31 July 2013

!!! जानिये शिवलिंग के रहस्य !!!




क्या आप जानते हैं कि ....... शिवलिंग का मतलब क्या होता है ... और, शिवलिंग किस चीज का प्रतिनिधित्व करता है......??????

दरअसल..... कुछ मूर्ख और कुढ़मगज किस्म के प्राणियों ने ..... परम पवित्र शिवलिंग को जननांग समझ कर ..... पता नही क्या-क्या और कपोल कल्पित अवधारणाएं फैला रखी हैं

परन्तु.... शिवलिंग .......... वातावरण सहित घूमती धरती तथा ...... सारे अनन्त ब्रह्माण्ड ( क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है ) का अक्स/धुरी (axis) ही लिंग है।

दरअसल....... ये गलतफहमी..... भाषा के रूपांतरण ..... और, मलेच्छों द्वारा हमारे पुरातन धर्म ग्रंथों को नष्ट कर दिए जाने ..... तथा, अंग्रेजों द्वारा इसकी व्याख्या से उत्पन्न हुआ ..... हो सकता है...!

खैर.....

जैसा कि.... हम सभी जानते है कि..... एक ही शब्द के .. विभिन्न भाषाओँ में ...... अलग-अलग अर्थ निकलते हैं....!

उदाहरण के लिए.........

यदि हम हिंदी के एक शब्द ""सूत्र''' को ही ले लें तो.......

सूत्र मतलब......... डोरी/धागा........गणितीय सूत्र..........कोई भाष्य......... अथवा लेखन भी हो सकता है.... जैसे कि.... नासदीय सूत्र......ब्रह्म सूत्र इत्यादि....!

उसी प्रकार..... ""अर्थ"" शब्द का भावार्थ ............ : सम्पति भी हो सकता है..... और.... मतलब (मीनिंग) भी....!

ठीक बिल्कुल उसी प्रकार......... शिवलिंग के सन्दर्भ में.......... लिंग शब्द से अभिप्राय .................. चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है।

ध्यान देने योग्य बात है कि...........""लिंग"" एक संस्कृत का शब्द है.........

जिसके निम्न अर्थ है :

@@@@ त आकाशे न विधन्ते -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० ५
अर्थात..... रूप, रस, गंध और स्पर्श ........ये लक्षण आकाश में नही है ..... किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है ।

@@@@ निष्क्रमणम् प्रवेशनमित्याकशस्य लिंगम् -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० २ ०
अर्थात..... जिसमे प्रवेश करना व् निकलना होता है ....वह आकाश का लिंग है ....... अर्थात ये आकाश के गुण है ।

@@@@ अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि । -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० ६
अर्थात..... जिसमे अपर, पर, (युगपत) एक वर, (चिरम) विलम्ब, क्षिप्रम शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है, इसे काल कहते है, और ये .... काल के लिंग है ।

@@@@ इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम । -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० १ ०
अर्थात....... जिसमे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व् नीचे का व्यवहार होता है ....उसी को दिशा कहते है....... मतलब कि....ये सभी दिशा के लिंग है ।

@@@@ इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति -न्याय० अ ० १ । आ ० १ । सू ० १ ०
अर्थात..... जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (ज्ञान) जानना आदि गुण हो, वो जीवात्मा है...... और, ये सभी जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व् गुण है ।

इसीलिए......... शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने के कारन.......... इसे लिंग कहा गया है...।

स्कन्दपुराण में स्पष्ट कहा है कि....... आकाश स्वयं लिंग है...... एवं , धरती उसका पीठ या आधार है .....और , ब्रह्माण्ड का हर चीज ....... अनन्त शून्य से पैदा होकर..... अंततः.... उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है .........

यही कारन है कि...... इसे कई अन्य नामो से भी संबोधित किया गया है ........जैसे कि .....: प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग (cosmic pillar/lingam) ... इत्यादि...!

यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि.....

इस ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे है : ऊर्जा और प्रदार्थ........!

इसमें से....... हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है ........ जबकि आत्मा एक ऊर्जा है.......|

ठीक इसी प्रकार...... शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर......... शिवलिंग कहलाते हैं |

क्योंकि.... ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है.........!

अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की दृष्टि से बोलने की जगह ... शुद्ध वैज्ञानिक भाषा में बोला जाए तो..... ..... हम कह सकते हैं कि..... शिवलिंग.... और कुछ नहीं बल्कि..... हमारे ब्रह्मांड की आकृति है. (The universe is a sign of Shiva Lingam.)

और.... अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की भाषा में बोला जाए तो..... शिवलिंग ......... भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-अनादि एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक है....!

अर्थात........ शिवलिंग हमें बताता है कि...... इस संसार में न केवल पुरुष का..... और न ही केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है ........ बल्कि, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों ही समान हैं..!

शिवलिंग की पूजा को ठीक से समझने के लिए ......

आप जरा आईसटीन का वो सूत्र याद करें...... जिसके आधार पर उसने परमाणु बम बनाया था....!

क्योंकि.... उस सूत्र ने ही .....परमाणु के अन्दर छिपी अनंत ऊर्जा की एक झलक दिखाई ...... जो कितनी विध्वंसक थी..... ये सर्वविदित है |

और... परमाणु बम का वो सूत्र था.....

e / c = m c {e=mc^2}

अब ध्यान दें कि .... ये सूत्र एक सिद्धांत है .... जिसके अनुसार पदार्थ को पूर्णतया ऊर्जा में बदला जा सकता है .....अर्थात, अर्थात..... पदार्थ और उर्जा ... दो अलग-अलग चीज नहीं... बल्कि , एक ही चीज हैं..... परन्तु.... वे दो अलग-अलग चीज बनकर ही सृष्टि का निर्माण करते हैं....!

और..... जिस बात तो आईसटीन ने अभी बताया ..... उस रहस्य को तो ...हमारे ऋषियो ने हजारो-लाखों साल पहले ही ख़ोज लिया था.

यह सर्वविदित है कि..... हमारे संतों/ऋषियों ने हमें वेदों और उपनिषदों का ज्ञान लिखित रूप में प्रदान किया है ... परन्तु, उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि यह उनका काम है.. बल्कि, उन्होंने हर काम के अंत में स्वीकार किया कि....... वे हमें वही बता रहे हैं.... जो, उन्हें अपने पूर्वजों द्वारा कहा गया है.

और....लगभग १३.७ खरब वर्ष पुराना .... सार्वभौमिक ज्ञान हमें तमिल और संस्कृत जैसी महान भाषाओँ में उपलब्ध होता है..... और, भावार्थ बदल जाने के कारण... इसे किसी अन्य भाषा में पूर्णतया (exact) अनुवाद नही किया जा सकता .... कम से कम अंग्रेजी जैसी कमजोर भाषा में तो बिलकुल नही ।

इसके लिए.... एक बहुत ही छोटा सा उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा कि..... आज ""गूगल ट्रांसलेटर"" में ......लगभग सभी भाषाओँ का समावेश है .....परन्तु... संस्कृत का नही ... क्योकि संस्कृत का व्याकरण विशाल तथा दुर्लभ है ...!

अब मूर्खों और सेकुलरों द्वारा ... एक मूर्खतापूर्ण सवाल यह उठाया जा सकता है कि..... संस्कृत इतनी इम्पोर्टेन्ट नही इसलिए नही होगी....... तो, उसका जबाब यही है कि.... यदि .. संस्कृत इम्पोर्टेन्ट नही तो नासा संस्कृत क्यों अपनाना चाहती है ...???????

हुआ दरअसल कुछ ऐसा है कि........... जब कालांतर में ज्ञान के स्तर में गिरावट आई तब पाश्चात्य वैज्ञानिको ने वेदों / उपनिषदों तथा पुराणो आदि को समझने में मूर्खता की ...क्योकि, उनकी बुद्धिमत्ता वेदों में निहित प्रकाश से साक्षात्कार करने योग्य नही थी ।

और.... ऐसा उदहारण तो हम हमारे दैनिक जीवन में भी हमेशा देखते ही रहते हैं कि....देखते है जैसे परीक्षा के दिनों में अध्ययन करते समय जब कोई टॉपिक हमें समझ न आये तो हम कह दिया करते है कि ये टॉपिक तो बेकार है .....जबकि, असल में वह टॉपिक बेकार नही.... अपितु , उस टॉपिक में निहित ज्ञान का प्रकाश हमारी बुद्धिमत्ता से अधिक है ।

इसे ज्यादा सरल भाषा में ....इस तरह भी समझ सकते है कि,..... बैटरी चालित 12 वोल्ट धारण कर सकने वाले विद्युत् बल्ब में.., अगर घरों में आने वाले वोल्ट (240) प्रवाहित कर दिया जाये तो उस बल्ब की क्या दुर्गति होगी ??????

जाहिर सी बात है कि.... उसका फिलामेंट तत्क्षण अविलम्ब उड़ जायेगा ।

यही उन बेचारे वैज्ञानिकों के साथ हुआ ... और, वेद जैसे गूढ़ ग्रन्थ पढ़कर .... उनका भी फिलामेंट उड़ गया और..... मैक्स मूलर जैसे गधे के औलदॊन तो ..... वेदों को काल्पनिक तक बता दिया !

खैर..... हम फिर शिवलिंग पर आते हैं.....

शिवलिंग का प्रकृति में बनना.. हम अपने दैनिक जीवन में भी देख सकते है जब कि ......

किसी स्थान पर अकस्मात् उर्जा का उत्सर्जन होता है .....तो , उर्जा का फैलाव अपने मूल स्थान के चारों ओर एक वृताकार पथ में तथा उपर व नीचे की ओर अग्रसर होता है अर्थात दशोदिशाओं (आठों दिशों की प्रत्येक डिग्री (360 डिग्री)+ऊपर व नीचे ) होता है.. जिसके फलस्वरूप एक क्षणिक शिवलिंग आकृति की प्राप्ति होती है

उसी प्रकार.... बम विस्फोट से प्राप्त उर्जा का प्रतिरूप... एवं, शांत जल में कंकर फेंकने पर प्राप्त तरंग (उर्जा) का प्रतिरूप .... भी शिवलिंग का निर्माण करते हैं....!

दरअसल.... सृष्टि के आरम्भ में महाविस्फोट के पश्चात् उर्जा का प्रवाह वृत्ताकार पथ में तथा ऊपर व नीचे की ओर हुआ फलस्वरूप एक महाशिवलिंग का प्राकट्य हुआ..... जिसका वर्णन हमें लिंगपुराण, शिवमहापुराण, स्कन्द पुराण आदि में इस प्रकार मिलता है कि ........ आरम्भ में निर्मित शिवलिंग इतना विशाल (अनंत) तथा की देवता आदि मिल कर भी उस लिंग के आदि और अंत का छोर या शाश्वत अंत न पा सके ।

हमारे पुराणो में कहा गया है कि...... प्रत्येक महायुग के पश्चात समस्त संसार..... इसी शिवलिंग में समाहित (लय) होता है तथा इसी से पुनः सृजन होता है ।

इस तरह........... सामान्य भाषा में कहा जाए तो....उसी आदि शक्ति के आदि स्वरुप (शिवलिंग ) से इस समस्त संसार की उत्पति हुई तथा उसका यह गोलाकार/सर्पिलाकार स्वरुप प्रत्यक्ष अथवा प्ररोक्ष तथा प्राकृतिक अथवा कृत्रिम रूप से हमारे चारों और स्थित है ....

और, शिवलिंग का प्रतिरूप ब्रह्माण्ड के हर जगह मौजूद है.... जैसे कि....
1. हमारी आकाश गंगा , हमारी पडोसी अन्य आकाश गंगाएँ (पांच -सात -दस नही, अनंत है) , ग्रहों, उल्काओं आदि की गति (पथ), ब्लैक होल की रचना , संपूर्ण पृथ्वी पर पाए गये सर्पिलाकार चिन्ह ( जो अभी तक रहस्य बने हए है.. और, हजारों की संख्या में है.. तथा , जिनमे से अधिकतर पिरामिडों से भी पुराने है । ), समुद्री तूफान , मानव डीएनए, परमाणु की संरचना ... इत्यादि...!

इसीलिए तो.... शिव को शाश्वत एवं.... अनादी, अनत..... निरंतर भी कहा जाता है....!

याद रखो हिन्दुओं..... सही ज्ञान ही आधुनिक युग का सबसे बड़ा हथियार है..... देश और धर्म के दुश्मनों के खिलाफ .....

जय महाकाल.....!!!

30 July 2013

!!! पीपल की पूजा के बहुत फायदे है !!!


जब इतने फायदे हैं तो, भला पीपल की पूजा क्यों न करें


शनिवार के दिन पीपल वृक्ष की पूजा करते हुए बहुत से लोग मिल जाएंगे। पूर्णिमा और अमावस्या के दिन भी पीपल के वृक्ष की पूजा करने वालों की कमी नहीं है। लोगों में ऐसा विश्वास है कि पीपल के वृक्ष की पूजा करने से पितृगण प्रसन्न होते हैं और शनि दोष के कुप्रभाव से मुक्ति मिलती है।

लोगों के इस विश्वास का कारण यह है कि शास्त्रों में इसे देव वृक्ष कहा गया है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने तो पीपल के वृक्ष को स्वयं अपना ही स्वरूप बताया है। श्री कृष्ण ने कहा है 'अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां' अर्थात् समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं। शास्त्रों में कहा गया है कि 'अश्वत्थ: पूजितोयत्र पूजिता:सर्व देवता:।' अर्थात् पीपल की पूजा करने से एक साथ सभी देवताओं की पूजा का फल प्राप्त हो जाता है।

स्कन्दपुराण में कहा गया है कि पीपल के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरि और फलों में सभी देवताओं के साथ अच्युत भगवान निवास करते हैं। व्रतराज नामक ग्रंथ में बताया गया है कि प्रतिदिन पीपल पर जल चढ़ाकर तीन बार परिक्रमा करने से आर्थिक समस्या एवं भाग्य में आने वाली बाधा दूर हो जाती है।

नित पीपल की पूजा एवं दर्शन करने से आयु और समृद्धि बढ़ती है। जो स्त्री नियमित पीपल की पूजा करती हैं उनका सौभाग्य बढ़ता है। शनिवार के दिन अगर अमावस्या तिथि हो तब सरसो तेल का दीपक जलाकर काले तिल से पीपल वृक्ष की पूजा करें और सात बार परिक्रमा करें तो शनि दोष के कारण प्राप्त होने वाले कष्ट समाप्त हो जाते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी पीपल को पूजनीय बनाता है क्योंकि यह एक ऐसा वृक्ष है जो गर्मी में शीतलता और सर्दी में उष्णता प्रदान करता है। पीपल से हमेशा प्राण वायु यानी ऑक्सीजन का संचार होता है। आयुर्वेद में बताया गया है कि पीपल का हर भाग जैसे तना, पत्ते, छाल और फल सभी चिकित्सा में काम आते हैं। इनसे कई गंभीर रोगों का भी इलाज संभव है।

!!! पीपल की अगणित विशेषताएं !!!

पीपल के वृक्ष की विशेषताएं निम्नांकित हैं-



पीपल-सामान्य परिचय


भगवान श्री कृष्ण ने पीपल के वृक्ष की महिमा का बखान करते हुए विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ गीता में कहा है-‘सब पेड़ों में उत्तम और दिव्य गुणों से सम्पन्न पीपल मैं स्वयं हूँ।’ इसका अर्थ है कि जितना सम्मान लोग भगवान श्री कृष्ण को देते हैं उतना ही आदर उन्हें पीपल के वृक्ष को देना चाहिए। इसी भाव तथा विचार को ध्यान में रखकर गांवों में आज भी विद्यालय, पंचायत घर, मंदिर के प्रांगण आदि में पीपल का वृक्ष लगाकर उसकी जड़ को चारों ओर से एक गोल चबूतरे से घेर दिया जाता है ताकि उसको कोई जानवर या व्यक्ति हानि न पहुंचा सके और चबूतरे पर थोड़ी देर बैठकर प्राणवायु को नि:शुल्क ग्रहण किया जा सके।

इस विचार से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि विभिन्न प्रकार के वृक्षों में पीपल सर्वमान्य तथा सर्व गुण सम्पन्न है। वेदों में भी पीपल के गुणों का वर्णन अनेक स्थानों पर किया गया है। अथर्ववेद में एक स्थान पर लिखा है-‘‘यत्राश्वत्था प्रतिबुद्धा अभूतन्’’...‘‘अश्वत्थ व कारणं प्राणवायु..’’ इसका मतलब है कि पीपल का वृक्ष ज्ञानी-ध्यानी लोगों के लिए सब कुछ देता है...जहां यह वृक्ष होता है वहां प्राणवायु मौजूद रहती है। यह बात सच भी मालूम पड़ती है कि आज भी साधु संत और ज्ञानी-ध्यानी लोग पीपल के पेड़ के नीचे कुटिया बनाते तथा धूनी रमाते हैं। वे पीपल की लकड़ी जलाते हैं और रूखा-सूखा खाकर भी दीर्घजीवी होते हैं।

लम्बी आयु प्रदान करने वाला

यह बात पाश्चात्य वैज्ञानिकों के द्वारा सिद्ध हो चुकी है कि पीपल के पत्तों तथा छाल का प्रयोग करने से व्यक्ति बहुत सी बीमारियों से बचा रह सकता है। बीमारियों से बचने का मतलब है स्वस्थ शरीर और ऐसा शरीर ही बहुत समय तक जीवित रह सकता है। पीपल द्वारा लम्बी आयु प्रदान करने का यही रहस्य है। दूसरी रहस्य की बात यह है कि प्रकृति ने हमें हर प्रकार की नियामत दी है। यदि हम उनके मूल्य तथा गुणों को पहचान कर लाभ उठाना नहीं चाहते तो इसमें किसका दोष ? इस दृष्टि से पीपल का बूटा-बूटा और पत्ता-पत्ता हमें निरोग बनाता है, स्वस्थ रखता है और लम्बी आयु प्रदान करता है।

पीपल के वृक्ष को लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। यह अपने आप उग आता है। इसके पके फलों को पक्षी खाते हैं। फिर वे बीट कर देते हैं। बीट में मौजूद बीज दीवारों की दरारों या निचली भूमि में गिरकर जम जाते हैं। इसका मतलब है कि पीपल के वृक्ष को उगाने के लिए न तो किसी विशेष प्रकार की भूमि की जररूत होती है और न ही खाद पानी की। यह सभी प्रकार की भूमि में पैदा हो जाता है।

यह धरती और आकाश की विषैली वायु को शुद्ध करता है तथा प्राण-वायु का संचार आवश्यकतानुसार करता है।

दमा तथा तपेदिक (टी.बी) के रोगियों के लिए पीपल अमृत के समान है। कहा जाता है कि दमा तथा तपेदिक के रोगियों को पीपल के पत्तों की चाय पीनी चाहिए। पीपल की छाल को सुखा कर उसका चूर्ण शहद के साथ लेना चाहिए। जड़ को पानी में उबालकर स्नान करना चाहिए। ये गुण अन्य किसी वृक्ष में नहीं पाए जाते।

पीपल का वृक्ष सूर्य की किरणों को अपने पत्तों में जज्ब कर धरती पर छोड़ता है और ये किरणें शीतलता तथा सौम्यता प्रदान करती हैं।

पीपल की छांव में बैठने से थकावट दूर होती है क्योंकि पीपल के पत्तों से छनकर नीचे आने वाली किरणों में तैलीय गुण आ जाते हैं जो बिना तेल के ही शरीर की मालिश कर देते हैं। उससे शरीर के अंग-अंग की टूटन दूर हो जाती है।

पीपल का वृक्ष दिन-रात प्रकाश देता है। दिन हो या रात पीपल के पेड़ के नीचे सघन अंधकार कभी दिखाई नहीं देता। पत्तियों के बीच से दिन में सूर्य का और रात में चन्द्रमा का प्रकाश छन-छनकर आता रहता है।

पीपल के पेड़ के नीचे बैठने पर पत्तों को लोरियां सुनने को मिलती हैं। शीतल, मंद-सुगंध, वायु के चलने पर कुछ पत्तें तालियां बजाते हैं तो कुछ मीठी-मीठी ध्वनि निकालते हैं, जो कानों में प्रवेश करके व्यक्ति को हल्का नशा देते हैं। इसी कारण व्यक्ति आनंदित होकर सो जाता है। इसका मतलब है कि पीपल के वृक्ष में चिन्ता को दूर करने की भी शक्ति है। इसलिए इस वृक्ष का एक नाम-‘चिन्ता हरण’ भी है।

पीपल के पत्ते, कोंपलें, फूल, फल, डाली, छाल, जड़ सभी अमृत रस की वर्षा प्रदान करते हैं। संसार में आनंद, सुख, दीर्घायु आदि के लिए अमृत की कल्पना की गई है। उदाहरण के लिए व्यक्ति यदि पुत्र-पौत्र वाला हो जाता है तो वह अमर हो जाता है, क्योंकि उसके नाम को याद रखने वाले उत्पन्न हो जाते हैं। यही अमरता है-यही अमृत-पान है। ठीक इसी प्रकार पीपल की हरेक चीज व्यक्ति को बुद्धि, बल और स्वास्थ्य प्रदान करती है-यही अमृत-रस है।

इस धरती पर हजारों प्रकार के पेड़-पौधे पाए जाते हैं लेकिन भोलेनाथ शिव-शंकर को पीपल की छांव ही पसंद है। वे गांव या नगर के एकान्त में पीपल के नीचे बैठे मिल जाएंगे। शंकर की पिण्डी पीपल के वृक्ष के नीचे स्थापित करने की प्रथा यों ही नहीं प्रचलित है। इसके पीछे रहस्य है। पीपल रोगनाशक है, विषहर है, दीर्घायु प्रदान करनेवाला है। अत: शंकर बाबा को यह वृक्ष बहुत पसंद आया। अब यदि हम भी भोले-बाबा की तरह शोक रोग व्याधि आदि से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें पीपल की शरण में जाना चाहिए।

पीपल में पुरुषत्व प्रदान करने के गुण मौजूद हैं। चरक ने अपने ग्रंथ में लिखा है-‘यदि व्यक्ति में नपुंसकता का दोष मौजूद है और वह सन्तान उत्पन्न करने में असमर्थ है तो उसे शमी वृक्ष की जड़ या आसपास उगने वाला पीपल के पेड़ की जटा को औटाकर उसका क्वाथ (काढ़ा) पीना चाहिए। पीपल के जड़ तथा जटा में पुरुषत्व प्रदान करने के गुण विद्यमान हैं। पाश्चात्य देशों में इस तथ्य पर रिसर्च की जा रही है।

वैसे तो सभी प्रकार की दवाओं का निर्माण जड़ी बूटियों, फलों, पत्तों, छालों, रसों आदि से होता है। उनके बनाने में देर लगती है। उस पर निर्मित दवा के प्रयोग करने के बाद भी परहेज करना पड़ता है। किन्तु पीपल का वृक्ष ‘आशुतोष’ है। यह नाम भगवान शंकर का है। ‘आशु का अर्थ है संतुष्टि और तोष का अर्थ है शीघ्र प्रदान करना।’ जैसे भगवान का वृक्ष बिना किसी लाग-लपेट के शीघ्र ही लाभ पहुंचाता है। स्त्रियों तथा पुरुषों दोनों को पीपल के पत्तों तथा छाल का सेवन करना चाहिए। ये दोनों चीजें पुत्र प्रदान करने वाली हैं-सूखी कोख को हरी करने वाली है।

पीपल की एक विशेषता यह है कि यह चर्म-विकारों को जैसे-कुष्ठ, फोड़े-फुन्सी दाद-खाज और खुजली को नष्ट करने वाला है। वैद्य लोग पीपल की छाल घिसकर चर्म रोगों पर लगाने की राय देते हैं। कुष्ठ रोग में पीपल के पत्तों को पीसकर कुष्ठ वाले स्थान पर लगाया जाता है तथा पत्तों का जल सेवन किया जाता है। हमारे ग्रंथों में तो यहां तक लिखा गया है कि पीपल के वृक्ष के नीचे दो घंटे प्रतिदिन नियमित रूप से आसन लगाने से हर प्रकार के त्वचा रोग से छुटकारा मिल जाता है।

यूनानी तथा भारतीय चिकित्सा प्रणाली में अनेक बातों, जड़ी-बूटियों तथा दवा बनाने की विधियों में समानता पाई जाती है। सच तो यह है कि यूनानियों ने भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली को ही परिवर्तित करके अपना लिया है। यूनानी थेरेपी में भारतीय जड़ी-बूटियों तथा पेड़-पौधों से औषधि के तत्वों को ग्रहण किया गया है। इस बात के प्रमाण यूनानी ग्रंथों में भी मौजूद हैं। परन्तु दु:ख का विषय यह है कि हम आज अपनी उन्नत चिकित्सा प्रणाली की तरफ से विमुख होकर पाश्चात्य प्रणाली को अच्छा समझने लगे हैं, जबकि यह दवा दुष्प्रभाव (Side-effect) डालती है।


पेट के रोग

रोगों की जड़ है पेट। पेट खराब हुआ कि बीमारियों ने धर दबोचा। आयुर्वेद में इसीलिए सभी रोगों का उपचार उदर को निरोग व स्वस्थ रख कर ही किया जा सकता है। पीपल का सही मात्रा में उपयोग कैसे उदर रोगों को निकाल बाहर करता है-प्रस्तुत है रोगों के संदर्भ में उनके प्रयोग की विधि।

अपच
अपच को बदहजमी भी कहते हैं अर्थात् भोजन को मेदे में ज्यों का त्यों रखे रहना। भोजन न पचने की हालत में पेट में दर्द, व्याकुलता जी मिचलाना या कई बार उल्टियां हो जाने की शिकायत हो जाती है। भूख खत्म हो जाती है तथा पेट में गैस अधिक मात्रा में बनने लगती है। कभी-कभी पेट में मरोड़-सा मालूम पड़ता है और जलन के साथ पीड़ा होती है। अम्ल बनने लगता है जो डकारें भी पैदा करता है।

उपचार-पीपल के फल 20 ग्राम, जीरा 5 ग्राम, काली मिर्च 5 ग्राम, सोंठ 10 ग्राम, सेंधा नमक 5 ग्राम-सबको अच्छी तरह सुखा लें। फिर पीसकर चूर्ण बनाकर शीशी में रख लें। इसमें से प्रतिदिन सुबह-शाम एक-एक चम्मच चूर्ण गरम पानी के साथ लें। भोजन के बाद भी इस चूर्ण को खाने से काफी लाभ होता है।

अजयवायन, छोटी हर्र, हींग (2 रत्ती) तथा पीपल की छाल सब 10-10 ग्राम की मात्रा में लेकर पीसकर चूर्ण बना लें। इसमें से आधा चम्मच चूर्ण भोजन के बाद गरम पानी से सेवन करें।

आठ लौंग, दो हरड़, चार फल पीपल के तथा दो चुटकी सेंधा नमक-सबको पीसकर चूर्ण बना लें। सुबह-शाम इस चूर्ण का प्रयोग भोजन के बाद करें।

पीपल के पत्तों को कुचल कर एक चम्मच रस निकाल लें। उसमें प्याज का रस आधा चम्मच मिलाएं। दोनों का सेवन सुबह-शाम करें।

पीपल के पत्तों को लेकर सुखा लें। फिर कूट-पीस कर चूर्ण बना लें। एक चम्मच चूर्ण शहद के साथ सुबह-शाम सेवन करें।

अजीर्ण

अजीर्ण का रोग हो जाने पर भूख नहीं लगती। खाना भी ठीक से हजम नहीं होता। पेट फूल जाता है और कब्ज के कारण पेट में दर्द होने लगता है। प्यास अधिक लगती है तथा पेट में बार-बार दर्द हो जाता है। जी मिचलाना, बार-बार डकारें आना, पेट में गैस का बनना, सुस्ती, सिर में भारीपन आदि अजीर्ण रोग के प्रमुख लक्षण हैं।

उपचार-पीपल की छाल, चार नग लौंग, दो हरड़ तथा एक चुटकी हींग-चारों चीजों को पानी में उबालकर काढ़ा बनाकर सेवन करें।

खट्टी डकारें आती हों तो पीपल के पत्तों को जलाकर उसकी भस्म में आधा नीबू निचोड़ कर सेवन करें।

पीपल के दो फल (गूलर) एक गांठ की दो कलियां लहसुन थोड़ी-सी अदरक, जरा सा हरा धनिया, पुदीना तथा काला नमक सबकी चटनी बनाकर सुबह-शाम भोजन के साथ या बाद में सेवन करें।

पीपल की छाल, जामुन की छाल तथा नीम की छाल तीनों छालों को थोड़ी-छोड़ी मात्रा में लेकर कूट लें। फिर काढ़ा बनाकर सेवन करें। यह काढ़ा पेट के हर रोग के लिए उत्तम दवा है।

एक चम्मच राई, थोड़ी-सी मेथी तथा पीपल की जड़ की छाल-तीनों चीजों को कूट कर काढ़ा बनाकर सेवन करें।

भोजन तथा अन्य उपाय--प्रतिदिन शारीरिक श्रम करने के बाद हल्का भोजन खाएँ। सब्जियों में लौकी, तुरई, करेला, पात गोभी, पालक मेथी आदि पेट के लिए फायदेमंद रहती है। फलों में पपीता, नारियल की कच्ची गिरी, पुराने चावल का भात, गेहूं व जौ की पतली रोटी का सेवन करें। मन से चिन्ता, भय, उत्तेजना, क्रोध, शोक आदि को निकाल दें।

अरुचि या भूख न लगना

अरुचि की पहचान बड़ी सरल है। पेट हर समय भारी-भारी रहता है। भोजन लेने को मन करता है लेकिन खाते समय भीतर से जी भोजन को ग्रहण नहीं करता। मुंह में लार आ जाती है। फीकी तथा खट्टी डकारें आती है। यदि यह रोग बराबर बना रहता है तो रोगी को दूसरे रोग भी घेर लेते हैं।
उपचार-सर्वप्रथम मन को शान्त करें। मन से चिन्ता, भय, शोक, क्रोध, घबराहट आदि को दूर करें।

पीपल के आठ फल सुखाकर पीस लें। इनमें दो चम्मच अजवायन, एक रत्ती हींग, एक चम्मच सोंठ, जरा-सा काला नमक मिला लें। इस चूर्ण में से एक चम्मच चूर्ण सुबह और एक शाम को भोजन के बाद गरम पानी से लें।

पीपल की छाल 10 ग्राम, पीपल (दवा) 5 ग्राम, सोंठ 5 ग्राम-तीनों को महीन पीसकर चूर्ण बना लें। इसमें से एक चम्मच चूर्ण का सेवन दोपहर के बाद करें।

भोजन तथा अन्य उपाय-गेहूं तथा जौ की रोटी, हरी सब्जियां, सादी दाल, उबली हुई सब्जी आदि का कुछ दिनों तक सेवन करें।

खट्टी तेज, गरिष्ठ, मिर्च मसालेदार तथा देर से पचने वाली चीजें न खाएँ।

अम्लपित्त

तेज, कठोर, खट्टे गरिष्ठ तथा देर से पचने वाले पदार्थों को खाने से पेट में अम्लपित्त बढ़ जाता है। कुछ लोगों को घी, तेल, मिर्च मसाले तथा मांस-मछली खाने का बहुत शौक होता है। अत: ये सब चीजें भोजन को ठीक से नहीं पचने नहीं देती।

पेट तथा सीने में जलन होती है। कभी-कभी आंतों में हल्के घाव बन जाते हैं। भोजन हजम होने के समय पित्त अधिक मात्रा में बनना शुरू हो जाता है। कभी खट्टी तथा कभी फीकी डकारें आने लगती हैं। भोजन स्वादिष्ट नहीं लगता।


उपचार- पीपल की थोड़ी-सी कोंपलें, मुलहठी का चूर्ण आधा चम्मच तथा बच का चूर्ण 2 रत्ती-तीनों की चटनी बनाकर शहद के साथ सेवन करें।

पीपल के दो पत्तों को भोजन के बाद चबा जाएं।

पीपल की छाल को सुखाकर पीस लें। उसमें जरा-सी हींग, जरा सा सेंधा नमक तथा जरा-सी अजवायन मिलाकर गरम पानी के साथ सेवन करें।

पीपल के चार सूखे फल, सफेद जीरा, धनिया तीनों 10-10 ग्राम लेकर कूट पीसकर चूर्ण बना लें। इसमें से एक-एक चम्मच भर चूर्ण सुबह-शाम भोजन से पहले गरम पानी से साथ सेवन करें।

10 फल पीपल मुनक्का 50 ग्राम, सौंफ 25 ग्राम, काला नमक 5 ग्राम-सबको पीसकर रख लें। इसमें से एक चम्मच भर पाउडर भोजन के बाद सेवन करें।

भोजन तथा अन्य उपाय- मूंग की दाल छिलके सहित, पुराने चावल, हरी सब्जियां, गेहूं तथा जौ का आटा, लहसुन, मौसमी फल आदि का सेवन करें।
तिल, तेल, घी, शराब बीड़ी-सिगरेट अम्ल बनाने वाले पदार्थ, पित्त बढ़ाने वाले पदार्थ आदि का सेवन न करें।

अफारा

पेट में बहुत अधिक वायु भर जाती है। रोगी यकायक घबरा जाता है। उसे सांस लेने में कष्ट का अनुभव होता है। पेट की नसें तन जाती हैं। पेट तथा सीने में जलन होती है। रोगी को लगता है जैसे उसका पेट फट जाएगा। 

नाड़ी तेजी से चलने लगती है। माथे पर पसीना आ जाता है। पेट की गैस ऊपर की ओर चढ़ जाती है तो रह-रहकर डकारें आने लगती हैं सिर में दर्द, माथे का चकराना तथा गिर पड़ना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं।
उपचार- पीपल के पत्तों को सुखाकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण में जरा-सी राई पीसकर मिला लें। दोनों को छाछ या मट्ठे के साथ सेवन करें।

बेल की गिरी का गूदा, 4 रत्ती छोटी इलायची, 5 ग्राम पीपल के सूखे फल-इन सबको नीबू में मिलाकर घोट लें। फिर भोजन के बाद दोनों वक्त सेवन करें।

एरण्ड के तेल में पीपल के पत्तों का चूर्ण मिलाकर पेट पर मलें। इससे अपान वायु बाहर निकल जाएगी और आद्यमान (अफरा) दूर हो जाएगा।

पीपल की जड़ 10 ग्राम, गेहूं की भूसी 10 ग्राम, बाजरे के दाने 10 ग्राम, सेंधा नमक दो चुटकी या आधा चम्मच काला जीरा 8 ग्राम अजवायन 5 ग्राम सबको एक पोटली में बांधकर गरम करें। फिर इससे पेट की सिंकाई करें।

बच का चूर्ण 2 रत्ती, काला नमक 4 रत्ती, हींग 2 रत्ती पीपल की छाल 10 ग्राम-सबको सुखाकर पीस लें। इसमें से प्रतिदिन आधा चम्मच चूर्ण गरम पानी के साथ सेवन करें।

पीपल की छाल को पीसकर चूर्ण बना लें। एक चम्मच चूर्ण में दो रत्ती हींग तथा जरा-सा सेंधा नमक मिलाकर सेवन करें।

पेट का दर्द

इस रोग में भोजन के बाद आमाशय में पीड़ा होती है। ऐसा लगता है जैसे नाखून से कोई आंतों को खुरच रहा है। खाने की चीजें पेट में पहुंचते ही दर्द शुरू हो जाता है। दर्द की हालत में बेचैनी बढ़ जाती है। यह रोग, भोजन की अधिकता, पेट में मल के रुकने, आंतों में मल के चिपकने, पाचनदोष तथा पेट में वायु के भर जाने के कारण होता है।

उपचार-आमाशय से वायु निकलने वाली दवा का प्रयोग सबसे पहले करना चाहिए।

पीपल के पत्ते को गरम करके उस पर जरा-सा घी लगाएं। अब पत्ते को पेट पर रखकर पट्टी बांध लें। वायु निकलते ही पेट का दर्द रुक जाएगा।

पीपल की छाल का चूर्ण, अजवायन का चूर्ण, हींग तथा खाने वाला सोडा-सबकी उचित मात्रा लेकर फंकी लगाएं और ऊपर से गरम पानी पी लें।

पीपल के पत्तों का रस 10 ग्राम, भांगरे के पत्तों का रस 5 ग्राम काला नमक 3 ग्राम सबको मिलाकर सेवन करें।

सोंठ का चूर्ण एक चम्मच, पीपल के सूखे फलों का चूर्ण एक चम्मच तथा काला नमक चौथाई चम्मच तीनों को मिलाकर सेवन करने से पेट का दर्द तत्काल रुक जाता है।

अतिसार (दस्त)

गलत खान-पान, अशुद्ध जल, पाचन क्रिया की गड़बड़ी पेट में कीडों का होना, यकृत की खराबी, मौसम बदलने के कारण पेट में खराबी जुलाब लेने की आदत, चिन्ता, शोक, भय, दु:ख आदि के कारण अतिसार का रोग हो जाता है। यह रोग जल्दी ठीक हो जाता है, किन्तु सही समय पर अच्छी चिकित्सा की जरूरत पड़ती है।

इसमें पतले दस्त आते हैं किन्तु दस्त आने से पहले पेट में हल्का दर्द होता है। दस्त लगते ही पिचकारी सी छूटती है। चूंकि पेट का जल दस्तों के साथ बाहर निकल जाता है इसलिए बहुत ज्यादा कमजोरी हो जाती है। आँखें भीतर की तरफ धंस जाती हैं और पीली पड़ जाती है। शरीर की त्वचा रुखी हो जाती है। देखते-देखते रोगी की शक्ति क्षीण हो जाती है। प्यास अधिक लगती है और पेट में गुड़गुड़ होती रहती है।

उपचार-घरेलू चिकित्सा के अंतर्गत रोगी को साबूदाना, जौ का पानी, अनार तथा संतरे का रस, मौसमी का रस तथा पुराने चावलों का भात बनाकर दें।

पीपल के पत्तों के साथ थोड़े से खजूर पीसकर चटनी बना लें। यह चटनी घंटे-घंटे भर बाद खाएं।

पीपल की कोंपलें, नीम की कोंपलें, बबूल के पत्ते सब 6-6 ग्राम लेकर पीस लें। इसमें थोड़ा-सा शहद मिला लें। इस चटनी की तीन खुराक करके सुबह-दोपहर-शाम को सेवन करें।



28 July 2013

!!! पीपल के पेड़ का कमाल, आप हो जाएंगे मालामाल !!!

वृक्षों के महत्व से हम सभी भलीभांति परिचित हैं। सभी जानते हैं कि वृक्षों के बिना किसी भी जीव के लिए जीवन संभव नहीं है। सभी शास्त्रों में भी वृक्षों को विशेष स्थान दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि मात्र पीपल की पूजा करने से ही सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त हो जाती है।कुछ वृक्षों का धार्मिक महत्व भी बहुत अधिक बताया गया है। इन्हीं पेड़ों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है पीपल का वृक्ष। पीपल में प्रतिदिन जल अर्पित करने से कुंडली के कई अशुभ माने जाने ग्रह योगों का प्रभाव समाप्त हो जाता है। शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या में पीपल की पूजा शनि के कोप से बचाती है। इस पेड़ की मात्र परिक्रमा से ही कालसर्प जैसे क्रूर माने वाले ग्रह योग से बुरे प्रभावों से छुटकारा मिल जाता है। इसके अतिरिक्त शास्त्रों के अनुसार इस वृक्ष में सभी देवी-देवताओं का वास भी माना गया है।

ज्योतिष और सभी धर्म शास्त्रों के अनुसार एक पीपल पेड़ लगाने वाले व्यक्ति को जीवन में किसी भी प्रकार को कोई दुख नहीं सताता है। उस इंसान को कभी भी पैसों की कमी नहीं रहती है। पीपल का पेड़ लगाने के बाद उसे नियमित रूप से जल अर्पित करना चाहिए। जैसे-जैसे यह वृक्ष बड़ा होगा आपके घर-परिवार में सुख-समृद्धि बढ़ती जाएगी, धन बढ़ता जाएगा। पीपल के बड़े होने तक इसका पूरा ध्यान रखना चाहिए तभी आश्चर्यजनक लाभ प्राप्त होंगे।



ज्योतिष शास्त्र अनुसार प्रत्येक ग्रह 3, 3 नक्षत्रों के स्वामी होते है

कोई भी व्यक्ति जिस भी नक्षत्र में जन्मा हो वह उसके स्वामी ग्रह से सम्बंधित दिव्य प्रयोगों को करके लाभ प्राप्त कर सकता है.


अपने जन्म नक्षत्र के बारे में अपनी जन्मकुंडली को देखें या अपनी जन्मतिथि और समय व् जन्म स्थान लिखकर भेजे.या अपने विद्वान ज्योतिषी से संपर्क कर जन्म का नक्षत्र ज्ञात कर के यह सर्व सिद्ध प्रयोग करके लाभ उठा सकते है. 
विभिन्न ग्रहों से सम्बंधित पीपल वृक्ष के प्रयोग निम्न है. 

(१) सूर्य:- जिन नक्षत्रों के स्वामी भगवान सूर्य देव है, उन व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है.

(अ) रविवार के दिन प्रातःकाल पीपल वृक्ष की 5 परिक्रमा करें.

(आ) व्यक्ति का जन्म जिस नक्षत्र में हुआ हो उस दिन (जो कि प्रत्येक माह में अवश्य आता है) भी पीपल वृक्ष की 5 परिक्रमा अनिवार्य करें.

(इ) पानी में कच्चा दूध मिला कर पीपल पर अर्पण करें.

(ई) रविवार और अपने नक्षत्र वाले दिन 5 पुष्प अवश्य चढ़ाए. साथ ही अपनी कामना की प्रार्थना भी अवश्य करे तो जीवन की समस्त बाधाए दूर होने लगेंगी.

(२) चन्द्र:- जिन नक्षत्रों के स्वामी भगवान चन्द्र देव है, उन व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है.

(अ) प्रति सोमवार तथा जिस दिन जन्म नक्षत्र हो उस दिन पीपल वृक्ष को सफेद पुष्प अर्पण करें लेकिन पहले 4 परिक्रमा पीपल की अवश्य करें.

(आ) पीपल वृक्ष की कुछ सुखी टहनियों को स्नान के जल में कुछ समय तक रख कर फिर उस जल से स्नान करना चाहिए.

(इ) पीपल का एक पत्ता सोमवार को और एक पत्ता जन्म नक्षत्र वाले दिन तोड़ कर उसे अपने कार्य स्थल पर रखने से सफलता प्राप्त होती है और धन लाभ के मार्ग प्रशस्त होने लगते है.

(ई) पीपल वृक्ष के नीचे प्रति सोमवार कपूर मिलकर घी का दीपक लगाना चाहिए.

(३) मंगल:- जिन नक्षत्रो के स्वामी मंगल है. उन नक्षत्रों के व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है....

(अ) जन्म नक्षत्र वाले दिन और प्रति मंगलवार को एक ताम्बे के लोटे में जल लेकर पीपल वृक्ष को अर्पित करें.

(आ) लाल रंग के पुष्प प्रति मंगलवार प्रातःकाल पीपल देव को अर्पण करें.

(इ) मंगलवार तथा जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष की 8 परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए.

(ई) पीपल की लाल कोपल को (नवीन लाल पत्ते को) जन्म नक्षत्र के दिन स्नान के जल में डाल कर उस जल से स्नान करें.

(उ) जन्म नक्षत्र के दिन किसी मार्ग के किनारे १ अथवा 8 पीपल के वृक्ष रोपण करें.

(ऊ) पीपल के वृक्ष के नीचे मंगलवार प्रातः कुछ शक्कर डाले.

(ए) प्रति मंगलवार और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन अलसी के तेल का दीपक पीपल के वृक्ष के नीचे लगाना चाहिए.

(४) बुध:- जिन नक्षत्रों के स्वामी बुध ग्रह है, उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहिए.

(अ) किसी खेत में जंहा पीपल का वृक्ष हो वहां नक्षत्र वाले दिन जा कर, पीपल के नीचे स्नान करना चाहिए.

(आ) पीपल के तीन हरे पत्तों को जन्म नक्षत्र वाले दिन और बुधवार को स्नान के जल में डाल कर उस जल से स्नान करना चाहिए.

(इ) पीपल वृक्ष की प्रति बुधवार और नक्षत्र वाले दिन 6 परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए.

(ई) पीपल वृक्ष के नीचे बुधवार और जन्म, नक्षत्र वाले दिन चमेली के तेल का दीपक लगाना चाहिए.

(उ) बुधवार को चमेली का थोड़ा सा इत्र पीपल पर अवश्य लगाना चाहिए अत्यंत लाभ होता है.

(५) वृहस्पति:- जिन नक्षत्रो के स्वामी वृहस्पति है. उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहियें.

(अ) पीपल वृक्ष को वृहस्पतिवार के दिन और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन पीले पुष्प अर्पण करने चाहिए.

(आ) पिसी हल्दी जल में मिलाकर वृहस्पतिवार और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष पर अर्पण करें

(इ) पीपल के वृक्ष के नीचे इसी दिन थोड़ा सा मावा शक्कर मिलाकर डालना या कोई भी मिठाई पीपल पर अर्पित करें.

(ई) पीपल के पत्ते को स्नान के जल में डालकर उस जल से स्नान करें

(उ) पीपल के नीचे उपरोक्त दिनों में सरसों के तेल का दीपक जलाएं.
(६) शुक्र:- जिन नक्षत्रो के स्वामी शुक्र है. उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहियें. 

(अ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष के नीचे बैठ कर स्नान करना.

(आ) जन्म नक्षत्र वाले दिन और शुक्रवार को पीपल पर दूध चढाना.

(इ) प्रत्येक शुक्रवार प्रातः पीपल की 7 परिक्रमा करना.

(ई) पीपल के नीचे जन्म नक्षत्र वाले दिन थोड़ासा कपूर जलाना.

(उ) पीपल पर जन्म नक्षत्र वाले दिन 7 सफेद पुष्प अर्पित करना.

(ऊ) प्रति शुक्रवार पीपल के नीचे आटे की पंजीरी सालना.

(७) शनि:- जिन नक्षत्रों के स्वामी शनि है. उस नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहिए.

(अ) शनिवार के दिन पीपल पर थोड़ा सा सरसों का तेल चडाना.

(आ) शनिवार के दिन पीपल के नीचे तिल के तेल का दीपक जलाना.

(इ) शनिवार के दिन और जन्म नक्षत्र के दिन पीपल को स्पर्श करते हुए उसकी एक परिक्रमा करना.

(ई) जन्म नक्षत्र के दिन पीपल की एक कोपल चबाना.

(उ) पीपल वृक्ष के नीचे कोई भी पुष्प अर्पण करना.

(ऊ) पीपल के वृक्ष पर मिश्री चडाना.
(८) राहू:- जिन नक्षत्रों के स्वामी राहू है, उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहिए. 

(अ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष की 21 परिक्रमा करना.

(आ) शनिवार वाले दिन पीपल पर शहद चडाना.

(इ) पीपल पर लाल पुष्प जन्म नक्षत्र वाले दिन चडाना.

(ई) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल के नीचे गौमूत्र मिले हुए जल से स्नान करना.

(उ) पीपल के नीचे किसी गरीब को मीठा भोजन दान करना.


(९) केतु:- जिन नक्षत्रों के स्वामी केतु है, उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न उपाय कर अपने जीवन को सुखमय बनाना चाहिए. 

(अ) पीपल वृक्ष पर प्रत्येक शनिवार मोतीचूर का एक लड्डू या इमरती चडाना.

(आ) पीपल पर प्रति शनिवार गंगाजल मिश्रित जल अर्पित करना.

(इ) पीपल पर तिल मिश्रित जल जन्म नक्षत्र वाले दिन अर्पित करना.

(ई) पीपल पर प्रत्येक शनिवार सरसों का तेल चडाना.

(उ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल की एक परिक्रमा करना.

(ऊ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल की थोडीसी जटा लाकर उसे धूप दीप दिखा कर अपने पास सुरक्षित रखना.

इस प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति उपरोक्त उपाय अपने अपने नक्षत्र के अनुसार करके अपने जीवन को सुगम बना सकते है, इन उपायों को करने से तुरंत लाभ प्राप्य होता है और जीवन में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती है और जो बाधा हो वह तत्काल दूर होने लगती है. शास्त्र, आदि सभी महान ग्रन्थ अनुसार पीपल वृक्ष में सभी देवी देवताओं का वास होता है. उन्हीं को हम अपने जन्म नक्षत्र अनुसार प्रसन्न करते है. और आशीर्वाद प्राप्त करते है.

शुभमस्तु !!! 



!!! भूत भगाने के 10 आसान उपाय !!!




1. ॐ या रुद्राक्ष का अभिमंत्रित लॉकेट गले में पहने और घर के बाहर एक त्रिशूल में जड़ा ॐ का प्रतीक दरवाजे के ऊपर लगाएं. सिर पर चंदन, केसर या भभूति का तिलक लगाएं. हाथ में मौली (नाड़ा) अवश्य बांध कर रखें.

2. दीपावली के दिन सरसों के तेल का या शुद्ध घी का दिया जलाकर काजल बना लें. यह काजल लगाने से भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी आदि से रक्षा होती है और बुरी नजर से भी रक्षा होती है.


3. घर में रात्रि को भोजन पश्चात सोने से पूर्व चांदी की कटोरी में देवस्थान या किसी अन्य पवित्र स्थल पर कपूर तथा लौंग जला दें. इससे आकस्मिक, दैहिक, दैविक एवं भौतिक संकटों से मुक्त मिलती है.

4. प्रेत बाधा दूर करने के लिए पुष्य नक्षत्र में चिड़चिटे अथवा धतूरे का पौधा जड़सहित उखाड़ कर उसे धरती में ऐसा दबाएं कि जड़ वाला भाग ऊपर रहे और पूरा पौधा धरती में समा जाएं. इस उपाय से घर में प्रेतबाधा नहीं रहती और व्यक्ति सुख-शांति का अनुभव करता है.

5. प्रेत बाधा निवारक हनुमत मंत्र - ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ऊँ नमो भगवते महाबल पराक्रमाय भूत-प्रेत-पिशाच-शाकिनी- डाकिनी-यक्षणी-पूतना-मारी-महामारी, यक्ष राक्षस भैरव बेताल ग्रह राक्षसादिकम्‌ क्षणेन हन हन भंजय भंजय मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामारेश्वर रुद्रावतार हुं फट् स्वाहा. इस हनुमान मंत्र का पांच बार जाप करने से भूत कभी भी निकट नहीं आ सकते.

6. अशोक वृक्ष के सात पत्ते मंदिर में रख कर पूजा करें. उनके सूखने पर नए पत्ते रखें और पुराने पत्ते पीपल के पेड़ के नीचे रख दें. यह क्रिया नियमित रूप से करें, आपका घर भूत-प्रेत बाधा, नजर दोष आदि से मुक्त रहेगा.

7. गणेश भगवान को एक पूरी सुपारी रोज चढ़ाएं और एक कटोरी चावल दान करें. यह क्रिया एक वर्ष तक करें, नजर दोष व भूत-प्रेत बाधा आदि के कारण बाधित सभी कार्य पूरे होंगे.

8. मां काली के लिए उनके नाम से प्रतिदिन अच्छी तरह से पवित्र ‍की हुई दो अगरबत्ती सुबह और दो दिन ढलने से पूर्व लगाएं और उनसे घर और शरीर की रक्षा करने की प्रार्थना करें.

9. हनुमान चालीसा और गजेंद्र मोक्ष का पाठ करें और हनुमान मंदिर में हनुमान जी का श्रृंगार करें व चोला चढ़ाएं.

10. मंगलवार या शनिवार के दिन बजरंग बाण का पाठ शुरू करें. यह डर और भय को भगाने का सबसे अच्छा उपाय है.


26 July 2013

!!! हनुमत्सहस्त्र नामावली !!!

विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीहनुमत्सहस्त्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः हनुमान देवता, अनुष्टुप छन्द, ह्रां बीजं श्रीं शक्ति, श्रीहनुमत्प्रीत्यर्थं-तद्सहस्त्रनामभिरमुकसंख्यार्थ पुष्पादिद्रव्य समर्पणे विनियोगः।

ध्यानः-

ध्यायेद् बालदिवाकर-द्युतिनिभ देवारिदर्पापहं
देवेन्द्रमुख-प्रशा्तयकसं देदीप्यमान रुचा।
सुग्रीवादिसमतवानरयुतं सुव्यक्ततत्त्वप्रियं
संरक्तारुणलोचनं पवनजं पीताम्बरालंकृतम्।।
उद्यदादित्यसंकाशमुदारभुजविक्रमम्।
कन्दर्पकोटिलावण्य सर्वविद्याविशारदम्।।
श्रीरामहृदयानन्दं भक्तकल्पमहीरुहम्।
अभयं वरदं दोर्म्मा चिन्तयेन्मारुतात्मजम्।।

ॐ हनुमते नमः
ॐ श्री प्रदाय नमः
ॐ वायु पुत्राय नमः
ॐ रुद्राय नमः
ॐ अनघाय नमः
ॐ अजराय नमः
ॐ अमृत्यवे नमः
ॐ वीरवीराय नमः
ॐ ग्रामावासाय नमः
ॐ जनाश्रयाय नमः
ॐ धनदाय नमः
ॐ निर्गुणाय नमः
ॐ अकायाय नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ निधिपतये नमः
ॐ मुनये नमः
ॐ पिंगाक्षाय नमः
ॐ वरदाय नमः
ॐ वाग्मीने नमः ।
ॐ सीता-शोक-विनाशाय नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ शर्वाय नमः
ॐ पराय नमः
ॐ अव्यक्ताय नमः
ॐ व्यक्ताव्यक्ताय नमः
ॐ रसा-धराय नमः
ॐ पिंग-केशाय नमः
ॐ पिंग-रोमम्णे नमः ।
ॐ श्रुति-गम्याय नमः
ॐ सनातनाय नमः
ॐ अनादये नमः
ॐ भगवते नमः
ॐ देवाय नमः
ॐ विश्व-हेतवे नमः
ॐ निरामयाय नमः
ॐ आरोग्यकर्त्रे नमः ।
ॐ विश्वेशाय नमः
ॐ विश्वनाथाय नमः
ॐ हरीश्वराय नमः
ॐ भर्गाय नमः
ॐ रामाय नमः
ॐ राम-भक्ताय नमः
ॐ कल्याणाय नमः
ॐ प्रकृति-स्थिराय नमः
ॐ विश्वम्भराय नमः
ॐ विश्वमूर्तये नमः
ॐ विश्वाकाराय नमः
ॐ विश्वदाय नमः
ॐ विश्वात्मने नमः
ॐ विश्वसेव्याय नमः
ॐ विश्वाय नमः
ॐ विश्वराय नमः
ॐ रवये नमः
ॐ विश्व-चेष्टाय नमः
ॐ विश्व-गम्याय नमः
ॐ विश्व-ध्येयाय नमः
ॐ कला-धराय नमः
ॐ प्लवंगमाय नमः
ॐ कपि-श्रेष्टाय नमः
ॐ ज्येष्ठाय नमः ।
ॐ विद्यावते नमः
ॐ वनेचराय नमः
ॐ बालाय नमः
ॐ वृद्धाय नमः
ॐ यूने नमः ।
ॐ तत्त्वाय नमः
ॐ तत्त्व-गम्याय नमः
ॐ सख्ये नमः
ॐ अजाय नमः
ॐ अन्जना-सूनवे नमः
ॐ अव्यग्राय नमः
ॐ ग्राम-ख्याताय नमः
ॐ धरा-धराय नमः
ॐ भूर्लोकाय नमः
ॐ भुवर्लोकाय नमः ।
ॐ स्वर्लोकाय नमः
ॐ महर्लोकाय नमः
ॐ जनलोकय नमः
ॐ तपसे नमः
ॐ अव्ययाय नमः
ॐ सत्ययाय नमः
ॐ ओंकार-गम्याय नमः
ॐ प्रणवाय नमः
ॐ व्यापकाय नमः
ॐ अमलाय नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ धर्म-प्रतिष्ठात्रे नमः ।
ॐ रामेष्टाय नमः
ॐ फाल्गुण-प्रियाय नमः
ॐ गोष्पदिने नमः
ॐ कृत-वारीशाय नमः
ॐ पूर्ण-कामाय नमः
ॐ धराधिपाय नमः
ॐ रक्षोघ्नाय नमः
ॐ पुण्डरीकाक्षाय नमः
ॐ शरणागत-वत्सलाय नमः
ॐ जानकी-प्राण-दात्रे नमः
ॐ रक्षः-प्राणहारकाय नमः
ॐ पूर्णाय नमः ।
ॐ सत्याय नमः १००
ॐ पीतवाससे नमः ।
ॐ दिवाकर-समप्रभाय नमः
ॐ देवोद्यान-विहारीणे नमः ।
ॐ देवता-भय-भञ्जनाय नमः ।
ॐ भक्तोदयाय नमः ।
ॐ भक्त-लब्धाय नमः ।
ॐ भक्त-पालन-तत्पराय नमः ।
ॐ द्रोणहर्षाय नमः ।
ॐ शक्तिनेत्राय नमः ।
ॐ शक्तये नमः
ॐ राक्षस-मारकाय नमः
ॐ अक्षघ्नाय नमः
ॐ राम-दूताय नमः
ॐ शाकिनी-जीव-हारकाय नमः
ॐ बुबुकार-हतारातये नमः
ॐ गर्वाय नमः
ॐ पर्वत-मर्दनाय नमः
ॐ हेतवे नमः
ॐ अहेतवे नमः
ॐ प्रांशवे नमः
ॐ विश्वभर्ताय नमः ।
ॐ जगद्गुरवे नमः
ॐ जगन्नेत्रे नमः ।
ॐ जगन्नथाय नमः
ॐ जगदीशाय नमः
ॐ जनेश्वराय नमः
ॐ जगद्धिताय नमः ।
ॐ हरये नमः
ॐ श्रीशाय नमः
ॐ गरुडस्मयभंजनाय नमः
ॐ पार्थ-ध्वजाय नमः
ॐ वायु-पुत्राय नमः
ॐ अमित-पुच्छाय नमः
ॐ अमित-विक्रमाय नमः
ॐ ब्रह्म-पुच्छाय नमः
ॐ परब्रह्म-पुच्छाय नमः
ॐ रामेष्ट-कारकाय नमः
ॐ सुग्रीवादि-युताय नमः
ॐ ज्ञानिने नमः ।
ॐ वानराय नमः
ॐ वानरेश्वराय नमः
ॐ कल्पस्थायिने नमः ।
ॐ चिरंजीविने नमः ।
ॐ तपनाय नमः
ॐ सदा-शिवाय नमः
ॐ सन्नताय नमः
ॐ सद्गते नमः
ॐ भुक्ति-मुक्तिदाय नमः
ॐ कीर्ति-दायकाय नमः
ॐ कीर्तये नमः
ॐ कीर्ति-प्रदाय नमः
ॐ समुद्राय नमः
ॐ श्रीप्रदाय नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ भक्तोदयाय नमः ।
ॐ भक्तगम्याय नमः ।
ॐ भक्त-भाग्य-प्रदायकाय नमः ।
ॐ उदधिक्रमणाय नमः
ॐ देवाय नमः
ॐ संसार-भय-नाशनाय नमः
ॐ वार्धि-बंधनकृदाय नमः ।
ॐ विश्व-जेताय नमः ।
ॐ विश्व-प्रतिष्ठिताय नमः
ॐ लंकारये नमः
ॐ कालपुरुषाय नमः
ॐ लंकेश-गृह- भंजनाय नमः
ॐ भूतावासाय नमः
ॐ वासुदेवाय नमः
ॐ वसवे नमः
ॐ त्रिभुवनेश्वराय नमः
ॐ श्रीराम-रुपाय नमः
ॐ कृष्णस्तवे नमः
ॐ लंका-प्रासाद-भंजकाय नमः
ॐ कृष्णाय नमः
ॐ कृष्ण-स्तुताय नमः
ॐ शान्ताय नमः
ॐ शान्तिदाय नमः
ॐ विश्वपावनाय नमः
ॐ विश्व-भोक्त्रे नमः ।
ॐ मारिघ्नाय नमः
ॐ ब्रह्मचारिणे नमः ।
ॐ जितेन्द्रियाय नमः
ॐ ऊर्ध्वगाय नमः
ॐ लान्गुलिने नमः ।
ॐ मालिने नमः।
ॐ लान्गूला-हत-राक्षसाय नमः
ॐ समीर-तनुजाय नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ वीर-ताराय नमः
ॐ जय-प्रदाय नमः
ॐ जगन्मन्गलदाय नमः
ॐ पुण्याय नमः
ॐ पुण्य-श्रवण-कीर्तनाय नमः
ॐ पुण्यकीर्तये नमः
ॐ पुण्य-गीतये नमः
ॐ जगत्पावन-पावनाय नमः
ॐ देवेशाय नमः
ॐ जितमाराय नमः
ॐ राम-भक्ति-विधायकाय नमः
ॐ ध्यात्रे नमः।
ॐ ध्येयाय नमः
ॐ लयाय नमः
ॐ साक्षिणे नमः ।
ॐ चेत्रे नमः।
ॐ चैतन्य-विग्रहाय नमः
ॐ ज्ञानदाय नमः
ॐ प्राणदाय नमः
ॐ प्राणाय नमः
ॐ जगत्प्राणाय नमः
ॐ समीरणाय नमः
ॐ विभीषण-प्रियाय नमः
ॐ शूराय नमः
ॐ पिप्पलाश्रयाय नमः
ॐ सिद्धिदाय नमः
ॐ सिद्धाय नमः
ॐ सिद्धाश्रयाय नमः
ॐ कालाय नमः
ॐ महोक्षाय नमः ।
ॐ काल-जान्तकाय नमः
ॐ लंकेश-निधन-स्थायिने नमः
ॐ लंका-दाहकाय नमः ।
ॐ ईश्वराय नमः
ॐ चन्द्र-सूर्य-अग्नि-नेत्राय नमः
ॐ कालाग्ने नमः
ॐ प्रलयान्तकाय नमः
ॐ कपिलाय नमः
ॐ कपीशाय नमः
ॐ पुण्यराशये नमः
ॐ द्वादश राशिगाय नमः
ॐ सर्वाश्रयाय नमः
ॐ अप्रमेयत्माय नमः ।
ॐ रेवत्यादि-निवारकाय नमः
ॐ लक्ष्मण-प्राणदात्रे नमः ।
ॐ सीता-जीवन-हेतुकाय नमः
ॐ राम-ध्येयाय नमः
ॐ हृषीकेशाय नमः
ॐ विष्णु-भक्ताय नमः
ॐ जटिने नमः
ॐ बलिने नमः
ॐ देवारिदर्पघ्ने नमः
ॐ होत्रे नमः
ॐ कर्त्रे नमः
ॐ धार्त्रे नमः
ॐ जगत्प्रभवे नमः
ॐ नगर-ग्राम-पालाय नमः
ॐ शुद्धाय नमः
ॐ बुद्धाय नमः
ॐ निरन्तराय नमः
ॐ निरंजनाय नमः
ॐ निर्विकल्पाय नमः
ॐ गुणातीताय नमः
ॐ भयंकराय नमः
ॐ हनुमते नमः ।
ॐ दुराराध्याय नमः
ॐ तपस्साध्याय नमः
ॐ महेश्वराय नमः
ॐ जानकी-घन-शोकोत्थतापहर्त्रे नमः ।
ॐ परात्पराय नमः
ॐ वाङ्मयाय नमः
ॐ सद-सद्रूपाय नमः
ॐ कारणाय नमः
ॐ प्रकृतेः-पराय नमः
ॐ भाग्यदाय नमः
ॐ निर्मलाय नमः
ॐ नेत्रे नमः
ॐ पुच्छ-लंका-विदाहकाय नमः
ॐ पुच्छ-बद्धाय नमः
ॐ यातुधानाय नमः
ॐ यातुधान-रिपुप्रियाय नमः
ॐ छायापहारिणे नमः
ॐ भूतेशाय नमः
ॐ लोकेशाय नमः
ॐ सद्गति-प्रदाय नमः
ॐ प्लवंगमेश्वराय नमः
ॐ क्रोधाय नमः
ॐ क्रोध-संरक्तलोचनाय नमः
ॐ क्रोध-हर्त्रे नमः
ॐ ताप-हर्त्रे नमः
ॐ भक्ताऽभय-वरप्रदाय नमः
ॐ वर-प्रदाय नमः
ॐ भक्तानुकंपिने नमः
ॐ विश्वेशाय नमः
ॐ पुरु-हूताय नमः
ॐ पुरंदराय नमः
ॐ अग्निने नमः
ॐ विभावसवे नमः
ॐ भास्वते नमः
ॐ यमाय नमः
ॐ निष्कृतिरेवचाय नमः
ॐ वरुणाय नमः
ॐ वायु-गति-मानाय नमः
ॐ वायवे नमः
ॐ कौबेराय नमः
ॐ ईश्वराय नमः
ॐ रवये नमः
ॐ चन्द्राय नमः
ॐ कुजाय नमः
ॐ सौम्याय नमः
ॐ गुरवे नमः
ॐ काव्याय नमः
ॐ शनैश्वराय नमः
ॐ राहवे नमः
ॐ केतवे नमः

ॐ मरुते नमः
ॐ धात्रे नमः
ॐ धर्त्रे नमः
ॐ हर्त्रे नमः
ॐ समीरजाय नमः
ॐ मशकीकृत-देवारये नमः
ॐ दैत्यारये नमः
ॐ मधुसूदनाय नमः
ॐ कामाय नमः
ॐ कपये नमः
ॐ कामपालाय नमः
ॐ कपिलाय नमः
ॐ विश्व जीवनाय नमः
ॐ भागीरथी-पदांभोजाय नमः
ॐ सेतुबंध-विशारदाय नमः
ॐ स्वाहा-काराय नमः
ॐ स्वधा-काराय नमः
ॐ हविषे नमः
ॐ कव्याय नमः
ॐ हव्यवाहकाय नमः
ॐ प्रकाशाय नमः
ॐ स्वप्रकाशाय नमः
ॐ महावीराय नमः
ॐ लघवे नमः
ॐ अमित-विक्रमाय नमः
ॐ प्रडीनोड्डीनगतिमानाय नमः
ॐ सद्गतये नमः
ॐ पुरुषोत्तमाय नमः
ॐ जगदात्मने नमः
ॐ जगद्योनये नमः
ॐ जगदंताय नमः
ॐ अनंतकाय नमः
ॐ विपात्मने नमः
ॐ निष्कलंकाय नमः
ॐ महते नमः
ॐ महदहंकृतये नमः
ॐ खाय नमः
ॐ वायवे नमः
ॐ पृथिव्यै नमः
ॐ आपोभ्य नमः
ॐ वह्नये नमः
ॐ दिक्पालाय नमः
ॐ एकस्थाय नमः
ॐ क्षेत्रज्ञाय नमः
ॐ क्षेत्र-पालाय नमः
ॐ पल्वली-कृत-सागराय नमः
ॐ हिरण्मयाय नमः
ॐ पुराणाय नमः
ॐ खेचराय नमः
ॐ भुचराय नमः
ॐ मनसे नमः
ॐ हिरण्यगर्भाय नमः
ॐ सूत्राम्णे नमः
ॐ राज-राजाय नमः
ॐ विशांपतये नमः
ॐ वेदांत-वेद्याय नमः
ॐ उद्गीथाय नमः
ॐ वेदवेदांग- पारगाय नमः
ॐ प्रति-ग्राम-स्थिताय नमः
ॐ साध्याय नमः
ॐ स्फूर्ति दात्रे नमः
ॐ गुणाकराय नमः
ॐ नक्षत्र-मालिने नमः
ॐ भूतात्मने नमः
ॐ सुरभये नमः
ॐ कल्प-पादपाय नमः
ॐ चिन्ता-मणये नमः
ॐ गुणनिधये नमः
ॐ प्रजापतये नमः
ॐ अनुत्तमाय नमः
ॐ पुण्यश्लोकाय नमः
ॐ पुरारातये नमः
ॐ ज्योतिष्मते नमः
ॐ शर्वरीपतये नमः
ॐ किलिकिल्यारवत्रस्त-प्रेत-भूत-पिशाचकाय नमः
ॐ ऋणत्रय-हराय नमः
ॐ सूक्ष्माय नमः
ॐ स्थूलाय नमः
ॐ सर्वगतये नमः
ॐ पुंसे नमः
ॐ अपस्मार-हराय नमः
ॐ स्मर्त्रे नमः
ॐ श्रुतये नमः
ॐ गाथायै नमः
ॐ स्मृतये नमः
ॐ मनवे नमः
ॐ स्वर्ग-द्वाराय नमः
ॐ प्रजा-द्वाराय नमः
ॐ मोक्ष-द्वाराय नमः
ॐ यतीश्वराय नमः
ॐ नाद-रूपाय नमः
ॐ पर-ब्रह्मणे नमः
ॐ ब्रह्मणे नमः
ॐ ब्रह्म-पुरातनाय नमः
ॐ एकाय नमः
ॐ अनेकाय नमः
ॐ जनाय नमः
ॐ शुक्लाय नमः
ॐ स्वयज्योतिषे नमः
ॐ अनाकुलाय नमः
ॐ ज्योति-ज्योतिषे नमः
ॐ अनादये नमः
ॐ सात्त्विकाय नमः
ॐ राजसत्तमाय नमः
ॐ तमसे नमः
ॐ तमो-हर्त्रे नमः
ॐ निरालंबाय नमः
ॐ निराकाराय नमः
ॐ गुणाकराय नमः
ॐ गुणाश्रयाय नमः
ॐ गुणमयाय नमः
ॐ बृहत्कायाय नमः
ॐ बृहद्यशसे नमः
ॐ बृहद्धनुषे नमः
ॐ बृहत्पादाय नमः
ॐ बृहन्नमूर्ध्ने नमः
ॐ बृहत्स्वनाय नमः
ॐ बृहत्कर्णाय नमः
ॐ बृहन्नासाय नमः
ॐ बृहन्नेत्राय नमः
ॐ बृहत्गलाय नमः
ॐ बृहध्यन्त्राय नमः
ॐ बृहत्चेष्टाय नमः
ॐ बृहत्पुच्छाय नमः
ॐ बृहत्कराय नमः
ॐ बृहत्गतये नमः
ॐ बृहत्सेव्याय नमः
ॐ बृहल्लोक-फलप्रदाय नमः
ॐ बृहच्छक्तये नमः
ॐ बृहद्वांछा-फलदाय नमः
ॐ बृहदीश्वराय नमः
ॐ बृहल्लोकनुताय नमः
ॐ द्रंष्टे नमः
ॐ विद्या-दात्रे नमः
ॐ जगद्गुरवे नमः
ॐ देवाचार्याय नमः
ॐ सत्य-वादिने नमः
ॐ ब्रह्म-वादिने नमः
ॐ कलाधराय नमः
ॐ सप्त-पातालगामिने नमः
ॐ मलयाचल-संश्रयाय नमः
ॐ उत्तराशास्थिताय नमः
ॐ श्रीदाय नमः
ॐ दिव्य-औषधि-वशाय नमः
ॐ खगाय नमः
ॐ शाखामृगाय नमः
ॐ कपीन्द्राय नमः
ॐ पुराणाय नमः
ॐ श्रुति-संचराय नमः
ॐ चतुराय नमः
ॐ ब्राह्मणाय नमः
ॐ योगिने नमः
ॐ योगगम्याय नमः
ॐ परात्पराय नमः
ॐ अनादये नमः
ॐ निधनाय नमः
ॐ व्यासाय नमः
ॐ वैकुण्ठाय नमः
ॐ पृथ्वी-पतये नमः
ॐ अपराजितये नमः
ॐ जितारातये नमः
ॐ सदानन्दाय नमः
ॐ ईशित्रे नमः
ॐ गोपालाय नमः
ॐ गोपतये नमः
ॐ गोप्त्रे नमः
ॐ कलये नमः
ॐ कालाय नमः
ॐ परात्पराय नमः
ॐ मनोवेगिने नमः
ॐ सदा-योगिने नमः
ॐ संसार-भय-नाशनाय नमः
ॐ तत्त्व-दात्रे नमः
ॐ तत्त्वज्ञाय नमः
ॐ तत्त्वाय नमः
ॐ तत्त्व-प्रकाशाय नमः
ॐ शुद्धाय नमः
ॐ बुद्धाय नमः
ॐ नित्यमुक्ताय नमः
ॐ भक्त-राजाय नमः
ॐ जयप्रदाय नमः
ॐ प्रलयाय नमः
ॐ अमित-मायाय नमः
ॐ मायातीताय नमः
ॐ विमत्सराय नमः
ॐ माया-निर्जित-रक्षसे नमः
ॐ माया-निर्मित-विष्टपाय नमः
ॐ मायाश्रयाय नमः
ॐ निर्लेपाय नमः
ॐ माया-निर्वंचकाय नमः
ॐ सुखाय नमः
ॐ सुखिने नमः
ॐ सुखप्रदाय नमः
ॐ नागाय नमः
ॐ महेशकृत-संस्तवाय नमः
ॐ महेश्वराय नमः
ॐ सत्यसंधाय नमः
ॐ शरभाय नमः
ॐ कलि-पावनाय नमः
ॐ रसाय नमः
ॐ रसज्ञाय नमः
ॐ सम्मानाय नमः
ॐ तपस्चक्षवे नमः
ॐ भैरवाय नमः
ॐ घ्राणाय नमः
ॐ गन्धाय नमः
ॐ स्पर्शनाय नमः
ॐ स्पर्शाय नमः
ॐ अहंकारमानदाय नमः
ॐ नेति-नेति-गम्याय नमः
ॐ वैकुण्ठ-भजन-प्रियाय नमः
ॐ गिरीशाय नमः
ॐ गिरिजा-कान्ताय नमः
ॐ दूर्वाससे नमः
ॐ कवये नमः
ॐ अंगिरसे नमः
ॐ भृगुवे नमः
ॐ वसिष्ठाय नमः
ॐ च्यवनाय नमः
ॐ तुम्बुरुवे नमः
ॐ नारदाय नमः
ॐ अमलाय नमः
ॐ विश्व-क्षेत्राय नमः
ॐ विश्व-बीजाय नमः
ॐ विश्व-नेत्राय नमः
ॐ विश्वगाय नमः
ॐ याजकाय नमः
ॐ यजमानाय नमः
ॐ पावकाय नमः
ॐ पित्रे नमः
ॐ श्रद्धायै नमः
ॐ बुद्धये नमः
ॐ क्षमायै नमः
ॐ तन्त्राय नमः
ॐ मन्त्राय नमः
ॐ मन्त्रयुताय नमः
ॐ स्वराय नमः
ॐ राजेन्द्राय नमः
ॐ भूपतये नमः
ॐ रुण्ड-मालिने नमः
ॐ संसार-सारथये नमः
ॐ नित्याय नमः
ॐ संपूर्ण-कामाय नमः
ॐ भक्त कामदुधे नमः
ॐ उत्तमाय नमः
ॐ गणपाय नमः
ॐ केशवाय नमः
ॐ भ्रात्रे नमः
ॐ पित्रे नमः
ॐ मात्रे नमः
ॐ मारुतये नमः
ॐ सहस्र-शीर्षा-पुरुषाय नमः
ॐ सहस्राक्षाय नमः
ॐ सहस्रपाताय नमः
ॐ कामजिते नमः
ॐ काम-दहनाय नमः
ॐ कामाय नमः
ॐ काम्य-फल-प्रदाय नमः
ॐ मुद्रापहारिणे नमः
ॐ रक्षोघ्नाय नमः
ॐ क्षिति-भार-हराय नमः
ॐ बलाय नमः
ॐ नख-दंष्ट्रा-युधाय नमः
ॐ विष्णु-भक्ताय नमः
ॐ अभय-वर-प्रदाय नमः
ॐ दर्पघ्ने नमः
ॐ दर्पदाय नमः
ॐ इष्टाय नमः
ॐ शत-मूर्त्तये नमः
ॐ अमूर्त्तिमते नमः
ॐ महा-निधये नमः
ॐ महा-भागाय नमः
ॐ महा-भर्गाय नमः
ॐ महार्थदाय नमः
ॐ महाकाराय नमः
ॐ महा-योगिने नमः
ॐ महा-तेजसे नमः
ॐ महा-द्युतये नमः
ॐ महा-कर्मणे नमः
ॐ महा-नादाय नमः
ॐ महा-मन्त्राय नमः
ॐ महा-मतये नमः
ॐ महाशयाय नमः
ॐ महोदराय नमः
ॐ महादेवात्मकाय नमः
ॐ विभवे नमः
ॐ रुद्र-कर्मणे नमः
ॐ अकृत-कर्मणे नमः
ॐ रत्न-नाभाय नमः
ॐ कृतागमाय नमः
ॐ अम्भोधि-लंघनाय नमः
ॐ सिंहाय नमः
ॐ नित्याय नमः
ॐ धर्माय नमः
ॐ प्रमोदनाय नमः
ॐ जितामित्राय नमः
ॐ जयाय नमः
ॐ सम-विजयाय नमः
ॐ वायु-वाहनाय नमः
ॐ जीव-दात्रे नमः
ॐ सहस्रांशवे नमः
ॐ मुकुन्दाय नमः
ॐ भूरि-दक्षिणाय नमः
ॐ सिद्धर्थाय नमः
ॐ सिद्धिदाय नमः
ॐ सिद्ध-संकल्पाय नमः
ॐ सिद्धि-हेतुकाय नमः
ॐ सप्त-पातालचरणाय नमः
ॐ सप्तर्षि-गण-वन्दिताय नमः
ॐ सप्ताब्धि-लंघनाय नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ सप्त-द्वीपोरुमण्डलाय नमः
ॐ सप्तांग-राज्य-सुखदाय नमः
ॐ सप्त-मातृ-निशेविताय नमः
ॐ सप्त-लोकैक-मुकुटाय नमः
ॐ सप्त-होता-स्वराश्रयाय नमः
ॐ सप्तच्छन्द-निधये नमः
ॐ सप्तच्छन्दसे नमः
ॐ सप्त-जनाश्रयाय नमः
ॐ सप्त-सामोपगीताय नमः
ॐ सप्त-पातल-संश्रयाय नमः
ॐ मेधावी-कीर्तिदाय नमः
ॐ शोक-हारिणे नमः
ॐ दौर्भाग्य-नाशनाय नमः
ॐ सर्व-वश्यकराय नमः
ॐ गर्भ-दोषघ्नाय नमः
ॐ पुत्र-पौत्र-दाय नमः
ॐ प्रतिवादि-मुखस्तंभिने नमः
ॐ तुष्टचित्ताय नमः
ॐ प्रसादनाय नमः
ॐ पराभिचारशमनाय नमः
ॐ दवे नमः
ॐ खघ्नाय नमः
ॐ बंध-मोक्षदाय नमः
ॐ नव-द्वार-पुराधाराय नमः
ॐ नव-द्वार-निकेतनाय नमः
ॐ नर-नारायण-स्तुत्याय नमः
ॐ नरनाथाय नमः
ॐ महेश्वराय नमः
ॐ मेखलिने नमः
ॐ कवचिने नमः
ॐ खद्गिने नमः
ॐ भ्राजिष्णवे नमः
ॐ जिष्णुसारथये नमः
ॐ बहु-योजन-विस्तीर्ण-पुच्छाय नमः
ॐ पुच्छ-हतासुराय नमः
ॐ दुष्टग्रह-निहंत्रे नमः
ॐ पिशाच-ग्रह-घातकाय नमः
ॐ बाल-ग्रह-विनाशिने नमः
ॐ धर्माय नमः
ॐ नेता-कृपाकराय नमः
ॐ उग्रकृत्याय नमः
ॐ उग्रवेगिने नमः
ॐ उग्र-नेत्राय नमः
ॐ शत-क्रतवे नमः
ॐ शत-मन्युस्तुताय नमः
ॐ स्तुत्याय नमः
ॐ स्तुतये नमः
ॐ स्तोत्रे नमः
ॐ महा-बलाय नमः
ॐ समग्र-गुणशालिने नमः
ॐ अव्यग्राय नमः
ॐ रक्षाय नमः
ॐ विनाशकाय नमः
ॐ रक्षोघ्न-हस्ताय नमः
ॐ ब्रह्मेशाय नमः
ॐ श्रीधराय नमः
ॐ भक्त-वत्सलाय नमः
ॐ मेघ-नादाय नमः
ॐ मेघ-रूपाय नमः
ॐ मेघ-वृष्टि-निवारकाय नमः
ॐ मेघ-जीवन-हेतवे नमः
ॐ मेघ-श्यामाय नमः
ॐ परात्मकाय नमः
ॐ समीर-तनयाय नमः
ॐ बोध्-तत्त्व-विद्या-विशारदाय नमः
ॐ अमोघाय नमः
ॐ अमोघहृष्टये नमः
ॐ इष्टदाय नमः
ॐ अनिष्ट-नाशनाय नमः
ॐ अर्थाय नमः
ॐ अनर्थापहारिणे नमः
ॐ समर्थाय नमः
ॐ राम-सेवकाय नमः
ॐ अर्थिने नमः
ॐ धन्याय नमः
ॐ असुरारातये नमः
ॐ पुण्डरीकाक्षाय नमः
ॐ आत्मभूवे नमः
ॐ संकर्षणाय नमः
ॐ विशुद्धात्मने नमः
ॐ विद्या-राशये नमः
ॐ सुरेश्वराय नमः
ॐ अचलोद्धारकाय नमः
ॐ नित्याय नमः
ॐ सेतुकृते नमः
ॐ राम-सारथये नमः
ॐ आनन्दाय नमः
ॐ परमानन्दाय नमः
ॐ मत्स्याय नमः
ॐ कूर्माय नमः
ॐ निधये नमः
ॐ शूराय नमः
ॐ वाराहाय नमः
ॐ नारसिंहाय नमः
ॐ वामनाय नमः
ॐ जमदग्निजाय नमः
ॐ रामाय नमः
ॐ कृष्णाय नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ बुद्धाय नमः
ॐ कल्किने नमः
ॐ रामाश्रयाय नमः
ॐ हराय नमः
ॐ नन्दिने नमः
ॐ भृन्गिने नमः
ॐ चण्डिने नमः
ॐ गणेशाय नमः
ॐ गण-सेविताय नमः
ॐ कर्माध्यक्ष्याय नमः
ॐ सुराध्यक्षाय नमः
ॐ विश्रामाय नमः
ॐ जगतांपतये नमः
ॐ जगन्नथाय नमः
ॐ कपि-श्रेष्टाय नमः
ॐ सर्ववासाय नमः
ॐ सदाश्रयाय नमः
ॐ सुग्रीवादिस्तुताय नमः
ॐ शान्ताय नमः
ॐ सर्व-कर्मणे नमः
ॐ प्लवंगमाय नमः
ॐ नखदारितरक्षसे नमः
ॐ नख-युद्ध-विशारदाय नमः
ॐ कुशलाय नमः
ॐ सुघनाय नमः
ॐ शेषाय नमः
ॐ वासुकये नमः
ॐ तक्षकाय नमः
ॐ स्वराय नमः
ॐ स्वर्ण-वर्णाय नमः
ॐ बलाढ्याय नमः
ॐ राम-पूज्याय नमः
ॐ अघनाशनाय नमः
ॐ कैवल्य-दीपाय नमः
ॐ कैवल्याय नमः
ॐ गरुडाय नमः
ॐ पन्नगाय नमः
ॐ गुरवे नमः
ॐ क्लिक्लिरावणहतारातये नमः
ॐ गर्वाय नमः
ॐ पर्वत-भेदनाय नमः
ॐ वज्रांगाय नमः
ॐ वज्र-वेगाय नमः
ॐ भक्ताय नमः
ॐ वज्र-निवारकाय नमः
ॐ नखायुधाय नमः
ॐ मणिग्रीवाय नमः
ॐ ज्वालामालिने नमः
ॐ भास्कराय नमः
ॐ प्रौढ-प्रतापाय नमः
ॐ तपनाय नमः
ॐ भक्त-ताप-निवारकाय नमः
ॐ शरणाय नमः
ॐ जीवनाय नमः
ॐ भोक्त्रे नमः
ॐ नानाचेष्टा नमः
ॐ चंचलाय नमः
ॐ सुस्वस्थाय नमः
ॐ अस्वास्थ्यघ्ने नमः
ॐ दवे नमः
ॐ खशमनाय नमः
ॐ पवनात्मजाय नमः
ॐ पावनाय नमः
ॐ पवनाय नमः
ॐ कान्ताय नमः
ॐ भक्तागाय नमः
ॐ सहनाय नमः
ॐ बलाय नमः
ॐ मेघनाद-रिपवे नमः
ॐ मेघनाद-संहृतराक्षसाय नमः
ॐ क्षराय नमः
ॐ अक्षराय नमः
ॐ विनीतात्मा वानरेशाय नमः
ॐ सतांगतये नमः
ॐ शिति-कण्ठाय नमः
ॐ श्री-कण्ठाय नमः
ॐ सहायाय नमः
ॐ सहनायकाय नमः
ॐ अस्थलाय नमः
ॐ अनणवे नमः
ॐ भर्गाय नमः
ॐ देवाय नमः
ॐ संसृतिनाशनाय नमः
ॐ अध्यात्म-विद्याय नमः
ॐ साराय नमः
ॐ अध्यात्म-कुशलाय नमः
ॐ सुधिये नमः
ॐ अकल्मषाय नमः
ॐ सत्य-हेतवे नमः
ॐ सत्यगाय नमः
ॐ सत्य-गोचराय नमः
ॐ सत्य-गर्भाय नमः
ॐ सत्य-रूपाय नमः
ॐ सत्याय नमः
ॐ सत्य-पराक्रमाय नमः
ॐ अन्जना-प्राणलिंगाय नमः
ॐ वायु-वंशोद्भवाय नमः
ॐ शुभाय नमः
ॐ भद्र-रूपाय नमः
ॐ रुद्र-रूपाय नमः
ॐ सुरूपस्चित्र-रूपधृताय नमः
ॐ मैनाक-वंदिताय नमः
ॐ सूक्ष्म-दर्शनाय नमः
ॐ विजयाय नमः
ॐ जयाय नमः
ॐ क्रान्त-दिग्मण्डलाय नमः
ॐ रुद्राय नमः
ॐ प्रकटीकृत-विक्रमाय नमः
ॐ कम्बु-कण्ठाय नमः
ॐ प्रसन्नात्मने नमः
ॐ ह्रस्व-नासाय नमः
ॐ वृकोदराय नमः
ॐ लंबोष्टाय नमः
ॐ कुण्डलिने नमः
ॐ चित्र-मालिने नमः
ॐ योग-विदावराय नमः
ॐ वराय नमः
ॐ विपश्चिताय नमः
ॐ कविरानन्द-विग्रहाय नमः
ॐ अनन्य-शासनाय नमः
ॐ फल्गुणीसूनुरव्यग्राय नमः
ॐ योगात्मने नमः
ॐ योगतत्पराय नमः
ॐ योग-वेद्याय नमः
ॐ योग-कर्त्रे नमः
ॐ योग-योनये नमः
ॐ दिगंबराय नमः
ॐ अकारादि-क्षकारान्ताय नमः
ॐ वर्ण-निर्मिताय नमः
ॐ विग्रहाय नमः
ॐ उलूखल-मुखाय नमः
ॐ सिंहाय नमः
ॐ संस्तुताय नमः
ॐ परमेश्वराय नमः
ॐ श्लिष्ट-जंघाय नमः
ॐ श्लिष्ट-जानवे नमः
ॐ श्लिष्ट-पाणये नमः
ॐ शिखा-धराय नमः
ॐ सुशर्मणे नमः
ॐ अमित-शर्मणे नमः
ॐ नारायण-परायणाय नमः
ॐ जिष्णवे नमः
ॐ भविष्णवे नमः
ॐ रोचिष्णवे नमः
ॐ ग्रसिष्णवे नमः
ॐ स्थाणुरेवाय नमः
ॐ हरये नमः
ॐ रुद्रानुकृते नमः
ॐ वृक्ष-कंपनाय नमः
ॐ भूमि-कंपनाय नमः
ॐ गुण-प्रवाहाय नमः
ॐ सूत्रात्मने नमः
ॐ वीत-रागाय नमः
ॐ स्तुति-प्रियाय नमः
ॐ नाग-कन्या-भय-ध्वंसिने नमः
ॐ ऋतु-पर्णाय नमः
ॐ कपाल-भृताय नमः
ॐ अनाकुलाय नमः
ॐ भवोपायाय नमः
ॐ अनपायाय नमः
ॐ वेद-पारगाय नमः
ॐ अक्षराय नमः
ॐ पुरुषाय नमः
ॐ लोक-नाथाय नमः
ॐ रक्ष-प्रभवे नमः
ॐ दृडाय नमः
ॐ अष्टांग-योगाय नमः
ॐ फलभुवे नमः
ॐ सत्य-संधाय नमः
ॐ पुरुष्टुताय नमः
ॐ श्मशान-स्थान-निलयाय नमः
ॐ प्रेत-विद्रावणाय नमः
ॐ क्षमाय नमः
ॐ पंचाक्षर-पराय नमः
ॐ पञ्च-मातृकाय नमः
ॐ रंजनाय नमः
ॐ ध्वजाय नमः
ॐ योगिने नमः
ॐ वृन्द-वंद्याय नमः
ॐ शत्रुघ्नाय नमः
ॐ अनन्त-विक्रमाय नमः
ॐ ब्रह्मचारिणे नमः
ॐ इन्द्रिय-रिपवे नमः
ॐ धृतदण्डाय नमः
ॐ दशात्मकाय नमः
ॐ अप्रपंचाय नमः
ॐ सदाचाराय नमः
ॐ शूर-सेना-विदारकाय नमः
ॐ वृद्धाय नमः
ॐ प्रमोदाय नमः
ॐ आनंदाय नमः
ॐ सप्त-जिह्व-पतिर्धराय नमः
ॐ नव-द्वार-पुराधाराय नमः
ॐ प्रत्यग्राय नमः
ॐ सामगायकाय नमः
ॐ षट्चक्रधाम्ने नमः
ॐ स्वर्लोकाय नमः
ॐ भयहृते नमः
ॐ मानदाय नमः
ॐ अमदाय नमः
ॐ सर्व-वश्यकराय नमः
ॐ शक्तिरनन्ताय नमः
ॐ अनन्त-मंगलाय नमः
ॐ अष्ट-मूर्तिर्धराय नमः
ॐ नेत्रे नमः
ॐ विरूपाय नमः
ॐ स्वर-सुन्दराय नमः
ॐ धूम-केतवे नमः
ॐ महा-केतवे नमः
ॐ सत्य-केतवे नमः
ॐ महारथाय नमः
ॐ नन्दि-प्रियाय नमः
ॐ स्वतन्त्राय नमः
ॐ मेखलिने नमः
ॐ समर-प्रियाय नमः
ॐ लोहांगाय नमः
ॐ सर्वविदे नमः
ॐ धन्विने नमः
ॐ षट्कलाय नमः
ॐ शर्वाय नमः
ॐ ईश्वराय नमः
ॐ फल-भुजे नमः
ॐ फल-हस्ताय नमः
ॐ सर्व-कर्म-फलप्रदाय नमः
ॐ धर्माध्यक्षाय नमः
ॐ धर्म-फलाय नमः
ॐ धर्माय नमः
ॐ धर्म-प्रदाय नमः
ॐ अर्थदाय नमः
ॐ पं-विंशति-तत्त्वज्ञाय नमः
ॐ तारक-ब्रह्म-तत्पराय नमः
ॐ त्रि-मार्गवसतये नमः
ॐ भीमाये नमः
ॐ सर्व-दुष्ट-निबर्हणाय नमः
ॐ ऊर्जस्वानाय नमः
ॐ निष्कलाय नमः
ॐ मौलिने नमः
ॐ गर्जाय नमः
ॐ निशाचराय नमः
ॐ रक्तांबर-धराय नमः
ॐ रक्ताय नमः
ॐ रक्त-माला-विभूषणाय नमः
ॐ वन-मालिने नमः
ॐ शुभांगांय नमः
ॐ श्वेताय नमः
ॐ श्वेतांबराय नमः
ॐ जयाय नमः
ॐ जय-परीवाराय नमः
ॐ सहस्र-वदनाय नमः
ॐ कपये नमः
ॐ शाकिनी-डाकिनी-यक्ष-रक्षाय नमः
ॐ भूतौघ-भंजनाय नमः
ॐ सद्योजाताय नमः
ॐ कामगतये नमः
ॐ ज्ञान-मूर्तये नमः
ॐ यशस्कराय नमः
ॐ शंभु-तेजसे नमः
ॐ सार्वभौमाय नमः
ॐ विष्णु-भक्ताय नमः
ॐ चतुर्नवति-मन्त्रज्ञाय नमः
ॐ पौलस्त्य-बल-दर्पहाय नमः
ॐ सर्व-लक्ष्मी-प्रदाय नमः
ॐ श्रीमानाय नमः
ॐ अन्गदप्रियाय नमः
ॐ स्मृतये नमः
ॐ सुरेशानाय नमः
ॐ संसार-भय-नाशनाय नमः
ॐ उत्तमाय नमः
ॐ श्रीपरिवाराय नमः
ॐ सदागतिर्मातरये नमः
ॐ राम-पादाब्ज-षट्पदाय नमः
ॐ नील-प्रियाय नमः
ॐ नील-वर्णाय नमः
ॐ नील-वर्ण-प्रियाय नमः
ॐ सुहृताय नमः
ॐ राम दूताय नमः
ॐ लोक-बन्धवे नमः
ॐ अन्तरात्मा-मनोरमाय नमः
ॐ श्री राम ध्यानकृद् वीराय नमः
ॐ सदा किंपुरुषस्स्तुताय नमः
ॐ राम कार्यांतरंगाय नमः
ॐ शुद्धिर्गतिरानमयाय नमः
ॐ पुण्य श्लोकाय नमः
ॐ परानन्दाय नमः
ॐ परेशाय नमः
ॐ प्रिय सारथये नमः
ॐ लोक-स्वामिने नमः
ॐ मुक्ति-दात्रे नमः
ॐ सर्व-कारण-कारणाय नमः
ॐ महा-बलाय नमः
ॐ महा-वीराय नमः
ॐ पारावारगतये नमः
ॐ समस्त-लोक-साक्षिणे नमः
ॐ समस्त-सुर-वंदिताय नमः
ॐ सीता-समेत-श्रीराम-पाद-सेवा-धुरंधराय नमः


!!! वेदसार शिवस्तोत्रम् !!!

श्रीः.. .. अथ वेदसारशिवस्तोत्रम्.. 

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम् . जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम् .. १.. 

महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम् . विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम् .. २.. 

गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम् . भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम् .. ३.. 

शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन् . त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप .. ४.. 

परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम् . यतो जायते पाल्यते येन विश्वं तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम् .. ५.. 

न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायु- र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा . न चोष्णं न शीतं न देशो न वेषो न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे .. ६.. 

अजं शाश्वतं कारणं कारणानां शिवं केवलं भासकं भासकानाम् . तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम् .. ७.. 

नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते . नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य .. ८.. 

प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र . शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः .. ९.. 

शंभो महेश करुणामय शूलपाणे गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन् . काशीपते करुणया जगदेतदेक- स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि .. १०.. 

त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ . त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन् .. ११.. 

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ वेदसारशिवस्तोत्रं संपूर्णम् .


!!! लक्ष्मी को स्थिर करने के उपाय !!!



घर में समृद्धि लाने हेतु घर के उत्तरपश्चिम के कोण (वायव्य कोण) में सुन्दर से मिट्टी के बर्तन में कुछ सोने-चांदी के सिक्के, लाल कपड़े में बांध कर रखें। फिर बर्तन को गेहूं या चावल से भर दें। ऐसा करने से घर में धन का अभाव नहीं रहेगा।

घर में स्थायी सुख-समृद्धि हेतु पीपल के वृक्ष की छाया में खड़े रह कर लोहे के बर्तन में जल, चीनी, घी तथा दूध मिला कर पीपल के वृक्ष की जड़ में डालने से घर में लम्बे समय तक सुख-समृद्धि रहती है और लक्ष्मी का वास होता है।

घर में बार-बार धन हानि हो रही हो तों वीरवार को घर के मुख्य द्वार पर गुलाल छिड़क कर गुलाल पर शुद्ध घी का दोमुखी (दो मुख वाला) दीपक जलाना चाहिए। दीपक जलाते समय मन ही मन यह कामना करनी चाहिए की भविष्य में घर में धन हानि का सामना न करना पड़े´। जब दीपक शांत हो जाए तो उसे बहते हुए पानी में बहा देना चाहिए।

काले तिल परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर सात बार उसार कर घर के उत्तर दिशा में फेंक दें, धनहानि बंद होगी।

घर की आर्थिक स्थिति ठीक करने के लिए घर में सोने का चौरस सिक्का रखें। कुत्ते को दूध दें। अपने कमरे में मोर का पंख रखें।

अगर आप सुख-समृद्धि चाहते हैं, तो आपको पके हुए मिट्टी के घड़े को लाल रंग से रंगकर, उसके मुख पर मोली बांधकर तथा उसमें जटायुक्त नारियल रखकर बहते हुए जल में प्रवाहित कर देना चाहिए।

अखंडित भोज पत्र पर 15 का यंत्र लाल चन्दन की स्याही से मोर के पंख की कलम से बनाएं और उसे सदा अपने पास रखें।

व्यक्ति जब उन्नति की ओर अग्रसर होता है, तो उसकी उन्नति से ईर्ष्याग्रस्त होकर कुछ उसके अपने ही उसके शत्रु बन जाते हैं और उसे सहयोग देने के स्थान पर वे ही उसकी उन्नति के मार्ग को अवरूद्ध करने लग जाते हैं, ऐसे शत्रुओं से निपटना अत्यधिक कठिन होता है। ऐसी ही परिस्थितियों से निपटने के लिए प्रात:काल सात बार हनुमान बाण का पाठ करें तथा हनुमान जी को लड्डू का भोग लगाए¡ और पाँच लौंग पूजा स्थान में देशी कर्पूर के साथ जलाएँ। फिर भस्म से तिलक करके बाहर जाए¡। यह प्रयोग आपके जीवन में समस्त शत्रुओं को परास्त करने में सक्षम होगा, वहीं इस यंत्र के माध्यम से आप अपनी मनोकामनाओं की भी पूर्ति करने में सक्षम होंगे।

कच्ची धानी के तेल के दीपक में लौंग डालकर हनुमान जी की आरती करें। अनिष्ट दूर होगा और धन भी प्राप्त होगा।

अगर अचानक धन लाभ की स्थितियाँ बन रही हो, किन्तु लाभ नहीं मिल रहा हो, तो गोपी चन्दन की नौ डलियाँ लेकर केले के वृक्ष पर टाँग देनी चाहिए। स्मरण रहे यह चन्दन पीले धागे से ही बाँधना है।

अकस्मात् धन लाभ के लिये शुक्ल पक्ष के प्रथम बुधवार को सफेद कपड़े के झंडे को पीपल के वृक्ष पर लगाना चाहिए। यदि व्यवसाय में आकिस्मक व्यवधान एवं पतन की सम्भावना प्रबल हो रही हो, तो यह प्रयोग बहुत लाभदायक है।

अगर आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे हों, तो मन्दिर में केले के दो पौधे (नर-मादा) लगा दें।

अगर आप अमावस्या के दिन पीला त्रिकोण आकृति की पताका विष्णु मन्दिर में ऊँचाई वाले स्थान पर इस प्रकार लगाएँ कि वह लहराता हुआ रहे, तो आपका भाग्य शीघ्र ही चमक उठेगा। झंडा लगातार वहाँ लगा रहना चाहिए। यह अनिवार्य शर्त है।

देवी लक्ष्मी के चित्र के समक्ष नौ बत्तियों का घी का दीपक जलाए¡। उसी दिन धन लाभ होगा।

एक नारियल पर कामिया सिन्दूर, मोली, अक्षत अर्पित कर पूजन करें। फिर हनुमान जी के मन्दिर में चढ़ा आएँ। धन लाभ होगा।

पीपल के वृक्ष की जड़ में तेल का दीपक जला दें। फिर वापस घर आ जाएँ एवं पीछे मुड़कर न देखें। धन लाभ होगा।

प्रात:काल पीपल के वृक्ष में जल चढ़ाएँ तथा अपनी सफलता की मनोकामना करें और घर से बाहर शुद्ध केसर से स्वस्तिक बनाकर उस पर पीले पुष्प और अक्षत चढ़ाए¡। घर से बाहर निकलते समय दाहिना पाँव पहले बाहर निकालें।

एक हंडिया में सवा किलो हरी साबुत मूंग की दाल, दूसरी में सवा किलो डलिया वाला नमक भर दें। यह दोनों हंडिया घर में कहीं रख दें। यह क्रिया बुधवार को करें। घर में धन आना शुरू हो जाएगा।

प्रत्येक मंगलवार को 11 पीपल के पत्ते लें। उनको गंगाजल से अच्छी तरह धोकर लाल चन्दन से हर पत्ते पर 7 बार राम लिखें। इसके बाद हनुमान जी के मन्दिर में चढ़ा आएं तथा वहां प्रसाद बाटें और इस मंत्र का जाप जितना कर सकते हो करें। `जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करो गुरू देव की नांई´ 7 मंगलवार लगातार जप करें। प्रयोग गोपनीय रखें। अवश्य लाभ होगा।

अगर नौकरी में तरक्की चाहते हैं, तो 7 तरह का अनाज चिड़ियों को डालें।

ऋग्वेद (4/32/20-21) का प्रसिद्ध मन्त्र इस प्रकार है -

`ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि। ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।।´ 

(हे लक्ष्मीपते ! आप दानी हैं, साधारण दानदाता ही नहीं बहुत बड़े दानी हैं। आप्तजनों से सुना है कि संसारभर से निराश होकर जो याचक आपसे प्रार्थना करता है उसकी पुकार सुनकर उसे आप आर्थिक कष्टों से मुक्त कर देते हैं – उसकी झोली भर देते हैं। हे भगवान मुझे इस अर्थ संकट से मुक्त कर दो।


निम्न मन्त्र को शुभमुहूर्त्त में प्रारम्भ करें। प्रतिदिन नियमपूर्वक 5 माला श्रद्धा से भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करके, जप करता रहे -


"ॐ क्लीं नन्दादि गोकुलत्राता दाता दारिद्र्यभंजन।सर्वमंगलदाता च सर्वकाम प्रदायक:। श्रीकृष्णाय नम:" 

भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष भरणी नक्षत्र के दिन चार
घड़ों में पानी भरकर किसी एकान्त कमरे में रख दें। अगले दिन जिस घड़े का पानी कुछ कम हो उसे अन्न से भरकर प्रतिदिन विधिवत पूजन करते रहें। शेष घड़ों के पानी को घर, आँगन, खेत आदि में छिड़क दें। अन्नपूर्णा देवी सदैव प्रसन्न रहेगीं।

किसी शुभ कार्य के जाने से पहले

-रविवार को पान का पत्ता साथ रखकर जायें।सोमवार को दर्पण में अपना चेहरा देखकर जायें।मंगलवार को मिष्ठान खाकर जायें।बुधवार को हरे धनिये के पत्ते खाकर जायें।गुरूवार को सरसों के कुछ दाने मुख में डालकर जायें।शुक्रवार को दही खाकर जायें।शनिवार को अदरक और घी खाकर जाना चाहिये।

किसी भी शनिवार की शाम को माह की दाल के दाने लें। उसपर थोड़ी सी दही और सिन्दूर लगाकर पीपल के वृक्ष के नीचे रख दें और बिना मुड़कर देखे वापिस आ जायें। सात शनिवार लगातार करने से आर्थिक समृद्धि तथा खुशहाली बनी रहेगी।

गृह बाधा की शांति के लिए पश्चिमाभिमुख होकर 

क्क नमः शिवाय 

मंत्र का २१ बार या २१ माला श्रद्धापूर्वक जप करें।

आर्थिक परेशानियों से मुक्ति के लिए गणपति की नियमित आराधना करें। इसके अलावा श्वेत गुजा (चिरमी) को एक शीशी में गंगाजल में डाल कर प्रतिदिन श्री सूक्त का पाठ करें। बुधवार को विशेष रूप से प्रसाद चढ़ाकर पूजा करें।


आर्थिक समस्या के छुटकारे के लिए :

यदि आप हमेशा आर्थिक समस्या से परेशान हैं तो इसके लिए आप 21 शुक्रवार 9 वर्ष से कम आयु की 5 कन्यायों को खीर व मिश्री का प्रसाद बांटें !

घर और कार्यस्थल में धन वर्षा के लिए :
इसके लिए आप अपने घर, दुकान या शोरूम में एक अलंकारिक फव्वारा रखें !
या एक मछलीघर जिसमें 8 सुनहरी व एक काली मछ्ली हो रखें ! इसको उत्तर या उत्तरपूर्व की ओर रखें ! यदि कोई मछ्ली मर जाय तो उसको निकाल कर नई मछ्ली लाकर उसमें डाल दें !


परेशानी से मुक्ति के लिए :

आज कल हर आदमी किसी न किसी कारण से परेशान है ! कारण कोई भी हो आप एक तांबे के पात्र में जल भर कर उसमें थोडा सा लाल चंदन मिला दें ! उस पात्र को सिरहाने रख कर रात को सो जांय ! प्रातः उस जल को तुलसी के पौधे पर चढा दें ! धीरे-धीरे परेशानी दूर होगी !
घर में स्थिर लक्ष्मी के वास के लिए : चक्की पर गेहूं पिसवाने जाते समय तुलसी के ग्यारह पत्ते गेहूं में डाल दें। एक लाल थैली में केसर के २ पत्ते और थोड़े से गेहूं डालकर मंदिर में रखकर फिर इन्हें भी पिसवाने वाले गेंहू में मिला दें, धन में बरकत होगी और घर में स्थ्रि लक्ष्मी का वास होगा। आटा केवल सोमवार या शनिवार को पिसवाएं।

पैतृक संपत्ति की प्राप्ति के लिए :
घर में पूर्वजों के गड़े हुए धन की प्राप्ति हेतु किसी सोमवार को २१ श्वेत चितकवरी कौड़ियों को अच्छी तरह पीस लें और चूर्ण को उस स्थान पर रखें, जहां धन गड़े होने का अनुमान हो। धन गड़ा हुआ होगा, तो मिल जाएगा।


!!! माला में प्राण प्रतिष्ठा !!!


क्या सामान्य से सामान्य से प्रयोग में संस्कारित माला की जरुरत होती हैं ?? 

तो उत्तर यह हैं की हाँ बिना संस्कार की माला का प्रयोग करने से सम्बंधित देवता क्रुद्ध हो जाते हैं तो हर प्रयोग के लिए यह माला कहां से लाये तो आप सभी के लाभार्थ यह माला को संस्कारित करने की विधिया इस लेख में आप सभी के लिए

आप जानते हैं की विभिन्न प्रयोग के लिए विभिन्न मनको की माला का उपयोग होता हैं , कभी 51 तो कभी 31 पर अधिकांश प्रयोग और साधना में 108 मनको से युक्त माला का प्रयोग होता हैं.

पर १०८ ही क्यों यूं तो सभी का एक विशेष अर्थ हैं हैं पर सदगुरुदेव भगवान् ने कहा हैं की मानव शरीर में 7 चक्र नहीं बल्कि108 चक्र होते हैं , और उन्होंने इस संदर्भ में विभिन्न उदाहरण भी दिए हैं साथ ही साथ इस हेतु एक बार एक विशिष्ठ दीक्षा १०८ चक्र जागरण दीक्षा भी उन्होंने प्रदान की थी, तो जब भी हम 108 मनको की माला से मंत्र जप करते हैं तब हर मनके के माध्यम से एक विशेष चक्र पर स्पंदन होता ही हैं फिर उसे हम महसूस चाहे या न चाहे करे .यही एक गोपनीय तथ्य हैं इन मनको का 108 होने का तभी तो 108 मनको वाली माला सर्वार्थ सिद्धि प्रदायक कही जाती हैं

और यह माला ही तो इस साधना की एक विशेष उपकरण हैं ,सदगुरुदेव भगवान् कहते हैं की की क्यों एक छोटी छोटी से बात पर अपने सदगुरुदेव पर भी निर्भर रहना , उन्होंने ही तो अनेक बार माला और यंत्रो को प्राण प्रतिष्ठित करने की विधिया बताई , उ ससमय के अनेक साधक इस बात के प्रमाण हैं ,

और जब हम आगे बढ़ कर सिद्धाश्रम तक जाने की बात करते हैं और हम खुद एक सामान्य सी माला प्राण प्रतिष्ठित न कर पाए तो आप ही सोच सकते हैं हम हैं कहाँ , अतः इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए इस प्रक्रिया को आपके सामने रहा जा रहा हैं .
यह लेख आरिफ खान जी के द्वारा अनेको वर्ष पहले भी एक पत्रिका में प्रकाशित हो चूका हैं उसी का संक्षिप्त रूप आपके सामने हैं .

ध्यान रहे यहाँ हम माला निर्माण की प्रक्रिया नहीं बता रहे हैं वह एक और ही अलग विषय हैं .


प्रथम तरीका :सर्वाधिक सरल तरीका तो यह हैं की आप किसी भी माला /मालाओं को किसी भी ज्योतिर्लिंग या शक्ति पीठ में मुख्य विग्रह से स्पर्श करा ले, उनकी प्राण उर्जा से माला स्वतः हो प्राण प्रतिष्ठित हो जाती हैं .
द्वितीय तरीका : यह हैं की यदि आप से रुद्राभिषेक करते बनता हैं या आप के घर में किसी से या कोई पंडित द्वारा आपके घर में रुद्राभिषेक किया जा रहा हो उस समय काल में किसी भी पात्र में यह माला जिसे प्राण प्रतिष्ठित किया जाना हैं उसे रख दे ,यह स्वत ही परं प्रतिष्ठित हो जाती हैं , रुद्राभिषेक की विधि आप गीता प्रेस की किताबों में पा सकते हैं .

तृतीय तरीका :आप के जो भी गुरु हो उनके हाथो के स्पर्श मात्र से भी यह प्रक्रिया सुगमता पूर्वक संपन्न हो जाती हैं .

 चतुर्थ तरीका :माला को गंगा जल से स्नान कराये और निम्न मन्त्र उसी माला से १०८ बार जप कर ले , यह भी एक सुगम तरीका हैं .

माले माले महामाले सर्व तत्त्व स्वरूपिणी |
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्त स्तस्मंमे सिद्धिदा भव ||
पंचम तरीका : शास्त्रीय प्रक्रिया :


पीपल के नौ पत्ते को इस तरह से रखे की एक पत्ता बीच में और और अन्य पत्ते उसे केंद्र मानते हुए इस प्रकार रखे मानो एक अष्ट दल कमल सा बन जाये , बीच के पत्ते पर आप अपनी माला रख दे और हिंदी वर्ण माला से वर्ण ॐ अं से लेकर क्षं तक सभी का उच्चारण करते हुए उस माला को पंचगव्य से स्नान कराये. फिर सद्योजात मंत्र का उच्चारण करते हुए

ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः |
भवे भवे नाति भवे भवस्य माँ भवो द्वावाय नमः ||
निम्न वामदेव मन्त्र से चन्दन माला पर लगा यें
बलाय नमो बल प्रमथ नाय नमः सर्व भूतदहनाय नमो मनो न्मथाय नमः ||

धुप बत्ती अघोरमंत्र से दिखाए

ॐ अघोरेभ्योSथ घोरेभ्यो घोर घोर तरेभ्य: सर्वेभ्य : सर्व सर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्य :

फिर तत्पुरुष मंत्र से लेपन करे

ॐ तत्पुरुषाय विद्म्ह्ये महादेवी धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात |

फिर इसके एक एक दाने पर एक बार या सौ सौ बार इशान मंत्र का जप करे

ॐ ईशान: सर्व विद्यानामिश्वर : सर्व भूतानां ब्रह्मा धिपति र ब्रह्मणो s धिपतिर्ब्रह्मा शिवो में अस्तु सदाशिवोsम |

अब बात आती हैं कि कैसे देवता की स्थापना की जाए तो यदि आप इस माला को शक्ति कार्यों में उपयोग करना चाहते हैं तो "ह्रीं " इस मंत्र के पहले लगा कर और लाल रंग के पुष्पों से इसका पूजन करें. और वैष्णवों को निम्न मन्त्र का उपयोग करें

ॐ ऐं श्रीं अक्षमाला यै नमः ||

फिर हर वर्ण मतलब अं से लेकर क्षं तक लेकर इनसे संपुटित करके १०८ /१०८ बार अपने इष्ट मन्त्र का उच्चारण करे .

फिर यह प्रार्थना करे

ॐ त्वं माले सर्वदेवानां सर्व सिद्धिप्र्दा मता |

तें सत्येन में सिद्धिं देहि मातर्नामो s स्तू ते ||

अब इस माला को हर के सामने दिखाए नहीं , आपको जो भी विधि उचित लगे उसका उपयोग करके एक प्राण प्रतिष्ठित माला का निर्माण आप कर सकते हैं उसे साधना में प्रयोग करसकते हैं .
पर यह तो प्रकिया मणि माला को संस्कारित करने की हैं पर विशेष शक्ति युक्त तांत्रिक माला का निर्माण कैसे किया जाए , यह विधान पहली बार ही सामने आ रहा हैं , तो इसमें आपको

ॐ सर्व माला मणि माला सिद्धि प्रदात्रयि शक्ति रुपिंयै नमः

१०८ बार उच्चारण करना हैं इस दौरान माला हाथ में घुमती यां उसे घुमाते रहे गी /रहे




!!! माला को शुद्ध करने का संस्कार !!!


पीपल के 9 पत्ते ज़मीन मे रखकर एक पत्ता बीच मे तथा शेष 8 कमल की तरह बनाकर बीच वाले मे माला रखे और अं आं इत्यादि सं हं पर्यंत समस्त स्वर व्यंजन का आनुनासिक उच्चारण का पंचगव्य से माला प्रक्षालन करे तथा सघोजात मंत्र पढ़कर उसे जल से धो ले |

ॐ सघो जातं प्रपघामी सघो जाताय वै नमो नमः
भवे भवे नाती भवे भवस्य मां भवोदभवाय नमः ||

फिर वामदेव मंत्र से चन्दन लेप करे | 

ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राक्ष नमः कल विकरनाय नमो बल विकरनाय नमः |

बलाय नमो बल प्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोनमनाय नमः |

फिर अघोर मंत्र से धूप दान दे |

ॐ अघोरेभ्योsथेरेभ्यो घोर घोर तरेभ्य:म सर्वेभ्य: सर्व शर्वेभ्या नमस्ते अस्तु रुद्ररुपेभ्य: ||

फिर एक एक दाने पर सौ सौ ईशान मंत्र का जाप करे |

ॐ ईशान: सर्व विद्यानामीश्वर: सर्वभूतानां ब्रहमाधिपति ब्राह्मणोsधिपति ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदा शिवोम ||

फिर माला मे अपने इष्ट देवता की प्राण प्रतिष्ठा कर प्रार्थना करे |

माले माले महामालेसर्व तत्व स्वरूपिणी 

चतर्वस्त्वयी- न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्दी दाभव: ||


25 July 2013

!!! पंचगव्य !!!


गाय के दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर का पानी को सामूहिक रूप से पंचगव्य कहा जाता है। आयुर्वेद में इसे औषधि की मान्यता है। हिन्दुओं के कोई भी मांगलिक कार्य इनके बिना पूरे नहीं होते।

पंचगव्य का चिकित्सकीय महत्व
पंचगव्य का निर्माण गाय के दूध, दही, घी, मूत्र, गोबर के द्वारा किया जाता है। पंचगव्य द्वारा शरीर के रोगनिरोधक क्षमता को बढाकर रोगों को दूर किया जाता है। गोमूत्र में प्रति ऑक्सीकरण की क्षमता के कारण डीएनए को नष्ट होने से बचाया जा सकता है। गाय के गोबर का चर्म रोगों में उपचारीय महत्व सर्वविदित है। दही एवं घी के पोषण मान की उच्चता से सभी परिचित हैं। दूध का प्रयोग विभिन्न प्रकार से भारतीय संस्कृति में पुरातन काल से होता आ रहा है। घी का प्रयोग शरीर की क्षमता को बढ़ाने एवं मानसिक विकास के लिए किया जाता है। दही में सुपाच्य प्रोटीन एवं लाभकारी जीवाणु होते हैं जो क्षुधा को बढ़ाने में सहायता करते हैं। पंचगव्य का निर्माण देसी मुक्त वन विचरण करने वाली गायों से प्राप्त उत्पादों द्वारा ही करना चाहिए।

पंचगव्य निर्माण
सूर्य नाड़ी वाली गायें ही पंचगव्य के निर्माण के लिए उपयुक्त होती हैं। देसी गायें इसी श्रेणी में आती हैं। इनके उत्पादों में मानव के लिए जरूरी सभी तत्त्व पाये जाते हैं। महर्षि चरक के अनुसार गोमूत्र कटु तीक्ष्ण एवं कषाय होता है। इसके गुणों में उष्णता, राष्युकता, अग्निदीपक प्रमुख हैं। गोमूत्र में नाइट्रोजन, सल्फुर, अमोनिया, कॉपर, लौह तत्त्व, यूरिक एसिड, यूरिया, फास्फेट, सोडियम, पोटेसियम, मैंगनीज, कार्बोलिक एसिड, कैल्सिअम, नमक, विटामिन बी, ऐ, डी, ई; एंजाइम, लैक्टोज, हिप्पुरिक अम्ल, कृएतिनिन, आरम हाइद्रक्साइद मुख्य रूप से पाये जाते हैं। यूरिया मूत्रल, कीटाणु नाशक है। पोटैसियम क्षुधावर्धक, रक्तचाप नियामक है। सोडियम द्रव मात्रा एवं तंत्रिका शक्ति का नियमन करता है। मेगनीसियम एवं कैल्सियम हृदयगति का नियमन करते हैं।


भारत में गाय को माता कहा जाता है। विश्व के दूसरे देशों में गाय को पूजनीय नहीं माना जाता। भारतीय गोवंश मानव का पोषण करता रहा है, जिसका दूध, गोमूत्र और गोबर अतुलनीय है। सुख, समृद्धि की प्रतीक रही भारतीय गाय आज गोशालाओं में भी उपेक्षित है। अधिक दूध के लिए विदेशी गायों को पाला जा रहा है जबकि भारतीय नस्ल की गायें आज भी सर्वाधिक दूध देती हैं। गोशाला में देशी गोवंश के संरक्षण, संवर्धन की परम्परा भी खत्म हो रही है। हमारी गोशालाएं ‘डेयरी फार्म’ बन चुकी हैं, जहां दूध का ही व्यवसाय हो रहा है और सरकार भी इसी को अनुदान देती है। वैसे गोशाला में दान देने वाले व्यक्तियों की भी कमी नहीं है। हमें देशी गाय के महत्व और उसके साथ सहजीवन को समझना जरुरी है। आज भारतीय गोशालाओं से भारतीय गोवंश सिमटता जा रहा है।

गाय की उत्पत्ति स्थल भी भारत ही है। गाय का उद्भव बास प्लैनिफ्रन्स के रूप में प्लाईस्टोसीन के प्रथम चरण (15 लाख वर्ष पूर्व) में हुआ। इस प्रकार इसका सर्वप्रथम विकास एशिया में हुआ। इसके बाद प्लाईस्टोसीन के अंतिम दौर (12 लाख वर्ष पूर्व) गाय अफ्रीका और यूरोप में फैली। विश्व के अन्य क्षेत्र उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में तो 19वीं सदी में गोधन गया। गायों का विकास दुनिया के पर्यावरण, वहां की आबोहवा के साथ उनके भौतिक स्वरूप व अन्य गुणों में परिवर्तित हुआ। भारतीय ऋषि-मुनियों ने गाय को कामधेनु माना, जो समस्त भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करने वाली है। गाय का दूध अनमोल पेय रहा है। गोबर से ऊर्जा के लिए कंडे व कृषि के लिए उत्तम खाद तैयार होती है। गोमूत्र तो एक रामबाण दवा है, जिसका अब पेटेंट का हो चुका है।

विदेशी नस्ल की गाय को भारतीय संस्कृति की दृष्टि से गोमाता नहीं कहा जा सकता। जर्सी, होलस्टीन, फ्रिजियन, आस्ट्रियन आदि नस्ल की तुलना भारतीय गोवंश से नहीं हो सकती। आधुनिक गोधन जिनेटिकली इंजीनियर्ड है। इन्हें मांस व दूध उत्पादन अधिक देने के लिए सुअर के जींस से विलगाया गया है।

भारतीय नस्ल की गायें सर्वाधिक दूध देती थीं और आज भी देती हैं। ब्राजील में भारतीय गोवंश की नस्लें सर्वाधिक दूध दे रही हैं। अंग्रेजों ने भारतीयों की आर्थिक समृद्धि को कमजोर करने के लिए षडयंत्र रचा था। कामनवेल्थ लाइब्रेरी में ऐसे दस्तावेज आज भी रखे हैं। आजादी बचाओ आंदोलन के प्रणेता प्रो. धर्मपाल ने इन दस्तावेजों का अध्ययन कर सच्चाई सामने रखी है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट में कहा गया है-‘ब्राजील भारतीय नस्ल की गायों का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। वहां भारतीय नस्ल की गायें होलस्टीन, फ्रिजीयन (एचएफ) और जर्सी गाय के बराबर दूध देती हैं।

हमारे गोवंश की शारीरिक संरचना अदभुत है। इसलिए गोपालन के साथ वास्तु शास्त्र में भी गाय को विशेष महत्व दिया गया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भारतीय गोवंश की रीढ़ में सूर्य केतु नामक एक विशेष नाड़ी होती है। जब इस पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं, तब यह नाड़ी सूर्य किरणों के तालमेल से सूक्ष्म स्वर्ण कणों का निर्माण करती है। यही कारण है कि देशी नस्ल की गायों का दूध पीलापन लिए होता है। इस दूध में विशेष गुण होता है। विदेशी नस्ल की गायों का दूध त्याज्य है। ध्यान दें कि अनेक पालतू पशु दूध देते हैं, पर गाय का दूध को उसके विशेष गुण के कारण सर्वोपरी पेय कहा गया है। गाय के दूध, गोबर व मूत्र में अदभुत गुण हैं, जो मानव जीवन के पोषण के लिए सर्वोपरि हैं।

देशी गाय का गोबर व गोमूत्र शक्तिशाली है। रासायनिक विश्लेषण में देखें कि खेती के लिए जरुरी 23 प्रकार के प्रमुख तत्व गोमूत्र में पाए जाते हैं। इन तत्वों में कई महत्वपूर्ण मिनरल, लवण, विटामिन, एसिड्स, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट होते हैं।

गोबर में विटामिन बी-12 प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह रेडियोधर्मिता को भी सोख लेता है। हिंदुओं के हर धार्मिक कार्यों में सर्वप्रथम पूज्य गणेश उनकी माता पार्वती को गोबर से बने पूजा स्थल में रखा जाता है। गौरी-गणेश के बाद ही पूजा कार्य होता है। गोबर में खेती के लिए लाभकारी जीवाणु, बैक्टीरिया, फंगल आदि बड़ी संख्या में रहते हैं। गोबर खाद से अन्न उत्पादन व गुणवत्ता में वृद्धि होती है।

गाय मानव जीवन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राणी है। भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति और परम्परा में गाय को इसीलिए पूज्यनीय ही माना जाता है। हम भारतीय गोवंश को अपनाकर उन्हें गोशाला में संरक्षित, संवर्धित कर सकते हैं, जिसका सर्वाधिक लाभ भी हमें ही मिलेगा। देशी गौवंश को हमारी गोशालाओं से हटाने की साजिश भी सफल हो रही है, जिस पर समय रहते ध्यान देना जरुरी है।