श्री शिवमहापुराण में एक सूत्र इस प्रकार से है :- वेदी पर स्थापित प्रतिमा में, अग्नि में और ब्राह्मण के शरीर में षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। उक्त तीनो प्रकार में उत्तरोत्तर पूजन करना श्रेष्ठ है। (प्रमाण श्री शिवमहापुराण विद्येश्वर संहिता अध्याय १४ श्लोक २४ ) ब्राह्मण के षोडशोपचार पूजन में ये प्रक्रियाएं हैं। एक दिन पूर्व ब्राह्मण देवता को घर से सम्मानपूर्वक अपने घर लाना, उनके चरण धोकर चरणामृत पीना, उन्हें जल पान कराना, उनकी तेल-पंचामृत-पंचगव्य से अभिषेक करना, शरीर पोंछना, इत्र लगाना,भस्म त्रिपुण्ड़ लगाना , वस्त्र -उपवस्त्र पहनाना, पुष्प-माला पहनाना, धूप करना, पंच पकवान, ऋतु-फल खिलाना, दक्षिणा देना, आरती करना, चॅंवर डुलाना, चरण -सेवन करना और घर तक पहुॅचाने जाना।
मैं इस प्रकार का नित्य ब्राह्मणों का पूजन करू- यह वरदान विष्णु के अवतार कृष्ण ने ब्राह्मण बालक उपमन्यु (ऋषि व्याघ्रपाद के पुत्र, द्यौम्य के बड़े भाई) से दीक्षा लेकर हिमालय पर १६ महीने तपस्या करके प्रभु शिव एवं पार्वती से आठ-आठ वरदानों में यह वरदान (ब्राह्मणों का नित्य पूजन) भी मॉंगा था।श्री गणेश जो कि प्रथम पूज्य है, विघ्ननाशक है तथा सब सिद्धियों को देने वाले हैं, उनकी पूजा की सिद्धि के लिए भी ब्राह्मणों का पूजन अनिवार्य है। (प्रमाण श्री शिवमहापुराण कुमारखंड अध्याय १८ ) शास्त्रों में पॉंच प्रकार के ब्राह्मण वर्णित है। यहॉं ब्राह्मण का अर्थ है जो जन्म और कर्म से ब्राह्मण हो। आपको जिस ब्राह्मण का नित्य पूजन करना है, उसके लक्षण निम्न होने चाहियें :- वह जन्म कर्म का ब्राह्मण हो, गुरू परम्परा से निर्गुण - निराकार अजन्मा ब्रह्म (शिव) के कर्मकाण्ड में दीक्षित हो, मंत्रों से रूद्राक्ष और भस्म त्रिपुण्ड़ धारण करता हो, श्री शिवमहापुराण २४६७२ श्लोक वाले का नित्य पूजन कर, साष्टॉंग प्रणाम कर, आजीवन मर्यादापूर्वक पाठ करता हो, नित्य दिन में १२ बार नर्मदेश्वर शिवलिंग का जल बिल्व पत्रादि से पूजा करता हो, नित्य सौ माला ऊॅं नम: शिवाय मंत्र को जपता हो, नित्य व्रत अथवा महिने में दस व्रत करता हो। (दोनों अष्टमी, दोनों एकादशी, दोनो प्रदोष तथा सभी सोमवार) प्रदोष का विशेष पूजन करता हो। हर मास शिवरात्रि को निर्जला-निराहार, रात्रि जागरण पूर्वक चार - पूजन करता हो, दिव्य नदी नर्मदा के तट पर रहता हो और प्राप्त दान में से चतुर्थांश हर माह दान करता हो। दिव्य नदी नर्मदा के नाभिक्षेत्र, दक्षिण-तट पर स्थापित श्री विमलेश्वर महादेव आश्रम में ऐसे गुरू परम्परा से दीक्षित , नित्य व्रत रखने वाले कर्मकाण्डी ब्राह्मण उपलब्ध है। ऐसे ब्राह्मणों का नित्य पूजन करने से और उनके द्वारा अनुष्ठान करवाने पर आपको घर बैठे निम्न लाभ प्राप्त होंगे जो कि विश्व में अन्यत्र कहीं संभव नहीं है।
सांसारिक सभी कामनाओं की प्राप्ति, पुराने सभी पापों का नाश (अब आपको पुराने पापों का बुरा फल भोगना नहीं पडेगा) ,शत्रु पीडा, ग्रह पीड़ा का नाश, पितरों की सद्गति, सुखद बुढापा, शांतिपूर्ण मृत्यु, निश्चित रूप से अगला जन्म राजकुल अथवा योगी कुल में प्राप्त होना, निश्चित रूप से तीन जन्मों में मुक्ति।
श्री गणेश की उत्पत्ति का रहस्य
श्री गणेश प्रथम पूज्य क्यों है ? श्री गणेश की विद्यिवत दीक्षा लेकर पूजा करने का फल, श्री गणेश की पूजा से पूरा फल क्यों नहीं मिल रहा है?
सभी धर्मशास्त्रों (वेद-पुराणादि) प्रभु शिव को सर्वोपरि मानते है फिर प्रभु शिव और पार्वती जगदम्बा ने मिलकर श्री गणेश क्यों उत्पन्न किया ? प्रभु शिव ने ही गणेश को अनेक वरदान दिये, प्रभु शिव ने ही प्रथम स्वयं गणेश पूजन किया। ब्रह्मा -विष्णु-महेश ने एक साथ गणेश को प्रथम पूजित होने का वरदान दिया फिर भी ये गणेश प्रभु शिव और पार्वती की आज्ञा के बिना आपका कार्य नहीं करते।
जो व्यक्ति अपने विश्वस्त एवं योग्य शिष्यों के तीनों गुणों(तामस, राजस, सात्विक) को हटाकर प्रभु शिव का साक्षात्कार करा देता है वही गुरू कहने योग्य हैं ( श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता अ०१८ श्लोक ८५-९८ पृष्ठ ७०-७१) जिसके मस्तक पर भस्म त्रिपुण्ड नहीं हो, शरीर में रूद्राक्ष धारण किया न हो और मुख में शिव नाम न हो ऐसे अधम को छोड़ देना चाहिए( श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता अ०२३ श्लोक १३ पृष्ठ ८२)पापों का विनाश करने के लिए ही रूद्राक्ष धारण करना कहा गया है। इसीलिए सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले इस रूद्राक्ष को अवश्य धारण करना चाहिए शिव भक्तों को, विष्णु भक्तों को तथा चारों वर्णो को, सभी स्त्रियों को धारण करना चाहिए।(प्रभु शिव ने पार्वती को यह गुप्त ज्ञान दिया)( श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता अ०२५ पृष्ठ ८८-९२) दैत्यों के गुरू शुक्राचार्य के पास मृत संजीवनी विद्या है। (अर्थात् मृत को जीवित करने की विद्या)। यह विद्या विष्णु और ब्रह्मा के पास भी नहीं है, देवताओं के गुरू वृहस्पति के पास भी नहीं है। दैत्यों के गुरू शुक्राचार्य काशी में पॉंच हजार वर्ष तक (शुक्रेश्वर लिंग स्थापित कर) तपस्या की।
प्रभु शिव प्रसन्न हुए और शुक्राचार्य ने शिव की अष्टमूर्ति की स्तुति की और प्रभु शिव ने प्रसन्न होकर शुक्राचार्य जी को मृतसंजीवनी विद्या प्रदान की।( प्रमाण श्री शिव महापुराण युद्धखण्ड अध्याय ५० पृष्ठ संख्या ४७४ से ४७६) प्रहृलाद,विष्णु भक्त था। श्री विष्णु ने उसे बचाने के लिए नृसिंह अवतार लेकर उसके पिता हिरण्यकशिपु का वध किया। प्रहृलाद का पुत्र विरोचन महादानी था जिसने कपटी इन्द्र को (जो ब्राह्मण का रूप धर करआया था)अपना सिर काटकर दे दिया। विरोचन का पुत्र राजा बलि भी महादानी था और महान् शिवभक्त था। वरदान के कारण प्रभु शिव अपने गणों के साथ बाणासुर की राजधानी शोणितपुर में रहते थे ..
श्री कृष्ण का बाणासुर के साथ युद्ध हुआ, जिसमे प्रभु शिव बाणासुर की ओर से श्री कृष्ण से लड़े। श्री कृष्ण सहित यादवों की सारी सेना परास्तहो गई तब श्री कृष्ण ने प्रभु शिव की स्तुति करके प्रभु को युद्ध स्थल से हट जाने के लिए प्रार्थना की।( प्रमाण श्री शिव महापुराण युद्धखण्ड अध्याय ५४ श्लोक ४३-५६ पृष्ठ संख्या ४८४) सती जगदम्बा ने (जब सीता बनकर) राम की परीक्षा ली। तब सती के पूछने पर राम ने (विष्णु रूप में) प्रभु शिव से प्राप्त वरदान का वर्णन किया।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय २५ श्लोक १-३८ पृष्ठ संख्या १९६-९७)जिस पर आप दोनों(शिव तथा सती) की दया हो जाती है, वही पुरूष श्रेष्ठ होता है।
दक्ष के यज्ञ में विष्णु अध्यक्ष थे, ब्रह्मा भी उपस्थित थे, इन्द्रादि आठों लोकपाल आयुध लेकर यज्ञ की रक्षा करते थे, ८८ हजार ऋषि एक समय अग्नि में आहुति देते थे। अग्नि, साक्षात हजारों जिव्हा बनाकर आहुति स्वीकार कर रहे थे। सती जगदम्बा भी आ गई थी। केवल एक संहारक महेश ही नहीं थे( जबकि यज्ञ जैसे मांगलिक कार्य में संहारक देवता की आवश्यकता भी नहीं है फिर भी सत्युग में किये गये ब्रह्मा के पुत्र दक्ष प्रजापति का, समस्त विश्व का कल्याण हो- ऐसी श्रेष्ठ कामना से, यज्ञ जैसा शुभ कर्म भी सफल नहीं हुआ। यज्ञ विध्वंस हुआ, दक्ष प्रजापति मारा गया।संहारक भगवान शंकर की जटा के एक बाल के आधे टुकड़े से उत्पन्न वीरभद्र ने बड़ी सरलता से दक्ष का सिर काटकर अग्नि में डाल दिया और यज्ञ विध्वंस किया।वीरभद्र ने उत्पन्न होकर प्रभु शिव से कहा।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय ३२ श्लोक २८-४४ पृष्ठ संख्या २१०-२११) हे शिवजी! आपकी आज्ञा से, नीच पुरूष भी संसार रूपी समुद्र को पार कर लेते है। आपके भेजे हुए तृण से भी बिना परिश्रम ही, बडे-़बड़े कार्य क्षण भर में हो जाते हैं इसमें कोई संदेह नहीं हैं।आपकी आज्ञा के बिना, कोई भी तिनका आदि वस्तुओं को भी हिला नहीं सकता, इसमें संदेह नहीं है। उसी की प्रतिदिन विजय होती है, उसी को शुभ की प्राप्ति होती है, जिसके मन में उत्तम आश्रय स्वरूप शिव में दृढ़ भक्ति होती है। वीरभद्र ने सरलता से दक्ष प्रजापति का सिर काटकर अग्नि कुण्ड में डाल दिया और यज्ञ विध्वंस कर दिया।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय ३७ पृष्ठ संख्या २१८-२२०)
पृथ्वी पर सबसे बड़ा व्यक्ति देहधारी गुरू से दीक्षित शिव भक्त ब्राह्मण। यह व्यक्ति पृथ्वी पर राजा से भी बड़ा होता है और सबसे अधिक पूज्य होता है। ऐसे ही च्यवन ऋषि के पुत्र दधीचि ऋ़षि ने विष्णु और उनके सहायक इन्द्रादि लोकपालों को बिना अस्त्र के पराजित कर दिया और विष्णु सहित सभी देवताओं को शाप भी दिया।इस प्रसंग का नित्य (विधिवत)पाठ करने से शत्रु पर विजय प्राप्त होती है।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय ३८-३९ पृष्ठ संख्या २२०-२२५)
इस अनुष्ठान का विधान आप आश्रम से सीख सकते हैं। जब सारा प्रयत्न करने पर भी (विष्णु-ब्रह्मा-इन्द्रादि लोकपाल के पूरा प्रयत्न करने पर भी) विध्वंस हो गया और दक्ष प्रजापति मारे गये, तब विष्णु ब्रह्मा इन्द्रादि लोकपाल कैलास में जाकर प्रभु शिव से क्षमा याचना मॉंगी और दक्ष को पुन: जीवित करनेऔर यज्ञ को पुन: सफल करने की प्रार्थना की। प्रभु शिव की प्रथम पूजा होगी और प्रभु शिव का भग निकाला जायेगा ऐसा विश्वास दिलाने पर प्रभु शिव ने कृपा की। दक्ष के धड़ पर बकरे का सिर लगाकर, प्रभु शिव ने अपनी कृपा दृष्टि से उसे जीवित कर दिया।(देवताओं की स्तुति श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय ४१ पृष्ठ संख्या २२७-२२८) दक्ष ने (बकरे के सिर से) प्रभु शिव की स्तुति की( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखण्ड अध्याय ४२ श्लोक ३२-४१ पृष्ठ संख्या २२९-२३०)आपने दंड़ देकर मेरे ऊपर बड़ी कृपा की। मैं मूर्ख हॅू। हे देव! मैने आपके तत्व को नहीं समझा। मैं आज आपके तत्व को समझ गया कि आप सर्वश्रेष्ठ है। आप ब्रह्मा-विष्णु आदि के भी सेवनीय है। वेदों द्वारा जानने योग्य महेश्वर है। आप साधु पुरूषों के लिए कल्पवृक्ष के समान है। दुष्टों को सदैव दंड़ देते है। आप स्वतंत्र परमात्मा है, अपने भक्तों को इच्छित वरदान देते है। हे शिवजी! आपने ही विद्या, तप, व्रत को धारण करने वाले ब्राह्मणों की सबसे पहले आत्म तत्व को जानने े लिए अपने मुख से सृष्टि की। जिस प्रकार ग्वाला, पशुओं की रक्षा करता है उसी प्रकार आप प्राणियों की, सभी आपत्तियों से दंड़ धारण कर, रक्षा करते हैं और आप ही मर्यादा के रक्षक है।
ब्रह्मा, अपने पुत्र देवर्षि नारद को समझाते है, "जब तक मनुष्य गृहस्थाश्रम में रहे तब तक वह पंचदेवों की प्रतिमाओं (श्री गणेश-सूर्य-विष्णु-दुर्गा-शंकर) का पूजन करता रहे अथवा केवल प्रभु शिवजी की शिवलिंग में पूजा करे, वे ही सबके मूल है क्योंकि मूल को सींचने से शाखादि सभी तृप्त हो जाते हैं। शाखाओं(श्री गणेश-सूर्य-विष्णु-दुर्गा) को सींचने से मूल (शिव) की प्राप्ति नहीं होती है। इस प्रकार सभी देवताओं(श्री गणेश-सूर्य-विष्णु-दुर्गा) के तृप्त हो जाने पर भी प्रभु शिवजी की तृप्ति नहीं होती है। ऐसा सुक्ष्म बुद्धि वालों को जानना चाहिये और शिवजी को पूज लेने पर सभी देवताओं (श्री गणेश-सूर्य-विष्णु-दुर्गा और शंकर) की पूजा हो जाती है। सभी प्राणियों के हित में लगे रहने वाले, सभी लोकों का कल्याण करने वाले प्रभु शिवजी की पूजा, सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति के लिए करनी चाहिए।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सृष्टिखण्ड अध्याय १२ श्लोक ८२-८६ पृष्ठ संख्या १२३)
प्रभु शिव को या शिव भक्तों को विशेष करके शिवभक्त ब्राह्मण को अपनी कन्या पत्नी रूप में देने का क्या महत्व है, उस पर श्री शिवमहापुराण में एक बहुत ही ज्ञानवर्द्धक प्रसंग है। कश्यप-दीति के वंश में वज्रांग-वरांगी के कुल में तारक नामक असुर पैदा हुआ, जिसके पैदा होतें ही पूरे विश्व में भंयकर अपशकुन हुए।( प्रमाण श्री शिवमहापुराण पार्वतीखंड अध्याय १४-१५ पृष्ठ संख्या २५७-२६०) यह तारक दैत्य प्रभु शिव के वीर्य से उत्पन्न पुत्र ही उसको मार सकेगा, ऐसा वरदान ब्रह्मा से तारकासुर को प्राप्त हुआ। तारकासुर को विष्णु इन्द्रादि भी नहीं पराजित कर सके- तारकासुर ने सभी को जीत लिया। देवताओं ने प्रयत्न करके प्रभु शिव को विवाह के लिए तैयार कर दिया और उधर हिमालय को भी अपनी कन्या (पार्वती) को शिव पत्नी बनाने के लिए आज्ञा दी...... जब हिमालय, अपनी कन्या प्रभु शिवजी को (पत्नी रूप में ) देने के लिए तैयार हो गया तब देवताओं को एक अलग ही प्रकार की चिन्ता हुई।
"हिमालय यदि स्वेच्छा से अपनी कन्या शिवजी को पत्नी रूप में दे देगा, तो हिमालय का जो जड़ रूप है वह भी अदृश्य हो जायेगा तब देवता लोग विहार कहॉं करेंगे ? तब स्वार्थी देवता अपने गुरू वृहस्पति के पास गये और उनसे बोले, " आप हिमालय को शिव-निन्दा सुनाइयें, जिसे सुनकर हिमालय की इतना पाप लगेगा कि वह अपनी कन्या शिवजी को पत्नी रूप में देने पर भी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकेगा। इस ज्ञानवर्द्धक प्रसंग को पाठकगण श्री शिवमहापुराण के पार्वतीखण्ड अध्याय ३१पृष्ठ संख्या २८९-२९१ से समझ लें।
श्री गणेश प्रथम पूज्य क्यों है ? उस पर देखे कुमार खण्ड अध्याय १३-२० पृष्ठ सं० ३६५-३८०
कुल-तारक सन्तान की प्राप्ति के लिए प्रभु शिव का गृहपति अवतार, श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय १३-१५ पृष्ठ संख्या ५१९-५२६)प्रभु शिव की इच्छा बिना आप तिनके को भी हिलाने में भी असमर्थ है।( प्रमाण प्रभु शिव का यक्षेश्वर अवतार श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय १६ पृष्ठ संख्या ५२६-५२९) प्रभु शिवजी का हनुमान अवतार ( श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय २० पृष्ठ संख्या ५३३-३४)
विष्णु के घमण्ड को नष्ट करने वाला शिवजी का अवतार :- शरभेश्वर अवतार ,श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय १०-१२ पृष्ठ संख्या ५१४-५१९)। भगवान शंकर का वृषेश्वर अवतार श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय २२-२३ पृष्ठ संख्या ५३५-५३९)। शनि ग्रह-पीड़ा को नष्ट करने वाला प्रभु शिव का पिप्पलाद अवतार ,श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय २४-२५ पृष्ठ संख्या ५३९-५४२)। महिलाओं के सभी पापों को नष्ट करने वाला श्री शिव का वैश्यनाथ अवतार श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय २६ पृष्ठ संख्या ५४२-५४५) तथा स्कन्द पुराण में महानन्दा कथा।
हमारी सभी सम्पत्ति,धन, पत्नी, पुत्र,सम्पत्ति आदि १०० प्रतिशत प्रभु शिव की ही है- प्रभु शिव का कृष्ण दर्शन अवतार जिन्होंने विष्णु भक्त राजा अम्बरीष के पितामह राजा नभग को ज्ञान दिया। श्री शिव का कृष्ण-दर्शन अवतार ,श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय २९ पृष्ठ संख्या ५४९-५५१) जीवन में एक बार भी श्रद्धा-भक्ति से शिव भक्त(दीक्षित) का पूजन करने का फल प्रभु शिव स्वयंअपने ऋषभ अवतार से एक राजा के मृत बालक को जीवित करके उसे अमोघ शिवकवच की दीक्षा देकर १२ हजार हाथियों का बल देकर, खोया हुआ राज्य वापिस दिलाते है। (श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय ४ श्लोक ३४-४६ पृष्ठ संख्या ५०२) देवगुरू वृहस्पति के अंश से भरद्वाज द्वारा अयोनिज द्रोण के पुत्र, शिवजी का अवतार अश्वत्थामा,जिन्होंने महाभारत केे युद्ध में कौरवों की और से लड़े और जिन्हेें श्री कृष्ण और अर्जुन भी नहीं परास्त कर सके। (श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय ३६ पृष्ठ संख्या ५६४-५६६) श्री कृष्ण केे होते हुए पाण्ड़व लोग जुऍं में हार गये और १३ वर्ष वनवास का कष्ट भोगा। वनवास की अवधि में भी दुर्योधन ने दुर्वासा ऋषि और मूक राक्षस को पाण्ड़वों का अहित कने के लिए भेजा।वनवास काल में द्वारिका से श्री कृष्ण पाण्ड़वों सेे मिलने के लिए आये। दुर्योधन के त्रास सेे बचने का उपाय पाण्ड़वों ने श्री कृष्ण से पूछा। श्री कृष्ण बोले," हे श्रेष्ठ पाण्ड़व़ों! मैरे मत के अनुसार आपका कर्तव्य हैे कि आप सबको प्रभु शिवजी की विशेष भक्ति करनी चाहिए। मुझ कृष्ण ने द्वारिका जाकर अपने शत्रुओं को जीतने की इच्छा से , हिमालय में जाकर महात्मा उपमन्यु से दीक्षा लेकर १६ महिने उमा-महेश्वर की तपस्या करके पुत्र प्राप्ति, ब्राह्मणों का पूजन आदि ८-८ वरदान प्राप्त किये। प्रभु शिव ने मेरे सभी मनोरथ पूर्ण किये। प्रभु शिव के प्रभाव से मैने सभी उत्तम शक्तियॉं प्राप्त की। मैं अब भी प्रभु शिव की सेवा करता हॅू। तुम भी, भुक्ति तथा मुक्ति देने वाले तथा सभी प्रकार के सुखों को देने वाले प्रभु शिवजी की सेवा करो। (श्री शिवमहापुराण शतरूद्र संहिता अध्याय ३७ श्लोक १२-१६ पृष्ठ संख्या ५६६ तथा उमा संहिता अध्याय १-३ पृष्ठ संख्या ६६३-६७०)
वेदव्यास जी ने भी (श्री कृष्ण की तरह)वनवास काल में दुर्याधन के त्रास से बचने के लिए पाण्ड़वों को श्री शिवजी की पूजा करने का निर्देश दिया। श्री व्यास बोले,"धर्म बुद्धि वाले पाण्ड़वों!श्री कृष्ण ने सत्य ही कहा क्योंकि मैं भी शिवजी की उपासना करता हॅू। आप लोग भी प्रेम में प्रभु शिवजी की सेवा करो, उससे अपार सुख आपको मिलेगा।प्रभु शिव को भुला देने से ही सब प्रकारके दु:ख होते हैंं।(श्री शिवमहापुराण उमासंहिता अध्याय ३७ श्लोक ५१ -५२ पृष्ठ संख्या ५६७)
गुरू व्यास जी ने अर्जुन को प्राथमिक दीक्षा दी। फिर इन्द्र ने अर्जुन को प्रभु शिवजी की अगली दीक्षा दी। तब तपस्या करके अर्जुन ने प्रभु शिव को प्रसन्न कर लिया तब प्रभु शिव ने अर्जुन को पशुपतास्त्र देते हुए कहा,"मैने अपना महान अस्त्र तुम्हें दे दिया है।अब तुम्हें कोई जीत नहीं सकेगा और मैं श्री कृष्ण से भी यही कहॅूगा। वे तुम्हारी सहायता करेंगे।(श्री शिवमहापुराण उमासंहिता अध्याय ४१,श्लोक ५६-५८ पृष्ठ ५७६) क्या श्री कृष्ण पाण्ड़वों की सहायता(बिना प्रभु शिव की आज्ञा के) नहीं कर सकते थे। श्री कृष्ण के होते हुए अर्जुन को तपस्या करने और प्रभु शिव से पाशुपतास्त्र प्राप्त करने की क्यों आवश्यकता पड़ी? भारत मेें प्रभु शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंग, जिनके स्मरण मात्र से (प्रात: सायं) सम्पूर्ण पापों का नाश होता है।(श्री शिवमहापुराण कोटिरूद्र संहिता अध्याय १४-३३ पृष्ठ संख्या ६०४-६४०)
शाप से उद्धार पाने के लिए, चन्द्रमा देवता द्वारा भगवान शिव की तपस्या से प्रकट श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग।(श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय १४ पृष्ठ ६०४-६०६)
जाति धर्म के कर्म से भी अधिक महत्वपूर्ण है प्रभु शिव की शिवलिंग में पूजा।(श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय १६-१७ पृष्ठ ६०७-६११)
खेल-खेल में (बिना दीक्षा के,बिना रूद्राक्ष के, बिना त्रिपुण्ड़ के, बिना शिवलिंगि के, बिना सामग्री के) शिव-पूजा करने का प्रभाव।आठवी पीढ़ी में नन्दबाबा का जन्म, जिनके घर में विष्णु का कृष्ण अवतार हुआ। श्रीकर गोप की कथा(श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय १७ पृष्ठ ६०८-६११)
सुख-दु:ख ,लाभ-हानि, यश-अपयश, में मन स्थिर रहे, समान-भाव बना रहे,( गौतम ऋषि का चरित्र श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय २४-२७ पृष्ठ ६२१-२८ तथा ब्राह्मणी भरद्वाज गोत्रीय घुष्मा द्वारा बिना तपस्या के प्रकट किया गया श्री घुष्मेश्वर ज्योतिर्लिंगश्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय ३२-३३ पृष्ठ ६३६-६४०)
जब विष्णु भी देवताओं की रक्षा के लिए, दैत्यों का वध नहीं कर सके, तब विष्णु ने प्रभु शिव से सुदर्शन चक्र कैसे प्राप्त किया?(श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय ३४-३६ पृष्ठ ६४०-६४६)
प्रभु शिव की पूजा तथा उनके लिए नियमित दान किए बिना कुल-तारक संतान की प्राप्ति नहीं हो सकती।(सूतजी का ऋषियों को उपदेश श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय ३७ पृष्ठ ६४६-६४८)
जो ब्राह्मण प्रभु शिव को प्रसन्न करने के लिए महीने में दस व्रत नहीं रखता और प्रभु शिव के लिए नियमित २५ प्रतिशत दान नहीं करता, वह अगले जन्म में चोर होता है एवं व्रतराज शिवरात्रि की महिमा( विष्णु आदि के पूछले पर प्रभु शिव द्वारा उपदेश श्री शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता, अध्याय ३८ पृष्ठ ६४८-६५१)
प्रभु शिव की माया का प्रभाव: विष्णु, ब्रह्मा,इन्द्र,सूर्य,चन्द्रमा,ऋषि मुनि आदि काम के वशीभूत होकर पर-स्त्री रमन किये। (श्री शिव महारापुराण उमा संहिता अध्याय ४, पृष्ठ ६७०-६७१)
अन्नदान की महिमा:(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय ११ पृष्ठ ६८२-६८४ )ब्राह्मण की परीक्षा लेकर अन्नदान करने का महत्व(स्कन्द पुराण रेवाखंड)
तपस्या तथा सत्य की महिमा (श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय १२ पृष्ठ ६८४-६८६ )किसी भी मंदिर में (दीक्षा लेकर) पुराण पढ़ने का फल श्री शिव महापुराण २४६७२ श्लोक वाले के पढ़ने का चमत्कार। सद्गुरू से दीक्षा लेकर २४६७२ श्लोक वाले श्री शिव महापुराण के मर्यादापूर्वक ५ से ७ बार पाठ करने पर प्रभु शिव का साक्षात्कार हो जाता है।(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय १३ पृष्ठ ६८६-६८८ ) इसके पढ़ने की दीक्षा इस आश्रम द्वारा दी जाती है। परीक्षा लेकर, दीक्षित शिव कर्मकाण्ड़ी ब्राह्मण को १० महादान देने का फल जैसे भूमि, स्वर्ण,तिल, हाथी,कन्या, दासी, घर, रथ, मणि, कपिला-गाय (श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय १४ पृष्ठ ६८८-६८९ )
विशेष दान(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय १५ पृष्ठ ६८९-६९० )देवताओं की पूजा से भी अधिक महत्व अपने मर गये पितरों ककी पूजा का महाफल है।(सनत्कुमार का मार्कण्डेयजी को उपदेश,मार्कण्डेय जी का शान्तनु को उपदेश, शान्तनु का भीष्म-पितामह को उपदेश, शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह का युधिष्ठिर आदि पाण्ड़वों को पितरों की पूजा का महत्व बतलाना।(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय ४०-४२ पृष्ठ ७३४-७३९ )
जिन सद्गुरू से आपने पुराण श्रवण किया, उनके पूजन का महत्व(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय ४३ पृष्ठ ७३९-७४४ )सर्वकामना की प्राप्ति के लिए काशी के दारा नगर में स्थित श्री मद्यमेश्वर की पूजा का फल:- श्री वेदव्यास की उत्पत्ति, श्री वेदव्यास की तपस्या, श्री वेदव्यास द्वारा प्रभु शिव से प्राप्त वरदान।(श्री शिव महापुराण उमा संहिता, अध्याय ४० पृष्ठ ७४०-७४५ )
प्रभु शिव तथा उनकी शक्ति दुर्गा की महिमा- आश्विन नवरात्रा की महिमा, मोह का नाशक तथा छिने हुए राज्य को पुन:प्राप्त करना।(श्री शिवमहापुराण उमा संहिता,अध्याय४५-५१पृष्ठ ७५५-५७ ) प्रयोग विधि आश्रम से सीखें।
पार्वती जगदम्बा ने ऊॅ मंत्र की दीक्षा प्रभु शिव से प्राप्त की।(श्री शिव महापुराण कैलाससंहिता, अध्याय १-२ पृष्ठ ७६३-७६६ )
वामदेव ऋषि रचित कार्तिकेय स्तुति जिसका नित्य पाठ करने से बुद्धि,शिवभक्ति, आयु, आरोग्य,धनवृद्धि के साथ सभी कामनायें पूर्ण होती है।(श्री शिव महापुराण कैलाससंहिता,पूर्वभाग, अध्याय ११ पृष्ठ ७८१-७८३)
ब्रह्मा द्वारा ऋषियों को शिव की महिमा बताया।(श्री शिव महापुराण वायवीय संहिता,पूर्वभाग, अध्याय १-३ पृष्ठ ८१३-८१९ )
वायु देवता द्वारा ऋषियों को शिवतत्व समझाना,वायवीय संहिता, पूर्वभाग,अध्याय ४-३५, पृष्ठ सं० ८१९-८७८)
प्रभु शिव को छोड़कर और किसी देवता से वरदान नहीं लेना चाहिए। उस पर आधारित विष्णु अवतार श्री कृष्ण के गुरू उपमन्यु का चरित्र(श्री शिव महापुराण वायुसंहिता,पूर्वभाग, अध्याय ३४-३५ पृष्ठ ८७४-८७८ )
पृथ्वी पर देवताओं की पूजा की बड़ी महिमा है परन्तु ये देवता महा-स्वार्थी हैं, ऐसे ही उनके गुरूदेव वृहस्पति है। तारकासुर से पीड़ित देवता लोग दुर्गा की स्तु ति करके उसे हिमालय और मेना की पुत्री (पार्वती) उत्पन्न करने में सफल हो गये। जब देवताओं की प्रार्थना से प्रभु शिव ने पार्वती से विवाह भी कर लिया तब प्रभु शिव और पार्वती के विहार में स्वार्थी देवताओं ने विघ्न किया और पार्वती से देवताओं की स्त्रियों को शाप मिला।( प्रमाण श्री शिव महापुराण कुमारखंड, अध्याय २ श्लोक १४-१८ पृष्ठ ३४४ ) जब हिमालय और मैना अपनी पुत्री (पार्वती) प्रभु शिव को पत्नी रूप में देने को तैयार हो गये (इसमें देवताओं का ही हित था) पार्वती और शिव से पुत्र कार्तिकेय का जन्म होना थ जो कि देवताओं के वैरी तारकासुर को मारेगा), तब भी स्वार्थी नहीं चाहते थे कि हिमालय भक्ति से अपनी पुत्री पार्वती को पत्नी रूप में प्रभु शिव को दे।(क्योंकि ऐसा करने से हिमालय का भी मोक्ष हो जायेगा। तब देवता विहार कहॉं करेंगे?)तब देवता लोग पहले गुरू वृहस्पति के पास, फिर ब्रह्मा के पास गये और प्रार्थना की कि वे (वृहस्पति या ब्रह्मा) हिमालय के पास जाकर प्रभु शिव की निन्दा करें। (क्योंकि शिव निन्दा सुनने से हिमालय को इतना प्रभु शिव की माया को समझना अत्यन्त कठिन है यहॅंा तक की साक्षात दुर्गा, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र आदि भी नहीं समझतें। प्रभु शिव की माया से मोहित होकर विष्णु ने पर-स्त्री गमन किया। ब्रह्मा अपनी ही पोत्री, दक्ष की कन्या सती पर कामासक्त हुए। उस समय कामासक्त ब्रह्मा के चार बूॅंदे वीर्य पृथ्वी पर गिरी तब प्रभु शिव ब्रह्मा का वध करने के लिए उत्सुक हुए। तब विष्णु ने प्रभु शिव की स्तुति की।( प्रमाण श्री शिव महापुराण सतीखंड अध्याय १९ श्लोक ५०-५६तथा ६८-७५ पृष्ठ संख्या १८३-१८४) दूसरी बार फिर ब्रह्मा प्रभु शिव की पत्नी (दुर्गा) का अवतार, पार्वती पर कामासक्त हुए, तब फिर प्रभु शिव ब्रह्मा का वध करने के लिए तत्पर हुए तब देवताओं ने आपकी स्तुति करते हुए कहा,.... हे विभु! सातों समुद्र आपके वस्त्र है, दसो दिशाऍं भुजा है, द्युलोक शिर है, आकाश नाभि है, वायु नासिका है, अग्नि-सूर्य-चन्द्रमा आपके नेत्र है। मेघमण्डल केश है, नक्षत्र - तारे आदि आपके आभूषण है। हे विभु!हे परमेश्वर! हे देवेश! हम आपकी कैसे स्तुति करें। आप मन तथा वाणी से परे है। आप पंचमुख रूद्र हैं। पचास करोड़ मूर्तियों वाले हैं, तीनों लोकों के स्वामी है, सर्वश्रेष्ठ है। विद्यातत्व के अधिपति हैं, वर्णनातीत हैं, नित्य है। (प्रमाण श्री शिव महापुराण पार्वती खण्ड अध्याय ४९ श्लोक १२-३१ पृष्ठ संख्या ३२५ से ३२६)
पाप लगेगा कि वह शिवजी को कन्यादान करने पर मोक्षलाभ नहीं प्राप्त कर सकेगा। (श्री शिव महापुराण पार्वतीसंहिता, अध्याय ३१ श्लोक १-२३ पृष्ठ २८९-२९० )ये सभी स्वार्थी देवता हर मनुष्य के शरीर में विद्यमान रहते है। ये सभी देवता चाहते है कि वह हम केवल देवताओं का ही पूजन करें(प्रभु शिव का नहीं)। जब मनुष्य प्रभु शिव का पूजन करता है, तो ये शरीर-स्थित स्वार्थी देवता(अपने ही इष्ट प्रभु शिव) प्रभु शिव की पूजा करने वाले को विघ्न डालते है। ये देवता केवल एक ही प्रयोग से (शरीर में रहते हुए भी)शान्त रहते है। हमारा आश्रम यह प्रयोग सिखाता है।
अधिकांश धर्माचार्य बताते हैं कि बुरे कर्मो का फल भुगतना ही पड़ता है, परन्तु देहधारी गुरू से दीक्षा लेकर प्रभु शिव की शिवलिंग में विद्यिवत पूजा करने से पुराने पापों का बुरा फल भुगतना नहीं पड़ता । मृकण्डु पुत्र मार्कण्डेय ऋ्रषि की आयु( उसके पूर्व जन्मों के कर्मो के अनुसार) केवल आठ वर्ष की ही थी, शिवलिंग की पूजा से मार्कण्डेय चिरंजीवि हो गया। मार्कण्डेय ऋषि रचित चन्द्रशेखराष्टक स्तोत्र है, जिसमें मार्कण्डेय ऋषि कहे है, "मैं चन्द्रशेखर (शिव) के आश्रय में हॅू, यमराज मेरा क्या बिगाड़ सकेगा?"अकाल मृत्यु से बचने के लिए इस चन्द्रशेखराष्टक का प्रयोग हमारा आश्रम सिखाता है।
शिवपुराण की कोटिरुद्रसंहिता में बताया गया है कि शिवरात्रि व्रत करने से व्यक्ति को भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्राप्त होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा पार्वती के पूछने पर भगवान सदाशिव ने बताया कि शिवरात्रि व्रत करने से महान पुण्य की प्राप्ति होती है। मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले चार संकल्प पर नियमपूर्वक पालन करना चाहिए।
ये चार संकल्प हैं- शिवरात्रि पर भगवान शिव की पूजा, रुद्रमंत्र का जप, शिवमंदिर में उपवास तथा काशी में देहत्याग। शिवपुराण में मोक्ष के चार सनातन मार्ग बताए गए हैं। इन चारों में भी शिवरात्रि व्रत का विशेष महत्व है। अतः इसे अवश्य करना चाहिए।
यह सभी के लिए धर्म का उत्तम साधन है। निष्काम अथवा सकामभाव से सभी मनुष्यों, वर्णों, स्त्रियों, बालकों तथा देवताओं के लिए यह महान व्रत परम हितकारक माना गया है। प्रत्येक मास के शिवरात्रि व्रत में भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी में होने वाले महाशिवरात्रि व्रत का शिवपुराण में विशेष महात्म्य है।
उपवास में रात्रि जागरण क्यों? :-
ऋषि मुनियों ने समस्त आध्यात्मिक अनुष्ठानों में उपवास को महत्वपूर्ण माना है। 'विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देनिहः' के अनुसार उपवास विषय निवृत्ति का अचूक साधन है। अतः आध्यात्मिक साधना के लिए उपवास करना परमावश्यक है। उपवास के साथ रात्रि जागरण के महत्व पर संतों का यह कथन अत्यंत प्रसिद्ध है-'या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।'
इसका सीधा तात्पर्य यही है कि उपासना से इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण करने वाला संयमी व्यक्ति ही रात्रि में जागकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो सकता है। अतः शिवोपासना के लिए उपवास एवं रात्रि जागरण उपयुक्त हो सकता है? रात्रि प्रिय शिव से भेंट करने का समय रात्रि के अलावा और कौन समय हो सकता है?
इन्हीं सब कारणों से इस महान व्रत में व्रतीजन उपवास के साथ रात्रि में जागकर शिव पूजा करते हैं। इसलिए महाशिवरात्रि को रात के चारों पहरों में विशेष पूजा की जाती है। सुबह आरती के बाद यह उपासना पूर्ण होती है।
महाशिवरात्रि पूजा विधि : -
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शिवपुराण के अनुसार व्रती पुरुष को प्रातः काल उठकर स्नान संध्या कर्म से निवृत्त होने पर मस्तक पर भस्म का तिलक और गले में रुद्राक्षमाला धारण कर शिवालय में जाकर शिवलिंग का विधिपूर्वक पूजन एवं शिव को नमस्कार करना चाहिए। तत्पश्चात उसे श्रद्धापूर्वक व्रत का इस प्रकार संकल्प करना चाहिए-
शिवरात्रिव्रतं ह्येतत् करिष्येऽहं महाफलम।
निर्विघ्नमस्तु से चात्र त्वत्प्रसादाज्जगत्पते।
यह कहकर हाथ में लिए पुष्पाक्षत् जल आदि को छोड़ने के पश्चात यह श्लोक पढ़ना चाहिए-
देवदेव महादेव नीलकण्ठ नमोऽस्तु से
कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तव।
तव प्रसादाद्देवेश निर्विघ्नेन भवेदिति।
कामाशः शत्रवो मां वै पीडां कुर्वन्तु नैव हि॥
हे देवदेव! हे महादेव! हे नीलकण्ठ! आपको नमस्कार है। हे देव! मैं आपका शिवरात्रि व्रत करना चाहता हूं। हे देवश्वर! आपकी कृपा से यह व्रत निर्विघ्न पूर्ण् हो और काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रु मुझे पीड़ित न करें।
रात्रि पूजा का विधान :-
दिनभर अधिकारानुसार शिवमंत्र का यथाशक्ति जप करना चाहिए अर्थात् जो द्विज हैं और जिनका विधिवत यज्ञापवीत संस्कार हुआ है तथा नियमपूर्वक यज्ञोपवीत धारण करते हैं। उन्हें ॐ नमः शिवाय मंत्र का जप करना चाहिए परंतु जो द्विजेतर अनुपनीत एवं स्त्रियां हैं, उन्हें प्रणवरहित केवल शिवाय नमः मंत्र का ही जप करना चाहिए।
रुग्ण, अशक्त और वृद्धजन दिन में फलाहार ग्रहण कर रात्रि पूजा कर सकते हैं, वैसे यथाशक्ति बिना फलाहार ग्रहण किए रात्रिपूजा करना उत्तम है।
रात्रि के चारों प्रहरों की पूजा का विधान शास्त्रकारों ने किया है। सायंकाल स्नान करके किसी शिवमंदिर जाकर अथवा घर पर ही सुविधानुसार पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर और तिलक एवं रुद्राक्ष धारण करके पूजा का इस प्रकार संकल्प करे-देशकाल का संकीर्तन करने के अनंतर बोले- 'ममाखिलपापक्षयपूर्वकसकलाभीष्टसिद्धये शिवप्रीत्यर्थ च शिवपूजनमहं करिष्ये।' अच्छा तो यह है कि किसी वैदिक विद्वान ब्राह्मण के निर्देश में वैदिक मंत्रों से रुद्राभिषेक का अनुष्ठान करवाएं।
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