संसार में जितने ईश्वर में विश्वास करने वाले लोंग हैं परमात्मा के भिन्न भिन्न स्वरूपों को मानते हैं | कुछ अपने ही ईश्वर को लेकर झगडा भी करते हैं कुछ सब सही हैं यह कहे कर ईश्वर अर्थात परमात्मा के स्वरुप पर चिंतन व चर्चा नहीं करते | पर सत्य तो एक ही होता हैं, परमात्मा भी एक स्वरुप हैं और उस सत्य स्वरुप का पता चल जाए तो दुनिया के झगडे ही खत्म हो जाए | एक स्वरुप इस लिए हैं क्यों की सृष्टि भी एक हैं यदि ईश्वर भिन्न होता तो सृष्टि भी बट जाती | पर अब प्रश्न ये उठता हैं के उस ईश्वर को जाने कैसे ? पर वेद की भी क्यों माने यदि बुद्धि से स्वीकार ईश्वर का स्वरुप हमें समझ नहीं आता | तो परमात्मा को जानने के लिए हम एक स्तरीय परिभाषा को लेकर चलते हैं फिर उस परिभाषा को ज्ञान से मापते हैं तर्क कर के देखते हैं के दोष तो नहीं हैं | परिभाषा ऐसी हो जो सबको स्वीकार हो यानी वह परमात्मा के गुण, स्वाभाव इत्यादि के बारे में हमें बताती हो | यदि हर संभावित तर्क से अपनी ही मान्य परिभाषा में की समीक्षा करते हैं | सारे रहस्य खुल जाएंगे यदि हम परमात्मा के वास्तविक स्वरुप को समझ सके |
अब ईश्वर विषय में ऐसे विद्वान की बात लेकर चले जो अद्वतीय आस्तिक हो | हम महर्षि दयानंद को लेकर चलते हैं | उन्होंने आर्यो को निर्देशित नियमो में दूसरे नियम में ही ईश्वर के स्वरुप के बारे में बताया हैं | जो इस प्रकार हैं “ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है।“
अब शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसे आपत्ति हो परमात्मा के इन गुणों पर | पर फिर भी हम एक एक करके ऋषि द्वारा बताये इन सारे गुणों पर चर्चा करेंगे | यह सारे गुण उसके स्वरुप से जुड़े हुए हैं और आपस में भी सम्बंधित हैं | यह सारे गुण उस परमात्मा के पूर्ण होने की भी बात हमें बताते हैं | आइये हम उसके स्वरुप को पूर्ण करने वाले गुणों पर चर्चा प्रारंभ करे |
सच्चिदानंदस्वरूप : यह शब्द सत् + चित् + आनंद से बना हैं | सत् कहते हैं जो हमेशा रहे समय के बंधन में ना बंधने वाला | चित् कहते हैं चिताने वाला यानी प्रकृति और जीवो का मिलन कराने वाला वही हैं यह ये भी बताता हैं के वह सत्य जानता हैं लोगो के किये हुए कर्मो को जानता हैं और न्याय रखते हुए उपयुक्त कर्माशय युक्त जीवात्मा को उपयुक्त शरीर दिलाता हैं | वह आनंद स्वरुप भी हैं यानी वह परमात्मा राग द्वेष इर्ष्या भाव इत्यादि से मुक्त हैं | जो उसकी उपासना नहीं कर्ता उस से भी वह आनंद स्वरुप परमात्मा प्रेम कर्ता हैं उसकी अमृतवर्षा सबके लिए समान हैं | हमारा मन जितना शुद्ध होगा, जितना ही हम उस चेतना के आनंद स्वरुप को पाने का प्रयास करेंगे उतना ही हम लाभ उठा सकेंगे | अब कोई मनुष्य शरीर में रहते काल से परे नहीं हो सकताए अतः सत् गुण मनुष्य पर लागू नहीं होता, जीवात्मा जरुर अनादी हैं काल के अंत के बाद भी रहेगी पर वह कुछ कर नहीं सकती प्रकृति के बिना इसलिए परमात्मा जैसा सामर्थ्य उसमे नहीं | जीव विज्ञान(क्लोनिंग) या गर्भाधान संस्कार के माध्यम से रासायनिक प्रक्रियाये जरुर कर सकता हैं मनुष्य, पर उसके बाद उसे परमात्मा से उत्तम जीवात्मा के लिए प्रार्थना करनी ही पड़ेगी सो चित् गुण भी परमात्मा जैसा नहीं प्राप्त कर सकता | हां आनंद स्वरुप तो मनुष्य समाधी अवस्था में हो सकता हैं और उसके बाद जब मोक्ष को प्राप्त होता हैं तो निश्चित समय के लिए उसी आनंद में रहता हैं |
निराकार : जिसका कोई आकार ना हो उसे निराकार कहते हैं | अब यह गुण समझने के लिए हम विपरीत बात मान कर समझते हैं | हम परमात्मा का आकार मान लेते हैं और देखते हैं ऐसा मानने से क्या दोष आते हैं | एक निश्चित आकार की चेतना का प्रभाव भी निश्चित सीमा में रहेगा | उसका ज्ञान भी सिमित रहेगा या जितना भी रहेगा वहा सिर्फ अपनी सत्ता में लगा सकता हैं जहा तक वह हैं | उसकी न्याय सत्ता भी प्रभावित होगी, उसके निकट अधिक न्याय होगा और जैसे-२ दुरी बढती जाएगी उसका न्याय कम होगा क्यों की वह वहा पर हैं ही नहीं | सम्पूर्ण सृष्टि के निर्माण का सामर्थ्य भी उसमे नहीं होगा वह सिर्फ सिमित आकार के साथ सिमित निर्माण ही कर सकेगा | यानी सारे गुण विपरीत सिद्ध होते हैं यदि हम परमात्मा को निराकार नहीं मानते | वह अन्यायकारी, सिमित सामर्थ्य वाला सिमित ज्ञान वाला इत्यादि सिद्ध होता हैं | इसलिए परमात्मा निराकार ही हैं तभी वह पूर्ण हैं | अब निराकार कैसा होता हैं यह समझना जरुरी हैं | वह ब्रह्म हैं अर्थात सबसे बड़ा हैं सूर्य चंद्र ही नहीं सारा या सारे ब्रह्माण्ड उसमे आते हैं | हम सब उस असीम चेतना के भीतर हैं और वह हमारे भीतर हैं यानी जिसे हम शुन्य कहते हैं वह भी परमात्मा की चेतना से भरा हुआ हैं यही उसका निराकार स्वरुप हैं |
सर्वशक्तिमान : यानी सबसे ताकतवर, उसकी शक्ति के समान किसी का सामर्थ्य नहीं | कोई मनुष्यधारी उसकी सर्वशक्तिमत्ता के पास पहुच सकता | जो वह सबसे अधिक शक्ति सामर्थ्यावाला ना हो तो वह सूर्य आदि ग्रहों का चंद्र आदि पिंडो का निर्माण भी ना कर सके | वह ग्रहों से लेकर समस्त परमाणुओ तक को अपनी शक्ति से संतुलित रखता हैं | कोई मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता |
न्यायकारी : जो जिस योग्य हैं उसे वह कल्याण हेतु प्रदान करने वाला, न्याय करने वाला परमात्मा ही हैं | सभी मनुष्यों को चाहिए के परमात्मा के न्याय के गुण को धारण करे और समस्त जगत में न्याय के साथ, न्याय के लिए ही जीवन व्यतीत करे | ना अन्याय करे ना होने दे यही धर्म को धारण कराता हैं | आप को संशय ये हो सकता हैं के दुनिया में जो गलत कार्य होते हैं क्या वह परमात्मा की इच्छा से होते हैं ? नहीं कदापि नहीं, वह सदैव लोगो को अपने गुणों का आनंद देता रहता हैं हमारा अन्तःकरण मलिन होने से हम उसके आदेशो का पालन नहीं कर पाते | और जीव कर्म करने को पूर्णतः स्वतंत्र हैं पर कर्मफल पाने को परतंत्र हैं | जो अन्याय होता दीखता हैं उसका कारण पशुतुल्य मनुष्य हैं और न्यायव्यवस्था में उन्हें दंड देने वाला परमात्मा हैं |
दयालु : देखिये न्यायकारी के बाद दयालु कहा गया हैं | वह अभयदान कर्ता हैं, दोषी को दंड देने वाला और न्याय करने वाले पर दया करने वाला हैं | उसका यह गुण सभी मनुष्यों को अपने अंदर लेना चाहिए
अजन्मा : प्रकृति से युक्त होने को जन्म कहते हैं | जो जन्म लेता हैं उसकी मृत्यु भी निश्चित हैं और जो मृत्यु को प्राप्त हो जाए वह परमात्मा नहीं हो सकता | वह परमात्मा तो सदैव से प्रकृति का त्याग करे हुए हैं और क्यों की वहा त्याग करे हुए हैं इसीलिए उसने जीवात्माओ के जन्ममरण व्यवस्था हेतु सृष्टि का निर्माण किया | अतः वह परमात्मा अजन्मा हैं |
अनंत : जो अजन्मा हैं उसका कोई अंत भी नहीं इसलिए वह अनंत हैं | उसका कोई परिमाण करना संभव नहीं इसलिए भी वहा अनंत हैं यानी हर दिशा में बस फैला हुआ हैं बिना किसी अंत के |
निर्विकार : उसमे कोई विकार नहीं | जो भी मनुष्य शरीर धारण कर्ता हैं वह विकारों से नहीं बच सकता | रोग से शोक तक भिन्न विकार उसमे रहते ही हैं | जब योगी समाधी में जाता हैं तब जीवात्मा उस निर्विकार परमात्मा के आनंद का अनुभव करती हैं | जो वह निर्विकार ना हो तो आनंद में ना रह सके | आनंद सुख और दुःख से भिन्न हैं | आनंद युक्त प्रेम मनुष्य के काम (इच्छा) युक्त प्रेम से भिन्न होता हैं |
अनादि : वह सदैव से था सदैव रहेगा इसलिए वह परमात्मा अनादी हैं | परमात्मा के अतिरिक्त जीवात्मा और प्रकृति भी अनादी हैं | पर जब जीवात्मा शरीर धारण करती हैं तो उसके शरीर की मृत्यु निश्चित होती हैं और प्रकृति का जब परमात्मा स्वरुप बदलता हैं तो प्रकृति का वापस अपने मूल स्वरुप में आना भी निश्चित हैं |
अनुपम : उसके सामान कोई नहीं हो सकता | यह गुण बताता हैं की वह एक ही हैं और उसके जैसा दूसरा कोई नहीं |
सर्वाधार : सबको धारण करने वाला सर्वाधार परमात्मा हैं | उसका धारण किया हुआ शरीर यही हैं के प्रकृति और जगत सब उसके अंदर हैं और वहा ब्रह्म स्वरुप सबसे बड़ा हैं | यह उसके निराकार गुण की भी पुष्टि करता हैं जो वहा निराकार ना होता तो सर्वाधार ना होता |
सर्वेश्वर : अर्थात सबका ईश्वर परमात्मा हैं यानी के ईश्वर एक हैं | जो वह सर्वेश्वर ना हो तो पुरे जगत में अव्यवस्था फ़ैल जाए | सृष्टि कभी क्रम में आ ही ना पाए क्यों के २ सृष्टिकर्ता माने तो जगत में भिन्न-२ नियमों को पावेंगे पर विज्ञान अर्थात प्रकृति से निर्मित सरचनाओ के नियम समस्त ब्रह्माण्ड में एक ही हैं इसलिए सबका ईश्वर एक परमात्मा हैं |
सर्वव्यापक : इसका पर्याय संस्कृत में विष्णु होता हैं | जो वह हर जगह ना हो तो हर जगह निर्माण या प्रलय भी ना करा सके | वह सातवे आसमान पर नहीं अपितु सारे आसमान उसके अंदर समाहित हैं | उसका सर्वव्यापक होने का गुण भी उसे सर्वज्ञानी होना सार्थक कर्ता हैं |
सर्वांतर्यामी : यानी सब कुछ जानने वाला | सर्वज्ञानी सिर्फ परमात्मा हैं | वह इतना सूक्ष्म हैं के अंदर भी हैं और बाहर भी तो आप कुछ सोचते हैं उसे तुरंत ही ज्ञात हो जाता हैं उसकी उपस्तिथि के कारण | अतः हमें सदैव सर्व कल्याणकारी चिंतन (यानी यज्ञ का) चिंतन करना चाहिए | और जो वह सर्वान्तर्यामी ना होता तो सृष्टि का निरमंड भी ना कर पाता | इसीलिए वह सबका गुरु कहा गया हैं उसे सभी पदार्थो की विद्या आती हैं इसीलिए आर्यो के प्रथम नियम में सत्य विद्या का मूल परमेश्वर बताया गया हैं | जो चेतना होती हैं वह सदैव ज्ञान से युक्त होती हैं और वो चेतना जो हर जगह हैं वह सर्वज्ञानी ही हैं |
अजर : वह आयु को प्राप्त नहीं होता | उसे बुढ़ापा नहीं आता वह सदा एक सा रहता हैं यह उसके सर्वव्यापक गुण की पुष्टि कर्ता हैं | उसको काल से भिन्न कर्ता हैं उसका अजरता का गुण और परमात्मा अपना गुण कभी नहीं छोड़ता |
अमर : जो वह अजर हैं सो वह अमर हैं | कभी मर नहीं सकता, सदा से हैं सदा रहेगा |
अभय : जो वहा अजर हैं और अमर हैं तो वहा अभय भी हैं क्यों की उसके पास भय का कोई कारण नहीं | और जो वहा अभय ना होता तो निर्विकार भी ना होता |
नित्य : वह निश्छल अविनाशी हैं इसलिए नित्य कहा गया हैं | कोई उसका विनाश नहीं कर सकता विनाश और निर्माण का कारण वहा परमात्मा हैं |
पवित्र : उस से अधिक पवित्र कोई नहीं | उसका स्वाभाव साधू हैं, वह दयालु हैं, वहा न्यायकारी हैं पवित्रता को पूर्ण करने के सारे गुण उसमे हैं और इस प्रकार जैसे वह परमात्मा हैं कोई पवित्र नहीं |
सृष्टिकर्ता : उपरोक्त गुण उसे सृष्टिकर्ता सिद्ध करते हैं जो उसमे इतना सामर्थ्य हैं और जो वह पवित्र हैं तो वह आलसियो की तरह अपने सामर्थ्य का प्रयोग ना करने का अधर्म नहीं कर सकता और इसीलिए उसने अपने सामर्थ्य और जीवात्मा के सामर्थ्य को प्रकृति की उपस्तिथि की उपयोगिता को सार्थक करते हुए सृष्टि का निर्माण किया |
समस्त वेदादि शास्त्र इन्ही गुणों से युक्त परमात्मा की बात करते हैं | ये जो परमात्मा जो तर्क से भी सिद्ध हैं और वेद के प्रमाण से भी सिद्ध हैं उसी की उपासना से मनुष्य का कल्याण हैं | सो तो उसके असंख्य गुण हमें वेद बाटते हैं पर इतने ही गुण में हम उसके स्वरुप को समझ सकेंगे | आप को यदि अभी भी कोई संशय रह गया हो तो आप परमात्मा के यह गुण उसमे लगा के देखिये जिसे आप साक्षात परमात्मा मान रहे हैं | यदि वह इन गुणों को पूर्ण करे तो वह परमात्मा हैं परन्तु कोई मनुष्य इन सभी गुणों को पूर्ण नहीं कर सकता | जो शरीर धारी हैं वह जीवात्मा हैं और जीवात्मा ही माता के गर्भ में नौ मास उल्टा लटकती हैं ताकि उस परमात्मा के योग के माध्यम से साक्षात्कार कर सके और मोक्ष को प्राप्त कर सके | जितने भी आप्त हुए हैं उन सभी ने उसकी उपासना उसके श्रेष्ठ नाम “ओ३म्” से की हैं | सभी महर्षि अग्नि, वायु, अंगिरा आदित्य, ब्रह्मा, कणाद, मनु, जैमिनी, दयानंद इत्यादि एवं सभी धर्मं संस्थापक राजाओ ने राम, कृष्ण, शंकर इत्यादि एवं सभी आचार्यो ने एवं आचार्य चाणक्य, आचार्य शंकर इत्यादि ने “ओ३म्” नाम की एक मात्र निराकार ईश्वर की उपासना की हैं | हम सभी को उसी की उपासना करते हुए अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना चाहिए |
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