शाण्डिल्य मुनि ने एक दरिद्र पुत्र की माता से कहा- ‘शिवजी की प्रदोषकाल के अन्तर्गत की गयी पूजा का फल श्रेष्ठ होता है। जो प्रदोषकाल में शिव की पूजा करते हैं, वे इसी जन्म में धन-धान्य, कुल-सम्पत्ति से समृद्ध हो जाते हैं। ब्राह्मणी ! तुम्हारा पुत्र पूर्व-जन्म में ब्राह्मण था। इसने अपना जीवन दान लेने में बिताया। इस कारण इस जन्म में इसे दारिद्रय मिला। अब उस दोष का निवारण करने के लिये इसे भगवान शंकर की शरण में जाना चाहिए।’
शाण्डिल्य मुनि बोले- ‘दोनों पक्षों की त्रयोदशी को मनुष्य मिराहार रहे और सूर्योदय से तीन घड़ी पूर्व स्नान कर ले। फिर श्वेत वस्त्र धारण करके धीर पुरुष संध्या और जप आदि मित्य कर्म की विधि पूरी करे। तदनन्तर मौन हो शास्त्रविधि का पालन करते हुए शिव की पूजा प्रारम्भ करे।
भगवन् विग्रह के आगे की भूमि को खूब लीप-पोतके शुद्ध करे। उस स्थल को धौतवस्त्र, फूल एवं पत्रों से खूब सजाये। इसके पश्चात् पवित्र भाव से शास्त्रोक्त मन्त्र-द्वारा देवपीठ को आमन्त्रित करे। इसके पश्चात् मातृकान्यासादि विधियों को पूर्ण करे। फिर हृदय में अनन्त आदि न्यास करके देवपीठ पर मन्त्र का न्यास करके हृदय में एक कमल की भावना करे।
वह कमल नौ शक्तियों से युक्त परम सुन्दर हो। उसी कमल की कर्णिका में कोटि-कोटि चन्द्रमा के समान प्रकाशमान भगवान् शिव का ध्यान करे।
भगवान् शिव के तीन नेत्र हैं। मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट शोभायमान है। जटाजूट कुछ-कुछ पीला हो रहा है। सर्पों के हार से उनकी शोभा बढ़ रही है। उनके कण्ठ में नीला चिह्न है। उमके हाथ में वरद तथा दूसरे हाथ में अभय-मुद्रा है। वे व्याघ्र-चर्म पहने रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके वाम भाग में भगवती उमा का चिन्तन करे।
वह कमल नौ शक्तियों से युक्त परम सुन्दर हो। उसी कमल की कर्णिका में कोटि-कोटि चन्द्रमा के समान प्रकाशमान भगवान् शिव का ध्यान करे।
भगवान् शिव के तीन नेत्र हैं। मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट शोभायमान है। जटाजूट कुछ-कुछ पीला हो रहा है। सर्पों के हार से उनकी शोभा बढ़ रही है। उनके कण्ठ में नीला चिह्न है। उमके हाथ में वरद तथा दूसरे हाथ में अभय-मुद्रा है। वे व्याघ्र-चर्म पहने रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके वाम भाग में भगवती उमा का चिन्तन करे।
इस प्रकार युगल दम्पति का ध्यान करके उनकी मानसिक पूजा करे। इसके बाद सिंहासन पर स्थित महादेवजी का पूजन करे। पूजा के आरम्भ में एकाग्रचित्त हो संकल्प पढ़े। तदनन्तर हाथ जोड़कर मन-ही-मन उनका आह्वान करे-’ हे भगवान् शंकर ! आप ऋण, पातक, दुर्भाग्य आदि की निवृत्ति के लिये मुझ पर प्रसन्न हों।’ इसके पश्चात् गिरिजापति की प्रार्थना इस प्रकार करे-
जय देव जगन्नाथ, जय शंकर शाश्वत। जय सर्व-सुराध्यक्ष, जय सर्व-सुरार्चित ! ।।
जय देव जगन्नाथ, जय शंकर शाश्वत। जय सर्व-सुराध्यक्ष, जय सर्व-सुरार्चित ! ।।
जय सर्व-गुणातीत, जय सर्व-वर-प्रद ! जय नित्य-निराधार, जय विश्वम्भराव्यय ! ।।
जय विश्वैक-वेद्येश, जय नागेन्द्र-भूषण ! जय गौरी-पते शम्भो, जय चन्द्रार्ध-शेखर ! ।।
जय कोट्यर्क-संकाश, जयानन्त-गुणाश्रय ! जय रुद्र-विरुपाक्ष, जय चिन्त्य-निरञ्जन ! ।।
जय नाथ कृपा-सिन्धो, जय भक्तार्त्ति-भञ्जन ! जय दुस्तर-संसार-सागरोत्तारण-प्रभो ! ।।
प्रसीद मे महा-भाग, संसारार्त्तस्य खिद्यतः। सर्व-पाप-भयं हृत्वा, रक्ष मां परमेश्वर ! ।।
महा-दारिद्रय-मग्नस्य, महा-पाप-हृतस्य च। महा-शोक-विनष्टस्य, महा-रोगातुरस्य च।।
ऋणभार-परीत्तस्य, दह्यमानस्य कर्मभिः। ग्रहैः प्रपीड्यमानस्य, प्रसीद मम शंकर ! ।। (स्क॰ पु॰ ब्रा॰ ब्रह्मो॰ ७।५९-६६)
फल-श्रुतिः
दारिद्रयः प्रार्थयेदेवं, पूजान्ते गिरिजा-पतिम्। अर्थाढ्यो वापि राजा वा, प्रार्थयेद् देवमीश्वरम्।।
दीर्घमायुः सदाऽऽरोग्यं, कोष-वृद्धिर्बलोन्नतिः। ममास्तु नित्यमानन्दः, प्रसादात् तव शंकर ! ।।
शत्रवः संक्षयं यान्तु, प्रसीदन्तु मम गुहाः। नश्यन्तु दस्यवः राष्ट्रे, जनाः सन्तुं निरापदाः।।
दुर्भिक्षमरि-सन्तापाः, शमं यान्तु मही-तले। सर्व-शस्य समृद्धिनां, भूयात् सुख-मया दिशः।।
अर्थात् ‘देव ! जगन्नाथ ! आपकी जय हो। सनातन शंकर ! आपकी जय हो। सम्पूर्ण देवताओं के अधीश्वर ! आपकी जय हो। सर्वदेवपूजित ! आपकी जय हो। सर्वगुणातीत ! आपकी जय हो। सबको वर प्रदान करने वाले प्रभो ! आपकी जय हो। नित्य, आधार-रहित, अविनाशी विश्वम्भर ! आपकी जय हो, जय हो। सम्पूर्ण विश्व के लिये एकमात्र जानने योग्य महेश्वर ! आपकी जय हो। नागराज वासुकी को आभूषण के रुप धारण करने वाले प्रभो ! आपकी जय हो। गौरीपते ! आपकी जय हो। चन्द्रार्द्धशेखर शम्भो ! आपकी जय हो। कोटी-सूर्यों के समान तेजस्वी शिव ! आपकी जय हो। अनन्त गुणों के आश्रय ! आपकी जय हो। भयंकर नेत्रों वाले रुद्र ! आपकी जय हो। अचिन्त्य ! निरञ्जन ! आपकी जय हो। नाथ ! दयासिन्धो ! आपकी जय हो। भक्तों की पीड़ा का नाश करने वाले प्रभो ! आपकी जय हो। दुस्तर संसारसागर से पार उतारने वाले परमेश्वर ! आपकी जय हो। महादेव, मैं संसार के दुःखों से पीड़ित एवं खिन्न हूँ, मुझ पर प्रसन्न होइये। परमेश्वर ! समस्त पापों के भय का अपहरण करके मेरी रक्षा कीजिये। मैं घोर दारिद्रय के समुद्र में डूबा हुआ हूँ। बड़े-बड़े पापों ने मुझे आक्रान्त कर लिया है। मैं महान् शोक से नष्ट और बड़े-बड़े रोगों से व्याकुल हूँ। सब ओर से ऋण के भार से लदा हुआ हूँ। पापकर्मों की आग में जल रहा हूँ और ग्रहों से पीड़ित हो रहा हूँ। शंकर ! मुझ पर प्रसन्न होइये।’
(और कोई विधि-विधान न बन सके तो श्रद्धा-विश्वास-पूर्वक केवल उपर्युक्त स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करे।)
अर्थात् ‘देव ! जगन्नाथ ! आपकी जय हो। सनातन शंकर ! आपकी जय हो। सम्पूर्ण देवताओं के अधीश्वर ! आपकी जय हो। सर्वदेवपूजित ! आपकी जय हो। सर्वगुणातीत ! आपकी जय हो। सबको वर प्रदान करने वाले प्रभो ! आपकी जय हो। नित्य, आधार-रहित, अविनाशी विश्वम्भर ! आपकी जय हो, जय हो। सम्पूर्ण विश्व के लिये एकमात्र जानने योग्य महेश्वर ! आपकी जय हो। नागराज वासुकी को आभूषण के रुप धारण करने वाले प्रभो ! आपकी जय हो। गौरीपते ! आपकी जय हो। चन्द्रार्द्धशेखर शम्भो ! आपकी जय हो। कोटी-सूर्यों के समान तेजस्वी शिव ! आपकी जय हो। अनन्त गुणों के आश्रय ! आपकी जय हो। भयंकर नेत्रों वाले रुद्र ! आपकी जय हो। अचिन्त्य ! निरञ्जन ! आपकी जय हो। नाथ ! दयासिन्धो ! आपकी जय हो। भक्तों की पीड़ा का नाश करने वाले प्रभो ! आपकी जय हो। दुस्तर संसारसागर से पार उतारने वाले परमेश्वर ! आपकी जय हो। महादेव, मैं संसार के दुःखों से पीड़ित एवं खिन्न हूँ, मुझ पर प्रसन्न होइये। परमेश्वर ! समस्त पापों के भय का अपहरण करके मेरी रक्षा कीजिये। मैं घोर दारिद्रय के समुद्र में डूबा हुआ हूँ। बड़े-बड़े पापों ने मुझे आक्रान्त कर लिया है। मैं महान् शोक से नष्ट और बड़े-बड़े रोगों से व्याकुल हूँ। सब ओर से ऋण के भार से लदा हुआ हूँ। पापकर्मों की आग में जल रहा हूँ और ग्रहों से पीड़ित हो रहा हूँ। शंकर ! मुझ पर प्रसन्न होइये।’
(और कोई विधि-विधान न बन सके तो श्रद्धा-विश्वास-पूर्वक केवल उपर्युक्त स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करे।)
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