इन्द्रजीत कि मृत्यु होने से रावण पुत्र-वियोग में रोने लगा. उस समय मन्दोदरी रावण को समझाने लगी कि मेरा बड़ा पुत्र चला गया. परन्तु अब भी आप नहीं मानते. श्रीराम परमात्मा है. उनके साथ आप विरोध करना छोड़ दो.. रावण ने कहा - मै जानता हु कि राम परमात्मा है. मंदोदरी ने कहा. राम परमात्मा है, यह आप जानते हो, फिर वैर क्यों करते हो? रावण ने कहा - मैंने विचार किया है कि मै अकेला बैठकर रामजी का ध्यान करू और प्रेम से स्मरण करू तो मुझे अकेले को ही मुक्ति मिलेगी. परन्तु मै यदि रामजी के साथ वैर विरोध करता हु तो मेरे सम्पूर्ण वंश का कल्याण होता है. इन राक्षसों का आहार तामसी है.
ये भक्ति कर सके इस योग्य नहीं. ध्यान, तप , जप कर सके इस लायक नहीं है, परन्तु रामजी के साथ मै विरोध करता हु तो यह सब राम-बाण-गंगा में स्नान करके, अन्तकाल में रामजी के दर्शन करते करते प्राण छोड़ेगे और इस प्रकार मेरे समस्त राक्षस मुक्ति को प्राप्त होगें. रावण कोई बहुत बड़ा मुर्ख नहीं था. वह प्रचण्ड विद्वान था. उसने मंदोदरी से कहा - मैंने भगवान राम को साक्षात परमात्मा श्रीहरि जानकार ही यह निश्चय किया था कि मै विरोध-बुद्धि से ही भगवान को पाउँगा. क्युकि भक्ति के द्वारा भगवान शीघ्र प्रसन्न नहीं हो सकते, और उससे तो सिर्फ मेरी ही मुक्ति होती. जबकि में समस्त राक्षस कुल की मुक्ति चाहता हू।
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