17 September 2012

कृष्ण यजुर्वेद... कठोपनिषद...


उपनि‍षदों में कर्म तथा पुनर्जन्‍म की अवधारणाओं को एक सि‍द्धान्‍त का रूप दि‍या गया है... "कठोपनि‍षद्" में इस वि‍चार को स्‍पष्‍ट रूप से व्‍यक्‍त कि‍या गया है कि‍ मृतक की आत्‍मा नवीन शरीर धारण करती है... आत्‍मा अपने कर्म तथा ज्ञान के अनुसार जड़ वस्‍तुओं जैसे पेड़ या पौधों का स्‍वरूप भी ग्रहण कर सकती है...

'कठोपनिषद्' कृष्णयजुर्वेद की कठशाखा के अन्तर्गत है। इसमें यम और नाचिकेता के संवादरूप से ब्रह्मविद्या का बड़ा विशद वर्णन किया गया है। इसकी वर्णन

शैली बड़ी ही सुबोध और सरल है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी इसके कई मन्त्रों का कहीं शब्दतः और कहीं अर्थतः उल्लेख है। इसमें अन्य उपनिषदों की भाँति जहाँ तत्त्वाज्ञान का गम्भीर विवेचन है, वहां नचिकेता का चरित्र पाठक के सामने एक अनुपम आदर्श की उपस्थिति करता है।

'न देने योग्य गौ के दान से दाता का उल्टे अमंगल होता है' इस विचार से सात्त्विक बुद्धि-सम्पन्न ॠषिकुमार नचिकेता अधीर हो उठे । उनके पिता वाजश्रवस-वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक ने विश्वजित नामक महान यज्ञ के अनुष्ठान में अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी, किन्तु ॠषि-ॠत्विज और सदस्यों की दक्षिणा में अच्छी-बुरी सभी गौएँ दी जा रही थीं । पिता के मंगल की रक्षा के लिए अपने अनिष्ट की आशंका होते हुए भी उन्होंने विनयपूर्वक कहा-'पिताजी ! मैं भी आपका धन हूँ, मुझे किसे दे रहे हैं?['तत कस्मै मां दास्यसि’ ]

उनका यह प्रश्न ठीक ही था, क्योंकि वस्तुतः सर्वदान तो तभी हो सकता है जब कोई वस्तु अपनी न रहे और यहां अपने पुत्र के मोह से ही ब्राह्मणों को निकम्मी और निरर्थक गौएँ दी जा रही थीं; अतः इस मोह से पिता का उद्धार करना उनके लिये उचित ही था।

इसी तरह कई बार पूछने पर जब वाजश्रवा ने खीझकर कहा कि मैं तुझे मृत्यु को दूँगा तो उन्होंने यह जानकर भी कि पिताजी क्रोधवश ऐसा कह गये हैं, उनके कथन की उपेक्षा नहीं की।

परिणाम के लिए, वे पहले से ही प्रस्तुत थे । उन्होंने हाथ जोड़कर पिता से कहा -'पिताजी ! शरीर नश्वर है, पर सदाचरण सर्वोपरि है । आप अपने वचन की रक्षा के लिए यम सदन जाने की मुझे आज्ञा दें ।'

ॠषि सहम गये , पर पुत्र की सत्यपरायणता देखकर उसे यमपुरी जाने की आज्ञा उन्होंने दे दी । नचिकेता ने पिता के चरणों में सभक्ति प्रणाम किया और वे यमराज की पुरी के लिए प्रस्थित हो गये । यमराज काँप उठे । अतिथि ब्राह्मण का सत्कार न करने के कुपरिणाम से वे पूर्णतय परिचित थे और ये तो अग्नितुल्य तेजस्वी ॠषिकुमार थे, जो उनकी अनुपस्थिति में उनके द्वार बिना अन्न-जल ग्रहण किए तीन रात बिता चुके थे ।


यम जलपूरित स्वर्ण-कलश अपने ही हाथों में लिए दौड़े । उन्होंने नचिकेता को सम्मानपूर्वक पाद्यार्घ्य देकर अत्यन्त विनय से कहा -'आदरणीय ब्राह्मणकुमार! पूज्य अतिथि होकर भी आपने मेरे द्वार पर तीन रात्रियाँ उपवास में बिता दीं, यह मेरा अपराध है । आप प्रत्येक रात्रि के लिये एक-एक वर मुझसे माँग लें ।

'मृत्यो ! मेरे पिता मेरे प्रति शान्त-संकल्प, प्रसन्नचित्त और क्रोधरहित हो जाएँ और जब मैं आपके यहाँ से लौटकर घर जाऊँ, तब वे मुझे पहचानकर प्रेमपूर्वक बातचीत करें ।' पितृभक्त बालक ने प्रथम वर माँगा ।
'तथास्तु' यमराज ने कहा।

'मृत्यो ! स्वर्ग के साधनभूत अग्नि को आप भलीभाँति जानते हैं । उसे ही जानकर लोग स्वर्ग में अमृतत्त्व-देवत्व को प्राप्त होते हैं, मैं उसे जानना चाहता हूँ । यही मेरी द्वितीय वर-याचना है ।'


'यह अग्नि अनन्त स्वर्ग-लोक की प्राप्ति का साधन है । ' यमराज नचिकेता को अल्पायु, तीक्ष्ण बुद्धि तथा वास्तविक जिज्ञासु के रूप में पाकर प्रसन्न थे । उन्होंने कहा- 'यही विराट रूप से जगत की प्रतिष्ठा का मूल कारण है । इसे आप विद्वानों की बुद्धिरूप गुहा में स्थित समझिये ।'
उस अग्नि के लिए जैसी जितनी ईंटें चाहिए, वे जिस प्रकार रखी जानी चाहिए तथा यज्ञस्थली निर्माण के लिए आवश्यक सामग्रियाँ और अग्निचयन करने की विधि बतलाते हुए अत्यन्त सन्तुष्ट होकर यम ने द्वितिय वर के रूप में कहा- 'मैने जिस अग्नि की बात आपसे कहीं, वह आपके ही नाम से प्रसिद्ध होगी और आप इस विचित्र रत्नों वाली माला को भी ग्रहण कीजिए ।'

'हे नचिकेता, अब तीसरा वर माँगिये ।' श्रद्धा-समन्वित नचिकेता ने कहा- 'आत्मा का प्रत्यक्ष या अनुमान से निर्णय नहीं हो पाता । अत: मैं आपसे वहीं आत्मतत्त्व जानना चाहता हूँ । कृपापूर्वक बतला दीजिए ।'

यम झिझके । आत्म-विद्या साधारण विद्या नहीं । उन्होंने नचिकेता को उस ज्ञान की दुरूहता बतलायी, पर उनको वे अपने निश्चय से नहीं डिगा सके । यम ने भुवन मोहन अस्त्र का प्रयोग किया- सुर-दुर्लभ सुन्दरियाँ और दीर्घकाल स्थायिनी भोग-सामग्रियों का प्रलोभन दिया, पर ॠषिकुमार अपने तत्त्व-सम्बंधी गूढ़ वर से विचलित नहीं हो सके ।


'आप बड़े भाग्यवान हैं ।' यम ने नचिकेता के वैराग्य की प्रशंसा की और वित्तमयी संसार गति की निन्दा करते हुए बतलाया कि विवेक- वैराग्यसम्पन्न पुरुष ही ब्रह्मज्ञान प्राप्ति के अधिकारी हैं । श्रेय-प्रेय और विद्या-अविद्या के विपरीत स्वरूप का यम ने पूरा वर्णन करते हुए कहा-'आप श्रेय चाहते हैं तथा विद्या के अधिकारी हैं ।'

'हे भगवन ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो सब प्रकार के व्यावहारिक विषयों से अतीत जिस परब्रह्म को आप देखते हैं मुझे अवश्य बतलाने की कृपा कीजिये ।'

'आत्मा चेतन है। वह न जन्मता है, न मरता है । न यह किसी से उत्पन्न हुआ है और न कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है ।' नचिकेता की जिज्ञासा देखकर यम अत्यंन्त प्रसन्न हो गए थे । उन्होंने आत्मा के स्वरूप को विस्तारपूर्वक समझाया-'वह अजन्मा है , नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, शरीर के नाश होने पर भी बना रहता है। वह सूक्ष्म-से -सूक्ष्म और महान से भी महान है । वह समस्त अनित्य शरीर में रहते हुए भी शरीररहित है, समस्त अस्थिर पदार्थों में व्याप्त होते हुए भी सदा स्थिर है । वह कण-कण में व्याप्त है । सारा सृष्टि क्रम उसी के आदेश पर चलता है । अग्नि उसी के भय से चलता है, सूर्य उसी के भय से तपता है, इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु उसी के भय से दौड़ते हैं । जो पुरुष काल के गाल में जाने के पूर्व उसे जान लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं । शोकादि क्लेशों को पार कर परमानन्द को प्राप्त कर लेते हैं ।'


यम ने कहा, 'वह न तो वेद के प्रवचन से प्राप्त होता है, न विशाल बुद्धि से मिलता है और न केवल जन्मभर शास्त्रों के श्रवण से ही मिलता है। वह उन्हीं को प्राप्त होता है, जिनकी वासनाएँ शान्त हो चुकी हैं, कामनाएँ मिट चुकी हैं और जिनके पवित्र अन्त:करण को मलिनता की छाया भी स्पर्श नहीं कर पाती जो उसे पाने के लिए अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं । आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद उद्दालक पुत्र कुमार नचिकेता लौटे तो उन्होंने देखा कि वृद्ध तपस्वियों का समुदाय भी उनके स्वागतार्थ खड़ा है ।

Rajesh Agrawal

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