इसीलिए भारत में गांव के लोग कहते है, निश्चित रूप से इस बात की खबर उन्हें योगियों से मिली होगी—कि मृत्यु आने के पूर्व व्यक्ति अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ हो जाता है।
और भी बहुत सी विधियां है, जिनके माध्यम से योगी निरंतर अपनी नाक की नोक पर ध्यान देते है। वह नाक की नोक पर अपने को एकाग्र करते है। जो लोग नाक की नोक पर एकाग्र चित होकर ध्यान करते है, अचानक एक दिन वे पाते है कि वे अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ है, वे अपनी नाक की नोक नहीं देख सकते है। इस बात से उन्हें पता चल जाता है कि मृत्यु अब निकट ही है।
योग के शरीर विज्ञान के अनुसार व्यक्ति के शरीर में सात चक्र होत है। पहला चक्र है मूलाधार, और अंतिम चक्र है सहस्त्रार, जो सिर में होता है। इन दोनों के बीच में पाँच चक्र और होते है। जब भी व्यक्ति कि मृत्यु होती है; तो वह किसी एक निश्चित चक्र के द्वारा अपने प्राण त्यागता है।
व्यक्ति ने किस चक्र से शरीर छोड़ा है, वह उसके इस जीवन के विकास को दर्श देता है। साधारणतया तो लोग मूलाधार से ही मरते है। क्योंकि जीवन भर लोग काम-केंद्र के आसपास ही जीते है। वे हमेशा सेक्स के बारे ही सोचते है, उसी की कल्पना करते है, उसी के स्वप्न देखते है, उनका सभी कुछ सेक्स को लेकर ही होता है—जैसे कि उनका पूरा जीवन काम केंद्र के आसपास ही केंद्रित हो गया हो। ऐसे लोग मूलाधार से काम केंद्र से ही प्राण छोड़ते है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति प्रेम का उपलब्ध हो जाता है। और कामवासना के पार चला जाता है। तो वह ह्रदय केंद्र से प्राण को छोड़ता है। और अगर कोई व्यक्ति पूर्णरूप से विकसित हो जाता है, सिद्ध हो जाता है तो वह अपनी ऊर्जा को, अपने प्राणों को सहस्त्रार से छोड़ेगा।
और जिस केंद्र से व्यक्ति की मृत्यु होती है, वह केंद्र खुल जाता है। क्योंकि तब पूरी जीवन ऊर्जा उसी केंद्र से निर्मुक्त होती है.....
जिस केंद्र से व्यक्ति प्राणों को छोड़ता है, व्यक्ति का निर्मुक्ति देने वाला बिंदू स्थल खुल जाता है। उस बिंदु स्थल को देखा जा सकता है। किसी दिन जब पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान योग के शरीर विज्ञान के प्रति सजग हो सकेगा। तो वह भी पोस्टमार्टम का हिस्सा हो जाएगा। कि व्यक्ति कैसे मरा। अभी तो चिकित्सक केवल यही देखता है कि व्यक्ति की मृत्यु स्वाभाविक हुई है, या उसे जहर दिया गया है। या उसकी हत्या की गयी है, या उसके आत्महत्या की है—यही सारी साधारण सी बातें चिकित्सक देखते है। सबसे आधारभूत और महत्वपूर्ण बात की चिकित्सक चूक जाते है। जो कि उनकी रिपोर्ट में होनी चाहिए—कि व्यक्ति के प्राण किस केंद्र से निकले है: काम केंद्र से निकले है, ह्रदय केंद्र से निकले है, या सहस्त्रार से निकले है। किसी केंद्र से उसकी मृत्यु हुई है। और इसकी संभावना है,
क्योंकि योगियों ने इस पर बहुत काम किया है। और इसे देखा जा सकता है। क्योंकि जिस केंद्र से प्राण-ऊर्जा निर्मुक्त होती है। वही विशेष केंद्र टूट जाता है। जैसे कि कोई अंडा टूटता है और कोई चीज उससे बहार आ जाती है। ऐसे ही जब कोई विशेष केंद्र टूटता है, तो ऊर्जा वहां सक निर्मुक्त होती है।
जब कोई व्यक्ति संयम को उपल्बध हो जाता है। तो मृत्यु के ठीक तीन दिन पहले वह सजग हो जाता है, कि उसे कौन से केंद्र से शरीर छोड़ना है। अधिकतर तो वह सहस्त्रार से ही शरीर को छोड़ता है। मृत्यु के तीन दिन पहले एक तरह की हलन-चलन, एक तरह की गति, ठीक सिरा के शीर्ष भाग पर होने लगती है।
यह संकेत हमे मृत्यु को कैसे ग्रहण करना, इसके लिए तैयार कर सकते है। और अगर हम मृत्यु को उत्सवपूर्ण ढंग से, आनंद से, अहो भाव से नाचते गाते कैसे ग्रहण करना है, यह जान लें—तो फिर हमारा दूसरा जन्म नहीं होता। तब इस संसार की पाठशाला में हमारा पाठ पूरा हो गया। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी सीखने को है उसे हमने सीख लिया। अब हम तैयार है किसी महान लक्ष्य महान जीवन और अनंत-अनंत जीवन के लिए। अब ब्रह्मांड में संपूर्ण अस्तित्व में समाहित होने के लिए हम तैयार है। और इसे हमने अर्जित कर लिया है।
इस सूत्र के बारे में एक बात और क्रिया मान कर्म, दिन प्रतिदिन के कर्म, वे तो बहुत ही छोटे-छोटे कर्म होते है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे चेतन कह सकते है। इसके नीचे होता है प्रारब्ध कर्म। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे ‘’अवचेतन’’ कह सकते है। उससे भी नीचे होता है, संचित कर्म; आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में इसे हम अचेतन कह सकते है।
साधारणतया तो आदमी अपनी प्रतिदिन की गतिविधियों के बारे में सजग ही नहीं होता, तो फिर प्रारब्ध या संचित कर्म के बारे में कैसे सचेत हो सकता है। यह लगभग असंभव ही है। तो तुम दिन प्रतिदिन की छोटी-छोटी गतिविधियों में सजग होने का प्रयास करना। अगर सड़क पर चल रह हो, तो सड़क पर सजग होकर, होश पूर्वक चलना। अगर भोजन कर रहे हो तो सजगता पूर्वक करना। दिन में जो कुछ भी करो, उसे होश पूर्वक सजगता से करना। कुछ कार्य करो, उस कार्य पूरी तरह से डूब जाना। उसके साथ एक हो जाना। फिर कर्ता और कृत्य अलग-अलग न रहें। फिर मन इधर-उधर ही नहीं भागता रहे। जीवित लाश की भांति कार्य मत करना। जब सड़क पर चलो तो ऐसे मत चलना जैसे कि किसी गहरे सम्मोहन में चल रहे हो। कुछ भी बोलों वह तुम्हारे पूरे होश सजगता से आए, ताकि तुम्हें फिर कभी पीछे पछताना न पड़े।
अगर तुम इस प्रथम चरण को उपलब्ध कर लेते हो, तो फिर दूसरा चरण अपने से सुलभ हो जाता है, तब तुम अवचेतन में उतर सकते हो।
तो फिर जब कोई तुम्हारा अपमान करता है, तो जिस समय तुम्हें क्रोध आया, जागरूक हो जाओ। तब किसी ने तुम्हारा अपमान किया—और क्रोध की एक छोटी सी तरंग, जो कि बहुत ही सूक्ष्म होती है। तुम्हारे अस्तित्व के अवचेतन की गहराई में उतर जाती है। अगर तुम संवेदनशील और जागरूक नहीं हो, तो तुम उस उठी हई सूक्ष्म तरंग को पहचान न सकोगे। जब तक कि वह चेतन में न आ जाए, तुम उसे नहीं जान सकोगे। वरना, धीरे-धीरे तुम सूक्ष्म बातों को, भावनाओं को सूक्ष्म तरंगों के प्रति सचेत होने लगोगे—वही है प्रारब्ध, वहीं है अवचेतन। और जब अवचेतन के प्रति सजगता आती है। तो तीसरा चरण भी उपलब्ध हो जाता है। जितना अधिक व्यक्ति का विकास होता है, उतने ही अधिक विकास की संभावना के द्वार खुलते चले जाते है। तीसरे चरण को, अंतिम चरण को देखना संभव है। जो कर्म अतीत में संचित हुए थे। अब उनके प्रति सजग हो पाना संभव है। जब व्यक्ति अचेतन में उतरता है। तो इसका अर्थ है कि वह चेतन के प्रकाश को अपने अस्तित्व की गहराईयों में ले जा रहा है। व्यक्ति संबोधि को उपलब्ध हो जाएगा। संबुद्ध होने का अर्थ यही है, कि अब कुछ भी अंधकार में नहीं है। व्यक्ति का अंतस्तल का कोना-कोना प्रकाशित हो गया। तब वह जीता भी है, कार्य भी करता है, लेकिन फिर भी किसी तरह के कर्म का संचय नहीं होता।