पुरुषार्थ से हम अपना भाग्य बदल सकते हैं। इस संबंध में एक पुरानी कहावत भी है कि कर्मों का फल अवश्य मिलता है। लेकिन लोग अक्सर कर्म के सिद्धांत को समझने में गलती कर देते हैं और अपनी नियति को भाग्य से जोड़ देते हैं। बहुत से लोगों को ऐसा कहते सुना जाता है कि अगर भाग्य पहले से निर्धारित है, तो कर्म करने की क्या जरूरत है? हर चीज भाग्य पर छोड़ दो। लेकिन ऐसा नहीं है।
कर्म के सिद्धांत को समझने के लिए कर्म के प्रकारों को समझना जरूरी है। कर्म के तीन प्रकार हैं: संचित, प्रारब्ध और क्रियामना अर्थात् आगामी। बीत चुके समय या पिछले जन्मों के कर्म संचित कर्म हैं। इनकी झलक व्यक्ति के चरित्र, उसके रुझान, क्षमता, प्रवृति और इच्छा में देखने को मिलती है। प्रारब्ध कर्म भी संचित कर्म का ही हिस्सा है और यह व्यक्ति के वर्तमान जीवन को प्रभावित करते हैं। यह कर्म की वह स्थिति है, जब हमें पहले के कर्मों का फल प्राप्त होने लगता है। क्रियामना से आशय उन कर्मों से है, जो भविष्य के लिए किए जाते हैं। इनका फल भविष्य में मिलता है या फिर अगले जन्मों में।
कर्म के प्रकारों को वेदों में एक धनुर्धर (धनुषधारी) का उदाहरण देकर समझाया गया है। उसकी पीठ पर मौजूद तरकश के तीर संचित कर्म के समान हैं। जो तीर उसने छोड़ दिए हैं, उनकी तुलना प्रारब्ध कर्म से की गई है और जो तीर वह छोड़ेगा, वे आगामी या क्रियामना कर्म हैं। संचित और आगामी कर्मों पर तो उसका पूरा नियंत्रण है, लेकिन उसके लिए जरूरी है कि वह प्रारब्ध को नियंत्रित करे।
कर्म की तुलना भंडार में जमा करके रखे गए चावलों से भी की गई है। संचित कर्म भंडार में रखे चावलों की तरह हैं और वर्तमान को प्रभावित करने वाला प्रारब्ध-कर्म पकाने के लिए तैयार गए चावलों की तरह। खेत में बोया जाने वाला चावल वर्तमान कर्मों के परिणाम, यानी क्रियामना की तरह है। चावल की जो फसल बोई जा रही है, वह कल की ऐसी पूंजी है, जिससे धान का भंडार बढ़ेगा।
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