दो० - कपि के ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाई॥ २४ ॥
मैं सबको समझाकर कहता हूँ कि बंदर की ममता पूँछ पर होती है। अत: तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर फ़िर आग लगा दो॥ २४ ॥
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउँ मैं तिन्ह के प्रभुताई॥ १ ॥
बचन सुनत कपि मन मुसकाना। भै सहाय सारद मैं जाना ॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥ २ ॥
रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥ ३ ॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फ़ेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता। भयौ परम लघुरुप तुरंता॥ ४ ॥
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं ॥ ५ ॥
बन्धन से निकलर वे सोने की अटारियों पर चढ़े। उनको देखकर राक्षसों की स्त्रियाँ भयभीत हो गयीं।। ५ ॥
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