श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कन्ध के सप्तम अध्याय में भरत चरित्र का वर्णन है। कई करोड़ वर्ष धर्मपूर्वक शासन करने के बाद उन्होंने राजपाट पुत्रों को सौंपकर वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण किया तथा
भगवान की भक्ति में जीवन बिताने लगे। एक बार नदी में बहते मृग को बचाकर वे उसका उपचार करने लगे। धीरे-धीरे उस मृग से उनका मोह हो गया। मृग के मोह में पड़ने के कारण अगले जन्म में उन्होंने मृगयोनि में जन्म लिया।मृगयोनि में जन्म लेने पर भी उन्हें पुराने पुण्यों के कारण अपने पूर्वजन्म का भान था अतः मृगयोनि में रहते हुये भी वे भगवान का ध्यान करते रहे।
भगवान की भक्ति में जीवन बिताने लगे। एक बार नदी में बहते मृग को बचाकर वे उसका उपचार करने लगे। धीरे-धीरे उस मृग से उनका मोह हो गया। मृग के मोह में पड़ने के कारण अगले जन्म में उन्होंने मृगयोनि में जन्म लिया।मृगयोनि में जन्म लेने पर भी उन्हें पुराने पुण्यों के कारण अपने पूर्वजन्म का भान था अतः मृगयोनि में रहते हुये भी वे भगवान का ध्यान करते रहे।
अगले जन्म में उन्होंने एक ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। पुराने जन्मों की याद होने से इस बार वे संसार से पूरी तरह विरक्त रहे। उनकी विरक्ति के कारण लोग उन्हें पागल समझने लगे तथा उनका नाम जड़भरत पड़ गया। जड़भरत के रुप में वे जीवनपर्यन्त भगवान की आराधना करते हुये अन्तः में मोक्ष को प्राप्त हुये।
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