प्रयाग राज में ज्ञानी ऋषि मुनि यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे तब वहा सूतजी पधारे। ऋषि-मुनियों ने जन कल्याण के लिए कलियुग के भ्रष्ट ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, स्त्रियों तथा संतान के पापों का नाश जिससे शीघ्र हो जाये, ऐसा छोटा सा उपाय पूछा।सूतजी ने श्री शिव महापुराण के श्रवण, कीर्तन और मनन को सर्वोत्तम बताया।सर्वप्रथम सद्गुरू के मुख से श्री शिव-महापुराण का श्रवण करना चाहिए। श्री शिव ने यह सर्वोत्तम उपाय नन्दी जी को बताया, नन्दी जी ने यह ज्ञान ब्रह्मा के प्रथम पुत्र सनत्कुमार को दिया, सनत्कुमार से वेदव्यास को दिया, वेदव्यास ने दीक्षा पद्धति से सूतजी को दिया, सूतजी ने शौनक आदि ऋषियों को दिया और गुरू परम्परा से यह ज्ञान हमको प्राप्त हुआ।जो सही सद्गुरू से दीक्षा लेकर श्री शिव महापुराण का श्रवण करने में अभागे है, उनको श्री शिवलिंग की स्थापना करके नित्य विधिवत पूजा करनी चाहिए( श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता अ०१ से ५ पृष्ठ २५ से ३४)अन्य देवताओं की मूल की पूजा केवल सुख भोगों को ही देती है परन्तु शिवलिंग की पूजा सुख-भोग तथा मोक्ष भी प्रदान करती है। (श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता ५ पृष्ठ ३४) जब ब्रह्मा और विष्णु आपस में शस्त्रों के साथ युद्ध कर रहे थे तब निर्गुण निराकार अजन्मा ब्रह्म (शिव) ने उन दोनों के बीच आदि अंत रहित ज्योति स्तम्भ प्रकट किया। उस ज्योति स्तम्भ के प्रकट होते ही ब्रह्मा-विष्णु के आयुध उसी में विलीन हो गये। तब प्रभु शिव ही एक ऋषि के रूप में प्रकट होकर, यह ज्योति स्तम्भ ही निर्गुण ब्रह्म है, ऐसा परिचय दिया। तब प्रभु शिव बोले -"मुझ गुरू के वचन तुम्हारे लिये बार-बार प्रमाण है। इस गुप्त ब्रह्म तत्व को तुम लोगों के प्रति प्रेम होने के कारण मैं कह रहा हॅू। मैं ही परब्रह्म हॅू, मैरा ही स्वरूप सगुण और निर्गुण है। ब्रह्म होने के कारण में ईश्वर हॅू और मेरा कार्य समस्त चराचर सृष्टि के प्रति अनुग्रह करना आदि है। मैं अज्ञात रूप से रहता हॅू, तुम दोनों को दर्शन देने के लिए मैने अपना सगुण ईश्वर रूप तत्काल धारण किया। यह आदि अंत रहित ज्योति स्तम्भ मैं जनकल्याण के लिए छोटा कर देता हॅू। यह शिवलिंग रूप से प्रसिद्ध होगा। किसी भी दु:ख में इस शिवलिंग का पूजन करने से दु:खों का नाश होगा।"( प्रमाण श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता अ०६ से १० पृष्ठ ३४ से ४२ एवं सृष्टि खंड अध्याय ६ से १० पृष्ठ १०५-११६)
यह सारा संसार परमात्मा उमा-महेश्वर की ही मूर्तियॉं है।(उपमन्यु का श्री कृष्ण को उपदेश श्री शिव महापुराण वायवीय संहिता उत्तर भाग अध्याय २-७ पृष्ठ ८८२-८९२) भगवान शिव का देवताओं को, प्रभु शिव का सूर्य में दर्शन-पूजन विधि समझाना( श्री शिव महापुराण वायवीय संहिता उत्तर भाग अध्याय ८ पृष्ठ ८९२-८९४)
पार्वती जगदम्बा ने प्रभु शिव से पूछा, जो मनुष्य कर्म के अयोग्य तथा सब प्रकार से पतित हो तो वह कैसे मुक्त हो सकता है ? प्रभु शिव बोले, "देहधारी गुरू से ज्ञान प्राप्त कर ही, मेरी(शिव की)शिवलिंग में पूजा तथा मेरे पंचाक्षर मंत्र(नम: शिवाय)का जप करे।( श्री शिव महापुराण वायवीय संहिता उत्तर भाग अध्याय १३-१४ पृष्ठ ९०१-९०५)
सद्गुरू उपमन्यु काश्री कृष्ण को पंचाक्षर मंत्र(नम: शिवाय) की दीक्षा का विधान तथा शिष्य का गुरू के प्रतिधन का अभाव हो, संतान न हो रही हो, पति परदेश चला गया हो, मंद भाग्य हो, भूत-प्रेतादि की बाधा हो, खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त करना हो देहधारी गुरू से दीक्षा लेकर, श्री गणेश की नित्य प्रथम विधिवत पूजा करके श्री शिव का पूजन करना अनिवार्य है।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण कुमारखंड अध्याय १३-२० )(प्रमाण श्री शिवमहापुराण वायुसंहिता उत्तरभाग अध्याय ३१ )
कर्तव्य क्या होना चाहिए ? सद्गुरू को शिष्य की एक से तीन वर्ष तक परीक्षा करनी चाहिए तथा प्रभु शिव का पंचावरण पूजन।( श्री शिव महापुराण वायवीय संहिता उत्तर भाग अध्याय १५-३० पृष्ठ ९०६-९३५)
आापके पास जो सम्पत्ति है(धन-पुत्र आदि)वह सब प्रभु की ही है और प्रभु की कृपा से ही आपके पास है।(प्रमाण श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता राजा अम्बरीष के पितामह, इक्ष्वाकु कुल के राजा नभग का चरित्र अध्याय २९ ) आप यदि अपनी सारी सम्पत्ति, प्रभु की ही समझते हैं तो आपका यह जीवन भी सुधरेगा और अगला जन्म भी सुधरेगा। सती जगदम्बा ने अपने पति (प्रभु शिव) से जन कल्याण के लिए सबसे सरल उपाय पूछा था कि विषयी अर्थात सांसारिक भोगों में लिप्त व्यक्ति बिना प्रयास के सद्गति प्राप्त कर ले , ऐसा सरल उपाय बतलाइये।
परम दयालु, अकारण करूणा वरूणालय प्रभु शिव ने सती जगदम्बा की प्रार्थना से रहस्य बताया कि उनकी (शिव की) नवधा भक्ति से विषयी जीव भी सरलता से संसार - सागर से पार हो सकता है। इस नवधा भक्ति से स्वत: ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, जिससे मनुष्य मुक्त हो जाता है। इस नवधा भक्ति का अन्तिम चरण है आत्म समर्पण। आत्म समर्पण का अर्थ है मैं और मेरा (मेरा शरीर, मेरी सम्पत्ति, मेरी पत्नी पुत्रादि)सभी प्रभु शिव की सेवा में अर्पित कर देना और आने वाले अगले दिन की भी चिन्ता न करना (प्रमाण श्री शिवमहापुराण सतीखंड अध्याय २३)
स्कन्द पुराण के माहेश्वर खंड के कुमारिका उपखंड में ऋषि कात्यायन और सारस्वत मुनि का संवाद प्रसिद्ध है।ऋषि कात्यायन ने पूछा " धर्म का सार क्या है?" सारस्वत मुनि बोले, "धर्म का सार है भगवान शंकर की विधिवत (देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर) भगवान शंकर की पूजा और भगवान शंकर के लिए दान। प्रभु शिव के लिए दान प्रथम स्थान पर आता है और प्रभु शिव की पूजा दूसरे स्थान पर आती है।
इस सूत्र के आधार पर ही दिव्य नदी नर्मदा, नाभि क्षेत्र के दक्षिण तट पर श्री विमलेश्वर आश्रम स्थापित है जहॉं पर ऐसे गुरू परम्परा से दीक्षित नित्य व्रत रखने वाले कर्मकाण्डी ब्राह्मणों द्वारा श्री शिव का दान प्रयोग करवाने पर आपको उपर्युक्त सभी सांसारिक सुख और परलोक मुक्ति का लाभ प्राप्त हो सकता है। श्री शिवमहापुराण की विद्येश्वर संहिता के अध्याय १३ श्लोक नं० ७२ से ७७ में प्रभु का अंश की मात्रा वर्णित है। श्लोक क्रंमाक ७७ में स्पष्ट है कि अपनी सम्पन्नता के लिए ब्राह्मणों को बुलाकर दान देना चाहिए। श्री शिवमहापुराण के शतरूद्र संहिता केे अध्याय सं० ६-७ का नित्य पाठ करने से प्रभु शिव की कृपा प्राप्त होती है। इनकी पूजा विधि जानने के लिए आश्रम से सम्पर्क करे।
खेती का १० प्रतिशत,नौकरी का १७ प्रतिशत, व्यापार के शुद्ध लाभ का १७ प्रतिशत पण्डिताई कर्म का २५ प्रतिशत, एकायक प्राप्त धन जैसे लॉटरी-वसीयत-मुआवजा आदि का ५० प्रतिशत यह शिवजी का अंश दिव्य नदी नर्मदा के तट पर शिव कर्मकाण्ड़ी ब्राह्मणों की परीक्षा लेकर ही दान करना चाहिये। आप अपने शेष धन का प्रयोग अपनी इच्छानुसार परोपकार-दान में लगा सकते हैं।
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