ही यहां शक्तिपीठ भी है जहाँ देवी भ्रमरंभा की उपासना की जाती है। यह भारत का एक मात्र तीर्थ स्थल है जहाँ ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ एक ही स्थान पर है। पास में कृष्णा नदी है जो जंगलों और पहाडों के बीच से होकर निकलती है। नागार्जुनकोंडा और श्रीसैलम को कृष्णा नदी के साथ-साथ नागार्जुन भी एक सूत्र में पिरोते हैं। नागार्जुनकोंडा में रसायन शास्त्री नागार्जुन ने पारे और गंधक पर बारह वर्षों तक शोध कार्य किया। भारतीय दर्शन में पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया। श्रीसैलम में आज भी इन दो तत्वों की पूजा के लिए देश के कोने-कोने श्रृद्धालू आते हैं।
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