09 October 2012

!!! ऋषि द्रोणाचार्य !!!



Photo: द्रोणाचार्य ऋषि भारद्वाज के पुत्र और धर्नुविद्या निपुण परशुराम के शिष्य थे। कुरू प्रदेश में पांडु के पाँचों पुत्र तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के वे गुरु थे। महाभारत युद्ध के समय वह कौरव पक्ष के सेनापति थे। गुरु द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों में एकलव्य का नाम उल्लेखनीय है। उसने गुरुदक्षिणा में अपना अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया था। कौरवो और पांडवो ने द्रोणाचार्य के आश्रम मे ही अस्त्रो और शस्त्रो की शिक्षा पायी थी। अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। वे अर्जुन को विश्व का सर्व
श्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे।

एक बार भरद्वाज मुनि यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे गंगा नदी में स्नान कर रहे थे। वहाँ पर उन्होंने घृतार्ची नामक एक अप्सरा को गंगा स्नान कर निकलते हुये देख लिया। उस अप्सरा को देख कर उनके मन में काम वासना जागृत हुई और उनका वीर्य स्खलित हो गया जिसे उन्होंने एक यज्ञ पात्र में रख दिया। कालान्तर में उसी यज्ञ पात्र से द्रोण की उत्पत्ति हुई।

द्रोण अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, "वत्स! तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।" द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, "हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।" इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये।

शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। उनके उस पुत्र के मुख से जन्म के समय अश्व की ध्वनि निकली इसलिये उसका नाम अश्वत्थामा रखा गया। किसी प्रकार का राजाश्रय प्राप्त न होने के कारण द्रोण अपनी पत्नी कृपी तथा पुत्र अश्वत्थामा के साथ निर्धनता के साथ रह रहे थे। एक दिन उनका पुत्र अश्वत्थामा दूध पीने के लिये मचल उठा किन्तु अपनी निर्धनता के कारण द्रोण पुत्र के लिये गाय के दूध की व्यवस्था न कर सके। अकस्मात् उन्हें अपने बाल्यकाल के मित्र राजा द्रुपद का स्मरण हो आया जो कि पांचाल देश के नरेश बन चुके थे। द्रोण ने द्रुपद के पास जाकर कहा, "मित्र! मैं तुम्हारा सहपाठी रह चुका हूँ। मुझे दूध के लिये एक गाय की आवश्यकता है और तुमसे सहायता प्राप्त करने की अभिलाषा ले कर मैं तुम्हारे पास आया हूँ।" इस पर द्रुपद अपनी पुरानी मित्रता को भूलकर तथा स्वयं के नरेश होने अहंकार के वश में आकर द्रोण पर बिगड़ उठे और कहा, "तुम्हें मुझको अपना मित्र बताते हुये लज्जा नहीं आती? मित्रता केवल समान वर्ग के लोगों में होती है, तुम जैसे निर्धन और मुझ जैसे राजा में नहीं।" अपमानित होकर द्रोण वहाँ से लौट आये और कृपाचार्य के घर गुप्त रूप से रहने लगे।

एक दिन युधिष्ठिर आदि राजकुमार जब गेंद खेल रहे थे तो उनकी गेंद एक कुएँ में जा गिरी। उधर से गुजरते हुये द्रोण से राजकुमारों ने गेंद को कुएँ से निकालने लिये सहायता माँगी। द्रोण ने कहा, "यदि तुम लोग मेरे तथा मेरे परिवार के लिये भोजन का प्रबन्ध करो तो मैं तुम्हारा गेंद निकाल दूँगा।" युधिष्ठिर बोले, "देव! यदि हमारे पितामह की अनुमति होगी तो आप सदा के लिये भोजन पा सकेंगे।" द्रोणाचार्य ने तत्काल एक मुट्ठी सींक लेकर उसे मन्त्र से अभिमन्त्रित किया और एक सींक से गेंद को छेदा। फिर दूसरे सींक से गेंद में फँसे सींक को छेदा। इस प्रकार सींक से सींक को छेदते हुये गेंद को कुएँ से निकाल दिया। इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये।

एक बार गुरु द्रोण ने एक वृक्ष पर एक काठ की चिडिया लटका दी और बारी-बारी से सभी शिष्यों को बुलाया और पुछा की उन्हें क्या दिखाई दे रहा है। तब किसी ने कुछ कहा तो किसी ने कुछ, और जब अर्जुन की बारी आई तो उसने कहा की उसे केवल चिडिया की आँख दिखाई दे रही है और फिर उसने चिडिया की आँख का भेदन किया। इसी प्रकार एक दिन गुरु द्रोण ने अर्जुन की सतर्कता और योग्यता की परीक्षा लेने के लिये एक आभासी मगरमच्छ का निर्माण किया की वह उनपर हमला कर रहा है। सभी शिष्य घबरा गये पर अर्जुन ने अपने धनुर कौशल से उस आभासी मगरमच्छ का वध कर दिया, और तब गुरु द्रोण ने प्रसन्न होकर अर्जुन को ब्रह्मास्त्र का ज्ञान दिया।

एक बार निषाद कुमार एकलव्य गुरु द्रोण के पास आया और उनसे उसे अपना शिष्य बनाने का आग्रह किया। किंतु द्रोण ने ये कहकर उसे अपना शिष्य नहीं बनाया की वह क्षत्रिय भी नहीं है और राजपुत्र भी, पर उसे ये वरदान दिया की वो यदि उनका स्मरण करके अस्त्र विद्या सीखेगा तो उसे अपने आप ज्ञान आता जायेगा। एकलव्य गुरु द्रोण की मिट्टी की मुर्ति बनाकर धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा और इस प्रकार एकलव्य बहुत बडा़ धनुर्धर बन गया। एक दिन जब एकलव्य अभ्यास कर रहा था तो एक कूकर (कुत्ता) भौकने लग जिससे उसका ध्यान भंग हो रहा था। इसपर उसने बडी़ कुशलता से बाणों द्वारा बिना हानि पहुँचाए कूकर का मुख बंद कर दिया। जब वह कूकर वहाँ से भाग रहा था तो द्रोण और उनके शिष्यों ने उसे देखा और सोच मे पड़ गये की कौन इतनी कुशलता से कूकर का मुख बंद कर सकता है। तब वे खोजते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। वह वहाँ गुरु द्रोण कि मुर्ति के आगे अभ्यास कर रहा था। त द्रोण द्वारा अपने सबसे प्रिय शिष्य अर्जुन का स्थान छिनता देखकर उन्होंने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में उसके दाएँ हाथ का अंगूठा माँग लिया और एकलव्य ने हर्षपुर्वक अपना अंगूठा काट कर अपने गुरु को भेंट कर दिया। महाभारत के युद्ध में उन्होंने पितामह भीष्म के बाद ५ दिनों तक कौरव सेना का सञ्चालन किया और अंत में युधिस्ठिर के छल के कारण वो ध्रिस्त्धुमं के हांथों मरे गए.
आभारी, विकिपीडिया

द्रोणाचार्य ऋषि भारद्वाज के पुत्र और धर्नुविद्या निपुण परशुराम के शिष्य थे। कुरूप्रदेश में पांडु के पाँचों पुत्र तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के वे गुरु थे। महाभारत युद्ध के समय वह कौरव पक्ष के सेनापति थे। गुरु द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों में एकलव्य का नाम उल्लेखनीय है। उसने गुरुदक्षिणा में अपना अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया था। कौरवो और पांडवो ने द्रोणाचार्य के आश्रम मे ही अस्त्रो और शस्त्रो की शिक्षा पायी थी। अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। वे अर्जुन को विश्व का सर्व श्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे।

एक बार भरद्वाज मुनि यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे गंगा नदी में स्नान कर रहे थे। वहाँ पर उन्होंने घृतार्ची नामक एक अप्सरा को गंगा स्नान कर निकलते हुये देख लिया। उस अप्सरा को देख कर उनके मन में काम वासना जागृत हुई और उनका वीर्य स्खलित हो गया जिसे उन्होंने एक यज्ञ पात्र में रख दिया। कालान्तर में उसी यज्ञ पात्र से द्रोण की उत्पत्ति हुई।

द्रोण अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, "वत्स! तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।" द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, "हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।" इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये।

शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। उनके उस पुत्र के मुख से जन्म के समय अश्व की ध्वनि निकली इसलिये उसका नाम अश्वत्थामा रखा गया। किसी प्रकार का राजाश्रय प्राप्त न होने के कारण द्रोण अपनी पत्नी कृपी तथा पुत्र अश्वत्थामा के साथ निर्धनता के साथ रह रहे थे। एक दिन उनका पुत्र अश्वत्थामा दूध पीने के लिये मचल उठा किन्तु अपनी निर्धनता के कारण द्रोण पुत्र के लिये गाय के दूध की व्यवस्था न कर सके। अकस्मात् उन्हें अपने बाल्यकाल के मित्र राजा द्रुपद का स्मरण हो आया जो कि पांचाल देश के नरेश बन चुके थे। द्रोण ने द्रुपद के पास जाकर कहा, "मित्र! मैं तुम्हारा सहपाठी रह चुका हूँ। मुझे दूध के लिये एक गाय की आवश्यकता है और तुमसे सहायता प्राप्त करने की अभिलाषा ले कर मैं तुम्हारे पास आया हूँ।" इस पर द्रुपद अपनी पुरानी मित्रता को भूलकर तथा स्वयं के नरेश होने अहंकार के वश में आकर द्रोण पर बिगड़ उठे और कहा, "तुम्हें मुझको अपना मित्र बताते हुये लज्जा नहीं आती? मित्रता केवल समान वर्ग के लोगों में होती है, तुम जैसे निर्धन और मुझ जैसे राजा में नहीं।" अपमानित होकर द्रोण वहाँ से लौट आये और कृपाचार्य के घर गुप्त रूप से रहने लगे।

एक दिन युधिष्ठिर आदि राजकुमार जब गेंद खेल रहे थे तो उनकी गेंद एक कुएँ में जा गिरी। उधर से गुजरते हुये द्रोण से राजकुमारों ने गेंद को कुएँ से निकालने लिये सहायता माँगी। द्रोण ने कहा, "यदि तुम लोग मेरे तथा मेरे परिवार के लिये भोजन का प्रबन्ध करो तो मैं तुम्हारा गेंद निकाल दूँगा।" युधिष्ठिर बोले, "देव! यदि हमारे पितामह की अनुमति होगी तो आप सदा के लिये भोजन पा सकेंगे।" द्रोणाचार्य ने तत्काल एक मुट्ठी सींक लेकर उसे मन्त्र से अभिमन्त्रित किया और एक सींक से गेंद को छेदा। फिर दूसरे सींक से गेंद में फँसे सींक को छेदा। इस प्रकार सींक से सींक को छेदते हुये गेंद को कुएँ से निकाल दिया। इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये।

एक बार गुरु द्रोण ने एक वृक्ष पर एक काठ की चिडिया लटका दी और बारी-बारी से सभी शिष्यों को बुलाया और पुछा की उन्हें क्या दिखाई दे रहा है। तब किसी ने कुछ कहा तो किसी ने कुछ, और जब अर्जुन की बारी आई तो उसने कहा की उसे केवल चिडिया की आँख दिखाई दे रही है और फिर उसने चिडिया की आँख का भेदन किया। इसी प्रकार एक दिन गुरु द्रोण ने अर्जुन की सतर्कता और योग्यता की परीक्षा लेने के लिये एक आभासी मगरमच्छ का निर्माण किया की वह उनपर हमला कर रहा है। सभी शिष्य घबरा गये पर अर्जुन ने अपने धनुर कौशल से उस आभासी मगरमच्छ का वध कर दिया, और तब गुरु द्रोण ने प्रसन्न होकर अर्जुन को ब्रह्मास्त्र का ज्ञान दिया।

एक बार निषाद कुमार एकलव्य गुरु द्रोण के पास आया और उनसे उसे अपना शिष्य बनाने का आग्रह किया। किंतु द्रोण ने ये कहकर उसे अपना शिष्य नहीं बनाया की वह क्षत्रिय भी नहीं है और राजपुत्र भी, पर उसे ये वरदान दिया की वो यदि उनका स्मरण करके अस्त्र विद्या सीखेगा तो उसे अपने आप ज्ञान आता जायेगा। एकलव्य गुरु द्रोण की मिट्टी की मुर्ति बनाकर धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा और इस प्रकार एकलव्य बहुत बडा़ धनुर्धर बन गया। एक दिन जब एकलव्य अभ्यास कर रहा था तो एक कूकर (कुत्ता) भौकने लग जिससे उसका ध्यान भंग हो रहा था। इसपर उसने बडी़ कुशलता से बाणों द्वारा बिना हानि पहुँचाए कूकर का मुख बंद कर दिया। जब वह कूकर वहाँ से भाग रहा था तो द्रोण और उनके शिष्यों ने उसे देखा और सोच मे पड़ गये की कौन इतनी कुशलता से कूकर का मुख बंद कर सकता है। तब वे खोजते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। वह वहाँ गुरु द्रोण कि मुर्ति के आगे अभ्यास कर रहा था। त द्रोण द्वारा अपने सबसे प्रिय शिष्य अर्जुन का स्थान छिनता देखकर उन्होंने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में उसके दाएँ हाथ का अंगूठा माँग लिया और एकलव्य ने हर्षपुर्वक अपना अंगूठा काट कर अपने गुरु को भेंट कर दिया। महाभारत के युद्ध में उन्होंने पितामह भीष्म के बाद ५ दिनों तक कौरव सेना का सञ्चालन किया और अंत में युधिस्ठिर के छल के कारण वो ध्रिस्त्धुमं के हांथों मारे गए.

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