19 October 2012

कावेरी - ‘दक्षिण की गंगा’


पवित्र नदी कावेरी को दक्षिण भारत में वही स्थान प्राप्त है जो उत्तर भारत में गंगा को। उद्गम स्थान से लेकर समुद्र में गिरने के स्थान तक कावेरी के तट पर दर्जनों बड़े-बड़े नगर और उपनगर बसे हैं। बीसियों तीर्थ-स्थान हैं
 

अनगिनत प्राचीन मन्दिर हैं। कावेरी के पवित्र जल ने कितने ही संतों, कवियों, राजाओं, दानियों और प्रतापी वीरों को जन्म दिया है। इसी कारण कावेरी को ‘माता’ और ‘दक्षिण की गंगा’ कहा जाता है।

भारत में स्थित 'पश्चिमी घाट' पर्वतमाला के उत्तरी भाग में एक सुन्दर क्षेत्र है, कुर्ग। यह कर्नाटक राज्य में है। कुर्ग के ‘ब्रह्मगिरी’ (सह्या) पर्वत पर 'तालकावेरी' नामक तालाब है। यही तालाब कावेरी नदी का उदगम-स्थान है। पहाड़ के भीतर से फूट निकलने वाली यह सरिता पहले इस तालाब में गिरती है, फिर एक झरने के रुप में बाहर निकलती है। 

इस तालाब के पश्चिमी तट पर एक मन्दिर है। मन्दिर के भीतर एक तरुणी की सुन्दर मूर्ति स्थापित है जिसके सामने एक दीप लगातार जलता रहता है। देवी कावेरी की मूर्ति की यहां पर नित्य पूजा होती है। 


यहीं पर अगस्त्य ऋषि और गणेश जी की प्रतिमा स्थापित है।
कावेरी के जन्म के बारे में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार अगस्त्य ऋषि कावेरी को कैलाश पर्वत से लेकर आये थे। कथा इस प्रकार है- एक बार भयंकर सूखा पड़ा जिससे दक्षिण भारत में स्थिति बहुत ख़राब हो गयी। यह देखकर अगस्त्य ऋषि बहुत दुखी हुए और मानव जाति को बचाने के लिए ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा की अगर वे कैलाश पर्वत से बर्फीला पानी लेकर जाएँ तो दक्षिण में नदी का उद्गम कर सकतें हैं। 

अगस्त्य ऋषि कैलाश पर्वत पर गए, वहां से बर्फीला पानी अपने कमंडल में लिया और दक्षिण दिशा की और लौट चले। वें नदी के उद्गम स्थान की खोज करते हुए कुर्ग पहुंचे। उचित उद्गम स्थान की खोज करते-करते ऋषि थक गए और अपना कमंडल भूमि पर रखकर विश्राम करने लगे। तभी वहां पर एक कौवा उड़ते हुए आया और कमंडल पर बैठने लगा। कौवे के बैठते ही कमंडल उलट गया और उसका पानी भूमि पर गिर गया। जब ऋषि ने यह देखा तो उन्हें बहुत क्रोध आया। लेकिन तभी वहां गणेश जी प्रकट हुए और उन्होंने ऋषि से कहा कि मैं ही कौवे का रूप धारण करके आपकी मदद के लिए आया था। कावेरी के उद्गम के लिए यही स्थान उचित है। यह सुनकर ऋषि प्रसन्न हुए और भगवान गणेश अंतर्ध्यान हो गए।

कावेरी के उदगम-स्थान पर हर साल तुला सक्रांति (17 अक्टूबर) के दिन उत्सव मनाया जाता है। उस दिन कावेरी की मूर्ति की विशेष पूजा होती है। ‘तालकावेरी’ में सब लोग स्नान करते हैं। इस दिन माता कावेरी लोगों को दर्शन देती हैं और वहां स्थित झरने का स्तर स्वतः ही ऊपर उठ जाता है। कावेरी कर्नाटक में कुर्ग से निकलकर दक्षिण पूर्व की ओर बहती है और तमिलनाडु के एक विशाल प्रदेश को हरा-भरा बनाकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। कुर्ग की पहाड़ियों से लेकर समुद्र तक कावेरी की लंबाई 772 कि.मी. है।

कर्नाटक में सिंचाई के लिए कावेरी पर बने हुए बांधों में सबसे बड़ा कण्णम्बाड़ी का बांध है। इस बांध के कारण जो विशाल जलाशय बना है, उसी को ‘कृष्णराज सागर’ कहते हैं। यह मैसूर नगर से थोड़ी ही दूरी पर बना है। इसी जलाशय के पास वृन्दावन नाम का एक विशाल उपवन भी है। इस उपवन की सुन्दरता और रात के समय वहां जगमगानेवाली रंग-बिरंगी बिजली की बत्तियां आदि को देखकर भ्रम होता है कि हम कहीं इन्द्रपुरी में तो नहीं आ गये हैं। इस सारे सौंदर्य और जगमगाहट का आधार कावेरी का पवित्र जल ही है।

मैसूर नगर से करीब 55 कि.मी. उत्तर-पूर्व में शिवसमुद्रम नामक प्राचीन स्थान है। यहां पर कावेरी का जल एक विशाल झील की तरह दिखाई देता है। इसी झील से थोड़ी दूर आगे माता कावेरी तीन सौ अस्सी फुट की ऊंचाई से जल-प्रपात के रुप में गिरती है। शिवसमुद्रम की इसी स्वाभाविक झील से नहरों द्वारा कावेरी का जल 3 कि.मी. दूर तक ले जाया गया है जहां पर बिजलीघर बनाया गया है।

कर्नाटक से विदा होकर कावेरी शेलम और कोयम्बुत्तूर जिलों की सीमा पर तमिलनाडु में प्रवेश करती है। इसी सीमाप्रदेश में ‘होगेनगल’ नाम का विख्यात जल-प्रपात है। यहां पर कावेरी इतने प्रचंड वेग से चट्टानों पर गिरती है कि उससे छितरानेवाले छींटे धुएं की तरह आकाश में फैल जाते हैं। धुंए का यह बादल कई मील दूर तक दिखाई देता है। इसी कारण कन्नड़ भाषा में इस जल-प्रपात को होगेनगल कहा जाता है, जिसका अर्थ है- धुएं का प्रपात। होगेनगल जल-प्रपात के पास एक गहरा जलाशय स्वाभाविक रुप से बना है। इसको ‘यागकुंडम’ यानी ‘यज्ञ की वेदी’ कहते हैं।

यहां तक कावेरी पहाड़ी इलाकों में बहती रही। अब वह समतल मैदान में बहने लगती है। शेलम और कोयम्बुत्तूर जिलों की सीमा पर वह दो पहाड़ों के बीच में बहती है। इन्हीं दो पहाड़ों के बीच एक विशाल बांध बना है, जो ‘मेटटूर बांध’ के नाम से प्रसिद्ध है। कावेरी नदी पर बने अनेक बंधों में मेटटूर का बांध सबसे बड़ा है। बांध के बीच में बिजलीघर है। इससे पैदा की जानेवाली बिजली से दूर-दूर तक के शहर और गांव लाभ उठाते हैं। मेटटूर के जलाशय से निकाली गयी छोटी बड़ी नहरें तिरुचि और तंजाऊर जिलों के खेतों को सींचती हैं।

कर्नाटक और तमिलनाडु की सुख-समृद्धि को बढ़ाने वाली माता कावेरी ने सैकड़ो साम्राज्यों को बनते-बिगड़ते देखा है। कर्नाटक में 'गंग' और 'होयसला' इसी नदी के बल पर पनपे और फूले-फले थे। उनकी राजधानी श्रीरंगपट्टनम कावेरी के तट पर ही बसी थी। 15 वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना और विस्तार इस नदी ने देखा। इसी कावेरी के तट पर टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त की थी।

तमिलभाषी प्रदेश में कावेरी ने ऐसे प्रातापी वीर और संत देखे हैं, जिन्होंने देश का मस्तक ऊंचा किया था। इसी कावेरी के तट पर 'चोल' साम्राज्य बना और फैला। चोल-राजा करिकालन के समय समुद्रतट पर कावेरी के संगम-स्थल पर 'पुहार' नामक विशाल बंदरगाह बना। वहां से रोम, यूनान, चीन और अरब को तिजारती जहाज जाते-आते थे। तमिल के प्राचीन ग्रन्थों में पुहार नगर का वर्णन पढ़कर गर्व से माथा ऊंचा हो जाता है। यूनान के इतिहास में भी इस नगर का वर्णन मिलता है। यूनानी लोग इस नगर को ‘कबेरस’ कहते थे। कबेरस कावेरी शब्द से बना है।

ईसा की नवीं सदी में राजराजन नाम का एक प्रतापी राजा इसी कावेरी के प्रदेश में हुआ। उसने श्री लंका पर विजय पाई और बर्मा, मलाया, जावा और सुमात्रा को भी अपने अधीन कर लिया। इन देशों में राजराजन के समय में बने कितने ही मन्दिर आजतक विद्यमान हैं। राजराजन के पास एक विशाल नौसेना थी। तंजावूर में राजराजन ने शिवजी का जो सुन्दर मन्दिर बनवाया था, उसकी शिल्पकला को देखकर विदेशी भी दांतों तले उंगली दबाते हैं। इस राजराजन की एक उपाधि है’ पोन्निविन शेलवन’ जिसका अर्थ है ‘सुनहरी कावेरी का लाडला बेटा।’

कावेरी के पुण्य-जल ने धर्म-वृक्ष को भी सींचा, और आज भी सींच रहा है। कावेरी के तीन दोआबों में भगवान विष्णु के तीन प्रसिद्ध मन्दिर बने हैं। तीनों में अनंतनाग पर शयन करने वाले भगवान विष्णु की मूर्ति बनी है, इस कारण इनको श्रीरंगम कहा जाता है। इनमें कर्नाटक की प्राचीन राजधानी श्रीरंगपट्रणम ‘आदिरंगम’ कहलाता है। शिवसमुद्रम के दोआब पर मध्यरंगम नाम का दूसरा मन्दिर है और तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली नामक नगर के पास तीसरा मन्दिर है। यही तीसरा मंदिर श्रीरंगम के नाम से विख्यात है, और इसी को वैष्णव लोग सबसे अधिक महत्व का मानते हैं।

इसी प्रकार कावेरी के तट पर शैव धर्म के भी कितने ही तीर्थ हैं। चिदम्बरम का मन्दिर कावेरी की ही देन है। श्रीरंगम के पास बना हुआ जंबुकेश्वरम का प्राचीन मन्दिर भी बहुत प्रसिद्ध है। तिरुवैयारु, कुंभकोणम, तंजावूर शीरकाल आदि और भी अनेक स्थानो पर शिवजी के मन्दिर कावेरी के तट पर बने हैं। कावेरी नदी के तट पर बसा हुआ कुंभकोणम् नगर दक्षिण भारत का प्रमुख पावन तीर्थ है। यहां प्रति बारहवें वर्ष कुम्भ का मेला लगता है। तिरुचिरापल्ली शहर के बीच में एक ऊंचे टीले पर बना हुआ मातृभूतेश्वर का मन्दिर और उसके चारों ओर का किला विख्यात है।

एक जमाने में तिरुचिरापल्ली जैन धर्म का भी केंन्द्र माना जाता था। शैव और वैष्णव संप्रदाय के कितने ही आचार्य और संत कवि कावेरी के तट पर हुए हैं। विख्यात वैष्णव आचार्य श्री रामानुज को आश्रय देनेवाला श्रीरंगपट्रणम का राजा विष्णुवर्द्धन था। तिरुमंगै आलवार और कुछ अन्य वैष्णव संतों को कावेरी-तीर ने ही जन्म दिया था। सोलह वर्ष की आयु में शैव धर्म का देश-भर में प्रचार करनेवाले संत कवि ज्ञानसंबंधर कावेरी-तट पर ही हुए थे।

महाकवि कंबन ने तमिल भाषा में अपनी विख्यात रामायण की रचना इसी कावेरी के तट पर की थी। तमिल भाषा के कितने ही विख्यात कवियों को माता कावेरी ने पैदा किया है। दक्षिण संगीत को नये प्राण देनेवाले संत त्यागराज, श्यामा शास्त्री और मुत्तय्य दीक्षित इसी कावेरी तट के निवासी थे। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि दक्षीण की संस्कृति कावेरी माता की देन है।


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