28 August 2013


यंत्र व् माला में कैसे प्राण प्रतिष्ठा करे उसका पूर्ण विधान
यंत्र व् माला में कैसे प्राण प्रतिष्ठा करे उसका पूर्ण विधान 






जय माँ तारा ..

हे माँ तारा तू आज अपने नील सरस्वती रूप धर के मुझ पर अपनी कृपा दृष्टी बनाये रखना ताकि मै इस पोस्ट द्वारा पूर्ण रूप से प्रमाणिक विधान मेरे मित्रो को उपलब्ध करवा सकू ......
जय माँ नील तारा ...


मेरे परम मित्रो आप को तो शायद यह ज्ञात ही होगा की अनादि काल से साधना क्षेत्र में यंत्रो का उपयोग होता आ रहा है और होता रहेगा ...
आज इस बर्तमान में लाखो यंत्र मिल जायेंगे श्रीयंत्र से शुरू करके नवग्रह यंत्र तक .. देवी देवताओ के यंत्र से लेकर भुत पिशाच तक के यंत्र उपलब्ध है बाजार में ....इन यंत्रो की महत्व कितना है यह तोह मुझे नहीं पता .. पर साधना क्षेत्र में यंत्रो की आवस्यकता तोह शुरू से ही था .. क्योंके यंत्र उस देव वर्ग का साक्षात् स्वरुप होता है .. और इन यंत्रो पर साधना करना अतिउत्तम भी माना गया है .. 


परन्तु किसी भी यंत्र पर साधना शुरू करने से पहले आप को कुछ बाते पता होना अवश्यक ही नहीं अनिर्वार्य भी है ...
1 यंत्र सुभ मुहूर्त में सुद्ध परिस्थिति में बनाया गया है या नहीं ...
2 यंत्र पूर्ण रूप से प्राणप्रतिष्ठित है या नहीं ...
3 क्या उस यंत्र का श्राप उद्धार किया गया है ? क्योंकि अधिकांस देव वर्ग किसी न किसी कारन से श्रापित है ....
जब तक इन देव वर्ग का उद्धार क्रिया ना की जाय तब तक वेह पूर्ण रूप से आप पर कृपा भी नहीं कर सकते क्योंकि जो खुद शापित है वोह भला कैसे ..?
4 क्या यंत्र का अमृत अभिषेक करवाके यंत्र को पूर्ण रूप से चैतन्य जीवित जाग्रत अमर किया गया है या नहीं .. ?


गुरुदेव की कृपा से मुझे जो चार यंत्र का विधान प्राप्त हुआ है उसे आप सबके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ ...


1 देवी शक्ति की साधना हेतु ...अर्थात समस्त देविओ हेतु तारा से लेकर कमला तक ..


2 देवताओ हेतु .. शिव विष्णु से शुरू करके यमराज की भी साधना इस यन्त्र पर सम्पन्न कर सकते है ..


3 शिव शक्ति सायुज्य साधना हेतु अर्थात जिस साधना में देव वर्ग और देवी मंत्र दोनों समलित हो उसे सायुज्य साधना कहते है 


4 भुत प्रेत पिशाच यक्ष यक्शनी योगिनी अप्सरा गंधर्व जैसे दास वर्ग हेतु ..



वैसे तोह इस यंत्र को चौसठ योगिनी यंत्र कहा जाता है पर मैंने इसी यन्त्र पर बहुत से साधना सम्पन्न करवाया है ओर् स्वम् किया भी हूँ .. इसी लिए में पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ की इस यंत्र पर समस्त साधना की जा सकती है ...


चार माला
1
 रुद्राक्ष की जिन पर समस्त साधना सम्पन्न की जा सकती है बगला व् विष्णु ..व् विष्णु अवतारों को छोड़ कर ..
2 हल्दी माला व् पिला हकिक माला ...बागला जी की अनुष्ठान हेतु ..
3 कमल गट्टे की या स्फटिक माला लक्ष्मी साधना हेतु ..
4 तुलसी माला विष्णु और उनके अवतारों की साधना हेतु ..


मित्रो आप लोग एक बात हमेशा याद रखियेगा की अगर आप अपने स्वम् के हातो से निर्मित प्राणप्रतिष्ठित चैतन्य यंत्र पर विस्वास नहीं कर पाय तोह आप दुसरे जगह से मंगाए गए यन्त्र पर भी पूर्ण विश्वास नहीं कर पाएंगे ..
और पैसे के साथ समय का भी बर्बादी निश्चित ...
सामग्री ...

भोज पत्र या समर्थ अनुसार स्वर्ण रजत ताम्र ..
अस्टगंध की स्याही या कुंकुम हल्दी चन्दन मिश्रित स्याही या कुछ भी ना हो तो सिंदूर ही जल में घोल कर स्याही बना लीजिये ..
अनार की कलम चमेली की कलम या स्वर्ण रजत कलम मोर पंख या फिर दाहिने हात की अनामिका ऊँगली लिखने के लिए प्रयोग कर सकते है ..
दिशा उत्तर ..दिन कसी भी शुभ दिन .. समय महानिशा या ब्रह्मा मुहूर्त .. वस्त्र लाल स्वेत या फिर सुद्ध जो भी उपलब्ध हो ..
आसनी सिद्ध या पद्म ..
तिन अभिषेक पात्र .. पुष्प दुर्बा अक्षत चन्दन कुंकुम धुप बत्ती ..
सर्व प्रथम गुरु गणेश भैरव शिव शक्ति पूजन पार्थना व् आज्ञा ले .. फिर हात में जल लेके संकल्प करे ..
विधान ....
तिन पात्रो में से एक में सुद्ध जल हात धोने के लिए ..
एक में चन्दन कुंकुम मिश्रित ..
एक के जल में अमृत अवाहन करे पात्र के ऊपर दाहिना हात रक्खे निम्न मंत्र की 11 बार उच्चारण करे ..

।। ॐ अमृते अम्रितोद्भवे अमृतवर्षिणी अमृतं आकर्षय त्वं सिद्धि देहि स्वाहा।।


अब आप बजोट के ऊपर वस्त्र बिछाके उस पर भोज पत्र में यन्त्र की रचना करे ..
यन्त्र बनाने के बाद आप बजोट पर एक ताम्र पात्र स्थापत करे व् उसके ऊपर यन्त्र को पुनः स्थापित करे ..
सबसे पहले यन्त्र की संक्षिप्त पूजन सम्पन्न करे ..
फिर निम्न मंत्र उच्चारण के साथ 2 1 बार अक्षत यंत्र पर चढ़ाइए ..


।। ॐ यंत्रराजायै विद्माहे महायंत्राय धीमहि तन्नो यंत्र: प्रचोदयात।।



अब आप अपना बायाँ हात ह्रदय के ऊपर रख के दाहिने हात में दुर्बा को शुकरी या मृगी मुद्रा से पकड़ के दुर्बा के अगर भाग से यन्त्र को छू छू के निम्न मंत्र का 21 बार उच्चारण करे ...

।। ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हंसः (अमुक यंत्रस्य)त्वाग्र शास्त्र मांस मेदोस्थी मज्जा शुक्राणी धातवः (अमुक यंत्रस्य)वांग मनशचक्षु श्रोत्र घ्राण मुख जिव्हा सर्वानी इंद्रियानी शब्द स्पर्श गंध प्रानायान समानोदान व्यानाः सर्वे प्राणाः ज्ञान दर्शन प्रानश्च इहेव आगच्छत आगच्छत संवोषट स्वाहा अत्र तिष्टत तिष्ठत ठः ठः अत्र मम सन्नीहिता भवत भवत वषट स्वाहा अत्र सर्वजन सौख्याय चिरकालं नन्दंतु वाद्वंता वज्र मया भवन्तु अहं वज्रमयान करोमि स्वाहा।।



दूर्वा को पास में रख दे व् हात धो लीजिये


अब आप निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ 21 बार अक्षत चढ़ाये ..


।। ॐ ॐ ॐ ह्रीं स्त्रीं क्रींॐ ॐ ॐ।।

हात धो लीजिये और अब आप जिस पात्र के जल में अमृत अवाहन किया उस पात्र में दुर्बा को डुबो डुबो कर निम्न मंत्र के साथ यन्त्र पर21 बार छींटे दे ...



।।हौं हं सः संजीवनी जूं जीवं प्रानग्रंथिस्थं कुरु कुरु स्वाहा।।


अब आप कुंकुम चन्दन मिश्रित जल से यन्त्र के सामने अर्घ्य दे ..

अब आप यंत्र सामने मुद्रा प्रदर्शित करे देव हेतु लिंग मुद्रा देवी के लिए योनि मुद्रा ।।
इसके बाद आप हात में फुल लेके निम्न श्लोक के साथ यन्त्र पर अर्पण कीजिये ..



।।नाना सुगंध पुष्पाणि यथा कालोद भवानी च पुष्पंजलिरमया दत्तं गृहान परमेश्वरी/परमेश्वरा।।



अब आप दोनों हात जोड़ कर पार्थना करे ...


।।आहवानां ना जानामि न जानामि विसर्जनम
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरी/परमेश्वरा ..
मंत्र हिनं क्रिया हिनं भक्ति हिनं सुरेश्वरि/सुरेश्वर ..
यत पूजितं मया देवी/देव परिपूर्णं तदस्तु मे।।



आप का यंत्र पूर्ण रूप से प्राण प्रतिष्ठित श्राप मुक्त चैतन्य हो चूका है ..


गुरु मन्त्र या इस्ट मन्त्र का एक माला जप करके गुरुदेव के श्री चरणोंमें कुछ पुष्प लेके मन ही मन उनसे सभी त्रुटियो के लिए क्षमा मांगते हुए विधि को पूर्ण करने की पार्थना के साथ चढ़ा दीजिये ...


26 August 2013

!!! श्री तारा महाविद्या प्रयोग !!!


बड़े से बड़े दुखों का होगा नाश
सृष्टि के सर्वोच्च ज्ञान की होगी प्राप्ति
भोग और मोक्ष होंगे मुट्ठी में
जीवन के हर क्षत्र में मिलेगी अपार सफलता
दैहिक दैविक भौतिक तापों से तारेगी
"सिद्धविद्या महातारा"


सृष्टि की उत्तपत्ति से पहले घोर अन्धकार था, तब न तो कोई तत्व था न ही कोई शक्ति थी, केवल एक अन्धकार का साम्राज्य था, इस परलायाकाल के अन्धकार की देवी थी काली, उसी महाअधकार से एक प्रकाश का बिन्दु प्रकट हुआ जिसे तारा कहा गया, यही तारा अक्षोभ्य नाम के ऋषि पुरुष की शक्ति है, ब्रहमांड में जितने धधकते पिंड हैं सभी की स्वामिनी उत्तपत्तिकर्त्री तारा ही हैं, जो सूर्य में प्रखर प्रकाश है उसे नीलग्रीव कहा जाता है, यही नील ग्रीवा माँ तारा हैं, सृष्टि उत्तपत्ति के समय प्रकाश के रूप में प्राकट्य हुआ इस लिए तारा नाम से विख्यात हुई किन्तु देवी तारा को महानीला या नील तारा कहा जाता है क्योंकि उनका रंग नीला है, जिसके सम्बन्ध में कथा आती है कि जब सागर मंथन हुआ तो सागर से हलाहल विष निकला, जो तीनों लोकों को नष्ट करने लगा, तब समस्त राक्षसों देवताओं ऋषि मुनिओं नें भगवान शिव से रक्षा की गुहार लगाई, भूत बावन शिव भोले नें सागर म,अन्थान से निकले कालकूट नामक विष को पी लिया, विष पीते ही विष के प्रभाव से महादेव मूर्छित होने लगे, उनहोंने विष को कंठ में रोक लिया किन्तु विष के प्रभाव से उनका कंठ भी नीला हो गया, जब देवी नें भगवान् को मूर्छित होते देख तो देवी नासिका से भगवान शिव के भीतर चली गयी और विष को अपने दूध से प्रभावहीन कर दिया, किन्तु हलाहल विष से देवी का शरीर नीला पड़ गया, तब भगवान शिव नें देवी को महानीला कह कर संबोधित किया, इस प्रकार सृष्टि उत्तपत्ति के बाद पहली बार देवी साकार रूप में प्रकट हुई, दस्माहविद्याओं में देवी तारा की साधना पूजा ही सबसे जटिल है, देवी के तीन प्रमुख रूप हैं १)उग्रतारा २)एकाजटा और ३)नील सरस्वती..........देवी सकल ब्रह्म अर्थात परमेश्वर की शक्ति है, देवी की प्रमुख सात कलाएं हैं जिनसे देवी ब्रहमांड सहित जीवों तथा देवताओं की रक्षा भी करती है ये सात शक्तियां हैं १)परा २)परात्परा ३)अतीता ४)चित्परा ५)तत्परा ६)तदतीता ७)सर्वातीता, इन कलाओं सहित देवी का धन करने या स्मरण करने से उपासक को अनेकों विद्याओं का ज्ञान सहज ही प्राप्त होने लगता है, देवी तारा के भक्त के बुद्धिबल का मुकाबला तीनों लोकों मन कोई नहीं कर सकता, भोग और मोक्ष एक साथ देने में समर्थ होने के कारण इनको सिद्धविद्या कहा गया है


देवी तारा ही अनेकों सरस्वतियों की जननी है इस लिए उनको नील सरस्वती कहा जाता है
देवी का भक्त प्रखरतम बुद्धिमान हो जाता है जिस कारण वो संसार और सृष्टि को समझ जाता है
अक्षर के भीतर का ज्ञान ही तारा विद्या है
भवसागर से तारने वाली होने के कारण भी देवी को तारा कहा जाता है

देवी बाघम्बर के वस्त्र धारण करती है और नागों का हार एवं कंकन धरे हुये है
देवी का स्वयं का रंग नीला है और नीले रंग को प्रधान रख कर ही देवी की पूजा होती है
देवी तारा के तीन रूपों में से किसी भी रूप की साधना बना सकती है समृद्ध, महाबलशाली और ज्ञानवान
सृष्टि की उतपाती एवं प्रकाशित शक्ति के रूप में देवी को त्रिलोकी पूजती है
ये सारी सृष्टि देवी की कृपा से ही अनेक सूर्यों का प्रकाश प्राप्त कर रही है

शास्त्रों में देवी को ही सवित्राग्नी कहा गया है
देवी की स्तुति से देवी की कृपा प्राप्त होती है



स्तुति

प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासा परा
खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा,
खर्वा नीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता
जाड्यन्न्यस्य कपालिके त्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं,



देवी की कृपा से साधक प्राण ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करता है
गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए
देवी अज्ञान रुपी शव पर विराजती हैं और ज्ञान की खडग से अज्ञान रुपी शत्रुओं का नाश करती हैं
लाल व नीले फूल और नारियल चौमुखा दीपक चढाने से देवी होतीं हैं प्रसन्न
देवी के भक्त को ज्ञान व बुद्धि विवेक में तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पता
देवी की मूर्ती पर रुद्राक्ष चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है
महाविद्या तारा के मन्त्रों से होता है बड़े से बड़े दुखों का नाश


देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र है-
श्री सिद्ध तारा महाविद्या महामंत्र
ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट


इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं जैसे1. बिल्व पत्र, भोज पत्र और घी से हवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है 

2.मधु. शर्करा और खीर से होम करने पर वशीकरण होता है 
3.घृत तथा शर्करा युक्त हवन सामग्री से होम करने पर आकर्षण होता है।
4. काले तिल व खीर से हवन करने पर शत्रुओं का स्तम्भन होता है।
देवी के तीन प्रमुख रूपों के तीन महा मंत्र
महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं तारा ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -"1"
विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है
सफेद या नीला कमल का फूल चढ़ाना
रुद्राक्ष से बने कानों के कुंडल चढ़ाना
अनार के दाने प्रसाद रूप में चढ़ाना
सूर्य शंख को देवी पूजा में रखना
भोजपत्र पर ह्रीं लिख करा चढ़ाना
दूर्वा,अक्षत,रक्तचंदन,पंचगव्य,पञ्चमेवा व पंचामृत चढ़ाएं
पूजा में उर्द की ड़ाल व लौंग काली मिर्च का चढ़ावे के रूप प्रयोग करें
सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-ॐ क्रोद्धरात्री स्वरूपिन्ये नम:


१)देवी तारा मंत्र-ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट
२)देवी एक्जता मंत्र-ह्रीं त्री हुं फट
३)नील सरस्वती मंत्र-ह्रीं त्री हुं
सभी मन्त्रों के जाप से पहले अक्षोभ्य ऋषि का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए
सबसे महत्पूरण होता है देवी का महायंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें
यन्त्र के पूजन की रीति है-
पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं
ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय
कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें
देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है
यदि आप बिधिवत पूजा पात नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें
तारा शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं
तारा शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए-


तारणी तरला तन्वी तारातरुण बल्लरी,
तीररूपातरी श्यामा तनुक्षीन पयोधरा,
तुरीया तरला तीब्रगमना नीलवाहिनी,
उग्रतारा जया चंडी श्रीमदेकजटाशिरा,
देवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें
अब देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र

1) देवी तारा का भय नाशक मंत्र
ॐ त्रीम ह्रीं हुं
नीले रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें
पुष्पमाला,अक्षत,धूप दीप से पूजन करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
मंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
नीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
पूर्व दिशा की ओर मुख रखें
आम का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं
2) शत्रु नाशक मंत्र
ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: हुं उग्रतारे फट
नारियल वस्त्र में लपेट कर देवी को अर्पित करें
गुड से हवन करें
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
एकांत कक्ष में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
उत्तर दिशा की ओर मुख रखें
पपीता का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं
3) जादू टोना नाशक मंत्र
ॐ हुं ह्रीं क्लीं सौ: हुं फट
देसी घी ड़ाल कर चौमुखा दीया जलाएं
कपूर से देवी की आरती करें
रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें
4) लम्बी आयु का मंत्र
ॐ हुं ह्रीं क्लीं हसौ: हुं फट
रोज सुबह पौधों को पानी दें
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
शिवलिंग के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
भूरे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
पूर्व दिशा की ओर मुख रखें
सेब का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं
5) सुरक्षा कवच का मंत्र
ॐ हुं ह्रीं हुं ह्रीं फट
देवी को पान व पञ्च मेवा अर्पित करें
रुद्राक्ष की माला से 3 माला का मंत्र जप करें
मंत्र जाप के समय उत्तर की ओर मुख रखें
किसी खुले स्थान में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें
उत्तर दिशा की ओर मुख रखें
केले व अमरुद का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं
देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध-
बिना "अक्षोभ ऋषि" की पूजा के तारा महाविद्या की साधना न करें
किसी स्त्री की निंदा किसी सूरत में न करें
साधना के दौरान अपने भोजन आदि में लौंग व इलाइची का प्रयोग नकारें
देवी भक्त किसी भी कीमत पर भांग के पौधे को स्वयं न उखाड़ें
टूटा हुआ आइना पूजा के दौरान आसपास न रखें
विशेष गुरु दीक्षा-
तारा महाविद्या की अनुकम्पा पाने के लिए अपने गुरु से आप दीक्षा जरूर लें आप कोई एक दीक्षा ले सकते हैं
महातारा दीक्षा
नीलतारा दीक्षा
उग्र तारा दीक्षा
एकजटा दीक्षा
ब्रह्माण्ड दीक्षा
सिद्धाश्रम प्राप्ति दीक्षा
हिमालय गमन दीक्षा
महानीला दीक्षा
कोष दीक्षा
अपरा दीक्षा.................आदि में से कोई एक


-कौलान्तक पीठाधीश्वर
महायोगी सत्येन्द्र नाथ



14 August 2013

!!! छिन्नमस्ता रहस्य !!!!

साधक और उसका आराध्य ये दोनों मिलकर एक ऐसी सत्ता का निर्माण करते है जिसका कण-कण लाखों करोड़ों ज्योतिपुन्जों से ज्यादा प्रकाशमान, शक्तिमान और ऊर्जावान होता है....ऐसी स्थिति में साधक का जीवन एक आम आदमी की तरह जन्म की किलकारी से शुरू होकर चिता की राख के साथ खत्म नहीं हो जाता क्योकि वो अपनी आखिरी नींद लेने से पहले ही परम-आनंद की अनुभूति कर चुका होता है....और ये आत्मा को तृप्त करने वाला आनंद उसे तब प्राप्त होता है जब दैवी शक्तियों के साथ उसका एकाकार हो जाता है.

किसी भी दिव्य सत्ता को आत्मसात करने के लिए तीन नियम हमेशा एक साधक को याद रखने चाहियें-

  • १-साधक को अपने आप को अपने इष्ट के चरणों में विसर्जित कर देना चाहिए.
  • २-उसका संकल्प पक्का होना चाहिए की चाहे पृथ्वी आपना मार्ग बदल दे पर मैं आपने अभीष्ट को पा कर ही रहूँगा.
  • ३-अपने आराध्य के साथ साथ उसका खुद पर भी विशवास होना चाहिए की मैं ये कर सकता हूँ और करूँगा ही.
छिन्नमस्ता माँ की साधना को दसों महाविद्याओं में सबसे श्रेष्ठ माना गया है क्योकि एक तो ये शीघ्र फल देने वाली है और दूसरा ये दो तरह से आपने साधक के शत्रुओं का नाश करती है. अब हम सोचे की ये दो शत्रु कौन है तो-

  • १-बाहरी शत्रु- जैसे हमारे सब के कोई ना कोई होते ही हैं...
  • २-मानसिक शत्रु काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार- 


ये जितने भी हमारे दुश्मन हो सकते हैं उनमें से सबसे खतरनाक श्रेणी है क्योकि जब ये शत्रुता निकालते है तो विनाश को कोई नहीं टाल सकता....सिर्फ एक पल के लिए मन में मोह आ जाए तो हम हाजारों मील अपने प्रेम से दूर हो जाते हैं और इससे बड़ी शत्रुता और क्या होगी की हमे हमारे लक्ष्य से कोई दूर कर दे.....सदगुरुदेव से प्रेम ही तो हम सब का लक्ष्य होना चाहिए.



इसमें कोई दो-राये नहीं है की ये साधना यदि हमें सिद्ध हो जाए तो हममें असंभव को संभव करने की क्षमता आ जाती है पर एक बात का हमेशा ख्याल रखना चाहिए की ये क्षमता हम में तभी आ पाएगी, हम तभी माँ छिन्नमस्ता को खुद में आत्मसात कर सकेंगे यदि हम वीर भाव के साधक है तो....गिदगिड़ाने से भीख अवश्य मिल सकती है पर उपलब्धि नहीं. उपलब्धि के लिए आँखों में विजय भाव दिखना चाहिए.
माँ छिन्नमस्ता के तीन नाम है-


  • १- छिन्नमस्ता “ ये साधारण साधको के लिए है”
  • २- प्रचंड चण्डिका “ ये वीर भाव युक्त साधको के लिए है”
  • ३- छिन्नमस्तिका “ ये दिव्य भाव की साधना है”

और माँ का मस्तक कटा स्वरूप जो हम अक्सर चित्रों में देखते हैं वो माँ का ब्रह्मांडीय स्वरूप है जिसकी एक झलक भी दुर्लभ है.

इन तीनो भावो की साधना के लिए एक ही मंत्र है जिसका जप २१ दिनों तक रोज ११ माला करना होता है. ये रात्कालीन साधना है अर्थात रात को करनी चाहिए जब आपकी चेतना को कोई हिला ना सके, आसन लाल होना चाहिए और आपके वस्त्र भी लाल होने चाहिए. इस मंत्र को लाल हकीक, मूंगा या सांप की हड्डियों से बनी माला से करना चाहिए और दीपक तेल का जलाना चाहिए और आपकी दिशा दक्षिण होगी.

मंत्र-

ओम हुम वज्र वैरोच्नीये हुम फट 

साधना शुरू करने से पहले सदगुरुदेव का आशीर्वाद लेना ना भूलें क्योकि हम सब की सफलता उन्ही की प्रसन्नता और आशीर्वाद पे टिकी है.


!!! दस महाविद्याओं से पाइए मनचाही कामना !!!



———————काली———————-

लम्बी आयु,बुरे ग्रहों के प्रभाव,कालसर्प,मंगलीक बाधा,अकाल मृत्यु नाश आदि के लिए देवी काली की साधना करें
हकीक की माला से मंत्र जप करें
नौ माला का जप कम से कम करें
मंत्र-क्रीं ह्रीं ह्रुं दक्षिणे कालिके स्वाहा:

———————तारा———————–
तीब्र बुद्धि रचनात्मकता उच्च शिक्षा के लिए करें माँ तारा की साधना
नीले कांच की माला से मंत्र जप करें
बारह माला का जप करें
मंत्र-ॐ ह्रीं स्त्रीं हुम फट
——————-त्रिपुर सुंदरी——————–
व्यक्तित्व विकास पूर्ण स्वास्थ्य और सुन्दर काया के लिए त्रिपुर सुंदरी देवी की साधना करें
रुद्राक्ष की माला का प्रयोग करें
दस माला मंत्र जप अवश्य करें
मंत्र-ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नमः
——————भुवनेश्वरी————————
भूमि भवन बाहन सुख के लिए भुबनेश्वरी देवी की साधना करें
स्फटिक की माला का प्रयोग करें
ग्यारह माला मंत्र जप करें
मन्त्र-ॐ ह्रीं भुबनेश्वरीयै ह्रीं नमः
——————छिन्नमस्ता———————-
रोजगार में सफलता,नौकरी पद्दोंन्ति के लिए छिन्नमस्ता देवी की साधना करें
रुद्राक्ष की माला से मंत्र जप करें
दस माला मंत्र जप करना चाहिए
मंत्र-ॐ श्रीं ह्रीं ऐं वज्र वैरोचानियै ह्रीं फट स्वाहा:
—————–त्रिपुर भैरवी———————–
सुन्दर पति या पत्नी प्राप्ति,प्रेम विवाह,शीघ्र विवाह,प्रेम में सफलता के लिए त्रिपुर भैरवी देवी की साधना करें
मूंगे की माला से मंत्र जप करें
पंद्रह माला मंत्र जप करें
मंत्र-ॐ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा:
——————धूमावती————————
तंत्र मंत्र जादू टोना बुरी नजर और भूत प्रेत आदि समस्त भयों से मुक्ति के लिए धूमावती देवी की साधना करें
मोती की माला का प्रयोग मंत्र जप में करें
नौ माला मंत्र जप करें
मंत्र-ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:
—————–बगलामुखी———————–
शत्रुनाश,कोर्ट कचहरी में विजय,प्रतियोगिता में सफलता के लिए माँ बगलामुखी की साधना करें
हल्दी की माला या पीले कांच की माला का प्रयोग करें
आठ माला मंत्र जप को उत्तम माना गया है
मन्त्र-ॐ ह्लीं बगलामुखी देव्यै ह्लीं ॐ नम:
——————-मातंगी————————-
संतान प्राप्ति,पुत्र प्राप्ति आदि के लिए मातंगी देवी की साधना करें
स्फटिक की माला से मंत्र जप करें
बारह माला मंत्र जप करें
ॐ ह्रीं ऐं भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहा:
——————-कमला————————-
अखंड धन धान्य प्राप्ति,ऋण नाश और लक्ष्मी जी की कृपा के लिए देवी कमला की साधना करें
कमलगट्टे की माला से मंत्र जप करें
दस माला मंत्र जप करना चाहिए
मंत्र-हसौ: जगत प्रसुत्तयै स्वाहा:

13 August 2013

!!! सर्वशक्ति सम्पन्न बगलामुखी साधना !!!


प्रत्येक व्यक्ति चाहे वे अच्छा हो या बुरा उसके शत्रु अवश्य होते है ! किसी का यह कहना की मेरा कोई शत्रु है ही नहीं यह व्यर्थ है क्योंकि उन्हें अपने शत्रु नज़र नहीं आते ! उनके गुप्त शत्रु तो अवश्य होंगे ! जो लोग बार बार शत्रुओं से परेशान है जिनके घर में बार बार तंत्र प्रयोग होते है उनके लिए तो यह प्रयोग कल्पतरु है ! मै हर साल बगलामुखी जयंती पर इस प्रयोग को करता हूँ ! यह प्रयोग मैंने कई बार आजमाया है ! इस प्रयोग से सांप की तरह फन उठाने वाले शत्रु शांत हो जाते है !


एक बार मेरे एक मित्र पर झूठा मुक़दमा बन गया ! वे देखने में बहुत सुंदर था और बॉडी बिल्डिंग करता था ! वे मिस्टर पटिआला था, उसके साथ एक लड़की पढ़ती थी ! वे लड़की हमेशा उससे कहती कि मै तुमसे शादी करना चाहती हूँ पर वो लड़का बहुत धार्मिक था ! वे लड़का एक गरीब घर से था पर वो लड़की बहुत अमीर थी इसलिए वे डरता था ! जब वे बड़े हो गए तो लड़के ने लड़की को समझाया पर वो लड़की किसी भी तरह मानने को तयार नहीं थी ! जब उस लड़के कि शादी हुयी तो उस लड़की ने शादी के बाद लड़के पर केस कर दिया कि मुझे शादी का झांसा दिया और मै पिछले पांच साल से इसके साथ पत्नी कि तरह रह रही हूँ ! लड़का पंजाब पुलिस में था पर लड़की ने DSP को रिश्वत दे दी DSP ने लड़के से कहा या तो इस लड़की से दूसरी शादी करले नहीं तो तुझपर मुक़दमा दर्ज कर दूंगा ! लड़के ने DSP से बात की तो DSP ने कहा मुझे 50000 रुपये दे दो तो मै तुम्हारी मदद कर सकता हूँ ! लड़के ने कहा मेरे पास तो अभी 30000 रुपये ही है बाकी रुपये आपको दो दिन बाद दे दूंगा ! DSP ने कुछ नहीं सुना और उस लड़के पर धारा 376 का मुक़दमा दर्ज कर दिया ! वे लड़का Suspend हो गया और मुझसे आकर मिला ! मैंने उसे बगलामुखी साधना करने को कहा और बगलामुखी साधना के कुछ दिन बाद उस लड़के को reinquiry में क्लीन चीट मिल गयी ! मैंने इस साधना का कई बार इस्तेमाल किया है आप भी इस अद्भुत साधना का लाभ उठाये ! 




यह विद्या शत्रु का नाश करने में अद्भुत है, वहीं कोर्ट, कचहरी में, वाद-विवाद में भी विजय दिलाने में सक्षम है। इसकी साधना करने वाला साधक सर्वशक्ति सम्पन्न हो जाता है। उसके मुख का तेज इतना हो जाता है कि उससे आँखें मिलाने में भी व्यक्ति घबराता है। आँखों में तेज बढ़ेगा, आपकी ओर कोई निगाह नहीं मिला पाएगा एवं आपके सभी उचित कार्य सहज होते जाएँगे। सामनेवाले विरोधियों को शांत करने में इस विद्या का अनेक राजनेता अपने ढंग से इस्तेमाल करते हैं। यदि इस विद्या का सदुपयोग किया जाए तो हित होगा। हम यहाँ पर सर्वशक्ति सम्पन्न बनाने वाली सभी शत्रुओं का शमन करने वाली, कोर्ट में विजय दिलाने वाली, अपने विरोधियों का मुँह बंद करने वाली भगवती बगलामुखी की आराधना साधना दे रहे हैं।


गुरु दिक्षा लेकर मंत्र का सही विधि द्वारा जाप किया जाए तो वह मंत्र निश्चित रूप से सफलता दिलाने में सक्षम होता है।


इस साधना में विशेष सावधानियाँ रखने की आवश्यकता होती है । इस साधना को करने वाला साधक पूर्ण रूप से शुद्ध होकर (तन, मन, वचन) रात्री काल में पीले वस्त्र पहनकर व पीला आसन बिछाकर, पीले पुष्पों का प्रयोग कर, पीली (हल्दी या हकीक ) की 108 दानों की माला द्वारा मंत्रों का सही उच्चारण करते हुए कम से कम 11 माला का नित्य जाप 21 दिनों तक या कार्यसिद्ध होने तक करे या फिर नित्य 108 बार मंत्र जाप करने से भी आपको अभीष्ट सिद्ध की प्राप्ति होगी।खाने में पीला खाना व सोने के बिछौने को भी पीला रखना साधना काल में आवश्यक होता है वहीं नियम-संयम रखकर ब्रह्मचारीय होना भी आवश्यक है।
संक्षिप्त साधना विधि, छत्तीस अक्षर के मंत्र का विनियोग ऋयादिन्यास, करन्यास, हृदयाविन्यास व मंत्र इस प्रकार है--


विनियोग


ऊँ अस्य श्री बगलामुखी मंत्रस्य नारद ऋषिः
त्रिष्टुप छंदः श्री बगलामुखी देवता ह्लीं बीजं स्वाहा शक्तिः प्रणवः कीलकं ममाभीष्ट सिद्धयार्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादि न्यास-नारद ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुय छंद से नमः मुखे, बगलामुख्यै नमः, ह्मदि, ह्मीं बीजाय नमः गुहये, स्वाहा शक्तये नमः पादयो, प्रणवः कीलकम नमः सर्वांगे।


हृदयादि न्यास


ऊँ ह्मीं हृदयाय नमः बगलामुखी शिरसे स्वाहा, सर्वदुष्टानां शिरवायै वषट्, वाचं मुखं वदं स्तम्भ्य कवचाय हु, जिह्वां भीलय नेत्रत्रयास वैषट् बुद्धिं विनाशय ह्मीं ऊँ स्वाःआआ फट्।
ध्यान


मध्ये सुधाब्धि मणि मंडप रत्नवेघां 
सिंहासनो परिगतां परिपीत वर्णाम्। 
पीताम्बरा भरणमाल्य विभूषितांगी 
देवीं भजामि घृत मुदग्र वैरिजिह्माम ।।


मंत्र इस प्रकार है-- 


ऊँ ह्लीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ऊँ फट स्वाहा।


मंत्र जाप लक्ष्य बनाकर किया जाए तो उसका दशांश होम करना चाहिए। जिसमें चने की दाल, तिल एवं शुद्ध घी का प्रयोग करें एवं समिधा में आम की सूखी लकड़ी या पीपल की लकड़ी का भी प्रयोग कर सकते हैं। मंत्र जाप पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख कर करना चाहिए।

|| मन्त्र || 

ॐ रीम श्रीम बगलामुखी वाचस्पतये नमः ! 

|| साधना विधि || 

इस मन्त्र को बगलामुखी जयंती को पूरी रात लिंग मुद्रा का प्रदर्शन करते हुए सारी रात जप करते रहे यदि थक जाये तो थोडा आराम कर ले पर आसन से न उठे ! इस प्रकार यह मन्त्र एक रात में सिद्ध हो जाता है ! दुसरे दिन किसी लड़की को पीला प्रसाद जरूर खिलाये और मंदिर में देवी दुर्गा को भी पीले प्रसाद का भोग लगाये ! 

|| प्रयोग विधि || 


जब प्रयोग करना हो तो इस मन्त्र को 21 दिन 21 माला रात्रि में हल्दी की माला से जपे आपकी शत्रु बाधा से सम्बंधित सभी समस्याए शांत हो जाएगी ! 

यह मेरी अनुभूत साधना है आप एक बार इस साधना को जरूर करे !




॥ रावण रचित शिव तांडव स्तोत्र ॥





जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌। 
डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥

सघन जटामंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥

अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे। 

धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।
कृपाकटाक्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥

पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा।

जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥

जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।

सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥

इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥

इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजीहमको अक्षय सम्पत्ति दें।

कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥

जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।

नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥

नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।

प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥

फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों के काटने वाले, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुरहंता, अंधकारसुरनाशक और मृत्यु के नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥

कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारनेवाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥

अत्यंत शीघ्र वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥

कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिकराजाओं के समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।

कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌ ।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥

कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥

देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥

प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌ ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥

इस परम उत्तम शिवतांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्तकंठ सेपढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु मेंभक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥

शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।

॥ इति शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥

शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।

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हर किसी के मन में एक ख्याल हमेशा आता है कि क्या कोई ऐसा मंत्र है जो आपको सारा वैभव और सिद्धियां दे सकता है। मंत्रों में बड़ी शक्ति होती है, एक मंत्र का सही जाप आपकी जिंदगी बदल सकता है। ऐसा ही एक स्तोत्र है शिवतांडव स्तोत्र, जिसके जरिए आप न केवल धन-संपत्ति पा सकते हैं बल्कि आपका व्यक्तित्व भी निखर जाएगा। शिव तांडव स्तोत्र रावण द्वारा रचा गया है, इसकी कठिन शब्दावली और अद्वितीय वाक्य रचना इसे अन्य मंत्रों से अलग बनाती है। आपके जीवन में किसी भी सिद्धि की महत्वाकांक्षा हो इस स्तोत्र के जाप से आपको आसानी से प्राप्त हो जाएगी। सबसे ज्यादा फायदा आपकी वाक सिद्धि को होगा, अगर अभी तक आप दोस्तों में या किसी ग्रुप में बोलते हुए अटकते हैं तो यह समस्या इस स्तोत्र के पाठ से दूर हो जाएगी। इसकी शब्द रचना के कारण व्यक्ति का उच्चरण साफ हो जाता है। दूसरा इस मंत्र से नृत्य, चित्रकला, लेखन, युद्धकला, समाधि, ध्यान आदि कार्यो में भी सिद्धि मिलती है। इस स्तोत्र का जो भी नित्य पाठ करता है उसके लिए सारे राजसी वैभव और अक्षय लक्ष्मी भी सुलभ होती है।

शिव ताण्डव स्तोत्र ( संस्कृत:शिवताण्डवस्तोत्रम् ) महान विद्वान एवं परम शिवभक्त लंकाधिपति रावण द्वारा विरचित भगवान शिव का स्तोत्र है। मान्यता है कि रावण ने कैलाश पर्वत ही उठा लिया था और जब पूरे पर्वत को ही लंका ले चलने को उद्यत हुआ तो भोले बाबा ने अपने अंगूठे से तनिक सा जो दबाया तो कैलाश फिर जहां था वहीं अवस्थित हो गया। शिव के अनन्य भक्त रावण का हाथ दब गया और वह आर्तनाद कर उठा - "शंकर शंकर" - अर्थात क्षमा करिए, क्षमा करिए और स्तुति करने लग गया; जो कालांतर में शिव तांडव स्त्रोत्र कहलाया।

काव्य शैली

शिवताण्डव स्तोत्र स्तोत्रकाव्य में अत्यन्त लोकप्रिय है। यह पञ्चचामर छन्द में आबद्ध है। इसकी अनुप्रास और समास बहुल भाषा संगीतमय ध्वनि और प्रवाह के कारण शिवभक्तों में प्रचलित है। सुन्दर भाषा एवं काव्य-शैली के कारण यह स्तोत्रों विशेषकर शिवस्तोत्रों में विशिष्ट स्थान रखता है।




07 August 2013

!!! सप्त ऋषि : भारत के महान सात संत !!!

आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु के काल में जन्में सात महान ‍ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।

वेदों के रचयिता ऋषि : ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।

वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- 1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव और 7.शौनक।

पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।

महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।

1. वशिष्ठ : राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।

2.विश्वामित्र : ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।

माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

3. कण्व : माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।

4. भारद्वाज : वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।

ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।

5. अत्रि : ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।

6. वामदेव : वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं।

7. शौनक : शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।

फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।

इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है।

!!! माया शक्ति साधना !!!



वर्तमान युग में पग पग पर प्रतिस्पर्धा है ,और हर कोई जीतने का इच्छुक है, हर कोई अपना प्रभाव डाल कर अपने कार्य को साधना चाहता है ,पर क्या इतना सहज है...... नहीं ना..... हम कितना भी परिश्रम कर ले जब तक इष्ट बल साथ न हो , या भाग्य आपके परिश्रम को अनुकूलता न दे तब तक सफलता तो कोसो दूर ही रहती है.नीचे जो प्रयोग आप सभी के सामने रख रहा हूँ उसका अपने व्यवसाय और नौकरी में मैंने कई बार लाभ उठाया है , आखिर इतना महत्वपूर्ण ज्ञान होता ही इसलिए है की हम उसका उचित लाभ उठा सके. हालाँकि इसका मूल विधान इतना प्रभावकारी है की यदि मात्र व्यक्ति परिश्रम से उसे सिद्ध कर ले तब उसकी फूक मात्र व्यक्ति और समूह को निद्रा में डाल सकती है सम्मोहित कर सकती है. परन्तु उस का दुरूपयोग भी हो सकता है, इसलिए जितना सामान्य व्यक्ति को लाभ दे सके उतना ही विधान मैं यहाँ रख रहा हूँ. ये प्रयोग भगवती काम कला काली से सम्बंधित है,और इसके प्रभाव से साधक का व्यक्तित्व माया शक्ति से परिपूर्ण हो जाता है,कोई भी ऐसा नहीं रहता है 


  • जो उसके प्रभाव से बच जाये.
  • नौकरी में प्रमोशन का विषय हो
  • घर का विवाद सुलझाना हो
  • पत्नी या पति को अनुकूल बनाना हो
  • घर का कोई सदस्य गलत मार्ग पर जा रहा हो, और उसे सही मार्ग पर लाना हो
  • व्यवसाय का कोई महत्वपूर्ण सहमती पत्र चाहिए
  • नौकरी के लिए साक्षात्कार में सफलता पाना हो
  • पड़ोसियों को अपने अनुकूल बनाना हो
  • समाज और खेल में प्रतिष्ठा अर्जित करनी हो


उपरोक्त सभी स्थिति में ये प्रयोग अचूक वरदान साबित होता है. कृष्ण पक्ष के किसी भी शुक्रवार से इस साधना को प्रारंभ करके अगले शुक्रवार तक करना है. समय रात्रि का मध्यकाल होगा. लाल वस्त्र, और लाल आसन प्रयोग करना है .पश्चिम दिशा की और मुख करके मंत्र जप होगा.सिद्धासन या वज्रासन का प्रयोग किया जाता है. जमीन को पानी से धोकर साफ़ कर लीजिए और उस पर एक त्रिकोण जो अधोमुखी होगा कुमकुम से उसका निर्माण कर लीजिए. यन्त्र नीचे दी गयी आकृति के समान ही बनेगा. मध्य में एक मिटटी का ऐसा पात्र स्थापित होगा, जिसमे अग्नि प्रज्वलित हो रही होगी. यन्त्र निर्माण के बाद सद्गुरुदेव तथा भगवान गणपति का पूजन होगा. पूजन के पश्चात हाथ में जल लेकर माया शक्ति की प्राप्ति का संकल्प तथा विनियोग करना है और निम्न ध्यान मंत्र का ७ बार उच्चारण करना है . 


विनियोग-


अस्य माया मन्त्रस्य परब्रम्ह ऋषिः त्रिष्टुप छन्दः परशक्ति देवता पुष्कर बीजं माया कीलकं पूर्ण माया प्रयोग सिद्धयर्थे जपे विनियोगः II

ध्यान मंत्र-

तापिच्छ-नीलां शर-चाप-हस्तां सर्वाधिकाम् श्याम-रथाधिरुढाम् I
नमामि रुद्रावसनेन लोकां सर्वान् सलोकामपि मोहयंतिम् II 


ध्यान मंत्र के बाद देवी का पूजन कुमकुम से रंगे अक्षतों और लाल जवा पुष्पों से करना है,गूगल की धुप और तेल का दीपक प्रज्वलित करना है. नैवेद्य में खीर अर्पित कर दे . और त्रिकोण के प्रत्येक कोनों पर एक-एक धतूरे का फल स्थापित कर दे. “ह्रीं” बीज से २१ बार प्राणायाम करे ,और इसके बाद गूगल,लोहबान मिलाकर मूल मन्त्र बोलते हुए यन्त्र के मध्य में स्थापित अग्निपात्र में सूकरी मुद्रा से आहुति दे. इस प्रकार २१६ मन्त्र का उच्चारण करते हुए आहुति दें. और जप के बाद ध्यान मंत्र का पुनः ७ बार उच्चारण करें. खीर को कही एकांत स्थान पर पत्तल में डाल कर रख दें.



मूल मंत्र-ओं ह्रीं भू: ह्रीं भुवः ह्रीं स्वः ह्रीं शिवान्घ्री युग्मे विनिविष्टचित्तं सर्वेषां दृष्टयो हृदयस्य बालम् रिपुणाम् निद्रां विवशम् करोति महामाये मां परिरक्ष नित्यं ह्रीं स्वः ह्रीं भुवः ह्रीं भू: ओं स्वाहा II 


यही क्रम आपको आगामी शुक्रवार तक नित्य करना है. इसके बाद जब भी आपको किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए जाना हो , मन्त्र को ७ बार बोलकर हाथो पर फूक मार ले और हाथ को पूरे शरीर पर फेर ले. आप खुद ही प्रभाव देखकर आश्चर्यचकित हो जायेगे. तो फिर देर कैसी, यदि ऐसी साधना पाकर भी हम ना कर सके और असफल होते रहे जीवन में , तो इसमें किसका दोष रहेगा.



!!! बीज मंत्र की महिमा !!!


मंत्र शास्त्र में बीज मंत्रों का विशेष स्थान है। मंत्रों में भी इन्हें शिरोमणि माना जाता है क्योंकि जिस प्रकार बीज से पौधों और वृक्षों की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार बीज मंत्रों के जप से भक्तों को दैवीय ऊर्जा मिलती है। ऐसा नहीं है कि हर देवी-देवता के लिए एक ही बीज मंत्र का उल्लेख शास्त्रों में किया गया है। बल्कि अलग-अलग देवी-देवता के लिए अलग बीज मंत्र हैं।


“ऐं”
सरस्वती बीज । यह मां सरस्वती का बीज मंत्र है, इसे वाग् बीज भी कहते हैं। जब बौद्धिक कार्यों में सफलता की कामना हो, तो यह मंत्र उपयोगी होता है। जब विद्या, ज्ञान व वाक् सिद्धि की कामना हो, तो श्वेत आसान पर पूर्वाभिमुख बैठकर स्फटिक की माला से नित्य इस बीज मंत्र का एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


“ह्रीं”
भुवनेश्वरी बीज । यह मां भुवनेश्वरी का बीज मंत्र है। इसे माया बीज कहते हैं। जब शक्ति, सुरक्षा, पराक्रम, लक्ष्मी व देवी कृपा की प्राप्ति हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


“क्लीं”
काम बीज । यह कामदेव, कृष्ण व काली इन तीनों का बीज मंत्र है। जब सर्व कार्य सिद्धि व सौंदर्य प्राप्ति की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


“श्रीं
लक्ष्मी बीज । यह मां लक्ष्मी का बीज मंत्र है। जब धन, संपत्ति, सुख, समृद्धि व ऐश्वर्य की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पश्चिम मुख होकर कमलगट्टे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


"ह्रौं"
शिव बीज । यह भगवान शिव का बीज मंत्र है। अकाल मृत्यु से रक्षा, रोग नाश, चहुमुखी विकास व मोक्ष की कामना के लिए श्वेत आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


"गं"
गणेश बीज । यह गणपति का बीज मंत्र है। विघ्नों को दूर करने तथा धन-संपदा की प्राप्ति के लिए पीले रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


"श्रौं"
नृसिंह बीज । यह भगवान नृसिंह का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, सर्व रक्षा बल, पराक्रम व आत्मविश्वास की वृद्धि के लिए लाल रंग के आसन पर दक्षिणाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या मूंगे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


“क्रीं”
काली बीज । यह काली का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, पराक्रम, सुरक्षा, स्वास्थ्य लाभ आदि कामनाओं की पूर्ति के लिए लाल रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


“दं”
विष्णु बीज । यह भगवान विष्णु का बीज मंत्र है। धन, संपत्ति, सुरक्षा, दांपत्य सुख, मोक्ष व विजय की कामना हेतु पीले रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर तुलसी की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


06 August 2013

!!! शिवपुराण में शिव-शक्ति का संयोग !!!


शिव पुराण के अनुसार शिव-शक्ति का संयोग ही परमात्मा है। शिव की जो पराशक्ति है उससे चित्‌ शक्ति प्रकट होती है। चित्‌ शक्ति से आनंद शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, आनंद शक्ति से इच्छाशक्ति का उद्भव हुआ है, इच्छाशक्ति से ज्ञानशक्ति और ज्ञानशक्ति से पांचवीं क्रियाशक्ति प्रकट हुई है। इन्हीं से निवृत्ति आदि कलाएं उत्पन्न हुई हैं। 

चित्‌ शक्ति से नाद और आनंदशक्ति से बिंदु का प्राकट्य बताया गया है। इच्छाशक्ति से 'म' कार प्रकट हुआ है। ज्ञानशक्ति से पांचवां स्वर 'उ' कार उत्पन्न हुआ है और क्रियाशक्ति से 'अ' कार की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार प्रणव (ॐ) की उत्पत्ति हुई है।

शिव से ईशान उत्पन्न हुए हैं, ईशान से तत्पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ है। तत्पुरुष से अघोर का, अघोर से वामदेव का और वामदेव से सद्योजात का प्राकट्य हुआ है। इस आदि अक्षर प्रणव से ही मूलभूत पांच स्वर और तैंतीस व्यजंन के रूप में अड़तीस अक्षरों का प्रादुर्भाव हुआ है। उत्पत्ति क्रम में ईशान से शांत्यतीताकला उत्पन्न हुई है। ईशान से चित्‌ शक्ति द्वारा मिथुनपंचक की उत्पत्ति होती है।

अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थिति और सृष्टि इन पांच कृत्यों का हेतु होने के कारण उसे पंचक कहते हैं। यह बात तत्वदर्शी ज्ञानी मुनियों ने कह है। वाच्य वाचक के संबंध से उनमें मिथुनत्व की प्राप्ति हुई है। कला वर्णस्वरूप इस पंचक में भूतपंचक की गणना है। आकाशादि के क्रम से इन पांचों मिथुनों की उत्पत्ति हुई है। इनमें पहला मिथुन है आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पांचवां मिथुन पृथ्वी है।

इनमें आकाश से लेकर पृथ्वी तक के भूतों का जैसा स्वरूप बताया गया है, वह इस प्रकार है - आकाश में एकमात्र शब्द ही गुण है, वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं, अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप इन तीन गुणों की प्रधानता है, जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रस ये चार गुण माने गए हैं तथा पृथ्वी शब्द, स्पर्श, रूप , रस और गंध इन पांच गुणों से संपन्न है। यही भूतों का व्यापकत्व कहा गया है अर्थात्‌ शब्दादि गुणों द्वारा आकाशदि भूत वायु आदि परवर्ती भूतों में किस प्रकार व्यापक है, यह दिखाया गया है।

इसके विपरीत गंधादि गुणों के क्रम से वे भूत पूर्ववर्ती भूतों से व्याप्य हैं अर्थात्‌ गंध गुणवाली पृथ्वी जल का और रसगुणवाला जल अग्नि का व्याप्य है, इत्यादि रूप से इनकी व्याप्यता को समझना चाहिए। पांच भूतों (महत्‌ तत्व) का यह विस्तार ही प्रपंच कहलाता है।




सर्वसमष्टि का जो आत्मा है, उसी का नाम विराट है और पृथ्वी तल से लेकर क्रमशः शिवतत्व तक जो तत्वों का समुदाय है वही ब्रह्मांड है। वह क्रमशः तत्वसमूह में लीन होता हुआ अंततोगत्वा सबके जीवनभूत चैतन्यमय परमेश्वर में ही लय को प्राप्त होता है और सृष्टिकाल में फिर शक्ति द्वारा शिव से निकल कर स्थूल प्रपंच के रूप में प्रलयकालपर्यंत सुखपूर्वक स्थित रहता है।

अपनी इच्छा से संसार की सृष्टि के लिए उद्यत हुए महेश्वर का जो प्रथम परिस्पंद है, उसे शिवतत्व कहते हैं। यही इच्छाशक्ति तत्व है, क्योंकि संपूर्ण कृत्यों में इसी का अनुवर्तन होता है। ज्ञान और क्रिया, इन दो शक्तियों में जब ज्ञान का आधिक्य हो, तब उसे सदाशिवतत्व समझना चाहिए, जब क्रियाशक्ति का उद्रेक हो तब उसे महेश्वर तत्व जानना चाहिए तथा जब ज्ञान और क्रिया दोनों शक्तियां समान हों तब वहां शुद्ध विद्यात्मक तत्व समझना चाहए।

जब शिव अपने रूप को माया से निग्रहीत करके संपूर्ण पदार्थों को ग्रहण करने लगता है, तब उसका नाम पुरुष होता है।


04 August 2013

!!! तिलक का चमत्कार !!!



 ,,,,तिलक कितना लाभकारी
हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है इसे सात्विकता का प्रतीक माना जाता है 


विजयश्री प्राप्त करने के उद्देश्य से रोली, हल्दी, चन्दन या फिर कुम्कुम का तिलक लगाया जाता है| इसी प्रकार शुभकामनाओं के रुप में हमारे तीर्थस्थानों पर, विभिन्न पर्वो-त्यौहारों, विशेष अतिथि आगमन पर लगाया जाता है । 

दरअसल, हमारे शरीर में सात सूक्ष्म ऊर्जा केंद्र होते हैं, जो अपार शक्ति के भंडार हैं। इन्हें चक्र कहा जाता है। माथे के बीच में जहां तिलक लगाते हैं, वहां आज्ञाचक्र होता है।यह चक्र हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है, जहां शरीर की प्रमुख तीन नाडि़यां इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना आकर मिलती हैं, इसलिए इसे त्रिवेणी या संगम भी कहा जाता है। यह गुरु स्थान कहलाता है। यहीं से पूरे शरीर का संचालन होता है। यही हमारी चेतना का मुख्य स्थान भी है। इसी को मन का घर भी कहा जाता है। 


इसी कारण यह स्थान शरीर में सबसे ज्यादा पूजनीय है। योग में ध्यान के समय इसी स्थान पर मन को एकाग्र किया जाता है।इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन अत्यधिक होने लगा ताकि उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें । इस आसान तरीके से सर्वसाधारण की रुचि धार्मिकता की ओर, आत्मिकता की ओर अग्रसर हुई | तत्व दर्शन के अनुसार चन्दन का तिलक या त्रिपूंड उसकी प्रकृति प्रायः शीतल होने की वजह से इसे मस्तिष्क पर लगाया जाता है ताकि हमारे विचार-भाव शीतलता, प्रसन्नता, और शान्ति प्रदान करने वाले हों । 


तिलक भिन्नता सजोये होने की वजह से श्वेत और रक्तचन्दन भक्ति का प्रतीक, इसका प्रयोग भजनामंदी किस्म के लोग करते है । केसर व गोरोचन ज्ञान-वैराग्य का प्रतीक, ज्ञानी तत्वचिन्तक इसका उपयोग करते है । हमारी संस्कृति में किसी भी पूजा, पाठ, यज्ञ, अनुष्ठान आदि का शुभारंभ श्रीगणेश पूजा से आरंभ होता है। उसी प्रकार बिना तिलक धारण किए कोई भी पूजा-प्रार्थना आरंभ नहीं होती। 

धर्म मान्यतानुसार सूने मस्तक को अशुभ और असुरक्षित माना जाता है। इसीलिए तिलक लगाने की मान्यता है यह तिलक चंदन, रोली, कुंकुम, सिंदूर तथा भस्म का लगाया जाता है। तंत्रशास्त्र में तिलक की अनेक क्रिया-विधियां विभिन्न कार्यों की सफलता के लिए बताई गई हैं। तंत्र शास्त्र में शरीर के तेरह भागों पर तिलक करने की बात कही गई है, लेकिन समस्त शरीर का संचालन मस्तिष्क करता है, इसलिए इस पर तिलक करने की परंपरा अधिक प्रचलित है। तिलक लगाने में सहायक हाथ की अलग-अलग अंगुलियों का भी अपना महत्व है।


अनामिका शांति दोक्ता,मध्यमायुष्- करी भवेत्। 
अंगुष्छठ:पुष्टिव:प- रोत्त,तर्जनी मोक्ष दायिनी।। 



अर्थात् तिलक धारण करने में अनामिका अंगुली मानसिक शांति प्रदान करती है, मध्यमा अंगुली मनुष्य की आयु वृद्धि करती है, अंगूठा प्रभाव, ख्याति और आरोग्य प्रदान करता है, इसलिए विजय तिलक अंगूठे से ही करने की परम्परा है। तर्जनी मोक्ष देने वाली अंगुली है। इसलिए मृतक को तर्जनी से तिलक लगाते हैं।सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार, अनामिका और अंगूठा तिलक करने में सदा शुभ माने गए हैं। 


अनामिका अंगुली सूर्य का प्रतिनिधित्व करती है। इसका अर्थ यह है कि साधक सूर्य के समान दृढ, तेजस्वी, निष्ठा-प्रतिष्ठा और सम्मान वाला बने। दूसरा अंगूठा है, जो हाथ में शुक्र क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। शुक्र ग्रह जीवनी शक्ति का प्रतीक है। इससे साधक के जीवन में शुक्र के समान ही नव जीवन का संचार होने की मान्यता है।तिलक का हमारे जीवन में अत्यधिक महत्व है शुभघटना से लेकर अन्य कई धार्मिक अनुष्ठानों, संस्कारों, युद्ध लडने जाने वाले को शुभकामनाँ के तौर पर तिलक लगाया जाता है,

1,मेष- मेष राशि वाले लाल कुमकुम का तिलक लगाएं।
2,वृष- वृष राशि के स्वामी शुक्र हैं इसलिए किसी भी हर कार्य में सफलता के लिए दही का तिलक लगाएं।
3,मिथुन- इस राशि वालो को बुध को बली करने के लिए अष्टगंध का तिलक लगाना चाहिए।
4,कर्क – कर्क राशि के स्वामी चन्द्र को प्रसन्न करने के लिए सफेद चंदन का तिलक लगाएं।
5,सिंह- इस राशि के स्वामी सूर्य को बली करने के लिए लाल चंदन का तिलक लगाएं।
6,कन्या- कन्या राशि के स्वामी बुध को बली करने के लिए अष्टगंध का तिलक लगाएं।
7,तुला- तुला वाले जातकों को दही का तिलक लगाना चाहिए।
8,वृश्चिक- इस राशि के वालों को सिंदुर का तिलक लगाना चाहिए।
9,धनु – इस राशि के स्वामी गुरू हैं इसलिए हल्दी का तिलक लगाएं।
10,मकर- मकर राशि के स्वामी शनि को प्रसन्न करने के लिए काजल का तिलक लगाना चाहिए।
11,कुंभ- कुंभ के स्वामी भी शनि है इसलिए काजल या भस्म का तिलक लगाएं।
12,मीन- मीन राशि वाले केसर का तिलक करें